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प्रयाग के पढ़े लिखे समाज में पंडित देवरत्न शर्मा असल में एक रत्न थे। पढ़ाई भी उन्होंने बहुत की थी और कुल के भी ऊँचे थे। न्यायशीला गवर्नमेंट ने उन्हें एक ऊँचा पद देना चाहा, पर उन्होंने अपनी आजादी पर वार करना ठीक न समझा। उनका भला चाहने वाले दोस्तों ने बहुत समझाया कि इस मौके को हाथ से मत जाने दो, सरकारी नौकरी बड़े किस्मत से मिलती है, बड़े-बड़े लोग इसके लिए तरसते हैं और यही इच्छा लिये ही दुनिया से चले जाते हैं। है-बड़े’ अपने खानदान का नाम रोशन करने का इससे आसान रास्ता नहीं है, इसे इच्छा पूरी करने वाला पेड़ समझी। वैभव, दौलत, इज्जत और नाम यह सब
इससे मिलते हैं। रह गयी देश-सेवा, सो तुम्हीं देश के लिए क्यों जान देते हो? आाता है तो इस शहर अक्लमंद और अमीर आदमी हैं, जो सुख-चैन से बैगलों में रहते और मोटरों में धूल की आँधी उड़ाते घूमते हैं। क्या वे लोग में कई बड़े-बड़े अ से ब 1-सेवक नहीं हैं 7 जब जरूरत होती है या कोई मौका आता है तो वे देश-सेवा में लग जाते हैं। अभी जब म्युनिसिपल चुनाव का इगड़ा छिड़ा तो देश- हैं मेयोहाल के सामने मोटरों का तांता लगा हुआ था। भवन के अंदर देश के लिए गीतों और भाषणों की भरमार थी। पर इनमें से कौन ऐसा है, जिसने स्वार्थ को छोड़ दिया हो? दुनिया का नियम ही है कि घर में दीया जला कर तब मस्जिद में जलाया जाता है। सच्ची बात तो यह है कि जातीयता की यह बात कालेज के छात्रों को ही शोभा देती है। जब दुनिया में आए तो कहाँ की जाति और कहाँ की जातीय बात। दुनिया का यही नियम है। व्या के पहले घर में फिर तुम्हीं को राजा बनने की क्या जरूरत ! अगर बारीकी से देखा जाय तो सरकारी पद पाकर इंसान अपने देश और भाइयों की सच्ची सेवा कर सकता है. ये किसी दूसरे तरीके से कभी नहीं किया जा सकता। एक दयालु पुलिस सैकड़ों जातीय सेवकों से अच्छा है। एक इंसाफ पसंद, धर्म मानने वाला मजिस्ट्रेट सैकड़ों जातीय दानवीरों से ज्यादा सेवा कर सकता है। इसके लिए सिर्फ दिल में लगन चाहिए। इंसान चाहे जिस हालत में हो, देश के लिए काम
कर सकता है। इसीलिए अब आगा-पीछा न 1न करो, चटपट पद को मंजूर शर्मा जी को और कोई बात न जँची, पर इस आखिरी बात की सच्चाई से वह इनकार न कर सके। लेकिन फिर भी चाहे नियम निभाने के कारण, चाहे आलस के कारण जो अक्सर ऐसे हालात में जातीय सेवा का गौरव पा जाता है, उन्होंने नौकरी से अलग रहने में ही अपना कल्याण समझा। उनके इस स्वार्थ को छोड़ने पर कालेज लड़कों ने उन्हें स्वार्थ पर जीत पाई जिसके लिए एक जातीय ड्रामा खेला गया, जिसके नायक हमारे शर्मा जी ही क न के कैसे बरके हे खुब बधाइयाँ दीं। उन्होंने स श्मा जी अच्छे-खासे मशहूर हो गए ! इसलिए वह कई सालों से । ली ही थे। समाज के ऊँचे तकबे में इस आत्म-त्याग की धचा इर जा का जो जानीय सेवा का ही एक खास अंग समझा जाता है। जातीय सेवा में लीन रहते थे। ज्यादा भाग अखबारों को पढ़ते हुए। इसके अलावा वह अखबारों के लिए लेख लिखते, सभाएं करते और उनमें फड़कते हुए भाषण देते थे। शर्मा जी फ्री लाइ्री के सेक्रेटरी, स्टूडेंट एसोसिएशन के सभापति, सोशल सर्विस लीग के सहायक मंत्री और प्राइमरी एजूकेशन कमिटी के संस्थापक थे। खेती से जुड़ी बातों से उन्हें खास प्यार था। अखबारों में जहाँ कहीं किसी नए खाद या किसी नये आविष्कार के बारे में देखते, तुरंत उस पर लाल पेन्सिल से निशान कर देते और अपने लेखों में उसकी बात करते। लेकिन शहर से थोड़ी दूर उनका गांव होने पर भी, वह अपने किसी किराएदार को जानते तक न थे। यहाँ तक कि कभी प्रयाग के
कर लो।
सरकारी खेती की जमीन की सैर करने न गये थे। उसी मुहल्ले में लाला बाबूलाल रहते थे।
वह एक वकील के मुंशी थे। थोड़ी-सी उर्दू-हिंदी जानते थे और उसी से अपना काम अच्छी तरह चला लेते थे। सूरत-शक्ल के ज़्यादा सुन्दर न थे। उस शक्ल पर मऊ के चारखाने का लम्बा कुर्ता और भी शोभा देता था जूता भी देशी ही पहनते थे। हालांकि कभी-कभी दे कड़वे तेल से उसकी पॉलिश भी े किया करते थे पर वह नीच स्वभाव के कारण उन्हें काटने से न चूकता था। बेचारे को साल के छह महीने पैरों में मरहम लगानी पड़ती। वो अक्सर नंगे पाँव कचहरी जाते, पर कंजस कहलाने के डर से जूतों को
जमींदारी थी, उसमें थोड़ा-सा हिस्सा उनका भी था। इस नाते से कभी-कभी उनके पास आया करते थ में ले जाते। जिस गांव में शर्मा जी की। थे। हाँ, छुट्टी के दिनों में गाँव चले जाते। शर्मा जी को उनका आकर बैठना पसंद नहीं था, खासकर जब वह फेशनेबल इंसानों की मौजूदगी में आया करते थे। मुंशी जी भी कुछ ऐसी नजर के आदमी थे कि उन्हें अपना अनमिलापन बिलकुल दिखायी न देता था। सबसे बड़ी तकलीफ यह थीं वे बराबर कुर्सी पर डट जाते, मानो हंसों में कौआ। उस समय दोस्त अंग्रेज़ी में बातें करने लगते और बाबूलाल को छोटा दिमाग, झक्की, पागल, बेवकूफ आदि बोलते कभी-कभी उनकी हँसी भी उड़ाते थे। शर्मा जी में इतनी अच्छाई जरूर थी कि वे अपने बेवकूफ दोस्त को जितना हो सके बेइज्जती से बचाते थे। सच में बाबूलाल की शर्मा जी पर सच्ची भक्ति थी। एक तो वह बी.ए. पास थे, दूसरे वह देशभक्त थे। बाबूलाल जैसे अनपढ़ इंसान का ऐसे रत्न को इज्जत देना अजीब
बात ने थी।
एक बार प्रयाग में प्लेग फैला। शहर के अमीर लोग निकल भागे। बेचारे गरीब चूहों की तरह पटापट मरने लगे। शर्मा जी ने भी चलने की ठानी। लेकिन सोशल सर्विस लीग के दे मंत्री ठहरे। ऐसे मौके पर निकल भागने में बदनामी का डर था। बहाना हूँढ़ा। लीग के ज्यादातर लोग कॉलेज में पढ़ते थे। उन्हें बुलाकर इन शब्दों में अपने मन की बात बताई- “दोस्तों! आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इस बुरे समय में जाति की उम्मीद हैं। आज हम पर तकलीफ की घटाएँ छायी हुई हैं। ऐसी हालत में हमारी आँखें आपकी और न उठे तो किसकी ओर उटेंगी। दोस्त, जीवन में देशसेवा का मोका बड़ी किस्मत से मिला करता है। कोन जानता है कि भगवान ने तुम्हारी परीक्षा के लिए ही यह परेशानी दी हो। ।
