यह किसके लिए है?
किताबों के शौकीन लोग जो जानना चाहते हैं कि माधुनिक दुनिया में पढ़ाई पर ध्यान लगाना इतना काठिन क्यों हो गया है
-ई-बुक्स के शौकीन लोग जो पिछले साल की पपरबैक किताबों के बारे में जानना चाहते हैं
पेरेंट्स जो अपने बच्चों के डिवाइसों का भीवरयूज़ करने से चिंतित है।
लेखिका के बारे में
गरीएन वॉल्फ टफ्ट यूनिवर्सिटी में सिटिज़न्शिप गौर पब्लिक सर्विस की जान डिंबाजियो प्रोफेसर है। इसके अलावा वह एक वैश्विक साक्षरता प्रोजेक्ट, क्यूरियस लनिंग की सह-संस्थापकभी है। वह 160 से अधिक वैज्ञानिक प्रकाशनों की लेखिका होने के साथ ही साथ उन्होंने रीडिंग पर प्राऊस्ट एण्ड द स्किड और टेल्स ऑफ लिटरेसी फॉर ट्वेंटी फार्स रोचरीनाग की दो किताबें भी लिी हैं। यह यूसीएलए सेंटर फॉर डिस्लेक्सीया, डाइवर्स लर्नर्स और सोशल जस्टिस की डायरेक्टर भी है।
यह किताब आपको क्यूँ पढ़नी चाहिए
वे दिन अब जा चुके हैं जब हमारी डिजिटल लाइफ और रियल जिंदगी काफी अलग-अलग हुआ करती थी। आज ये दोनों, एक ही सिक्के के दो पहलू है। हम अपनी ऑफलाइन ऐक्टिविटीज़ को इंटरनेट पर पोस्ट करते हैं और अपने दोस्तों, कलीग्स और परिवार के साथ उन चीजों के बारे में बात करते हैं जो हमने इंटरनेट पर देखी या पड़ी हैं। आलो को की माने तो यह स्थिति समाज में महात्रासदी ला रही है। हम कम नींद ले रहे है, ज्यादा चिंतित हो रहे हैं, बेकार की बहसे कर रहे हैं जिस कारण हम वास्तविकता से दूर जा रहे हैं।
तो क्या इसका मतलब यह है कि हम सम्पूर्ण सभ्यता-विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं? अमरीकी न्यूरोसाऐन्टिस्ट और ऑथर मेरीएन वॉल्फ को ऐसा नहीं लगता, कम से कम अभी तो नहीं। एक रीडिंग ब्रेन एक्सपर्ट के होने के नाते वह इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि डिजिटल डिपे डेन्स की वजह से तक किसी चीज़ पे5 मिनट से ज्यादा समय तक फोकस करने की हमारी दिमागी क्षमता को कितना नुकसान पहुंचता है। इससे समाज को काफी घातक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं यह पता लगाने के लिए कि क्या कोई बच्चा अपनी पढ़ाई अच्छी तरह पूरा करेगा या फिर इटरनेट के जाल में फस जाएगा, अली लिटरेसी टेस्टिंग एक अच्छा माध्यम है।
वह दावा करती हैं कि इस तरह की दिक्कतों को दूर किया जा सकता है। इसका समाधान रोमांटिक, बैक-टू-नेचर आंदोलनों में नहीं मिलेगा जो डिजिटल चीजों को पूरी तरह बंद करने की वकालत करते हैं। इसके बजाय हमें बच्चों को पढ़ना सिंखाने के अपने तरीके पर गहराई से ध्यान देना पड़ेगा और एक डीप और ससटेंड सोच के तरीके को अपनाना होगा। यह एक ऐसी स्किल है जिसे बढ़ाने में डिजिटल और ऐनलॉग दोनों मीडिया मददगार साबित हो सकते हैं- लेकिन इसके लिए पहले हमें यह पता लगाना होगा कि कौन-सा माध्यम किस कॉन्टे क्द में काम करता है और क्यों?
