DHIKKAR by Munshi premchand.

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About

अनाथ और विधवा मानी के लिये जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा सहारा न था। वह पाँच साल की थी, जब उसके पिता चल बसे थे। माँ ने किसी तरह उसका पालन पोषण किया। सोलह साल की उम्र में मुहल्ले वालों की मदद से उसकी शादी भी हो गई पर एक साल के अंदर ही माँ और पति दोनों दुनिया से विदा हो गये। इस दुःख और तकलीफ़ में उसे उपने चाचा वंशीधर के सिवा और कोई नजर न आया, जो उसे सहारा देता। वंशीधर ने अब तक जो व्यवहार किया था, उससे यह उम्मीद न थी कि वहाँ वह शांति के साथ रह सकेगी पर वह सब कुछ सहने और सब कुछ करने को तैयार थी। वह गाली, झिड़की, मारपीट सब सह लेगी, कोई उस पर शक तो न करेगा, उस पर झूठा आरोप तो न लगेगा, अय्याश और लुच्चों से तो उसकी रक्षा होगी। वंशीधर को कुल मर्यादा की कुछ चिंता हुई। मानी की विनती को मना न कर सके। चिता

लेकिन दो चार महीने में ही मानी को मालूम हो गया कि इस घर में बहुत दिनों तक उसका गुज़ारा न होगा। वह घर का सारा काम करती, उनके इशारों पर नाचती, सबको खुश रखने की कोशिश करती पर न जाने क्यों चाचा और चाची दोनों उससे जलते रहते। उसके आते ही नौकरानी को हटा दिया गया। नहलाने-धुलाने के लिये एक लड़का था उसे भी जवाब दे दिया गया पर इतना होने पर भी चाचा और चाची न जाने क्यों उससे मुँह फुलाये रहते। कभी चाचा धौंस जमाते, कभी चाची कोसती, यहाँ तक कि उसकी चचेरी बहन ललिता भी बात-बात पर उसे गालियाँ देती। घर में सिर्फ उसके चचेरे भाई

गोकुल को ही उससे सहानुभूति थी। उसी की बातों में कुछ अपनापन मिलता था। वह उपनी माँ का स्वभाव जानता था। अगर वह उसे समझाने की कोशिश करता, या खुल्लमखुल्ला मानी का पक्ष लेता, तो मानी का एक पल भी घर में रहना मुश्किल हो जाता, इसलिये उसकी हमदर्दी मानी को दिलासा देने तक रह जाती थी। वह कहता- बहन, मेरी कहीं नौकरी लग जाने दो, फिर तुम्हारी तकलीफ़ों का अंत हो जायगा। तब देखँगा, कोौन तुम्हें टेढ़ी आँखों से देखता है। जब तक पढ़ता हूँ,

तभी तक तुम्हारे बुरे दिन हैं मानी ये प्रेम से भरी हुई बात सुनकर खिल जाती और उसका रोम-रोम गोकुल को आशीर्वाद देने लगता। आज ललिता की शादी है। सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है। गहनों की झनकार से घर गुँज रहा है। मानी भी मेहमानों को देख-देखकर

खुश हो रही है। उसके शरीर पर कोई जेवर नहीं है और न उसे सुंदर कपड़े दिये गये हैं, फिर भी उसके चेहरे पर खुशी है।

आधी रात हो गयी थी। शादी का मुहूर्त करीब आ गया था। ससुराल से चढ़ावे की चीजें आयीं। सभी औरतें उत्सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं। ललिता को गहने पहनाये जाने लगे। मानी के दिल में बड़ी इच्छा हुई कि जाकर दुल्हन को देखे। अभी जो बच्ची थी, उसे आज दुल्हन के रूप में देखने से” ने की इच्छा वो न रोक सकी। वह मुस्कराती हुई कमरे में घुसी। तभी उसकी चाची ने झिड़ककर कहा- “तुझे यहाँ किसने बुलाया, निकल जा यहाँ मानी ने बड़े-बड़े दुःख सहे थे, पर आज की वह झिड़की उसके दिल में बाण की तरह चुभ गयी । उसका मन उसे धिक्कारने लगा। ‘तेरें छिछोरेपन का यही इनाम है। यहाँ सुहागों के बीच में तेरे आने की क्या जरूरत थी।’ वह खिसियाई हुई कमरे से निकली और अकेले में बैठकर रोने के लिये ऊपर जाने लगी। अचानक सीढ़ियों पर उसका इंद्रनाथ से सामना हुआ। इंद्रनाथ गोकुल के साथ पढ़ता था और उसका जिगरी दोस्त था। वह भी शादी में आया

हुआ था। इस वक्त गोकुल को खोजने के लिये ऊपर आया था। मानी को वह दो-बार देख चुका था और यह भी जानता था कि यहाँ उसके साथ बड़ा बुरा

व्यवहार किया जाता है। चाची की बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गयी थी। मानी को ऊपर जाते देखकर वह उसके मन का भाव समझ गया और

उसे दिलासा देने के लिये ऊपर आया, मगर दरवाजा अंदर से बंद धा। उसने दरवाजे की दरार से अंदर झाँका। उसने धीरे से कहा- “मानी, दरवाजा खोल दो”।

मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गयी और गंभीर आवाज़ में बोली- “क्या काम है?

इंद्रनाथ ने कहा- “तुम्हारे पैर पड़ता हूँ मानी, दरवाज़ा खोल दो”।

मानी टेबल के पास खड़ी रो रही थी।

यह प्रेम में डूबी हुई विनती मानी के लिये अनोखी थी। इस निर्दय संसार में कोई उससे ऐसे विनती भी कर सकता है, इसकी उसने सपने में भी कल्पना न की थी। मानी ने काँपते हुए हाथों से दरवाज़ा खोल दिया। इंद्रनाथ जल्दी से कमरे में घुसा, देखा कि छत से पंखे के कड़े से एक रस्सी लटक रही है। उसका दिल काँप उठा। उसने तुरंत जेब से चाकू निकालकर रस्सी काट दी और बोला- “क्या करने जा रही थी मानी? जानती हो, इस अपराध की क्या सज़ा है?”