जनता को दिखा दो कि तुम वीरों का दिल रखते हो, जो बड़ी से बड़ी मुसीबत आने पर भी नहीं डरता। हाँ, दिखा दो कि वह वीरों को पैदा करने वाली पवित्र भूमि जिसने हरिक्षंद्र और भरत को पैदा किया, आज भी वीर पैदा कर सकती है। जिस जाति के नौजवानों में अपने पीड़ित भाइयों के लिए दया और अटल प्रेम है वह दुनिया में हमेशा नाम करती रहेगी। आइए, हम कमर कस कर कर्म-क्षेत्र में उतर पड़ें। इसमें शक नहीं कि काम मुश्किल है, रास्ता मुश्किल है, आपको अपने मनोरंजन, अपने हाकी-टेनिस को छोड़ना पड़ेगा। तुम जरा हिचकोगे, हटोगे और मुँह फेर लोगे, लेकिन भाइयों! जातीय सेवा का सुख ऐसे ही नहीं मिल सकता हमारा व्यक्तित्व, हमारा मनोबल, हमारा शरीर अगर जाति के काम न आए तो वह बेकार है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि इस अच्छे काम में मैं तुम्हारा हाथ बँटा सकता, पर आज ही देहातों में बीमारी फैलने की खबर मिली है। इसलिए मैं यहाँ का काम आपके लायक, मजबूत हाथों में सौंपकर देहात में जाना चाहता हूँ ताकि जितना हो सके देहाती भाइयों की सेवा कर सकूँ। मुझे यकीन है कि आप खुशी खुशी अपने देश के लिए अपने फर्ज का पालन करेंगे।
इस तरह गला छुड़ा कर शर्मा जी शाम के समय स्टेशन पहुँचे। पर मन कुछ दुखी था। वे अपनी इस कायरता और कमजोरी पर मन ही मन शर्मिदा थे। इत्तेफाक से स्टेशन पर उनके एक वकील दोस्त मिल गये। यह वही वकील थे जिनके सहारे बाबूलाल का गुजारा होता था। यह भी भागे जा रहे थे। बोले
“कहिए शर्मा जी, किधर चले ? क्या भाग खड़े हुए ?
शर्मा जी का भांडा फूट गया, पर सँभल कर बोले- “भागँ क्यों ?” वकील- “सारा शहर क्यों भागा जा रहा है ?”
शर्मा जी- मैं ऐसा कायर नहीं हूँ?”
शर्मा जी- ‘देहातों में बीमारी फैल रही है, वहाँ कुछ रिलीफ का काम करूँगा।”
वरकील- “यह बिलकुल झूठ है। अभी मैं डिस्ट्रिक्ट गजट देख कर आ रहा हूँ। शहर के बाहर कहीं बीमारी का नाम तक नहीं है।” शर्मा जी बिना कुछ कहे भी विवाद कर सकते थे। बोले- “गजट को आप भगवान की आवाज समझते होंगे, मैं नहीं समझता।” वकील- “आपके कान में तो आकाश के दूत कह गये होंगे ? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि जान के डर से भागा जा रहा हूँ।”
शर्मा जी- “अच्छा, मान लीजिए यही सही। तो क्या पाप कर रहा हूँ? सबको अपनी जान प्यारी होती है।
रास्ते पर। यह महलों की-सी बात
दिल- “हो, अब आये रास्ते पर। मर्दों की-सी है। अपने जीवन की रक्षा करना शास्त्र का पहला नियम है। लेकिन अब भूल कर भी देश-भक्ति की डींग न मारिएगा। इस काम के लिए बड़ी मजबूती और हिम्मत की जरूरत है। स्वार्थ और देश-भक्ति में बहुत अंतर है। देश पर मिट जाने वाले को देश-सेवक का सबसे ऊंचा पद मिलता है, बातें करने से और सिर्फ लिखने से देश-सेवा नहीं होती। कम से कम में तो अखबार पढ़ने को यह गौरव नहीं दे तो है, सकता। अब कभी बढ़-बढ़ कर बातें न कीजिएगा। आप लोग अपने सिवा सारी दुनिया को स्वार्थ में अंधा समझते हैं, इसीलिए कहता हूँ।”
जी ने इस गुस्ताखी का कुछ जवाब न दिया। चिढ़कर मुँह फेर लिया और गाड़ी में बैठ गये। तीसरे स्टेशन पर शर्मा जी उतर पड़े। वकील की कठोर बात से चिढ़ रहे थे। चाहते थे कि उसकी आँख बचा कर निकल जाएँ, पर देख ही लिया और हँस
कर बोला- “क्या आपके ही गाँव में प्लेग का दौरा हुआ है?”
शर्मा जी ने जवाब न दिया। बैलगाड़ी पर जा बैठे। कई मज़दूर हाजिर थे। उन्होंने सामान उठाया। फागुन का महीना था। आमों के बाग से महकती हुई हल्की हल्की हवा चल रही थी। कभी-कभी कोयल की सुरीली तान सुनायी दे जाती थी। खेतों में किसान खुशी से भर कर फाग गीत गा रहे थे।
लेकिन शर्मा जी को अपनी फटकार पर ऐसी ग्लानि थी कि मन को बहलाने वाली इन चीजें का उन पर कुछ असर न हुआ।
थोड़ी देर बाद वे गांव पहुँचे। शर्मा जी के पिता, जो अब नहीं रहे, एक मनोरंजक आदमी थे। एक छोटा-सा बाग, छोटा-सा पक्का कुओं, बैंगला, शिवजी का मंदिर यह सब उन्हों ने बनवाया था। वह गर्मी के दिनों में यहीं रहा करते थे, पर शर्मा जी यहाँ पहली बार आए थे। मजदूरों ने चारों तरफ सफाई कर
थी। शर्मा जी बैलगाड़ी से उतर कर सीधे बंगले में चले गये, सैकड़ों किराएदार दर्शन करने आये थे, पर बह उनसे कुछ न बोले। रात होते होते शर्मा जी के नौकर टमटम लिये आ पहुँचे। पानी भरने वाला, घोड़े वाला ओर खाना बनाने वाला महाराज तीनों ने किराएदारों को इस नजर
से देखा मानो वह उनके नौकर हैं।
घोडेवाले ने एक मोटे-ताजे किसान से कहा- “घोडे को खोल दो।”
किसान बेचारा डरता-डरता घोड़े के पास गया। घोड़े ने अनजान आदमी को देखते ही तेवर बदल कर पैर उठा लिए। किसान डर कर लौट आया, घोड़े वाले ने उसे ढकेल कर कहा- ‘बस, सिर्फ बछड़े को ही संभाल सकते हो। हल जोतने से क्या अदल भी चली जाती है ? यह लो घोड़ा टहलाओ।
तब
मुँह क्या बनाते हो, कोई शेर है जो खा जाएगा?” किसान ने डर से
हुए लगाम पकड़ी। उसका घबराया हुआ चहरा देख कर हँसी आती थी। दो बार बार घोड़े को चौकनी नजर से देखता, मानो वह
कोई पुलिस का सिपाही है। रसोई बनाने वाले महाराज एक चारपाई पर लेटे हुए थे कड़क कर बोले- अरे नाई कहाँ है? चल पानी-वानी ला, हाथ-पैर धो दें।”
पानी भरने वाले ने कहा- “अरे, किसी के पास जरा सुरती-चूना हो तो देना। बहुत देर से तंबाकू नहीं खायी।” मुंशी (कारिंदा) साहब ने इन मेहमानों की दावत का इंतजाम किया। घोड़ेवाले और पानी भरने वाले के लिए परियाँ बनने लगीं, महाराज को सामान दिया