इस किताब में हम जानेंगे
-क्यों हमारा दिमाग ऑनलाइन संस्कृति के भडिविटेव पहलुओं की तरफ सकारात्मक रूप से रीस्पान्ड करता है
इसान ने सबसे पहले पढ़ना कब सीखा और क्यों हम अपनी इस काबिलियत को भलते जा रहे हैं
-महान दार्शनिक अरस्तु हमें डिजिटल मीडिया के साथ एक हेल्थी रिश्ता स्थापित करने में क्या मदद कर सकते है
रीडिंग एक स्वाभाविक कौशल नहीं है बल्कि इसे हम दिमाग के विकसित होने के साथ सीखते हैं।
इसानी दिमाग एक चमत्कारी मशीन है जो कई तरह के आश्चर्यजनक कौशलों से भरी होती है। इत कोशलों में से कई कौशल हमें हमारे जीस के कारण स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते हैं जिनसे हमारे शरीर और दिमाग में बिना सिखाए अपने आप ही कई कूटरती काबिलियतें आ जाती हैं। एजाम्पल के लिए ज्यादातर लोगों को सुनने, देखने और भाषा सीखने का कौशल जन्म से ही प्राप्त होता है। आपने खुद भी महसूस किया होगा कि बच्चे कितनी जल्दी अपने आसपास मौजूद लोगों के द्वारा कहे गए शब्दों की नकल करना शुरू कर देते हैं।
मगर रीडिंग की बात जरा हटके है। बोलने की तरह रोडिंग कि स्किल हमारे दिमाग में स्वाभाविक रुप से मौजूद नहीं होता है और यही बात हसे अकों को समझने और मैनीप्यूलेट करने की हमारी काबिलियत के जैसा बनाती है- यह स्वाभाविक कौशल होने के बजाय एक सांस्कृतिक आाविष्कार है। इसान ने पढ़ता-লिखना मात्र 6000 साल पहले शुरू किया यानि यह इसानी समढ़ा के विकास के साधनों की फेहरिस्त से काफी बाद में जुड़ा। तो अब सवाल यह उठता है कि उन्होंने पढ़ना लिखना कैसे सीखा और कैसे हम भी सीख सकते हैं?
इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें न्यूरोसाइंस के ताने-बाने को समझना होगा। पड़ना सोखने के दौरान दिमाग एक नया नेटवर्क बुनने लगता है जो खासतोर पर पढ़ाई के लिए बना हुआ होता है। यह दिमाग की न्यूरोप्लास्टीसिटी याति वर्तमान न्यूरॉनल नेटवर्कों से नए नेटवर्क बनाने की काबिलियत है, के परिणामस्वरूप होता है। सेरेब्रल कस्टक्शन का यह काम पूरी जिंदगी भर चलता रहता है। मस्तिष्क हमेशा ही सेल्स क्लस्टर्स को नए-नए तरीकों से लिंक करता रहता है। इस कन्फिगरेशन की हरेक
सेल विकसित हो रही किसी नई स्किल को बढ़ाने में सहायता करती है। जिसके फलस्वरुप एक नाए नेटवर्क का निर्माण होता है। यह प्रक्रिया दिमाग में स्थापित नेटवर्कों के
परिवहन की वजह से तेजी से होती है जो इससे जुड़े अन्य काम करते हैं। मिसाल के तौर पर रीडिंग का विकास भाषा और दृष्टि से जुड़े सेल्स क्लस्टर्स पर होता है।
इन नेटवर्कों का निर्माण दिमागी मास्टरप्लान बनाने से नहीं होता बल्कि कुछ खास जरुरतों को पूरा करने के लिए होता है। हम सबके न्यूरोनल नेटवर्कों में थोड़ा-सा फर्क होता है। वे कैसे दिखेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है हम क्या पढ़ रहे हैं और किस भाषा में पढ़ रहे हैं। इसका मतलब है कि चाइनीज भाषा पढ़ने वाले किसी व्यक्ति का न्यूरोनल नेटवर्क, इंग्लिश या कोई अन्य भाषा पढ़ने वाले व्यक्ति के नेटवर्क से थोड़ा सा अलग होगा।
न्यूरोप्लास्टीसिटी यह भी बताती है कि पढ़ाई की हमारी काबिलियत वक्त के साथ बदलती है। आगे के सबक में । है।
हमारी गहन पढ़ने क्षमताएं डिजिटल जमाने में बदल रही है जबकि हमें इस वक्त उनकी सबसे ज्यादा जरुरत है।