मानी ने गर्दन झुकाकर कहा- क्या इस सज़ा से कोई और सज़ा ज्यादा कठोर हो सकती है? जिसकी सूरत से लोगों को घृणा है, उसे मरने के लिये भी अगर कठोर सजा दी जाय, तो में यही कहूँगी कि भगवान् के दरबार में न्याय नाम की चीज़ नहीं है। तुम मेरी दशा का अनुभव नहीं कर सकते”। इंद्रनाथ की आँखें नम हो गयीं। मानी की बातों में कितना कड़वा सच भरा हुआ था। वो बोला- “हमेशा ये दिन नहीं रहेंगे मानी। अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्हारा कोई नहीं है, तो यह तुम्हारा भ्रम है। संसार में कम-से-कम एक इंसान ऐसा है, जिसे तुम्हारी जान अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी है। तभी गोकुल आता हुआ दिखाई दिया। मानी कमरे से निकल गयी। इंद्रनाथ के शब्दों ने उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया। उसका क्या मतलब है, यह उसकी समझ में न आया। फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थक लग रहा था। उसके अंधकार भरे जीवन में एक रौशनी का उदय हो गया था।

केदारनाथ को वहाँ बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को कुछ खटका। उसके हावभाव बदल गए। वो कठोर आवाज़ में बोला- “तुम यहाँ कब आये?

इंद्रनाथ ने बिना झिझके कहा- “तुम्हीं को खोजला हुआ यहाँ आया था। तुम यहाँ न मिले तो नीचे लौटा रहा था, अगर चला गया होता तो इस वक्त तुम्हें यह कमरा बंद मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती”। गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध को छिपाने के लिये कोई बहाना बना रहा है। वो तीखी आवाज़ में बोला- “तुम यह विश्वासघात करोगे, मुझे ऐसी

आशा न थी”।

इंद्रनाथ का चेहरा लाल हो गया। वह गुस्से में खड़ा हो गया और बोला- “न मुझे यह आशा थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लांछन लगा दोगे। मुझे न

मालूम था कि तुम मुझे इतना नीच और चालाक समझते हो। मानी तुम्हारे लिये अपमान की चीज़ होगी, मेरे लिये वह श्रद्धा के लायक है और रहेगी। मुझे तुम्हारे सामने अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं है, लेकिन मानी मेरे लिये उससे कहीं पवित्र है, जितना तुम समझते हो। में नहीं चाहता था कि इस वक्त

तुमसे ये बातें कहूँ। इसके लिये किसी और मौके की राह देख रहा था, लेकिन आज कहना पड़ रहा है। मैं यह तो जानता था कि मानी का तुम्हारे घर में कोई सम्मान नहीं, लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और पूणा करने योग्य समझते हो, यह आज तुम्हारी

माँ की बातें सुनकर मालूम हुआ। सिर्फ इतनी-सी बात के लिये कि वह चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्हारी माँ ने उसे बुरी तरह झिड़का, जैसे तुम कहोगे, , इसमें मैं क्या करूँ, मैं कर ही क्या सकता हूँ। जिस घर में एक अनाथ औरत पर इतना अत्याचार हो, उस घर

कोई को भी न कुत्ते भी झिडकेगा। पानी पीना भी पाप है।

का

अगर तुमने अपनी माँ को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती। तुम इस इल्जाम से नहीं बच सकते। तुम्हारे घर में आज जश्न मैं तुम्हारे माता-पिता से कुछ बातचीत नहीं कर सकता, लेकिन तुमसे कहने में संकोच नही है कि मानी को मैं अपना जीवनसाथी बनाकर अपने को धन्य समझेंगा। मैंने सोचा था, नौकरी और घर ढूँढने के बाद यह बात करूँगा पर मुझे डर है कि और देर करने में शायद मानी से हाथ धोना पड़े, इसलिये तुम्हें है,

और तुम्हारे घर वालों को चिंता से आजाद करने के लिये में आज ही यह प्रस्ताव दे देता हूँ। गोकुल के दिल में इंद्रनाथ के प्रति ऐसी श्रद्धा कभी न हुई थी। उस पर शक करके वह बहुत ही शर्मिंदा हुआ। उसने यह अनुभव भी किया कि माँ के डर

से में मानी के बारे में चुप रहकर कायरता का दोषी बना हूँ। यह सिर्फ़ कायरता थी और कुछ नहीं। वो कुछ झेपता हुआ बोला- “अगर अम्मों ने मानी को इस बात झिड़का तो वह उनकी मूर्खता है। में उनसे मौका मिलते ही पूछूँगा”

इंद्रनाथ- “अब पूछने-पाछने का समय निकल गया मैं चाहता हूँ कि तुम मानी से इस बारे में सलाह करके मुझे बता दो। मैं नहीं चाहता कि अब वह यहाँ पल-भर भी रहे। मुझे आज पता लगा कि उसमें बहुत आत्म सम्मान है और सच पूछो तो में उसके स्वभाव पर मोहित हो गया हूँ। ऐसी औरत अत्याचार

नहीं सह सकती

गोकुल ने जरते उरते कहा- “लेकिन तुम्हें मालूम है, वह विधवा है?” डरते-

जब हम किसी के हाथों अपना अच्छा होते देखते हैं जिसकी हमने कल्पना भी ना की हो, तो हम अपनी सारी बुराइयाँ उसके सामने खोलकर रख देते हैं। हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कृपा के लायक नहीं हैं। इंद्रनाथ ने मुस्कराकर कहा- जानता हूँ, सुन चुका हूँ और इसीलिये तुम्हारे बाबूजी से कुछ कहने की अब तक मुझमें हिम्मत ना हुई । लेकिन अगर न

