NASHA by Munshi premchand.

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ईश्वरी एक बड़े जमींदार का लड़का था और मैं एक गरीब क्लर्क का, जिसके पास मेहनत-मज़दूरी के सिवा और कोई जायदाद नहीं थी। हम दोनों में आपस में बहस चलती रहती थीं। मैं जमींदारी की बुराई करता, उन्हें खतरनाक जानवर और खून चूसने वाले जोंक और पेड़ों की चोटी पर फूलने वाला बजर फूल कहता। वह जमींदारों का पक्ष लेता, पर नैचुरली उसका पहलू कुछ कमजोर होता था, क्योंकि उसके पास जमींदारों के लिए कोई तर्क नहीं होता था। वह कहता कि सभी इसान एक जैसे नहीं होते, छोटे-बड़े हमेशा होते हैं और होते रहेंगे, मगर बेकार की बात थी इंसानियत या moral वैल्यूज के हिसाब से इस सिस्टम को सही साबित करना मुश्किल था। मैं इस बहस की गरमा-गर्मी में अक्सर तेज हो जाता और चुभने वाली ।

बात कह जाता, लेकिन ईश्वरी हारकर भी मुस्कराता रहता था। मैंने उसे कभी गर्म होते नहीं देखा। शायद इसका कारण यह था कि वह अपने पक्ष की कमजोरी समझता था। नौकरों से वह सीधे मुँह बात तक नहीं करता था। अमीरों में जो बेदर्दी और घमंड होती है, उसमें कूट-कुट कर भरी थी। होती है नौकर ने बिस्तर लगाने में जरा भी देर की, दूध जरूरत से ज्यादा गर्म या ठंडा हुआ, साइकिल अच्छी तरह साफ नहीं हुई, तो वह आपे से बाहर हो जाता। ईई तो बढ़ सस्ती या बदतमीजी उसे जरा भी बरदाश्त नहीं थी, पर दोस्तों से और खासकर मुझसे उसका व्यवहार प्रेम और नम्रता से भरा हुआ होता धा। में होता शायद उसकी जगह में होता, तो मुझमें भी वहीं सख्ती पेदा हो जातीं, जो उसमें थीं, क्योंकि मेरा लोक प्रेम प्रिंसिपल्स पर नहीं, पर्सनल कंडीशन पर टिका हुआ था, लेकिन वह मेरी जगह होकर भी शायद अगर ही रहता, क्योंकि वह स्वभाव से ही भोग विलासी था, ठाट बाट पसंद करता था। अबकी बार दशहरे की छुट्टियों में मैंने फैसला फैसला किया कि घर नहीं कि घर नहीं जाऊँगा। मेरे पास किराये के लिए रुपये नहीं थे और ना ही मैं घरवालों को तकलीफ के रुपये नहीं थे देना चाहता था। मैं जानता हूँ, वे मुझे जो कुछ देते हैं, वह उनकी हैसियत ज्यादा है, उसके साथ ही एग्जाम का ख्याल भी था। अभी बहुत कछ. वे । न से बहुत पढ़ना था, बोर्डिंग हाउस में भूत की तरह अकेले पड़े रहने को भी जी नहीं चाहता था। इसलिए जब ईश्वरी ने मुझे अपने घर आने के लिए कहा, तो मैं बिना रिक्वेस्ट किए ही राजी हो गया। ईश्वरी के साथ एग्जाम की तैयारी अच्छे से हो जायगी। वह अमीर होकर भी मेहनती और बहुत बुद्धिमान था। इसके साथ उसने कहा- लेकिन भाई, एक बात का ख्याल रखना। वहाँ अगर जभींदारों की बुराई की, तो मामला बिगड़ जायगा और मेरे घरवालों को बुरा लगेगा। वह लोग तो किसानों पर इसी दावे से राज करते हैं कि भगवान ने किसानों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है। किसान भी यही समझता है। अगर उन्हें समझा दिया जाय कि जमींदार और किसान में कोई बुनियादी फ़र्क नहीं है, तो जमींदारी तो खत्म समझो”। मैंने कहा- तो क्या तुम समझते हो कि मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊँगा? हाँ, में तो यही समझता हूँ।

