यह किसके लिए है?
- नोग जो औपनिवेशिक काल के भयभीत कर देने वाले इतिहास को जानता चाहते हैं
उन लोगों के लिए जो जानना चाहते हैं कि कंपनियां हमारे जीवन पर किस तरह राज करने आई
यात्रा में रुचि रखने वाले उन लोगों के लिए जो भारत में समय बिताना चाहते हैं
लेखक के बारे में
विलिंगा इलरिमाल एक जाने-माने स्कॉटिश राइटर और इतिहासकार हैं जिनका काम मुख्यतः दक्षिण और मध्य-पूर्वी एशिया से संबंधित होता है। एक दर्जन से अधिक अवाई-विजेता किताबें लिखने के अलावा उन्होंने टीवी सीरीज बनाई हैं और म्यूजियम प्रदर्शनियों और संगीत सभाओं का आयोजन किया है। वे तीन विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर चुक हैं। वे भारत में 1989 के बाद से कई बार भारत की यात्रा कर चुके हैं।
आपको यह किताब क्यूँ पढ़नी चाहिये?
आपने “टू बिग टु फेल” वाली अंग्रेजी कहावत तो जरूर सुनी होगी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने खुद को इस कहावत का आदर्श नमूना साबित किया। इस कम्पनी की शुरुआत हुई तो व्यापारिक कार्यों के लिए थी मगर जल्द ही इसने सता पर काबिज होकर पूरे दक्षिण एशिया को अपना गुलाम बना लिया। अपने निवेशकों को अमीर बनाने के एकमात्र लक्ष्य को पाने की खातिर इस कंपनी ने भारतीय उपमहाद्वीप की सदियों पुरानी धन-संपदा को बंद दशकों के समय में बुरी तरह लूटा। इनकी इस महालूट की वजह से अकाल, अव्यवस्था और सांस्कृतिक क्षति जैसी भीषण समस्याएं पैदा हुई जिनसे भारतीय उपमहाद्वीप आज भी पूरी तरह से उभर नहीं पाया है।
ईस्ट इंडिया कंपनी सफल हो पाई, इसका मुख्य कारण था- उसकी टाइमिंगा इसे उपयुक्त समय पर ब्रिटिश राजशाही से सैन्य सहायता तथा ठीक उसी समय पर युरोपीय व भारतीय धनवानों से आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। बड़ी बात तो यह थी कि कपनी के डायरेक्टरों ने उस वक्त भारत में पसरी राजनैतिक अस्थिरता का चालाकी से लाभ उठाया जिससे वे कंपनी को ऊंचाइयों तक पहुंचा सके। अगर आप समझना चाहते हैं कि सिर्फ एक कंपनी ने कैसे अपने बलबूते पर पर 20 करोड़ लोगों पर दो शताब्दियों तक राज किया तो इन अध्यायों को जरूर पढिए।
इस किताब में हम जानेंगे
-कैसे दुनिया के सिर्फ 5 % लोगों वाले देश ने इससे 4 गुना बड़े आकार के देश पर राज किया
-कैसे एक कंपनी ने वर्ल्ड बिज़नस फ्लो की दिशा को पलट दिया
क्यों लूट” अंग्रेजी में शामिल होने वाले शुरुआती शब्दों में से एक था
अठारवीं शताब्दी तक आते-आते ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के बजाय सैन्य बल द्वारा लूट को अपना मिशन बना चुकी थी।
दि ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1599 में एक जॉइन्ट स्टॉक कंपनी के रूप में हुई थी। यह जॉइन्ट स्टॉक कंपनी एक अंग्रेजी इनोवेशन थी जिसने मध्यकालीन काश्तकारों की समीतियों को उनकी खरीद शक्ति एकजुट करने का अवसर दिया। इस अनोखी कपनी का उद्देश्य अपने शेयरधारकों और निवेशकों को अमीर बनाना था। कैरिबिया में इस कंपनी की औपनिवेशिक सफलता से प्रभावित होकर महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने इस कंपनी को दक्षिण एशिया में एकछत्र व्यापार करने का रॉयल चार्टर प्रदान किया।
1608 में पहले अंग्रेज ने हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखा था। मगर यहाँ आने का उसका मकसद क्या था? मकसद था- मुगल साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करना जो करीब एक शताब्दी से हिंदुस्तान की सत्ता पर काबिज थे। जब अंग्रेजों ने पहली बार मुगल सम्राट को देखा तो वे सिर से पैर तक हीरे-जवाहरातों से लदे हुए थे और उन्होंने उच्च कोटी के वस्त्र धारण कर रखे थे। मुगलों की धन-सपदा और चकाचौध को देखकर अग्रेज व्यापारी दंग रह गए। उस पहली मुलाकात का ही नतीजा है कि अंग्रेजी में महाधनवान आदमी को आज भी “मोगल (Mogul” कहा जाता है।
1614 में अग्रेजी गुप्तचर थॉमस रो मुगल सम्राट जहागीर से मिला। रो ने व्यापार के विषय में बातचीत करने का प्रयास किया मगर शायद मुगल सम्राट घन-संपदा से काफी ऊब चुके थे तभी तो उन्होंने व्यापार के बजाय कला और खगोलविज्ञान पर घंटों तक चर्चा की।
आखिरकार रो को मट्टास में अपना पहला बंदरगाह बनाने की इजाजत मिल गई। जल्द ही उन्होंने बंबई और कलकत्ता में भी अपने व्यापारिक बंदरगाह स्थापित कर लिए।
