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पंजाब के सिंह राजा रणजीतसिंह संसार से जा चुके थे और राज्य के वे समानित आदमी जिनके द्वारा उनका बढ़िया प्रबंध चल रहा था आपसी दुश्मनी और अनबन के कारण मर मिटे थे। राजा रणजीतसिंह का बनाया हुआ सुंदर लेकिन खोखला महल अब बर्बाद हो चुका था। कुँवर दिलीपसिंह अब इंगलैंड में थे और रानी चंद्रकुंवरि चुनार के किले में। रानी चंद्रकुँवरि ने उजड़ते हुए राज्य को बहुत सँभालना चाहा लेकिन वो राज काज के बारे में कुछ न जानती थी और कूटनीति जलन की आग भड़काने के सिवा और क्या करती. रात के बारह बज चुके थे। रानी चंद्रकुंवर अपने महल के ऊपर छत पर खड़ी गंगा की ओर देख रही थी और सोचती थी-लहरें क्यों इस तरह आज़ाद हैं।
उन्होंने कितने गाँव और नगर डुबाये हैं कितने जीव-जंतु और चीज़ों निगल गयी लेकिन फिर भी वे आज़ाद हैं। कोई उन्हें बंद नहीं करता। इसीलिए न कि वे बंद नहीं रह सकतीं वे गरजेंगी बल खायेंगी-और बाँध के ऊपर चढ़कर उसे तबाह कर देंगी अपने जोर से उसे बहा ले जायेंगी। यह सोचते-विचारते रानी गाड़ी पर लेट गयी। उसकी आँखों के सामने पहले की यादें मनोहर सपने की तरह आने लगीं। कभी उसकी भौंह की मरोड़ तलवार से भी ज़्यादा तेज़ थी और उसकी मुस्कुराहट बसंत की सुगंधित हवा को से भी ज्यादा पोषक लेकिन हाय अब इनकी शक्ति कमज़ोर पड़ गई थी। रोये तो अपने को सुनाने के लिए, हँसे तो अपने को बहलाने के लिए। अगर बिगड़े तो किसी का क्या बिगाड़ सकती है और खुश हो तो किसी का क्या बना सकती है. रानी और बंदी में कितना फ़र्क है -रानी की आँखों से आँसू की बूंदे झरने लगीं जो कभी ज़हर से ज़्यादा खतरनाक और अमृत से ज्यादा े है बूंद अनमोल थीं, वह इसी तरह अकेली निराश कितनी बार रोयी जब कि आकाश के तारों के सिवा और कोई देखने वाला न था। ने इसी प्रकार रोते-रोते रानी की आँखें लग गया। उसका प्यारा कलेजे का टुकड़ा कुँवर दिलीपसिंह जिसमें उनकी जान बस्ती थी उदास चेहरा आ कर खड़ा रात राना हो गया। जैसे गाय दिन भर जंगलों में रहने के बाद शाम को धर आती है अपने बछड़े को देखते ही प्रेम और उमंग से मतवाली होकर ममता से भरी, और अपने पूँछ उठाये दौड़ती है उसी तरह चंद्रकुंवर अपने दोनों हाथ फैलाये अपने प्यारे कुँवर को गले से लपटाने के लिए दौड़ी। लेकिन आँखें खुल गयीं और जीवन की आशाओं की तरह वह सपना भी टूट गया। रानी ने गंगा की ओर देखा और कहा-“मुझे भी अपने साथ लेती चलो”। इसके बाद रानी तुरंत छत से उतरी। कमरे में एक लालटेन जल रही थी। उसकी रौशनी में उसने एक मैली साड़ी पहनी गहने उतार दिये रत्नों के एक छोटे-से बक्से को और एक
तेज़
वाली कटार को कमर में रखा। जिस समय वह बाहर निकली तो नाउम्मीदी के साहस की मूर्ति थी। संतरी ने पुकारा-“कौन?”
रानी ने जवाब दिया “मैं हूँ झंगी”। “कहाँ जाती है?”
