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बाबू हरिदास के ईंट बनाने की भट्ठी शहर से मिली हुई थी ।
आसपास के देहातों से हज़ारों आदमी और औरतें रोज़ आते
और भट्ठी से ईंट सिर पर उठा कर ऊपर लाइन से सजाते।
एक आदमी भट्ठी के पास एक टोकरी में कौड़ियाँ लिए बैठा
रहता था। मजदूरों को ईंटों की संख्या के हिसाब से कौड़ियाँ
बाँटता। ईंटें जितनी ज्यादा होती उतनी ही ज्यादा कौड़ियाँ उसे मिलती थीं। इस लालच में बहुत से मजदूर अपनी क्षमता के बाहर काम करते। बूढ़ों और बच्चों को ईंटों के बोझ से अकड़े हुए देखना बहुत ही दुखद नज़ारा था। कभी-कभी बाबू हरिदास ख़ुद आकर कौड़ीवाले के पास बैठ जाते और ईंटें लादने को प्रोत्साहित करते। यह नज़ारा तब और भी दुखद हो जाता था जब ईंटों की आम से ज़्यादा ज़रुरत आ पड़ती। उसमें मजदूरी दुगनी कर दी जाती और मजदूर लोग अपनी क्षमता से दुगनी ईंटें ले कर चलते। एक-एक कदम उठाना मुशकिल हो जाता। उन्हें सिर से पैर तक पसीने में डूबे भट्टी की राख चढ़ाये ईंटों का पहाड़ सिर पर रखे, बोझ से दबे देख कर ऐसा लगता था मानो लालच का भूत उन्हें जमीन पर पटक कर उनके सिर पर सवार हो गया है। सबसे दुखदायी दशा एक छोटे लड़के की थी जो हमेशा अपनी उम्र के लड़कों से दुगनी ईंटें उठाता और सारे दिन जी तोड़ मेहनत और धीरज के साथ अपने काम में लगा रहता। उसके चेहरे पर ऐसी दीनता छायी रहती थी, उसका शरीर इतना कमज़ोर था कि उसे देख कर दया आ जाती थी।
दूसरे लड़के बनिये की दुकान से गुड़ ला कर खाते, कोई सड़क पर जाने वाले इक्कों और हवा गाड़ियों की बहार देखता और कोई अपनी अपनी लड़ाई में अपनी जीभ और बाहुबल के जौहर दिखाता, लेकिन इस गरीब लड़के को अपने काम से काम था। उसमें लड़कपन की न चंचलता थी, न शरारत, न खिलाड़ीपन, यहाँ तक कि उसके होंठों पर कभी हँसी भी न आती थी। बाबू हरिदास को उसकी दशा पर दया आती। कभी-कभी कौड़ीवाले को इशारा करते कि उसे हिसाब से ज़्यादा कौड़ियाँ दे दो। कभी-कभी वे उसे कुछ खाने को दे देते।
एक दिन उन्होंने उस लड़के को बुला कर अपने पास बैठाया और उसका हालचाल पूछने लगे। उन्हें पता चला कि उसका घर पास ही के गाँव में है। घर में एक बूढ़ी माँ के सिवा कोई नहीं है और वह माँ भी किसी पुराने रोग से बीमार रहती है। घर का सारा भार इसी लड़के के सिर था। कोई उसे रोटियाँ बनाकर देने वाला भी न था। शाम को जाता तो अपने हाथों से रोटियाँ बनाता और अपनी माँ को खिलाता था। जाति का ठाकुर था। किसी समय उसका कुल दौलत जायदाद से सम्पन्न था। लेन-देन होता था और चीनी का कारखाना चलता था। कुछ जमीन भी थी लेकिन भाइयों की होड़ और जलन ने उसे इतनी बुरी हालत में पहुंचा दिया कि अब रोटियों के लाले 11 हरिदास ने पूछा- “गाँव वाले तुम्हारी कुछ मदद नहीं करते ?”
