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जब नमक का नया डिपार्टमेंट बना और भगवान को चढ़ाए जाने वाले सामान के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। कई तरह के छल-प्रपंच की शुरुआत हुई, कोई घूस से काम निकाल रहा था, कोई चालाकी से। अफसरों के पौ बारह पच्चीस हो गए थे। गाँव की जमीन और लगान का हिसाब किताब रखने का सम्मानित काम छोड-छोड़कर लोग इस डिपार्टमेंट में शामिल होना चाहते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। दरोगा यानी इंस्पेक्टर की पोस्ट यह वह समय था जब अंग्रेज़ी पढ़ाई लिखाई और ईसाई धर्म को लोग एक ही चीज़ समझते थे। फारसी का बहुत गहरा असर फ़ैला हुआ था। प्रेम की कहानियां और श्रृंगार रस की कविता पढ़कर फारसी लोग ऊँचें से ऊँचें पद पर चुन लिए जाते थे।
मुंशी वंशीधर भी भी जुलेखा की दुःखभरी कहानी बंद करके सीरी और फरहाद की प्रेम-कहानी को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से ज्यादा महत्व की बातें समझते हुए काम की खोज में निकले।
उनके पिता एक अनुभवी आदमी थे। उन्हें समझाने लगे, ‘बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। क़र्ज़ के बोझ से दबे हुए हैं। घर में लडकियाँ हैं, वे धास-फूस की तरह बढती चली जाती हैं। मैं चलते हुए पेड़ | में ए पेड़ की तरह ह हूँ, न मालूम कब गिर पड़े! अब तुम्हीं घर के कर्ता धर्ता हो । नौकरी में पोस्ट की और ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। नज़र चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपर से भी कमाई हो। महीने की सैलरी तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते गायब हो जाता है। ऊपर की कमाई बहती हुई नदी की तरह है जिससे हमेशा प्यास बुझती रहती है। सैलरी इंसान देता है, इसलिए वो बढ़ती नहीं है। ऊपर की कमाई भगवान् देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, अब तुम खुद समझदार हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।
इस मामले में विवेक की बड़ी ज़रुरत है। इंसान को देखो, उसकी ज़रुरत को देखो और मौके को देखो, उसके बाद में जो ठीक समझो, करो। जिस आदमी को गरज हो उसके साथ कठोरता करने में फ़ायदा ही फ़ायदा है। लेकिन जिसे ज़रूरत नहीं उस पर रौब ज़माना जरा मुश्किल है। इन बातों को गाँठ बाँध लो, यह मेरी जन्म भर की कमाई है”।
इस ज्ञान के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी बेटे थे। ये बातें ध्यान से सुनीं उसके बाद घर से चल पड़े। इस बड़ी सी दुनिया में उनके लिए धीरज ही उनका दोस्त था, बुध्दि रास्ता दिखाने वाली साथी और खुद पर विश्वास रखना ही अपना मददगार होता है। वो घर से अच्छे शगुन से चले थे, इसलिए जाते ही नमक डिपार्टमेंट के दारोगा पद के लिए चुन लिए गए। सैलरी तो अच्छी थी ही और ऊपर की कमाई का तो ठिकाना ही न था। बूढ़े मुंशीजी को अच्छी खबर मिली तो फूले न समाए। अब तो महाजन भी कुछ नरम पड़े। पड़ोसियों के दिल में आग लगने लगी।
ठंड के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आए अभी छह महीने से ज्यादा नहीं हुआ था, लेकिन इस थोडे समय में ही उन्होंने अपने काम, हुनर और अच्छे व्यवहार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे।
नमक के ऑफिस से एक मील ईस्ट की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगाजी दरवाज़ा बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक आँख खुली तो नदी के बहाव की जगह गाडियों की गडगडाहट और मल्लाहों का शोर सुनाई दिया। वो उठ बैठे। इतनी रात गए गाडियाँ क्यों नदी के पार जा रही है? ज़रूर कुछ न कुछ गोलमाल है। उन्होंने बरदी पहनकर, तमचा जेब में रखा और घोड़ा बढ़ाए हुए पुल पर आ पहुँचे। गाड़ियों की एक लम्बी लाइन पुल के पार जाती दिखी उन्होंने डॉँटकर पूछा, ‘किसकी गाडियाँ हैं?” थोड़ी देर तक तक सन्नाटा बना रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा-पंडित अलौपीदीन की”।
कौन पंडित अलोपीदीन?
