SEVA MARG by Munshi premchand.

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तारा ने बारह साल दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न बाल को सँवारा और न आँखों में काजल लगाया। ज़मीन पर सोती, गेरुआ कपड़े पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका चेहरा मुरझाई हुई कली की तरह था, आखों में कोई चमक नहीं थी और दिल एक सुनसान बंज़र मैदानके समान था । उसकी सिर्फ यही तमन्ना थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं बुझती थी, यही उसकी इच्छा उसके जीवन का मकसद था

तारा ने बारह साल दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न बाल को सँवारा और न आँखों में काजल लगाया। ज़मीन पर सोती, गेरुआ कपड़े पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका चेहरा मुरझाई हुई कली की तरह था, आखों में कोई चमक नहीं थी और दिल एक सुनसान बज़र मैदानके समान था। उसकी सिर्फ यही तमन्ना थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं बुझती थी, यही उसकी इच्छा उसके क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी ? इस समय के देवता पत्थर के हो गए हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है ? देख, तेरी सखियाँ फूलों जीवन का मकसद था ।

की तरह खिल रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती ?’ तारा कहती- मांँ, अब तो जो लगन लग गई, वह लग गई। या तो देवी के दर्शन पाऊँगी या यही इच्छा लिये संसार से चली जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई। इस तरह पूरे बारह साल बीत गये और तब देवी प्रसन्न हुई। रात का समय । चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। मंदिर में एक धुंधला-सा घी का दीपक जल रहा था। तारा दुर्गा के पैरों पर माथा झुकाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी। अचानक उस पत्थर की मूर्ति के तन में जैसे जान आने लगी। तारा के रोंगटे खड़े हो गए। वह धुंधला दीपक अद्भुत तेज़ के साथ चमकने लगा। मंदिर में मन को मोहने वाली सुगंध फैल गई और हवा में जैसे एक जिंदादिली महसूस होने लगी। देवी का उज्जवल रूप चाँद की तरह चमकने लगा। ज्योति के समान उनकी आँखें जगमगा उठीं । होंठ खुल गए और

आवाज आयी- तारा; मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। माँग, क्या वर माँगती है?”

तारा खड़ी हो गई। उसका शरीर इस तरह काँप रहा था, जैसे सुबह समय कांपती हुई आवाज़ में किसी किसान के गाने की 1 उसे लग रहा

था, मानो वह हवा में उड़ी जा रही है। उसे अपने दिल में ऊँचें विचार और रौशनी का आभास हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर भक्ति-भाव से कहा-“भगवती तुमने मेरी बारह साल की तपस्या पूरी की, किस मुहं से तुम्हारा गुण गाऊँ। मुझे संसार की वे नायाब चीजें दो, जो इच्छाओं की सीमा मेरे अरमानों का अंत है। मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूरज को भी मात कर दे।

देवी ने मुस्कराकर कहा- दिया”।

तारा-“वह दौलत जोक , जो काल-चक्र को भी शर्मिंदा देवी ने मुस्कराकर कहा-“दिया”।

करे”।

तारा-“वह सुंदरता, अद्भुत हो, जिसकी कोई बराबरी ना कर सके “।

देवी ने मुस्कराकर कहा- यह भी दिया।

तारा ने कुंवारी ने बाकी की रात जागकर बिताई सुबह उसकी आँखें पल -भर के लिए झपक गई। जागी तो देखा कि मैं सिर से पॉँव तक हीरे व लदी हैं। उसके आलिशान महल के कलश आसमान से बातें कर रहे थे। पूरा महल संगमरमर से बना हुआ और बेशकीमती पत्थरों से जवाहरात से जड़ा हुआ था। दरवाजे पर मीलों तक हरियाली छायी थी। दासियाँ सोने के गहनों से लदी हुई सुनहरे कपड़े पहने हुए चारों ओर दौड़ रही थीं। तारा को देखते ही दे ही वे सोने के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। तारा ने देखा कि मेरा पलंग हाथी दाँत का है। ज़मीन पर बड़े कोमल बिछौने बिछे हुए हैं। सिरहाने की और ए सुन्दर ऊँचा शीशा रखा हुआ है। एक बड़ा सुन्दर तारा ने उसमें अपना रूप देखा, तो चकित रह गई। उसका रूप चाँद को भी शर्मिंदा कर सकता था । दीवार पर कई नामी गिरामी चित्रकारों के मनमोहक चित्र टॅगे थे। पर ये सब के सब तारा की सुन्दरता के आगे फीके थे। तारा को अपनी सुन्दरता का घमंड हुआ। वह कई दासियों को लेकर बगीचे में गयी। वहाँ का नज़ारा देखकर वह मुग्ध हो गयी। हवा में गुलाब और केसर की भीनी-भीनी खुशबू घुली हुई थी। रंग-बिरंगे फूल, हवा के मंद-मंद झोंकों से मतवालों की तरह झूम रहे थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया और उसके रंग और कोमलता की अपने होठों से तुलना करने लगी। गुलाब में वह कोमलता न थी। बगीचे के बीच में जामुनी रंग के मणि से जड़ा हुआ तालाब था।