प्रारंभ में यह संबंध हर पक्ष के लिए फायदे का सौदा था। कफी कम समय में कंपनी का व्यापार फल-फूल गया जिसके कारण बहुत बड़ी संख्या में यूरोपीय इन्चेस्टर कतार में शामिल हो गए। भारत में कंपनी के स्थायी व्यापार के कारण बहुत बड़ी संख्या में शिल्पकारों और व्यापारियों को कंपनी के नए ठिकानों पर ले जाया जाने लगा। 1690 आते- यानी पहला बंदरगाह स्थापित होने के करीब 30 साल के अंदर, करीब 60 हजार लोग अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। एक छोटे-से बंदरगाह से एक व्यापारिक राजधानी के रूप में तब्दील हो चुका था जिसा
कई ग्रामीण आप्रवासी गावों की दुर्दशा की वजह से शहर की ओर प्रस्थान कर रहे थे। मुगल बादशाह औरंगजेब की 1707 में मृत्यू हो गई और उनका वारिस कौन होगा स बात का कोई स्पष्ट फैसला नहीं हो सका। मौके का फायदा उठाकर दुश्मन टूट पड़े। सबसे पहले तो मराठा आए जो कि देहाती हिन्दु गोरिला लड़ाके थे। इसके बाद अफगान बादशाह नादिर शाह ने दिल्ली को बुरी तरह से लूटा। इन लड़ाइयों की वजह से मुगलों का सारा खजाना खाली हो गया।
मुगल सत्ता अस्त-व्यस्त थी। ईस्ट इंडिया कंपनी और इसकी फ्रेंच समकक्ष कंपनी ला कॉम्पाइने” ने इस राजनैतिक अस्थिरता का फायदा उठाकर छल से कई और नए बंदरगाह तैयार कर दिए। मुगलों ने इस गुस्ताखी की सजा देने के लिए अपने 10 हज़ार सैनिकों की टुकड़ी भेजी जिन्हें 700 फ्रेंच सिपयिहों (भारतीय लोग जिन्हें यूरोपीयों द्वारा ट्रेन किया गया था) ने 1745 में ऐटर नदी की लड़ाई में रौद डाला।
अब यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया था कि मुगल सेना के सबसे बेहतरीन हथियारों को भी 18वीं सदी के यूरोपियन हथियार हरा सकते थे। अंग्रेजी और फ्रेंच कंपनियों की सोच अब तेजी से व्यापार के बजाय युद्ध और सेना पर केंद्रित होती जा रही थी।
भारत को हिंसा के माध्यम से दुनिया के सबसे अमीर उपनिवेश के रुप में बदलने का काम अब शुरु हो गया था।
मुगल साम्राज्य के लँगड़ाने के बाद सत्ता को पाने के लिए दावेदारों की लाइन लग गई।
1750 तक यह कंपनी दुनिया की सबसे ज्यादा पूंजी वाली कंपनी बन चुकी थी जिसका ब्रिटेन के कुल आयात व्यापार में इवें भाग का योगदान था। कम्पनी के अधिकारी
रोबर्ट क्लाइव की जिम्मेदारी थी कि वह लंगड़े मुगल साम्राज्य को हथियाकर कंपनी को हिंदुस्तान की सता पर काबिज करे। क्लाइव एक पैदाइशी गरगमिजाज व्यक्ति था। उसके पिता ने इंग्लैंड में उसके उन्माद से होने वाली परेशानियों से बचाने के लिए उसे हिंदुस्तान भेजा: जहाँ उसने देश के लिए
इतनी नफरत पैदा की जिसने मरते दम तक उसका दामन नहीं छोड़ा होगा।
भारत में आंग्ल-फ्रेंच तनाव के दौरान उसने खुद को एक साहसी और क्रिएटिव मिलिटरी टैविटेशन के रूप में दिखाना शुरु कर दिया। 1745 में फ्रांस ने भारत में अपने सैन्य डेरे जमाने शुरु कर दिए, ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे एक बड़े खतरे के तौर पर लिया। परिणामस्वरूप कंपनी ने क्लाइव को एक प्रमुख बंदरगाह और क्षेत्रीय व्यापारिक राजधानी मद्रास का डिप्टी गवर्नर बना दिया और उसे सेनाप्रमुख के पद पर बैठा दिया।
इसी बीच कंपनी के भारतीय दुश्मन बंगाल क्षेत्र पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।
सिराजूदौला बंगाल का नया नवाब था। उसके अहंकार और जुल्म की वजह से हर कोई उसे गाली देता था। लोगों को इराने के उद्देश्य से वह अपनी निजी नाव पर सवार होकर तट पर रखी हुई नावों को पलट देता था। एक राजकुमार के तौर पर उसने अपनी जवानी के दिनों में अपराधियों को मौत के घाट उतारने का काम किया था। इसके अलावा वह एक निर्मम बलात्कारी भी था। एक राजा के रूप में वह अपने जनरलों और एक अमीर घराने ‘जगत सैठों के लिए अपमान का भाव रखता था।
सिराज ईस्ट इंडिया कंपनी पर भरोसा नहीं करता था। सन 1756 में जब कंपनी ने इसके कलकत्ता के मुख्य किले की प्राचीर को अनाधिकृत रूप से रिपेयर किया तो उसे कपनी पर हमला करने का शानदार मौका मिल गया।
मुगल तख्त का वारिस शाह आलम पूरे हिंदुस्तान में अपनी खोई हुई शक्ति को वापस पाने की जद्दोजहद कर रहा था। एक तरफ सिराज जहाँ गरममिजाज था वहीं दूसरी तरफ शाह आलम काफी शांत स्वभाव का था। वह एक अच्छा शायर था। वह संवेदनशील और समझादार होने के साथ ही साथ दिखने में भी काफी आकर्षक था। दिल्ली से बेदखल हो जाने के बाद वह पूर्व मुगल क्षेत्रों में सत्ता पर काबिज होने की पूरी कोशिश कर रहा था जिनमे बगाल भी शामिल था। मुगल समर्थक और उदार लोग शाह के साथ खड़े हो गए।
मगर सिराज और आलम दोनों ने काफी देर कर दी थी क्योंकि क्लाइव पहले से ही बंगाल को जीतने की पूरी तैयारी कर चुका था।