“गंगाजल लाऊँगी। सुराही टूट गयी है रानी जी पानी मांग रही हैं।
संतरी कुछ पास आ कर बोला-“चल मैं भी तेरे साथ चलता हूँ जरा रुक जा”।
झगी बोली-“मेरे साथ मत आओ। रानी छत पर हैं। देख लेंगी”। के किनारे-किनारे चली जा रही थी और मुड-मुड कर पीछे देखती थी। तभी एक चप्पू खटै से बँंधी हुई देख पड़ी। रानी ने उसे ध्यान से देखा तो मल्लाह सोया हुआ था। उसे जगाना काल को जगाना था। वह तुरंत रस्सी खोल कर नाव पर सवार हो गयी। नाव धीरे-धीरे धारा के सहारे चलने लगी दुःख और अंधकारमय सपने की तरह जो ध्यान की तरंगों के साथ बहा चला जाता हो। नाव के हिलने से मल्लाह चौक कर उठ बैठा। आँखें मलते-मलते उसने सामने देखा तो पटरे पर एक औरत हाथ में चप्पू लिये बैठी है। उसने घबरा कर पूछा-“तै कौन है रे नाव कहाँ लिये जाती है?” रानी हँस पड़ी। डर के अन्त को हिम्मत कहते हैं। बोली-“सच बताऊँ या झूठ?”
संतरी को थोखा देकर चंद्रकुँवरि गुप्त दरवाज़े से होती हुई अँधेरे में काँटों से उलझती चट्टान्नो से टकराती गंगा के किनारे पर जा पहुँची। रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी। गंगा जी में संतोष की शांति विराजी हुई थी। तरंगें तारों को गोद में लिये सो रही थीं। चारों ओर सन्नाटा था। रानी नदी
मल्लाह कुछ डरता हुआ सा बोला-“सच बताया जाय। रानी बोली-“अच्छा तो सुनो। मैं लाहौर की रानी चन्द्रकुंवरि हूँ। इसी किले में कैद थी। आज भाग रही हूँ। मुझे जल्दी बनारस पहुँचा दे। तुझे निहाल कर दूंगी और शरारत करेगा तो देख कटार से सिर काट दूंगी। सबेरा होने से पहले मुझे बनारस पहुँचना चाहिए। यह धमकी काम कर गयी। मल्लाह ने विनीत भाव से अपना कम्बल बिछा दिया और तेजी से चप्पू चलाने लगा। किनारे के पेड़ और ऊपर जगमगाते हुए तारे साथ-साथ दौड़ने लगे।
सुबह चुनार के किले में हर आदमी चकित और बेचैन था संतरी चौकीदार और औरतें सब सिर नीचे किये किले के मालिक के सामने खड़े थे। खोज हो रही थी लेकिन कुछ पता न चल रहा था। उधर रानी बनारस पहुँची। लेकिन वहाँ पहले से ही पुलिस और सेना का जाल बिछा हुआ था। नगर के नाके बन्द थे। रानी का पता लगाने वाले के लिए
एक बेशकीमती इनाम की सूचना दी गयी थी।
जेल से निकल कर रानी को मालूम हुआ कि वह और सख्त जेल में है। किले में हर आदमी उसका आज्ञाकारी था। किले का मालिक भी उसे सम्मान की नज़रों से देखता था। लेकिन आज आज़ाद हो कर भी उनकी जुबान बंद थी। उसे सभी जगह दुश्मन दिख रहे थे बिना पंखों वाले पक्षी को पिंजरे के
कोने में ही सुख होता है।
पुलिस के अफसर हर आने-जाने वालों को ध्यान से देखते थे लेकिन उस भिखारिन की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था जो एक फटी हुई साड़ी पहने यात्रियों के पीछे-पीछे धीरे-धीरे सिर झुकाये गंगा की ओर चली आ रही है। न वह चौंकती है न हिचकती है न घबराती है। इस भिखारिन की नसों में रानी
की खून है।
