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फटे कपड़ो वाली मुनिया ने रानी वसुधा के सुन्दर चेहरे की ओर सम्मान भरी आँखो से देखकर राजकुमार को गोद में उठाते हुए कहा, “हम गरीबों का इस तरह कैसे गुज़ारा सकता है महारानी मेरी तो अपने आदमी से एक दिन न बने, मैं उसे घर में बैठने न दूँ! ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाऊँ कि वो परेशान रानी वसुधा ने समझदारी से कहा, क्यों, वह कहेगा नहीं, तू मेरे बीच में बोलने वाली कौन है ? मेरी जो मर्जी होगी वह करगा। तू अपना रोटी-कपड़ा हो जाय।
मुझसे लिया कर। तुझे मेरी दूसरी बातों से क्या मतलब ? मैं तेरा नौकर नहीं हूँ।”
मुनिया तीन दिन पहले ही यहाँ लड़कों को खिलाने के लिए आयी थी। पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से तमीज के साथ बाते । करना अभी न सीख पाई थी। ये सुनकर उसे गुस्सा आया वो कड़वे शब्दों में बोली, जिस दिन ऐसी बातें मुँह से निकालेगा, मूँछें उखाड़ लूँगी सरकार वह मेरा नौकर नहीं है, तो क्या मैं उसकी नौकरानी हूँ? अगर वह मेरा नौकर है, तो में उसकी नौकरानी हूँ। में खुद नहीं खाती, पर उसे खिला देती हूँ; क्योंकि वह आदमी है। उसे बहुत बहुत मेहनत करनी पड़ती है। में चाहे फटे पहनें पर फटे-पुराने नहीं पहनने देती। जब में उसके लिए इतना करती हूँ, तो मतलब ही नहीं कि वह मुझे आँख दिखाये। अपने घर को उसे आदमी इसलिए तो ढकता है, कि उससे बारिश में बचाव हो। अगर यह डर लगा रहे, कि घर न जाने कब गिर पड़ेगा, तो ऐसे घर में कौन रहेगा। उससे तो गन्ने की छाँव ही कहीं अच्छी।”
कल न जाने कहाँ बैठा गाता-बजाता रहा। दस बजे रात को घर आया। मैं रात-भर उससे बोली, ही नहीं। पैर पड़ने लगा, मनाने लगा, तब मुझे दया आ गयी ! यही मुझमें एक बुराई है। मुझसे उसकी रोनी सूरत नहीं देखी जाती। इसी से वह कभी-कभी गलती कर जाता है; पर अब मैं पक्की हो गई हूँ। फिर किसी दिन झगड़ा किया, तो या वही रहेगा, या मैं ही रहूँगी। क्यों किसी की डांट झेलू सरकार ? जो बैठकर खाय, वह डांट झेले यहाँ तो बराबर की कमाई करती हूँ।
वसुधा ने उसी गम्भीर भाव से फिर पूछा “अगर वह तुझे बैठाकर खिलाता तब उसकी डांट झेलती?”