दातागंज के।
मुंशी वंशीधर चौके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे इज्जतदार जमींदार थे। लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, छोटा हो या बड़ा ऐसा कोई ना था जो उनका कर्ज़दार नहीं था। उनका व्यापार भी बड़ा लम्बा-चौड़ा था। बड़े चलते-परजे आदमी थे। अंग्रेज़ अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान बनते।
मुंशी ने पूछा, गाडियाँ कहाँ जाएँगी? जवाब मिला, कानपुर । लेकिन इस सवाल पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का शक और भी बढा। कुछ देर तक जवाब की बाट देखकर वह जोर से बोले, ‘क्या तुम गूँगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?”
जब इस बार भी कोई जवाब न मिला तो उन्होंने धोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के डेले थे।
पंडित अलोपीदीन अपने सजे सजाए रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते हुए चले आ रहे थे। जगाया और बोले-महाराज! दारोगा ने गाडियाँ रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुला रहे हैं। अचानक कई गाडी वालों ने घबराए हुए आकर उन्हें पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अटूट विश्वास था। वह कहा करते थे कि दुनिया का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज है। उनका यह कहना सच ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे लेटे वो गर्व से बोले, “चलो हम आते हैं । यह कहकर पंडितजी ने बेफ़िक्र होकर पान लगाकर खाए। फिर कंबल ओढे हुए दारोगा के पास आकर बोले, ‘बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाडियाँ रोक दी गई। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।
बंशीधर रुखी आवाज़ में में बोले, ‘सरकारी हुक्म है”। पं. अलोपीदीन ने हँसकर कहा, ‘हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है. हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने बेकार ही तकलीफ़ उठाई। यह हो नहीं सकता कि हम इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को मामला है, भेंट न चढ़ाएं। में तो आपकी सेवा में खुद ही आ रहा था वंशीधर पर पैसों की मोहिनी बंसी का कोई असर नहीं हुआ। उनमें ईमानदारी की नई उमंग थी। वो कड़ककर बोले, ‘हम उन नमकहरामों में से नहीं है जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपको कायदे । अनुसार चलना होगा। बस, मुझे ज़्यादा बात करने की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ। पं. अलोपीदीन हक्के बक्के रह गए। गाडी वालों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में शायद ऐसा पहली बार हुआ था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बादलूसिंह आगे बढ़ा, लेकिन उनके रोब के कारण इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडितजी ने धर्म को पैसों का ऐसा अपमान करते कभी न देखा था। उन्होंने विचार किया कि अभी ये अनाड़ी लडका ही तो है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा है। अल्हड झिझकता है। वो बड़ी नम्रता से बोले, ‘बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम बर्बाद हो जाएँगे। हमारी इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं।
वंशीधर ने कठोर आवाज़ में कहा, ‘हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते”।
अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ सा लगा। उनके स्वाभिमान और दौलत पर कड़ी चोट लगी। लेकिन उन्हें अभी तक दौलत की शक्ति पर पूरा भरोसा था। वो अपने मुनीम से बोले, लालाजी, एक लाख रूपए बाबू साहब को भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह जैसे हो रहे हैं”।
वंशीधर ने गरम धर ने गरम होकर कहा, एक लाख नहीं, दस लाख भी मुझे सच्चे रास्ते से नहीं हटा सकते।
धर्म की इस बेवकूफ़ी भरी ज़िद और त्याग की इस भावना पर अलोपिदीन का मन बहुत झुंझलाया।
अब दोनों शक्तियों में जंग होने लगी। दौलत ने
उछल-उछलकर हमला करना शुरू किया। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस लाख तक बहादुरी के साथ बड़ी सी सेना के सामने अकेला पहाड़ की तरह अटल, बिना डगमगाए खड़ा या।
अलोपीदीन निराश होकर बोले, अब इससे ज़्यादा मेरी हिम्मत नहीं है। आगे आपको अधिकार है।
नौबत पहुँची, लेकिन धर्म अलौकिक
वंशीधर ने अपने जमादार को बुलाया। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा। पंडितजी घबडाकर दो-तीन कदम पीछे नामुमकिन ।
गए। फिर बहुत ही नम्रता से बोले, ‘बाबू साहब, भगवान के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस लाख पर निपटारा करने का तैयार हूँ।
तीस लाख पर?”
