About Book
मई का महीना और दोपहर 12 बजे का समय था। सूरज की आँखें सामने से हटकर सिर पर जा पहुँची थीं, इसलिए उनमें शीतलता न थी। ऐसा मालूम होता था मानो धरती उसके डर से थर-थर काँप रही थी। ठीक इसी वक़्त एक आदमी एक हिरण के पीछे तेज़ी से घोड़ा दौड़ाते हुए चला आ रहा था। उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथपथ। लेकिन हिरण भी ऐसे भाग रहा था, मानो हवा की तेज़ी से जा रहा हो। ऐसा लग रहा था कि उसके पैर ज़मीन को छू ही नहीं रहे थे! इस दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन-निर्भर था। हवा बड़े जोर से चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो आग और धूल की बारिश हो रही हो। घोड़े की आँखें खून के समान लाल हो गई थीं और घुड़सवार के सारे शरीर का खून उबल-सा रहा था। लेकिन हिरण का भागना उसे इस बात का मौका न दे रहा था कि अपनी बंदूक को संभाले। कितने ही गन्ने के खेत, ढाक के वन और पहाड़ सामने आए और तुरन्त ही सपनों की तरह गायब हो गए।
हिरण और घुड़सवार के बीच ज़्यादा फ़ासला होता जा रहा था कि अचानक हिरण पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ऊंचा किनारा दीवार की तरह खड़ा था। आगे भागने का रास्ता बन्द था और उस पर से कूदना मानो मौत के मुहं में कूदने जैसा था। हिरण का शरीर कमज़ोर पड़ गया । उसने करुणा भरी नज़रें चारों ओर फेरी। लेकिन उसे हर तरफ मौतही मौत दिखाई दे रही थी। घुड़सवार के लिए इतना समय काफ़ी था। उसकी बंदूक से गोली क्या निकली, मानो मौत के एक महाभयंकर जीत की आवाज़ के साथ आग की एक ज्वाला उगल दी। हिरण ज़मीन पर लोट गया।
मई का महीना और दोपहर 12 बजे का समय था। सूरज की आँखें सामने से हटकर सिर पर जा पहुँची थीं, इसलिए उनमें शीतलता न थी। ऐसा मालूम होता था मानो धरती उसके डर से थर-थर काँप रही थी। ठीक इसी वक्त एक आदमी एक हिरण के पीछे तेज़ी से घोड़ा दौडाते हुए चला आ रहा था। उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथपथ। लेकिन हिरण भी ऐसे भाग रहा था, मानों हवा की तेज़ी से जा रहा हो। ऐसा लग रहा था कि उसके पैर ज़मीन को छू ही नहीं रहे थे। इस दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन-निर्भर था। हवा बड़े जोर से चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो आग और धूल की बारिश हो रही हो। घोड़े की आँखें खून के समान लाल हो गई थीं और घुड़सवार के सारे शरीर का खून उबल-सा रहा था। लेकिन हिरण का भागना उसे इस बात का मौका न दे रहा था कि अपनी बंदूक को संभाले। कितने ही गन्ने के खेत, ढाक के वन और पहाड़ सामने आए और तुरन्त ही सपनों की तरह गायब हो गए।