अगर आपने कभी संक्षेप में कोई अखबार या फिर मैगजीन पड़ी हो तो आप जानते होंगे कि यह एहसास फोकस्ड होकर पढ़ाई करने पर मिलने वाले एहसास के जैसा नहीं होता है। मगर इन दोनों चीजों में फर्क क्या है? यह जानने के लिए पहले जानते है कि डीप लर्निंग आखिर होती क्या है?-
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह एक खास तरह की रीडिंग है जिसमें हम किताबों को ऊपरी तौर पर पड़ने के बजाय उनका गहन अध्यन करते हैं। जब हम गहराई से किसी चीज़ का अध्ययन करते हैं तो हमारे दिमाग में उससे संबंधित कुछ तस्वीरें बन जाती हैं जो उस चीज को बेहतर तरीके से समझने में हमारी मदद करती हैं।
यह प्रक्रिया कैसे काम करती हैं, यह जानने के लिए हम अर्नस्ट हेमिंगवे की 6 शब्दों वाली कहानी पर एक नजर डाल लेते हैं: फॉर सेल- बेबी शूज़ नेवर वो यानि बिक्री के लिए बच्चों के जूते, जो कभी नहीं पहने गए। वैसे तो यह काफी भाम चीज़ है मगर इस विज्ञापन को देखते ही तुरंत हमारे दिमाग में बिना इस्तेमाल किए बच्चों के जूतों की तस्वीरे उमड़ने लगती है। पाठक उन अभिभावकों की मदद तो नहीं कर सकता परंतु उनके बारे में विचार जरूर कर सकता है जिन्होंने अपने होने वाले बच्चे के लिए जूते तो खरीदे मगर वे उन्हें कभी उसे पहना नहीं सके। यह इस बात का एक अच्छा एग्जाम्पल है कि रीडिंग में जो चीजें छूट जाती हैं उन्हें हमारा सांसारिक ज्ञान केसे पूरा कर लेता है।
जब हमारी दिमागी तस्वीरे इस तरह से एक बड़ी कहानी का अंदाजा लगा लेती हैं तभी एक दूसरी डीप-लर्निंग प्रक्रिया का प्रदेश होता है जिसे “पस्पेक्टिव टेकिंगयानि हष्टकोण लेना कहा जाता है। हेमिंगवे की 6 शब्दों की कहानी को हम आसानी से इमेजिन कर सकते हैं और ज्यादातर लोग खुद को इसमे डूबा हुमा महसूस करते हैं। इस कहानी से हम जिस चीज़ से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं उसे धर्मशास्त्री जॉन एस. दुत के शब्दों में पासिंग ओवर यानि मृत्यु कहा जाता है। इसका मतलब चीज़ों को शूज पोनर के नजरिए से देखना है और उनकी भावनाओं और विचारों को महसूस करना है।
इस प्रकार की सहानुभूति रीडिंग के लिए यूनीक है जिससे हम दुनिया को विभिन्न दृष्टिकोणों से देख पाए और दूसरों की स्थिति को समझ पाएँ। इन का ‘कमिंग बेक इसे पूर्ण बनाता है। जब हम अपने फर्स्ट-पर्सन पस्पेक्टिव में सुधार करते हैं तो दूसरे के दृष्टिकोण को अपनाने के कारण अनुभव प्राप्त होता है जिससे सहानुभूति के प्रति हमारे दृष्टिकोण में विस्तार हो जाता है।
और चिंता की बात तो यह है कि गहन अध्ययन पर हम जितना कम ध्यान देते हैं उतनी ही कम संभावना हमारे सहानुभूतिक होने की होती है। कई सबूत भी इसकी तरफ इशारा करते हैं। मसलन, 201 में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में की गई रिसर्च को ही ले लीजिए जिसका उद्देश्य था- कॉलेज छात्रों में सहानुभूति का अध्ययन करना। इस अध्ययन में पाया गया कि युवा छात्रों में पिछले 20 सालों में सहानुभूति में करीब 40% की कमी आई है खासतौर पर पिछले एक दशक में। एमआईटी के शेरी टर्कल सहानुभूति में हुई इस गिरावट के लिए ऑनलाइन ऐक्टिविटीज़ को जिम्मेदार मानते हैं जिनमें लोग रियल-लाइफ रिश्तों से अलग हो चुके हैं। इस वजह से लोगों से जुड़ने और उनके प्रति सहानुभूति जाहीर करने के हमारे तरीके में काफी बदलाव आया है।
हमारा ध्यान आज सबसे ज्यादा भटका हुआ है जिससे गहन अध्ययन में बाधा आती है।