तुम गलत समझते हो।

ईश्वरी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। शायद उसने इस मामले को मेरी समझ छोड़ दिया था और ये उसने बहुत अच्छा किया। अगर वह अपनी बात पर अड़ता, तो मैं भी जिद पकड लेता।

सेकेंड क्लास तो क्या, मैंने कभी इंटर क्लास में भी सफर नहीं किया था। अबकी बार सेकेंड क्लास में सफर करने का सौभाग्य मिला। गाड़ी तो नौ बजे रात को आती थी, पर सफर की खुशी में हम शाम को ही स्टेशन जा पहुँचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ्रेशमेंट रूम में जाकर हम लोगों ने खाना खाया। मेरे पहनावे और रंग-ढंग से पारखी खाना बनाने वाले cooks की पारखी नज़र को यह पहचानने में देर नहीं लगी कि मालिक कौन है और पिछलग्गू कौन; लेकिन ना जाने क्यों मुझे उनकी ये बात बुरी लग रही थी। पैसे ईश्वरी ने दिए। शायद मेरे पिता को जो सैलरी मिलती है, उससे ज्यादा इन खाना बनाने वालों को इनाम- में मिल जाती होगी। सौ रूपए तो चलते समय ईश्वरी ने यूहीं दे दिए। फिर भी मैं उन सभी से उसी फुर्ती और तमीज़ की उम्मीद करता था, जिससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थे। ईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब दौड़े चले मैं कोई चीज मांगता तो बस इतना जोश नहीं दिखाते थे। मुझे खाने में ज़रा भी स्वाद नहीं आया। यह भेदभाव आते. लेकिन में अपनी ओर खींचे हुए था। मेरे ध्यान को पूरी तरह । ह से गाड़ी आयी. हम दोनों उसमें सवार हुए। बावर्चियों ने ईश्वरी को सलाम किया। मेरी ओर तो देखा भी नहीं। ईश्वरी ने कहा- “इन लोगों में कितनी तमीज है। एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग ही नहीं है”। मैंने खट्टे मन से कहा- “इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों को भी सौ रूपए रोज इनाम दिया करो, तो शायद इनसे ज्यादा तमीजदार हो जाए।

तो क्या तुम समझते हो, यह सब सिर्फ इनाम के लालच से इतनी इज्ज़त करते हैं। जी नहीं, बिलकुल नहीं! तमीज और इज्ज़त तो इनके खून में शामिल है।’

गाड़ी चली। प्रयाग से चली तो प्रतापगढ़ जाकर रूकी। आदमी ने हमारा कम्पार्टमेंट खोला। मैं तुरंत चिल्ला उठा- “सेकेंड क्लास है”। एक उस मुसाफिर ने डिब्बे के अंदर आकर मेरी ओर अजीब सी अपमान भरी नज़रों से देखकर कहा-“जी हाँ, सेवक इतना समझता है”, और बीच वाले बर्थ कई आदमी करने के लिए खड़े थे। दो अमीर आदमी थे और पाँच मजदूरों पर बैठ गया। मुझे कितनी शर्म आयी, मैं कह नहीं सकता”। होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुँचे। स्टेशन सुबह पर हमारा स्वागत मज़दूर ।

हमारा लगेज उठाया। दोनों आदमी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। उनमें से एक मुसलमान था रियासत अती, दूसरा ब्राह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर अजनबी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, तुम कौवे होकर हंस के साथ कैसे?” रियासत अली ने ईश्वरी से पूछा- “यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं?”

