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शिवदास ने भंडारे की चाबी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर रोते हुए कहा- “बहू, आज से घर की देखभाल तुम्हारे ऊपर है। मेरी खुशी भगवान से देखी नहीं गयी नहीं तो क्या जवान बेटे को ऐसे छीन लेते। उसका काम करने वाला तो कोई होना चाहिए। कोई काम नहीं करेगा तो गुजारा नहीं होगा । मेरे ही बुरे कर्मों का फल है ये और मैं ही अपने ऊपर इसे लूँगा। बिरजू का काम अब मैं संभालूँगा। अब घर की देख-भाल करने वाला,जिमेदारी उठाने वाला तुम्हारे अलावा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान की जो मर्जी थी, वह तो हो गया: हमारा-तुम्हारा क्या बस चलता है? मैं जब तक जिन्दा हूँ तब तक तुम्हे कोई परेशानी नहीं होने दूंगा। तुम किसी बात कि चिंता मत करो। बिरजू गया, तो मैं अभी बैठा हैँ।” रामप्यारी दुलारी दो सगी बहनें थी। दोनों की शादी मथुरा और बिरग्धराक बाहर इधर और रामदुलारी दो और बिरजू नाम के सगे भाइयों से हुई थी। दोनों बहनें मायके की तरह ससुराल में भी प्यार और खुशी से रहने लगीं। शिवदास को पेंशन मिलती थी। वो दिन-भर घर के बाहर इधर उधर की बाते करते रहते ।पूरे परिवार को देखकर खुश
होते और ज़्यादातर समय धर्म-चर्चा में लगे रहते; लेकिन अचानक से बड़ा लड़का बिरजू बीमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पंद्रह दिन बीत गये। आज
क्रिया-कर्म से फुरसत मिली और शिवदास फिर से अपने परिवार को सभांलने के लिए तैयार हो गया। मन में उसे चाहे कितना ही दुःख हुआ हो,पर उसे किसी ने रोते नहीं देखा। आज अपनी बहू को देखकर एक पल के लिए उसकी आँखें में औँसू आ गए लेकिन उसने मन को संभाला और अपनी बहु को समझाने लगा। शायद उसने सोचा था कि घर की मालकिन बनाकर विधवा के कुछ दुःख कम हो जाएंगे, कम-से-कम उसे इतनी मेहनत न करनी पड़ेगी, इसलिए उसने भंडारे की चाबी बढू के सामने फेंक दी थी। बहु के दुःख को जिम्मेदारी
देकर कम करना चाहता था।
रामप्यारी ने भरे गले से कहा- “यह कैसे हो सकता है दादा, कि तुम मेहनत-मजदूरी करो और मैं मालकिन बनकर बैठूँ? काम थंथधे में लगी रहूँगी, तो मन बदला रहेगा। बैठे-बैठे तो रोने के सिवा और कुछ न होगा।”
शिवदास ने समझाया- “बेटा, भगवान की मर्जी के आगे किसी की नहीं चलती, रोने-धोने के सिवा और क्या हाथ आयेगा? घर में भी तो बीसों काम हैं। कोई साधु-संत आ जाये, कोई रिश्तेदार ही आ पहुँचे, तो उनके सेवा-सत्कार के लिए किसी को घर पर रहना ही पड़ेगा।”
बहू ने बहुत-जिद की, पर शिवदास ने एक न सुनी।
शिवदास बाहर चले जाने पर रामप्यारी ने चाबी उठायी, तो उसे मन में गौरव और जिम्मेदारी का अहसास हुआ। कुछ देर के लिए वो पति का दुःख
भूल गयी। उसकी छोटी बहन और देवर दोनों काम करने गये हुए थे। शिवदास बाहर था। घर बिलकुल खाली था। इस वक्त वह बिना किसी डर के भंडारे को खोल सकती है। उसमें क्या-क्या सामान है, क्या-क्या चीजे है, यह देखने के लिए उसका मन बेचैन हो रहा था। उस घर में वह कभी न आयी थी। जब कभी किसी को कुछ देना होता या किसी से कुछ लेना होता, तभी शिवदास आकर इस कोठरी को खोलता था। फिर उसे बंद कर चाबी अपनी
में बांध लेता कमर था।