हिरण और र घुड़सवार के बीच ज्यादा फ़ासला होता जा रहा था कि अचानक हिरण पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ऊंचा किनारा दीवार की तरह खड़ा था। आगे भागने का रास्ता बन्द था और उस पर से कूदना मानो मौत के मुह में कूदने जैसा था। हिरण का शरीर कमज़ोर पड़ गया। उसने करुणा भरी नज़रें चारों ओर फेरी। लेकिन उसे हर तरफ मौत ही मौत दिखाई दे रही थी। घुड़सवार के लिए इतना समय काफी था। उसकी बंदूक से गोली क्या निकली, मानो मोत के एक महाभयंकर जीत की आवाज़ के साथ आग की एक ज्वाला उगल दी। हिरण ज़मीन पर लोट गया।
हिरण धरती पर पड़ा तड़प रहा था और घुड़सवार की भयंकर और हिंसा भरी आँखों से खुशी की ज्योति निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसने नामुमकिन को मुमकिन कर लिया हो। उसने जानवर के शरीर को नापने के बाद उसके सींगों को बड़े ध्यान से देखा और मन-ही-मन खुश हो रहा था कि इससे कमरे की सजावट दुगनी हो जाएगी और आँखें हमेशा उस सजावट का आनन्द सुख से भोगेंगे।
जब तक इस मग्न था, उसे सूरज की झुलसाने वाली किरणों का ज़रा भी ध्यान न था, लेकिन जैसे ही उसका ध्यान उधर गया, वह तेज़ गर्मी से बेचैन हो उठा और करुणा से भरी आँखें नदी की ओर डाली, लेकिन वहाँ तक पहुँचने का कोई रास्ता न दिखा और न कोई पेड़ दिखा, जिसकी छौंव में वह जरा आराम करता।
इसी चिंता की हालत में एक लंबा चौड़ा आदमी नीचे से उछलकर किनारे के ऊपर आया. घुड़सवार उसे देखकर बहुत ही चकित हुआ। वो आदमी बहुत ही सुन्दर और हट्टा-कट्टा था। चेहरे के भाव उसके साफ़ दिल और चरित्र की निर्मलता के बारे में बता रहे थे। वह बहुत ही पक्के इरादे वाला, आशा-निराशा और उर से बिलकुल बेपरवाह-सा जान पड़ रहा था। हिरण को देखकर उस संन्यासी ने बड़े आज़ाद भाव से कहा- “राजकुमार, तुम्हें आज बहुत अच्छा शिकार हाथ लगा। इतना बड़ा हिरण इस इलाके में शायद ही दिखाई पड़ता है। राजकुमार के आश्चर्य की सीमा न रही, उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है। राजकुमार बोला- “जी हाँ ! मैं भी यही सोचता हूँ। मैंने भी आज तक इतना बड़ा हिरण नहीं देखा। लेकिन इसके पीछे मुझे आज बहुत परेशान होना पड़ा” संन्यासी ने दया के साथ कहा- “बेशक तुम्हें दुःख उठाना पड़ा होगा। तुम्हारा चेहरा लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया है। क्या तुम्हारे साथी नन पीछे बहुत रह गए?”
इसका जवाब राजकुमार ने बिलकुल लापरवाही से दिया, मानो उसे इसकी कुछ चिंता न थी। सन्यासी ने कहा- “यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आंधी में खड़े तुम कब तक उनकी राह देखोगे ? मेरी कुटीया में चलकर जरा आराम कर लो। तुम्हें भगवान् ने सुख सुविधा और दौलत दी है, लेकिन कुछ देर के लिए सन्यासी के आश्रम का रंग भी देखो और फ़लों और नदी के ठंडे पानी स्वाद लो”। यह कहकर संन्यासी ने उस हिरण के खून से लथपथ शरीर को इतने हल्के से उठाकर कंधे पर रख लिया, मानो वह एक घास का गटटर था और राजकुमार से कहा- “में तो अक्सर किनारे से ही नीचे उतर जाया करता हूं, लेकिन तुम्हारा घोड़ा