इसमें हंस और बतख खेल रहे थे। अचानक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं ? दासियों से पूछा। उन्होंने कहा वे लोग पुराने घर में हैं। तारा ने छत पर जाकर देखा। उसे अपना पहला घर एक साधारण झोपड़े की तरह दिखा, उसकी बहनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थीं। माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी। तारा पहले सोचा करती थी, कि जब मेरे दिन चमकेंगे, तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखँगी और उनकी अच्छे से सेवा करगी। पर इस समय दौलत के अभिमान ने उसकी पवित्र इच्छा को कमज़ोर बना दिया था। उसने घर वालों को देखा, उसकी आँखों में उनके लिए प्रेम न था और फिर वह उस मनोहर गाने को सुनने चली गयी, जिसकी धुन उसके कानों में आ रही थी। एक बार ज़ोर से बिजली चमकी और बिजली की छटाओं से ज्योति के समान तेजस्वी नौजवान निकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा-“तुम कौन हो ?” ने कहा-“श्रीमती, मुझे बिजली सिंह कहते हैं। मैं श्रीमती का सेवक हूँ”। नौजवान ने कहा के विदा होते ही हवा ही हवा के तेज़ गर्म झोंके चलने लगे। आकाश में एक रोशनी दिखाई दी। यह पल भर में उतरकर तारा कुँवरि के पास ठहर गया उसमें से एक ज्वालामुखी जैसे इंसान ने निकलकर तारा के पैरों को चुमा। तारा ने पूछा-“तुम कौन हो ? उस आदमी ने जवाब दिया-“श्रीमती, मेरा नाम अग्नि सिंह है ! मैं श्रीमती का सेवक हूँ। वह अभी जाने भी न पाया । था कि सारा महल रौशनी से रोशन हो गया। लग रहा था, सैकड़ों बिजलियां मिलकर चमक रही हैं। हवा तेज़ हो गई। एक जगमगाता हुआ सिंहासन आकाश पर दिखने लगा । वह जल्दी से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया। उससे एक तेजस्वी बालक, जिसके रूप से गम्भीरता झलक रही थी निकलकर तारा के सामने निष्ठा के भाव से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा- “तुम कौन हो ?” बालक ने जवाब दिया-“श्रीमती ! मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।

दौलतमंद लोग तारा के डर से धर्राने लगे। उसकी अद्भुत खूबसूरती ने संसार को चकित कर दिया। बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती, वह अपना सौभाग्य समझता, हमेशा के लिए उसका मुफ़्त का गुलाम बन जाता। एक दिन तारा अपने बगीचे में टहल रही थी। अचानक किसी के गाने की मोहनी धुन सुनाई दी लारा दीवानी हो गई। उसके दरबार में संसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे; पर मन को मोहने वाली शक्ति, जो इन सुरों में थी, उसने पहले कभी न सुनी थी। तारा ने गायक को बुलावा भेजा। कुछ पलों बाद बगीचे में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ, शरीर में भस्म रमाए। उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था। उसी से वह प्रभावशाली धुन निकालता था, जो दिल के लुभावने स्वरों से कहीं मीठी थी। साधु आकर तालाब के किनारे बैठ गया। उसने तारा के सामने शालीन भाव नहीं दिखाया। आश्चर्य से इधर-उधर नज़रें नहीं डाली। उस मनोहर जगह में वह अपना सुर अलापने लगा। तारा का मन बेचैन हो उठा। दिल में प्रेम जागने लगा। वो । उसे मतवाली होकर टहलने लगी।

साधु के मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गए। पानी में लहरें उठने लगीं। पेड़ झूमने लगे। तारा ने उन्न मनमोहक सुरों से एक चित्र खिंचते हुए देखा। धीरे-धीरे चित्र सामने दिखने लगा। उसमें जान आयी और तब वह खड़ी होकर नाचने लगी । तारा चौक पड़ी। उसने देखा कि यह मेरा ही चित्र है, नहीं, में ही हूं। में ही बीन की तान पर नाच रही हूं। उसे आश्चर्य हुआ कि मैं संसार । नायाब और कीमती चीज़ों की रानी हूँ या आवाज़ से बनी एक तस्वीर वह सिर धुनने लगी और मतवाली होकर साधु के पैरों से जा गिरी।