ईश्वरी ने जवाब दिया- “हाँ, साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यूं कहिए कि इनकी ही बदौलत में इलाहाबाद पड़ा हुआ हूँ, नहीं तो कब का लखनऊ साथ घसीट लाया। इनके घर से कई लैटर आ चुके थे, मगर मैंने ना के जवाब भिजवा दिये। आखिरी लैटर तो चला आया होता। अबकी बार में इन्हें साथ घसीट अजेट था, पर उसका जवाब भी ना ही गय।

दोनों आदमियों ने मेरी ओर चकित होकर देखा।

रियासत अली ने कुछ शक भरी आवाज़ में कहा- “लेकिन आप बड़े सादे कपड़ों में रहते हैं”। ईश्वरी ने डाउट क्लियर करते हुए कहा “महात्मा गाँधी के भक्त है साहब। खादी के सिवा कुछ पहनते ही नहीं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। यूं कहो कि राजा हैं। साल में बीस लाख की इनकम है, पर सुरत देखो तो लगता है कि अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं”। रामहरख बोले- “अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम देखने को मिलता है। कोई भाँप ही नहीं सकता”। रियासत अली ने सपोर्ट करने करते हुए कहा “आपने महाराजा चांगली को देखा होता तो दाँतों तले उंगली दबा लेते। एक गाढ़े की मिर्जई और चमरोधे जूते

पहने बाजारों में घूमा करते थे। सुनते हैं, एक बार मज़दूरी में पकड़े गये थे और उन्हीं ने दस लाख से कालेज खोल दिया”। में मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्या बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्त मुझे हंसी मजाक नहीं लग रहा था। उसकी हर बात के साथ मानों में उस मनगढ़त अमीरी के चमक के पास आता जा रहा था।

मैं घुड़सवार नहीं हूँ। हाँ, बचपन में कई बार लू घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहाँ देखा तो दो घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ही निकल गई। मैं सवार तो हुआ, पर शरीर काँप रहा था। मैंने चेहरे पर शिकन नहीं पड़ने दी। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई कि ईश्वरी ने घोडे को तेज नहीं किया, वरना शायद मैं हाथ-पैर तुड़वाकर लौटता। लगता है, ईश्वरी ने समझ लिया होगा कि मैं कितने पानी में हूँ।

ईश्वरी का घर क्या था, किला था किला। बड़ा सा दरवाज़ा, दरवाज़े पर पहरेदार टहल रहा था, नौकरों का तो कोई हिसाब ही नहीं था, एक हाथी भी बँधा हुआ था। ईश्वरी ने अपने पिता, चाचा, ताऊ सबसे मेरा परिचय कराया और उन्हीं बातों को बढ़ा चढ़ाकर कहा। ऐसी हवा बाँधी कि बस कुछ पूछिए मत। नौकर- चाकर ही नहीं, घर के लोग भी मेरा सम्मान करने लगे। चो सब देहात के जमींदार थे, लाखों का फ़ायदा कमाते थे, गगर पुलिस कास्टेबल को ऑफिसर समझ बैठे। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर तक कहने लगे। जब सब लोग चले गए और हम दोनों अकेले थे, तो मैंने ईश्वरी से कहा- “तुम बड़े शैतान हो यार, मेरी मिट्टी क्यों पलीद कर रहे हो?”

ईश्वरी ने मुस्कान के साथ कहा- इन गधों के सामने यही चाल जरूरी थी, बरना सीथे मेंह बोलते भी नहीं।

कुछ देर के बाद नाई हमारे पाँव दबाने आया। कुँवर लोग स्टेशन से आये हैं, थक गये होंगे। ईश्वरी ने मेरी ओर इशारा करके कहा- “पहले कुँवर साहब ufa zar पीव दबा”।

में चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने मेरे पाँव दबाये हों। में इसे अमीरों के चोचले, रईसों का गधापन और बड़े आदमियों के राजसी ठाट ओर ना जाने क्या-क्या कहकर ईश्वरी का मज़ाक उड़ाया करता था ओर आज में रईस बनने का नाटक कर रहा था। इतने में दस बज गये। पुरानी सभ्यता के लोग थे। अंदर से खाने का बुलावा आया। हम नहाने चले गए। मैं हमेशा अपनी धोती खुद छाँट लिया करता था; मगर यहाँ मैंने ईश्वरी की तरह अपनी धोती भी छोड़ दी। मुझे अपने हाथों अपनी धोती छाँटते हुए शर्म आ रही थी। उसके बाद हम अंदर खाने चले। ई्री