प्लासी के युद्ध में कंपनी की जीत ने उसे पहली बार सत्ता पर काबिज कर दिया। विशाल सेना और अपने बुरे ऐटीट्यूड के साथ सिराज ने मुगल और कंपनी से टकराव के लिए जमीन तैयार की जो कि भारतीय इतिहास में एक टर्निंग पॉडट साबित हुआ।
1756 में वह कलकता के द्वार पर अपने 70 हजार सेनिकों के साथ खड़ा हुआ जिसने गवर्नर रॉजर इक की 515 सेनिकों वाली सेना को सदमे में डाल दिया।
सिराज और उसके सिपाहियों ने कलकत्ता को बुरी तरह से लूटा। पकड़े गए ब्रिटिश सैनिकों को एक छोटी-सी कोठरी में कैद कर दिया गया जिसे ब्लेक होल यानि काल कोठरी कहा जाता है। जहाँ पर ज़्यादातर सैनिकों की मौत हो गई।
कंपनी और कंपनी के अंशधारी अफसरों के लिए कलकत्ता का लूटा जाना आर्थिक रुप से एक बड़ी त्रासदी थी क्योंकि उनकी किस्मत इसी पर टिकी हुई थी। हर किसी की पहली प्राथमिकता थी कि कॉलोनी को तुरंत किसी अन्य स्थान पर शिफ्ट किया जाए।
यहाँ पर आगमन होता है रॉबर्ट क्लाइव का, जो अब तक 3 ब्रिटिश टुकड़ियों के साथ हिंदुस्तान की धरती पर कदम रख चुका था। कलकता का घेराव करने के अगले ही दिन
क्लाइव ने कंपनी के नाम से जंग की शुरुआत कर दी। यह पहली दफा था जब कंपनी ने सीधे तौर पर किसी भारतीय राजकुमार के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजाया था।
इसी बीच जगत सेठ फाइनेंसियर भाइयों का सिराजूदौला से लगातार मोहभंग होता जा रहा था। वे सिराजूदोला के खिलाफ जंग में जीतने के लिए समर्थन मांगने की खातिर कंपनी के पास गए और सिराज के इराकी जनरल मीर जफर को नया नवाब बनाने की सिफारिश की।
हमेशा अपने व्यक्तिगत फायदों के बारे में सोचने वाले क्लाइव ने जगत बंधुओं की घूस स्वीकार कर ली। उसने इस जंग को यह कहते हुए सही ठहराया कि सिराज फ्रांसीसियों का दोस्त है और अगर एक बार वह हार गया तो फ्रेंच कमजोर पड़ जाएंगे जिससे भारत में व्यापार पर अप्रेजों का एकछत्र राज स्थापित हो जाएगा। क्लाइव के सैनिकों की सिराजूदौला से मुलाकात 757 में प्लासी के युद्ध में हुई जहाँ मानसूनी बारिश और हवाओं ने लड़ाई का रुख पलट दिया। कंपनी के लड़ाके हथियारों
को गीला होने बचाना जानते थे जबकि मुगल लड़ाकों को इसका कोई वास ज्ञान नहीं था। सिराज 25 की उम्र में ही चल बसा जबकि देशद्रोही मोर जाफर को नया नवाब
घोषित कर दिया गया। जगत सेठों के साथ क्लाइव के इस सौदे ने उसे यूरोप से सबसे अमीर लोगों की फेहरिस्त में शामिल कर दिया।
प्लासी की लड़ाई ने मुगलों को सरेन्डर करने पर मजबूर कर दिया जिसके कारण उन्हें कपनी की सारी मांगे माननी पड़ी। इसकी वजह से कपनी को व्यापार के उदारीकरण के अलावा बहुत बड़ी मात्रा में खजाना भी मिला। इसके अलावा उसे कई सारे विशेषाधिकार जैसे- जमींदारी के अधिकार और एक टकसाल प्राप्त हुई।
दो सदियों तक राज करने वाले साम्राज्य को कुचलने के बाद यह पहला मौका था जब इस कंपनी ने हिंदुस्तान की सत्ता पर नियंत्रण स्थापित किया था। हस तरह से कंपनी का हिंदुस्तान में वे-लगाम लूटपाट करने और संपत्तियों को जब्त करने का सिलसिला शुरु हो गया।
प्लासी के बाद कंपनी वालों ने देहाती इलाकों को बेरहमी से लूटा।
बंगाल के नए कठपुतली नवाब और अंग्रेजों के बीच हुआ नया समझौता अंग्रेजों के लिए बहुत ही फायदेमंद था। यह न तो पारस्परिक प्रशंसा पर आधारित था और न ही भीर
जफर ने इसमें बुद्धि का प्रयोग किया था। मीर को इस बात का जरा सा भी इल्म नहीं था कि वह एक पुरी कंपनी से डील कर रहा है ना कि किसी एक राजा से। अपने पत्रों में क्लाइव ने उसे “दि ओल्ड फूल” यानि बेवकूफ बूढ़ा कहकर सबोधित किया है। रॉबर्ट क्लाइव अपनी जीत से पूरी तरह आत्मसंतुष्ट था। 760 में जब वह ब्रिटेन वापस लौटा तो वह जितनी संपत्ति लेकर आया था उतनी संपत्ति पूरे यूरोप ने स्पेनिश विजेता
कोर्टेस अमेरिका को लूट कर आने के बाद कभी नहीं देखि थी। उसने लदन में इतने घर और संपत्तियाँ खरीदी कि पूरे लंदन उसके बारे में चर्चा करने लगा।
वहाँ बंगाल का नया नवाब मीर जफर इराक के नजफ इलाके से आया एक अनपढ़ सिपाही था। वह एक बेहद शानदार टेकटीशियन था लेकिन उसमे नेतृत्व क्षमता का अभाव था जिसके कारण बगाल में पसरी अस्त-व्यस्तता और ज्यादा बढ़ गई। वो अपने सिपाहियों को तनख्वाह नहीं देता था लेकिन खुद अपनी दोनों कलाइयों पर 7 अलग-अलग जवाहरातों के ब्रेसलेट पहना करता था। उसके राज्य में सैनिक और जनता दोनों नियमित तौर पर विद्रोह कर रहे थे। व्यापारिक कानूनों का उलघन करके और जनता से कर लेकर खुद को अमीर बनाने की वजह से कंपनी ने बाद में जाफर की शक्ति को कम कर दिया।