गया। मुंशी साहब इशारे पर दौड़ते थे और गरीब किसानों का तो पूछना ही क्या, वे तो बिना पैसे के गुलाम धे। आजाद लोग इस समय नीकरों के नौकर
हुए
कई दिन बीत गये। शर्मा जी अपने बंगले में बैठे अखबार और किताबें पढ़ा करते थे। रस्किन की कहानियों के अनुसार राजाओं और महात्माओं के साथ का सुख लूटते थे, थाईलैंड के खेती के तरीके, अमेरिकी क्राफ्ट कॉमर्स और जर्मनी की एजुकेशन सिस्टम आदि गहरी बातों के बारे में सोचते थे। गाँव में
ऐसा कौन था जिसके साथ बैठते ? किसानों से बातचीत करने को उनका जी चाहता, पर न जाने क्यों वे गैँवार, बेवकूफ लोग उनसे का दिमाग खेती के बारे में जानकारी का भंडार था।
दूर रहते। शर्मा जी
हालैंड और डेनमार्क की वैज्ञानिक खेती, उसकी उपज का परिमाण और वहाँ के कोआपरेटिव बैंक आदि जानकारी उनकी जुबान पर थे, पर इन गैंवारों
को क्या खबर ? यह सब उन्हें झुककर पैर छुते और डरकर निकल जाते, जैसे कोई सींग मारने वाले बैल से बचता हो। यह तय करना मुश्किल है कि शर्मा जी की उनसे बातचीत करने की इच्छा में क्या राज था सच्ची सहानुभूति या अपनी जानकारी का दिखावा! शर्मा जी की चिट्ठियां शहर से लाने और ले जाने के लिए दो आदमी हर दिन भेजे जाते। वह लुई कूने की, पानी से होने वाले इलाज, के भक्त थे। मेवे
ज्यादा खाते थे। एक आदमी इस काम के लिए भी दौड़ाया जाता था। शर्मा जी ने अपने मुंशी से जोर देकर कहा था कि किसी से मुफ्त काम न लिया जाय तब भी को यह देखकर आश्चर्य होता कि कोई इन कामों के लिए खुशी से नहीं जाता था हर दिन बारी-बारी से आदमी भेजे जाते। मुंशी साहब को अक्सर कठोरता से काम लेना पड़ता था। शर्मा जी किसानों के द्वीलेपन को आलस के सिवा और क्या समझते ! कभी-कभी वह खुद
गुस्से से भरे हुए अपने कमरे से निकल आते और अपने बोलने का चमत्कार दिखाने लगते थे। शर्मा जी के घोड़े के लिए धास-चारे का इंतजाम भी कुछ कम तकलीफदेह न था। हर शाम डॉँट-डपट और रोने-चिल्लाने की आवाज सुनायी देती थी। एक कोलाहल-सा मच जाता था। पर वह इस बारे में अपने मन को इस तरह समझा लेते थे कि घोड़ा भूखा नहीं मरना चाहिए, घास का दाम दे दिया जाता है, अगर इस पर भी यह हाय-हाय होती है तो हुआ करे। शर्मा जी को यह नहीं सूझी कि जरा चमारों से पूछ लें कि घास का दाम मिलता है या नहीं। सब व्यवहार देख-देख कर उन्हें अनुभव होता जा रहा था कि देहाती बड़े आलसी और बदमाश हैं। इनके बारे में मुंशी साहब जो कुछ कहते हैं, वह सच है। अखबारों और भाषणों में उनकी हालत पर बेंकार हड़कंप मचाया जाता है, यह लोग इसी के लायक हैं। जो इनके दुख और गरीबी का राग
अलापते हैं, वह हकीकत जानते ही नहीं हैं।
एक दिन शर्मा जी महात्माओं की संगत उकता कर सैर को निकले। घूमते-फिरते खेतों की तरफ निकल गये। वहाँ आम के पेड़ के नीचे किसानों की गाढ़ी कमाई के सुनहरे ढेर लगे हुए थे। चारों ओर भूसे की आँधी-सी उड़ रही थी। बैल अनाज का एक हिस्सा खा लेते थे। यह सब उन्हीं की कमाई है,
उन्हें खाने न देना बहुत ही गलत है। गाँव के बढ़ई, चमार, धोबी और कुम्हार अपना सालाना टैक्स देने के लिए जमा थे। एक और नट ढोल बजा-बजा कर अपने करतब दिखा रहा था। कवीश्वर महाराज की कविताएं आज जोरों पर थी।
शर्मा जी इस नजारे से बहुत खुश हुए। लेकिन इस खुशी में उन्हें अपने कई सिपाही दिखायी दिये जो लट्ठ लिये अनाज के ढेरों के पास जमा थे। जैसे फूल के बगीचे में ठूँठ कितना बुरा दिखायी देता है या सुंदर संगीत में जैसे कोई बेसुरी तान कानों को खराब लगती है, उसी तरह शर्मा जी को आँखों के सामने मँडराते हुए ये सिपाही दिखायी दिये। उन्होंने पास जाकर एक सिपाही को बुलाया। उन्हें देखते ही सब-के-सब रास्ता पकड़ कर दौड़े। शर्मा जी ने पूछा- “तुम लोग यहाँ इस तरह क्यों बैठे हो ?”
एक सिपाही ने जवाब दिया- “सरकार, हम लोग किराएदारों के सिर पर सवार न रहें तो एक कौड़ी वसूल न हो। अनाज घर में जाने की देर है, फिर वह
सीधे बात भी न करेंगे, बड़े बदमाश लोग हैं। हम लोग रात भर बैठे रहते हैं। इतने पर भी जहाँ आँख झपकी ढेर गायब हुआ। शर्मा जी ने पूछा- “तुम लोग यहाँ कब तक रहोगे ?” एक सिपाही ने जवाब दिया- “हजूर बनियों को बुला कर अपने सामने अनाज तौलाते हैं। जो कुछ मिलता है उसमें से लगान काट कर बाकी किराएदार
को देते हैं।”
शर्मा जी सोचने लगे, जब यह हाल है तो इन किसानों की हालत क्यों न खराब हो ? यह बेचारे अपने पैसे के मालिक नहीं है। उसे अपने पास रख कर
अच्छे मौके पर नहीं बेच सकते। इस परेशानी का हल कैसे किया जाय ? अगर में इस समय इनके साथ नरमी बरतूं तो लगान कैसे वसूल होगा।”
इस बारे में सोचते हुए वहाँ से चल दिये। सिपाहियों ने साथ चलना चाहा, पर उन्होंने मना कर दिया। भीड़-भाड़ से उन्हें उलझन होती थी। अकेले ही गाँव में घूमने लगे। छोटा-सा गाँव था, पर सफाई का कहीं नाम तक न था। चारों ओर बदबू उठ रही थी। किसी के दरवाजे पर गोबर सड़ रहा था, तो कहीं कीचड़ और कूड़े का ढेर हवा को जहरीला बना रहा था। घरों के पास ही कूड़े पर खाद के लिए गोबर फेंका हुआ था जिससे गाँव में गन्दगी फैलने के साथ-साथ खाद का सारा अंश धूप और हवा के साथ गायब हो जाता था। गाँव के मकान और रास्ते अजीब, बेटंगे और टूटे-फूटे थे। गटर से गंदे पानी के निकलने का कोई इंतजाम न होने की वजह से बदबू से दम घुटता था। शर्मा जी ने नाक पर रूमाल लगा ली। साँस रोक कर तेजी से चलने लगे। बहुत जी
घबराया तो दौड़े और हाँफते हुए एक घने नीम के पेड़ की छाया में आ कर खड़े हो गये। अभी अच्छी तरह साँस भी न लेने पाये थे कि बाबूलाल ने आकर पूछा- “क्या कोई साँड़ था ?”
शर्मा जी साँस खींच कर बोले- “साँड से ज्यादा भयानक
जहरीली हवा थी। ओह ! यह लोग ऐसी गंदगी में रहते हैं ?”
बाबूलाल- “रहते क्या है, किसी तरह जीवन के दिन पूरे करते हैं। शर्मा जी- “पर यह जगह तो साफ है ?”