थे। लड़के का नाम मगनसिंह था।
मगन- “वाह, उनका वश चले तो मुझे मार डालें। सब समझते
हैं कि मेरे घर में रुपये गड़े हैं”।
हरिदास ने उत्सुकता से पूछा- “पुराना घराना है, कुछ-न-कुछ तो होगा ही। तुम्हारी माँ ने इस बारे में तुमसे कुछ नहीं कहा?”
मगन- “बाबूजी नहीं, एक पैसा भी नहीं। रुपये होते तो अम्माँ इतनी तकलीफ क्यों उठातीं”।
बाबू हरिदास मगनसिंह से इतने खुश हुए कि मजदूरी के काम से निकालकर अपने नौकरों में रख लिया। उसे कौड़ियाँ बाँटने का काम दिया और भट्टी में मुंशी जी को हिदायत दे दी कि इसे कुछ पढ़ना-लिखना सिखाइए। अनाथ के भाग्य जाग उठे।
मगनसिंह बहुत मन लगाकर काम करता था और काफ़ी बुद्धिमान भी था। उसे कभी देर न होती, वो कभी छुट्टी न करता । थोड़े ही दिनों में उसने बाबू साहब का विश्वास जीत
लिया। लिखने-पढ़ने में भी माहिर हो गया। बरसात के दिन थे। भट्टी में पानी भरा हुआ था। काम धंधा बंद था। मगनसिंह तीन दिनों से हाजिर नहीं हुआ था। हरिदास को चिंता हुई, क्या बात है, कहीं बीमार तो नहीं हो गया, कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी ? कई आदमियों सेपूछताछ की, पर कुछ पता न चला ! चौथे दिन पूछते-पूछते मगनसिंह के घर पहुंचे। घर क्या था पुराने ठाटबाट के नाम पर टूटा फूटा घर रह गया था । उनकी आवाज सुनते ही मगनसिंह बाहर निकल आया। हरिदास ने पूछा- “कई दिन से आये क्यों नहीं, माँ का क्या हाल है ?” मगनसिंह ने भरे गले से जवाब दिया- “अम्माँ आजकल बहुत बीमार है, कहती है अब न बचूँगी। कई बार आपको बुलाने के लिए मुझसे कह चुकी है, पर मैं संकोच के मारे आपके पास न आता था। अब आप सौभाग्य से आ गये हैं तो जरा चल कर उसे देख लीजिए। उसकी इच्छा भी पूरी हो जाय”।
बाबू हरिदास के ईंट बनाने की भट्टी शहर से मिली हुई थी। आसपास के देहातों से हज़ारों आदमी और औरतें रोज़ आते और भट्टी से ईंट सिर पर उठा कर ऊपर लाइन से सजाते। एक आदमी भट्टी के पास एक टोकरी में कौड़ियाँ लिए बैठा रहता था। मजदूरों को ईंटों की संख्या के हिसाब से कौड़ियाँ बाँटता। इंट जितनी ज्यादा होती उतनी ही ज्यादा कौड़ियाँ उसे मिलती थीं। इस लालच में बहुत से मजदूर अपनी क्षमता के बाहर काम करते। बूढ़ों और बच्चों को ईंटों के बोझ से अकड़े हुए देखना बहुत ही दुखद नज़ारा था। कभी-कभी बाबू हरिदास खुद आकर कौड़ीवाले के पास बैठ जाते और ईटें लादने को प्रोत्साहित करते।
यह नज़ारा तब और भी दुखद हो जाता था जब ईटों की आम से ज़्यादा ज़रूरत आ पड़ती। उसमें मजदूरी दुगनी कर दी जाती और मजदूर लोग अपनी क्षमता से दुगनी ईंटें ले कर चलते। एक-एक कदम उठाना मुशकिल हो जाता। उन्हें सिर से पैर तक पसीने में डूबे भट्टी की राख चढ़ाये ईंटों का पहाड़ सिर पर रखे, बोझ से दबे देख कर ऐसा लगता था मानो लालच का भूत उन्हें जमीन पर पटक कर उनके सिर पर सवार हो गया है। सबसे दुखदायी दशा एक छोटे लड़के की थी जो हमेशा अपनी उम्र के लड़कों से दुगनी ईटें