रामप्यारी कभी-कभी दीवार की छेद से अंदर देखती थी, पर अंधेरे में कुछ न दिखाई देता। सारे धर के लिए वह कोठरी एक राज थी, जिसके बारे में कई कल्पनाएं होती रहती थीं। आज रामप्यारी को वह राज खोलकर देखने का मौका मिल गया। उसने बाहर का दरवाजा बंद कर दिया, कि कोई उसे भंडार खोलते न देख ले, नहीं तो सोचेगा, बिना वजह उसने क्यों खोला, तब आकर कॉँपते हुए हाथों से ताला खोला। उसका दिल धड़क रहा था कि कोई
दरवाजा न खटखटाने लगे। अंदर पैर रखा तो उसे गो उसे बहुत खुशी हुई, जैसे अपने गहने-कपड़े की आलमारी खोलने में होती थी। मटकों में गुड़, चीनी, गेहूँ, जौ आदि चीजें रखी हुई
थीं। एक किनारे बड़े-बड़े बरतन रखे थे, जो शादी-व्याह के मौके पर निकाले जाते थे, या माँगे जाने पर दिये जाते थे। एक आलमारी पर मालगुजारी
की रसीदें और लेन-देन के कागज बंधे हुए रखे थे। कोठरी में पैसा भरा था, मानो जैसे लक्ष्मी छुपी बेठी हो। उस पैसे की छाया में रामप्यारी आधे घंटे
तक बैठी रही। । हर पल उस पर ममता का नशा-सा छाया जा रहा था। जब वह उस कोठरी से निकली, तो उसके मन के विचार बदल गये थे, उसी समय दरवाजे पर किसी आवाज दी। उसने जल्दी ही भंडारे का दरवाजा बंद किया और जाकर दरवाजा खोल दिया। देखा तो पड़ोसिन झुनिया
खुश होती मानो किसी ने उस पर जादू कर दिया हो।
खड़ी है और एक रूपया उधार माँग रही है।
रामध्यारी ने बड़ा रुखा जवाब दिया “अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया-कर्म में सब खर्च हो गया।” झुनिया चौक गयी। चौधरी के घर में इस समय एक रूपया भी नहीं है, यह विश्वास करने की बात न थी। जिसके यहाँ सैकड़ों का लेन-देन है, वह सब
कुछ क्रिया-कर्म में नहीं खर्च कर सकता। अगर शिवदास ने बहाना किया होता, तो उसे हैरानी न होता। प्यारी तो अपने सरल स्वभाव के लिए गाँव में मशहूर थी। अक्सर शिवदास से छुपाकर पड़ोसियों को उनकी मर्जी की चीजे दे दिया करती थी। अभी कल ही उसने जानकी को एक किलो दूध दिया था । यहाँ तक कि अपने गहने तक बिना माँगे दे देती थी। कंजूस शिवदास के घर में ऐसी सीधी बहु का आना गाँव वाले उसकी अच्छी किस्मत समझते थे।
झुनिया ने हैरान होकर कहा- “ऐसा न कही जीजी, बड़ी मुसीबत में पड़कर आयी हूँ, नहीं तो तुम जानती हो, मेरी आदत ऐसी नहीं है। बाकी का एक रूपया देना है। लेनदार दरवाजे पर खड़ा बुरा भला कह रहा है। एक रूपया दे दो, तो किसी तरह यह मुसीबत टले। मैं आज से आठवें दिन आकर दे जाऊँगी। गाँव में और कौन घर है, जहाँ माँगने जाऊँ?
प्यारी नहीं मानी।
उसके जाते ही प्यारी शाम के लिए रसोई-पानी का इंतजाम करने लगी। पहले चावल-दाल साफ करना पहाड़ लगता था, और रसोई में जाने से जान निकलती थी। कुछ देर बहनों में लड़ाई झगड़ा होता, तब शिवदास आकर कहते, क्या आज रसोई न बनेगी, तो दो में से एक उठती और मोटी-मोटी रोटियां बना कर रख देती, मानो बैलों का खाना हो। आज प्यारी तन-मन से रसोई के काम में लगी हुई है। अब वह घर की मालकिन यानी स्वामिनी जो
है। तब उसने बाहर निकलकर देखा, कितना कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है। बुढ़ऊ दिन-भर खाली बैठे रहते है इतना भी नहीं होता कि थोड़ा झाडू
ही लगा
दें। अब क्या इनसे इतना भी नहीं होगा? दरवाजा साफ सुथरा रहना चाहिए कि देखकर आदमी का मन खुश हो जाये। यह नहीं कि उबकाई आने लगे। अभी कह दें, तो आफत आ जाएगी। अच्छा, मुन्नी घास से दूर क्यों खड़ी है?