होस्टल में हम जुते कुर्सी पर पटक देते थे। यहाँ पाँव धोना मैंने भी पाँत बढ़ा दिये, उसने मेरे पाँव भी फोटो। उसने मेरे भी धाये।

ज़रूरी धा। नौकर पानी लिये खड़ा था।

ने पाँच बढ़ा दिये। नौकर ने उसके पाँव धोये।

मैंने सोचा था, वहाँ देहात में ध्यान लगाकर खूब पढ़ेंगे, पर यहाँ तो सारा दिन घूमने फिरने में कट जाता था। कभी नदी के पास सैर कर रहे हैं, कभी मछलियों या चिड़ियों का शिकार खेल रहे हैं, कभी पहलवानों की कुश्ती देख रहे हैं, कहीं शतरंज पर जमे हैं। ईश्वरी खूब अंडे मँगवाता और कमरे स्टोव पर आम आमलेट बनते। नौकरों की एक टोली हमेशा हमें धेरै रहती। हमें अपने हाथ-पाँव हिलाने की कोई जरूरत नहीं थी सिर्फ जबान हिला देना ही काफी नहीं बैठो तो आदमी नहलाने को हाजिर, लेटो तो आदमी पंखा झलने को खड़े हो जाते थें।

में महात्मा गाँधी का कुँवर चेला मशहूर हो गया था। अन्दर बाहर तक मेरी धाक थी। नाश्ते में जरा भी देर न होने पाये, कहीं कुँवर साहब नाराज न हो जायें; बिस्तर ठीक समय पर लग जाय, कुँवर साहब के सोने का समय हो गया है। मैं ईश्वरी से भी ज्यादा नाजुक दिमाग बन गया था या बनने पर मजबूर किया गया था। चाहे ईश्वरी अपने हाथ से बिस्तर बिछाले लेकिन कुँवर मेहमान अपने हाथों से कैसे अपना बिस्तर बिछा सकते हैं। उनकी महानता में दाग लग जाएगा ना।

एक दिन सचमुच यही बात हो गयी। ईश्वरी घर में था। शायद अपनी माँ से कुछ बातचीत करने में देर हो गयी। यहाँ दस बज गये। मेरी आँखें नींद से झपक थी, मगर बिस्तर कैसे लगाऊँ? कुँवर जो ठहरा। करीब साढ़े ग्यारह बजे नौकर आया। तो बड़ा ही मुँहलगा नौकर था। घर के काम में मेरा बिस्तर लगाने की उसे सुध ही न रही। अब जब याद आया, तो भागा हुआ आया था। मैंने उसे ऐसी डॉट लगाई कि वो भी याद रखेगा। ईश्वरी मेरी डॉट सुनकर बाहर निकलकर आया और बोला- “तुमने बहुत अच्छा किया। यह सब कामचोर इसी व्यवहार के लायक हैं”। इसी तरह ईश्वरी एक दिन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गयी, मगर लैम्प टेबल पर रखा हुआ था। माचिस पास ही पड़ी थी, लेकिन ईश्वरी खुद कभी लैम्प नहीं जलाता था, फिर कुँवर साहब कैसे जलायें? में झुँझला रहा था। न्यूज़पेपर आया हुआ रखा था। जी उधर लगा हुआ था, पर लैम्प गायब था। भगवान की कृपा से उसी वक्त मुंशी रियासत अली आ गए। मैं उन्हीं पर उबल पड़ा, ऐसी डांट लगाई कि बेचारा देखता ही रह गया- “तुम लोगों को इतनी फिक्र भी नहीं कि लैम्प तो जला दें! मालूम नहीं, ऐसे कामचोर आदमियों का यहाँ कैसे गुजारा होता है। मेरे यहाँ तो घंटे भर भी ना टिकें” रियासत अली ने कांपते हुए हाथों से लैम्प जलाया।