मुनिया जैसे लड़ने पर आ गयी बोली, बैठाकर कोई क्या खिलायेगा सरकार ? वो बाहर काम करता है, तो हम भी घर में काम करती हैं, या घर के
काम में कुछ लगता ही नहीं? बाहर के काम से तो रात को छुट्टी मिल जाती है। घर के काम से तो रात को भी छुट्टी नहीं मिलती। आदमी यह चाहे कि मुझे घर में बिठाकर वो घूमे, तो मुझसे तो न सहा जाय ” यह कहती हुई मुनिया राजकुमार को लिये हुए बाहर चली गयी।
वसुधा ने थकी हुई, रोती हुई आँखों से खिड़की की ओर देखा। बाहर हरा-भरा बाग था, जिसके रंग-बिरंगे फूल यहाँ से साफ नजर आ रहे थे और पीछे एक बड़ा मंदिर आसमान तक ऊँचा दिखाई देता था। औरते सज धज कर पूजन करने आ रही थीं। मन्दिर के दाएं तरफ तालाब में कमल खिले थे जो कार्तिक कि ठंड में सूरज की गर्मी में मुस्कुरा रहे थे। पर यह सब बसुचा को कोई खुशी न दे सके। उसे लगा ये सब उस उसका मजाक उड़ा रहे है। उसी तालाब के किनारे केवट की टूटी फूटी झोपड़ी किसी गरीब बुढ़िया कि तरह रो रही थी।
वसुधा की आँखें भर आयी। फूलो और बगीचे के बीच में खड़ी वो सूनी झोपड़ी उसके ऐश्वर्य और ऐशो आराम से घिरे हुए मन की जीती जागती तस्वीर थी। उसके जी में आया, जाकर झोपड़े के गले लिपट जाऊँ और खूब रोऊँ वसुधा को इस घर में आये पाँच साल हो गये थे । पहले उसे अपनी किस्मत पर खुशी हुई। माता-पिता के छोटे-से कच्चे घर को छोड़कर, वह एक बड़े घर में आयी थी, जहाँ बहुत दौलत और सुविधाएं थी। उस समय पैसा ही उसकी आँखो में सब कुछ था । पति का प्यार छोटी सी बात थी पर उसका लालची मन पैसे तक ही टिका न रह सका, पति के प्यार के लिए हाथ फैलाने लगा।
कुछ दिनों में वो माँ बन गयी तो लगा उसे सब कुछ मिल गया है, पर थोड़े ही दिनों में यह वहम भी दूर हो गया । कुँवर गजराज सिंह सुन्दर, दयालु, ताकतवर, पढ़े लिखे, हंसी मजाक करने वाले और प्यार का नाटक भी करना जानते थे; उनके जीवन में प्यार नाम की चीज़ नहीं थी।चसुधा की जवानी और सुंदरता सिर्फ दिल बहलाने का सामान थी । घुड दौड़ और शिकार, सट्टे और मकार जैसे खेलो में प्रय र दबकर पीला और बेजान हो गया था। और प्यार के बिना सुधार अब भाग्य को रोया करती थी। दो बेटे पाकर भी चह खुश न न थी।
कुंवर साहब एक महीने से ज्यादा हुआ, शिकार खेलने गये और अभी तक वापिस नहीं आये और ऐसा, पहली बार नहीं हुआ था। हाँ, अब उसका समय बढ़ गया था। पहले वह एक हफ्ते में वापिस आते थे; फिर दो हफ्ते का नम्बर चला और अब कई बार से एक-एक महीने की खबर लेने लगे। साल में तीन-तीन महीने शिकार में निकल जाते थे। शिकार से आते, तो घुड़ दौड़ शुरू हो जाता। कभी मेरठ, कभी पूना, कभी बम्बई, कभी कलकत्ता। घर पर ही रहते, तो अवसर अमीर बिगड़ैल के साथ गप्पें लड़ाया करते। पति के यह रंग-ढंग देखकर वसुधा मन-ही-मन चिढ़ती और बीमार पड़ती जाती थी। कुछ दिनों से हल्का-हल्का बुखार भी रहने लगा था।
वसुधा बड़ी देर तक बेठी परेशान सी देखती रही। फिर टेलीफोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा, “कुँवर साहब का कोई ख़त आया ?”
मैनेजर ने जवाब दिया, जी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।
वसुधा ने जलकर कहा, “मैं यह नहीं पूछती! आने को कब लिखा है ?” मैनेजर-“आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।”
वसुधा- ‘यहाँ से कितनी दूर है ?
मैनेजर-“यहाँ से! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।”
वसुधा – “मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।
फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, ” एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी
में, चौथी की मरम्मत हो रही है।”
वसुधा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा। बोली “किस से पूछ कर बैंक के मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गयीं? आप दोनों मेंगवा लीजिए।
में आज जरूर जाऊँगी।”
उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं; इसलिए मैंने भेज दी। अब कह रही हैं, तो मँगवा लूँगा!” वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी गुस्से में आगे के जीवन के बारे में सोच लिया था। वह एक कोने में पड़े
रहकर जीवन को खत्म न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी अगर आप समझते हैं कि मैं आपके घर की नौकरानी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा।ये आप रखो। मेरा अधिकार आपके घर पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे दूर होना चाहते हैं, तो मैं आपसे ज्यादा दूर हो मैं । आऊँ ?”