जानता तो भी इसका मेरे फैसले पर कोई असर न पड़ता। मानी विधवा ही नहीं, अछूत हो, उससे भी गयी-बीती अगर कुछ हो सकती है, वह भी हो, फिर भी मेरे लिये वह रमणी-रत्न, है। हम छोटे-छोटे कामों के लिये तजुर्बकार आदमी खोजते हैं, जिसके साथ हमें जीवन-पात्रा करनी है, उसमें तजुर्बे का होना ऐब समझते हैं। में न्याय का गला घोटने वालों में से नहीं हूँ। विपत्ति से बढ़कर तजुर्बा सिखाने वाला कोई स्कूल आज तक नहीं खुला। जिसने इस स्कूल में डिग्री ले ली, उसके हाथों में हम बेफ़िक्र होकर जीवन की बागडोर दे सकते हैं। किसी औरत का विधवा होना मेरी आँखों में दोष नहीं, गुण है”।

गोकुल ने पूछा- “लेकिन तुम्हारे घर के लोग?

इंद्रनाथ ने खुश होकर कहा- “मैं अपने घरवालों को इतना मुर्ख नहीं समझता कि इस बारे में आपत्ति करें, लेकिन वे आपत्ति करें भी तो मैं अपनी किस्मत अपने हाथ में ही रखना पसंद करता हूँ। मेरे बड़ों का मुझ पर अधिकार हैं। बहुत-सी बातों में मैं उनकी ! को आदेश समझता हूँ, लेकिन जिस बात को मैं अपनी आत्मा के विकास के लिये शुभ समझता हूँ, उसमें मैं किसी से दबना नहीं चाहता। मैं इस गर्व का आनंद उठाना चाहता हूँ कि मैंने खुद अपना

जीवन बनाया है।

गोकुल ने कुछ शंका से कहा- “और अगर मानी न माने तो?”

इंद्रनाथ को यह शंका बिल्कुल बेवजह लगी। वो बोले- “तुम इस समय बच्चों की-सी बात कर रहे हो गोकुल। यह मानी हुई बात है कि मानी आसानी से ही नहीं करेगी। वह इस घर में ठोकरें खायेगी, झिड़कियाँ सहेगी, गालियाँ सुनेगी, पर इसी घर में रहेगी। युगों के चले आ रहे संस्कारों को मिटा देना आसान नहीं है, लेकिन हमें उसे राजी करना पड़ेगा। उसके मन से बैठे संस्कारों को निकालना पड़ेगा। में विधवाओं के दोबारा शादी करने के पक्ष में नहीं

हूँ। मेरा खयाल है कि पतिव्रता होने का आदर्श संसार का अनमोल रत्न है और हमें बहुत सोच-समझकर उससे छेड़छाड़ करनी चाहिए; लेकिन मानी के बारे में यह बात नहीं उठती। प्रेम और भक्ति नाम से नहीं, इंसान से होती है। जिस आदमी की उसने सूरत भी नहीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता। सिर्फ रस्म की बात है। इस दिखावे की, हमें परवाह नहीं करनी चाहिए। देखो, शायद कोई तुम्हें बुला रहा है। मैं भी जा रहा हूँ। दो-तीन दिन में फिर मिलँगा, मगर ऐसा न हो कि तुम संकोच में पड़कर सोचते रह जाओ और दिन निकलते चले जायेँ। गोकुल ने उसके गले में हाथ डालकर कहा- “मैं परसों खुद ही आऊँगा”।

बारात विदा हो गयी थी। मेहमान भी जा चुके थे। रात के नौ बज गये । शादी के बाद की नींद मशहूर है। घर के सभी लोग मजे से सो रहे थे। कोई चारपाई पर, कोई तख्त पर, कोई जमीन पर, जिसे जहाँ जगह मिल गयी, वहीं सो रहा था। सिर्फ मानी घर की देखभाल कर रही थी और ऊपर गोकुल

अपने कमरे में बैठा हुआ समाचार पढ़ रहा था।

अचानक गोकुल ने पुकारा- “मानी, एक ग्लास ठंडा पानी तो लाना, प्यास लगी है। मानी पानी लेकर ऊपर गयी और टेबल पर पानी रखकर लौटने लगी कि गोकुल ने कहा- “जरा ठहरो मानी, तुमसे कुछ कहना है”।

मानी ने कहा- “अभी फुरसत नहीं है भाई, सारा घर सो रहा है। कहीं कोई घुस आये तो लोटा-थाली भी न बचे”। गोकुल ने कहा- “घुस आने दो, मैं तुम्हारी जगह होता, तो चोरों से मिलकर चोरी करवा देता। मुझे इसी वक्त इंद्रनाथ से मिलना है। मैंने उससे आज मिलने

का वादा किया है- देखो संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा हूँ, उसका जल्दी जवाब देना। देर होगी तो वह घबरायेगा। इंद्रनाथ को तुमसे प्रेम है, यह तुम

जानती हो न?”

मानी ने मुँह फेरकर कहा- “यही बात कहने के लिये मुझे बुलाया था? में कुछ नहीं जानती। गोकुल- “खैर, यह वह जाने और तुम जानो। वह तुमसे शादी करना चाहता है। वैदिक रीति से शादी होगी।

मानी की गर्दन शर्म से झुक गयी। वह कुछ जवाब न दे सकी।

तुम्हें स्वीकार है?”