वारेन हास्टिस जो कंपनी का एक उभरता हुआ सितारा था, अपने साथियों के इस कारनामें से स्तब्ध जाया तो निश्चित तौर पर अव्यवस्थता फैलेगी, इसलिए वह इसे रोकने की कोशिशों में लग गया। गया। उसे अंदेशा था कि अगर मीर जाफर के साम्राज्य का पतन हो
इसी दौरान पराजित मुगल बादशाह शाह आलम अपने शानदार आकर्षण और अच्छी सूरत के कारण किसी गाँव में गुजर बसर कर रहा था। जब वह बंगाल आया तो पुराना सभ्रांत मुगल वर्ग अपने सैनिकों के साथ बड़ी संख्या में उनकी तरफ चला गया। मुगलों के वारिस के रूप में आलम अभी भी हिंदुस्तान में गुगलों का प्रतीक था। इस तरह से उसने कंपनी और मीर दोनों के लिए खतरा पैदा कर दिया। उन्होंने 1761 में हेलसा के युद्ध में उसे पकड़ने की कोशिश की मगर आलम बच निकलने में कामयाब हो गया।
मीर जाफर को कंपनी ने अपने रास्ते से हटा दिया। कंपनी ने जफर की जगह उसके दामाद मीर कासिम को गद्दी पर बैठा दिया जो उससे ज्यादा काबिल था। उसने बरसों से
बंगाल में फैली अव्यवस्था को समाप्त कर दिया। लेकिन वह कंपनी के प्रति कम वफादार था और उसके व्यापारियों के अपमानजनक व्यवहार को कतई बर्दाश्त नहीं करता
था।
जब मीर कासिम की लाख शिकायतों के बावजूद भी कंपनी ने अपने व्यापारियों पर लगाम नहीं कसी तो उसने कंपनी के लोगों और स्थानीय व्यापारियों के बीच की खाई को पाटने के लिए करों और कस्टम ड्यूटियों को समाप्त कर दिया। इसके अलावा उसने कंपनी की संपत्तियों को भी जब्त करना शुरू कर दिया।
परिणामस्वरुप, नवाब और कंपनी के बीच जल्द ही लड़ाई शुरू होने वाली थी।
प्लासी के बाद कंपनी वालों ने देहाती इलाकों को बेरहमी से लूटा।
बंगाल के नए कठपुतली नवाब और अंग्रेजों के बीच हुआ नया समझौता अंग्रेजों के लिए बहुत ही फायदेमंद था। यह न तो पारस्परिक प्रशंसा पर आधारित था और न ही भीर
जफर ने इसमें बुद्धि का प्रयोग किया था। मीर को इस बात का जरा सा भी इल्म नहीं था कि वह एक पुरी कंपनी से डील कर रहा है ना कि किसी एक राजा से। अपने पत्रों में क्लाइव ने उसे “दि ओल्ड फूल” यानि बेवकूफ बूढ़ा कहकर सबोधित किया है। रॉबर्ट क्लाइव अपनी जीत से पूरी तरह आत्मसंतुष्ट था। 760 में जब वह ब्रिटेन वापस लौटा तो वह जितनी संपत्ति लेकर आया था उतनी संपत्ति पूरे यूरोप ने स्पेनिश विजेता
कोर्टेस अमेरिका को लूट कर आने के बाद कभी नहीं देखि थी। उसने लदन में इतने घर और संपत्तियाँ खरीदी कि पूरे लंदन उसके बारे में चर्चा करने लगा।
वहाँ बंगाल का नया नवाब मीर जफर इराक के नजफ इलाके से आया एक अनपढ़ सिपाही था। वह एक बेहद शानदार टेकटीशियन था लेकिन उसमे नेतृत्व क्षमता का अभाव था जिसके कारण बगाल में पसरी अस्त-व्यस्तता और ज्यादा बढ़ गई। वो अपने सिपाहियों को तनख्वाह नहीं देता था लेकिन खुद अपनी दोनों कलाइयों पर 7 अलग-अलग जवाहरातों के ब्रेसलेट पहना करता था। उसके राज्य में सैनिक और जनता दोनों नियमित तौर पर विद्रोह कर रहे थे। व्यापारिक कानूनों का उलघन करके और जनता से कर लेकर खुद को अमीर बनाने की वजह से कंपनी ने बाद में जाफर की शक्ति को कम कर दिया।
वारेन हास्टिस जो कंपनी का एक उभरता हुआ सितारा था, अपने साथियों के इस कारनामें से स्तब्ध जाया तो निश्चित तौर पर अव्यवस्थता फैलेगी, इसलिए वह इसे रोकने की कोशिशों में लग गया। गया। उसे अंदेशा था कि अगर मीर जाफर के साम्राज्य का पतन हो इसी दौरान पराजित मुगल बादशाह शाह आलम अपने शानदार आकर्षण और अच्छी सूरत के कारण किसी गाँव में गुजर बसर कर रहा था। जब वह बंगाल आया तो पुराना सभ्रांत मुगल वर्ग अपने सैनिकों के साथ बड़ी संख्या में उनकी तरफ चला गया। मुगलों के वारिस के रूप में आलम अभी भी हिंदुस्तान में गुगलों का प्रतीक था। इस तरह से उसने कंपनी और मीर दोनों के लिए खतरा पैदा कर दिया। उन्होंने 1761 में हेलसा के युद्ध में उसे पकड़ने की कोशिश की मगर आलम बच निकलने में कामयाब हो गया।
मीर जाफर को कंपनी ने अपने रास्ते से हटा दिया। कंपनी ने जफर की जगह उसके दामाद मीर कासिम को गद्दी पर बैठा दिया जो उससे ज्यादा काबिल था। उसने बरसों से
बंगाल में फैली अव्यवस्था को समाप्त कर दिया। लेकिन वह कंपनी के प्रति कम वफादार था और उसके व्यापारियों के अपमानजनक व्यवहार को कतई बर्दाश्त नहीं करता था।
जब मीर कासिम की लाख शिकायतों के बावजूद भी कंपनी ने अपने व्यापारियों पर लगाम नहीं कसी तो उसने कंपनी के लोगों और स्थानीय व्यापारियों के बीच की खाई को पाटने के लिए करों और कस्टम ड्यूटियों को समाप्त कर दिया। इसके अलावा उसने कंपनी की संपत्तियों को भी जब्त करना शुरू कर दिया।