यहाँ से भिखारिन ने अयोध्या की राह ली। वह दिन भर मुश्किल रास्तों में चलती और रात को किसी सुनसान जगह पर लेट जाती थी। उसका चेहरा
पीला पड़ गया था। पैरों में छाले थे। फूल-सा बदन मुरझा गया था।
वह अवसर गाँवों में लाहौर की रानी के चरचे सुनतीं। कभी-कभी पुलिस के आदमी भी उसे रानी की टोह में गौर से देख पड़ते। उन्हें देखते ही भिखारिन
के दिल में सोयी हुई रानी जाग उठती। वह आँखें उठा कर उन्हें घृणा की नज़रों से देखती और दुःख और गुस्से से उसकी आँखें लाल हो जाती। एक दिन अयोध्या के पास पहुँच कर रानी एक पेड़ के नीचे बेठी हुई थी। उसने कमर से कटार निकाल कर सामने रख दी। वह सोच रही थी कि कहाँ जाऊँ मेरी
यात्र का अंत कहाँ है क्या इस संसार में अब मेरे लिए कहीं ठिकाना नहीं है. वहाँ से धोड़ी दूर पर आम का एक बहुत बड़ा बगीचा था। उसमें बड़े-बड़े डेरे
और तम्बू गड़े हुए थे। कई संतरी चमकीली वर्दियाँ पहने टहल रहे थे कई घोड़े बँधे हुए थे। रानी बार वह भी काश्मीर गयी थी। उसका पड़ाव इससे कहीं बड़ा था।
ने इस राजसी ठाट-बाट को दुःख की नज़रों से देखा। एक
बैठे-बैठे शाम हो गयी। रानी ने वहीं रात काटने का फैसला किया ! इतने में एक बूढ़ा आदमी टहलता हुआ आया और उसके करीब खड़ा हो गया। उसकी ऐंठी हुई दाढ़ी थी शरीर में सटी हुई चपकन, कमर में तलवार लटक रही थी। इस आदमी को देखते ही रानी ने तुरन्त कटार उठा कर कमर में खोंस ली।
सिपाही ने उसे तेज़ आँखों से देख कर पूछा
“बेटी कहाँ से आ रही हो?”
रानी ने कहा- बहुत दूर से”। “कहाँ जाओगी?
यह नहीं कह सकती, बहुत दूर।
सिपाही ने रानी की ओर फिर ध्यान से देखा और कहा-“जरा अपनी कटार दिखाओ । रानी कटार सँभाल कर खड़ी हो गयी और तेज़ी से बोली-“दोस्त हो या दुश्मन?” ठाकुर ने कहा-“दोस्त”। सिपाही के बातचीत करने के ढंग में और चेहरे में कुछ ऐसी खासियत थी जिससे रानी को मजबूर हो कर विश्वास
करना पड़ा।
वह बोली-“विश्वासघात न करना। यह देखो।
ठाकुर ने कटार हाथ में ली। उसे उलट-पुलट कर देखा और बड़े नम्र भाव से उसे आँखों लगाया। तत् रानी के आगे विनीत भाव से सिर झुका कर वह
बोला-“महारानी चन्द्रकुँवरि
रानी ने दया भरी आवाज से कहा-“नहीं अनाथ भिखारिन। तुम कौन हो?”
ने जवाब दिया-“आपका एक सेवक सिपाही जवाब
रानी ने उसकी और निराश आँखों से देखा और कहा-“दुर्भाग्य के सिवा इस संसार में मेरा कोई नहीं। सिपाही ने कहा-“महारानी जी ऐसा
जी ऐसा न कहिए। पंजाब के सिंह की महारानी के कहने पर अब भी सैकड़ों सिर झुक सकते हैं। देश
जिन्होंने आपका नमक खाया है और उसे भूले नहीं हैं”।
नहीं। सिर्फ एक शांत-जगह चाहती हूँ जहाँ पर एक कुटीया के सिवा कुछ न हो”। सिपाही-“ऐसी जगह पहाड़ों में ही मिल सकती है। हिमालय की गोद में चलिए वहीं आप हिंसा से बच सकती हैं”।
रानी-“अत इसकी इच्छा न
रानी- (आश्चर्य से “दुश्मनों में जाऊँ? नेपाल कब हमारा दोस्त रहा है?”
