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रामेश्वर राय अपने बड़े भाई के शव को बिस्तर से नीचे उतारते हुए भाई से बोले-“तुम्हारे पास कुछ रुपये हों तो लाओ, अंतिम संस्कार की फिक्र करें, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ”।
छोटे भाई का नाम विश्वेश्वर राय था। वह एक जमींदार के एजेंट थे, आमदनी अच्छी थी। बोले, “आधे रुपये मुझसे ले लो। आधे तुम निकालो”। रामेश्वर-“मेरे पास रुपये नहीं हैं”।
विश्वेश्वर-“तो फिर इनके हिस्से का खेत गिरवी रख दो” ।
रामे.-“तो जाओ, कोई महाजन को बुलाओ, देखना देर न लगे”। विश्वेश्वरराय ने अपने एक दोस्त से कुछ रुपये उधार लिये, उस वक्त का काम चला। बाद में फिर कुछ रुपये लिये, खेत की लिखा-पढ़ी कर दी। कुल पाँच बीघे जमीन थी। 30000 रु. मिले। गाँव के लोगों का अनुमान था कि क्रिया-कर्म में मुश्किल से 10000 रु. लगे होंगे। पर विश्वेश्वरराय ने षोड्शी के दिन 30001 रु. का बिल भाई के सामने रख दिया। रामेश्वरराय ने चकित हो कर पूछा-“सब रुपये लग गये?”
विश्वे.-“क्या मैं इतना नीच हूँ कि अंतिम संस्कार के रुपये से भी कुछ रखूँगा? किसको यह पैसा बचेगा ?” रामे.-“नहीं, मैं तुम्हें बेईमान नहीं कहता , खाली पूछ रहा था”।
विश्वे.-“कुछ शक हो तो जिस बनिये से चीजें ली गयी हैं,
उससे पूछ लो”। साल भर के बाद एक दिन विश्वेश्वरराय ने भाई से कहा-“रुपये
हों तो लाओ, खेत छुड़ा लें”।
रामे.-“मेरे पास रुपये कहाँ से आये। घर का हाल तुमसे छिपा
थोड़े ही है”।
विश्वे.-“तो मैं सब रुपये देकर जमीन छुडा लेता हूँ। जब तुम्हारे पास रुपये हों, आधा दे कर अपनी आधी जमीन
मुझसे ले लेना”।
रामे.-“अच्छी बात है, छुड़ा लो”।
30 साल गुजर गये। विश्वेश्वरराय जमीन को भोगते रहे, उसे खाद गोबर से खूब सजाया।
उन्होंने फैसला कर लिया था कि यह जमीन न छोडूंगा । मेरा तो इस पर खानदानी हक हो गया। अदालत से भी कोई नहीं ले सकता। रामेश्वरराय ने कई बार कोशिश की कि रुपये दे कर अपना हिस्सा ले ले; पर तीस साल में वे कभी 15000 रु. जमा न कर सके।
मगर रामेश्वरराय का लड़का जागेश्वर कुछ सँभल गया। वह गाड़ी लादने का काम करने लगा था और इस काम में उसे अच्छा फ़ायदा भी होता था। उसे अपने हिस्से की रात-दिन चिंता रहती थी। अंत में उसने रात-दिन मेहनत करके काफ़ी पैसा बटोर लिया और एक दिन चाचा से बोला-“काका, अपने रुपये ले लीजिए। मैं पिताजी के हिस्से पर अपना नाम लिखवा लूँ”।
विश्वे.-“अपने बाप के तुम्हीं चतुर बेटे नहीं हो। इतने दिनों तक कान न हिलाये, जब मैंने जमीन सोना बना लिया तब हिस्सा बाँटने चले हो ? तुमसे माँगने तो नहीं गया था।” जागे.-“तो अब जमीन न मिलेगी?” रामे.-“भाई का हक मार कर कोई सुखी नहीं रहता”। विश्वे.-“जमीन हमारी है। भाई की नहीं”। जागे.-“तो आप सीधे न दीजिएगा ?”