परिणामस्वरुप, नवाब और कंपनी के बीच जल्द ही लड़ाई शुरू होने वाली थी।
बक्सर की लड़ाई में कंपनी ने हिंदुस्तान की तीन शक्तियों को पराजित किया और पूरे भारत पर कब्जा करने के लिए
जमीन तैयार की।
अपने ससुर की तरह ही मीर कासिम भी एक सेन्य टेक्नीशियन था। फिरगियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने से पहले उसने मुगल सम्राट शाह आलम को अपने साथ मिला लिया जिसके पास अब केवल प्रतीकात्मक शक्तिया ही बची थी। साथ ही उसने अपने पड़ोसी अवध नवाब शुजा उद दौलाह को भी अपने खेमे में शामिल किया जिसके पास वास्तविक शक्तियां मौजूद थी। शुजा कद-काठी से काफी हट्टा-कट्टा था और काफी मज़बूत भी था। 1763 में वह अपनी सर्वोतम शारीरिक स्थिति में नहीं था मगर अभी भी वह तलवार के एक बार से ताकतवर सांड का सर धड़ से अलग कर सकता था।
पटना में कंपनी पर हावी होने के बावजूद भी मीर कासिम और उसकी संयुक्त सेना को 1763 में बक्सर की निर्णायक लड़ाई में मुहँ की खानी पड़ी। मीर कासिम भाग गया; बाद मैं वह गरीबी में मरा। शुजा को कंपनी ने कठपुतली सम्राट बना दिया और शाह आलम भी पने प्रतिष्ठात्मक महत्व को जानते हुए अग्रेजों से जा मिला।
तीनों मुगल सेनाओं को परास्त करने के बाद कंपनी हिंदुस्तान की सबसे ताकतवर शक्ति बन चुकी थी। इसके बाद कंपनी का पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप को विजय
करने का सिलसिला शुरू हो गया।
पटना की घटना के बाद कंपनी के कुछ सहमें हुए निवेशकों ने गुप्त रुप से क्लाइव, जो अब तक सांसद और लॉर्ड बन चुका था, को भारत वापस भेजने की मांग की ताकि उनका निवेश सुरक्षित रहे।
क्लाइव जानता था कि शाह आलम के लिए सबसे जरूरी चीज उसकी तख्त पर वापसी है इसलिए उसने शहंशाह को दोबारा तख्त पर बैठाने का वायदा किया। इसके बदले में क्लाइव ने आलग से बगाल प्रात के साथ ही पूरे राज्य की दीवानी मांगी यानि अब पूरे मुगल साम्राज्य के खजाने की चाभी अग्रेजों के हाथों में थी। राज्य का दीवान होने का मतलब था पूरे राज्य की आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण होना।
इस सौदे पर शाह आलम राजी हो गया। 1765 में शाह आलम ने 26 लाख रुपए और एक वायदे के बदले में पूरे उत्तर भारत का आर्थिक कंट्रोल कंपनी के हवाले कर दिया;
वायदा यह था कि वह मोहमद के उसूलों के मुताबिक राज करेगा। ब्रिटीशर्स का बगाल पर 200 साल तक राज करने का वक्त अब आ चुका था।
क्लाइव ने लिखा है- “बंगाल के नवाब के पास नाम और प्रतिष्ठा की छाया के अलावा कुछ भी नहीं बचा है।”
इसके बाद से इंडिया को एक बगीचे के जैसे समझा जाने लगा जिससे होने वाले फायदे को दूर लंदन पहुंचाया जाता था। एक आम नागरिक के पास कुछ नहीं बचा था। कला की सदियों पुरानी परंपराओं ने उनके अंतिम कलाकारों के साथ ही दम तोड़ दिया क्योंकि उनके पास अपने सामान को बेचने के लिए कोई मार्केट मौजूद नहीं था। कोई भी व्यक्ति जो बाजारु दर से नीचे काम करने का विरोध करता था उन्हें कड़ी सजा दी जाती थी।
कंपनी के शेयरहोल्डरों के इससे जबरदस्त फायदा हुआ और सिर्फ 8 महीने में उनके शेयरों का रेट दुगुना हो गया। बंगाल के लोगों के लिए यह एक महात्रासदी थी। मगर ये
तो अभी बस शुरुआत थी।
आर्थिक उपद्रव और अधिशात्मक झगड़े के कारण पैदा हुई सैन्य चुनौतियों के लिए कंपनी पहले से तैयार नहीं थी।
साल 1770 से विपत्ति का समय शुरू हो गया। दो साल के लंबे सूखे के कारण चावल के दाम आसमान एने लगे। बंगाल अकाल की चपेट में भा गया। कंपनी ने जनता की मदद के लिए कुछ नहीं किया। इसके विपरीत वह टेक्स इकट्ठा करने में व्यस्त थी और कई जगह तो उसने करवृद्धि भी लागू कर दी। इस पूरी घटना में भुखमरी और उससे फेली बीमारियों के कारण करीबा2 लाख बंगाली मारे गए।
जैसे ही इंग्लैंड में इस बात की भनक लगी; लोगों की नज़रों में कंपनी की प्रतिष्ठा कम हो गई। इसके बाद 1772 में यूरोप में छाई वित्तीय क्रांति के कारण कंपनी के स्टॉकों में
गिरावट हुई। इससे कंपनी के डायरेक्टरों को बैंक ऑफ इंग्लैंड से 15 लाख पाउन्ड के बैल-आउट की मांग करनी पड़ी।
इससे यह बात तो साफ हो गई कि हिन्दुस्तानी पैसा हीं ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को चला रहा है। ब्रिटेन की संसद ने कंपनी को 15 लाख पाउन्ड की मदद देने पर हामी भर दी क्योंकि इस कपनी के नाकाम होने की संभावना लगभग ना के बराबर थी। ब्रिटेन का करीब आधा व्यापार इस कपनी पर ही टिका हुआ था। कपनी के 40% से भी ज्यादा शेयर संसद के सदस्यों ने खरीद रखे थे।
