मेरी पाँच साल की छोटी लड़की मिनी से पल भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में आने के बाद बोलने में उसने सिर्फ एक ही साल लगाया होगा। उसके बाद से जब तक जगी रहती है उसका का एक पल भी वह चुप रहकर नहीं बिताती। उसकी माँ अक्सर डाँट-फटकार कर उसकी चलती हुई जुबान बंद कर देती है; लेकिन मुझसे ऐसा नहीं होता। मिनी की चुप्पी मुझे इतनी अस्वाभाविक लगती है, कि मुझसे वह ज़्यादा देर तक सहा नहीं जाता और यही कारण है कि मेरे साथ उसकी भावनाओं का लेन-देन कुछ ज़्यादा जोश के साथ होता रहता है। सवेरे मैंने अपने उपन्यास के सत्तरहवें चैप्टर में हाथ लगाया ही था कि इतने में मिनी ने आकर कहना शुरू कर दिया, “बाबा! रामदयाल दरबान कल काक की कोआ कहता था। वह कुछ भी नहीं जानता, है न बाबा ?” दुनिया की एकाग-अलग भाषाओं के बारे में मेरे कुछ बताने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी, “बाबा! भोला कहता था आकाश मुँह से पानी फेंकता है, इसी से बारिश होती है। अच्छा बाबा, भोला झूठ-मूठ कहता है न? खाली बक-बक किया करता है, दिन-रात बकता रहता है।” इस बारे में मेरी राय की ज़रा भी राह न देख कर, चट से धीमे आवाज़ में एक मुश्किल सवाल कर बैठी, “बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?” उसके इस सवाल का जवाब देना, किसी भंवर में फंसने के बराबर था इसलिए मैंने उसका ध्यान हटाने के लिए कहा, “मिनी, तू जा, भोला के साथ खेल, मुझे अभी काम है, अच्छा।”
तब उसने मेरी मेज के पास पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटने और हाथों को हिला-हिलाकर बड़ी जल्दी-जल्दी से मुंह चलाकर ‘अटकन-बटकन दही मरा रों के ।
चटाके कहना शुरू कर दिया। जबकि मेरे उपन्यास के चैप्टर में प्रतापसिंह उस समय कंचनमाला को लेकर रात के गहरे अँधेरे में जेल के ऊंचे झरोखे से नीचे कलकल करती हुई नदी में कूद रहा था।
मेरा घर सड़क के किनारे पर था, अचानक मिनी अपने अटकन-बटकन को छोड़कर कमरे की खिड़की के पास दौड़ गई, और जोर-जोर से चिल्लाने लगी, “काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला…
मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर साफा बाँधे, कंधे पर सूखे फलों की मैली झोली लटकाए, हाथ में अंगूरों की कुछ पिटारियाँ लिए, एक लम्बा-तगड़ा-सा काबुली धीमी सी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी छोटी बेटी के दिल में कैसे भाव पैदा हुए यह बताना मुश्किल है। उसने जोरों से पुकारना शुरू किया। मैंने सोचा, अभी झोली कंधे पर डाले, सर पर एक मुसीबत आ खड़ी होगी और मेरा सत्तहरवा चैप्टर आज अधूरा रह जाएगा।
लेकिन मिनी के चिल्लाने पर जैसे ही काबुली ने हँसते हुए उसकी ओर मुँह फेरा और घर की ओर बढ़ने लगा, वैसे ही मिनी डर के मारे अंदर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ छिप गई। उसके छोटे-से मन में वह अन्धविश्वास बैठ गया था कि उस मेली-कुचैली झोली के अन्दर ढूँढने पर उस जैसी और भी जीती-जागती बच्चियाँ निकल सकती हैं।
इथर काबुली ने आकर मुस्कुराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने सोचा, सच में प्रतापसिंह और कंचनमाला गंभीर मुसीबत में है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न खरीदना अच्छा न होगा।