उठाता और सारे दिन जी तोड़ मेहनत और धीरज के साथ अपने काम में लगा रहता। उसके चेहरे पर ऐसी दीनता छायी रहती थी, उसका शरीर इतना कमज़ोर था कि उसे देख कर दया आ जाती थी। दूसरे लड़के बनिये की दुकान से गुड़ ला कर खाते, कोई सड़क पर जाने वाले इक्कों और हवा गाड़ियों की बहार देखता और कोई अपनी अपनी लड़ाई में अपनी जीभ और बाहुबल के जौहर दिखाता, लेकिन इस गरीब लड़के को अपने काम से काम था। उसमें लड़कपन की न चंचलता थी, न शरारत, न
खिलाड़ीपन, यहाँ तक कि उसके होंठों पर कभी हँसी भी न आती थी। बाबू हरिदास को उसकी दशा पर दया आती। कभी-कभी कौड़ीवाले को इशारा करते कि उसे हिसाब से ज़्यादा कौड़ियाँ दे दो। कभी-कभी वे उसे कुछ खाने को दे देते।
एक दिन उन्होंने उस लड़के को बुला कर अपने ठाया और उसका हालचाल पूछने । उन्हें चला कि उसका घर पास ही में है। घर में एक बूढ़ी माँ के सिवा कोई नहीं है और वह माँ भी किसी पुराने रोग से बीमार रहती है। घर का सारा भार इसी लड़के के सिर था। कोई उसे रोटियाँ बनाकर देने वाला भी न धा। शाम को जाता तो अपने हाथों से रोटियाँ बनाता और अपनी माँ को खिलाता था। जाति का ठाकुर था। किसी समय उसका कुल दौलतजा जायदाद से सम्पन्न था। लेन-देन होता था और चीनी कारखाना चलता था। कुछ जमीन थी लेकिन भाइयों की होड़ और जलन ने उसे इतनी बुरी हालत में पहुंचा दिया कि अब रोटियों के लाले थे। लड़के का नाम मगनसिंह था। हरिदास नहीं करते?”
कुछ सब समझते हैं कि मेरे घर में रुपये गड़े हैं”। मगन- “वाह, उनका बस चले तो मुझे मार हरिदास ने उत्सुकता से पूछा- “पुराना घराना है, कुछ-न-कुछ तो होगा ही। तुम्हारी माँ ने इस बारे में तुमसे कुछ नहीं कहा ?”
ने पूछा- गाँव वाले तुम्हारी
मदद नहीं
मगन- “बाबूजी नहीं, एक पैसा भी नहीं। रुपये होते तो अम्माँ इतनी तकलीफ दयों उठाती”।
बाबू हरिदास भगनसिंह से इतने खुश हुए कि मजदूरी के काम से निकालकर अपने नौकरों में रख लिया। उसे कोड़ियाँ बाँटने का काम दिया और भट्टी में मुंशी जी को हिदायत दे दी कि इसे कुछ पढ़ना-लिखना सिखाइए। अनाथ के भाग्य जाग उठे।
शिा और साहब का विश्वास जीत लिया। लिखने-पढ़ने में भी माहिर हो गया। मान के दिन न थे। भट्री में था। भट्टी में पानी भरा हुआ था। काम धंधा बंद था। मगनसिंह तीन दिनों से हाजिर नहीं हुआ धा। हरिदास को चिंता हुई, क्या बात है,
बरसात कहीं बीमार तो नहीं हो गया, कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी ? कई आदमियों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला ! चौथे दिन पूछते-पूछते मगनसिंह के घर पहुंचे। घर क्या था पुराने ठाटबाट के नाम पर टूटा फूटा घर रह गया था। उनकी आवाज सुनते ही मगनसिंह बाहर निकल आया। हरिदास ने पूछा “कई दिन से आये क्यों नहीं, माँ का क्या हाल है ?” मगनसिंह ने भरे गले से जवाब दिया- “अम्माँ आजकल बहुत बीमार है, कहती है अब न बचूँगी। कई बार आपको बुलाने के लिए मुझसे कह चुकी है, पर मैं संकोच के मारे आपके पास न आता था। अब आप सौभाग्य से आ गये हैं तो जरा चल कर उसे देख लीजिए। उसकी इच्छा भी पूरी हो जाय”।