रामेश्वर राय अपने बड़े भाई के शव को बिस्तर से नीचे उतारते हुए भाई से बोले-“चुम्हारे पास कुछ रुपये हों तो लाओ, अंतिम संस्कार की फिक्र करें, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ।
छोटे भाई का नाम विश्वेश्वर राय था। वह एक जमींदार के एजेंट थे, आमदनी अच्छी थी। बोले, “आथे रुपये मुझसे ले लो। आधे तुम निकालो”।
रामेश्वर-“मेरे पास रुपये नहीं हैं”। विश्वेश्वर-“तो फिर इनके हिस्से का खेत गिरवी रख दो”।
रामे.”तो जाओ,
बाद में फिर कोई महाजन को बुलाओ, देखना देर न लगे”। विश्वेश्वरराय ने अपने एक दोस्त से कुछ रुपये उधार लिये, उस वक्त का काम चला। र कुछ रुपये लिये, खेत की लिखा-पढ़ी कर दी। कुल पाँच बीधे जमीन थीं। 30000 रु. मिले। गाँव के लोगों का अनुमान था कि क्रिया-कर्म में मुश्किल से 10000 रु. लगे होंगे। पर विश्वेश्वराय ने षोड़शी के दिन 30001 रु. का बिल भाई के सामने रख दिया। रामेश्वरराय ने चकित हो कर पूछा-“सब रुपये लग गये
विश्वे.”क्या में इतना नीच हूँ कि अंतिम संस्कार के रुपये से भी कुछ रखूँगा? किसको यह पैसा पचेगा ?”
रामे.”नहीं, मैं तुम्हें बेईमान नहीं कहता खाली पूछ रहा था”। विश्वे-“कुछ शक हो तो जिस बनिये से चीजें ली गयी हैं, उससे पूछ लो”।
साल भर के बा द एक दिन विश्वेश्वरराय ने भाई से कहा-“रुपये हों तो लाओ, खेत छुड़ा ले।
रामे.- मेरे पास रुपये कहाँ से आये। घर का हाल तुमसे छिपा थोड़े ही है”।
विश्वे-“तो मैं सब रुपये देकर जमीन छुडा लेता हूँ। जब तुम्हारे पास रुपये हों, आधा दे कर अपनी आधी जमीन मुझसे ले लेना।
रामे.-“अच्छी बात है, छुड़ा लो”।
ल गुजर गये। विश्वेश्वराय जमीन को भोगते रहे, उसे खाद गोबर से खूब सजाया। 30 साल उन्होंने फैसला कर लिया था कि यह जमीन न छोडूंगा। मेरा तो इस पर खानदानी हक हो गया। अदालत से भी कोई नहीं ले सकता। रामेश्वरराय ने कई बार कोशिश की कि रुपये दे कर अपना हिस्सा ले ले; पर तीस साल में वे कभी 15000 रु. जमा न कर सके।
मगर रामेश्वरराय का लड़का जागेश्वर कुछ सँभल गया। वह गाड़ी लादने का काम करने लगा था और इस काम में उसे अच्छा फ़ायदा भी होता था। उसे विश्वे-“अपने बाप के तुम्हीं चतुर बेटे नहीं हो। इतने दिनों तक कान न हिलाये, जब मैंने जमीन सोना बना लिया तब हिस्सा बॉटने चले हो? तुमसे माँगने अपने हिस्से की रात-दिन चिंता रहती थी। अंत में उसने रात-दिन मेहनत करके काफ़ी पैसा बटोर लिया और एक दिन चाचा से बोला-“काका, अपने राजनीति में पिताजी हिस्से पर अपना नाम लिखवा लूं। ले लीजिए। मैं नहीं गया था।”
जागे.-“तो अब जमीन न मिलेगी ?”
