यह किसके लिए है
- टीचर्स पैरेंट्स और स्टुडेन्ट्स के लिए।
-वे जो शिक्षा को अलग नज़र से देखना चाहते हैं।
-वैजो बच्चों को आने वाले वक्त के लिए तैयार करना चाहते हैं।
लेखक के बारे में
केन रोबिनसन (Ken Robinson) एक लेखक स्पीकर और एक एजुकेशनल एडवाइज़र हैं। वे यूनियर्सिटी ऑफ़ यारविक (Univerarty of Warvwick) में एक प्रोफेसर हैं। उन्होंने इंग्लैंड की सरकार को स्कूल्स में काला पढ़ाने की सलाह दी। 2006 में उन्होंने टेड की सबसे ज्यादा देखे जानी याली प्रेजेंटेशन दी जिसका नाम था- हाउ स्कूल्स किल फ्रिपटिविटि (HowSchioolsKil Creativity)
लोउ शरोनिका (Lou Aronica) एक अमेरिकन एडिटर हैं जिन्होंने चार उपन्यास लिखे हैं। उन्होंने कई लेखकों के राथ बहुन सारी नॉन फिक्शन किताबें भी लिखी है।
क्रिएटिव स्कूल क्रांति के साथ जुड़ें।
ज्यादातर स्कूल्स में बच्चों को इस तरह से पढ़ाया जाता है जिससे वो बोर हो जाते हैं। स्कूल्स मज़ेदार नहीं होते। लेकिन हम क्रिएटिव स्कूल्स की मदद से इन्हे मजेदार बना सकते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि हम दो घंटे की जगह चार घंटे आर्ट की क्लास चलाएँ। इसका मतलब है कि हम स्कूल्स को पूरी तरह से बदल कर एक नए तरीके से बच्चों को पढ़ायें।
ज्यादातर बच्चों को स्कूल के सख्त नियम और परीक्षा नहीं पसंद हैं। हम इन्हें सुधार कर हर एक बच्चे के सौखने के लिए एक माहौल तैयार करेंगे। इससे बच्चे टीचर पेरेंट्स
और स्कूल्स, सभी लोग सीख सकते हैं।
इसके अलावा आप सीखेंगे कि
- हमारे स्कूल सुबरस्वानों जैसे क्यों लगते हैं।
-इंडिया के एक गरीब इलाके में लगाए गए कम्प्यूटर से हमें बच्चों के स्वभाव के बारे में क्या जानने को मिलता है।
-स्टूडेंट्स के द्वारा कैसे एक स्कूल चलाया जाता है।
इंडस्ट्री को जिस चीज़ की ज़रूरत है, स्कूल में वही पढ़ाया जाता है।
जिन स्कूल्स को हम आज अपने आस पास देखते हैं, उन स्कूल्स में इंडस्ट्री की ज़रुरतों को ध्यान में रख कर बच्चों को शिक्षा दी जाती है जिससे वो उन कंपनियों के लिए एक अच्छे एप्लोई बन सके। इन स्कूल्स में बच्चों के हुनर को निखारा नहीं जाता।
18वीं और 19वीं शताब्दियों में मॉडर्न स्कूल्स का जन्म हुआ। इससे पहले सिर्फ कुछ लोगों को ही फॉर्मल एजुकेशन दी जाती थी। लेकिन इंडस्ट्रीज के आने से इन स्कूल्स की मांग बढ़ गई। इंडस्ट्री में बहुत सारे ऐसे वर्कर्स की जरुरत थी जिन्हें पढ़ना लिखना और मैथ्स सॉल्व करता आता हो।
इसलिए पश्चिमी देशों की सरकार ने ऐसे स्कूल्स बनाए जहाँ पर फैक्ट्री में काम करने वाले वर्कर्स को पढ़ाया जाए। स्कूलों को भी एक फैक्ट्री की तरह बनाया गया जहाँ पर एक ही तरह के लोगों को कंपनी में काम करने के लिए तैयार किया जाता था।
इन स्कूल्स को एक स्टैन्डर्ड मूवमेंट से जोड़ दिया गया। ये स्टैन्डर्ड मुवमेंट्स स्कूल्स को काबू करने के लिए बड़े बड़े कारोबारियों द्वारा चलाए जाते थे।
इतकी शुरुवात 1980 के दशक में ही हो चुकी थी लेकिन 2000 में इस मूवमेंट को बढ़ावा मिला, जब युनाइटेड स्टेट्स, यूनाइटेड किंगडम और जर्मनी, पीसा टेस्ट (Program for International Student Assessment Test) में बुरी तरह से फेल हो गए।
अपने खराब रिज़ल्ट को देखकर इन देशों ने ऐसे तरीकों की तलाश की जिससे ये अपने स्टूडेंट्स की परफॉरगेंस को सुधार सके। इसलिए उन्होंने ऐसे स्कूल्स को बड़ावा देना शुरू किया जिसमें उनके जरुरतों के हिसाब से बच्चों को पढ़ाया जाए।
इन स्कूल्स में बच्चों के टेस्ट मावस के हिसाब से उन्हें प्रेड्स दिए जाते हैं। स्टूडेंट्स के ग्रेस के हिसाब से उन्हें इंडस्ट्री की अलग अलग ज़रूरतों के लिए ट्रेन किया जाता है। मतलब अच्छे ग्रेड्स वाले स्टुडेन्ट्स को इंजीनियर और खराब ग्रेड्स वाले स्टुडेन्ट्स को वर्कर बनने की ट्रेनिंग दी जाती है।