सिपाही-“राणा जंगबहादुर अटल राजपूत है।
रानी लेकिन वही जंगबहादुर तो है जो अभी-अभी हमारे खिलाफ लार्ड डलहौजी की मदद करने को तैयार था?
(कुछ शर्मिंदा-सा हो कर)-“तब आप महारानी चंद्र कुँवारी थीं, आज आप भिखारिन हैं। ऐश्वर्य के दुश्मन चारों ओर होते हैं। लोग जलती हुई आग बयाने है। को पानी से बुझाते हैं पर राख माथे पर चढ़ाई जाती है। आप जरा भी सोच-विचार न करें नेपाल में अभी थर्म का अंत नहीं हुआ है। आप डर छोड़कर चलें। देखिए वह आपको किस तरह सिर और आँखों पर बैठाता है।
रानी ने रात रात उसी पेड़ की छाया में काटी। सिपाही भी वहीं सोया। सुबह वहाँ दो तेज़ घोडे दिख पड़े। एक पर सिपाही सवार था और दूसरे पर एक बेहद । यह रानी चंद्रकुँवरि थी जो अपने रक्षा की जगह की खोज में नेपाल जा रही थी। कुछ देर बाद रानी खूबसूरत नौजवान है?”
सिपाही ने कहा-“राणा जंगबहादुर का। वे तीर्थ यात्रा करने आये हैं लोकिन हमसे पहले रानी-“तुमने उनसे मुझे यहीं क्यों न मिला दिया। उनका सच्चा भाव सामने आ जाता पहुँच जायेंगे”।
ने पूछा- यह पड़ाव किसका सिपाही-“यहाँ उनसे मिलना नामुमकिन था। आप जासूसों की नज़र से न बच सकतीं उस समय यात्रा करना जान की बलि देने जैसा था दोनों यात्रियों को कई बार डाकूओं का सामना करना पड़ा। उस समय रानी की बहादुरी उसका युद्ध र फुर्ती देख कर बूढ़ा सिपाही दाँतों तले अँगुली दबा लेता था। कभी उनकी तरह तलवार काम कर जाती और कभी घोड़े की तेज चाल। यात्रा बड़ी लम्बी थी। जेठ का महीना रास्ते में ही समाप्त हो गया। बारिश शरू हुई। आकाश में बादल छाने लगे। सुखी नदियाँ उतरा चलीं। पहाड़ी नाले गरजने लगे। न नदियों में नाव न नालों पर घाट लेकिन घोड़े सधे हुए थे। खुद पानी में उतर जाते और डुबते-उतराते बहते भंवर खाते पार पहुंच जाते। एक बार बिच्छू ने कछुए की पीठ पर नदी की यात्रा की थी। यह यात्रा उससे कम भयानक न धी।
कहीं ऊँचे-ऊँचे साखू और महुए के जंगल थे और कहीं हरे-भरे जामुन के वन। उनकी गोद में हाथियों और हिरनों के झुंड उछल कुद कर रहे थे। धान के पौधे पानी से भरे हुए थे। किसानों की बीवियां धान रोप रही थी सुहावने गीत गा रही थीं। कहीं उन मनोहारी धुन के बीच में खेत की मेड़ों पर छाते की छाया में बैठे हुए जमींदारों के कठोर शब्द सुनायी देते थे। इसी तरह यात्रा की तकलीफ़ सहते कई नज़ारे देखते हुए दोनों यात्री तराई पार करके नेपाल में घुसे।
सुबह का सुहावना समय था। नेपाल के महाराज सुरेंद्र विक्रमसिंह का दरबार सजा हुआ था। राज्य के सम्मानित मंत्री अपनी -अपनी जगह पर बैठे थे। नेपाल ने एक बड़ी लड़ाई के बाद तिब्बत पर जीत पायी थी। इस समय सधि की शर्तों पर बहस छिड़ी थी। कोई जग के खर्च का इच्छक था कोई राज्य बढ़ाने का। कोई-कोई महाशर सालाना टैक्स लेने पर जोर दे रहे थे। सिर्फ राणा जंगबहादुर के आने की देर थी। वे कई महीनों के देश घूमने के बाद आज ही रात को लौटे थे और यह मामला उन्हीं के आने का इंतज़ार कर रहा था अन्न मंत्रि-सभा में पेश किया गया था। तिब्बत के यात्री आशा और डर की दशा में प्रधानमंत्री के मुह से अंतिम फैसला सुनने को बेचैन हो रहे थे। तय समय पर चोबदार ने राणा के आने की सूचना दी। दरबार के लोग उन्हें सम्मान देने के लिए खड़े हो गये। महाराज को प्रणाम करने के बाद ये अपने सजे हुए आसन पर बैठ गये। महाराज ने कहा-“राणा जी आप संधि के लिए कौन सा प्रस्ताव करना चाहते थे?”