जाऊँगी! इस तरह की और कितनी ही दुःख भरी बातें मन में उठ रही थीं। डाक्टर साहब पर आकर आवाज वसुधा ने प्यार से कहा, “आज माफ कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हैं।”
डाक्टर ने हैरानी से कहा, “आप पीलीभीत जा रही हैं! आपका बुखार बढ़ जायेगा । इस हालत में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।”
वसुधा ने दुःख कहा, “बढ़ जायगा, तो बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है !” बूढ़ा डाक्टर परदा उठाकर आ गया देखता हुआ बोला “लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ! अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको बिलकुल न जाने दूंगा।”
टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।” वसुधा बोली।
सेहत का ध्यान रखना जरुरी है।” डाक्टर ने कहा।
और वसुधा के चेहरे की ओर
वसुधा ने मुस्कराकर कहा, “आप परेशान न हो, में इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ ! फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो करेंगे ?
डाक्टर ने दो-एक बार बोला फिर चले गए
आप क्या रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब हमेशा मोटर पर जाते थे। वसुधा ने उसी से जाने का फैसला किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयीं। वसुधा ने ड्राइवरो पर गुस्सा उतारा “अब मेरे हुक्म के बगैर कही मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी लिए तनख्य या से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी है! हमारी गाड़ी – मौज कोई और करे ! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी और के नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और मांगने बैठ गये ! चह चली, तो दोनों बच्चे रोने लगे, मगर जब पता चला, कि अम्माँ बड़ी दूर हौआ (बच्चो को डरने का शब्द) मारने जा रही हैं तो वो उदास हो गए। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था।
उसने जलन में सोचा में ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, मैंने ही जिम्मेदारी ली है । वह तो वहाँ जाकर मौज करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहँ।
लेकिन चलते समय माँ का दिल भर उठा। उसने दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चुमा, प्यार किया और घण्टे भर में लौट आने का कह कर वह आंसू आँख में लिए वहाँ से निकली। रास्ते में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बच्चे मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार का प्यार करू।
मोटर जितनी तेजी से आगे जा रही थी, उतनी ही तेजी से उसका मन पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी चिंता करू ? जी चाहे आें या न आवें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के लालच को वह न रोक सकी। वह थककर चूर-चूर हो रही थी, बुखार भी था, सिर दर्द से फटा जा रहा था; पर वह हिम्मत से आगे बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि जब यो दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बंगले में पहुँची, तो उसे होश नहीं था। जोर का बुखार चढ़ा हुआ था। शोर की आचाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा, “तुम यहाँ कैसे आये जी ? कुशल तो है ?” र ने पास आकर कहा, “रानी साहब आयी हैं हुजूर रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं।”
कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर आवाज़ में पूछा, “तो उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई डॉक्टर नहीं है।” शोफर ने घबराकर जवाब दिया-” हुजूर, वह किसी तरह मानती ही न थीं, तो मैं क्या करता ?” कुँवर साहब ने डाँटा, “चुप रहो, बातें न बनाओ। तुमने समझा होगा, शिकार देखेंगे और पड़े-पड़े सोयेंगे। तुमने वापस चलने को कहा, ही न होगा।”
शोफर ‘वह मुझे डाँटती थीं साहुजूर!”
कुँवर साहब “तुमने कहा, था?” मैंने कहा तो नहीं हुजूर !”
शोफर कुँवर साहब -बस तो चुप रहो! मैं तुम्हें भी पहचानता हूँ। तुम्हें मोटर लेकर इसी वक्त लौटना पड़ेगा। और कौन-कौन साथ हैं?” शोफर ने दबी हुई आवाज में कहा,” एक मोटर पर बिस्तर और कपड़े हैं एक पर खुद रानी साहब हैं। कुँवर साहब- “यानी और कोई साथ नहीं है ?”
शोफर- “हुजूर ! मैं तो हुवम का ताबेदार हूँ।” कुँवर साहब -“बस, चुप रहो !”