कुछ सामान खरीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। खुद रहमत, रूस, अंग्रेज, सीमान्त रक्षा के बारे में गप-शप होने लगी। आखिर में उठकर जाते हुए उसने अपनी मिली-जुली भाषा में पूछा, “बाबूजी, आपकी बच्ची कहाँ गई?” मैंने मिनी के मन से बेकार के डर को दूर करने के लिए उसे अंदर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिल्कुल सटकर काबुली के चेहरे और झोली की ओर शक से देखती खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने नहीं लिया और दुगुने शक के साथ मेरे घुटनों से लिपट गई। काबुली वाले से उसकी पहली मुलाक़ात इस तरह हुई।
इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे में किसी ज़रूरी काम से बाहर जा रहा था। देखू तो मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से हँस-हँसकर बातें कर रही है और काबुली उसके पैरों के पास बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ, उसे ध्यान से सुन रहा है और बीच-बीच में अपनी राय मिली-जुली भाषा में जाहिर करता जाता है।
मिनी को अपने पाँच साल के जीवन में, बाबूजी के सिवा, ऐसा धीरज से बातें सुनने वाला आदमी शायद ही कभी मिला हो। मिनी की बादाम-किसमिस से भरी हुई थी। मैंने काबुली से कहा, “इसे यह सब क्यों दे दिया? अब कभी मत देना।” कहकर कुर्ते की जेब से एक अठन्नी निकालकर झोली उसे दी।
उसने बिना किसी हिचक के अठन्नी लेकर अपनी झोली में रख ली। कुछ देर बाद, घर लौटकर देखता हूं तो उस अठनी ने बड़ा भारी हंगामा खड़ा कर दिया है। की माँ एक सफेद चमकीला गोल सामान हाथ में लिए डाँट-डपटकर मिनी से पूछ रही थी, “तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”
मिनी ने कहा, काबुलीवाले ने दी है।”
काबुलीवाले से तूने अठन्नी ली कैसे, बता?
मिनी ने र रोन शुरू करते हुए कहा, “मैंने माँगी नहीं थी, उसने खुद ही दी है”। मैंने जाकर मिनी की उस अचानक आई मुसीबत से रक्षा की, और उसे बाहर ले आया।
पर मालूम हुआ कि इस दौरान में काबुलीवाला रोज आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे से दिल पर बहुत अधिकार है।
कर लिया देखा कि इस नई दोस्ती में बंधी हुई बातें और हँसी मशहूर है। जैसे मेरी बिटिया, रहमत को देखते ही, हँसती हुई पूछती, ‘काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला, तुम्हारी झोली में क्या है? काबुली, जिसका नाम रहमत था, मुस्कराता हुआ जवाब देता, “हाँ बिटियाँ! उसके हंसी मज़ाक का राज़ क्या है, यह तो नहीं कहा जा सकता; फिर भी इन नए दोस्तों को इससे एक खास खेल जैसा लगता है और सर्दियों की सुबह एक सयाने और एक बच्ची की भोली हँसी सुनकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता। उन दोनों दोस्तों में और भी एक-आध बात खास बात होती थी। रहमत मिनी से कहता, “तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा?”
हमारे देश की लड़कियाँ जन्म से ही जन्म से ही ‘ससुराल’ शब्द जान जाती हैं, लेकिन हम लोग कुछ नई पीढ़ी के होने के कारण इतनी सी बच्ची को ससुराल के बारे में कुछ नहीं बताते थे। इसलिए रहमत की विनती को वो ठीक से समझ नहीं पात्ती थी; इस पर भी किसी बात का जवाब दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिल्कुल ही ही खिलाफ था।
उलटे, वह रहमत से ही पूछती, ‘तुम ससुराल जाओगे?