बाबूलाल- “जी हाँ, इस तरफ गाँव के किनारे तक
शर्मा जी- “तो उधर इतना मैला क्यों है ?”
बाबूलाल- “गुस्ताखी माफ हो तो कहूँ?”
साफ जगह मिलेगी।”
शर्मा जी हँसकर बोले- “जान का दान माँगा होता। सच बताओ क्या बात है ? एक तरफ इतनी साफ सफाई और दूसरी तरफ इतनी गंदगी ? बाबूलाल- “यह मेरा हिस्सा है और वह आपका हिस्सा है। मैं अपने हिस्से की देख-रेख खुद करता हूँ, पर आपका हिस्सा नौकरों की दया के सहारे है।” शर्मा जी- “अच्छा यह बात है। आखिर आप क्या करते हैं ?”
बाबूलाल- “और कुछ नहीं, सिर्फ ध्यान रखता हूँ। जहाँ ज्यादा गंदगी देखता हूँ, खुद साफ करता हूँ। मैंने सफाई का एक इनाम तय कर दिया है, जो महीने सबसे साफ घर के मालिक को मि लता है।”
शर्मा जी के लिए एक कुर्सी रख दी गयी। वे उस पर बैठ गये और बोले- “क्या आप आज ही आये है ?” बाबूलाल- “जी हाँ, कल छुट्टी का दिन है। आप जानते ही हैं कि छुट्टी के दिन मैं भी यहीं रहता हूँ।”
शर्मा जी- “शहर का क्या रंग-ढंग है ?”
बाबूलाल- “वही हाल, बल्कि और भी खराब। सोशल सर्विस लीग वाले भी गायब हो गये। गरीबों के घरों में मुर्दे पड़े हुए हैं। बाजार बंद हो गये। खाने
को अनाज नहीं है।
शर्मा जी- “भला बताओ तो, ऐसी आग में में वहाँ केसे रहता ? बस लोगों ने मैरी ही जान सस्ती समझ रखी है। जिस दिन में यहाँ आ रहा था आपके वकील साहब मिल गये, बहुत गरम हो पड़े, मुझे देश-भक्ति के उपदेश देने लगे। जिन्हें कभी भूल कर भी देश का ध्यान नहीं आता वे भी मुझे उपदेश देना अपना फर्ज समझते हैं। जिसे देखो वही तो देश-सेवक बना फिरता है। जो लोग सौ रुपये अपने भोग-विलास में फूँकते हैं उनकी गिनती भी जाति-सेवकों है। मैं तो फिर भी कुछ-न-कुछ करता हूँ। मैं भी इंसान हूँ कोई देवता नहीं, पैसे की इच्छा जरूर है। मैं जो अपना जीवन अखबारों के लिए लेख लिखने
काटता है देश के फायदे की चिंता में लगा रहता हूँ, उसके लिए मेरा इतना सम्मान बहुत समझा जाता है। जब किसी सेठ या किसी वकील के यहाँ जाऊँ तो वह दया करके मेरा हाल चाल पूछ लेते हैं। उस पर भी अगर अदकिस्मती से किसी चंदे के लिए जाता
हूँ. तो लोग मुझे यम का दूत समझते हैं। ऐसी रूखाई का व्यवहार करते हैं जिससे सारा उत्साह खत्म हो जाता है। यह सब तकलीफे तो मैं झेलेँ, पर जब किसी सभा का सभापति चुनाव का समय आता है तो कोई वकील इसके लायक समझा जाता है, जिसे अपने पैसे के सिवा और कुछ सूझता नहीं। तो भाई जो गुड़ खाय वह कान छिदावे। देश का अच्छा सोचने वालों का इनाम यही जातीय सम्मान है। जब वहाँ तक मेरी पहुँच ही नहीं तो बेकार जान क्यों दूँ। अगर यह आठ साल मैंने पैसे कमाने में बिताए होते तो अब तक मेरी गिनती बड़े आदमियों में होती।
अभी मैंने कितनी मेहनत से देहाती बैंकों पर लेख लिखा, महीनों उसकी तैयारी में लगे, सैकड़ों अखबार-पत्रिकाओं के पन्ने उलटने पड़े, पर किसी ने उसे
पढ़ने की तकलीफ भी ना उठाई। अगर इतनी मेहनत किसी और काम में किया होता तो कम से कम मेरा स्वार्थ तो पूरा होता। मुझे पता चल गया कि इन बातों को कोई नहीं पूछता। इज्जत और नाम यह सब पैसे के नौकर हैं।”
बाबूलाल- “आपका कहना सच ही है; पर आप जैसे महान इंसान इन बातों को मन में लाएँगे तो यह काम कौन करेगा?” शर्मा जी- “वही करेंगे जो honourable बने फिरते हैं या जो नगर के पिता कहलाते हैं। मैं तो अब देशभर घूमूंगा, दुनिया की हवा खाऊँगा।” बाबूलाल समझ गये कि यह महाशय इस समय आपे में नहीं हैं। बाल बदल कर पूछा- “यह तो बताइए, आपने देहाल को कैसे याद किया ? आप तो यहाँ
पहली बार आये हैं।”
शर्मा जी- “बस, यही कि बैठे-बैठे जी घबराता है। हाँ, कुछ नये अनुभव जरूर मिले हैं कुछ भ्रम दूर हो गये। पहले समझता था कि किसान बड़े
दीन-दुखी होते हैं। अब मालूम हुआ कि यह आलसी, छोटे दिल के और बुरे है सीधे बात न सुनेंगे, पर कड़ाई से जो काम चाहे करा लो। बिलकुल जानवर है और तो और, लगान के लिए भी उनके सिर पर सवार रहने की जरूरत है। टल जाओं तो कौड़ी वसूल न हो। वो सब तकलीफे सहेंगे, पर समय पर रुपया देना नहीं जानते। यह सब मेरे लिए नयी बातें हैं। मुझे अब तक इनसे जो सहानुभूति थी वह अब नहीं रही। अखबारों में उनकी दुरी हालत के बारे में जो लिखा जाता है, वह पूरी तरह झूठ हैं। क्यों, आपका क्या मानना है ?”