उसने मुन्नी के पास जाकर नाँद (गाय के घास-पानी का बर्तन) में झाँका। बदबू आ रही थी। अच्छा! लगता है कि कई महीनों साफ़ ही नहीं किया गया। इस तरह तो गाय रह चुकी। अपना पेट भर लिया छुट्टी हुई, और किसी से क्या मतलब? हाँ, दूध सबको अच्छा लगता है। दादा दरवाजे पर बैठे चिलम पी रहे हैं,मगर इतना नहीं होता कि चार बाल्टी पानी नॉद में डाल दें। मजदूर रखा है वह भी तीन पैसे का। खाने को चाहिए:पर काम नहीं होता है। आज आये, तो पूछती हूँ, नोंद में पानी क्यों नहीं बदला। रहना हो, रहे या जाय। आदमी बहुत मिलेंगे। चारों ओर तो लोग मारे-मारे फिर रहे हैं।
आखिर उससे न रहा गया। घड़ा उठाकर पानी लाने चली। शिवदास ने पुकारा- “पानी क्या होगा बहू? इसमें पानी भरा हुआ है।”
प्यारी ने कहा- नाँद का पानी सड़ गया है। मुन्नी भूसे में मुँह नहीं डालती। देखते नहीं हो, कितनी दूरी पर खड़ी है।”
शिवदास मुस्कुराये और आकर बहू के हाथ से घड़ा ले लिया।
कई महीने बीत गये। प्यारी के अधिकार में आते ही उस घर मे जैसे खुशिया आ गयी। अंदर-बाहर जहाँ देखिए, पता चलता था, कि घर समझदार,
कुशल, अच्छे विचार और सुरुचि वाले गुणों के हाथ में है । प्यारी ऐसे घर चला रही थी कि सभी काम ठीक से हो रहे थे। खाना पहले से अच्छा मिलता और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, घी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है। प्यारी न खुद आराम करती है, न दूसरों को आराम करने
देती है। घर में ऐसी बरकत आ गयी है कि जो चीज माँगो, घर ही में निकल आती है। आदमी से लेकर जानवर तक सभी निरोगी दिखाई देते हैं। अब वह पहले का सा हाल नहीं है कि कोई फटे पुराने कपड़ों में घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है। हाँ अगर कोई बीमार और परेशान और बुरे हाल में है, तो वह प्यारी है; फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहाँ तक कि बूढ़े शिवदास
भी कभी-कभी उसकी बुराई करते हैं। किसी को आधी रात में उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी भागते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी हो, तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों में भी अब उतना अपनापन नहीं रहा सुबह का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और गुस्से से बोली- “लेकर इसे भी भंडारे में बंद कर दे।”
प्यारी ने कड़े उठा लिये और प्यार से बोली “कह तो दिया, हाथ में रूपये आने दे, बनवा दूँगी। अभी इतना खराब नहीं हुआ कि आज ही उतारकर फेंक दुलारी लड़ने को तैयार होकर आयी थी। बोली- “तेरे हाथ में क्यों कभी रूपये आयेंगे और क्यों कड़े बर्नेगे। जोड़- जोड़ रखने में मजा आता है न?” प्यारी ने हँसकर कहा- ‘जोड़-जोड़ रखती हूँ तो तेरे ही लिए, या मेरा कोई और बैठा हुआ है, में सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूँ। मेरा तो मन कब का
दिया जाय ।
है। टूटा पड़ा
या
दुलारी- तुम न खाओ-न पहनो, सम्मान तो मिलता है ना। यहाँ खाने-पहनने के सिवा और क्या है? में तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े
आज बनने को भेज दो।
प्यारी ने बहुत सरलता से पूछा- ” रूपये न हों, तो कहाँ से लाऊँ?” दुलारी ने बदतमीज़ी से कहा- “मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मुझे कड़े चाहिए।
इसी तरह घर के सब आदमी अपनी -अपनी बात प्यारी को दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबका रोब हँसकर झेलती थी। स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो! इस जिम्मेदारी के एहसास कि वजह से उस स्वामिनी पर
किसी धौंस, ताने, धमकी का असर न होता। उसकी सोच इन ठेस पहुंचाने वाली बातो से और भी मज़बूत होती थी। स्वामिनी घर संभालती है। सभी अपने-अपने दुःख उसी के सामने रोते हैं, पर जो वह करती है, वहीं होता है। इतना उसे खुश करने के लिए काफी था। गाँव में प्यारी की बड़ाई होती थी। अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटा रही है। कभी किसी से
हँसती -बोलती भी नहीं, जैसे सब बदल गया हो।
कई दिन बाद दुलारी के बनकर आ गये। प्यारी खुद सुनार के घर दौड़-दौड़ गयी। शाम हो गयी थी। दुलारी और मथुरा बाज़ार से लौटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी बहुत खुश हो गयी। तुरंत कड़े पहने और दौड़ी हुई जाकर
मथुरा को दिखाने लगी। प्यारी दरवाजे के पीछे से छिप कर ये सब देखने लगी। उसकी आँखें भर आयी। दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना फ़र्क है। उसकी आँखें मानों उस पर जम गयीं, पति-पत्नी की वह खुशी, उनका प्रेम से गले लगना, मन को अच्छी लगने वाली हरकते ,वो आंखे झपकाए बिना देखती रही, यहाँ तक कि दीये की चुँधली रोशनी में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये और अपने ही बीते जीवन की एक लीला
आँखों के सामने बार-बार नये-नये रूप में आने लगी।
तभी शिवदास ने पुकारा- “बड़ी बहू! एक पैसा दो। तमाखू मंगवाऊँ । प्यारी का ध्यान टूटा। आँसू पोछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गयी।
एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जा रहे थे। वह चाहती थी, मेरा घर गाँव में सबसे अमीर समझा जाय, और इतनी बड़ी इच्छा का मोल देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए और कभी बैलों की नयी गोई खरीदने के लिए, कभी रिश्तेदारों के लिए, कभी बीमार की दवा- दारू के लिए रूपये की जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कंजूसी करने पर भी काम न चलता तो वह अपनी कोई-न-कोई चीज निकाल देती। और चीज़ एक बार हाथ से निकलकर फिर वापिस नहीं आती।
यह चाहती, , तो इनमें से कितने ही खर्चों को टाल जाती; पर जहाँ इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती। अगर गाँव में बेइज्जती हो गयी, तो ब्या बात लोग के दो-एक चीजें
बुरा दुलारी उनके खाने-पहनने के दिन हैं। वे इस परेशानी में क्यों फैसें! दुलारी को लड़का हुआ, तो प्यारी ने धूम से जन्म का समारोह मनाने की की।
रही!