राणा ने नम्र भाव से कहा-“मेरी समझ में तो इस समय कठोरता का व्यवहार करना गलत है। दुःख में डूबे दुश्मन के साथ दयालुता का व्यवहार करना हमेशा हमारा मकसद रहा है। क्या इस मौके पर स्वार्ध के मोह में हम अपने कीमती मकसद को भूल जायेंगे? हम ऐसी संधि चाहते हैं जो हमारे दिल को एक कर दे। अगर तिब्बत का दरबार हमें व्यापार करने की सुविधा देने का वचन दे तो हम संधि करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं”। मंत्रिमंडल में बहस शुरू हुई। सबकी सहमति इस दयालु व्यवहार के जनुसार न थी लेकिन महाराज ने राणा का साथ दिया। हालांकि ज़्यादातर सदस्यों को दुश्मन के साथ ऐसी नरमी पसंद न थी लेकिन महाराज के खिलाफ़ बोलने का किसी को साहस न हुआ।
यात्रियों के चले जाने के बाद राणा जंगबहादुर ने खड़े हो कर कहा-“सभा में मौजूद सज्जनो आज नेपाल के इतिहास में एक नयी घटना होने वाली है जिसे मैं आपकी जातीय नीति की परीक्षा समझता हूँ इसमें कामयाब होना आपके ही कर्त्तव्य पर निर्भर है। आज राज-सभा में आते समय मुझे यह आवेदन पत्र मिला है जिसे मैं आप सज्जनों को दिखाना चाहता हूँ। प्रार्थना करने चाले ने तुलसीदास की यह चौपाई लिख दी है आपत-काल परखिये चारी। धीरज धर्म मित्र अरु नारी।।
महाराज ने राज पूछा- यह पत्र किसने भेजा है?”
“एक भिखारिन ने”। भिखारी कौन है?
“महारानी चंद्रकुँवरि
कड़बड़ खत्री ने आश्चर्य से पूछा-“जो हमारी दोस्त अंग्रेज सरकार के खिलाफ हो कर भाग आयी हैं?” राणा जंगबहादुर ने शर्मिंदा हो कर कहा-“जी हाँ। लेकिन हम इसी विचार को दूसरे शब्दों में प्रकट कर सकते हैं।
कड़बड़ खत्री- अंग्रेजों से हमारी दोस्ती है और दोस्त के दुश्मन की मदद करना दोस्ती की नीति के खिलाफ है”। र बहादुर-“ऐसी दशा में इस बात का डर है कि अंग्रेज सरकार से हमारे सम्बन्ध टूट न जाये”। जनरल शमशेर राजकुमार रणवीरसिंह-“हम यह मानते हैं कि मेहमान की सेवा और सम्मान करना हमारा धर्म है लेकिन उसी समय तक जब तक कि हमारे दोस्तों को हमारी ओर से शक करने मौका न मिले”
इस मामले पर यहाँ तक मतभेद और बहस हुई कि एक शोर-सा मच गया और कई प्रधान यह कहते हुए सुनायी दिये कि महारानी का इस समय आना देश के लिए बिलकुल मंगलकारी नहीं हो सकता।
तब राणा जंगबहादुर उठे। उनका चेहरा लाल हो गया था। उनके भले विचार गुस्से पर अधिकार जमाने के लिए बेकार कोशिश कर रहे थे। वे बोले- भाइयो अगर इस समय मेरी बातें आप लोगों को बहुत सख्त लगें तो मुझे माफ़ कीजिएगा क्योंकि अब मुझमें ज्यादा सुनने की शक्ति नहीं है।
अपनी जातीय कायरता का यह शर्मिंदा करने वाला नज़ारा अब मुझसे नहीं देखा जाता। अगर नेपाल के दरबार में इतना भी साहस नहीं कि वह अतिथि-सत्कार और मदद की नीति को निभा सके तो में इस घटना के सम्बन्ध में हर तरह का भार अपने ऊपर लेता हूँ। दरबार अपने को इस विषय में निर्दोष समझे और इसकी आम मामले में घोषणा कर दे।