बाबूलाल ने सोच कर जवाब दिया- मुझे तो अब तक कोई शिकायत नहीं हुई। मेरा अनुभव यह है कि यह लोग बड़े समझदार, नग्र और एहसान मानने
वाले होते हैं। लेकिन उनके ये गुण सामने दिखायी नहीं देते। उनसे घुलने मिलने पर उनकी अच्छाइयां बाहर आती हैं। उन पर भरोसा कीजिए तब वह आप पर भरोसा करेंगे। आप कहेंगे इस बात में पहल करना उनका काम है और आपका कहना ठीक भी है, लेकिन शताब्दियों से वह इतने पिसते आए हैं, इतनी ठोकरें खायी हैं कि उनमें आजादी के गुण खो गए हैं। जमींदार को वह राक्षस समझझते हैं जिनका काम उन्हें निगल जाना है। वह उनका हैं । कि उन्हें . इसलिए छल और कपट से काम लेते हैं, जो गरीबों का इकलौता सहारा है। पर आप एक बार उनके भरोसेमंद बन जाइए, फिर मुकाबला नहीं कर सकते, आप कभी उनकी शिकायत न करेंगे।”
बाबूलाल यह बात कर ही रहे थे कि कई चमारों ने घास के बड़े-बड़े गट्टे ला कर डाल दिये और चुपचाप चले गये। शर्मा जी को आश्चर्य हुआ। इसी घास के लिए उनके बंगले पर हाय-हाय होती है और यहाँ किसी को खबर भी नहीं हुई। बोले- “आखिर अपना विश्वास जमाने का कोई उपाय भी है।” बाबूलाल ने जवाब दिया- “आप खुद बुद्धिमान हैं। आपके सामने बोलना छोटा मुहँ बड़ी बात होगी। मैं इसका एक ही उपाय जानता हूँ। उन्हें किसी तकलीफ में देख उनकी मदद कीजिए। मैंने उन्हीं के लिए दवाइयों के बारे में सीखा और छोटी-मोटी दवाइयाँ अपने साथ रखता हूँ। रुपया माँगते हैं तो रुपया, अनाज माँगते हैं तो अनाज देता हूँ, पर सूद नहीं लेता। इससे मुझे ग्लानि नहीं होती, दूसरे रूप में सूद ज्यादा मिल जाता है। गाँव में दो अथी औरतें और दो अनाथ लड़कियाँ हैं, उनके इतते में कई किा लाक गुलार क इतजान कर दिया है। होता सब उन्हीं की कमाई से है, पर नेकनामी मेरी होती है।”
बोले- “भैया, लगान ले लो।”
शर्मा जी ने सोचा इसी लगान के लिए मेरे चपरासी खेत में चारपाई डाल कर सोते हैं और किसानों को अनाज के हेर के पास फटकने नहीं देते और वही लगान (टैक्स) यहाँ इस तरह अपने आप चला आता है। बोले- “यह सब तो तब ही हो सकता है जब जमींदार खुद गाँव में रहे।” बाबूलाल ने जवाब दिया- “जी हाँ, और क्यों ? जमींदार के गाँव में न रहने से इन किसानों को बड़ा नुकसान होता है कर्मचारियों और नौकरों से यह उम्मीद करना भूल है कि वह इनके साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, क्योंकि उन्हें तो अपना उल्लू सीधा करना होता है। जो किसान उनकी मुद्दी गरम करते हैं उन्हें मालिक के सामने सीधा और जो कुछ नहीं देते उन्हें बदमाश और बेअक्ल बतलाते हैं। किसानों को बात-बात के लिए चूसते हैं, अगर किसान घर छत्त डालना चाहे तो उन्हें दे, दरवाजे पर तक गाड़ना चाहे तो उन्हें पूजे, छप्पर उठाने के लिए दस रुपये जमींदार को नजराना दे तो दो रुपये मुंशी जी को जरूर ही देने होंगे। कर्मचारियों को ची-दूध मुफ्त खिलाएँ, कहीं-कहीं तो गेहूं-चावल तक मुफ्त हजम कर जाते हैं। जमींदार तो किसानों को चूसते ही हैं, कर्मचारियों भी कम नहीं चुसते। जमींदार तीन पाव के भाव में रुपये का सेर भर घी ले तो मुशी जी को अपने घर अपने साले-बहनोइयों के लिए अठारह छटाँक चाहिए ही।
थोड़ी थोड़ी सी बात के लिए दंड और जुर्माना देते-देते किसानों के नाक में दम हो जाता है। आप जानते हैं इसी से और कहीं की 30 रु. की नौकरी छोड़ कर भी जमींदारों की नौकरी लोग 8 रु., 10 रु. में स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि 8 रु., 10 रु. का कर्मचारी साल में 800 रु., 1000 रु. ऊपर से कमाता है। दुख तो यह है कि जमींदार लोगों में शिक्षा की उन्नति के साथ-साथ शहर में रहने की आदत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मालूम नहीं आगे चल कर इन बेचारों की क्या हालत होगी ?”
शर्मा जी को बाबूलाल की बातें सोचने लायक मालूम हुईं! पर वह पढ़े लिखे इंसान थे। कोई बात चाहे वह सच ही क्यों न हो, बिना सोंचे विचारे मानते । बाबूलाल को वह आम दिमाग का आदमी समझते आये थे। इस भाव में अचानक बदलाव हो जाना नामुमकिन था। इतना ही नहीं, इन बातों नहीं थे। का उल्टा असर यह हुआ कि वह बाबूलाल से चिढ़ गये। उन्हें ऐसा लगा कि बाबूलाल अपने इंतजाम के घमंड में मुझे छोटा समझता है, मुझे सिखाने की कोशिश कर रहा है। जो हमेशा दूसरों को अच्छी बातें सिखाने और सम्मान दिखाने की कोशिश करता हो वह बाबूलाल जैसे आदमी के सामने कैसे सिर झुकाता ? इसलिए जब वहाँ से चले तो शर्मा जी के सोचने समझने की शक्ति बाबूलाल की बातों की बुराई कर रही थी। मैं गाँव में क्यों रहूँ ! क्या जीवन की सारी इच्छाओं पर पानी फेर दूँ ? गँवारों के साथ बैठे-बैठे गप्पें लड़ाया करूँ ! थोड़ी देर के मनोरजन के लिए उनसे बातचीत करना मुमकिन है, पर यह मुझसे सहन नहीं होगा कि वह आठों पहर मेरे सिर पर सवार रहें। मैं तो पागल हो जाउँगा। माना कि उनकी रक्षा करना मेरा फर्ज है, पर यह कभी नहीं हो सकता कि उनके लिए मैं अपना जीवन खत्म कर दूँ। बाबूलाल बन जाने की हिम्मत मुझमें नहीं है कि जिससे
बेचारे इस गाँव की सीमा के बाहर नहीं जा सकते। मुझे दुनिया में बहुत काम करना है, बहुत नाम करना है। गांव का जीवन मेरे लिए बुरा ही नहीं बल्कि
भी है। यही सोचते हुए
वह बैंगले पर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि कई कांस्टेबल कमरे के बरामदे में लेटे हुए हैं। मुंशी साहब शर्मा जी को देखते ही आगे बढ़ कर | बड़े दारोगा जी, छोटे दारोगा जी के साथ आये हैं। मैंने उनके लिए पलंग कमरे में ही बिछवा दिये हैं। ये लोग जब इधर आ जाते हैं तो ठहरा बोल- हुजूर ! बड़े
करते हैं। देहात में इनके लायक जगह और कहाँ है ? अब में इनसे कैसे कहता कि कमरा खाली नहीं है। हुजूर का पलंग ऊपर बिछा दिया है।” शर्मा जी अपने दूसरे देश के बारे में सोचने वाले भाइयों की तरह पुलिस के घोर विरोधी धे। पुलिसवालों के अत्याचारों के कारण उन्हें बड़ी नफरत की नज़र से देखते थे। उनका मानना था कि अगर पुलिस का आदमी प्यास से भी मर जाय तो उसे पानी न देना चाहिए। अपने कर्मचारियों से यह समाचार सुनते ही उनके शरीर में आग-सी लग गयी। कर्मचारियों की और लाल आँखों से देखा और लपक कर कमरे की ओर चले कि बेईमानों का सामान उठा
कर फेंक दूं। वाह मेरा घर न हुआ कोई होटल हुआ! आ कर डट गये। वो तेवर बदले हुए बरामदे में जा पहुंचे कि इतने में छोटे दारोगा बाबू कोकिला सिंह ने कमरे से निकल कर पैर छुए और हाथ बढ़ा कर बोले- “शुभ समय
से चला था कि आप से मिलना हो गया। आप मुझे भूल तो नहीं गए ?” यह महाशय दो साल पहले सोशल सर्विस लीग के उत्साही सदस्य थे। इंटरमीडियेट फेल हो जाने के बाद पुलिस में दाखिल हो गये थे। शर्मा जी ने उन्हें
देखते ही पहचान लिया। गुस्सा शांत हो गया।
मुस्कराने की कोशिश करके बोले- “भूलना बड़े आदमियों का काम है। मैंने तो आपको दूर ही से पहचान लिया था। कहिए,
इसी थाने में हैं क्या ?”