हरिदास अंदर गये। वो घर अपनी कहानी खुद बयान कर रहा था, उसमें सुख सुविधा के लिए कोई चीज़ न थी। कंकड़, ईंटों के ढेर चारों ओर पड़े हुए थे। विनाश का जीता जागता रूप था सिर्फ दो कोठरियाँ रहने लायक थीं। मगनसिंह ने एक कोठरी की ओर उन्हें इशारे से बुलाया । हरिदास अदर गये तो देखा कि बूढ़ी औरत एक सड़े हुए लकड़ी के टुकड़े पर पड़ी कराह रही है। उनकी आहट पाते ही उसने आँखें खोली और अनुमान से पहचान गयी, बोली- “आप आ गये, बड़ी दया की। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी, मेरे अनाथ बच्चे के मालिक अब आप ही हैं। जैसे आपने अब तक उसकी रक्षा की है, वह आशीर्वाद उस पर हमेशा बनाये रखिएगा। मेरे दुःख के दिन पूरे हो
गये। इस मिट्टी को पार लगा दीजिएगा। एक दिन घर में लक्ष्मी का वास था। बुरे दिन आये तो उन्होंने भी आँखे फेर ली । पुरखों ने इसी दिन के लिए कुछ धिरती माँ को सौंप दी थी। जमा पूँजी धरती मा काम उसका बिल बहुत संभाल कर रखा था; पर बहुत दिनों से उसका कहीं पता नहीं चल रहा । मगन के पिता ने बहुत खोजा पर उन्हें न मिला, नहीं तो हमारी दशा इतनी बुरी न होती। आज तीन दिन हुए मुझे वह बिल अपने आप रद्दी कागजों में मिल गया। तब से उसे छिपा कर रखे हुए हैं, मगन बाहर है। मेरे सिरहाने जो बक्सा रखी है, उसी में वह बिल है। उसमें सब बातें लिखी हैं। उसी से ठिकाने का भी पता चलेगा। मौका मिले तो उसे खुदवा डालिएगा। मगन को दे दीजिएगा। यही कहने के लिए आपको बार-बार बुला रही थी। आपके सिवा मुझे किसी पर विश्वास न था। संसार से धर्म उठ गया
है। किसकी नीयत पर भरोसा किया जाय।
हरिदास ने बिल के बारे में किसी से न कहा। की ओर एक मंदिर के चबूतरे के नीचे है।
उनकी नीयत बिगड़ गयी। दूध में मक्खी पड़ गयी। बिल से पता चला कि पैसा उस घर से 500 डग पश्चिम
हरिदास उस दौलत को भोगना चाहते थे, पर इस तरह कि किसी को कार्नो-कान खबर न हो। ये काम मुश्किल था। नाम पर धब्बा लगने का बहुत बड़ा खतरा था जो संसार में सबसे बड़ा कलंक है। कितनी घोर नीचता थी। जिस अनाथ की रक्षा की, जिसे बच्चे की तरह पाला, उसके साथ विश्वासघात वो कई दिनों तक इसकी पीड़ा सहते रहे। अंत में मन में चल रहे सवाल जावाब ने विवेक को हरा दिया। मैंने कभी धर्म का त्याग नहीं किया और न कभी करूँगा। क्या कोई ऐसा आदमी भी है जिसका मन जीवन में एक बार भी भटका न हो। अगर है तो वह इंसान नहीं, देवता है। मैं इंसान हूँ। मुझे देवताओं
की गिनती में बैठने दावा नहीं करता. लाने जैसा होता है। हरिदास शाम को सैर करने के लिए घर से निकल जाते। जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता तो मंदिर के मन को समझाना बच्चे को फुसलाने