कड़बड़ खत्री गर्म हो कर बोले-“सिर्फ यह घोषणा देश को डर से आज़ाद नहीं कर सकती। राणा जगबहादुर ने गुस्से से होंठ चबा लिया लेकिन सँभल कर कहा- देश का शासन-भार अपने ऊपर लेने वालों की ऐसी हालत ज़रूरी हैं। हम उन नियमों से जिन्हें पालन करना हमारा कर्तव्य है मुँह नहीं मोड़ सकते। अपनी शरण में आये हुओं का हाथ पकड़ना-उनकी रक्षा करना राजपूत्तों का धर्म है। हमारे पहले लोग सदा इस नियम पर-धर्म पर जान देने को तैयार रहते थे। अपने माने हुए धर्म को तोड़ना एक आज़ाद जाति के लिए शर्म की बात है। अंग्रेज हमारे दोस्त है बहुत खुशी की बात है कि बुद्धिमान दोस्त हैं। महारानी चंद्रकुँवरि को अपनी नज़रों में रखने से उनका मकसद सिर्फ यह था कि विद्रोह करने वाले लोगों के गिरोह का कोई केन्द्र बाकी न रहे। अगर उनका यह मकसद न टूटे तो हमारी ओर शक होने का न उन्हें कोई मौका मिलेगा और न हमें उनसे शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत है”।
डबल खत्री “महारानी चंद्रकुंवरि यहाँ किस कारण से आयी हैं?” .”सिर्फ एक शांतिप्रिय जगह ते-प्रिय
रोणा जंगबहा ती थी फुलों की खोज में जहाँ उन्हें अपनी बुरी हालत की चिन्ता से मुक्त होने का मोका मिले। वह ऐश्वर्यशाली रानी जो रंग महलों में सुख थी जिसे फूलों की सेज पर भी चैन न मिलता था आज सैकड़ों कोस से अनगिनत तकलीफ़ सहन करती नदी-नाले पहाड़-जंगल छानती यहाँ सिर्फ एक सुरक्षित जगह की खोज में आयी हैं। उमड़ी हुई नदियों और उबलते हुए नाले बरसात के दिन, इन दुख्खों को आप लोग जानते हैं। न जगह़ के और यह सब उसी एक सुरक्षित जगह के लिए उसी ज़मीन के टुकड़े की आशा में। लेकिन क्या हमारे पास इतनी जगह नहीं कि उनकी यह इच्छा पूरी नहीं कर सकते। सही था कि तो यह उतनी-सी डुओ रानी अपने दुःख के दिनों में जिस देश कभी मान के बदले हमे अपना दिल फैला देते। सोचिए कितने अभिमान की बात है कि एक मुसीबत में फैसी याद करती हैं यह वही पवित्र देश है।
महारानी चंद्रकुंवर को हमारे इस डर से मुक्त जगह पर-हमारी शरण में आए हुओं की रक्षा पर पूरा भरोसा था और वही विश्वास उन्हें यहाँ तक लाया है।
इसी आशा पर कि पशुपतिनाथ की शरण में मुझे शांति मिलेगी वह यहाँ तक आयी है। आपको अधिकार है चाहे उनकी आशा पूरी करें या धूल में मिला दें। चाहे रक्षा करने वालों की शरण में और सदाचार-सम्बन्धी नियमों को मिटा कर खुद । अच्छे व्यवहार के नियमों को निभा कर इतिहास के पन्नों पर अपना नाम छोड़ जायें या जाती अपने आप को घृणित समझें। मुझे विश्वास नहीं है कि यहाँ एक भी आदमी ऐसा होगा जिसमें अभिमान ना हो और इस मौके पर शरण में आए हुए की रक्षा के धर्म का पालन करके अपना सिर ऊँचा ना करना चाहेगा। अब में आपके अंतिम निपटारे का इंतज़ार करता हूँ। कहिए आप अपनी जाति और देश रोशन राजकुमार ने उमंग से कहा-“हम महारानी के चरणों कने अके क या हमशी के लिए अपने माथे पर बदनामी का टीका लगायेंगे2