उसी को
कहेंगे।
पास भी गहने थे।
बात
मथुरा के पास भी थीं, लेकिन प्यारी उनकी चीजें न छूती।
शिवदास ने ने मना किया- क्या फायदा? जब भगवान की दया से सगाई-ब्याह के दिन आयेंगे, तो धूम-धाम कर लेना”। प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता! बोली- “कैसी बात कहते हो दादा? पहले लड़के के लिए भी धूम-धाम न हुई तो कब होगी? मन तो नहीं मानता। फिर दुनिया क्या कहेगी? नाम बड़े, दर्शन थोड़े। मैं तुमसे कुछ नहीं माँगती। अपना सारा इंतज़ाम कर लूँगी”। गहनों को बेंच देगी और क्या?”. शिवदास ने चिंता करते हुए
१क्या?”
नहीं । टी होते। पास दो चाज ती सब नहीं तो कोई प्यारी ने ऐसा मुँह बनाया, मानो वह ऐसी बूढी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली- “जो अपने हैं, वै भी न पूछे, तो भी अपने ही रहते हैं। मेरा धरम मेरे सीधे बात भी न ो है, करेगा।”
साथ है, उनका धरम उनके साथ है। मर जाऊँगी तो क्या छाती पर लाद ले जाऊँगी?” धूम-धाम से जन्म समारोह मनाया गया। बरही के दिन सारी बिरादरी का खाना हुआ। लोग खा-पीकर चले गये, प्यारी दिन-भर की थकी-माँदी आँगन में एक टाट का टुकड़ा बिछाकर आराम करने लगी। आँखें नींद से बंद हो गयीं। मथुरा उसी वक्त घर में आया। बच्चे को देखने के लिए उसका मन बेचैन हो
रहा था। गर्भावस्था में दुलारी कमजोर हो गयी थी, मुँह भी उतर गया था, पर आज हालत ठीक थी, तो मुंह पर लाली दिख रही थी। सौर के संतुलन और
ताकतवर आहार ने शरीर को चिकना कर दिया था। मथुरा उसे आँगन में देखते ही पास आ गया और एक बार प्यारी को नींद में देख के उसने बच्चे को गोद में ले लिया और उसका उसका मुंह चूमने लगा।
आवाज सुनकर प्यारी की आँखें खुल गयीं, पर उसने नींद का बहाना किया और आधी खुली आँखों से यह खेल देखने लगी। माँ और पिता दोनों बारी-बारी से बच्चे को चुमते, गले लगाते और उसके मुंह को देखते। कितन आनंद था! प्यारी एक पल के लिए खुद को भूल गयी। जैसे मुँह में लगाम, बोझ से लदा हुआ, हाँकने वाले के चाबुक से दुखी, घोड़ा दौड़ते-दौड़ते हाफता हुआ तुरंत हिनहिनाने की आवाज सुनकर कान खड़ी कर लेता है और हालात को भूलकर एक दबी हुई हिनहिनाहट से उसका जवाब देता है, कुछ वही हाल प्यारी का हुआ। उसकी ममता जो पिंजरे में बाद, गूगी बेजान पड़ी
हुई थी पास से आने चाली ममता की चहकार सुनकर जैसे जाग उठी और चिन्ताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पख फड़फड़ाने लगी। मथुरा ने कहा- “यह मेरा बच्चा है।”
दुलारी ने बच्चे को गोद में चिपटाकर कहा- “हाँ, क्यों नहीं। तुम्हीं ने तो नौ महीने पेट में रखा है। मुसीबत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद
मथुरा- “मेरा बेटा न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता। चेहरा-मोहरा, रंग-रूप सब मेरे जैसा है कि नहीं?” दुलारी- “इससे क्या होता है। बीज बनिये के घर से आता है। खेत किसान का होता है। फसल बनिये की नहीं होती, किसान की होती है।”
मथुरा- “बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा बेटा बड़ा हो जायगा, तो में दरवाजे पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूँगा।” दुलारी- “मेरा बच्चा पढ़े-लिखेगा, कोई बड़ा काम करेगा। तुम्हारी तरह दिन-भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन कहना है, कल एक पालना बनवा
मथुरा- “अब बहुत सबेरे न उठा करना और बहुत काम भी न करना। दुलारी- “यह महारानी जीने देंगी?”