किसी तरह भी सम्भव नहीं।
क्या चालीस लाख पर भी नहीं।
चालीस लाख नहीं, चालीस करोड़ पर भी नामुमकिन है”।
बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता”।
धर्म ने दौलत को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हट्टे-कट्टे इंसान को हथकडियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। वो चारों ओर निराश और डरी हुई नज़रों से देखने लगे। इसके बाद बेहोश होकर गिर पड़े।
दुनिया सो रही थी पर दुनिया की जीभ जाग रही थी। सवेरे देखा तो बच्चे-बूढ़े व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, बुराइयों की बौछार हो रही थीं, मानो दुनिया से अब पापी का पाप कट गया।
सबके मुहँ से यही बात सुनाई दे रही थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, झूठ मूठ डायरी भरने वाले अफसर, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली कागज़ात बनाने वाले सेठ यह सब के सब देवताओं की तरह गर्दनें चला रहे थे।
जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन दोषी बनकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, दिल में ग्लानि और मायूसी भरे, शर्म से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ चले तो सारे शहर हलचल मच गई। शायद मेलों में भी आँखें इतनी उतावली न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई फर्क नहीं रहा।
लेकिन अदालत में पहुँचने की देर थी। पं. अलोपीदीन इस बड़े और घने जंगल के सिंह थे। अफसर उनके भक्त थे, गरीब उनके सेवक, वकील-मुनीम उनकी आज्ञा मानने वाले, चपरासी और चौकीदार तो उनके मुफ़्त के गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौडे। सभी लोग आश्चर्यचकित थे इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह काम किया था, बल्कि इसलिए कि वह कानून
के पंजे में कैसे आए? ऐसा आदमी जिसके पास असंभव काम करवाने के लिए दौलत और बोलने की कला हो, वह कैसे कानून के पंजे में आ सकता है? हर आदमी उनके लिए हमदर्दी जता रहा था। बड़ी तेज़ी से इस हमले को रोकने के लिए वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और दौलत में जंग छिड़ गई। वंशीधर चुपचाप खड़े सच यहाँ तक कि को सिवा न कोई ताकत थी और ना कोई हथियार । गवाह थे, लेकिन सब लालच में डूबे हुए। न्याय अपनी और कुछ खिंचा हुआ दिख रहा था। वह न्याय का दरबार था, लेकिन वहाँ काम करने वालों पर भेदभाव का नशा छाया हुआ था। लेकिन भेदभाव और न्याय का क्या मेल? जहाँ भेदभाव हो, वहाँ न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। मुकदमा जल्द ही खत्म
हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपने फैसले में लिखा,” पं. अलोपीदीन के खिलाफ़ दिए गए सबूत बेबुनियाद और गुमराह करने वाले हैं। वह एक बड़ी हस्ती हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोडे से फ़ायदे के लिए ऐसी गुस्ताखी की होगी। हालांकि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का ज्यादा क़सूर नहीं है, लेकिन यह बड़े दुःख की बात है कि उसके अनाड़ीपन और सोचने समझने की कमी के कारण एक भले आदमी को तकलीफ़ झेलनी पड़ी। हम खुश हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, लेकिन नमक के मुकदमें की बढ़ी हुई नमक हलाली ने उसकी समझ और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।
वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पडे। पं. अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। उनके आदमियों ने रुपए लुटाए। उदारता का सागर उमड पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी।
जब वशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर हंसी और तानों की बारिश होने लगी। उन्हें चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम तो किए लेकिन इस समय एक ; कडवी बात, एक-एक संकेत उनके गर्व की आग को भड़का रहा था। शायद इस मुकदमे में कामयाब होकर वह इस तरह अकडते हुए न चलते। आज उन्हें दुनिया का एक अफ़सोस करने लायक अजीब सा अनुभव हुआ।