वहाँ एक ठाकुर अक्सर आया करता था। कुछ मनचला आदमी था, महात्मा गाँधी का परम भक्त। मुझे महात्मा जी का चेला समझकर मेरा बड़ा सम्मान करता था; पर मुझसे कुछ पूछते हुए हिचकिचाता था। एक दिन मुझे अकेला देखकर आया और हाथ बाँधकर बोला- “सरकार तो गाँधी बाबा के चेले हैं न? लोग कहते हैं कि यहाँ स्वराज हो जायेगा तो जमींदार नहीं रहेंगे।

शान जमायी- “जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्या है? यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा और क्या करते है?” मैंने ठाकुर ने फिर पूछा- “तो क्यों ना सरकार, सब जमींदारों की जमीन छीन ली जाए”। मैंने कहा- “बहुत-से लोग तो खुशी से दे देंगे।

देंगे, उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए हैं। जैसे ही स्वराज हुआ, अपने इलाके किसानों के नाम कर देंगे”।

ही।

जो लोग खुशी से नहीं

मैं कुरसी पर पाँव लटकाये बैठा था। ठाकुर मेरे पाँव दबाने लगा। फिर बोला- “आजकल जमींदार लोग बड़ा जुल्म करते हैं सरकार! हमें भी हुजूर, अपने इलाके में थोड़ी-सी जमीन दे दें, तो चलकर वहीं आपकी सेवा में रहे।

मैंने कहा- “अभी तो मेरा कोई अधिकार नहीं है भाई, लेकिन जैसे ही अधिकार मिला, में सबसे पहले तुम्हें बुलाऊँगा। तुम्हें मोटर ड्राइवरी सिखा कर अपना ड्राइवर बना। लूगी ।

कहते हैं, उस दिन ठाकुर ने खूब भांग पी और अपनी पत्नी को खूब पीटा और गाँव के महाजन से लड़ने को भी तैयार हो गया।

धीरे-धीरे छुट्टी इसी तरह खत्म हो गई और हम फिर प्रयाग चले। गाँव के बहुत-से लोग हम लोगों को अलविदा कहने आये थे। ठाकुर तो हमारे साथ स्टेशन तक आया। मैने भी अपना पार्ट खूब सफाई से खेला और अपनी विनम्रता और अच्छाई की मुहर हरेक के दिल पर लगा दी। जी तो चाहता था, हरेक नौकर को अच्छा इनाम दूं, लेकिन वो हैसियत कहाँ थी? वापस जाने का टिकट था ही, अब सिर्फ गाड़ी में बैठना था; पर गाड़ी आयी तो ठसाठस भरी हुई दुर्गापूजा की छुट्टियाँ मनाकर सभी लोग लौट रहे थे। सेकेंड क्लास में पैर रखने तक की जगह नहीं थी। इंटर क्लास की हालत उससे भी बदतर थी। यह आखिरी गाड़ी थी। हम किसी भी हालत में रूक नहीं सकते थे। बड़ी मुश्किल से तीसरे वलास में जगह मिली। हमारी अमीरी ने वहाँ अपना रंग जमा लिया, मगर मुझे उसमें बैठना बुरा लग रहा था। आये थे आराम से लेटे-लेटे, जा रहे थे सिकुड़े हुए। साइड बदलने की भी जगह नहीं थी। वहाँ कई आदमी पढ़े-लिखे वे आपस में अंग्रेजी राज्य की तारीफ तो छोटे-बड़े सब बराबर जा रहे थे। एक महाशय हां। राजा भी किसी पर अन्याय करे, तो अदालत उसकी गर्दन दुवा ३ बीले- “ऐसा न्याय तो किसी राज्य में नहीं देखा है”

दूसरे सज्जन ने साथ देते हुए कहा- “अरे साहब, आप खुद बादशाह पर केस कर सकते हैं। अदालत में बादशाह पर केस हो जाती है। एक आदमी, जि पीठ पर बड़ा गट्टर बँधा था, कलकते जा रहा था। उसे कहीं गठरी रखने की जगह भी नहीं मिली थी इसलिए पीठ पर बाँधे हुए