मथुरा- “मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसका कौन है? हमी लोगों के लिए मरती है। भैया होते, तो अब तक दो-तीन बच्चों की माँ हो गयी होती।” प्यारी ये सुन कर रोने लगी, रोते-रोते कांपने लगी। खुशियों के बिना अपना जीवन उसे रेगिस्तान-सा लगा, जिसकी सुखी रेत पर वह हरा-भरा बगीचा लगाने की बेकार कोशिश कर रही थी।
कुछ दिनों के बाद शिवदास भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी ज्यादातर बच्चों के काम में उलझी रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मधुरा मजदूर तो अच्छा था, पर काम सँभालने में अच्छा न था। उसने पहले कभी अकेले संभाला नहीं था। खुद पहले भाई की निगरानी में काम करता रहा। बाद में बाप की निगरानी में काम करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजदूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनत नहीं, चापलूसी करते थे, इसलिए प्यारी को अब दिन में दो-चार चक्कर ना चाहते हुए भी लगाना पड़ता।
कहने को वह अब भी मालकिन थी, पर असल में घर-भर की नौकर थी। मजदूर भी उससे मुँह बनाते, जमींदार का नौकर भी उसी घर चौंस जमाला। में धर- खाने में भी बचत करनी पड़ती; लड़कों को तो जितनी बार माँगे, उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए। दुलारी तो बेटे की माँ थी, उसे भरपूर खाना चाहिए। मथुरा घर का उसके इस अधिकार की कौन छीन सकता था2 एक फालतू चीज थी: अगर आधा पेट सवाय तो किसी के सक का मजदुर भली क्या बचते करने लगे। सारी कसर प्यारी पर निकलती थी। वही खाय को नुकसान नहीं हो सकता था। तीस साल की उम्र में उसके बाल पक गये, कमर झाक गयी, आँखों की रोशनी कम हो गयी; मगर वह खुश थी। मालिक होने का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता या।
एक दिन मधुरा ने कहा- “भाभी, अब तो कहीं परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में बरकत नहीं। किसी तरह पेट की रोटी चल जाती है। वह भी रो-धोकर। कई आदमी पूरब से आये हैं। वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रूपये रोज की मजदूरी हो जाती है। चार-पाँच साल भी रह गया, तो मालामाल हो है। व कहते वहीं दो- तीन रूपये जाउँगा। अब आगे लड़के-बाले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।”
दुलारी ने साथ किया- “हाथ में चार पैसे है र होंगे, लड़कों को पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गयी, लड़कों को तो आदमी बनाना है।”
प्यारी यह सुनकर चकित रह गयी। उनका मुँह देखने लगी। इसके पहले इस तरह की बातचीत कभी न हुई थी। यह बात मन में कैसे आयी? उसे शक हुआ, शायद मेरे कारण यह बात हुई। बोली- “मैं तो जाने को न कहूँगी, आगे जैसी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने -लिखाने के लिए यहाँ भी तो स्कूल है।
फिर क्या रोज़ यही दिन बने रहेंगे। दो-तीन साल भी खेती बन गयी, तो सब कुछ हो जायगा। मथरा- “इतने दिन खेती करते हो गये जब अब तक न बनी. तो अब क्या बन जायगी! इस तरह एक दिन
मर जाएंगे, मन-की-मन में रह जायगी। फिर
अब उम्र बढ़ रही है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं चक्की में जोतकर उनकी जिंदगी नहीं खराब करना चाहता”।
प्यारी ने आँखों में आँसू लाकर कहा- “भैया, घर पर तक आधी मिले, सारी के लिए नहीं दौड़ना चाहिए, घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूँगी।”
अगर मेरी ओर से कोई बात हो, तो अपना
मथुरा भरे गले से बोला- “भाभी, यह तुम क्या कहती हो। तुम्हारे ही संभाले यह घर अब तक चला है, नहीं तो कब का खत्म हो गया होता इस परिवार के पीछे तुमने अपने को मिट्टी में मिला दिया, बहुत मेहनत की। मैं अधा नहीं हूँ। सब कुछ समझता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान ने चाहा, तो घर
फिर संभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बराबर खर्चा भेजते रहेंगे।
प्यारी ने कहा- “जो ऐसा ही है तो तुम चले जाओ, बाल-बच्चों को कहाँ-कहाँ बाँधे फिरोगे।” दुलारी बोली- “यह कैसे हो सकता है बहन, यहाँ गाँव में लड़के क्या पढ़े-लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहाँ न लगेगा। दौड़-दौड़कर घर आयेंगे
और सारी कमाई आने-जाने में खर्च हो जाएगी। परदेश में अकेले जितना खर्चा होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।”
प्यारी बोली- “तो मैं ही यहाँ रहकर क्या करूणी? म भी लेने चला दुलारी में साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनंद उठाना चाहती थी, अगर परदेश में भी यह बंधन रहा, तो जाने से फायदा ही क्या।
बोली- “बहन, तुम चलती तो क्या बात थी, लेकिन फिर यहाँ का कारोबार खत्म हो जायगा। तुम तो कुछ-न-कुछ देखभाल करती ही रहोगी।” जाने के एक दिन पहले रामप्यारी ने रात-भर जागकर हलुआ और पूरियाँ पकायीं। जब से इस घर में आयी, कभी एक दिन के लिए अकेले रहने का मौका नहीं आया। दोनों बहने सदा साथ रहीं। आज उस भयंकर समय को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जा रहा था। वह देखती थी, मथुरा खुश है, बच्चे सफर की खुशी में खाना-पीना तक भूले हुए हैं, तो उसके जी में आता, वह भी इसी तरह आजाद रहे, मोह और ममता को पैरों से कुचल डाले, लेकिन वह नमता जिसे उसने प्यार से सींचा था, उसे अपने सामने से जाते देखकर दुखी होने से न रूकती थी। दुलारी तो इस तरह बेफ़िक्र होकर बैठी थी, मानों कोई मेला देखने जा रही है। नयी- नयी चीजों को देखने, नयी दुनिया में घूमने की इच्छा ने उसे जैसे सब भुला दिया था। प्यारी के भरोसे