सम्भव है, न उतर सके। इसलिए ‘एक दिन की राह छोड़कर छ: मास की राह’ चलेंगे। घाट यहाँ से थोड़ी ही दूर है और वहीं मेरी कुटीया है”। राजकुमार सन्यासी के पीछे चला। उसे संन्यासी के शारीरिक ताकत पर अचम्भा हो रहा था। आधे घंटे तक दोनों चुपचाप चलते रहे। इसके बाद ढालू जमीन आनी शुरू हुई और थोड़ी देर में घाट आ पहुँचा। वहीं कदम्ब-कुंज की घनी छाया में, जहाँ हमेशा हिरणों की सभा सजी रहती थी, नदी की लहरों की मधुर आवाज़ हमेशा सुनाई दिया करती थी, जहाँ हरियाली पर मोर थिरकते, पक्षी मस्त होकर झूमते, फूलों से सजी संन्यासी की एक छोटी-सी कुटीया थी।
सन्यासी की कुटीया हरे-भरे पेड़ों के नीचे सरलता और संत्तोष के चित्र के समान लग रही थी। राजकुमार की हालत बहाँ पहुँचते ही बदल गई। वहाँ की ठंडी हवा का असर उस समय ऐसा पड़ा, जैसा मुरझाते हुए पेड़ पर बारिश का होता है। उसे आज मालूम हुआ कि तृप्ति और सुख स्वादिष्ट खाने पर निर्भर नहीं है और न नींद को सुनहरे तकियों की ज़रुरत होती है। ठंडी, धीमे धीमे, सुगंध से भरी हवा चल रही थी। सूरज भगवान् अपने घर को जाते हुए इस दुनिया को ललचाई नज़रों से देख रहे थे और संन्यासी एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ गा रहा था ऊधो कर्मन की गति न्यारी। राजकुमार के कानों में धुन पड़ी, वो उठ बैठा और सुनने लगा। उसने बड़े-बड़े गायकों के गाने सुने थे, लेकिन आज जैसा आनंद उसे कभी महसूस नहीं हुआ था। इस पद ने उसके ऊपर मानो मोहिनी मंत्र का जाल बिछा दिया। वह बिलकुल बेसुध हो गया। संन्यासी की आवाज़ में कोयल की कूक जैसी मिठास थी।
सामने वाली नदी का पानी गुलाबी चादर की तरह लग रहा धा। नदी किनारे की रेत चंदन की चौकी-सी दिख रही थी। राजकुमार को यह लगने लगा। उस पर तैरने वाले पानी के जीव दिव्य आत्मा की तरह लग रहे थे, जो गाने का आनन्द उठाकर मस्त-से हो गए थे।
नज़ारा स्वर्ग सा जब गाना खत्म हुआ, राजकुमार संन्यासी के सामने बैठ गया और भक्ति भरे भाव से बोला- “महात्मा, आपका प्रेम और वैराग्य तारीफ़ के काबिल है। मेरे पर इसका जो असर हुआ है, वह अमर रहेगा। शायद सामने तारीफ़ करना बिलकुल गलत सा लगता है, लेकिन इतना मैं ज़रूर कहूँगा कि आपके दिल प्रेम की गंभीरता सराहनीय है। अगर मैं घर बार के बंधन में न पड़ा होता तो, आपके चरणों से अलग होने का ध्यान सपने में भी न करता”। नी प्रेम की दशा में राजकुमार कितनी ही बातें कह गया जो कि साफ़ तौर से उसके मन के भावों के खिलाफ थीं। संन्यासी मुस्कराकर बोला- “तुम्हारी इसी बातों से मैं बहुत खुश हूँ और मेरी बहुत इच्छा है कि तुम्हें कुछ देर ठहराऊँ, लेकिन अगर मैं जाने भी हूं, तो सूरज ढलने के समय तुम जा नहीं सकते। तुम्हारा रीवा पहुँचना मुश्किल हो जाएगा। तुम जैसे शिकार पसंद करते हो, वैसे ही में भी करता हूँ. शायद तुम डर से न रुकते, लेकिन शिकार के लालच से ज़रूर रहोगे।