कोकिला सिंह बोले- “जी हाँ, आजकल यहीं हूँ। आइए, आपको दारोगा जी से इन्ट्रोड्यूस (परिचय) करा दूं।” अंदर दर आरामकुरसी लेटे दारोगा जुल्फिकार अली खाँ हुक्का पी रहे थे। बड़े डीलडौल के आदमी थे। चेहरे से रोब टपकता था। शर्मा जी को देखते
ही उठकर हाथ मिलाया और बोले- “जनाब से पहचान करने का शौक बहुत समय से था। आज खुशनसीब मौका भी मिल गया। इस तरह आ जाने की शर्मा जी को आज मालूम हुआ कि पुलिस वालों को बेअदब कहना गलत है। हाथ मिला बोले- “यह आप क्या कह रहे हैं, आपका घर है।”
गुस्ताखी को माफ करना।”
साथ ही पुलिस
बड़े दारोगा जी ग क भी की तो पुलिस की
यह ललकार सुनकर सँभल बैठे और बोले- “क्यो जनाब क्या पुलिस ही सारे विभाग में गया-गुजरा है ? ऐसा कौन-सा विभाग है जहाँ रिश्वत का बाजार गर्म नहीं है? अगर आप ऐसे एक भी विभाग का नाम बता दीजिए तो मैं पूरी जिंदगी आपकी गुलामी करूँगा। सेवा करके रिश्वत लेना मुश्किल है। सेवा करने वालों को खरा और सच्चा कहा जाता है, मगर मुझे इसका खूब तजुर्बा हो चुका है। अब में किसी ईमानदारी के दावे को सही नहीं मान सकता और दूसरे सेवा करने वालों के बारे में तो में नहीं कह सकता, मगर पुलिस में जो रिश्वत नहीं लेता उसे में बेवकूफ समझता हूँ।
ईमानदार सब-इन्स्पेक्टर देखे हैं, पर उन्हें हमेशा तबाह देखा है. कभी सस्पेंड, कभी डिसमिस्ड चौकीदार और कांस्टेबल बेचारे गरीब आदमी हैं, इनका गुजारा कैसे हो ? वहीं हमारे हाथ-पाँच हैं, उन्हीं पर हमारे यश की जिम्मेदारी है। जब वह खुद भूखे मरेंगे तब हमारी मदद करेंगे जो लोग हाथ बढ़ा कर लेते हैं, खाते हैं, दूसरों को खिलाते हैं, अफसरों को खुश रखते हैं, उनकी गिनती । है – भगवान का का शुक्र है कि अफसर और कर्म अच्छे काम करने वाले, अच्छे आदमियों में होती सभी खुश हैं।
| मैंने तो अपना यही वसूल क्र है कि मैंने ठाकुर साहब से कहा था कि आप क्यों इस जुल्फिकार अली खाँ गरम हो कर बोले- “आये तो विभाग प्र को स्यान ई एहसान विभाग में आये किया। किसी दूसरे विभाग में होते तो अभी तक ठोकरें खा रहे होते,
नहीं तो धोड़े – पिया थाड़ मर सवार दृल्हा बने घूमते रहते । मैं तो सच्ची बात कहता हूँ, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी। इनसे पूशचिए, हराम की कमाई अकेजे आन तक कर्मचारी नजम हुई हैं ? नये लोग आते हैं उनकी आदत होती है कि जो कुछ मिले अकेले ही हजम कर लें। चुपके-चुपके लेते हैं और थाने के मुँह ताकते रह जाते हैं! दुनिया की नजर में ईमानदार बनना चाहते हैं, पर अपके आते, जब हम खुदा से ही नहीं डरते तो आदमियों
का क्या डरते। अबे, ? ईमानदार बनना हो तो दिल से बनो। सच्चाई का नाटक क्यों करते हो ? यह हुजूर थोड़े थोड़े पैसों के लिए गिर जाते हैं। घरमंड के मारे किसी आदमी से राय तो लेते नहीं। जहाँ आसानी से सौ रुपये मिल सकते हैं वहाँ पाँच रुपये में खुश हो जाते हैं। कहीं दूधवाले के दाम मार लिये, कहीं नाई के पैसे दबा लिये, कहीं बनिये से दाम के लिए झगड़ बैठे। यह अफसरी नहीं बदमाशी है; बिना फायदे का गुनाह, फायदा तो कुछ नहीं; बदनामी मुफ्त। मैं बड़े-बड़े शिकारों पर नज़र रखता हूँ। छोटे मोटे को नीचे वालों के लिए छोड़ देता हूँ। कसम से कहता हूँ, जरूरत बुरी चीज़ है। रिश्वुत
देने वालों से ज्यादा बेवकूफ अंधे आदमी दुनिया में न होंगे। ऐसे कितने ही उल्लू आते हैं जो सिर्फ यह चाहते हैं कि मैं उसके किसी हिस्सेदार या दुश्मन को दो-चार खरी-खोटी सुना है, कई ऐसे बेईमान जमींदार आते हैं जो यह चाहते हैं कि वह किराएदारों पर जुल्म करते रहें और पुलिस दखल न दे! इतने के लिए वह सैकड़ों रुपये न्योछावर कर देते हैं और खुशामद अलग से । ऐसे अक्ल के दुश्मनों पर रहम करना बेवकूफी है। जिले में मेरे इलाके को सोने की खान कहते हैं। इस पर सबके दाँत रहते हैं। रोज एक न एक शिकार मिलता रहता है। जमींदार पूरे गवांर, बहुत बड़े बेवकूफ, जरा-जरा सी बात पर मारपीट कर बैठते हैं। मैं तो भगवान से दुआ करता रहता हूँ ि सवाल रख रहे हैं, उस सभले इंसान को न जाने क्या हमेशा गड्ढे में पड़े रहें। 1 इसी बेवकूफी के सुनता हूँ, कोई साहब आम शिक्षा का न जाने क्या धुन है। शुक्र है कि हमारी अक्लमंद सरकार ने हमारा जवल र कर दिया। बस, इस सारे इलाके में एक यही आप का हिस्सेदार समझदार आदमी है। उसके यहाँ मेरी या और किसी की दाल नहीं गलती और मजे की बात यह है कि कोई उससे नाखुश नहीं है! बस मीठी-मीठी बातों से मन भर देता है। अपने किराएदारों के लिए जान देने को हाजिर, और कसम से कहता हूँ कि अगर में ज़मींदार होता तो इसी शख्स का तरीका अपनाता। जमींदार का फर्ज है कि अपने किराएदारों को जुल्म से बचाये। उन पर शिकारियों का वार न होने दे। बेचारे गरीब किसानो की जान के तो सभी दुश्मन होते हैं और कसम से कहता हूँ, उनकी कमाई उनके काम नहीं आती उनकी मेहनत का मजा हम लूटते हैं। यों तो जरूरत से मजबूर हो कर इनसान क्या नहीं कर सकता, पर हक यह है कि इन बेचारों की हालत वाकई रहम के लायक है और जो शख्स उनके लिए ढाल हो सके उसके कदम चूमने चाहिए। मगर मेरे लिए तो वही आदमी सबसे अच्छा है जो शिकार में मेरी मदद करे।”
शर्मा जी ने इस बकवास को बड़े ध्यान से सुना। वह रसिक इंसान थे। इसकी गहरी बातों पर मोहित हो गये। अच्छाई और कठोरता के इस अजीब
मिलावट से उन्हें इंसानों के मनोभावों का एक आश्चर्यजनक परिचय मिला। ऐसी बात का जवाब देने की कोशिश करना बेकार था। बोले- क्या कोई दारोगा जी बोले- “जी नहीं, सिर्फ गश्त। आजकल किसानों के फसल के दिन है। यही समय हमारी फसल का भी है। शेर को भी तो माँद में बैठे-बैठे शिकार नहीं मिलता। जंगल में घूमता है। हम भी शिकार की तलाश में हैं। किसी पर चोरी से बेचने का इलजाम लगाया, किसी को चोरी का माल खरीदने के लिए पकड़ा, किसी को धोखाधड़ी का मामला उठा कर फाँसा । अगर हमारे नसीब से डाका पड़ गया तो हमारी पाँचों अँगुलियाँ घी में समझिए। डाकू तो नोच-खसोट कर भागते हैं। असली डाका हमारा पड़ता है। आस-पास के गाँव में झाडू फेर देते है। भगवान से हर रोज दुआ किया करते हैं कि
तहकीकात है, या सिर्फ गश्त ?”
