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रामधन अहीर के दरवाजे पर एक साधु आकर बोला- “बच्चा तेरा कल्याण हो, कुछ साधु पर श्रद्धा कर”। रामधन ने जाकर पत्नी से कहा- “साधु दरवाजे पर आये हैं, उन्हें कुछ दे दे पत्नी बरतन माँज रही थी, और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज क्या बनेगा, घर में अनाज का एक दाना भी न था। चैत का महीना था। लेकिन यहाँ दोपहर को ही अंधकार छा गया था। फ़सल सारी-की-सारी खेल से उठ गयी। आधी महाजन ने ले ली, आधी जमींदार के नौकरों ने वसूल की। भूसा बेचा तो बैल के व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गाँठ अपने हिस्से में आयी। उसी को पीट-पीटकर एक मन-भर दाना निकाला था। किसी तरह चैत का । अब आगे क्या होगा। क्या बैल खायेंगे, क्या घर के लोग खायेंगे, यह भगवान ही जाने ! पर दरवाजे पर साधु आ गया है, उसे निराश पार हुआ।
कैसे लौटायें, अपने दिल में क्या में क्या कहेगा।
पत्नी ने कहा- “क्या दूँ, कुछ तो रहा नहीं ?
रामधन- “जा, देख तो मटके में, कुछ आटा-वाटा मिल जाय तो ले आ”।
पत्नी ने कहा- “मटके झाड़-पोंछकर तो कल ही चूल्हा जला था। क्या उसमें बरकत होगी ?” रामधन- “तो मुझसे तो यह न कहा जायगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है। किसी के घर से माँग ला”।
पत्नी- ‘जिससे लिया उसे लौटा नहीं पाई, अब और किस मुँह
से माँगें ?”
रामधन- “भगवान के लिए कुछ भोग निकाला है न, वही ला, दे आऊँ !” पत्नी- “भगवान की पूजा कैसे होगी
रामधन- “भगवान माँगने तो नहीं आते ? समाई होगी करना, न समाई हो न करना”।
पत्नी- “अरे तो भोग भी ज्यादा कहाँ है? मुश्किल से आधा सेर होगा। इसके बाद क्या फिर कोई साधु न आयेगा। उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा”।
रामधन- “यह बला तो टलेगी, फिर देखी जायगी”।
पत्नी झुंझलाकर उठी और एक छोटी-सी हाँड़ी उठा लायी, जिसमें मुश्किल से आधा सेर आटा था। वह गेहूँ का आटा बड़े यत्न से भगवान के लिए रखा हुआ था। रामधन देर खड़ा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे में रखकर बाहर आया और साधु की झोली में डाल दिया।
महात्मा ने आटा लेकर कहा- “बच्चा, अब तो साधु आज यहीं रमेंगे। कुछ धोड़ी-सी दाल दे, तो साधु का भोग लग जाय”। रामधन ने फिर आकर पत्नी से कहा। संयोग से दाल घर में थी। रामधन ने दाल, नमक, उपले जुटा दिये। फिर कुएँ से पानी खींच लाया। साधु ने बड़ी विधि से बाटियाँ बनायीं, दाल पकायी और आलू झोली में से निकालकर भुरता बनाया। जब सब सामान तैयार हो गया, तो रामधन से बोले-” बच्चा, भगवान के प के कौड़ी- चाहिए। रसोई पवित्र न होगी, तो भोग कैसे लगेगा?
रामधन- “बाबाजी, घी तो में न होगा”।
का दिया तेरे पास बहुत है। ऐसी बातें न कह । साधु-” बच्चा, भगवान का दिया रामधन- “महाराज, मेरे -भैंस कुछ नहीं है, धी कहाँ से होगा?
साधु- “बच्चा, भगवान् के भंडार में सब कुछ है, जाकर मालकिन से कहो तो ?” रामधन ने जाकर पत्नी से कहा- “धी माँग रहे हैं। कहने को भिक्षा माँगते हैं, पर धी बिना कौर गले से नहीं सरकता!”
पत्नी- “तो इसी दाल में से थोड़ी लेकर बनिये के यहाँ से ला दो। जब सब किया है तो इतने के लिए उन्हें क्यों नाराज करते हो ?’ धी आ गया। साधुजी ने ठाकुरजी की घिडी निकाली, घंटी बजायी और भोग लगाने बैठे। खूब तन कर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए दरवाजे पर लेट गये। थाली, कटोरी रामधन घर में माँजने के लिए उठा ले गया।
उस रात रामधन के घर चूल्हा नहीं जला। खाली दाल पकाकर ही पी ली। रामधन लेटा, तो सोच रहा था- “मुझसे तो यही अच्छे ।”
सीख – इस कहानी में मुशी जी ने एक गरीब किसान पर क्या क्या बीतती है वो बताया है. एक और, दिन रात खून पसीना एक करने के बाद भी अक्सर किसानों के पास अपना घर चलाने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं बचता. खेती के लिए या किसी भी वजह से क़र्ज़ लेकर वो एक ऐसे जाल में फंस जाते हैं जिससे जीवन भर नहीं निकल पाते और गरीब के गरीब ही बने रहते हैं. रामधन ने बड़ी मेहनत से खेती की, फसल भी हुई लेकिन उसके कुछ काम न आ सकी क्योंकि आधी फसल महाजन और आधी ज़मीदार ले गए और उस बेचारे के पास पेट भरने के लिए भी कुछ नहीं बचा.
वहीं दूसरी ओर, साधु सिर्फ़ भिक्षा मांगकर अपना पेट भर लेते थे. जो साधु उसके दरवाजे पर आया था उसने अपने मन मर्जी सामान माँगा और भरपेट
खाकर सो गया. सच्चे संत वो होते हैं जो भिक्षा में मिले थोड़े से अनाज से भी संतुष्ट हो जाते हैं. इसके साथ-साथ उनमें जीभ के स्वाद की कोई इच्छा बाकी नहीं होती. मगर उस साधू में ये गुण नहीं थे इस किस्से ने रामधन को सोचने पर मजबूर कर दिया था कि क्या कड़ी मेहनत करना सही है या एक बाबा की तरह भिक्षा माँगना क्योंकि वो भूखा सोया था पर बाबाजी ने अपना पेट भर लिया था।