यों झल्लाते हुए कुँवर साहब वसुधा के पास गये और धीरे से बुलाया । जब कोई जवाब न मिला तो उन्होंने उसके माथे पर हाथ रखा। सिर ताप रहा धा। ये देख कर उनका सारा गुस्सा खत्म हो गया । वो दौड़ कर बगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया, पलंग बिछवाया, उठाकर कमरे में लाये और पलंग पर लिटा दिया। फिर उसके सिरहाने खड़े होकर उसे परेशान से देखने । उस धुल से भरे चेहरे और बिखरे हुए बालो वसुधा को गोद में में आज उन्होंने प्यार की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को सिर्फ मन लगाने के सामान के रूप में देखा था, जिसे उनके प्यार की परवाह न थी, जो अपने बनाव-सिंगार में ही मस्त थी, आज धूल लगे चेहरे से उसके पत्नी होने का अहसास कर रहे थे। उसमें कितना मान था, कितनी लालसा थी! अपनी उड़ान की खुशी में डूबी हुई; अब वह पिंजरे के दरवाजे पर आकर पंख फड़फड़ा रही थी। पिंजरे का दरवाजा खुलकर क्या उसका स्वागत न करेगा?
रसोइये ने ने पूछा, “क्या सरकार अकेले आयी हैं ?” कुँवर साहब ने कोमलता से कहा, “हाँ जी, और क्या। इतने आदमी हैं, किसी को साथ न लिया। आराम से रेलगाड़ी से आ सकती थीं। यहाँ से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो है। कितने जोर का बुखार है कि हाथ नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो और देखो, कुछ खाने को बना लो।” रसोइये ने कहा, ‘ठाकुर यह जगह तो बहुत दूर है सरकार! दिन बैठे-बैठे बीत गया।” कुँवर साहब ने वसुधा के सिर के नीचे तकिया सीधा करके कहा, ‘हमारी ही हालत खराब हो जाती है। दो दिन तक कमर नहीं सीधी होती फिर ये तो औरत है। ऐसी खराब सड़क दुनिया में न होगी।
यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकाला और वसुधा के सिर में मलने लगे। वसुधा का बुखार इक्कीस दिन तक न उतरा। घर के डाक्टर दोनों बच्चे, मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मंगल हो गया।
आये।
वसुधा खाट पर पड़ी-पड़ी कुँवर साहब से सेवा करवा रही थी। वह दोपहर दिन सोने के अ थे, कितने सबेरे उठते, आराम की जरा-जरा सी बातों का कितना खयाल रखते। जरा देर के लिए नहाने और खाना खाने जाते, फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या-सी कर रहे थे। उनकी हालत बिगड़ रही थी, चेहरे पर वो लाली न थी। कुछ व्यस्त से रहते थे। एक दिन वसुधा ने कहा, “तुम आजकल शिकार खेलने क्यों नहीं जाते ? में तो शिकार खेलने ही आयी थी, मगर न जाने किस बुरी हालत में चली कि तुम्हें इतनी मेहनत करनी पड़ गयी। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। जरा शीशे में अपनी सूरत तो देखो। कुंवर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान ही न आया था। इसका जिक्र ही नहीं होता था शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बन्द था।
एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँवर साहब ने उसकी ओर कुछ ऐसी कड़वी आँखो से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे कुछ बातें करके उसका मन बहलाने, दवा और खाना बनाने में ही उन्हें सुख मिलता था उनका मस्ती भरा जीवन जैसे खत्म हो गया। वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों से रेखा खींचने में मस्त थे। शिकार की बात किसी और के मुँह से सुनी होती, तो फिर उसी गुस्से से देखते। वसुधा के मुँह से यह बात सुनकर उन्हें दुःख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का शौकीन समझती है! बोले “हाँ, शिकार खेलने का इससे अच्छा और कौन सा मौका मिलेगा