कप्तान विक्रमसिंह बोले-“हम राजपूत हैं और अपने धर्म का पालन करेंगे”। जनरल वनवीरसिंह-“हम उन्हें ऐसी धूमधाम से लायेंगे कि संसार चकित हो जायगा।
राणा जगबहादुर ने “मैं अपने दोस्त कबाड़ खत्री के मुह से उसका फैसला सुनना चाहता हूँ। कडबड खत्री एक प्रभावशाली आदमी थे और मंत्रिमंडल में वे राणा जगबहादुर के खिलाफ़ मंडली के प्रधान थे। वे शर्मिंदगी भरे शब्दों में बोले-“हालांकि नहारानी के आने को डर से मुक्त नहीं समझता लेकिन इस समय हमारा धर्म यही है कि हम महारानी को पनाह दें। धर्म से मुँह मोडना किसी जाति के लिए मान का कारण केकिय नहीं हो सकता”
कई आवाजों ने उमंग-भरे शब्दों में इस मामले का समर्थन किया। महाराजा सुरेंद्र विक्रम सिंह-“इस निपटारे पर बधाई देता हूँ। तुमने जाति का नाम रख लिया। पशुपति इस नेक काम में तुम्हारी मदद करें।
सभा खत्म हुई। किले से तोपें े लगीं। नगर भर में खबर गूंज उठी कि पंजाब की रानी चन्द्रकुँवरि का शुभ आगमन हुआ है। जनरल रणवीर सिंह और छूटने जनरल रणधीर सिंह बहादुर 50000 सेना के साथ महारानी को लेने के लिए चले। अतिथि-भवन की सजावट होने लगी। बाजार कई तरह की उत्तम चीज़ों से सज गये।
ऐश्वर्य की प्रतिष्ठा व सम्मान हर जगह होती है लेकिन किसी ने भिखारिन का ऐसा सम्मान देखा है, सेनाएँ बैंड बजा रही थी और पताका फहराती हुई एक उमड़ी नदी की तरह जा रही थीं। सारे नगर में आनन्द ही आनन्द था। दोनों ओर सुंदर कपड़े और गहनों से सजे लोगों की भीड़ खड़ी थी। सेना के कमांडर आगे-आगे घोड़ों पर सवार थे। सबके आगे राणा जंगबहादुर जातीय अभिमान के नशे में लीन अपने सोने से जड़े आसन पर बैठे हुए थे। यह उदारता का एक पवित्र नज़ारा था। धर्मशाला के दरवाजे पर यह जुलूस रुका। राणा हाथी से उतरे। महारानी चंद्रकुँवरि कोठरी से बाहर निकल आयीं। राणा ने झुक कर प्रणाम किया। रानी उनकी ओर आश्चर्य से देखने लगीं। यह वही उनका दोस्त बूढ़ा सिपाही था। उनकी आँखें भर आयीं। वो मुस्करायीं और खिले हुए फूल पर से ओस की बूँदे टपकी। रानी बोली-“मेरे बूढ़े ठाकुर, मेरी नाव पार लगाने वाले किस तरह तुम्हारा गुण गाऊँ? राणा ने सिर झुका कर कहा- आपके चरण कमल पड़ने से हमारे भाग्य जाग गये”।
नेपाल की राज सभा ने पच्चीस हजार रुपये से महारानी के लिए एक आलिशान महल बनवा दिया और उनके लिए दस हजार रुपया हर महीने टैक्स तय दिया।
वह महल आज तक बना हुआ है और नेपाल की शरण में आए हुए लोगों की रक्षा करना और अपने वचन का पालन करने का स्मारक है। पंजाब की रानी को लोग आज तक याद करते हैं।