चबूतरे आ बैठते और एक कुदाली उसे खोदते। दिन में दो-एक बार इधर-उधर ताक-झाँक करते कि कोई चबूतरे के पास खड़ा तो नहीं है। रात के सन्नाटे और ठहराव में उन्हें अकेले बैठे ईंटों को हटाते हुए उतना ही डर लगता था जितना किसी ‘भ्रष्ट वैष्णव को मांस मछली खाने से होता है। चबूतरा लम्बा-चौड़ा था। उसे खोदने में एक महीना लग गया और अभी आधी मंजिल भी तय न हुई थी इन दिनों उनकी दशा उस आदमी की-सी थी जो कोई मंत्र जप रहा हो। उनके मन पर चंचलता छायी रहती। आँखों की रौशनी तेज़ हो गयी थी। वो बहुत गुम-सुम रहते, मानो ध्यान में हों। किसी से बातचीत न करते, अगर कोई छेड़ कर बात करता तो झुँझला पड़ते। भट्टी की ओर बहुत कम जाते। समझदार और सोचने विचारे वाले आदमी थे। आत्मा बार-बार इस कुटिल काम से भागती, वो फैसला करते कि अब चबूतरे की ओर न जाऊँगा, पर शाम होते ही उन पर एक नशा-सा छा जाता, बुद्धि-विवेक का अपहरण हो जाता। जैसे बीत गया। कुत्ता मार खाकर थोड़ी देर के बाद टुकड़े के लालच में जा बैठता है, वही दशा उनकी थी। यहाँ तक कि दूसरा महीना भी
अमावस की रात थी। हरिदास दिल में जमी हुई दुष्टता के कालिख के समान चबूतरे पर बैठे हुए थे। आज चबूतरा खुद जाएगा । जरा देर तक और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई चिंता नहीं। घर में लोग चिंतित हो रहे होंगे। पर अभी पता चल जाएगा कि चबूतरे के नीचे क्या है। पत्थर का तहखाना निकल आया तो समझ जाऊँगा कि दौलत ज़रूर होगी। तहखाना न मिले तो मालूम हो जायगा कि सब धोखा ही धोखा है। कहीं सचमुच तहखाना न मिले तब तो अच्छा मज़ाक बना । मुफ्त में उल्लू बन गया पर नहीं, कुदाली खट-खट बोल रही थी। हाँ, पत्थर की चट्टान है। उन्होंने टटोल कर देखा। भ्रम दूर हो गया। सच में वहाँ चट्टान थी। तहखाना मिल गया, लेकिन हरिदास खुशी से उछले-कूदे नहीं।
आज वे लौटे तो उनके सिर में दर्द था। वो समझे थकान है। लेकिन यह थकान नींद से न गयी। रात को ही उन्हें ज़ोर से बुखार हो गया। लीन दिन तक बुखार में पड़े रहे। किसी दवा से फायदा न हुआ।
बीमारी की इस दशा में हरिदास को बार-बार भ्रम होता था कहीं यह मेरे लालच का दंड तो नहीं है। जी में आता था, मगनसिंह को बिल दे ढूँ और माफ़ी की विनती करू; पर भंडाफोड़ होने का डर मुँह बंद कर देता था। न जाने ईसा ( jesus christ) के भक्त अपने पादरियों (father) के सामने कैसे अपने जीवन भर के पापों की कथा सुनाया करते थे।
हरिदास की मौत के बाद यह बिल उनके सुपुत्र । प्रभुदास के हाथ लगा। बिल मगनसिंह के पुरखों का लिखा हुआ था, इसमें रती भर शक न था। लेकिन उन्होंने सोचा पिताजी ने कुछ सोच कर ही इस रास्ते पर पग रखा होगा। वे नीति को मानने वाले सच्चे आदमी थे। उनकी नीयत पर कभी किसी को शक नहीं हुआ। जब उन्होंने इस व्यवहार को घृणित नहीं समझा तो मेरी क्या गिनती है। कहीं यह दौलत हाथ आ जाय तो कितने सुख से जीवन बीतेगा। शहर के रईसों को दिखा दूँ कि पैसे का सही इस्तेमाल किस तरह होना चाहिए। बड़े-बड़ों का सिर नीचा कर दूंगा । कोई आँखें न मिला सकेगा। उसका