वसुधा ने जिद की- मैं मैं तो अब अच्छी हूं, सच ! देखो (शीशे की ओर दिखाकर चेहरे पर वह पीलापन नहीं रहा। तुम जरूर बीमार से हो जाते हो। थोड़ा मन बहल जायगा। बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार हो जाता है।” वसुधा ने सीधी सी बात कही थी; पर कुँवर साहब के दिल पर वह चिनगारी समान के समान लगी। अपने शिकार की बात र कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यों न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आती और क्यों बीमार पड़ती। उन्हें मन-ही-मन इसका बड़ा दुःख था। इस वक्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे। वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा, “अबकी तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किए , जरा मँगाओ, देखें। उनमें से जो सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले । अबकी में भी तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलूँगा। बोलो, मुझे ले चलोगे न ? मैं मानूंगी नहीं। बहाने मत करने लगना।” लूँगी। अपने शिकारी तोहफे दिखाने का कुँवर साहब को शौक था। सैकड़ों ही खालें जमा कर रखी थीं। उनके कई कमरों में फर्श-गद्दे, कोच, कुर्सियों, मोढ़े सब खालों के ही थे। ओढ़ना और बिछौना भी खार्लो का था ! बाघों के कई सूट बनवा रखे थे। शिकार में वही सूट पहनते थे। अबकी भी बहुत से सींग, सिर, पंजे, खालें जमा कर रखी थीं। वसुधा का इन चीजों से जरूर मन खुश होगा। वो यह न समझे कि वसुधा उन्हें बहकाने की कोशिश कर रही है। जाकर वह चीजें उठवा लाये; लेकिन आदमियों को परदे के पीछे खड़ा करके पहले अकेले ही उसके पास गये ! इरते थे; कहीं मेरी हरकत वसुधा को बुरी न लगे। वसुधा ने पूछा, “सामान नहीं लाये ?” कुंवर -“लाया हूँ, मगर कहीं डाक्टर साहब न हों।”
डाक्टर ने पढ़ने-लिखने को मना किया था।” वसुधा ने कहा। तोहफे लाये गये। कुँवर साहब एक-एक चीज निकालकर दिखाने लगे।
वसुधा के चेहरे पर खुशी की ऐसी लाली हफ्तों से न दिखी थी, जैसे कोई बच्चा तमाशा देखकर मगन हो रहा हो। बीमारी के बाद हम बच्चों की तरह जिद्दी, , उतने ही उतावले, उतने ही सरल हो जाते हैं। जिन किताबों में भी मन न लगा हो, वह बीमारी के बाद पढ़ी जाती हैं। बुसधा जैसे सपनो की गोद में खेलने ने लगी। चीतों की खालें थीं, बाघों की, हिरणो की, शेरों की। वसुधा हरेक खाल नयी उमंग से देखती, जैसे बायस्कोप के एक चित्र के बाद दूसरा चित्र आँखें फाड़-फाड़कर सुन रही थी। इतना सजीव, आनन्द उसे आज तक किसी कविता, संगीत में भी न मिला था। सबसे सुन्दर एक शेर की खाल थी। उसने छांटी। कुँवर साहब की यह सबसे कीमती चीज़ थी। उसे अपने कमरे में लटकाने को रखे हुए थे। बोले -“तुम बाघम्बरों में से कोई ले लो। यह वही ।
आ रहा हो। कुंवर साहब एक-एक तोहफे का इतिहास सुनाने लगे। यह जानवर कैसे मारा गया, उसके मारने में क्या-क्या मुसीबत पड़ी, क्या-क्या उपाय करने पड़े, पहले कहाँ गोली लगी आदि। वसुधा हरेक की बाते तो कोई अच्छी चीज नहीं। वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कहा, “रहने दीजिए अपनी सलाह। में खराब ही लूँगी”। कुंवर साहब ने जैसे अपनी आँखों से आँसू पोछकर कहा, “तुम वही ले लो, मैं तो तुम्हारे खयाल से कह रहा था। मैं फिर वैसा ही मार लँगा।”
देते थे ?” “तो तुम मुझे चकमा क्यों है वसुधा ता तुम
कुवर “चकमा कौन न देता था ?”