राजकुमार को तुरंत ही मालूम हो गया कि जो बातें उसने अभी-अभी संन्यासी से कहीं थीं, वे बिलकुल ही ऊपरी और दिखावे की थीं और दिल को छूने वाले भाव उनसे प्रकट नहीं हुए थे। हमेशा के लिए संन्यासी के पास रहना तो दूर, बहाँ एक रात बिताना उसे मुश्किल लग रहा धा। घरवाले बेचैन हो जाएंगे और मालूम नहीं क्या सोचेंगे। साथियों की जान मुसीबत में होगी। घोड़ा बेदम हो रहा है। उस पर 40 मील जाना बहुत ही मुश्किल और बड़े साहस का काम है। लेकिन यह महात्मा शिकार खेलते हैं, यह बड़ी अजीब बात है। शायद यह वेदांती हैं, ऐसे वेदांती जो जीवन और मौत इंसान के हाथ नहीं है ये मानते हैं इनके साथ शिकार में बड़ा आनंद आएगा।
यह सब सोच-विचारकर उसने संन्यासी की मेहमान नवाज़ी स्वीकार की और अपने भाग्य की प्रशंसा की जिसने उसे कुछ समय फायदा उठाने का मौका दिया। तक और साधु-संग से रात दस बजे का समय था। घना अँधेरा छाया हुआ था। संन्यासी ने कहा- “अब चलने का समय हो गया हैं। राजकुमार पहले से ही तैयार था। बंदूक कंधे पर रख, वो बोला- “इस अधकार में जंगली सूअर ज़्यादा मिलेंगे। लेकिन ये जानवर बड़े भयानक हैं। संन्यासी ने एक मोटा डंडा हाथ में लिया और कहा- “शायद इससे भी अच्छे शिकार हाथ आएँ। मैं जब अकेला जाता हूँ, कभी खाली नहीं लोटता। आज तो हम दो हैं।
दोनों शिकारी नदी के तट पर नालों और रेतों के टीलों को पार करते और झाड़ियों से अटकते चुपचाप चले जा रहे थे। एक ओर गहरी नीली नदी थी, जिसमें नक्षत्रों की परछाई नाचती हुई दिखाई दे रही थी और लहरें गाना गा रही थीं। दूसरी ओर घनघोर अंधकार, जिसमें कभी-कभी सिर्फ जुगनुओं के चमकने से पल भर के लिए रौशनी फैल जाती थी लगता था कि वे भी अँधेरे में निकलने से डरते हैं।
ऐसी हालत में कोई एक घंटा चलने के बाद वह ऐसी जगह पर पहुँचे, जहाँ एक ऊँचे टीले पर घने पेड़ों के नीचे आग जलती दिखाई पड़ी। उस समय इन लोगों को मालूम हुआ कि संसार के अलावा और भी चीज़ं हैं।
संन्यासी ने ठहरने का इशारा किया। दोनों एक पेड़ की ओट में खड़े होकर ध्यान से देखने लगे। राजकुमार ने बंदूक भर ली। टीले पर एक बड़ा छायादार वट का पेड भी था। उसी के नीचे अंधकार में 10-12 हथियार लिए हुए जैकेट पहने चरस का दम लगा रहे थे। इनमें लगभग सभी लम्बे थे। सभी के सीने चौड़े और मज़बूत । लग रहा था कि सैनिकों का एक दल आराम कर रहा है। राजकुमार ने पूछा- “यह लोग शिकारी हैं। ये राह चलते यात्रियों का शिकार करते हैं। ये बड़े भयानक हिंसक जानवर हैं। इनके अत्याचारों से गाँव के गाँव बरबाद हो गए और जितनों को इन्होंने मारा है, उनका हिसाब भगवान् ही जानता है। अगर आपको शिकार करना हो तो इनका शिकार कीजिए। ऐसा शिकार आप बहुत कोशिश करने पर भी नहीं पा सकते। यही जानवर हैं, जिन पर आपको हथियारों से हमला करना सही है। राजाओं और अधिकारियों के शिकार यही हैं। इससे आपका नाम और यश फैलेगा”।