अभी तक हमने देखा कि नई तकनीक पर हमारी निर्भरता दूसरों के प्रति हमारे नजरिए को कैसे बदल सकती है। लेकिन तकनीक पर निर्भरता है बल्कि इससे गहन अध्ययन करने की हमारी क्षमता में भी कमी आई है।
से हमें सिर्फ यही हानि नहीं हुई
इंटरनेट से पहले के जमाने में लोग पूरी जानकारी को याद करने करते थे। वे पूरा उपन्यास पड़ लेते थे या फिर अखबार का एक बड़ा हिस्सा पड़ डालते थे। लेकिन यह रिवाज अब बदल गया है। हमारे अटेन्शन स्पैन अब छोटे हो चुके हैं जबकि जानकारी की भूख बढ़ चुकी है। सैन डिएगो यूनिवर्सिटी के ग्लोबल इनफार्मेशन इंडस्ट्री सेंटर के एक अनुमान की मानें तो हम हर रोज करीब 36 जीबी की जानकारी कन्ज्यूम करते हैं जो लगभग 1 लाख शब्दों के बराबर होती है।
इन एक लाख शब्दों को डिजिटल डिवाइसों पर पढ़ना और उन्हें किताब में पढ़ना दोनों बिल्कुल अलग बाते हैं। आजकल की डिजिटल दुनिया में हम छोटे-छोटे हिस्सों में पढ़ते हैं और एक टॉपिक को स्किप करके दूसरे को पढ़ने लगते हैं। रोजर बोन, जो सैन डिएगो यूनिवर्सिटी की रिसर्च में शामिल थे. कहते हैं कि आज हमारा ध्यान बहुत ही छोटे-छोटे हिस्सों में बंट चुका है।
और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि इससे गहराई से पढ़ने और सोचने की हमारी दिमागी क्षमता पर बुरा असर पड़ रहा है। खुद इस किताब की लेखिका मैरीएन वॉल्फ ने इस प्रभाव को व्यक्तिगत तौर पर अनुभव किया है। वह रोजाना प्रड्यूस और कंज्यूम किये जाने वाले डिजिटल डाटा की मात्रा के साथ कदम-से-कदम मिलाकर नहीं चल पा रही थी। वह अपना अधिकतर वक्त ईमेलों को हैन्डल करने में बिताने लगी। बिस्तर के बगल में रखी कितायें, जो एक जमाने में उनके लिए आनंद और जानकारी का स्त्रोत हुआ करती थी, धूल खाने लग गई थी।
कुल मिलाकर यह काफी अजीब स्थिति थी जिसमें दिमाग पड़ने वाली एक एक्सपर्ट खुद उस ट्रेड का शिकार हो रही थी जिसका जिक्र उसने अपनी किताब में किया था। खुद को एक गिनी पिग के रूप में इस्तेमाल करके उन्होंने एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने अपनी पसंदीदा किताब ‘मैजिस्टर लुडी दोबारा से पढ़ने का फैसला किया। यह किताब उन्होंने इसलिए चुनी ताकि वह जान सकें कि उनके दिमाग की कितनी सर्किट्री में बदलाव आया है।
प्रयोग की शुरुआत नाकामयाबी से हुई। मैरीन पहले प्रयास में इस किताब को पूरा नहीं पढ़ पाई। इसका पुराना आकर्षण कुछ खो-सा गया था- किताब की पटकथा लेखिका को इतनी धीमी लग रही थी कि उन्हें चिड़ आने लगी। किताब की भाषा बहुत ज्यादा जटिल थी और कुल मिलाकर कहें तो यह किताब लेखिका को गहरी चिंता में डाल रही थी। पहले जिन शब्दों को तेजी से पढ़ लेती थी वही शब्द आत उन्हें परेशान कर रहे थे। हालांकि इसमें किताब की कोई गलती नहीं शी- लेखिका की डीप लर्निंग स्किल्स ही कमजोर हो गई थीं। लेकिन लेखिका के लिए राहत की बात ये थी कि दो हफ्तों की कठिन लगन के बाद वह अपने दिमाग को अजस्ट करने और अपनी पुरानी रीडिंग स्किल्स को रीडिस्कवर करने में कामयाब हो पाई।
बच्चे भटके हुए ध्यान के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं जिससे उनके दिमाग पर इसका बेहद बुरा प्रभाव पड़ता है।
आधुनिक दुनिया में मल्टीटास्किंग एक आम बात है। इसकी वजह है कि हमारे दिमाग को बहुत सारे काम जल्दी-जल्दी करने में बहुत मज़ा आता है। चलिए दिमाग के इस इनबिल्ट फीचर को नावल्टी बायस (Novelty Bias)”कहते हैं जो हमारे ध्यान को नई चीजों पर लगाता है। चलिए जानते हैं ऐसा क्यों होता है?