“अच्छा, खाओ मेरे सिर की कसम, कि यह सबसे सुन्दर खाल नहीं है ?” कुँवर साहब ने हार की हँसी हँस कर कहा,
‘कसम क्यों खायें, इस एक खाल के लिए? ऐसी एक लाख खालें हों, तो तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर टूँ।”-कुंबर साहब ने कहा। जब शिकारी सब खालें लेकर चला गया, तो कुँवर साहब ने कहा, मैं इस खाल पर काले ऊन से अपना समर्पण लिखँगा।” वसुधा ने थकान से पलंग पर लेटते हुए कहा, अब मैं भी शिकार खेलने चलूँगी।” फिर वह सोचने लगी, वह भी कोई शेर मारेगी और उसकी खाल पतिदेव को भेंट करेगी। उस पर लाल ऊन से लिखा जायगा प्रियतम जिस ज्योति के हल्की पड़ जाने से हरेक काम हर स्वाद पर अँधेरा छा गया था, वह ज्योति अब जलने लगी थी। शिकारों का किस्सा सुनने की वसुधा को लत-सी पड़ गयी। कुँवर साहब को कई-कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ही न भरता था। अब तक कुंवर साहब की दुनिया अलग धी, जिसके दुःख-सुख, फ़ायदा-नुक्सान, आशा-निराशा से वसुधा को कोई मतलब न था। वसुधा को इस दुनिया के काम से कोई लेना-देना नहीं था, बल्कि पसंद ही नहीं था। कुँवर साहब ये सब बातें उससे छिपाते थे; पर अब वसुधा उनकी इस दुनिया में उजाला लिए, एक वरदानों वाली देवी के समान आ गयी थी। एक दिन वसुधा ने कहा “मुझे बन्दूक चलाना सिखा दो। डाक्टर साहब से अनुमति मिलने में देर नहीं हुई। वसुधा ठीक हो गयी थी। कुँवर साहब ने शुभ मुहूर्त में उसे सिखाया । उस दिन से जब देखो, पेड़ो की द में खड़ी निशाने की प्रैक्टिस कर रही है, और कुँवर साहब खड़े उसकी परीक्षा ले रहे हैं। जिस दिन उसने पहली चिड़िया मारी, कुँचर साहब खुशी से उछल पड़े। नौकरों को इनाम दिये; ब्राह्मणों दान दिया गया। इस खुशी की याद में उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी। वसुधा के जीवन में अब एक नया उत्साह, एक नया उल्लास, एक नयी आशा थी। पहले की तरह उसका दिल : कई दिनों दना के बाद वसुधा की इच्छा पूरी हुई। कुंवर साहब उसे साथ लेकर शिकार खेलने अशुभ बातों से दुखी न था।अब उसमें विश्वास था, बल था, प्रेम था। राजी हुए और शिकार था शेर का और शेर भी वह जिसने एक महीने से आसपास के गाँवों में तहलका मचा दिया था। चारों तरफ अंधेरा था, इतना घाना कि धरती उसके भार से कराहती हुई जान पड़ती थी । कुँवर साहब और दसुधा एक ऊँचे मचान पर बन्दूक लिये दम साधे बेठे हुए थे। बहुत भयंकर जीव था। अभी पिछली रात को वह एक सोते हुए आदमी को खेत मचान पर से खींचकर ले भागा था। उसकी चालाकी पर लोग दाँतों तले अँगुली दबाये थे। मचान इतना ऊँचा था कि चीता उछलकर न पहुँच सकता र बाहर की तरफ सिर किये सो रहा था। दुष्ट के दिमाग में एक चालाकी आयी । वह पास के गाँव में था। हाँ, उसने यह देख लिया कि मचान वह आदमी गया और वहाँ से एक लम्बा बाँस उठा लाया।
नोस के एक सिहे दॉतों से दांतों से काला और जव उसकी कची-सी बन गरी तो उसे न जाने अगले पंजों या दाँतों से उठाकर सोने वाले आदमी के बालों को उसने में फिराने लगा। वह जानता था, बाल बाँस के रेशों में फँस जायेंगे। एक झटके में वह बदकिस्मत आदमी नीचे आ रहा। इसी आदमखोर चीते की तलाश दोनों शिकारी बैठे हुए थे। में नीचे कुछ दूर पर भैंसा बाँधा दिया गया था और शेर के आने का इन्तजार था। कुँंचर साहब शान्त थे; पर चसुथा का दिल धड़क रहा था। जरा-सा भी पत्ता खड़कता, तो वह चौंक पड़ती और बन्दूक सीची करने के बजाय चौंककर कुँवर साहब से चिपक जाती। कुँवर साहब बीच-बीच में उसकी हिम्मत बंधाते जाते थे।
जैसे ही भैसे पर आया, मैं मार देंगा। तुम्हारी बारी ही न आने पाएगी।
वसुधा ने कहा, “और जो कहीं निशाना गलत हो गया तो वो उछलेगा?” कुँवर साहब- “तो फिर दूसरी गोली चलेगी। तीनों बन्दूकें तो भरी तैयार रखी हैं। तुम्हारा जी घबराता तो नहीं ?”