रामे.- भाई का मार कर कोई सुखी नहीं रहता”।
विश्वे.-“जमीन हमारी है। भाई की नहीं।
जागे,-“तो आप सीधे न दीजिएगा
विश्वे.-“न सीधे दूंगा, न टेढ़े से दूंगा। अदालत जाओ”। जागे.-“अदालत जाने की | मेरी हैसियत नहीं है; पर इतना कहे देता हूँ कि जमीन चाहे मुझे न मिले; पर आपके पास न रहेगी।
विश्वे.”यह धमकी जा कर किसी और को दो”। जागे.-“फिर यह न कहियेगा कि भाई हो कर दुश्मन हो गया।
विश्वे-“एक हजार गाँठ में रख कर तब जो कुछ जी में आये, करना।
जागे.-“मैं गरीब आदमी इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा; पर कभी-कभी भगवान् गरीबों पर दयालु हो जाते
विश्वे -“मैं इस डर से बिल नहीं खोद रहा हूँ।
हैं।
रामेश्वरराय तो चुप ही रहा पर जागेश्वर माफ़ करने वाला न था। वकील से बातचीत की। वह अब आधी नहीं; पूरी जमीन पर दाँत लगाए हुए था।
सिद्धेश्वराय की एक लड़की थी तपेश्वरी। अपने जीवन-काल में वे उसकी शादी कर चुके थे। उसे कुछ मालूम ही न था कि बाप ने क्या छोड़ा और किसने लिया। क्रिया-कर्म अच्छी तरह हो गया; वह इसी में खुश थी। षोड्शी में आयी थी। फिर ससुराल चली गयी। 30 वर्ष हो गये, न किसी ने बुलाया, न वह मैके आयी। ससुराल की दशा भी अच्छी न थी। पति का देहांत हो चुका था। लड़के भी कम वेतन पर नौकरी करते थे। जागेश्वर ने अपनी फूफी को उकसाना शुरू किया। यह चाहता था कि वो कोर्ट में केस फाइल करे। तपेश्वरी ने कहा-“बेटा, मुझे भगवान ने जो दिया है, उसी में मगन हूँ। मुझे जगह-जमीन न चाहिए। मेरे केस करने के जागे,-“रुपये मैं लगाऊँगा, तुम खाली केस कर दो”।
पैसे नहीं है”।
तपेश्वरी-“भैया तुम्हें खड़ा कर किसी काम का न रखेंगे”। तुम्ह जागे.-“यह नहीं देखा जाता कि वे जायदाद ले कर मजे उड़ाएं और हम मुँह ताकें। में अदालत का खर्च दे टूँगा। इस जमीन के पीछे बिक जाऊँगा पर उनका गला न छोडूंगा”।
तपेश्वरी-“अगर जमीन मिल भी गयी तो तुम अपने रुपयों के बदले में ले लोगे, मेरे हाथ क्या लगेगा ? मैं भाई की दुश्मन क्यों बनें ?”
जागे.-“जमीन ले लीजिएगा, मैं सिर्फ चाचा साहब
आप
तपेश्वरी-“अच्छा, जाओ, मेरी तरफ से केस कर दो।
का घमंड तोड़ना चाहता हूँ।
जागेश्वर ने सोचा, जब चाचा साहब की मुट्ठी से जमीन निकल आयेगी तब मैं पांच हज़ार रुपये साल पर इनसे ले लँगा! इन्हें अभी कौड़ी नहीं मिलती। जो कुछ मिलेगा, उसी को बहुत समझेंगी। दूसरे दिन केस कर दिया। कोर्ट में मुकदमा पेश हुआ। विश्वेश्वरराय ने साबित किया कि तपेश्वरी सिद्धेश्वर की बेटी गाँव के आदमियों पर विश्वेश्वरराय का दबाव था। सब लोग उससे रुपये-पैसे उधार ले जाते थे। मामले-मूकदमे में उनसे सलाह लेते। सबने अदालत ही नहीं है।