राजकुमार के मन में आया कि दो-एक को मार डालें। लेकिन सन्यासी ने रोका और कहा- “इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। अगर यह झगड़ा हंगामा न करें, तो भी बचकर निकल जाएँगे। आगे चलो, हो सकता है कि इससे अच्छे शिकार हाथ आएँ।
तिथि सप्तमी थी। चाँद भी निकल आया था। इन लोगों ने नदी का किनारा छोड़ दिया। जंगल भी पीछे रह गया। सामने एक कच्ची सड़क दिखाई पड़ी और थोड़ी देर में बस्ती भी दिखने लगी। सन्यासी एक बड़े महल के सामने आकर रुक गए और बोले- “आओ, इस मौलसरी के पेड़ पर बैठें। लेकिन देखो, बोलना मत; नहीं तो दोनों की जान के लाले पड़ जाएँगे। इसमें एक बड़ा भयानक हिंसक जीव रहता है, जिसने अनगिनत लोगों को मौत के घाट उतारा है। शायद हम लोग भी आज इसे संसार र से आज़ाद कर दे”।
राजकुमार बहुत खुश हुआ और सोचने लगा- रातभरी “चलो, रात सम्भाल ली और शिकार की जिसे तह के सत-मर की दह जिसे वह तेन्दुआ तो सफल हुई” दोनों मौलसरी पर चढ़कर बैठ गए राजकुमार ने अपनी बंदरक हुए था, रास्ता देखने लगा।
रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी। तभी अचानक महल के करीब कुछ हलचल हुई और बैठक के दरवाजे खुल गए। मोमबत्तियों के जलने से सारा आँगन रोशन हो गया। कमरे के हर कोने में के ही में सुख की सामग्री । दिखाई दे रही थी। बीच में एक हट्टा-कट्टा आदमी गले में रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का तिलक लगाए, बैठा हुक्के के सुनहरे पाइप से लच्छेदार धुँआ फेंक रहा था। इतने में ही उन्होंने देखा कि नाचने वालों के दल-के-दल चले आ रहे हैं। उनके हाव-भाव व नजरों के तीर चलने लगे। समाजियों ने सुर मिलाया। गाना शुरू हुआ और ही और भी लिया जाने लगा।
साथ साथ नशा शराब राजकुमार ने अचम्भित होकर पूछा- “यह तो बहुत बड़ा रईस लगता है ?” सन्यासी ने जवाब दिया- “नहीं, यह रईस नहीं है, एक बड़े मंदिर के महंत हैं, साथु हैं। संसार का त्याग कर चुके हैं। संसार की चीज़ों की ओर आँख नहीं उठाते, पूरी तरह ब्रह्म-ज्ञान की बातें करते हैं। यह सब सामान इनकी आत्मा की खुशी के लिए है। इंद्रियों यानी सेंसेस को वश किये हुए इन्हें बहुत दिन हुए। हज़ारों सीधे-साधे लोग इन पर विश्वास करते हैं। इन्हें अपना भगवान् समझते हैं। अगर आप शिकार करना चाहते हैं, तो इनका कीजिए। यही राजाओं और अधिकारियों के शिकार हैं। ऐसे रंग हुए सियारों से संसार को आज़ाद करना आपका परम धर्म है। इससे आपकी प्रजा का भला होगा और आपका नाम और यश फैलेगा”