रहमत मनघडत ससुर के लिए अपना जबर्दस्त पैसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।” र मिनी ससुर नाम के किसी अनजाने जीव की बुरी हालत की कल्पना करके खूब हँसती।
देखते-देखते ठंड का सुहाना मौसम आ गया । पुराने ज़माने में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए कूच -करते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसीलिए मेरा मन दुनिया में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर में हमेशा रहने वाला, बाहरी दुनिया के लिए मेरा मन हमेशा उतावला रहता है। किसी विदेश का नाम आगे आते ही मेरा मन बहीं की उड़ान भरने लगता है। इसी तरह किसी विदेशी को देखते ही तुरंत मेरा मन नदी -पहाड़-सुनसान जंगल के बीच में एक कुटीया का नज़ारा देखने लगता है और एक खुशहाली से भरे आजाद जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।
इधर देखा तो में ऐसे स्वभाव का जीव हूँ, जिसका अपना घर छोड़कर बाहर निकलने में सिर कटता है। यही कारण है कि सुबह अपने छोटे से कमरे में मेज के सामने बैठकर उस काबुली से गप-शप लड़ाकर बहुत कुछ घूमने का काम निकाल लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों और ऊबड़ खाबड, लाल-लाल ऊँचे पहाड़ और रेगिस्तानी रास्ते, उन पर लदे हुए ऊँटों की लाइन जा रही है। ऊँचे-ऊँचे साफे बाँधे हुए सौदागर और यात्री कुछ ऊँट की सवारी पर हैं तो कुछ पैदल ही जा रहे हैं। कुछ के हाथों में बरछा है, तो कोई बाबा आदम के जमाने की पुरानी बन्दूक थामे हुए है। यादों की भयानक गरजने की आवाज़ में काबुली लोग अपने मिली-जुली भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।
मिनी की माँ बड़ी वहमी स्वभाव की है। रास्ते में किसी तरह का शोर-गुल हुआ नहीं कि उसने समझ लिया कि संसार भर के सारे मस्त शराबी हमारे ही घर की ओर दौड़े आ रहे हैं। उसके विचारों में यह दुनिया इस छोर से उस छोर तक चोर-डकैत, मस्त, शराबी, साँप, बाघ, रोगों, मलेरिया,तिलचट्टे और अंग्रेजों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए इस दुनिया में रहते हुए भी उसके मन का यह रोग दूर नहीं हुआ।
रहमत काबुली की ओर से भी वह पूरी तरह बेफिक्र नहीं थी। उस पर ख़ास नजर रखने के लिए मुझसे बार-बार विनती करती रहती। जब मैं उसके शक को मजाक से ढकना चाहता लो मुझसे एक साथ कई सवाल पूछ बैठती, “क्या कभी किसी का लड़का नहीं चुराया गया? क्या काबुल में गुलाम नहीं
बिकते? क्या एक लम्बे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे बच्चे का उठा ले जाना नामुमकिन है?” वगैरह मुझे मानना पड़ता कि यह बात बिलकुल नामुमकिन भी नहीं है। भरोसा करने की शक्ति सब में समान नहीं होती, इसलिए मिनी की माँ के मन में डर ही रह गया लेकिन सिर्फ़ इसीलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने घर में आने से मना न कर हर साल रहमत माघ के महीने में लगभग अपने देश लौट जाता है। इस समय वह अपने व्यापारियों से रुपया-पैसा वसूल करने में तल्लीन रहता है। में उसे घर-घर, दुकान-दुकान घूमना पड़ता है, फिर भी मिनी से उसकी मुलाक़ात एक बार जरूर हो जाती है। देखने में तो ऐसा लगता है कि दोनों के बीच किसी साजिश का श्रीगणेश हो रहा है। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखें तो वह शाम को हाजिर है। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-डाले जामा-पाजामा पहने, झोली वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में अचानक डर सा पैदा हो जाता है।
लेकिन, जब देखता हूँ कि मिनी ओ काबुलीवाला’ पुकारती हुई हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो बिलकुल अलग-अलग उगर के असमान दोस्तों में वही पुराना हंसी मज़ाक चलने लगता है, तब मेरा दिल खुशी से नाच उठता है।
एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ नई किताब के प्रूफ देख रहा था। ठंड जाने से पहले आज दो-तीन दिन खूब जोरों से अपना प्रकोप दिखा रहा है। जिधर देखो, उधर उस सर्दी की ही चर्चा है ऐसे कड़ाके की ठंड में खिड़की में से सवेरे की धूप मेज के नीचे मेरे पैरों पर आ पड़ी। उसकी गर्मी मुझे अच्छी लगने लगी। लगभग आठ बजे का समय होगा। सिर से मफलर लपेटे उषाचरण सवेरे की सैर करके घर की ओर लौट रहे थे। ठीक इस समय एक बड़े जोर का शोर सुनाई दिया।
तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। उनके पीछे बहुत से तमाशा देखने वाले बच्चों का झुंड चला आ रहा है। रहमत के डीले-ढाले कुर्ते पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से लथपथ छुरा। मैंने दरवाजे से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया, पूछा, “क्या बात है? सिपाही से और कुछ रहमत से सुना कि हमारे एक पड़ोसी ने रहमत से रामपुरी चादर खरीदी थी। उसके कुछ रुपए बाकी थे, जिसे देने से उसने साफ कुछ इन्कार कर दिया। बस इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर घोंप दिया।
रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए तरह तरह के बुरे शब्द सुना रहा था। इतने में काबुलीवाला! ओ काबुलीवाला!” पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
रहमत का चेहरा पल-भर में चमक उठा। उसके कंचे पर आज झोली नहीं थी। इसलिए झोली के बारे में दोनों दोस्तों की जो बुराई चलती रहती थी वो न चल सकी। मिनी ने आते ही पूछा, “तुम ससुराल जाओगे।”
रहमत ने जोशीली आवाज़ में कहा, “हो, वहीं तो जा रहा हूं।”
रहमत समझ गया कि उसका यह जवाब मिनी के चेहरे पर हँसी न ला सकेगा और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, “ससुर को मारता, पर क्या कर, हाथ हुए हैं।”
छुरा चलाने के जुर्म में रहमत को कई साल की सज़ा हुई।
रहमत का ध्यान धीरे-धीरे मन से बिल्कुल उतर गया। हम लोग अब अपने घर में बैठकर हमेशा की आदत होने के कारण, रोज़मरें के काम-धंधों में उलझे हुए दिन बिता रहे थे। तभी एक आज़ाद पहाड़ों पर घूमने वाला आदमी जेल की दीवारों के अन्दर कैसे साल पर साल काट रहा होगा, यह बात हमारे मन और चंचल मिनी का व्यवहार तो और भी शर्मनाक था। यह बात उसके पिता को भी माननी पड़ेगी। उसने बड़ी आसानी से अपने पुराने दोस्त को भूलकर में कभी उठी ही नहीं।
पहले तो नबी सईस के साथ दोस्ती की, फिर जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ने लगी वैसे-वैसे सखा के बदले एक के बाद एक सखियाँ जुटने लगीं और तो क्या,
अब वह अपने बाबा के लिखने के कमरे में भी दिखाई नहीं देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ नाता ही टूट गया है।
कितने ही साल बीत गये। सालों बाद आज फिर सदियों का मौसम आया है। मिनी की सगाई की बात पक्की हो गई। पूजा की छुट्टियों में उसकी शादी हो जाएगी। कैलाशवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की खुशी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके ससुराल चली जाएगी। सवेरे सूर्यदेव बड़े सज-धज कर निकले। सालों बाद ठंड के मौसम की यह नई धवल धूप सोने में सुहागे का काम दे रही है। कलकत्ता की पतली गलियों
से सटे हुए पुराने टूटे फूटे घरों के ऊपर भी इस धूप की चमक ने एक तरह की अनोखी सुंदरता बिखेर दी है। हमारे घर पर सूर्यदेव के आने से पहले ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे यह मेरे दिल की धड़कनों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी दुखद भैरवी रागिनी मानो मेरी जुदाई के दुःख को जाड़े की धूप के साथ सारे ब्रह्माण्ड में फैला रही है। मेरी मिनी की आज शादी है। सवेरे से घर बवंडर बना हुआ है। हर समय आने-जाने वालों का ताँता बँंधा हुआ है। आँगन में बाँस का मंडप बनाया जा रहा है। हरेक कमरे और बरामदे में झाड़फानूस लटकाए जा रहे हैं, और उनकी टक-टक की आवाज मेरे कमरे में आ रही है। ‘चलो रें, ‘जल्दी करो, ‘इधर आओ की तो कोई गिनती ही नहीं है।
मैं अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में बैठा हुआ हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और सलाम करके खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान न सका। उसके पास न तो झोली थी और न पहले जैसे लम्बे-लम्बे बाल और न चेहरे पर पहले जैसी दिव्य चमक थी। अन्त में उसकी मुस्कान देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।
मैंने पूछा, “क्यों रहमत, कब आए?”