सब जिम्मेदारी थी। धोबी के घर से
के घर से सब कपड़े आये हैं, या नहीं, कौन-कौन-से बरतन साथ जायेंगे, सफर-खर्च के लिए कितने रूपये की जरूरत होगी। एक बच्चे को खाँसी आ रही थी। दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन दोनों की दवाइयों को पीसना-कूटना ऐसे बहुत सारे कामो में उलझी हुई थी। बच्चो की माँ न होकर भी वह बच्चों को पालने में दुलारी से अच्छी थी। देखो, बच्चों को बहुत मारना-पीटना मत। मारने से बच्चे जिद्दी या बेशरम हो जाते हैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो शरारती ही होते हैं। उन्हें किसी-न-किसी काम में फैसाये रखो। कुछ पैसे का खिलोना हजार डॉट से बढ़कर होता है।” दुलारी इन उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनक कर बक रहा हो।
विदाई का दिन प्यारी के लिए परीक्षा का दिन था। उसके जी में आता था कहीं चली जाय, जिसमें वह सब देखना न पड़े। हा! थोड़ी देर में यह घर सूना हो जायगा। वह दिन-भर घर में अकेली पड़ी रहेगी। किससे हँसेगी-बोलेगी। यह सोचकर उसका दिल कॉप जाता था। जैसे-जैसे समय पास आता था, हाथ पैर ढीले पड़ रहे थे। वह कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और बिना पलक झपके किसी चीज़ को देखने लगती। कभी अकेले में जाकर समझा रही थी, यह लोग अपने होते तो क्या इस तरह चले जाते। यह तो मानने का रिश्ता है; किसी पर कोई जबरदस्ती है? दूसरों के लिए मन को थोड़ा-सा रो आती थी।
कितना ही मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना ही मिले, फिर भी अलग ही रहेगा। बस्चे नये-नये कुरते पहने, नवाब अने घुम रहे थे।
यारीउन्हें प्यार करने के लिए गोद लेना चाहती, तो रोने का-सा मुँह बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। वह क्या जानती थी कि ऐसे मौके पर अपने बच्चे भी कठोर हो जाते हैं।
दस बजते-बजते दरवाजे पर बैलगाड़ी आ गयी। लड़के पहले ही से उस पर जा बैठे। गाँव के कितने लोग मिलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बुरा लग रहा था। वह दुलारी से थोड़ी देर अकेले में गले मिलकर रोना चाहती थी, मथुरा से हाथ जोड़कर कहना चाहती थी, मेरी खोज-खबर लेते रहना, तुम्हारे सिवा मेरा दुनिया में कौन है, लेकिन इस भीड़ में उसको इन बातों का मौका न मिला। मथुरा और दुलारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी दरवाजे पर रोती खड़ी रह गयी। वह इतनी बेहाल थी कि गाँव के बाहर तक पहुँचाने का भी उसे होश न रहा ।
कई दिन तक प्यारी बेहोश-सी पड़ी रही। न घर से निकली, न चूल्हा जलाया, न हाथ-मुँह धोया। उसका हल चलाने वाला जोखू बार-बार आकर कहता – मालकिन, उठो, मुँह-हाथ धोओ, कुछ खाओ-पियो। कब तक इस तरह पड़ी रहोगी।” इस तरह की तसल्ली गाँव की और औरते भी देती थीं। पर उनकी तसल्ली में एक तरह के जलन की भाव छिपी हुई थी। जोखू की बात में सच्ची हमदर्दी झलकती थी। जोखू कामचोर, बातूनी और नशेबाज था। प्यारी उसे बराबर डॉटती रहती थी। दो-एक बार उसे निकाल भी चुकी थी। पर मथुरा के कहने से फिर रख लिया था। आज भी जोखू की हमदर्दी-भरी बातें सुनकर प्यारी झुझलाती, यह काम करने क्यों नहीं जाता। यहाँ
मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है, मगर उसे झिड़क देने को जी न चाहता था। उसे उस समय हमदर्दी की भूख थी। फल काँटेदार पेड से भी मिले तो क्या उन्हें छोड़ दिया जाना है। धीरे-धीरे उसका दुःख कम हुआ। जीवन के काम-धाम होने लगे। अब खेती का सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सलाह दी, एक हल तोड़ दो और खेतों को उठा दो, पर प्यारी का गर्व यो ढोल बजाकर अपनी हार मानना नहीं था। सारे काम पहले जैसे चलने लगे। उधर मथुरा के चिट्ठी-पत्री न भेजने से उसके अभिमान को और भी बढ़ावा मिला। वह समझता है, मैं उसके सहारे बैठी हूँ, उसके चिट्ठी भेजने से मुझे कोई खजाना नहीं मिल जाता। उसे अगर मेरी चिंता नहीं है, तो मैं कब उसकी परवाह करती हूँ। म मैं घर में तो अब खास काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती-बारी के काम में लगी रहती। खरबूजे बोये थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा टूध घर में खर्च हो जाता था, अब बिकने लगा। प्यारी की आदतों में भी एक अजीब बदलाव आ गया। वह अब साफ कपड़े पहनती, माँग-चोटी की ओर से भी उतनी उदासी नहीं थी। गहों की भी इच्छा हुई। रूपये हाथ में आते ही उसने अपने गिरती गहने छुड़ाए और खाना भी ठीक से खाने लगी। पहले सबका ध्यान रखते -रखते वो पैसे से खाली हो जाती थी अब खर्चे कम हो गए थे। सागर में पानी जमा होने लगा और उसमें हल्की-हल्की लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।
एक दिन जोखू वापस आया, तो अंधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा- “अब तक वहाँ क्या करता रहा?”