न्याय और ज्ञान, बड़े-बड़े टाइटल, बड़ी-बड़ी दहिया, ढीले चोगे पहने एक भी आदमी सच्चे सम्मान का हकदार नहीं है। वंशीधर ने दौलत से दुश्मनी मोल ली थी, उसकी कीमत तो चुकानी ही थी। बड़ी मुश्किल से एक सप्ताह बीता होगा कि उनके सस्पेंशन का आर्डर आ
पहुँचा। ये इमानदारी से काम करने का दंड मिला था । बेचारे टूटे हुए दिल, दुःख और अफ़सोस से चोट खाए हुए घर को बूढ़े मुंशीजी तो पहले ही से कुपवाड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कर्जदार और लोगों के तानें सह, बुढापे में भगत बनकर बैठे और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई बड़े पद पर नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और ये ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे अँधेरा हो, लेकिन मस्जिद में ज़रूर दिया जलाएँगे। दुःख है ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना
सब बेकार हो गया इसके
।
डे ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस बुरी हालत में घर पहुँचे और बूढे पिताजी ने खबर सुनी तो सिर पीट लिया। बोले- ‘जी चाहता है कि थोड
तुम्हारा और अपना सिर फोड लूँ। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। गुस्से में कुछ कठोर बातें भी कहीं और अगर वंशीधर वहाँ से चले ना गए होते तो ज़रूर ही यह गुस्सा भयंकर रूप में बदल जाता। बूढ़ी माँ को भी दुःख हुआ। उनकी जगन्नाथ और रामेश्वर की यात्रा की इच्छा मिट्टी में मिल
गई। पत्नी ने कई दिनों तक उनसे सीधे मुँह बात तक नहीं की।
इसी तरह एक हफ्ता बीत गया। एक दिन शाम का समय था। बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे। उसी समय उनके दरवाज़े पर सजा
रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोडी, उनकी गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जड़े हुए। साथ में कई नौकर लाठियाँ
कंधी पर
मुंशीजी स्वागत करने दौडे तो देखा पंडित अलोपीदीन हैं। उन्होंने झुककर प्रणाम किया और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे- हमारा भाग्य जाग गया, जो आपके चरण इस दरवाज़े पर पधारे । आप हमारे पूज्य भगवान् हैं, आपको कैसे मुहं दिखाएं, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। लेकिन क्या करें,
लड़का नायालक है, नहीं तो आपसे क्यों मुँह छिपाना पड़ता? ऐसी औलाद से तो अच्छा है कि भगवान् औलाद ही ना दे”। अलोपीदीन ने कहा-‘नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।
मुंशीजी ने चकित होकर कहा- ‘ऐसी संतान को और क्या
कहू’?
अलोपीदीन ने पिता के प्रेम से भरी आवाज़ में कहा- कुलदीपक और पुरुखों का नाम रोशन करने वाले दुनिया में ऐसे कितने पवित्र और धरात्मा लोग हैं।
जो धर्म पर अपना सब कुछ न्योछावर कर सकें!”
पं. अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- दरोगाजी, इसे खुशामद भत समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतनी तकलीफ़ उठाने की जरूरत नहीं थी। उस रात आपने अपने अधिकार के और अमीर देखे, मेरा हजारों र मुझे अपनी हिरासत में लिया था, लेकिन आज में अपनी इच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हजारों रईस पद पर काम करने वाले अफसरों से काम पड़ा लेकिन अगर मुझे किसी ने हराया है तो सिर्फ़ आपने । मैंने सबको अपना
और अपनी दौलत का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनती कर”।
ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर स्वागत किया, लेकिन स्वाभिमान के साथ । वो समझ गए कि यह महाशय मुझे शर्मिंदा करने और वंशीधर ने जलाने आए हैं। उन्होंने माफी या प्रार्थना की कोशिश नहीं की, लेकिन उन्हें अपने पिता की यह खुशामत बर्दाश्त नहीं हो रही थी। पर जब उन्होंने पंडितजी की बातें सुनी तो उनके मन का मैल मिट गया। उन्होंने पंडितजी की और उड़ती हुई नज़रों से देखा। उनमें मित्र भाव झलक रहा था। गर्व ने अब शर्म के सामने सिर झुका दिया। वो शर्माते हुए बोले यह आपकी उदारता है जो आप ऐसा कहते हैं। मुझसे जो गुस्ताखी हुई है, उसे माफ़ कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं
आपका सेवक हूँ। जो आज्ञा होगी वह मेरे सिर-माथे पर होगा”।
अलोपीदीन ने नम भाव से कहा- नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की थी, लेकिन आज स्वीकार करनी पड़ेगी। वंशीधर बोले- मैं किस लायक हूँ, लेकिन जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें कमी नहीं होगी”।
अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ कागज़ निकाला और उसे वंशीथर के सामने रखकर बोले- इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने साइन कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ, जब तक यह काम पूरा न कीजिएगा, दरवाज़े से न हटँगा”। मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढ़ा तो आभार से उनकी आँखों में ऑसू भर आए। पं. अलोपीदीन ने उन्हें अपनी सारी जायदाद का परमानेंट मैनेजर चुन लिया था। साल के 5 लाख रूपए के अलावा रोजाना का खर्च अलग, सवारी के लिए घोड़ा, रहने के लिए बैंगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कंकपाती आवाजी में वो बोले- पंडितजी मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि आपकी उदारता की तारीफ़ कर सकूँ! लेकिन मैं इतने बड़े पद के लायक नहीं हूँ।
अलोपीदीन हँसकर बोले- ‘मुझे इस समय एक कम लायक आदमी की ही जरूरत है”। र ने गंभीर भाव से कहा- में वैसे भी आपका सेवक हूँ। आप जैसे इज्जतदार, सज्जन आदमी की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। लेकिन मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह स्वभाव जो इन कमियों को पूरा कर देता है। ऐसे महान काम के लिए एक बड़े गहरे अनुभवी आदमी की जरूरत है”।
अलोपीदीन ने पेन निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले- न मुझे बुद्धिमानी की चाह है, न अनुभव की, न गहराई की, न काम में कुशलता की। इन गुणों के महत्व को मैं खूब जान चुका हूँ। अब सौभाग्य और अच्छी किस्मत ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और बुद्धिमानी की चमक फीकी पड़ जाती है। यह पेन लीजिए, ज़्यादा सोच-विचार न कीजिए, साइन कर दीजिए। भगवान् से यही प्रार्थना है कि वह आपको हमेशा वही नदी किनारे वाला, अनोखा, हठी, कठोर लेकिन धर्म के लिए सब कुछ बलिदान करने वाला दारोगा बनाए रखे । वंशीधर की आँखें भर आई। उनके दिल के छोटे से बर्तन में इतना एहसान न समा सका। उन्होंने एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रद्धा भरी नज़रों से देखा और काँपते हुए हाथ से कागज पर साइन कर दिए। अलोपीदीन ने खुश होकर उन्हें गले से लगा लिया.
सीख – मुंशी जी की ये कहानी हमें ना जाने कितनी बातों पर सोचने के लिए मजबूर करती हैं, इसमें उन्होंने ये समझाने की कोशिश की है कि अगर इंसान अपना काम इमानदारी से करे तो एक ना एक दिन उसे अपने कर्मों का अच्छा फल ज़रूर मिलता है. अपने पिता के कहने पर भी वंशीधर ने रिश्वत ना लेने का फैसला किया. ये उनके इमानदारी और अच्छे character को दिखाता है, उनके हालात ऐसे थे कि वो कमजोर पड़ सकते थे लेकिन एक बड़ी रकम भी उनके ईमान को डगमगा नहीं पाई. सिस्टम में करंट किस तरह फैला हुआ है और वो किस कदर उसे खोखला कर देता है कि गलत काम करने वाले आसानी से बचकर निकल जाते हैं. एक आदमी को इमानदारी से काम करने के बाद भी अपमान भरी नज़रों से देखा जाता है, उसका मज़ाक उड़ाया जाता है. वंशीधर को इमानदारी से काम करने के लिए इनाम नहीं दिया गया बल्कि उसे suspend कर सजा दी गई. यहाँ तक कि उसके अपने धर चालों ने भी उससे महं फेर लिया, इस कहानी से अगर हम साथ ले जाना चाहते हैं तो यही ले जा सकते हैं कि अगर हम में से हर एक वंशीधर की सोच को अपना ले, अपना अपना काम इमानदारी से करे तो ये सिस्टम अपने आप सुधरने लगेगा. एक-एक इंसान में आए बदलाव से ही समाज बदलाव आएगा.