वसुधा “बिलकुल नहीं। मैं तो चाहती हूँ, पहला मेरा निशाना होला।”
पत्ते खड़खड़ा उठे। वसुधा चौंककर पति के कन्धों से लिपट गयी। कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा,”दिल मजबूत करो प्रिये”। वसुधा ने शर्मा कर कहा, “नहीं-नहीं, मैं डरती नहीं, जरा चौंक पड़ी थी।”
सहसा भैसे के पास दो चिनगारियाँ-सी चमक उठी। कुँवर साहब ने धीरे से वसुधा का हाथ दबाकर शेर के आने का बताया और तैयार हो गये। जब शेर भैंस पर आ गया, तो उन्होंने निशाना मारा। वो खाली गया दूसरा किया । चीता जख्मी तो हुआ; पर गिरा नहीं। गुस्से से पागल होकर इतनी जोर से ि वसुधा डर गयी। कुंवर साहब तीसरा वार करने जा रहे थे कि चीते ने मचान पर छलांग मारी। उसके अगले पंजों के धक्के से मचान ऐसा हिला गरजा कि र साहब हाथ में बन्दूक लिये झोंके से नीचे गिर कितना डरावना पल था ! अगर एक पल की भी देर होती, तो कुँवर साहब न बचते। शेर की जलती हुई आँखें वसुधा के सामने चमक रही थीं। उसकी हो रही थी। हाथ-पाँव फूले हुए थे। आँखें भीतर को सिकुड़ी जा रही थीं; पर इस खतरे ने जैसे उसकी नसों में बिजली भर दी। साँस शरीर को महसूस हो उ के और उसके उसने अपनी बन्दूक सँभाली। शेर के और उसके बीच में दो हाथ से ज्यादा अन्तर न था। वह कुद कर आना ही चाहता था कि वसुधा ने बन्दूक की नली उसकी आँखों में ी में डालकर बन्दूक छोड़ी। थायें!
शेर के पंजे ढीले पड़े! वो नीचे गिर पड़ा। अब समस्या दूसरी थी। शेर से तीन-चार कदम पर ही कुँवर साहब गिरे पड़े थे। शायद चोट ज्यादा लगी थी। शेर में अगर अभी दम है, तो वह उन पर जरूर वार करेगा। वसुधा के प्राण आँखो में थे और बल कलाइयों में । इस वक्त कोई उसके शरीर में भाला भी चुभा देता, तो उसे खबर न होती ! यह अपने होश में न थी। उसकी बेहोशी ही होश का काम कर रही थी। उसने बिजली की बत्ती जलाई। देखा शेर उठने की कोशिश र रहा है दूसरी गोली सिर पर मारी और उसके साथ ही रिवाल्वर लिये नीचे कूदी। शोर जोर से गुर्राया। वसुधा ने उसके मुँह के सामने रिवाल्वर खाली कर दी। कुँवर साहब सँभलकर खड़े हो गये। दौड़कर उसे छाती से चिपटा लिया। अरे! यह क्या। वसुधा बेहोश धी। इर के खत्म होते ही बेहोश हो गयी। तीन घंटों के वसुधा की बेहोशी टूटी। उसे अभी भी डर लग रहा था। उसने धीरे से डरते-डरते आँखें खोलीं। कुँवर साहब ने पूछा, कैसा जी है प्रिये ?”