था। इससे बेचैन होकर वो बार-बार दरवाज़े पर खड़ा हो जाता। मैं दरवाज़े के पास ही बैठा हुआ था। उसका बार-बार आकर मेरे मुँह को अपनी गठरी से रगड़ना मुझे बहुत बुरा लग रहा था। तो हवा वैसे ही कम थी, दूसरे उस गँवार का आकर मेरे मुँह पर खड़ा हो जाना, मानो मेरा गला दबाने जैसा था।

कुछ देर तक बर्दाश्त किये बैठा रहा। फिर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उसे पकड़कर पीछे धकेल दिया और दो तमाचे जोर-जोर से लगाये। उसने आँखें निकालकर कहा- “क्यों मारते हो बाबूजी, हमने भी किराया दिया है।”

मैंने उठकर दो-तीन तमाचे और जड़ दिये।

गाड़ी में तूफान आ गया। चारों ओर से मुझ पर बौछार होने लगी। अगर इतने नाजुक मिजाज हो, तो फर्स्ट क्लास में क्यों नहीं बैठे।

कोई बड़ा आदमी होगा, तो अपने घर में होगा। मुझे इस तरह मारते तो दिखा देता। क्या कसूर था बेचारे का। गाड़ी में साँस लेने की जगह भी नहीं है इसलिए खिड़की पर जरा साँस लेने खड़ा हो गया, तो उस पर इतना गुस्सा! अमीर

होकर क्या आदमी अपनी इन्सानियत बिल्कुल खो देता है।

यह भी अंग्रेजी राज है, जिसका आप बखान कर रहे थे।

एक गाँव वाला बोला- “ऑफिस जाने की औकात नहीं और उस पर इतना मिजाज!” ईश्वरी ने अंग्रेजी में कहा- “What an idiot you are, Bir! (बीर, तुम कितने मूर्ख हो !)” और मेरा नशा अन्य कुछ-कुछ उतरता हुआ लग रहा था।

सीख – मुशी प्रेमचंद जी ने इस कहानी में इंसानों के स्वभाव और फ़ितरत के बारे में बताया है. जहां शुरुआत में बीर को अपने प्रिंसिपल्स का नशा था, वो ज़मींदारों की बुराई करते नहीं थकता था वहीं जब उसे वो सम्मान और मौका मिला तो वो इसमें खो कर अँधा हो गया. उस पर अमीरी का नशा होने लगा. जिन आदतों की वो बुराई करता था अब वो खुद उसमें मगन होकर उसका आनंद ले रहा था. इसमें इसानों की ये मानसिकता दिखाई गई है कि वैसे तो लोग पैसे, पॉवर, सुख सुविधाओं की बुराई करते हैं लेकिन कहीं ना कहीं खुद उसे भोगने के लिए तरसते भी है क्योंकि उनके पास वो ऐशो आराम नहीं

है. यहाँ इस बात को भी बखूबी बताया गया है कि समाज और सिर्फ अमीरों का ही सम्मान करते हैं, उन्हें ही हर जगह पूछा जाता है. आम इंसानों की ओर तो कोई देखता भी नहीं. इश्वरी ने बीर के बारे में झूठी बातें इसलिए कहीं ताकि वहाँ सब उसका सम्मान करें. अंत में, बीर का नशा तब टूटता है जब वो ट्रेन में एक गरीब के साथ गलत तरह से पेश आता है और उसका दोस्त उसे डांटता है, तब उसे लगता है जैसे वो तो अपनी इंसानियत ही खोने लगा है. पैसा और पॉवर इंसान को अंधा कर देती है और बीर भी इससे बच नहीं पाया था. इसमें बीर का दोगलापन दिखाया गया है, लेकिन क्या हम सब भी ऐसे नहीं हैं? अगर हमें मौका मिले तो क्या हमें भी बीर की तरह नशा नहीं हो जाएगा?

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