जोखू ने कहा-चार पौधे बच रहे थे मैंने सोचा, दस मोट और खींच दूं। कल का झंझट कौन रखे?” जोलू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह बहाने करता था। अब सब-कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन खेत में थोड़ा ही रह सकती थी, इसलिए अब उसमें जिम्मेदारी आ गयी थी।
प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा- “अच्छा, हाथ मुंह धो डालो। आदमी जान रखकर काम करता है, हाय-हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ अच्छा काम किया था और समझा था, तारीफ होगी। यहाँ तो उल्टा हो रहा था। चिढकर बोला- “मालकिन, दाए-बायें दोनों ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो? कल के लिए तो उचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं।
न होते. कल होते, क्या जल्दी थी।
आज बड़ी मुश्किल से कुआँ खाली हुआ था। सवेरे मैं पहुँचता, तो कोई और आकर ले लेता? फिर एक हफ़्ते तक इन्तजार करना पड़ता। तब तक तो सारे गन्ने चले जाते ।”
प्यारी उसकी सरलता पर हैसकर बोली- “अरे, तो मैं तुझे कुछ कह थोड़ी रही हूँ, पागल। मैं तो कहती हूँ कि ध्यान रखकर काम कर। कहीं बीमार पड़ गया, लेने के देने पड़ जायेंगे।”
जोखू- “कौन बीमार पड़ जायगा, मैं? बीस साल में कभी सिर तक तो दुखा नहीं, आगे की नहीं जानता। कहो रात-भर काम करता रहूँ।” प्यारी में क्या जानूँ, तुम्हीं आये दिन बैठे रहते थे, और पूछा जाता था तो कहते थे- बुखार आ गया था, पेट में दर्द था।” जब मालिक लोग चाहते थे कि इसे पीस डालें। अब तो जानता हूँ, मेरे ही जिम्में हैं। में करंगा तो सब जोखू झेंपता हुआ बोला- “वह बार्ते जब भी, बर्बाद हो जाएगा।”
साठी “भ कया देख-भाल नहीं करती?” प्यारी-
जोखू- “तुम बहुत करोगी, दो बार चली जाओगी। सारे दिन तुम वहाँ बैठी नहीं रह सकतीं।”
प्यारी उसकी ईमानदारी से बहुत खुश हुई। बोली- तो इतनी रात गये चूल्हा जलाओगे। शादी क्यों नही कर लेते? जोखू ने मुँह धोते हुए कहा- “तुम भी खूब कहती हो मालकिन! अपने पेट-भर को तो होता नहीं, शादी कर लूँ! सवा सेर खाता हूँ, दोनों के लिए दो सेर चाहिए।”
प्यारी- “अच्छा, आज मेरी रसोई में खाओ, देखें कितना खाते हो?
जोखू ने खुशी से कहा- “नहीं मालकिन, तुम बनाते-बनाते थक जाओगी। हाँ, आधे-आधे सेर के दो रोटा बनाकर खिला दो, तो खा लूँ। मैं तो यही करता हूँ। बस, आटा बना कर दो लिट बनाता हूँ और उपले पर सेंक लेता हूँ। कभी मठे से, कभी नमक से, कभी प्याज से खा लेता हूँ और आकर पड़ रहता
हूँ।” प्यारी- “मैं तुम्हें आज फुलके खिलाऊँगी।”
जोखू- “तब तो सारी रात खाते ही बीत जायगी।’
प्यारी- “बको मत, जल्दी आकर बैठ जाओ। जोखू-“जरा बैलों को दाना-पानी देता जाऊँ तो बैठूँ।
जोखू और प्यारी में ठनी हुई थी। हैं.