उसने कहा, “कल शाम को जेल से छूटा हूँ।” सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी खूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में वह इंसान यहाँ से टल जाए तो अच्छा हो। मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में कुछ जरूरी काम है, सो आज में उसमें लगा हुआ हूं। आज तुम जाओ, फिर आना।” बाल सुनकर वह उसी पल जाने को तैयार हो गया। पर दरवाज़े के पास आकर कुछ इधर-उधर देखकर बोला, “क्या, बच्ची को ज़रा नहीं देख मेरी सकता?” शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा हो कि मिनी अब भी पहले की तरह काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला’
पुकारती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के पहले हंसी मज़ाक में किसी तारक की रुकावट न होगी? यहाँ तक कि पहले की दोस्ती की याद करके वह एक पेटी अगूर और एक कागज के दोने में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग-ताँगकर लेता आया था। उसकी पहले की मैली-कुचैली झोली आज उसके पास न थी।
मैंने कहा “आज घर में बहुत काम है। सो किसी से मुलाकात न हो सकेगी।”
मेरा जवाब सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया उसी हाव भाव में उसने एक बार मेरे चेहरे की ओर गौर से देखा। फिर सलाम करके दरवाजे के बाहर निकल गया।
मेरे दिल में जाने कैसी एक दर्द सा उठा । मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह खुद ही आ रहा है।
वह पास आकर बोला. “ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया धा, उसे दे दीजिएगा।” मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पैसे रहने दीजिए।” जरा रुककर वो फिर बोला- “बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची मैं उसे याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए ठाडा-सा मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।
कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसके चारों कोने खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।
मैंने देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी की यादों के इस चित्र को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ता के गली-कूचों में सामान बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए बड़े से दिल में अमृत उड़ेलता रहता है।
देखकर मेरी आँखें भर आई और फिर में इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, में एक बड़े खानदान का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक पिता है और मैं भी। उसकी छोटी बच्ची की निशानी उसे मेरी ही मिनी की याद दिलाती । मैंने तुरंत ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालांकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। शादी के कपड़ों और गहनों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे शर्म के सिकुड़ी हुई सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उस हालत में देखकर रहमत काबुल पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में हँसते हुए बोला, लल्ली! सास के घर जा रही है क्या?