गोकुल ने फिर कहा- “पिताजी और मम्मी से यह बात नहीं कहीं गयी, इसका कारण तुम जानती ही हो । वह तुम्हें तानें दे-देकर जला-जलाकर चाहे मार

डाले, पर शादी करने की आजा कभी नहीं देंगे। इससे उनकी नाक कट जायेगी, इसलिये अब इसका फैसला तुम्हारे ही ऊपर है। मैं तो समझता हूँ, तुम्हें देनी चाहिए। इंद्रनाथ तुमसे प्रेम करता है, अच्छे चरित्र का आदमी है और बड़ा हिम्मत वाला भी है। डर तो उसे छू ही नहीं सकता। तुम्हें सुखी हॉ कर

देखकर मुझे सच्ची खुशी मिलेगी।

मानी के दिल में एक लहर उठ रही थी, मगर मुँह से आवाज न निकली। गोकुल ने अबकी खीझकर कहा- “देखो मानी, यह चुप रहने का समय नहीं है।

मानी ने काँपती आवाज़ में कहा- “हाँ।

वया सोच रही हो?

गोकुल के दिल का बोझ हल्का हो गया। वो मुस्कराने लगा। मानी शर्म के मारे वहाँ से भाग गयी।

शाम को गोकुल ने अपनी माँ से कहा- “अम्माँ, इंद्रनाथ के घर आज कोई जश्न है। उसकी माँ अकेली घबरा रही थी कि कैसे सब काम होगा, मैंने कहा, मैं

मानी को कल भेज दूंगा। तुम्हारी आज्ञा हो, तो मानी को पहुँचा हूँ। कल-परसों तक चली आयेगी”। मानी उसी वक्त वहाँ आ गयी, गोकुल ने उसकी ओर ताका। मानी शर्म से लाल हो गई। उसे कहीं भागने का रास्ता न मिला।

माँ ने कहा- “मुझसे क्या पूछते हो, वह जाय, तो ले जाओ”। गोकुल ने मानी से कहा- “कपड़े पहनकर तैयार हो जाओ, तुम्हें इंद्रनाथ के घर चलना है।

मानी ने आपत्ति की- “मेरा जी ठीक नहीं है, में न जाऊँगी।

गोकुल की माँ ने कहा- “चली क्यों नहीं जाती, क्या वहाँ कोई पहाड़ खोदना है?”

मानी एक सफेद साड़ी पहनकर ताँगे पर बैठी, तो उसका दिल काँप रहा था और बार-बार आँखों में आँसू भर आते थे। उसका दिल बैठा जा रहा था, मानों

ताँगा कछछ दर निकल गया तो उसने गोकल से काहा- “भैया, मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है। घर चलो, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। गोकुल ने कहा- “तू पागल है। वहाँ सब लोग तेरी राह देख रहे हैं और तू कहती है लौट चलो।

मानी- “मेरा मन कहता है, कुछ बुरा होने वाला है”।

गोकुल- “और मेरा मन मन कहता है तू रानी बनने जा रही है”। मानी- “दस-पाँच दिन ठहर क्यों नहीं जाते? कह देना, मानी बीमार है”।

गोकुल- “पागलों की-सी बातें न करो।

मानी- “लोग कितना हँसेंगे।

गोकुल- “मैं शुभ काम में किसी की हँसी की परवाह नहीं करता”।

मानी- “अम्माँ तुम्हें घर में घुसने न देंगी। मेरे कारण तुम्हें भी तानें मिलेंगे”। गोकुल- “इसकी कोई परवाह नहीं है। उनकी तो यह आदत है”। ताँगा पहुँच गया। इंद्रनाथ की माँ समझदार औरत थीं। उन्होंने आकर मानी को उतारा और अंदर ले गयीं।

गोकुल वहाँ से घर गया तो ग्यारह बज रहे थे। एक और तो शुभ काम को पूरा करने की खुशी थी, दूसरी ओर डर था कि कल मानी न जायगी, तो लोगों को क्या जवाब दूंगा। उसने फैसला किया, चलकर साफ-साफ कह देँ। छिपाना बेकार है । आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों तो सब-कुछ कहना ही पड़ेगा। आज ही क्यों न कह दें।

यह इरादा करके वह घर में घुसा।

माँ ने दरवाजा खोलते हुए कहा- “इतनी रात तक क्या करने लगे? उसे भी क्यों न लेते आये? कल सुबह चौका-बर्तन कौन करेगा?” गोकुल सिर झुकाकर कहा-“वह तो अब शायद लौटकर न आये अम्माँ, उसके वहीं रहने का इंतज़ाम हो गया है।

माँ ने आँखें फाड़कर कहा -“क्या बकता है, भला वह वहाँ कैसे रहेगी? गोकुल- “इंद्रनाथ से उसकी शादी हो ग गई है”।

माँ मानो आसमान से गिर पड़ी। उन्हें कुछ सुध न रही कि मेरे मुँह से क्या निकल रहा है, नालायक, निकम्मा झूठा न जाने उन्होंने क्या -क्या कहा। यहाँ तक कि गोकुल के सब्र का बाँध टूट गया। उसका मुँह लाल हो गया, त्योरियाँ चढ़ गयी, वो बोला- “अम्मों, बस करो। अब मुझमें इससे ज्यादा सुनने की नहीं है। अगर मैंने कोई गलत काम किया होता, तो आपकी जूतियाँ खाकर भी सिर न उठाता, मगर आज मैंने कोई गलत काम नहीं किया। मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य था और जो हर भले आदमी को करना चाहिए।

तुम मूर्ख हो, तुम्हें नहीं मालूम कि समय कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। इसीलिये अब तक मैंने धीरज के साथ तुम्हारी गालियाँ दुःख के साथ कहना पड़ता है कि पिताजी ने भी, मानी के जीवन को नर्क बना रखा था। तुमने उसे ऐसी-ऐसी तकलीफें दी, जो कोई अपने दुश्मन को भी सुनी। तुमने, और मुझे न दे। इसलिए कि वो तुम्हारे सहारे थी? इसलिए न कि वह अनाथ थी? अब वह तुम्हारी गालियों खाने न आएगी। जिस दिन तुम्हारे घर शादी का जश्न मनाया जा रहा था, तुम्हारे ही कड़वी बात से दुखी होकर वह आत्महत्या करने जा रही थी। इंद्रनाथ उस समय ऊपर न पहुँच जाते तो आज हम, तुम, सारा धर जेल में बैठे होते”।

माँ ने आँखें मटकाकर कहा- “आहा ! कितने सपूत बेटे हो तुम, कि सारे घर को मुसीबत से बचा लिया। क्यों न हो । अभी बहन की बारी है। कुछ दिन में मुझे ले जाकर किसी के गले में बांध आना। फिर तुम्हारी चाँदी हो जायगी। यह रोजगार सबसे अच्छा है। पढ़ लिखकर क्या करोगें?”