बयान दिया कि हम लोगों ने कभी तपेश्वरी को नहीं देखा। सिद्धेश्वर के कोई लड़की ही न थी। जागेश्वर ने बड़े-बड़े वकीलों से केस लडवाया, बहुत पैसा खर्च किया, लेकिन जज ने उसके खिलाफ फैसला सुनाया। वो बेचारा हताश हो गया। विश्वेश्वर की अदालत में सबसे जान-पहचान थी। जागेश्वर को जिस काम के लिए मुहि भर कर रुपये खर्च करने पड़ते थे, वह विश्वेश्वर मुफ्त में करा लेता। जागेश्वर ने अपील करने का फैसला किया। रुपये न थे, गाड़ी-बैल बेच डाले। अपील हुई। महीनों मुकदमा चला। बेचारा सुबह से शाम तक कोर्ट में काम करने वालों और वकीलों की खुशामद किया करता, रुपये भी खर्च हो गये, महाजनों से क़ज्ज लिया। पाँच हजार का बोझ सिर पर हो गया था, पर अब जीत ने आँसू पोंछ दिये।
विश्वेश्वर ने हाईकोर्ट में अपील की। जागेश्वर को अब कहीं से रुपये न मिले। मजबूर होकर अपने हिस्से की जमीन गिरवी रखी। फिर घर बेचने की नौबत आयी। यहाँ तक कि औरतों के गहने भी बिक गये। अंत में हाईकोर्ट से भी उसकी जीत हो गयी। खुशी के जश्न में बची-खुची पूँजी भी निकल गयी। एक हजार पर पानी फिर गया। हाँ, संतोष यही था कि ये पाँचों बीधे मिल गये। तपेश्वरी क्या इतनी बेरहम हो जायगी कि थाली मेरे सामने से खींच लेगी। लेकिन खेत पर अपना नाम आते ही तपेश्वरी की नीयत बदली। उसने एक दिन गाँव में आकर पूछ-ताछ की तो मालूम हुआ कि पाँचों बीघे 100000 रु. में उठ सकते हैं। लगान सिर्फ 25000 रु. था, 75000 रु साल का फ़ायदा था। इस रकम ने उसे बेचैन कर दिया। उसने ठेकेदार को बुला कर उनके साथ बंदोबस्त कर दिया। जागेश्वरराय हाथ मलता रह गया। आखिर उससे न रहा गया। बोला-“फूफीजी, आपने जमीन तो दूसरों को दे दी, अब मैं कहाँ जाऊँ”।
तपेश्वरी-“बेटा, पहले अपने घर में दीया जला कर तब मस्जिद में जलाले हैं। इतनी जगह मिल गयी, तो मैके से नाता हो गया. नहीं तो कौन पूछता”।
जागे,-“मैं तो उजड़ गया “
तपेश्वरी- जिस लगान पर और लोग ले रहे हैं, उसमें कुछ रुपये कम करके तुम्हीं क्यों नहीं ले लेते?
तपेश्वरी तो दो-चार दिन में विदा हो गयी। रामेश्वरराय पर जैसे बिजली गिर गई । बुढ़ापे में मजदूरी करनी पड़ी। मान-मर्यादा से हाथ धोया। रोटियों के लाले पड़ गये। बाप-बेटे दोनों सुबह से शाम तक मजदूरी करते, तब काहीं घर में आग जलती। दोनों में बहस होती। रामेश्वर सारा अपराध बेटे के सिर रखता। जागेश्वर कहता, “आपने मुझे रोका होता तो मैं क्यों इस मुसीबत में फैसता”। उधर विश्लेश्वरराय ने महाजनों को उकसा दिया। साल भी न गुजरने पाया था कि बेचारे बेसहारा हो गये। रामेश्वर राय की जमीन निकल गयी, घर नीलाम हो गया, दस-बीस पेड़ थे, वे भी नीलाम हो गये। चौबे जी दूबे न बने, गरीब हो गये। इस पर विश्वेश्वरराय के ताने और भी गजब ढाते। यह तकलीफ़ का सबसे नोकदार काँटा था। आतंक का सबसे बेरहम वार था। दो साल तक इस दुःखी परिवार ने जितनी । मुसीबतें झेलीं, यह उन्हीं की |न सब कुछ किया, पर आत्मा का पतन न कर सकी, दिल जानता है। कभी पेट भर खाना न मिला। हाँ, इतनी आन थी कि नीयत नहीं। बदली। गरीबी ने कर सकी। कुल-मर्यादा में आत्मरक्षा की बड़ी शक्ति होती है। एक दिन शाम के समय दोनों आदमी बैठे आग सेक रहे थे कि अचानक एक आदमी