मिनी अब सास का मतलब समझने लगी थी, इसलिए अब उससे पहले की तरह जवाब देते न बना! रहमत की बात सुनकर मारे शर्म के उसके गाल लाल हो उठे। उसने मुँह को फेर लिया। मुझे उस दिन की याद आई, जब रहमत के साथ मिनी की पहली मुलाक़ात हुई थी । मन में एक पीड़ा की लहर दौड़ गई। मिनी के चले जाने के बाद, एक गहरी साँस लेकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक साफ हो गई कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी पड़ेगी। शायद वह उसे पहले जैसी नहीं पाएगा। इन आठ सालों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? सवेरे के समय शरद की मखमली सूरज की रोशनी में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक अंदर बैठा हुआ अफगानिस्तान के मेरु-पर्वत का नजारा देखने लगा। मैंने एक नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, “रहमत, तुम देश चले जाओ, अपनी बेटी के पास। तुम दोनों के मिलने से सुख मिलेगा वो मेरी रहमत को रुपए देने के बाद शादी के हिसाब में से मुझे ज्र में कटौती करनी पड़ी। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेजी बाजा भी नहीं गली के मिनी सुख पाएगी।”
आया, घर में औरतें बड़ी बिगड़ने लगीं, सब कुछ हुआ, फिर भी मेरा मानना है कि आज एक अद्भुत और दिव्य चाँदनी से हमारा शुभ समारोह रौशन हो उठा।
सीख – इस कहानी का शायद सबसे पावरफुल मैसेज है एक इंसान का दूसरे इसान से लगाव जहां उम्र, जाती, सोशल स्टेटस कोई मायने नहीं रखते. ये जुड़ाव उन सभी चीज़ों से ऊपर और परे हो जाता है. ये कहानी उस मासूम रिश्ते को दिखाती है जो एक काबुलीवाले और एक नन्ही बच्ची मिनी के बीच दोस्ती के रूप में पनपने लगी थी. काबुलीवाले को काम के सिलसिले में अपने घर से मीलों दूर रहना पड़ता था और मिनी में उसे अपनी बेटी की झलक नज़र आने लगी थी जिस वजह से उसे मिनी से लगाव हो गया था, वक़्त का इंसान और रिश्तों पर कैसा असर होता है वो इस कहानी में बखूबी दिखाया गया है. जहां बचपन में मिनी काबुलीवाले के साथ खुलकर हंसी मज़ाक किया करती थी, उसी मिनी में बड़े होने के बाद एक हिचक और शर्म पैदा हो गई थी या शायद इतने सालों की दूरी और एक दूसरे से ना मिलने के सी आ गई थी, जिससे उनका रिश्ता बिलकुल बदल गया था. कारण मिनी के मन में एक झिझक सी आ गई बचपन की पहली मुलाकात और जेल से निकलने के बाद की पहली मुलाक़ात में ज़मीन आसमान का फ़र्क आ गया था. अपनेपन की जगह झिझक ने ले ली धी, मिनी का जो रिएक्शन था उससे रहमत को एहसास हुआ कि उसकी अपनी बेटी के साथ भी उसका रिश्ता उसकी गैरमोजूदगी के कारण कितना बदल गया होगा और उसे उससे जुड़ने के लिए नई शुरुआत करनी होगी. एक गौर से सोचे तो ये कहानी हमें सीख देती है कि गुस्से में उठाया गया क़दम कभी-कभी इंसान की पूरी जिंदगी बर्बाद कर सकता है. अगर काबुलीवाले ने शांति बनाए रखते हुए उस आदमी को चाकू मारने के बजाय कोई उ ई और रास्ता अपनाया होता तो उसकी जिंदगी कुछ और होती. जेल में रहने के कारण ना वो अपने परिवार के लिए कुछ कर सका और ना उनके साथ वो अननोल पल बिता सका जो वक़्त अपने साथ ले गई थी. के। वक्त बिलकुल रेत की तरह होती है, लगातार हाथों से फिसलती रहती है और दुनिया की कोई ताकत गुज़रे वक्त को वापस नहीं ला सकती. से। जिंदगी में कई बार हमारे सामने भी ऐसी स्थिति आएगी जब हम अपना आप खो सकते है और गलत कदम उठा सकते हैं, उस वक्त शांति और समझदारी से काम लें क्योंकि एक गलत कदम पूरी जिंदगी बर्बाद कर सकता है.