रॉबर्ट क्लाइव के इस केस को लेकर ब्रिटिश संसद में पेशी हुई मगर अंत में वह राजकीय कलंक से बच निकला। हालांकि अब तक वह लंदन में बदनाम हो चुका था और वहाँ के मीडिया ने उसे ‘लॉर्ड वलचर’ यानि लॉर्ड चील जैसे नामों में संबोधित करना शुरु दिया था। मंत में अपनी बदनामी से तंग आकर 1774 में उसने खुदकुशी कर ली।
उधर हिंदुस्तान में वारेन हेस्टिस को कंपनी के हेड की कुसी पर बेठाया गया जिसने चीजों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया था। उसका डिटी फिलिप फ्रांसिस था।
दोनों को एक बुरी शुरुआत मिली। एक तरफ फ्रांसिस चारेन से इस बात पर नाराज हो गया था कि उसने पहली गीटिंग में झालरदार कमीज नहीं पहनी थी। इसके अलावा फ्रांसिस हिंदुस्तान से नफरत करता था और वारेन द्वारा भारत की तरफदारी किये जाने के कारण उत पर जरा भी भरोसा नहीं करता था। उनके आपसी झगड़े की बजह से कंपनी की भारत में हुकूमत को नुकसान पहुंच रहा था।
कंपनी के दो पुराने दुश्मनों ने बंगाल में चल रही अव्यवस्था को माप लिया। वीर मराठा और मैसूर का सुल्तान हैदर अली और उसका पराक्रमी बेटा टीपू सुल्तान दोनों अंग्रेजों के पुराने दुश्मन थे। दोनों के पास एक गुप्त हथियार था। एक ओर मराठाओं के पास नाना फड़नवीस नामक एक वीर सरदार था जिसे ‘मराठा भेकावेली’ के नाम से भी जाना जाता है। वहीं दूसरी ओर मैसूर के सुल्तान के पास फ्रांसीसी सेन्य प्रशिक्षण और हथियार मौजूद थे।
जिस समय मराठा और मैसूर का सुल्तान एकजुट होने की तैयारी कर रहे थे उसी वक्त हेस्टिंग और फ्रांसिस के बीच चल रही तकरार में क्लाइमेक्स आ गया जिससे वे दुर से आते हुए तूफान को नहीं देख सके। जल्द ही भारतीय अलायंस के साथ उनका युद्ध शुरू हो गया। पोलिलुर की लड़ाई में तीनतरफा अलायंस (मराठा, मैसूर और फ्रांस) ने अंग्रेजों की कंपनी को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया।
लेकिन कुछ ही महीनों के अंदर हेस्टिंग ने सैन्य ताकत और अपनी कूटनीति के दम पर जबरदस्त वापसी की। इसके बाद सलबाई की संधी हुई जिस पर उसने 1782 में हस्ताक्षर किये।
इसके बाद से कभी कंपनी के दुश्मनों को उन्हें हराने का मौका नहीं मिल पाया।
अपने पैतृक तख्त पर शाह आलम की वापस लौटने की आशा और उसके मराठाओं पर विश्वास का खात्मा बुरी तरह
से हुआ।
1771 तक शाह आलम उसे वापस दिल्ली में उसके मयूर तख्त पर बिठाने के कंपनी और नवाब के खोखले वादों से तंग आ चुका था। वह हिंदुस्तान में प्रतीकात्मक सम्राट के रूप में अपनी अहमियत जानता था इसलिए उसने वापस अपने महल जाने की ठान ली।
उसने मराठाओं के साथ मित्रता कर ली जिन्होंने उसे दिल्ली भेजने के लिए 16000 सैनिकों की सुरक्षा प्रदान की। मराठाओं ने उसे घुसपैठियों और लुटेरों से भरे दिल्ली के
दरबार में भी समर्थन देने का वायदा किया।
दिल्ली वापसी की उसकी यात्रा बहुत आसान थी। शाह आलम ने दिल्ली मे प्रवेश किया और अपनी ताजपोशी की घोषणा की। मगर जल्द ही वह अपनी इस उपलब्धि से असन्तुष्ट महसूस करने लगा। साह आलम ने सोचा कि वह अपने नए गुप्त हथियार, चतुर नजफ खान की बदौलत अपनी वह पैतृक जमीन भी वापस ले लेगा जिससे उसे टैक्स मिलना बंद हो गया था।
1772 में आलम अपनी जमीने वापस पाने के लिए जंग के मैदान में उतर पड़ा और जल्द ही वह लूटपाट में मिली संपत्ति को वापस दिल्ली भेजने लगा। शाह आलम ने इंस पैसे का इस्तेमाल दिल्ली के सांस्कृतिक दृश्य को पुनर्जीवित करने के लिए किया जो उसकी अनुपस्थिति के दौरान नष्ट हो गई थी। वह अपना दरबार भी लगाने लगा जिसमें उसके द्वारा गोद लिया बेटा गुलाम कादिर भी शामिल था। यह रिश्ता उसकी बाकी जिंदगी को परिभाषित करने वाला था।
शाह आलम ने एक ऐसे वायरस को चुना था जो अपने भट्दे चेहरे और बेलगाम ऐटिट्ड के साथ ही साथ गुणों में भी बहुत ज्यादा खास नहीं था। दरबार में इस बात की हवाएँ भी चलने लगी कि यह लड़का शाह की किसी गुप्त प्रेमिका का है और इसी वजह से उन्होंने इसे गोद लिया है। यह बात कितनी सच थी यह तो एक राज ही रह गया। मगर उनके बीच कुछ न कुछ तो जरूर हुआ जिसके कारण कादिर चिडचिडा सा रहने लगा।
आखिरकार 1782 में नजफ़ खात चल बसा। उसकी मौत से शाह का दरबार सकते में भा गया। वह पूरी तरह से मराठाभों पर निर्भर हो गया जबकि मराठाओं की प्राथमिकताएँ
कहीं और ही थी। मराठाओं द्वारा महल के लिए धन देने में देरी होने पर कई बार उसका परिवार भूखा ही सो जाया करता था।