वसुधा ने उनकी रक्षा के लिए दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए कहा, “वहाँ से हट जाओ! ऐसा न हो, झपट पड़े।”
कुँवर साहब ने हँसकर कहा, “शेर कब का मर गया। वह बरामदे में पड़ा है। इतना भयंकर शेर आज तक मैंने नहीं देखा। सुधा “तुम्हें चोट तो नहीं आयी?
कुँवर- “बिलकुल नहीं। तुम कूद क्यों पड़ीं? पैरों में बड़ी चोट आयी होगी। तुम जिंदा कैसे बचीं, यह आश्चर्य है। मैं तो इतनी ऊँचाई से कभी सकता था।”
न कूद वसुधा ने चौंक कर कहा,-” मैं ! मैं कहाँ कूदी ? शेर मचान पर आया, इतना याद है। उसके बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं।” को भी आश्चर्य हुआ, “वाह! तुमने उस पर दो गोलियाँ चलाई। जब वह नीचे गिरा, तो तुम भी कूद पड़ीं और उसके मुँह में रिवाल्वर की नली टरेंस दी। बस वहीं ठंडा हो गया। बड़ा जिद्दी जानवर था। अगर तुम चूक जाती, तो वह नीचे आते ही मुझ पर जरूर चोट करता। मेरे पास तो छुरी भी न थी। बन्दूक हाथ से छूटकर दूसरी तरफ गिर गयी थी। अंधेरे में कुछ दिखाई न देता था। तुम्हारी वजह से ही इस वक्त में यहाँ खड़ा हूँ,तुमने मेरी जान बचाई।” दूसरे दिन वह सुबह वहाँ से चले जो घर वसुधा को अच्छा नहीं लगता था, उसमें आज जाकर ऐसी खुशी हुई, जैसे किसी खोये हुए दोस्त से मिली हो। हरेक चीज़ उसका स्वागत करती हुई महसूस होती थी! जिन नौकरों और नौकरानियों से वह महीनों से ठीक से न बोली, थी, उनसे वह आज हँस हँसकर हाल पूछती और गले मिलती थी, जैसे अपनी पिछली कमियों को पूरा कर रही हो।
शाम का सूरज, आसमान के सागर में अपनी नाव चलाता हुआ चला जा रहा था! वसुधा खिड़की के सामने कुरसी पर बैठकर सामने देखने लगी। उस नजारे में आज जीवन था, विकास था, सुख था। केवट का दह सुना झोपड़ा भी आज कितना सुहाना लग रहा था। प्रकृति में सुंदरता भरी हुई थी। मन्दिर के सामने मुनिया राजकुमारों को खिला रही थी। वसुधा के मन में आज कुलदेव के प्रति श्रद्धा जागी, जो सालों से पड़ी सो रही थी। उसने पूजा के सामान मँगवाये और पूजा करने चली। खुशी से भरे भण्डार से अब वह कुछ दान भी कर सकती थी। जलते हुए दिल से आग के आलावा और क्या निकलता। उसी वक्त कुँवर साहब आकर बोले “अच्छा, पूजा करने जा रही हो। में भी वहीं जा रहा था। मैंने एक मन्नत मान रखी है।”
वसुधा ने मुस्कराती हुई आँखो से पूछा, “कैसी मन्नत है ? कुँवर साहब ने हँसकर कहा, “यह न बताऊँगा।”
सीख – मुशी प्रेम चंद जी कि ये कहानी हमें बताती है कि सभी के लिए पैसे, घर-परिवार, बच्चे बहुत मायने रखते हैं लेकिन प्रेम के बिना ये जिंदगी ये। अधूरी और सूनी सी लगने लगती है. एक औरत के लिए इन सबसे बढ़कर पति और उसका प्यार होता है। अगर वह उसे न मिले तो वह उसे पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाती है। पति कि खुशियों के लिए उसकी पसंद को अपनी पसंद बनाती है। उसी तरह एक पति को जब सच्चे प्यार का अहसास होता है, तो वह उन आदतों को खुशी-खुशी बदल लेता है जो कभी उसके जीवन का एक अहम् हिस्सा हुआ करती थीं।