ने आकर कहा-“ठाकुर चलो, विश्वेश्वराय तुम्हें बुलाते हैं”। रामेश्वर ने उदासीन भाव से कहा-“मुझे क्यों बुलायेंगे? में उनका कौन होता हूँ? क्या कोई और झमेला खड़ा करना चाहते हैं ?” भात में इतने में दूसरा आदमी दौड़ा हुआ आकर बोला-“ठाकुर, जल्दी चलों, विश्वेक्षरराय की दशा अच्छी नहीं है”। विश्वेश्वरराय को इधर के को इधर कई दिनों से खाँसी-बुखार की शिकायत थी, लेकिन दुश्मनों के बारे में हमें किसी बुरे की शंका नहीं होती। रामेश्वर और जागेश्वर कभी कुशल-समाचार पूछने भी न गये। कहते, उन्हें क्या हुआ है। अमीरों को पैसे र का रोग होता है। जब आराम करने को जी चाहा; पलंग पर लेट रहे,
दूध में साबूदाना उबालकर मिश्री मिला कर खाया और फिर उठ बैठे। चिश्लेश्वरराय की दशा अच्छी नहीं है, यह सुन कर भी दोनों जगह से न हिले। रामेश्वर ने कहा-“दशा को क्या क्या हुआ है। आराम से पड़े बातें तो कर रहे हैं”।
जागे.-“किसी वैद्य-ह -हकीम को बुलाने भेजना चाहते होंगे। शायद बुखार तेज हो गया है। रामे.-“यहाँ किसे इतनी फुरसत है। सारा गाँव तो उनका हितैषी है, जिसे चाहें भेज दें।
जागे.-“हर्ज ही क्या है। जरा जा कर सुन आऊँ ?” रामें.-“जा कर थोड़े उपले बटोर लाओ, चूल्हा जले, फिर जाना। ठकुरसोहाती करनी आती तो आज यह दशा न होती”। जागेश्वर ने टोकरी उठायी और खेत की तरफ चला कि इतने में विश्वेश्वरराय के घर से रोने की आवाजें आने लगीं। उसने टोकरी फेंक दी और दौड़ा हुआ चाचा के घर में जा पहुँचा। देखा तो उन्हें लोग चारपाई से नीचे उतार रहे थे। जागेश्वर को ऐसा जान पड़ा, मेरे मुँह में कालिख लगी हुई है। वह आँगन से बरामदे में चला आया और दीवार में मुँह छिपा कर रोने लगा। जवानी में खून में उबाल आता ही है। गुस्से से आग हो जाती है, तो दया से पानी भी हो जाती है।
विश्लेक्वरराय की तीन बेटियाँ थीं। उनकी शादी हो चुकी थी। तीन बेटे थे, वे अभी छोटे थे। सबसे बड़े की उग्र 10 साल से ज़्यादा न थी। माँ भी जिंदा थीं। खाने वाले तो चार थे, कमाने वाला कोई न था। देहात में जिसके घर में दोनों वक़्त चूल्हा जले, वह पैसे वाला समझा जाता है। उसकी दौलत के अनुमान में भी बढ़ा चढ़ाकर बोला जाता है। लोगों का विचार था कि विश्वेक्षरराय ने हजारों रुपये जमा कर लिये हैं; पर वहाँ असल में कुछ न था। आमदनी पर सबकी निगाह रहती है, खर्च को कोई नहीं देखता। उन्होंने लड़कियों की शादी खूब दिल खोल कर खर्च किये थे। खाने-कपड़े में, मेहमानों और नातेदारों के आदर-सत्कार में उनकी सारी आमदनी गायब हो जाती थी। अगर गाँव में अपना रोब जमाने के लिए रुपयों का लेन-देन कर लिया था, तो कई महाजनों का कर्ज भी था। यहाँ तक कि छोटी लड़की की शादी में अपनी जमीन गिरवी रख दी थी।