गोकुल गेहरे दुख से तिलमिला उठा। दुखी आवाज़ से बोला- “भगवान् न करे कि कोई बच्चा तुम जैसी माँ के गर्भ से जन्म ले। तुम्हारा मुँह देखना भी पाप है”। यह कहता हुआ वह घर से निकला और पागलों की तरह एक तरफ चल पड़ा। जोर के झोंके चल रहे थे, पर उसे ऐसा लग रहा था जैसे साँस लेने के लिये भी हवा नहीं है।

एक हफ्ता बीत गया पर गोकुल का कहीं पता नहीं चला। इंद्रनाथ को बंबई में एक जगह नौकरी मिल गयी थी। वह वहाँ चला गया था। वहाँ रहने का बंदोबस्त करके वह अपनी माँ को खत भेजने वाला था और तब सास और बहू वहाँ जाने वाली थीं। वंशीधर को पहले शक हुआ कि गोकुल इंद्रनाथ के घर छिपा होगा, पर जब वहाँ पता न चला तो उन्होंने सारे शहर में खोज-पूछ शुरू की। जितने मिलने वाले, दोस्त, भाई-बंधु, रिश्तेदार थे, सभी के घर गये, पर गोकुल नहीं मिला। वो दिन-भर दोड-धूप कर शाम को घर आते, तो पत्नी को बातें सुनाते- “और कोसो लड़के को, पानी पी-पीकर कोसो। न जाने तुम्हें कभी बुद्धि आयेगी भी या नहीं। गयी थी चुडैल, तो जाने देती। एक बोझ सिर से टला। एक नीकरानी रख लो, काम चल जायगा। जब वह न थी, तो घर क्या भूखों मर रहा था? विधवाओं की दूसरी शादी चारों ओर तो हो रही हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है। हमारे बस की बात होती, तो विधवा-विवाह के खिलाफ़ लोगों को देश से निकाल देते, शाप देकर जला देते, लेकिन यह हमारे बस की बात नहीं। फिर तुमसे इतना भी न हो सका कि मुझसे तो पूछ लेतीं। मैं जो ठीक समझता, करता। क्या तुमने समझा था, मैं ऑफिस से लौटकर आऊँगा ही नहीं, वहीं मेरा क्रिया कर्म हो जयगा। बसा लके स पर टूट । अब रोओ, खूब दिल खोलकर रोओ”। पडीं। अबर হ का सर्वनाश हुआ। न जाने कि कर दरवाजे पर गुस्से में टहल रहे थे। उन्हें रह-रहकर मानी पर गुस्सा आ रहा था। इसी राक्षसी के कारण। ी कि घर को मिलाकर छोड़ा। आयी होती, तो क्यों यह बुरे दिन देखने पड़ते।

शाम हो गयी। वंशीथर पत्नी को फटकारें। मेरे घर घड़ी में आयी |

कितना होनहार, कितना प्रतिभाशाली लड़का था। न जाने कहाँ गया?

वह न

एकाएक एक बुढ़िया उनके पास आयी और बोली- “बाबू साहब, यह खत लायी हूँ। ले लीजिए”।

वंशीधर ने लपककर बुढ़िया के हाथ से खत ले लिया, उनकी छाती आशा से धक-धक करने लगी। गोकुल ने शायद यह ख़त लिखा होगा। उन्हें अंधेरे में कुछ न सुझा। फिर र उन्होंने पूछा- कहाँ से आयी है?”

बुढ़िया ने कहा- “वह जो बाबू हुसनेगंज में रहते हैं, जो बंबई में नौकरी करते हैं, उन्हीं की बहू ने भेजा है। वंशीधर ने कमरे में जाकर लेप जलाया और खत पढ़ने लगे। मानी का खत था। लिखा था-

पूज्य चाचाज़ी, अभागिन मानी का प्रणाम स्वीकार कीजिए। मुझे यह सुनकर बहुत दुःख हुआ कि गोकुल भैया कहीं चले गये और अब तक उनका पता नहीं चला। मैं ही इसका कारण हूँ। यह कलंक मेरे ही माथे पर लगना था वह भी लग गया। मेरे कारण आपको इतना दुःख हुआ, इसका मुझे बहुत अफ़सोस है, मगर भैया आएँगे ज़रूर, इसका मुझे विश्वास है। मैं आज नौ बजे वाली गाड़ी से बंबई जा रही हूँ। मुझसे जो कुछ अपराध हुआ है, उसे माफ़ कीजिएगा और चाची से मेरा प्रणाम कहिएगा। मेरी भगवान् से यही प्रार्थना है कि जल्द ही गोकुल भैया सही सलामत घर लौट आएं । भगवान् की इच्छा हुई तो भैया की शादी में आपके चरणों के दर्शन करँगी। वंशीधर ने खत को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। घड़ी में देखा तो आठ बज रहे थे। उन्होंने तुरंत कपड़े पहने, सड़क पर आकर तांगा किया और स्टेशन चले।