सबको एक तरह की शिक्षा देने से बहुत सी समस्याएं हो सकती हैं।
अगर आप एक नया कंप्यूटर कुछ लोगों को दें तो आप देखेंगे की हर एक आदमी उसे अलग तरीके से इस्तेमाल करना सीखता है। कुछ लोग पहले उसका मैनुअल पढेंगे, कुछ लोग इंटरनेट से उसके बारे में जानकारी निकालेंगे और कुछ लोग उसे ओपेन करके उसके साथ खेलने लगेंगे।
इससे हमें ये पता चलता है कि हर आदमी की अपनी सगझ होती है और वो उसी समझ की मदद से चीज़ों को सीखता है। लेकिन स्कूल्स के साथ ऐसा नहीं है। स्कूल्स में बच्चों को ऐसे पड़ाया जाता है जैसे उन सबके सीखने का तरीका एक ही हो। उन सभी को क्लास में जबरदस्ती बैठा कर टीचर की बातें सुनाई जाती हैं।
हमारे स्कूल्स बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से अलग अलग क्लास में डालते है न की उनके हुनर के हिसाब से। जरूरी नहीं कि हर बच्चा एक ही चीज़ को एक ही उम्र में सीख सके। कुछ बच्चे छोटी उम्र से ही मैथ्स में अच्छे होते हैं लेकिन उन्हें पढ़ने में परेशानी होती है जबकि दूसरों के साथ बिल्कुल उल्टा होता है।
अगर हम एक ऐसा एजुकेशन सिस्टम बनाएंगे जहां पर बच्चों को उनके एक्सरसाइज और टेस्ट मार्क्स के हिसाब से जज़ किया जाए तो हम उनकी क्रिएटिविटी को खत्म कर देंगे। इससे हम उनकी सीखने की इच्छा को मार देंगे।
2012 में अमेरिका के हाई स्कूल के 17% स्टूडेंट्स अच्छे से लिख और पढ़ नहीं पा रहे थे जबकि 18 से 24 की उम्र के लड़के लड़कियों में से 27% बच्चे मैप पर पैसिफ़िक ओशियन नहीं दिखा पाए। जब सिंगिंग या क्रिएटिव वर्किग की बात आती है तो ये बच्चे बहुत अच्छा परफॉर्म करते हैं, लेकिन स्टैन्डर्ट मूवमेंट के स्कूल्स की मांग की वजह से इन बच्चों का टैलेंट खत्म होता जा रहा है।
इसकी वजह से ज्यादातर बच्चे नौकरी नहीं पाते और अपनी ही सोसाइटी में एक केदी बनकर रह जाते हैं। इस माडर्न एजुकेशन सिस्टम में ज्यादातर बच्चे फेल हो जाते है और अगर वो किसी तरह से पास भी होते है तो भी उन्हें बेरोज़गारी से झूझना पड़ सकता है।
इतनी सारी समस्याओं को हल करने के लिए हमें कुछ कदम उठाने होंगे।
हम एजुकेशन को आर्गेनिक फार्मिंग के चार सिद्धांतों की मदद से सुधार सकते हैं।
हमारा एजुकेशन सिस्टम मवेशी पलने के जैसा है। जब तक जानवर तेजी से बढ़ रहे हैं, तब तक किसानों को कोई परेशानी नहीं होती। और अपने फायदे से मतलब है। इसी तरह हमारे एजुकेशन सिस्टम को भी सिर्फ मार्क्स और डिग्री से ही मतलब है।
किसानों को सिर्फ जानवरों के बड़े होने हमने देखा कि कैसे हमारे एजुकेशन सिस्टम से हमें नुक्सान हो रहा है। हम इससे हो रही परेशानियों से निपटने के लिए आर्गेनिक फार्मिंग के सिद्धांतों का इस्तेमाल कर सकते हैं।
आर्गेनिक फार्मिंग के चार सिद्धांत हैं- हेल्थ, इकोलॉजी, फेयरनेस और केयर। इन सभी सिद्धान्तों का इस्तेमाल करने से हम सबका का फायदा होता है। इसमें पौधों को नेचुरल तरीकों से बड़ा किया जाता है, जिससे हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को कोई नुक्सान नहीं होता।
जब हम इन सिद्धान्तों को एजुकेशन में लगाते है तो हमें वैसे ही रिजल्ट मिलते हैं। मॉडर्न एजुकेशन सिस्टम में बच्चों को सिर्फ पड़ने लिखने या खेल कूद में अव्या बनाया जाता है जबकि आर्गेनिक स्कूल्स में बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से एक होशियार और सेहतमंद इंसान बनाया जाता है।