साल भर तक तो विधवा ने जैसे तैसे करके बच्चों का भरण-पोषण किया। गहने बेच कर काम चलाती रही; पर जब यह आधार भी न रहा तब तकलीफ़ होने लगी। फैसला किया कि तीनों लड़कों को तीनों बेटियों के पास भेज दूं। रही अपनी जान, उसकी क्या चिंता। तीसरे दिन भी पाव भर आटा मिल जायेगा तो दिन कट जायेंगे। लड़कियों ने पहले तो भाइयों को प्रेम से रखा; लेकिन तीन महीने से ज्यादा कोई न रख सकी। उनके घरवाले चिड़ते थे और लड़के दिन-दिन भर भूखे रह जाते। किसी को कुछ खाते देखते तो पर में जा कर माँ से माँगते। फिर माँ से माँगना छोड़ दिया। खाने वालों ही अनाथों को ताना मारते थे। लाचार होकर माँ ने लड़कों को बुला । छोटे-छोटे | को लिया। को के नज़रों से देखते। कोई तो मोदी भर चना निकाल कर दे देता; पर अक्सर लोग दुत्कार देते थे। सामने जा कर, खड़े हो जाते और लालची और भूखी वडक । खेतो में मटर की फलियों लगी हुई थीं। एक दिन तीनों लड़के खेत में धुस कर मटर उखाडने लगे किसान ने देख लिया; दयावान आदमी था। खुद एक बोझा मटर उखाड़ कर विश्वेश्वराय के घर पर लाया और ठकुराइन से बोला-“काकी, लड़कों को डाँट दो, किसी के खेत में न जाया करें”। जागेश्वरराय उसी समय अपने दरवाज़े पर बैठा चिलम पी रहा था, किसान को मटर लाते देखा-तीनों बच्चे पिल्लों की तरह पीछे-पीछे दौड़े चले आ रहे थे। उसकी आँखें नम हो गयीं। घर में जा कर पिता से बोला-“चाची के पास अब कुछ नहीं रहा, लड़के भूखों मर रहे हैं। रामे.-“तुम औरतों के स्वभाव नहीं जानते। यह सब दिखावा है। जन्म भर की कमाई कहाँ उड़ गयी ?”
जागे.-“अपना वश चलते हुए कोई लड़कों को भूखों नहीं मार सकता”।
रामे.”तुम क्या जानो। बड़ी चतुर औरत है”। जागे.-“लोग हमें लोगों पर हँसते होंगे”
रामे.- हँसी की परवाह है तो जा कर छाँह कर लो, खिलाओ-फिलाओ। है दम ?”
जागे,-“न भर-पेट खायँगे, आधे ही पेट सही। बदनामी तो न होगी? चाचा से लड़ाई थी। लड़कों ने हमारा क्या बिगाड़ा है”।
रामे, “वह चुडेल तो अभी जीती है न जागेश्वर चला आया। उसके मन में कई बार यह बात आयी थी कि चाची की कुछ मदद कर दिया करूँ, पर उनकी जली-कटी बातों से डरता था। आज से उसने एक नया ढंग निकाला है। लड़कों को खेलते देखता तो बुला लेता, कुछ खाने को दे देता। मजदूरों को दोपहर की छुट्टी मिलती है। अब वह छुट्टी के समय काम करके मजदूरी के पैसे कुछ ज्यादा पा जाता। घर चलते समय खाने की कोई न कोई चीज लेता आता और अपने घरवालों की आँख बचा कर उन अनाथों को दे देता।
धीरे-धीरे लड़के उससे इतने हिल-मिल गये कि उसे देखते ही ‘भैया-भैया’ कह कर दौड़ते, दिन भर उसकी राह देखा करते। पहले माँ डरती थी कि कहीं मेरे लड़कों को बहला कर ये महाशय पुरान बदला तो नहीं निकालना चाहते हैं। वह लड़कों को जागेश्वर के पास जाने और उससे कुछ ले कर खाने से रोकती, पर बच्चे दुश्मन और दोस्त को बूढों से ज्यादा पहचानते हैं। लड़के माँ के मना करने की परवाह न करते, यहाँ तक कि धीरे-धीरे माँ को भी जागेश्वर के प्रेम पर विश्वास आ गया। एक दिन रामेश्वर ने बेटे से कहा- तुम्हारे पास रुपये बढ़ गये हैं, तो चार पैसे जमा क्यों नहीं करते। लूटाले क्यों हो ?”