उसकी नज़रों में आशर्यजनक बदलाव हो गया सामने के फले-फूले पेड़, तरंगे मारता हुआ तालाब और मनोहर कुंज सब गायब हो गए। सिर्फ वही साधु र वह खुद उ बैठा वीन वाजा रहा शा. और व तान पर थिरक रही थी। वह साधु अब चमकता हुआ तारा और दिव्य सुदरता की मूर्ति बन गया था। जब मधुर अलाप बंद हुआ तब तारा होश में आयी। उसका दिल हाथ से निकल चुका था। वह उस अनोखे साधु के हाथों बिक चुकी थी।

तारा बोली- “स्वामीजी ! यह महल, यह दौलत, यह सुख और सुंदरता, सब आपके चरण-कमल पर न्योंछावर हैं। इस अँधेरे महल को अपने कोमल चरणों से रोशन कीजिए”।

साधु “साधुओं को महल और दौलत का क्या काम ? मैं इस घर में नहीं ठहर सकता”। तारा-यहाँ संसार के सारे सुख आपके लिए मौजूद हैं।

साधु-“मुझे सुखों की कामना नहीं। तारा “में जीवन भर आपकी दासी रहूंगी”। यह कहकर तारा ने आइने में अपने दिव्य खूबसूरती की झलक देखी ओर उसकी आँखों में चंचलता आ गई।

साधु “तारा कुँवरि, मैं इस लायक नहीं हूँ”। यह कहकर साधु ने बीन उठायी और दरवाज़े की ओर चला। तारा का घमंड टूटकर शर्म से सिर झुक गया। वह बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ी। मन में सोचा-“मैं दौलत, ऐश्वर्य और सुंदरता में ऐसी हूँ जिसकी बराबरी और कोई नहीं कर सकता, फिर भी एक साधु की नज़र में इतनी मामूली और तुच्छ!”

तारा को अब किसी तरह चैन नहीं था। उसे अपना महल और ऐश्वर्य भयानक लगने लगा। बस, साधु का चाँद जैसा रूप उसकी आँखों में नाच रहा था और उसकी स्वर्ग जैसी दिव्य धुन कानों में गूंज रही थी। उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और साधु का पता लगाने का हुक्म दिया । बहुत छानबीन के बाद उनकी कुटीया का पता लगा। तारा रोज़ वायुयान पर बैठकर साधु के पास जाती; कभी उस पर लाल, जवाहर लुटाती; कभी रत्न और गहनों की मैंने समझा था

छटा दिखाती। पर साधु इससे ज़रा भी बेचैन न हुए। तारा के माया जाल का उन पर कुछ भी असर न हुआ। तब तारा कुँवरि फिर दुर्गा के मंदिर में गयी और देवी के चरणों पर सिर रखकर बोली-माँ, तुमने मुझे संसार की सारी नायाब चीजें दीं कि दौलत में संसार को दास बना लेने की ताकत है, पर मुझे अब मालूम हुआ कि प्रेम पर ऐश्वर्य सुंदरता और दौलत का कुछ भी अधिकार नहीं। अब एक बार मुझ पर वही कृपा-दृष्टि हो। कुछ ऐसा कीजिए कि जिस कठोर दिल आदमी के प्रेम में मैं मरी जा रही हूँ उसे भी मुझे देखे बिना चैन न आए। उसकी आँखों में भी नींद हराम नींद हराम हो जाए, वह भी मेरे प्रेम में चूर हो जाए”।

दवा के होंठ खुले, वो मुस्करायी और उनकी बोली सुनाई दी-“तारा, मैं संसार की चीज़ें दे सकती हूं, पर स्वर्ग जैसा सुख मेरी शक्ति से बाहर है। प्रेम स्वर्ग-सुख का बीज है।

तारा-“माँ, संसार के सारे ऐश्वर्य मुझे जंजाल लगते हैं। बताइए, मैं अपने प्रेम को कैसे पाऊँ?” देवी”उसका एक ही रास्ता है, पर वह बहुत ही मुश्किल है। भला, तुम उस पर चल सकोगी?”