भगवान! केही से व
कमाने का जरिया भेजा झूठे-सच्चे डाके की खबर आए। अगर देखा कि किस्मत के भरोसे काम नहीं चलता तो जुगाड़ से काम लेते हैं। जरा से इशारे की जरूरत है, डाका पड़ते क्या देर लगती है ! आप मेरी सफाई पर हैरान होते होंगे। अगर में अपने सारे हथकंडे बताऊँ तो आप यकीन न करेंगे और मजे की बात यह है कि मुझे जिले के एकदम होशियार, मेहनती, दयालु सब-इन्स्पेक्टरों में गिना जाता है। नकली डाके डलवाता हूँ! नकली मुल्जिम पकड़ता हूँ, मगर सजा असली दिलवाता हूँ। गवाह ऐसे गढ़ता हूँ कि कितना ही बड़ा बैरिस्टर क्यों न हो, उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकता।” इतने में शहर से शर्मा जी की चिट्ठियां आ गयी। वे उठ खड़े हुए और बोले- “दारोगा जी, आपकी बातें बड़ी मजेदार होती हैं। अब इजाजत दीजिए।
चिट्टियां आ गयी है। जरा उसे देखना है।”
चाँदनी रात थी। शर्मा जी खुली छत पर लेटे हुए अखबार पढ़ने में लगे थे। अचानक कुछ शोरगुल सुन कर नीचे की तरफ झाँका तो क्या देखते हैं कि गाँव के चारों तरफ से कान्स्टेबलों के साथ किसान चले आ रहे हैं। बहुत से आदमी खेत की तरफ से बड़बड़ाते आ रहे थे। बीच-बीच में सिपाहियों की डॉट-फटकार की आवाजें भी कानों में आती थीं। यह सब आदमी बैंगले के सामने आँगन में बैठते जा रहे थे। कहीं-कहीं औरतों की गुहार भी सुनायी थी। शर्मा जी हैरान थे कि मामला क्या है ? इतने में दारोगा जी की भयानक गरज सुनायी पड़ी-“हम एक न मानेंगे, सब लोगों को थाने चलना
होगा।”
फिर सन्नाटा हो गया। मालूम होता था कि आदमियों में कानाफूसी हो रही है। बीच-बीच में मुंशी साहब और सिपाहियों के दिल दहलाने वाले शब्द
आकाश में गूंज उठते। फिर ऐसा जान पड़ा कि किसी पर मार पड़ रही है। शर्मा जी से अब न रहा गया। वह सीढ़ियों से दरवाजे पर आये। कमरे में झाँक कर देखा। मेज पर रुपये गिने जा रहे थे। दारोगा जी ने फर्माया- “इतने बड़े गाँव में सिर्फ यही ? मुंशी साहब ने जवाब दिया- “अभी घबराइए नहीं। अबकी मुखियों की खबर ली जाय। रुपर्यों का देर लग जाएगा।”
यह कह कर मुंशी ने कई किसानों को पूकारा, कोई न बोला। तब दुर्गा जी की ज़ोरदार आवाज सुनायी दी- “यह लोग सीचे न मानेंगे, मुखियों को पकड़ लो। हथकड़ियां लगा दो। एक-एक को डामुल (जेल) भिजवाऊँगा।
यह कठोर ही कान्स्टेबलों का दल उन आदमियों पर टूट पड़ा। ढोल-सी पिटने लगी। रोने की आवाज से आकाश गुँज उठा! शर्मा जी का खून खोल रहा था। उन्होंने हमेशा इंसाफ और सच्चाई की सेवा की थी। नाइंसाफी और बेदर्दी का यह दुख भरा अभियान उनसे सहन नहीं हो रहा था। अचानक किसी ने रोकर कहा- “दहाई सरकार की, मुंशी साहब हम लोगों का हक बेकार मार रहे हैं।” शर्मा जी गुस्से से काँपते हुए धम-धम कमरे से उतर पड़े, यह तय कर लिया कि मुंशी साहब को मारे हंटरों के गिरा हूं, पर जनसेवा में गुस्से को दबाने की
बहुत ताकत होती है। रास्ते में ही संभल गये। मुंशी को बुला कर कहा- ‘मुंशी जी, आपने यह क्या गड़बड़ मचा रखी है ?” मुंशी ने जवाब दिया- “हुजूर, दारोगा जी ने इन्हें एक डाके की तहकीकात करने के लिए बुलाया है।”
शर्मा जी बोले- “जी हाँ, इस तहकीकात का मतलब मैं खूब समझता हूँ। घंटे भर से इसका तमाशा देख रहा हूँ। तहकीकात हो चुकी या कसर बाकी है ?” मुंशी ने कहा- हुजूर, दारोगा जी जानें, मुझे क्या मतलब ?”
दारोगा जी बड़े चालाक आदमी थे। मुंशी साहब की बातों से उन्होंने समझा था कि शर्मा जी का स्वभाव भी दूसरें जमींदारों की तरह है। इसलिए वह बेधड़क थे, पर इस समय उन्हें अपनी भूल समझ आई। शर्मा जी के तेवर देखे, ऑँखों से गुस्से की आग निकल रही थी, दो शर्मा जी की पहुंच को अच्छी तरह जानते थे। पास आ कर बोले- “आपके इस मुंशी ने मुझे बड़ा धोखा दिया, वरना मैं कसम से कहता हूँ कि यहाँ यह आग न लगती। आप मेरे दोस्त बाबू कोकिला सिंह के दोस्त हैं और इस नाते से मैं आपको अपना समझता हूँ, पर इस निकम्मे बदमाश ने मुझे बड़ा चकमा दिया ! मैं भी ऐसा बेवकूफ था कि इसके चक्कर में आ गया। में बहुत शर्मिंदा हूँ कि आप को इतनी तकलीफ हुई! मैं आपसे माफी मांगता हूँ। मेरी एक दोस्ताना
विनती है कि जितनी जल्दी मुमकिन हो इस आदमी को निकाल दीजिए। यह आपकी रियासत को बर्बाद कर रहा है। अब मुझे भी इजाजत दीजिए कि अपने मनहूस कदम यहाँ से ले जाऊँ। मैं कसम से कहता हूँ कि मुझे आपको मुँह दिखाते शर्म आ रही है।
यहाँ तो यह घटना हो रही थी, उधर बाबूलाल अपने चौपाल में बैठे हुए, इसके बारे में अपने कई किराएदारों से बातचीत कर रहे थे। शिवदीन ने कहा- “भैया, आप जा कर दारोगा जी को क्यों नहीं समझाते। राम-राम ऐसा अन्धकार !” बाबूलाल- “भाई, में दूसरे के बीच में बोलने वाला कौन होता हूँ ? शर्मा जी तो वहीं हैं। वह खुद ही अक्लमंद हैं। जो ठीक होगा, करेंगे। आज कोई नयी व में है। बात थोड़े ही है। देखते तो हो कि आये दिन एक न एक दंगा फसाद मचा ही रहता है। मुंशी साहब का इसमें भला होता है। शर्मा जी से में इस बारे में इसलिए कुछ नहीं कहता कि वे यह ना समझें कि मैं जलन के मारे शिकायत कर रहा हूँ।” रामदास ने कहा- शर्मा जी कमरे में हैं और नीचे बेचारों को मार पड़ रही है। देखा नहीं जा रहा। जिनसे पेसा मिल जाता है उन्हें छोड़ देते हैं। मुझे तो लगता है यह तहकीकात वहकीकात सब पैसे ऐठने के लिए की जाती है।” बाबूलाल- “और किस लिए की जाती है। दारोगा जी ऐसे ही शिकार हूँढ़ा करते हैं, लेकिन देख लेना शर्मा जी अबकी मुंशी साहब की जरूर खबर लेंगे। वह ऐसे-वैसे आदमी नहीं हैं कि यह सब अपनी आँखों से देखें और चुप रह जाएँ ? हाँ, यह तो बताओ इस बार कितने गन्ने बोए हैं ?” रामदास- “गन्ने तो ढेर सारे बोये लेकिन इन बदमाशों के कारण बच पाए तब ना। तुम मानोगे नहीं भैया लेकिन आंखों देखी बात है कि टीन के टीन रस जल गया लेकिन ज़रा भी माल नहीं बना। ना जाने कौन सा मंत्र मार दे देता है।”
बाबूलाल- “अच्छा, इस बार मेरे कहने से यह नुकसान उठा लो। देखूं ऐसा कौन सा जादू है जो टीनों रस उड़ा देता है। जरूर इसमें कोई ना कोई बात है।
इस गांव में जितने कोल्हू जमीन में गड़े हैं, उससे लगता है कि पहले यहां बहुत गन्ने होते थे लेकिन अब बेचारी का मुंह भी मीठा नहीं हो पाता।” शिवदीन- “अरे भैया ! हमारे देखते हुए यह सब कोल्हू चलते थे। माघ-पूस में रात भर गाँव में मेला लगा रहता था, पर जब से ये बर्बाद करने वाली विद्या फैली है तब से किसी को गन्ने के पास जाने की हिम्मत नहीं पड़ती है।”
बाबूलाल- “भगवान चाहेंगे तो फिर वैसे ही गन्ने लगेंगे। इस बार मैं इस मंत्र को उलट दूँगा। भैया यह तो बताओ अगर गन्ने लग जाय और माल बने तो तुम्हारी पट्टी में एक हजार का गुड़ हो जायगा ?”