बंबई मेल प्लेटफार्म पर खड़ी थी। मुसाफिरों में भगदड़ मची हुई थी। खोमचे वालों की चीख-पुकार से कान में पड़ी आवाज भी सुनाई न दे रही थी। गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर थी। मानी और उसकी सास औरतों वाले कमरे में बैठी हुई थीं। मानी भीगी आँखों से सामने ताक रही थी। अतीत चाहे बुरा ही क्यों न हो, उसकी यादें मधुर होती हैं। मानी आज बुरे दिनों को याद करके दुःखी हो रही थी। गोकुल से अब न जाने कब मुलाक़ात होगी। चाचाजी आ जाते तो उनके दर्शन कर लेती। वो कभी-कभी बिगड़ते थे तो क्या, उसके भले ही के लिये तो डॉटते थे। वह नहीं आएँगे। अब तो गाड़ी छुटने में थोड़ी ही देर है। “मुझे मत छू, दूर रह, अभागिन कहीं की। मुँह में कालिख लगाकर मुझे खत लिखती है। तुझे मौत भी नहीं तुने मेरे घर का सर्वनाश कर दिया। आज तक गोकुल का पता नहीं है। तेरे कारण वह धर से निकला और तु अभी तक मेरी छाती पर मुँग दलने को आती। बैठी है। तेरे लिये क्या गंगा पानी क्या में पानी नहीं है? अगर मैं जानता कि तू ऐसी बेशर्म है , तो पहले दिन ही तेरा गला घोंट देता। अब मुझे अपनी भक्ति दिखलाने चली है। तेरे जैसी पापी का मरना ही अच्छा है, धरती का बोझ कम हो जायगा”।

कैसे – आए, समाज में हलचल न मच जायगी। भगवान की इच्छा होगी, तो अबकी जब यहाँ आउऊँगी, तो जरूर उनके दर्शन करगी। अचानक उसने लाला वंशीधर को आते द वह पीछे हट गये और आँखों निकालकर दोहे गी से निकलकर बाहर खड़ी हो गयी और चाचाजी की ओर बढ़ी। चरणों पर गिरना चाहती थी कि प्लेटफार्म पर सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गयी थी और वंशीधर बेशर्मी से गालियों की बोछार कर रहे थे। किसी की समझ में न आ रहा था, क्या माजरा है, पर मन से सब लाला को धिक्कार रहे थे। मानी पत्थर की मूर्ति के समान खड़ी थी, मानो वहीं जम गयी हो। उसका सारा स्वाभिमान चूर-चूर हो गया। ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ, कोई बिजली गिरकर उसके जीवन का अंत कर दे! इतने आदमियों के सामने उसका पानी उतर गया। उसकी आँखों से पानी की एक बूंद भी न निकली, दिल में आँसू न थे। उसकी जगह एक ज्वाला-सा दहक रहा था, जो मानो तेज़ी से दिमाग की ओर बढ़ता चला जा रहा था संसार में कौन सा जीवन इतना नीच होगा! सास ने पुकारा- “बहू, अंदर आ जाओ।

गाड़ी चली तो माँ ने कहा- “ऐसा बेशर्म आदमी नहीं देखा। मुझे तो ऐसा गुस्सा आ रहा था कि उसका मुँह नोच लूँ”।

मानी ने सिर ऊपर न उठाया।

माँ फिर बोली- “न जाने इन सड़े हुए लोगों को बुद्धि कब आयेगी, अब तो मरने के दिन भी आ गये पूछो, तेरा लड़का भाग गया तो हम क्या करें; अगर तुम ऐसे पापी न होते तो यह बिजली ही क्यों गिरती ।

मानी ने फिर भी मुँह न खोला। शायद उसे कुछ सुनाई ही न दिया था। शायद उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान ओर ताक रही थी। उस अंधकार में उसे जाने क्या दिख रहा था। लो! दस कब के बज गये ।

कानपुर आया। माँ ने पूछा- “बेटी, कुछ खाओगी? थोड़ी-सी मिठाई खा मानी ने कहा- “अभी तो भूख नहीं है अम्माँ, बाद में खा लुँगी”।

भी न था। वह टकटकी लगाये खिड़की की

माँ जी सो गई। मानी भी लेटी; पर चाचा की वह सूरत आखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें कानों में गूँज रही थीं- “आह मैं इतनी नीच हूँ कि मेरे मर जाने से धरती का भार हल्का हो जायगा? क्या कहा था, तू अपने माँ-बाप की बेटी है तो फिर मुँह मत दिखाना। न दिखाऊँगी, जिस मुँह पर ऐसी कालिख लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने की इच्छा भी नहीं है”। गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानी ने खोला ओर अपने गहने निकालकर उसमें रख दिये। फिर इंद्रनाथ का फोटो निकालकर अपना टूरंक उसे देर तक देखती रही । उसकी आँखों में गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी। उसने तसवीर रख दी और अपने आप से बोली- “नहीं-नहीं, में तुम्हारे जीवन पर दाग नहीं लगा सकती। तुम भगवान के समान हो, तुमने मुझ पर दया की है। मैं अपने पुराने संस्कारों का प्रायश्चित कर रही थी। तुमने मुझे उठाकर गले से लगा लिया, लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करेंगी। तुम्हें मुझसे प्रेम है। तुम मेरे लिये अपमान, निंदा सब सह लोगे; पर में तुम्हारे जीवन का

भार न बनूँगी”।

गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानी आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे गायब हो गये माँ का रूप दिखाई दिया-“इतना रौशन, इतना साफ़ कि उसने चौंककर आँखें बंद कर ली”।

और उस अंधकार में उसे अपनी

जाने कितनी रात गुजर चुकी थी। दरवाजा खुलने की आहट से माँ जी की आँखें खुल गयीं। गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का कहीं पता न था। वह आँखें मलकर उठ बैठी और पुकारा- बहू ! बहू !” लेकिन कोई जवाब न मिला। उनका दिल धक-धक करने लगा। ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, बाथरूम में देखा, बेंच के नीचे देखा, बहू कहीं न धी। तब वह दरवाज़े पर आकर खड़ी