तारावर नि वह कितना भी मुश्किल हो, मैं उस रास्ते पर ज़रूर चलूगी”। देवी-“अच्छा, तो सुनो; वह सैता-मार्ग है। सेवा करो, प्रेम सेवा ही से मिल सकता है”।

तारा ने अपने बहुमूल्य जडाऊ गहनों और रंगीन कपड़ों को उतार दिया। दासियों से बिदा हुई। राजभवन को त्याग दिया। अकेले नंगे पैर साधु की कुटीया वह सुबह होने से कुछ देर पहले ही जाती। कुटीया में झाडू देती। साधु के लिए गंगा से पानी लाती। जगलों से फूल चुनती। साधु नींद में होते तो वह उन्हें पंखा झलती। जंगली फल तोड़ लाती और केले के पत्तल बनाकर साधु के सामने रखती। साधु नदी में स्नान करने जाया करते थे। तारा रास्ते से में चली आयी और सेवा-मार्ग को अपना लिया।

कंकर चुनती। उसने कुटीया के चारों और फूल लगाए। गंगा से पानी लाकर उन्हें सींचती, उन्हें हरा-भरा देखकर खुश होती। उसने मदार की रुई बटोरी, साधु के लिए नर्म गद्दे तैयार किए। अब और कोई इच्छा न धी सेवा खुद अपना इनाम और फल थी।

तारा को कई-कई दिन उपवास करना पड़ता। हाथों में गाँठ पड़ गई। पैर काँटों से छलनी हो गए। धूप से कोमल शरीर मुरझा गया। गुलाब-सा बदन सुख गया, पर उसके दिल में अब स्वार्थ और घमंड का राज न था। वहाँ अना का राज था; वहां अब उस सेवा की लगन थी, जिससे बुराई की जगह आनन्द बहता और काँटे फूल बन जाते हैं, जहाँ आसुओं की धारा की जगह आँखों से अमृत जल की बारिश होती और दुःख-दर्द की जगह आनंद निकलते हैं, जहा के पत्थर रुई से ज्यादा कोमल हैं और ठंडी हवा से भी मनोहर। तारा भूल गई कि उसकी सुंदरता की बराबरी कोई नहीं कर सकता। जो राग कभी दौलत की दासी हुआ करती थी वो तारा अब सिर्फ प्रेम की दासी थी।

साधु को वन के पक्षियों और हिरणों से प्रेम था। वे कुटीया के पास जमा हो जाते ! तारा उन्हें पानी पिलाती, दाने चुगाती, गोद में लेकर उनका दुलार करती। विषैले साँप और भयानक जानवर भी उसके प्रेम के प्रभाव से उसके सेवक हो गए।

कई बीमार लोग साधु से आशीर्वाद लेने आते थे। तारा रोगियों की सेवा करती, जंगल से जड़ी-बूटियाँ हूंढ़ लाती, उनके लिए दवाई बनाती, उनके घाव धोती, घावों पर मरहम रखती, रात-रात भर बैठी उन्हें पंखा झलती। साधु के आशीर्वाद को उसकी सेवा प्रभावशाली बना देती थी।

इस तरह कितने ही साल बीत गए। गर्मी के दिन थे, धरती तवे की तरह जल रही थी। हरे-भरे पेड़ सुखे जा रहे थे। गंगा गर्मी से सिमट गई थी। तारा को पानी के लिए बहुत दूर रेत में चलना पड़ता। उसका कोमल अंग चूर-चूर हो जाता। जलती हुई रेत में तलवे भुन जाते। इसी दशा में एक दिन वह हताश होकर एक पेड़ के नीचे पल-भर सांस लेने के लिए बैठी। उसकी आँखें बद हो गई। उसने देखा, देवी मेरे सामने खड़ी, कृपा दृष्टि से मुझे देख रही है। तारा

दौड़ कर उनके पैरों को चूमा।

देवी ने पूछा- “तारा, तेरी इच्छा पूरी हुई ?”

तारा-“हाँ माँ, मेरी इच्छा पूरी हुई।

देवी-“तुझे प्रेम मिल गया ?”

तारा- नहीं माँ, मुझे उससे भी उत्तम चीज़ मिल गई। मुझे प्रेम के हीरे के बदले सेवा का पारस मिल मुझे समझ आ गया कि प्रेम सेवा का सेवक है। सेवा के सामने सिर झुकाकर अब में प्रेम-भिक्षा नहीं चाहती। अब मुझे किसी दूसरे सुख की कामना नहीं। सेवा ने मुझे, आदर, सुख सबसे मुक्त कर दिया।

देवी इस बार मुस्करायी नहीं। उन्होंने तारा को गले से लगाया और गायब हो गई।

शाम का समय था। आकाश में तारे ऐसे चमक रहे थे, जैसे कमल पर पानी की बूंदें चमकती हैं। हवा में मन को सुकून देने वाली ठडक आ गई थी। तारा मुझसे क्या चाहती हो ? तुम्हारे इशारे पर अब मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्योछावर कर देने के लिए तैयार हूँ।