हरखू ने हँस कर कहा- “भैया, कैसी बात कहते हो हजार तो पाँच बीधा में मिल सकता हैं। हमारे पट्टी में 25 बीधा से कम गन्ना नहीं था। कुछ और नहीं तो अढ़ाई हजार कहीं नहीं गये हैं।”
बाबूलाल- “तब तो उम्मीद है कि कोई पचास रुपये बयाई में मिल जायेंगे। यह रूपये गाँव की सफाई में खर्च होंगे। इतने में एक नौजवान इंसान दौड़ता हुआ आया और बोला- भैया वह तहकीकात देखने गया था। दारोगा जी सब को डांट मार रहे थे। देवी मुखिया बोला मुंशी साहब, चाहे हम को काट दो लेकिन हम । रुपया भी नहीं देंगे। धाना, अदालत जहां कहो हम चलने को तेयार है। यह सुनकर मुंशी गुस्सा हो चार सिपाहियों से डांटने। संधी ासी बाले इसे पकड़ कर खूब मारो, तब देवी चिल्ला चिल्ला के रोने लगा, इतने में शर्मा जी कमरे से खटखट उतरे और मुंशी को लगे।
खड़े-खड़े सूख गया। दरोगा जी धीरे से घोड़ा मंगाकर भाग गए। लगता है शर्मा जी की किस्मत लुट गई।” बाबूलाल- यह तो मैं पहले ही कहता था कि शर्मा जी से यह अन्याय न देखा जायगा। इसने में दूर से इतने एक लालटेन की रोशनी दिखायी दी। एक आदमी के साथ शर्मा जी आते हुए दिखायी दिये। बाबूलाल ने किराएदारों को वहाँ से हटा दिया, लिया होता।”
सारे आदमी वहाँ ने गाँव में लूट मची पीटे जा रहे थे, उनका गला दबाया जा रहा था और आप पास तक ২ मुंशी न फटके। मुझे आपसे मदद की उम्मीद थी। आज हमारे कुरसी रखवा दी और बढ़ कर बोले- “आपने इस समय क्यों तकलीफ की, मुझे कि आपके दारोगा जी भी उसके मददगार थे। अच्छा था कि मैं वहाँ मौजूद था।” बाबूलाल- “बहुत शर्मिंदा हूँ कि इस मौके पर आपकी कुछ सेवा न कर सका! पर बात यह है कि मेरे वहाँ जाने से मुंशी साहब और दारोगा दोनों ही बार कह चुके हैं कि आप मेरे बीच में न बोला कीजिए। मैं आपसे कभी गाँव के हालात इस डर से न कहता था कि शायद नाखुश होते। मुंशी मुझसे आप समझें कि के कारण ऐसा कहता हूँ। यहाँ यह कोई नयी बात नहीं है। आये दिन ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं, और इसी गाँव में नहीं, जिस वात है। गाँव में देखिए, यही हालात इन सब मुसीबतों का इकलौता कारण है कि देहातों में मेहनती, अक्लमंद और नीति को जानने वाले इंसानों का कमी है। शहर के पढ़े लिखे जमींदार जिनसे मदद की बहुत उम्मीद की जाती है, सारा काम कर्मचारियों पर छोड़ देते हैं। रहे देहात के जमींदार सो अनपढ़ हैं। अगर कुछ थोड़े-बहुत पढ़े लिखे भी हैं तो अच्छी संगति न मिलने के कारण उनमें दिमाग नहीं है। कानून के थोड़े से दफे सुन-सुना लिये हैं, बस उसी की रट लगाया करते हैं। मैं आप से सच कहता हूँ, मुझे जरा भी खबर होती तो मैंने आपको सचेत कर दिया होता।”
शर्मा जी- “खैर, यह बला तो टली, पर मैं देखता हूँ कि इस ढंग से काम न चलेंगा। अपने किराएदारों को आज तकलीफ में देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरा मन बार-बार मुझे सारी दुर्घटनाओं का जिम्मेदार ठहराता है। जिनकी कमाई खाता हूँ, जिनकी बदौलत टमटम पर सवार हो कर रईस बना घूमता हूँ, उनका कुछ अधिकार । भी तो मुझ पर हैं। मुझे अब अपने स्वार्थ में अंधा होना साफ दिखाई पड़ता है। मैं खुद अपनी ही नजर में गिर गया हूँ। मैं पूरी जाति के उद्धार का बीड़ा उठाये हुए हूँ, सारे भारत के लिए जान देता फिरता हूँ, पर अपने घर की खबर ही नहीं। जिनकी रोटियाँ खाता हूँ उनकी तरफ से इस तरह उदासींन हूँ।
अब इन हालातों को जड़ से खत्म करना चाहता हूँ। इस काम में मुझे आपकी मदद और सहानुभूति की जरूरत है। मुझे अपना शिष्य बनाइए। मैं मांगने के भाव से आपके पास आया हूँ। इस भार को सँभालने की ताकत मुझमें नहीं। मेरी शिक्षा ने मुझे किताबों का कीड़ा बना कर छोड़ दिया और मन के मोदक खाना सिखाया। मैं इंसान नहीं बल्कि नियमों की पोटली हूँ। आप मुझे इंसान बनाइए, मैं अब यहीं रहूँगा, पर आपको भी यहीं रहना पड़ेगा। आपका जो नुकसान होगा उसका भार मुझ पर है। मुझे जीवन का सही पाठ पढ़ाइए। आपसे अच्छा गुरु मुझे न मिलेगा। मुमकिन है कि आपके पीछे चल कर में अपना फर्ज पालन करने लायक हो जाऊँ।”
सीख – इस कहानी का सार यह है कि किताबी पढ़ाई कर लेने से आपको दुनियादारी का ज्ञान नहीं हो सकता और ना ही आप अच्छे इंसान बन सकते हैं। अच्छा इंसान बनने के लिए आपको लोगों समझना होगा और उनके लिए सहानुभूति रखनी होगी। कठिनाइयों के बारे में बात करने से या उसके बारे में लिखने से, कठिनाइयों का हल नहीं होता। कठिनाइयों को हल करने के लिए आपको पहले उनसे जुड़े लोगों और उनकी कठिनाइयों को समझना होगा। जिस तरह बाबूलाल कम पढ़े लिखे होने के बावजूद लोगों को समझते थे, उनकी परेशानियों को समझते थे और उसका सही हल निकालने की कोशिश करते थे। वहीं शर्मा जी बीए पढ़े होने के बाद भी सिर्फ बातें करना जानते थे, दुनिया की सच्चाई से वे बिल्कुल परे थे।