यह वह सीढ़ी है जिससे जातियाँ यश के सुनहरे शिखर पर पहुँचती हैं। ये ही घटनाएँ हैं जिनसे जातीय इतिहास रौशनी और महत्त्व को प्राप्त होता है।
पोलिटिकल रेजीडेंट ने गवर्नमेंट को रिपोर्ट की। इस बात का शक था कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया और नेपाल के बीच कुछ खिंचाव हो जाय लेकिन गवर्नमेंट को राणा जंगबहादुर पर पूरा विश्वास था। और जब नेपाल की राजसभा ने विश्वास और संतोष दिलाया कि महारानी चंद्रकुँवरि को किसी दुश्मनी के भाव का मौका न दिया जायगा तो भारत सरकार को संतोष हो गया। इस घटना को भारतीय इतिहास की अँधेरी रात में जुगुनू की चमक कहना चाहिए।
सीख – इस कहानी में मुशीजी ने ये संदेश दिया है कि शरण में आए हुए कि मदद करना ही सबसे बड़ा धर्म है, जब कोई हमारी शरण में आता है या मदद मांगता है तो दो बातें ध्यान रखें पहला कि वो शख्स उस वक्त दुखी है, कमज़ोर है और कमज़ोर पर वार करना कायरता की निशानी होती है. दूसरा वो आपके पास उम्मीद लेकर आया है और हो सकता है कि शायद आप ही उसकी आखरी उम्मीद हों. इसलिए जितना आपसे सके उसकी मदद ज़रूर करें इसमें इस बात की झलक भी मिलती है कि वक़्त बदलने के साथ-साथ लोगों का रवैया भी बदल जाता है. बुरा वक्त ही वह समय होता है जब हम अपने धैर्य , धर्म, दोस्त को परख सकते हैं. सुख में तो सभी साथ देते हैं, जो दुख में साथ दे वही हमारा सच्चा हितेशी होता है. धर्म की परीक्षा, दुख या मुसीबत के समय हमें यह देखना चाहिए कि हम किसी भी तरह अधर्म के मार्ग पर ना जाएं. हमारा धीरज ही हमें समाज में मान-सम्मान के शिखर तक पहुंचा सकता है, कोई परेशानी अगर आती है तो धैर्य के साथ सही फ़ैसला लेना चाहिए. समझाकर उनकी सहमती भी हासिल कर ली। उन्होंने किसी को नाराज नहीं किया, ना अपने राजा को, ना अपनी सभा को, ना रानी को और ना ही राणा जी जांबाज योद्धा होने के साथ-साथ अमन पसंद आदमी थे. उन्होंने अपने दुश्मनों के साथ भी नरमी बरतने का प्रस्ताव दिया था, रानी को पनाह देकर उन्होंने जो इंसानियत दिखाई थी उससे रानी के मन में उनके लिए सम्मान भर गया था. उन्होंने अपनी सभा को शांति और बुद्धिमानी से अपनी बात अंग्रेज़ों को, ये उनकी गहरी समझ और दूर तक सोचने की क्षमता को दिखाता है. एक तरह से देखा जाए तो ये बहुत ही समझदारी का फैसला था क्योंकि रानी के पास ना दौलत थी और ना हथियार इसलिए उनसे उन्हें कोई खतरा नहीं था. एक ओर जहां जाती के नाम पर और राज्य बढ़ाने की होड़ में हर ओर हिंसा का बोलबाला था, वहाँ पनाह में आए दुश्मन को शरण देने कि ये अद्भुत कहानी उस अंधेरे युग में जुगनू के चमक की तरह थी जो हमें सिखाती है कि मुसीबत में घिरे इंसान की मदद करना ही सच्चा और सबसे बड़ा धर्म है.