जब हम जल्दी-से एक काम से दूसरे काम पर छलांग लगाते हैं तो इससे हमारे दिमाग के रीवाई सेंटर में हलचल होती है। मल्टीटास्किंग एक अडिक्टिव साइकल का हिस्सा है। यह उस ध्यान के बिल्कुल विपरीत होता है जो किसी काम को गहनता से करने पर हमें धीरे-धीरे संतुष्टि प्रदान करता है। लेकिन इस ध्यान को पाने के लिए धैर्य और केयरफुल ट्रैनिंग की जरूरत पड़ती है।
बच्चों के लिए शॉर्ट टर्म रिवाइस के आकर्षणों का प्रतिरोध कर पाना काफी मुश्किल होता है। इसका कारण यह है कि उनका दिमाग अभी विकसित हो रहा होता है। परिपक्वता में पहुँचने से पहले बच्चों के दिमाग का प्री-फ्रन्टल कॉरक्स यानि दिमाग का वह हिस्सा जो ध्यान के लिए जिम्मेदार होता है, लांग-टर्म रेवाइर्स के प्रति अविकसित होता है। इसके अलावा उनमें इन्स्टेन्ट ग्रेटिफिकेशन का प्रतिरोध करने के लिए स्व-नियंत्रण का गुण भी अपरिपक्व होता है।
डिजिटल डिवाइसों का इस्तेमाल इन लक्षणों में बढ़ोतरी करता है। किती एप को देखने के बाद एक वीडियो क्लिप देखना और फिर जल्दी से किसी वेबसाइट पर कूद जाना एक ऐसे ग्रेन का लक्षण जिसका अपने नौवल्टी बायस पर पूरा नियंत्रण नहीं है। न्यूरोसाइनटिस्ट और लेखक डेनिएल लेविटिन के मुताबिक, इसके परिणामस्वरूप “अतिउत्तेजना यानि ओवरस्टिम्युलेशन पैदा होता है जिससे उन चीजों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है जो बच्चों से अटेशन की मांग करते हैं।
इस कठिनाई भरे चक्र की यह तो शुरुआत मात्र है। अति-उत्तेजना के फलस्वरूप स्ट्रेस से जुड़े कॉर्टिसॉल और अड़ेनलिन जैसे हार्मोनों का स्त्राव होता है जिससे लड़ो-या-भागो की स्थिति पैदा होती है। एक छोटा-बच्या बचपन में ही अगर इस चिंताजनक स्थिति का शिकार हो जाता है तो भविष्य में उसके दिमाग में अति-उत्तेजना की मात्रा बढ़ती ही जाएगी और उसके दिमाग को इसकी आदत लग जाएगी।
आधुनिक जमाने में बच्चे दिन का एक बड़ा हिस्सा डिजिटल डिवाइसों को इस्तेमाल करते हुए बिताते हैं । एज़ाम्पल के तौर पर अमेरिकी थिंक टैक आर.ए.एन.डी कापरेशन की साल 2015 में आई रिपोर्ट को ही उठाकर देख लीजिए। इस रिसर्च की मार्ने तो 2015 में आठ साल के लगभग 75% बच्चों की डिजिटल डिवाइसौं तक पहुँच थी जबकि इससे दो साल पहले यह आकड़ा करीब सिर्फ 23% था। यानि सिर्फ 2 साल में 52% का बड़ा उछाला इस रिसर्च में यह भी सामने आया कि तीन से पाँव साल की उम्र के बच्चे औसतन 4 घंटे का वक्त इन डिवाइसों का इस्तेमाल करते हुए बितातो हैं।
ये आँकड़े काफी चिंताजनक हैं। तो हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ अपने दिमाग के साथ खिलवाड़ न करे। चलिए जानते हैं।
पेरेंट्स जो अपने बच्चों को पढ़ाते हैं वे डिजिटल डिवाइसों की तुलना में अपने बच्चों को बेहतर तरीके से विकसित कर पाते हैं।
आपके बचपन की सबसे प्यारी याद कौन सी है? एक अनुभव जो लगभग हर किसी को प्यारा लगता है वह है सोते वक्त पेरेंट्स से कोई कहानी सुनना। यह सिर्फ बच्चों को सुलाने का एक तरीका ही नहीं है बल्कि इससे उनकी समझ को भी विकसित होने में मदद मिलती है।
लेकिन कैसे? पहली बात तो यह है कि माता-पिता की गोद में सर रखकर उनकी बातें सुनने का मज़ा ही कुछ और होता है। इसके परिणामस्वरूप ध्यान, याददाश्त और भाषा से जुड़े पहलुओं पर बच्चे के दिमाग पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा “शेयई भटेनशन भी एक चीज़ होती है जिसका मतलब बिना अपनी जिज्ञासा को कम करे किसी काम पर फोस करना होता है। सुनाई जा रही कहानी को ध्यान से सुनने से इस स्किल को बेहतर बनाया जा सकता है।