दोनों शिकारी नीचे उतरे! संन्यासी ने कहा- “अब बहुत रात बीत चुकी है। तुम बहुत धक गए होगे। लेकिन राजकुमारों के साथ शिकार करने का मौका मुझे बहुत कम मिलता है। इसलिए एक शिकार का पता और लगाकर तब लौटेंगे”। राजकुमार को इन शिकारों में सच्चे ज्ञान और सीख का सुख मिल रहा था। वो बोला- स्वामीजी, थकने का नाम न लीजिए। अगर मैं सालों आपकी सेवा रहता, तो और न जाने कितने शिकार करना सीख जाता”। दोनों फिर आगे बढ़े। अब रास्ता साफ़ और चौड़ा था। हाँ, सड़क थोड़ी कच्ची ही थी। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे थे। किसी-किसी आम के पेड़ के नीचे रखवाले सो रहे भर बाद दोनों शिकारी एक ऐसी बस्ती में घुसे, जहाँ की सड़कों, लालटेनों और घरों से मालूम होता था कि बड़ा नगर है। संन्यासी जी एक बड़े भवन के सामने एक पेड़ के नीचे ठहर । ठहर गए और राजकुमार से बोले- “यह सरकारी कोर्ट है। यहाँ राज्य का बड़ा कर्मचारी रहता है। उसे सूबेदार कहते हैं। उनकी कोर्ट दिन को भी लगती है रात को भी। यहाँ न्याय सोने और रत्नों के मोल बिकता है। यहाँ का न्याय दौलत पर निर्भर है। पैसे वाले गरीबों को पैरों तले कुचलते हैं और उनकी गुहार कोई भी नहीं सुनता”।
यही बातें हो रही थीं कि अचानक छत पर दो आदमी दिखाई पड़े। दोनों शिकारी पेड़ की ओट में छिप गए। संन्यासी ने कहा- “शायद सूबेदार साहब कोई मामला तय कर रहे ऊपर से आवाज आयी- “तुमने एक विधवा औरत की जायदाद ली है; मैं उसे अच्छे से जानता हूँ। यह कोई छोटा मामला नहीं है। इसमें दस लाख से कम पर में बातचीत करना नहीं चाहता”।
राजकुमार में इससे ज्यादा सुनने की शक्ति न रही। गुस्से के मारे उसकी आँखें लाल हो गई। उसका यही जी चाहता था कि इस बेरहम को अभी मार दूं। लेकिन सन्यासी जी ने रोका और बोले- “आज इस शिकार का समय नहीं है। अगर आप ढूँढेंगे तो ऐसे शिकार बहुत मिलेंगे। मैंने इनके कुछ ठिकाने बतला दिये हैं। अब सुबह होने में ज़्यादा देर नहीं है। कुटीया यहाँ से अभी दस मील दूर होगी। आइए, जल्दी चलें”।
दोनों शिकारी तीन बजते-बजते फिर कुटीया में लौट आये। उस समय बड़ी सुहानी रात थी, ठडी ठंडी हवा ने हिला-हिलाकर पेड़ों और पत्तों की नीद आध घंटे में राजकुमार तैयार हो गए। संन्यासी में अपना विश्वास और आभार जताते हुए ,उनके चरणों पर अपना सिर झुकाया और घोड़े पर सवार हो गए। तोडना शुरू कर दिया था।
सन्यासी ने उनकी पीठ पर कृपा से हाथ फेरा। आशीर्वाद देकर बोले- “राजकुमार, तुमसे मिलकर मेरा मन बहुत खुश हुआ। भगवान् ने तुम्हें दुनिया पर राज करने के लिए जन्म दिया है। तुम्हारा धर्म है कि हमेशा प्रजा पालक बनो। तुम्हें जानवरों को मारना शोभा नहीं देता। असहाय जानवरों को मारने में कोई बहादुरी नहीं, कोई साहस नहीं; सच्चा साहस और सच्ची बहादुरी कमज़ोर की रक्षा और उनकी मदद करने में है; विश्वास करो, जो इंसान सिर्फ मन की खुशी और मनोरंजन के लिए जीवों को तकलीफ़ पहुंचाता है, उन्हें मारता है, वह बेरहम खुनी हत्यारे से भी ज़्यादा कठोर-दिल का होता है। वह हत्यारे के लिए उसका काम है, लेकिन शिकारी के लिए सिर्फ दिल बहलाने का एक तुम्हारे लिए ऐसे शिकारों की ज़रुरत है, जिसमें तुम्हारी प्रजा को सुख पहुँचे। बेजुबान जानवरों को न मारकर तुम्हें उन हिंसकों के