प्यारी ने कहा- “मैं कहती हूँ, धान रोपने की कोई जरूरत नहीं। बारिश हो जाए, तो खेत डूब जाय। बारिश बन्द हो जाय, तो खेत सूख जाय। ज्वार, बाजरा, सन, अरहर सब तो हैं, धान न सही।”
जोखू ने अपने बड़े-बड़े कंधे पर फावड़ा रखते हुए कहा- “जब सबका होगा, तो मेरा भी होगा। सबका डूब जायगा, तो मेरा भी डूब जायगा। मैं क्यों किसी से पीछे रहूँ? बाबा के जमाने में पाँच बीधा से कम नहीं रोपा जाता था, बिरजू भैया ने उसमें एक-दो बीघे और बढ़ा दिये। मथुरा ने भी थोड़ा-बहुत हर साल रोपा, तो मैं क्या सबसे गया-बीता हूँ? मैं पाँच बीघे से कम न लागाऊँगा।”
प्यारी- “तब घर में दो जवान काम करने वाले थे।”
“मैं अकेला उन दोनों के बराबर खाता हूँ। दोनों के बराबर काम क्यों न करूँगा?” खाता हूँ, चार सेर खाता हूँ। आधे सेर में रह गये।”
प्यारी- “चल, झूठा कहीं का। कहते थे, दो दो सेर
जोखू – “एक दिन तौलो तब पता चलें।”
प्यारी- “तौला है। बड़े खानेवाले! मैं कह देती हूँ धान न रोपो मज़दूर मिलेंगे नहीं, अकेले परेशान होना पड़ेगा।”
जोखू- “तुम्हारी बला से, मैं ही परेशान हूँगा न? यह शरीर किस दिन काम आयेगा ।” प्यारी ने उसके कंधे पर से फावड़ा ले लिया और बोली- “तुम पहर रात से पहर रात तक ताल में रहोगे, अकेले बोरियत होगी।”
जोखू को ऊबने का अनुभव न था। कोई काम न हो, तो आदमी पड़ कर सोता रहे। बोरियत क्यों लगे ? बोला- “बोरियत हो तो सो जाता हूँ। मैं घर पर और जी ऊबेगा। मैं खाली बैठता हूँ तो बार-बार खाने की लगती है। बातों में देर हो रही है और बादल घिरे आते हैं।”
रूँगा तब प्यारी ने कहा- “अच्छा, कल से जाना, आज बैठो।”
जोखू ने मानों बंधन में पड़कर कहा- “अच्छा, बैठ गया, कहो क्या कहती हो?”
प्यारी ने हंसी-मजाक करते हुए पूछा- “कहना क्या है, में तुमसे पूछती हूँ, अपनी सगाई क्यों नही कर लेते? अकेले मरती हूँ। तब एक से दो हो जाऊँगी।”
जोतू शरमाता हुआ बोला- “तुमने फिर वही बात की बात छेड़ दी, मालकिन! किससे सगाई कर लेँ यहाँ? ऐसी औरत लेकर क्या करूगा, जो गहनों जान खाती रहे।”
के प्यारी- “यह तो तुमने बड़ी भारी शर्त लगायी। ऐसी औरत कहाँ मिलेगी, जो गहने भी न चाहे?” जोखू- “यह मैं थोड़े ही कहता हूँ कि वह गहने न चाहे हाँ, मेरी जान न खाय। तुमने तो कभी गहनों के लिए जिद नहीं की, बल्कि अपने सारे गहने दूसरों के ऊपर लगा दिये प्यारी के गालो पर हल्का-सा रंग आ गया। बोली- “अच्छा, और क्या चाहते हो?” जोखू- कहने लगूंगा, तो बिगड़ जाओगी।”
प्यारी की आँखों में शर्म नजर आयी, बोली- “बिगड़ने की बात कहोगे, तो जरूर बिगहूँगी।’ जोखू- “तो मैं न कहुँगा।” प्यारी के उसे पीछे की ओर धक्का देते हुए कहा- “कहोगे कैसे नहीं, मैं कहला के छोडूंगी।”
जोखू- चाहता हूँ कि वह तुम्हारी तरह हो, ऐसी गंभीर हो, ऐसी ही बातचीत में चतुर हो, ऐसा ही अच्छा पकाती हो, ऐसे ही बचत करने वाली, ऐसी ही हँसमुख हो। बस, ऐसी औरत मिलेगी, तो करूँगा, नहीं तो इसी तरह पड़ा रहूँगा।” प्यारी का मुँह शर्म से लाल हो गया। उसने पीछे हटकर कहा- “तुम बड़े शरारती हो! हँसी- हँसी में सब कुछ कह गये।”
सीख – इस कहानी में मुंशीजी ने बताया है, कि घर की मालकिन सबका ध्यान रखती है, घर संभालती है और इन सब में वो खुद की सुध बुध खो देती हैं, उसके बाद भी परिवार वालों की शिकायतें और ताने खत्म नहीं होते. दूसरा ये कि हम किसी और की खुशियों को अपना समझ कर उनके सहारे रहे, फिर चाहे वो भाई, बहन ही क्यों न हो, अंत में अक्सर धोखा ही मिलता है। इसलिए हमे अपनी खुद की खुशियों पर भी जरूर ध्यान देना चाहिए।