इसके अलावा सुनी-सुनाई कहानियों को दोबारा सुनने से इस स्किल को और भी ज्यादा मजबूती मिलती है। बार-बार एक ही कहानी को सुनने वाले बच्चों का कान्सेप्ट और शब्दभंडार काफी अच्छा हो जाता है। इस ज्ञान का फायदा बच्चों को तब होता है जब वे करीब 5 साल की उम्र के हो जाते हैं और पड़ना शुरू कर देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कहानी का दोहराव बच्चों को उनका ध्यान कहानी और भाषा दोनों ही पहलुओं पर लगाने का मौका देता है। आखिरकार वे ध्वनि व अक्षरों की बनावट के बीच कनेक्शन स्थापित करने के साथ ही विभिन्न शब्दों में वर्णों के पैटर्न को भी आसानी से समझने लगते हैं।
इसके विपरीत डिजिटल डिवाइस इस प्रकार का कोई भी कनेक्शन स्थापित नहीं करती हैं। वीडियोज़ और एप बच्चों को कहानियाँ तो सुना सकते हैं पर वे इस मामले में कभी पेरेंट्स की बराबरी नहीं कर सकते हैं। रिकॉर्ड की हुई कहानियों का बच्चे की भावनाओं से कनेक्ट न होना और पेरेंट्स के सकारात्मक स्पर्श की कमी होना इसके प्रमुख कारण हैं। इसके अलावा पेरेंट्स एक अन्य भूमिका भी निभाते हैं जिसे डिजिटल डिवाइसें चाहकर भी कॉपी नहीं कर सकती- बच्चों के ध्यान को गाडड करना और भाषा के बीच में मौजूद ‘डॉटस’को कनेक्ट करने में उनकी मदद करना।
1970 के दशक के दौरान किये गए कुछ वैज्ञानिक शोधों के आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं। एग्जाम्पल के लिए, डेबलपमेंटल मनोवैह्ञानिकों द्वारा की गई रिसर्च में पाया गया कि जो बच्चे अपना शाब्दिक ज्ञान किसी व्यक्ति से सीखते हैं उनमें बेहतर भाषाई विकास होने की ज्यादा संभावना होती है। अगर किसी बच्चे को बचपन में पेरेंट्स द्वारा पढाया जाता है इस बात की काफी संभावना होती है कि वह भविष्य में एक अच्छा पाठक बनें।
अमेरिका में रीडिंग भारी संकट में है इसलिए यह जरुरी है कि हर उम्र के बच्चों को समर्थन मिले।
यह निष्कर्ष साल 2003 में हुए नेशनल अससेस्मेंट ऑफ ऐडल लिटरेसी सर्वे से निकला है। इस शोध की मानें तो यूनाइटेड स्टेट्स में रहने वाले करीब 9 करोड़ 30 लारच लोग एक बेसिक लेवल पर या उससे नीचे पढ़ कर पाते हैं। इसके अलावा नॅशनल अससेस्मेंट ऑफ एजुकेशनल प्रोग्रेस के मुताबिक अमेरिकी स्कूलों में चौथी कक्षा में पढ़ने वाले 60% से अधिक बच्चे, जिनकी औसत उम्र 9 से 10 के बीव होती है, रीडिंग के मामले में औसत स्तर के भी नहीं होते हैं। यह सिर्फ इसलिए चिंता का विषय नहीं है कि बच्चे किताबों के आनंद से दूर जा रहे हैं। बल्कि यह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि निम्न साक्षरता स्तर का समाज परदूरगामी रूप से नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। मानवतावादी और “ब्लूप्रिंट फॉर अ लिटरेट नेशन के लेखक तितथिआ कॉलेटो ने चीथी कक्षा के बच्चों के रीडिंग लेवल और बाद में बच्चों के स्कूल छोड़ने की संभावना के बीच एक संबंध पाया है।
तो इस रीडिंग संकट से निपटने का सबसे शानदार तरीका क्या हो सकता है? खैर, सबसे पहले तो यह जरूरी है कि बच्चों को रीडिंग सिखाते वक्त घर और स्कूल दोनों जगह उन्हें सपोर्ट किया जाए। लेकिन वर्तमान समय में ऐसा नहीं हो रहा है। चौथी कक्षा का बहुत सारे बच्चों के लिए एक बुरा सपना बन जाने की एक वजह पाठ्यक्रम के स्तर को अत्यधिक बढ़ाया जाना भी है। क्योंकि इस कक्षा में प्रवेश लेते ही बच्चों पर कठिन पाठ्यक्रम का बोझ लाद दिया जाता है जिसे अध्यापकों के हिसाब से उन्हें पूरे साल भर होना होता है।