इरादा पक्का हो गया।
शाम होते ही वे घर से बाहर निकले। वही समय था, वही चौकन्नी आँखें थीं और वही तेज कुदाली थी। ऐसा लग रहा था मानो हरिदास की आत्मा इस
नये भेष में अपना काम कर रही है।
चबूतरे की ज़मीन पहले ही खुद चुकी थी। अब पक्का और मज़बूत तहखाना था, जोड़ों को हटाना मुश्किल था। पुराने जमाने का पक्का मसाला था; कुल्हाड़ी उचट-उचट कर लौट आती थी। कई दिनों में ऊपर की दरारें खुली, लेकिन चट्टानें ज़रा भी न हिलीं। तब वह लोहे की छड़ से काम लेने लगे, लेकिन कई दिनों तक जोर लगाने पर भी चट्टानें न खिसकी। सब कुछ अपने ही हाथों करना था। किसी से मदद न मिल सकती थी। यहाँ तक कि फिर
वही अमावस्या की रात आयी! को जोर लगाते बारह बज गये और चट्टानें किस्मत के लकीरों की तरह अटल थीं। प्रभुदास की पर, आज इस समस्या को हल करना ज़रूरी था। कहीं तहखाने पर किसी की नज़र पड़ जाय तो मेरे मन की इच्छा मन ही में रह जाय।
वह चट्टान पर बैठकर सोचने लगे क्या करूँ, बुद्धि कुछ काम नहीं कर रही थी। अचानक उन्हें एक तरकीब सूझी, क्यों न बारूद से काम लूँ ? वो इतने बेचैन हो रहे थे कि कल पर सके। सीधे बाजार की तरफ चले, दो मील का रास्ता हवा की तरह तय किया। पर वहाँ पहुँचे तो दुकाने बन्द हो चुकी थी. बारूद बेचने वाला सवाल करने लगा. बारूद इस समय नहीं मिल सकती। सरकारी हुक्म नहीं है। तुम कौन हो ? इस वक्त बारूद ले
कर क्या करोगे ? न भैया; कोई वारदात हो तो मुफ्त में फंस जाऊंगा, तुम्हें कौन पूछेगा ? प्रभुदास के धीरज की कभी इतनी गंभीर परीक्षा न हुई थी। वे अंत तक उसे मनाते रहे, यहाँ तक कि पैसों की सुरीली झंकार ने उसे काबू में कर लिया।
प्रभुदास यहाँ चले तो ज़मीन पर पाँव न पड़ते थे।
चट्टान उड़ गयी। दास मंदिर के पास पहुँचे। चट्टानों की दराजों में बारूद रख आग लगा दिया और दूर भागे। एक पल में बड़े अँधेरा तहखाना सामने था, मानो कोई पिशाच उन्हें निगल जाने के लिए मुँह खोले हुए है।
के दो बजे थे।
जोर का धमाका हुआ।
सुबह का समय था। प्रभुदास अपने कमरे में लेटे हुए थे। सामने लोहे के बक्से में दस हजार पुरानी मुहरें रखी हुई थीं। उनकी माँ सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी । प्रभुदास बुखार की आग रहे थे। करवटें बदलते थे, कराहते थे, हाथ-पाँव पटकते थे; पर आँखें लोहे के बवसे की ओर लगी हुई थीं। इसी में उनके जीवन की आशाएँ बन्द थीं।
मगनसिंह अब भट्टी का मुंशी इसी घर में रहता था। आकर बोला, भट्टी चलिएगा? गाड़ी तैयार कराऊँ ?” प्रभुदास ने उसके चेहरे की ओर ऐसे देखा जैसे माफ़ी मांग रहे हों और बोले नहीं, “मैं आज न चलँगा, तबीयत अच्छी नहीं है। तुम भी मत जाओ”।