पीछे दौड़ना चाहिए, स है, १े प्रजा को जो धोखा-धड़ी से दूसरे की हत्या करते हैं। ऐसे शिकार र करो, जिससे तुम्हारी आत्मा को शान्ति मिले। तुम्हारा नाम और यश संसार में फैले। तुम्हारा काम मारना नहीं, बचाना और जिंदा रखना है। अगर मारो तो सिर्फ जिंदा रखने के लिए। यही तुम्हारा धर्म है। जाओ, भगवान् तुम्हारा कल्याण करें। सीख – ये कहानी हमें कितना कुछ सिखाती है. पहला, राजकुमार को सही रास्ता दिखाकर संत ने अपना धर्म निभाया. वो चाहते थे, कि राजकुमार जो आगे चलकर राजा बनते, वो खुद अपनी आँखों से देखे कि उनकी प्रजा में अन्याय और अत्याचार का कैसा अँधकार फैला हुआ था. वो उन्हें दिखाना चाहते थे कि असली जानवर जंगल में नहीं बल्कि उनके राज्य में बसते हैं जो नोच नोचकर प्रजा को लहुलुहान कर रहे हैं और जनता बिलकुल असहाय यहाँ हिरण भोले भाले और कमजोर लोगों का प्रतीक है जो बेरहम लोगों का शिकार बनते हैं. ही है. चुपचाप सब सह रही
दूसरा, राजकुमार को प्रकृति के बीच रहकर सुकून और शांति महसूस हुई थी हम लोग आज प्रकृति से कितना दूर हो गए हैं शायद इसलिए बेचैन और उदास रहने लगे हैं.
हम सब अपने-अपने नज़रिए से गुनाह और पाप को देखते हैं, राजकुमार को जहाँ डाकुओं का गिरोह, जो राह चलने वालों को लूटता था, वो खतरनाक जानवर लग रहे थे तो वहीं संत को वो लोग जानवर लग रहे थे जो भोले भाले लोगों के साथ धोखाधड़ी कर उन्हें ठगते हैं, जैसे कि वो साधू जो नशा, नमें शराब और एइयाशी में डूबा हुआ था. असल था. हमें ऐसे ढोंगी साधुओं से बचकर रहना चाहिए. वो एक पाखंडी था जिसे कोई ज्ञान नहीं था, वो सीधे साधे लोगों को बेवकूफ बनाकर उनसे पैसे ऐंठता दूसरी ओर हैं वो लोग जो ऊँचे पदों पर बैठे हुए हैं और जिनका काम होता है न्याय करना, लेकिन वो लोग ही रिश्वत लेकर सही को गलत साबित करने में लगे रहते हैं और भोले भाले लोगों के साथ विश्वासघात करते हैं. बेचारे गरीब की पुकार कोई नहीं सुनता और पैसे वाले गुनाह और पाप कर आसानी से बच निकलते एक राजा का और आज के समय में कहा जाए तो सरकार का यही धर्म होता है कि वो अपनी प्रजा की भलाई के लिए काम करे, गरीब और कमज़ोर की रक्षा करे. तभी वो एक न्यायप्रिय राजा कहलाएंगे, अपनी पॉवर का इस्तेमाल न्याय और कमज़ोर बचाने के लिए करना ही सच्ची बहादुरी का प्रतीक है और सच पूछो तो सही मायनों में यही हमें मन की शांति दे सकता है.
किसी ने क्या खूब कहा है कि सबसे खतरनाक और जहरीला जानवर इंसान होता है. जानवर तो सिर्फ अपना पेट भरने के लिए हमला करते हैं लेकिन इंसान इतना खूखार है कि कभी भी अचानक धोखा और विश्वासघात का हमला कर सकता है. चाहे आदमी कितनी भी दौलत या चीजें हासिल कर ले लेकिन ना उसका पेट भरता है और ना उसकी इच्छाएं खत्म होती हैं, जब इंसानों में इंसानियत खत्म होने लगे तो उन्हें जानवर तो नहीं मगर हैवान कहना गलत तो नहीं होगा, है ना?