हो गयी। बहू को क्या हुआ, यह दरवाज़ा किसने खोला? कोई गाड़ी में तो नहीं आया। उनका जी घबराने लगा। उन्होंने दरवाज़ा बंद कर दिया और जोर-जोर से रोने लगी। किससे पूछे? गाड़ी अब न जाने कितनी देर में रूकेगी। मैं कहती थी, बहू आदमियों की गाड़ी में बैठेते हैं पर मेरा कहना न माना।

कहने लगी, “अम्मा जी, आपको सोने की तकलीफ होगी। यही आराम दे गयी?” अचानक उन्हें खतरे की जंजीर याद आई। उन्होंने जोर-जोर से कई बार जजीर खींची। कई मिनट के बाद गाड़ी रूकी। गार्ड आया। पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी भी आये। फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया। नीचे तख्ते को ध्यान से देखा। खून का कोई निशान न था। सामान की जाँच की। बिस्तर, बवसे, बरतन सब मौजूद थे। ताले भी सब बंद थे। कोई चीज गायब न थी। अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता कहाँ? एक औरत को लेकर गाड़ी से कूद जाना नामुमकिन था। सब लोग इसी नतीजे पर पहुँचे कि मानी दरवाज़ा खोलकर बाहर झाँकने लगी होगी और हाथ

छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी। गार्ड भला आदमी था। उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क के दोनों तरफ तलाश किया। मानी का कोई निशान न मिला। रात को इससे ज्यादा और क्या किया जा सकता था? माताजी को कुछ लोग विनती करके आदमियों के डिब्बे में ले गये। यह तय हुआ कि माताजी अगले स्टेशन पर उतर जाएं और सुबह इधर-उधर दूर तक जाँच की जाय। माताजी कभी इसका मुंह देखती, कभी उसका। उनकी विनती से भरी हुई आँखें मानो सबसे कह रही थीं- “कोई मेरी बच्ची को खोज क्यों नहीं लाता? हाय, अभी तो बेचारी की चुनरी भी नहीं मेली हुई। कैसे-कैसे अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी। कोई उस दुष्ट वंशीधर से जाकर कहता क्यों नहीं ले तेरी इच्छा पूरी हो गयी- जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया। क्या अब भी तेरी छाती नहीं दुखती”। बूढी माँ बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी।

रविवार का दिन था। शाम के समय इंद्रनाथ दो-तीन दोस्तों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था। आपस में हंसी मज़ाक हो रहा था मानी का

आना इस हसी मज़ाक का कारण था।

एक दोस्त बोले- “क्यों इंद्र, तुमने तो शादीशुदा जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्या सलाह देते हो? बनायें कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन कारें? देखकर तो यही लगता है कि शादीशुदा जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा फ़र्क है”। इंद्रनाथ थ ने मुस्कराकर कहा-” यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलह आना तकदीर का। अगर एक दशा में शादीशुदा जीवन नरक जैसा है, तो दूसरी

दशा में स्वर्ग से कम नहीं

दूसरे मित्र बोले- “शादी के बाद इतनी आजादी तो भला क्या रहेगी?”

इंद्रनाथ- “इतनी क्या, इसका आधा भी न रहेगी। अगर तुम रोज फिल्म देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और ऑफिस से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें शादी करने से कोई सुख न मिलेगा और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर में भी न

बनवा सको।

भाभी जी, तो आज रात की गाड़ी से आ रही हैं?

हाँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?’

यह भी पूछने की बात है ! अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी। तभी चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में लिफाफा रख दिया।

केदारनाथ का चेहरा खिल उठा। झट ख़त खोलकर पढने लगा। एक बार पढते ही उसका दिल धक से रह गया, साँस रूक गयी, सिर घूमने लगा। आँखों की रोशनी गायब हो गयी, जैसे दुनिया पर काला परदा पड़ गया हो। उसने ख़त को दोस्तों के सामने फेंक दिया और दोनों हाथों से मुँह ढककर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों दोस्तों ने घबराकर ख़त उठा लिया और उसे पढ़ते ही हवके बक्के से होकर दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे और क्या हो गया

खत में लिखा था- “मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पायी गयी। मैं लालपुर में हैं, तुरंत आओ”। एक दोस्त ने कहा- “किसी दुश्मन ने झूठी खबर न भेज दी हो?”

दूसरे दोस्त बोले- “हाँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारत करते हैं”

इंद्रनाथ ने बुझी आँखों से उनकी और देखा, पर मुँह से कुछ बोले नहीं।

कई मिनट तीनों आदमी चुपचाप सदमे में बैठे रहे। फिर इंद्रनाथ खड़े हो गये और बोले- “मैं इस गाड़ी से जाऊँगा।

बंबई से नौ बजे रात को गाड़ी छूटती थी। दोनों दोस्तों ने फ़टाफट बिस्तर आदि बांधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया, दुसरे ने टंक। इंद्रनाच ने जल्दी से कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे थी, आशा रोती हुई पीछे।

एक हास्ता गुजर गया था। लाला वंशीधर ऑफिस से आकर दरवाज़े पर बैठे ही थे कि इंद्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसके अचानक आ जाने पर नहीं, उसकी मुरझाई हुई दशा पर, मानो कोई दिल से निकली हुई आह सामने सच बनकर खड़ी हो। वंशीधर ने

उसे देखकर चौंक पड़े,

पूछा- “तुम तो बंबई चले गये थे न?” इंद्रनाथ जवाब दिया- “जी हाँ, आज ही आया हूँ।

वंशीधर ने तीखे आवाज़ में कहा- “गोकुल को तो तुम ले बीते !” इंद्रनाथ ने अपनी अंगूठी की ओर ताकते हुए कहा- “वह मेरे घर पर

है”।

खुशी की रोशनी दौड़ गई। वो बोले- “तो यहाँ क्यों नहीं आये? तुमसे कहाँ उसकी मुलाकात हुई? क्या बंबई चला गया था?”