इस वजह से उन बच्चों को काफी परेशानी होती है जो अभी उस रीडिंग में उस स्तर पर नहीं होते हैं। चलिए इसे लेखिका के बेटे बेन के एज़ाम्पल से समड़ाते हैं। येन चौथी क्लास का एक समझादार और क्रिएटिव छात्र था मगर उसे डिसलेक्सिआ था, यानी उसे शब्दों को समझाने में मुश्किल होती थी। बेन के अध्यापकों का कहना था कि उसे और उसकी कक्षा के अन्य बच्चों को उनकी पिछली कक्षा के शिक्षकों द्वारा अच्छे से पढ़ाया गया था मगर उन्होंने कक्षा में पढ़ाई में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि बेन और अन्य स्ट्रगलिंग बच्चे फ्रस्टेटेड महसूस करने लगे और इससे उनकी स्थिति और भी खराब हो गई।
अगर अध्यापकों ने पढ़ाई से जुड़े मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान दिया होता तो यह स्थिति जरुर बेहतर हो सकती थी। मगर दुर्भाग्य से उन्होंने कुछ भी ऐसा करने की जहमत नहीं उठाई। आखिरकार, ज्यादातर बच्चों के पेरेंट्स ने उन्हें दूसरे स्कूलों में भेज दिया जहाँ पर उनपे व्यक्तिगत रुप से ज्यादा ध्यान दिया जाता था। मगर दुर्भाग्य से करोड़ों बच्चों और उनके अभिभावकों के पास यह विकल्प मौजूद नहीं होता है।
बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हमें उन्हें दोनों तरह की दुनिया से रुबरु करवाना होगा।
अभी तक हमने जाना कि इनफार्मेशन और नोलेज के साथ हमारे बदलते रिश्ते से सीखने पढ़ते की हमारी क्षमता पर क्या असर पड़ रहा है। मगर क्या इसका मतलब यह है कि हमें डिजिटल टेक्रॉलजी को त्यागकर परंपरागत ऐनलॉग जीवनशैली को अपना लेना चाहिए नहीं, बिल्कुल नहीं। इसके बजाय बेहतर होगा कि हम अपने बच्चों को प्रिन्ट और डिजिटल दोनों माध्यमों में ठीक वैसे ही पलुएट बनाएँ जैसे कि द्विभाषी बच्चे दो भाषाओं में होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हर माध्यम की अपनी ताकत होती है। रीडिंग के लिए नोन-डिजिटल माध्यम ज्यादा बेहतर है। लेखक मानती है कि स्कूलिंग के शुरुआती वर्षों में प्रिंटेड किताबों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
ऐसा इसलिए क्योंकि प्रिंटेड किताबें ध्यान और गहन अध्ययन को बेहतर करती हैं। ये डिजिटल मीडिया की तुलना में धीमी और विचारोतेजक होती है और इनसे जल्दी से ध्यान भटकने की संभावना तुलनात्मक रूप से कम होती है। अध्यापकों को वास्तविक चिंतन पर भी उतना ही ध्यान देना चाहिए जितना कि वे रीडिंग के अन्य पहलुओं पर देते हैं। इसे प्रेरित करने का एक अच्छा तरीका है- पेन और पेपर की ओर वापस मुड़ना और बच्चों को अपने विचार हाथ से लिखने का मौका देना। इस तरह वे चीजों को करने में वक्त लेंगे और जो उन्होंने पढ़ा है वे उस पर विचार कर पाएंगे।
इस स्ट्रेटजी का दूसरा हिस्सा है बच्चों को डिजिटल दुनिया के बेहतर पहलुओं से मिलाना। मिसाल के तौर पर कोडिंग और प्रोग्रामिंग की ज़रुरत भाधुनिक दुनिया में लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसके अलावा डिजिटल दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिक और प्राफिक आर्ट जैसी क्रिएटिव स्किल्स का विकल्प भी मौजूद है। डीप लनिंग के जैसे ये स्किल्स भी बच्चों की समड़ा को विकसित करने में सहायक होती है।