एक पेड़ के नीचे खड़ी चिड़ियों को दाना चुगा रही थी, कि तभी साधु ने आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और बोला- “तारा, तुमने मुझे जीत लिया। तुम्हारा ऐश्वर्य, दौलत और रूप जो न कर सका, वह तुम्हारी सेवा ने कर दिखाया। तुमने मुझे अपने प्रेम में बाँध लिया। अब मैं तुम्हारा दास हूँ। बोलो, तुम

तारा- “स्वामीजी मुझे अब कोई इच्छा नहीं। मैं सिर्फ सेवा करने की आज्ञा चाहती हूँ।

साधु- “मैं दिखा दूँगा कि ऐसे योग साधकर भी इंसान का दिल कठोर नहीं होता। मैं भैवरे के समान तुम्हारी खूबसूरती पर मंडराऊँगा। पपीहे की तरह तुम्हारे प्रेम की रट लगाऊँगा। हम दोनों प्रेम की नौका पर ऐश्वर्य और वैभव की नदी पर सैर करेंगे, प्रेम कुंज में बैठकर प्रेम की बातें करेंगे और आनंद के मनोहर गीत गाएँगे।

तारा ने कहा- “स्वामीजी, सेवा मार्ग पर चलकर में सब अरमानों से परे हो गई हूँ। अब दिल में और कोई इच्छा बाकी नहीं है। साधु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गंगा की ओर चल दिए,

सीख – इस कहानी में मुशीजी ने कितनी गहरी बात बताई है कि दौलत और सुंदरता कभी प्रेम का आधार नहीं हो सकते, सिर्फ समर्पण और सेवा ही प्रेम का रास्ता बना सकते हैं, प्रेम में मन हमेशा बदले में कुछ पाने की आशा करता है लेकिन सैवा में बदले में कुछ पाने की इच्छा बाकी नहीं रह जाती. इसमें इंसान बिना किसी स्वार्थ या लालच के सिर्फ देना जानता है. जब किसी की कोई खूबी या गुण हमें अपनी ओर खींचती है तो वो प्रेम नहीं सिर्फ मोह होता है. मोह हमें बंधन में बाधता है. ये मोह आज नहीं तो कल टूट ही जाता है जिससे रिश्ते कमज़ोर पड़ने लगते हैं. लेकिन सेवा मन को ऐसी खुशी और सुकून देता है जो हमें हर गुलाम बना सकती है. र बंधन से आज़ाद कर देता है. सेवा में आदमी किसी का गुलाम नहीं होता लेकिन उसकी सच्ची सेवा किसी को भी उसके प्रेम का त में तारा ने देवी से धन दौलत माँगा था क्योंकि उसकी इच्छाएं और पैसे और सुंदरता के मोह में जकड़े हुए थे. ये चीज़ें हमारी

कहानी के शुरुआत में जिंदगी को आसान और सुंदर तो बना सकती हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि वो उसे खुशियों और सुकून से भर सके. दौलत और सुंदरता ने तारा में अभिमान के वो: भर दिया था. वो नशे में इतनी चूर हो गई कि जिस मन में कभी अपने परिवार की सेवा करने का अरमान धा उसी दिल में दोलत का नशा इतना गहरा हो गया कि उसने अपने परिवार तक को छोड़ दिया. इस घमंड ने उसके दिल से प्रेम को मिटा दिया था और उसमें सिर्फ़ चीज़ों को हासिल करने का जुनून भर गया था और ऐसी इच्छा कभी प्रेम नहीं हो सकती. प्रेम तो सिर्फ़ सेवा से ही मिल सकता है. तारा ने अपने रूप और दौलत से संत को रिझाने की बहुत कोशिश की लेकिन तब उन पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि उस वक्त तारा घमंड़ और उन्हें पाने की लालसा में डूबी हुई थी, तारा ने सोचा था कि दौलत और खूबसूरती से दुनिया को अपना दास बना लेगी मगर उन चीज़ों ने उसे बंधन में बाँध कर अपना दास बना लिया था, सिर्फ उसकी पवित्र और निस्वार्थ सेवा ने उसे हर बंधन से आज़ाद किया और सबको उसका दास भी बना दिया. उसकी सेवा में इतनी शक्ति थी कि संत भी अरमान उसके प्रेम से खुद को रोक ना सके, सेवा वो पारस पत्थर है जिसके आगे ईसान तो क्या भगवान् भी क्त के सामने झुक जाते हैं,

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