वंशीधर के उदास चेहरे पर

जी नहीं, कल में गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गया।

तो जाकर ले आओ न, जो किया अच्छा किया।”

यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक पल में गोकुल की माँ ने उसे अंदर बुलाया। वह अंदर गया तो माँ ने उसे सिर से पाँव तक देखा- “तुम बीमार थे क्या भैया? चेहरा क्यों इतना उतरा है?”

गोकुल की माँ ने पानी का लोटा रखकर कहा- “हाथ-मुँह धो लो बैटा, गोकुल है तो अच्छी तरह? कहाँ रहा इतने दिन! तब से सैकड़ों मन्नतें मान डालीं।

आया क्यों नहीं?”

इंद्रनाथ ने हाथ-मुँह थोते हुए कहा- “मैंने तो कहा था, चलो, लेकिन डर के मारे नहीं आता”। ‘और था कहाँ इतने दिन?

कह रहा था, देहातों में घूमता रहा।

तो क्या तुम अकेले बंबई से आये हो?

जी नहीं, अम्माँ भी आयी है।’ गोकुल की माँ ने कुछ हिचकिचाकर पूछा- “मानी तो अच्छी तरह है?”

इंद्रनाथ ने हँसकर कहा- “जी हाँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के बंधनों से छूट गयीं”।

माताजी को यकीन न हुआ – “चल, नटखट कहीं का ! बेचारी को कोस रहा है, मगर इतनी जल्दी बंबई से लौट क्यों आये?”

इंद्रनाथ ने मुस्कराते हुए कहा- “क्या करता! माँ का ख़त बबई में मिला कि मानी ने गाड़ी से कूदकर जान दे दी। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा आया। वहीं अंतिम संस्कार किया। आज घर चला आया। अब मेरा अपराध माफ कीजिए।

हुआ वह और कुछ न कह सका। आँसुओं से उसका गला भर आया था। जेब से एक खत निकालकर माताजी के सामने रखता हुआ बोला- “उसके बक्से गोकुल की माँ कई मिनट तक किसी सदमे से लगी गहरी चोट की तरह बैठी जमीन की ओर ताकती रही! दुःख और उससे ज़्यादा पश्चाताप ने सिर को यह खत मिला है”।

दबा रखा था। फिर ख़त उठाकर पढ़ने लगी स्वामी में जब यह ख़त आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक में इस संसार से विदा हो जाऊँगी। मैं बड़ी अभागिन हैं। मेरे लिये संसार में जगह नहीं है। आपको भी मेरे कारण क्लेश और बुराई ही मिलेगी। मैने सोचकर देखा और यही फ़ैसला किया कि मेरे लिये मरना ही अच्छा है। मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिये आपको क्या दूं? कैसे चुकाऊँ उसका बदला? जीवन में मैंने कभी किसी चीज़ की इच्छा नहीं की, लेकिन मुझे दुःख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अंतिम विनती है कि मेरे लिये आप दुःख न कीजिएगा। भगवान् आपको हमेशा सुखी रखे। माताजी ने खत रख दिया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। बरामदे में वंशीघर स्तब्ध और बेजान खड़े थे जिस तरह मानी उनके सामने शर्मिंदा होकर खड़ी थी।

सीख – इस कहानी में मुंशी जी ने पुराने समय में औरतों की जो दशा थी खासकर विधवाओं की उसका एक दुखद सच हमारे सामने रखा है. एक ओर जहां पत्नी जाने के बाद आदमी को कुछ नहीं कहा जाता था बल्कि उसकी जल्द से जल्द दूसरी शादी करा दी जाती थी तो वहीं पति के मर जाने पर औरतों को कोसा जाता था, उन्हें इसका दोष दिया जाता था और उन्हें एक नई जिंदगी की शुरुआत करने की इजाज़त नहीं थी. एक अनाथ और विधवा जब सिर्फ़ उससे घर के सारे दूसरों के सहारे हो जाती है तो उसे किन किन चीज़ों का सामना करना पड़ता है ये मानी की हालत से पता चलता है. ना ।

काम करवाए जाते थे बल्कि उसे ताने मारकर बार-बार अपमानित किया जाता था. उसके भाई को छोड़कर किसी को उससे

लगाव नहीं था. यहाँ तक कि वो दो मीठे बोल सुनने को भी तरस जाती थी. इसमें ये भी दिखाया गया है कि अंधविश्वास और छोटी सोच के कारण समाज एक विधवा को अपशगुन मानकर किसी भी खुशी के मौके से दूर रखता था. जब हम अपने सामने गलत होता हुआ देखकर भी चुपचाप खड़े रहतें हैं तो ये कायरता की निशानी होती है और अक्सर इस चुप्पी का नतीजा बहुत बुरा होता है इसलिए गलत बात पर आवाज़ उठाना सीखें. गोकुल ने यही गलती की थी. मानी एक स्वाभिमानी औरत थी, वो सब कुछ सह सकती थी मगर उसे आत्म सम्मान पर चोट स्वीकार नहीं था.

अक्सर हम अपनी नासमझी और घमंड कारण दूसरों की भावनाओं को समझ ही नहीं पाते. गुस्से में बोली गई बातें किसी के मन को गहरी ठेस पहुँचा सकती हैं इसलिए हमें सोच समझकर बोलना चाहिए. किसी का ऐसा अपमान ना करें कि वो उसके लिए सदमा बन जाए. मानी के चाचा के शब्दों ने, उनके धिक्कार ने उसके आत्म सम्मान को छलनी कर दिया था,

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