एज़ाम्पल के लिए कोडिंग को ही ले लीजिए। ये एक ऐसी स्किल है जो कॉज़-एण्ड-इफेक्ट थिकिंग को प्रेरित करती है। यह थिंकिंग डिजिटल माध्यम के बे-लगाग इस्तेमाल की वजह से होने वाले भटकाव के बिल्कुल विपरीत होती है। कोडिंग बच्चों को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित करने में सहायक होती है। इसके अलावा यह बच्चों को अपने आप को एक्सप्रेस करने का मौका देती है बजाय दूसरों के द्वारा बनाई हुई चीजों का बेतहाशा उपभोग करने के। और यह तो हम जानते हैं कि ये स्किल्स भविष्य में स्टेम (STEM) यानि साइंस, टेक्नोलॉजी, इजीनियरिंग और मैथ्स विषयों में बेहतर करने के लिए कितनी जरुरी है।
भौतिक किताबों और डिजिटल डिवाइसों दोनों की अनोखी खूबियों के साथ काम करना सीखकर हम एक ब्रिलिएर दिमाग विकसित कर सकते हैं जो समझा सके कि उसे ऑनलाइन और ऑफलाइन किन चीजों का कितना कन्समपशन करना है।
एक पाठक के रुप में अपनी तीसरी ज़िन्दगी को प्रोटेक्ट करके हम अपने नालेज को ज्ञान में बदल सकते हैं।
महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने एक अच्छे समाज की तीन जिंदगियों का वर्णन किया है पहली जिन्दगी जानकारी और प्रोडक्टिविटी के लिए जबकि दूसरी ज़िन्दगी मनोरंजन के लिए समर्पित होनी चाहिए। तीसरी और अंतिम जिंदगी को पूरी तरह सोच विचार के प्रति समर्पित किया जाना चाहिए। एक पाठक की जिंदगी के लिए भी यह एक अच्छा
मॉडल साबित हो सकता है। अरस्तु के आदर्श समाज की तर्ज पर, अगर कोई व्यक्ति अपना बेस्ट वर्ज़न बनना चाहता है तो उसे अपनी तीनों जिंदगियों में संतुलन स्थापित करना होगा। चलिए जानते हैं यह हम कैसे कर सकते हैं। महली ज़िन्दगी पूरी तरह से जानकारी सोखने और उसे इकट्ठा करने के प्रति समर्पित होती है- मसलन गूगल या डिक्शनरी में किसी शब्द का मतलब ढूंढना। दूसरी ज़िन्दगी में लोग मनोरंजक चीजों का आनंद लेते हैं जैसे- किसी मर्डर मिस्टरी में जासूस की तरह अपनी बुद्धि का परीक्षण करना या फिर रोचक ऐतिहासिक तथ्यों को टूटना। यही वो चीजें है जो हमारे रोजाना के प्रेसरों को दूर करती है।
ये दोनों जिंदगियां हमें तीसरी जिन्दगी की ओर ले जाती हैं जो है- सोच विचार की ज़िन्दगी। ये एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर हम उन सांसारिक चीजों का चिंतन करते हैं जिनके बारे में हम पड़ते हैं। इस तीसरी ज़िन्दगी में समय बिताने से हम पहली और दूसरी ज़िन्दगी में जमा किये गए नालेज और अनुभवों को ज्ञान में बदलने में सफल हो पाते हैं।
ये अपने आप नहीं होगा; ज्ञान की प्राप्ति के लिए हमें कोशिश करनी होगी। तौसरी ज़िन्दगी एक कोमल फूल के समान होती है जिसे सावधानी से उगाना चाहिए। तीसरी ज़िन्दगी को पोषित होने के लिए वक्त, धैर्य और कोशिश की ज़रूरत होती है और हमारे डिजिटल जीवन में इन तीनों ही चीजों की कमी है। यहीं वो एहसास था जिससे प्रेरित होकर अरबपति इन्वेस्टर वारेन बफेट ने एक बार बिल गेट्स से कहा था कि उन्हें अपने कैलंडर में पर्याप्त खाली समय रखता चाहिये। जब बिल ने उन्हें उनकी इस खोज के का श्रेय दिया तो वारेन ने अपनी जेब में से एक छोटा-सा केलेन्डर निकाला और कहा- “वक्त एक ऐसी चीज है जिसे कोई नहीं खरीद सकता।”
गुजरते वक्त के साथ डिजिटल मीडिया का हमारी जिंदगी में दखल लगातार बढता ही जा रहा है। रीडिंग और डीप थिंकिंग की अपनी क्षमता को संरक्षित करने से हम अपने लिए समय बचा सकते हैं और अपने विचारों को खुला घूमने और परिपक्व होने की आजादी दे सकते हैं। हालांकि इसका मतलब तकनीक के चमत्कारों को नकारना नहीं है बल्कि डिजिटल और नॉन-डिजिटल दोनों दुनियाओं को अपनी बेहतरी के लिए इस्तेमाल करना है।