1788 में फेली अव्यवस्था के बीच गुलाम कादिर ने शाह आलम पर हमला कर दिया। उसते महल की स्त्रियों का बलात्कार किया और उनको मौत के घाट उतार डाला। उसने महल के बचे-कुचे खजाने को लूटा और सम्राट की आँखें नोंच डाली।
मराठा आए और उन्होंने बादशाह की जान बचाई। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शाह आलम पूरी तरह से निराश और टूट चुका था। इस तरह आखिरी मुगल शेर परास्त हो चुका था।
पैसे और अपनी नौकरशाही के दम पर कंपनी अपने बाकी बचे हुए दुश्मनों को हराने में कामयाब हो पाई।
1776 में अमरीकी क्रांति ने ब्रिटिश उपनिवेश को हिलाकर रख दिया। न तो कंपनी और न ही महारानी चाहती थी कि ऐसा ही कुछ हिंदुस्तान में भी घटित हो। उन्होंने अमरीका से हार कर लोटे जनरल कॉर्नवालीस को यह तिक्षित करने के लिए भारत भेजा कि ऐसी ही कोई घटना वहाँ घटित ना हो।
कॉर्नवालिस कलकता महानगर में उतरा जिसकी जनसंख्या 786 के उस जमाने में 4 लाख से ऊपर हुआ करती थी। कंपनी अव्यवस्था के दौर के बाद बिजनेस में वापस लौट चुकी थी जिसका मतलब था कि अब वह अपनी सेना का आकार बढ़ा सकती थी।
अंग्रेज यूरोपीय लोगों से पैदा हुई एक नई कोलोनीयल क्लास को लेकर चिंतित थे क्योंकि वे ब्रिटिश राज के लिए खतरा पैदा कर सकते थे क्योंकि वै 3 कॉलोनियों में बसे हुए थे। इस समस्या को सुलझाने के लिए कॉर्नवालीस ने एक जातिवादी नीति बनाई जिसके अनुसार हिंदुस्तानियों और मिश्रित यूरोपीय जातीय लोगों को कंपनी में उच्च पद पर जाने और जमीनें खरीदने से रोका जाने लगा। इसके परिणामस्वरूप भट्ट हिंदुओं की एक नई खेप का जन्म हुआ जो अग्रेजों के पब्लिक ऑफिसों में उनकी मदद करती थीं।
भारत के प्रभावी और अगीर घराने भी कंपनी से जा मिले। इन अमीर घरानों से कंपनी को इतना धन मिला कि वे अब हिंदुस्तान में पनपे किसी भी विद्रोह को आसानी से दबा सकते थे।
आखिरी समय में पहली चुनौती मैसूर से आई। मैसूर का सुल्तान अपने पिता हैदर अली की जगह तख्त पर बैठ चुका था। हालांकि उसने मैसूर को काफी धनवान बना दिया था मगर उसने उसमे कूटनीति का अभाव था। वह अपने दुश्मतों, जिनमे मराठा भी शामिल थे,से कूरता से पेश आता था।
1791 में टीपू ने कंपनी को तीसरे आपल-गैसूर युद्ध के लिए ललकारा। उसकी शुरुआत काफी अच्छी हुई। टीपू की सेना अंग्रेज़ों के मुकाबले काफी फुर्तीली थी ययोंकि अंग्रेज अफसर कम-से-कम 6 नौकर, फर्नीचरों का पूरा सेट और 24 सूट साथ लेकर चलते थे।
कॉर्नवालीस व्यक्तिगत हस्तक्षेप के बाद मराठा रीहन्फोस्म्मन्ट का नेतृत्व करके कंपनी के लिए फायदे का सौदा करने में कामयाब हो पाया। टीपू के सरेन्डर के बदले में अंग्रेजों ने आधे मैसूर की मांग की। मैसूर के इस टुकड़े के साथ ही कंपनी हिंदुस्तान की सबसे बड़ी ताकत बन गई।
कंपनी ने जब कॉर्नवालीस के बदले रिचर्ड वेलेसले को भेजा तो टीपू को इसमे एक मौका नजर आया। उसने नेपोलियन के साथ सफलतापूर्वक मैत्री सबध बनाये मगर फ्रेंच-मैसूर के बीच यह संबंध ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। नेपोलियन के जहाजों का बेड़ा मिस्र में बर्बाद हो गया: इस घटना ने टीपू को बेसहारा छोड़ दिया। उसके पास अब ना तो अपनी सेना को देने के लिए पैसा था और ना ही दोस्त। इसके विपरीत कंपनी के पास इसके भारतीय समर्थकों से मोटा पैसा आ रहा था।
मगर टीपू बिना परिणाम की चिंता करे कंपनी पर चढ़ाई करने का मन बना चुका था। वह अपने हाथ में तलवार लेकर 1799 में हुए चौथे मभाग्ल-मैसूर युद्ध में एक वीर योद्धा की तरह शहीद हुआ। वेलसे ने जब टीप की मौत की खबर सुनी तो उसने शराब से भरा अपना ग्लास उठाया और कहा- “ये जाम भारत की लाश के नाम।”
मुगल सम्राट शाह आलम के समर्थन को बचाने के लिए कंपनी को मराठाओं और फ्रांसीसियों का सामना करना था।
कंपनी के लिए आखिरी हिन्दुस्तानी चुनौती मराठाओं की थी जो कई दशकों से ब्रिटिशों के कभी दुश्मन तो कभी दोस्त रहे। फ्रांसीसियों की मदद से मराठा दिल्ली के साथ ही अधे और दुखी शाह आलम पर अपना राज कायम कर चुके थे, जिसके जीने का एकमात्र सहारा अब शायरी ही थी।
सन 1800 में मराठा प्रमुख नाना फड़नवीस की मौत से अव्यवस्था व्याप्त हो गई। एक आधुनिक ऑबसर्वर ने लिखा है- गराठा राजकुमार राजसी कम और योद्धा अधिक प्रतीत होते थे।
इस अव्यवस्था के बीच तीन राजकुमार प्रमुखता से उबरे जिनमें से प्रत्येक के पास उसकी स्वयं की सेना थी। लेकिन जब उन तीनो की एक होने की सबसे अधिक जरूरत थी तब वे तीनों आपस में ही झगड़ने लगे। आखिरकार 1802 में वैलेसले उनमें से एक को, जिसका नाम बाजीराव था. पकड़ने में सफल हो गया और उसने उसको और उसके समर्थकों को कंपनी में मिला दिया।