जागे.-“मैं तो एक-एक कौड़ी की बचत करता हूँ ?”
रामे.-“जिन्हें अपना समझ रहे हो, वे एक दिन तुम्हारे दुश्मन होंगे।
जागे.-“आदमी का धर्म भी तो कोई चीज है। पुराने वैर पर एक परिवार की भेंट नहीं चढ़ा सकता। मेरा बिगड़ता ही क्या है, यही न रोज घंटे-दो-घंटे और मेहनत करनी पड़ती है।
रामेश्वर ने मुँह फेर लिया। जागेश्वर घर में गया तो उसकी पत्नी ने कहा-“अपने मन की ही करते हो, चाहे कोई कितना ही समझाये। पहले घर में आदमी दीया जलाता है।
जागे.-“लेकिन यह तो ठीक नहीं कि अपने घर में दीया की जगह मोमब्तियाँ जलाये और मस्जिद को अँधेरा ही छोड़ दे”। पत्नी-“मैंने साथ शादी क्या की, मानो कुएँ में गिर पड़ी। कौन सा सुख देते हो? गहने उतार लिये, अब साँस भी नहीं लेते।
जागे.-“मुझे तुम्हारे गहने से भाइयों की जान ज्यादा प्यारी है”।
पत्नी ने मुँह फेर लिया और बोली-“दुश्मन की संतान कभी अपनी नहीं होती। जागेश्वर ने बाहर जाते हुए जवान दिया- वैर का अंत वैरी के जीवन के साथ हो जाता है”।
सीख – इस कहानी में मुशीजी ने घर-घर में घटने वाली कड़वी सच्चाई की झलक दिखाई है कि कैसे इंसान पैसों के लालच में अपने करीबी और गहरे रिश्तों को भुलाकर अपनों को धोखा देने से भी बाज़ नहीं आता. विशेश्वर राय ने अपने भाई को धोखा दिया और केस जीतने के बाद तपेश्वरी ने, पर कहते हैं ना कि किसी का हक़ मार कर कोई कभी सुखी नहीं रह सकता. विशेश्वर राय के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. दौलत के घमंड और नशे में उसने दिखावा ने में अपना सारा पैसा उड़ा दिया. उसने अपने परिवार के भविष्य को महफूज़ नहीं किया जिसका नतीजा ये हुआ कि उन्हें जिंदगी की करने बुनियादी ज़रूरतों लिए तरसना पह़ रहा के दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं जैसे एक ओर था विशेश्वर राय जो अच्छा कमाता था और चाहता तो अपने भाई को सहारा दे सकता था लेकिन वो स्वार्थी और लालची आदमी उसने इस दुश्मनी को इस कदर बढ़ा दिया कि अपने भाई और उसके परिवार को बेधर तक कर दिया, ताने मारकर उनका था.
अपमान किया, और टूसरी ओर था जागेश्वर जिसने सब अन्याय सहकर भी विशेश्वर राय के बच्चों की हालत देखकर सब कुछ भुलाकर उन्हें सहारा दिया, इससे पता चलता है कि इंसान अपनी सोच से बड़ा होता है. है। विशेश्वर राय अमीर होकर भी आत्मा और दिल से गरीब था. ना उसमें मदद करने की भावना थी, ना दया की. जागेश्वर खुद गरीबी में दिन काट रहा था फिर भी ज़्यादा मेहनत कर के वो मदद करने के लिए तैयार था. बेहद गरीबी में भी उसने अपना सम्मान बनाए रखा, मेहनत की लेकिन गलत रास्ता नहीं अपनाया. उसने इसानियत दिखाकर ये साबित किया कि वो आत्मा से अमीर था.
इसान अपने स्वार्थ में ये क्यों भूल जाता है कि परिवार और अपनों का साथ जिन्दगी में दौलत से ज्यादा मायने रखती है. बुरे वक्त में विशेश्वर राय का परिवार ही उसके काम आया था. अवसर किसी के गुज़र जाने के बाद हमारा मन उस इसान के लिए भी नरम पड़ जाता है जिसने हमारे साथ गलत किया था.