मगनसिंह उनकी दशा देख कर डाक्टर को बुलाने चला। दस बजते-बजते प्रभुदास का चेहरा पीला पड़ गया। आँखें लाल हो गयीं। माँ ने उसकी ओर देखा तो दुःख से तड़प उठी। बाबू हरिदास की अंतिम दशा उनकी आँखों के सामने घूमने लगी । उन्हें लगा कि वो दुखद घटना दोबारा घटने वाली है वो देवताओं की मन्नत माग रही थीं, लेकिन प्रभुदास की आँखें उसी लोहे के बक्से की ओर लगी हुई थीं, जिस पर उन्होंने अपनी आत्मा अर्पण कर दी थी। उनकी पत्नी आकर उनके पास बैठ गयी और बिलख-बिलख कर लगी। प्रभुदास की आँखों से भी आँसू बह रहे थे, पर वे आँखें उसी लोहे के बक्से की ओर निराशा भरे भाव से देख रही थीं।
डाक्टर ने आकर देखा, दवा दी और चला गया, पर दवा का असर उल्टा हुआ। प्रभुदास के हाथ-पाँव ठंडे हो गये, चेहरा मुरझा गया, दिल की धड़कन धीमी पड़ गयी, पर आँखें बक्से की ओर से न हटीं।
मुहल्ले के लोग जमा हो गये। पिता और बेटे के स्वभाव और चरित्र पर बातें होने लगीं। दोनों नम्रता और विनय के पुलले थे। किसी को भूल कर भी कड़ी बात न कही। । प्रभुदास का पूरा शरीर ठंडा हो गया था। जान थी तो सिर्फ आँखों में। वे अब भी उसी लोहे के बक्से की ओर तृप्ति और संतोष के भाव से देख रही थीं।
घर में कोहराम मचा हुआ था। दोनों औरतें पछाड़ें खा-खा कर गिरती थीं। मुहल्ले की औरतें उन्हें समझाती थीं। कई दोस्त आँखों पर रूमाल जमाये हुए
थे। जवानी की मौत संसार का सबसे दुखद, सबसे अस्वाभाविक और भयंकर नज़ारा है। यह बिजली की मार है, विधाता की बेरहम लीला है। प्रभुदास
का सारा शरीर बेजान हो गया था, पर आँखें जीवित थीं वे अब भी उसी बक्से की ओर लगी हुई थीं। जीवन ने लालच का रूप धारण कर लिया था। सांस निकलती है, पर आस नहीं निकलती।
इतने में मगनसिंह आकर खड़ा हो गया। प्रभुदास की निगाह उस पर पड़ी। उन्हें ऐसा लगा मानो उनके शरीर में फिर खून का बहाव होने लगा हो। अंगों में जान और चुस्ती फुर्ती की झलक दिखायी दी उन्होंने इशारे से मगन सिंह को अपने मुँह के पास बुलाया, उसके कान में कुछ कहा, एक बार लोहे के बक्से की ओर इशारा किया और आँखें उलट गयीं, जान निकल गई।
सीख इस कहानी में मुंशीजी ने ये सीख दी है कि विश्वासघात और लालच का अंजान कितना बुरा होता है. जब कोई काम बुरी मशा से किया जाए तो मन हमेशा बेचैन रहता है. उस आदमी की आत्मा उसे धिक्कारने लगती है जिससे उसका सुख चैन छीन जाता है और वो अपनी ही नज़रों में गिर जाता है, हरिदास वैसे तो दयालु और भले आदमी थे लेकिन इतनी दौलत देखकर उनका मन भटक गया था और इस बुरे कर्म का नतीजा उनके साथ-साथ उनके
बेटे को भी भुगतना पड़ा. प्रभुदास की जान भी ग्लानी के कारण अटकी हुई थी और अंत में मगन सिंह को उसकी अमानत सौपने के बाद प्रभुदास को
सुकून मिला और उनकी तकलीफ़ का अंत भी हुआ,
एक और बात ध्यान देने वाली ये है कि कभी किसी पर बिना सोचे समझे आँखें बंद कर के भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि इंसान की नीयत खराब होते देर नहीं लगती इसलिए अपनी सावधानी बेहद जरूरी है. हमारी जिंदगी में कभी-कभी ऐसे हालात सामने आते हैं जब हम कमज़ोर पड़ सकते हैं तो उस वक़्त उसके परिणाम के बारे में ज़रूर सोचे क्योंकि वो आपकी जिंदगी बर्बाद करने बचा सकता है.