कंपनी की सेना लगातार बढ़ती जा रही थी। अब यह 1 लाख 55 हजार सैनिकों की सेना हो चुकी थी। भारतीय अमीरों की लंबी कतार की मदद से कंपनी अपने सैनिकों को वक्त पर पूरा पैसा दे पाती थी। दूसरी तरफ मराठा थे जो सालों से चले आ रहे गृहयुद्ध के कारण दिवालिए हो गए थे।
वेलसेले ने हर मराठा राजकुमार से अलग-अलग होकर टक्कर लेने की योजना बनाई मगर वे एक साथ हो गए। सन 1803 में उन्होंने कंपनी को असाई की लड़ाई के लिए ललकारा। इस लड़ाई के खत्म होने के बाद वेलसे ने कहा कि मराठाओं ने इस लड़ाई में उन्हें जितनी टक्कर दी उतनी शायद वाटरलू की लड़ाई में नेपोलियन ने भी ना दी हो। यद्यपि लड़ाई का नतीजा कंपनी के पक्ष में रहा।
इस तरह मराठा सदा के लिए पराजित हो गए।
दूसरी ओर मराठाओं के फ्रच साथी अभी भी कंपनी को परेशान कर रहे थे। शाह आलम जानता था कि कंपनी फ्रांसीसियों को भारत में टिकने नहीं देगी। जैसे ही शाह आलम को खबर मिली कि कंपनी ने मराठाओं को हरा दिया है तो वह फ्रांसीसियों की जगह कंपनी को चुनने के लिए वैलेसले से जा मिला। यह अपनी जिंदगी उसका आखिरी कूटनीतिक फैसला था।
1803 में दिल्ली की निर्णायक लड़ाई में फ्रांसीसियों ने आखिरी बार अंग्रेजों से टक्कर ली। इस लड़ाई में ब्रिटीशर्स की जीत से यह साफ हो गया था कि आने वाले 144 सालों तक हिंदुस्तान पर उनका एकछत्र राज चलने वाला है।
78 साल की उम्र में शाह आलम ने दिल्ली की लड़ाई को लाल किले की छत पर बैठकर सुना। लड़ाई खत्म हो जाने के बाद वह खुद की औपचारिक ताजपोशी के लिए पेश हुआ। इस वक्त वह एक दयनीय, अंधी और गरीब दशा में था। आखिरकार एक लंबी और कडवी जिंदगी के बाद उसका संघर्ष समाप्त हो गया था।
फिलिप फ्रांसिस ने अपने पुराने दुश्मन वारेन हेस्टिंगस के खिलाफ दुष्प्रचार करने की मुहिम छेड़ी जो नाकामयाब हो गई और कंपनी को पतन के मार्ग पर ले गई।
लंदन में कंपनी के पूर्व गवर्नर वारेन हेस्टिंग को 1788 में संसद में पेशी के लिए पेश किया गया। उस पर आरोप था कि उसने कंपनी के माध्यम से हिंदुस्तान के साथ जो किया है वह बलात्कार करने से जरा भी कम नहीं है। प्रेक्टिकल तौर पर कहें तो उस पर भारत में जबरन वसूली, कूरता और अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल करने के आरोप लगे थे। आरोप लगाने वाले के मुताबिक, कंपनी के कानूनों ने हिंदुस्तान को लूटने, उसे गरीब बनाने और इसके लोगों को बर्बाद करने के अलावा कुछ नहीं किया है।
क्चीन और दूसरे जज कंपनी पर लगे आरोपों से सहमत हो गए। मगर दिक्कत यह थी कि कोर्ट में गलत आदमी को पेश किया गया था।
एक कंपनी अधिकारी ने कहा कि हेस्टिंग हालांकि कोई देवता तो नहीं है मगर जितना ज्यादा काम उसने कंपनी के लिए किया है उतना शायद किसी और ने नहीं किया है। अदालत में उसकी पेशी फिलिप फ्रांसिस के द्वारा किये गए सिस्टमेटिक दुष्प्रचार की चजह से हुई है जिसे अंजाम देने के लिए उसने सालों तक संसद के चक्कर लगाए हैं।
7 साल तक चले मुकदमे के बाद हेस्टिंग को बाइज्जत बरी कर दिया गया। लेकिन इस गुकदगे ने उसकी जिंदगी की शक्ति खत्म कर दी जिससे वह आखिरी दम तक नहीं उबर पाया। यह ट्रायल से एक फायदा यह हुआ कि इसने कंपनी के भ्रष्टाचार और बुरे कर्मों का पर्दाफाश कर दिया।
हेस्टिंग के ट्रायल से 1858 में कंपनी के राष्ट्रीयकरण तक ब्रिटिश सरकार ने अपने सबसे बड़े उपनिवेश को चलाने में एक और ज्यादा ऐक्टिव रोल निभाया। जनता सवाल पूछने लगी कि कैसे ब्रिटेन ने हिंदुस्तान को एक ऐसी कंपनी के हाथ छोड़ दिया जो दूर बसे एक महाद्वीप पर बसी है।
पार्लियामेंट जनता से सहमत हो गई। इसने 1813 में भारत में कंपनी के एकछत्र व्यापार करने की प्रथा का उन्मूलन कर दिया। इसके बाद से अन्य कंपनियां, व्यापारी और एजेंसियां भी बंबई और कलकता में व्यापार करने के लिए अपने विकाने बनाने लगे। निर्णय ने इस बात को भी हवा दे दी कि क्या कंपनी की अभी भी व जरूरत है?
आखिरी विद्रोह 1857 में हुआ। यह ब्रिटेन के औपनिवेशिक इतिहास की सबसे खूनी घटनामों में से एक थी। कंपनी की निजी सेना ने गंगा नदी के किनारे बसे नगरों में जाकर हजारों बागियों और सस्पेक्टस को ट्रॅट-ट्रेटकर मारा।
बगावत के दो साल बाद पार्लियामेंट ने कंपनी को बंद करने का फैसला किया। कंपनी की सारी ताकतें और क्षेत्र रानी के हाथों में आ गई। हिंदुस्तान पर अब एक कंपनी के बजाय सीधे तौर पर महारानी विक्टोरिया का शासन था। कंपनी का चार्टर 1974 में समाप्त हो गया।