मार्गेनिक एजुकेशन हर स्टूडेंट की कार्बिलीलत को निस्वारने के लिए इकोलॉजिकल सिस्टम का भी इस्तेमाल किया जाता है। ग्रेंग प्राइमरी स्कूल, नॉटिंघम एक ऐसा स्कूल है जिसे बच्चे एक शहर की तरह चलते हैं। इस स्कूल में एक कॉउन्सिल, एक न्यूज़सपेपर और एक फूड मार्केट है जिसमें बच्चे अलग अलग काम कर के बहुत सारी चीज़ सीखते हैं।
आर्गेनिक एजुकेशन से हम हर एक बच्चे पर ध्यान दे सकते हैं। यहाँ के टीचर बच्चों के सीखने के लिए अलग अलग माहोल तैयार करते हैं और प्यार से उनकी देखभाल करते हैं। मगर क्या आप एक ऐसे स्कूल के टीचर हैं जहां आर्गेनिक एजुकेशन नहीं है? अपने स्टूडेंट्स को अच्छे से पढ़ाने के लिए टीचर को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे उनके स्टूडेंट्स बोर न हो? आने वाले सबक में हम इन सवालों पर नज़र डालेंगे।
बच्चों में सीखने की भूख होती है। टीचर्स का काम है कि वो बच्चों सही रास्ता दिखाएँ।
बच्चों में सीखने की भूख होती है। वो दो या तीन साल के होने तक अपनी भाषा को अच्छे से बोलना सीख लेते हैं। वो किसी नयी चीज़ को देखकर उत्सुक हो जाते हैं और उसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर आप किसी क्लास में जाएँ, तो आप देखेंगे कि वहाँ पर बच्चे बोर हो जाते हैं और उनका कुछ भी सीखने का मन नहीं करता। उन्हें जिस तरह से सब कुछ सिखाया जाता है ये उसी का नतीजा है।
छोटे बच्चों के साथ साथ बड़े बच्चों में भी ये भूख होती है। सुगाता मित्र न्युकेस्टल यूनिवर्सिटी (Newcastie University) में टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर हैं। उन्होंने इंडिया के एक गरीब इलाके में कंप्यूटर लगवाया। उस कंप्यूटर में सब कुछ इंग्लिश भाषा में लिखा था जो वहाँ के बच्चे नहीं जानते थे। लेकिन कुछ ही घंटों में पाया गया कि बच्चे उस कंप्यूटर को हस्तेमाल करना सीख गाए। उन्हें गेम खेलना और गाना रिकॉर्ड करना आ गया।
इससे हम ये कह सकते हैं कि बच्चे सीखने के लिए शुरुवात से ही उत्सुक रहते हैं और एक टीचर का काम है कि वो इस उत्सुकता को बनाए रखे। उसे एक माली की तरह होना चाहिए जो पौधों को जबरदस्ती बड़ा न करके उन्हें प्यार से बड़ा करता है।
टीचर को बच्चों की हस उत्सुकता का इस्तेमाल कर उन्हें चीजों को सीखना चाहिए। जैसे कि अगर किसी बच्चे को बेसबॉल खेलना पसंद है तो टीचर को उसे फिजिक्स के बो रुल्स बताने चाहिए जिससे वो कर्वबॉल को आसानी से हिट कर सका अच्छे टीचर्स जानते हैं कि उनके बच्चे अलग अलग तरीकों से सीखते हैं। उन्हें पता है कि कुछ बच्चे बताने से सीख जायेंगे जबकि दूसरों को कर के दिखाना होगा। टीचर्स को अपने बच्चों के अटर ये विश्वास जगाना चाहिए कि वो बहुत कुछ कर सकते हैं। वो खुद पर विश्वास कर और शांत रह कर सब कुछ हासिल कर सकते हैं।
स्कूल्स को बच्चों में 8 अलग अलग क्षमताएं विकसित करनी चाहिये।
बच्चों को पढ़ाते वक्त हमें थे ध्यान में रखना चाहिए कि हम अपने बच्चों को क्या सिखाना चाहते हैं। हमें उन्हें फ्रेंच और एल्जेब्रा जैसे सब्जेक्ट न पढ़ा कर उनमें क्षमताएँ विकसित करनी चाहिये। हम नहीं जानते कि भविष्य में क्या होने वाला है। हम ये भी नहीं जानते कि आने वाले समय में ये सब्जेक्ट्स बच्चों के काम आयेंगे या नहीं। इसलिए हमें बच्चों में क्षमताए विकसित कर उन्हें हर हालत के लिए वैयार करता वाहिये। स्कूल्स को बच्चों में 8 क्षमताएं विकसित करना चाहिये। इन्हे 8C भी कहा जाता जिसमें पहला नाम उत्सुक्ता यानि curiosity का आता है। हमें बच्चों को दुनिया पर ध्यान देकर उन चीज़ों के बारे में सवाल पूछने के लिए कहना चाहिये जो उन्हें नहीं समझ में आ रहा या जिसके बारे में वो जानना चाहते हैं।
स्कूल्स को बच्चों में क्रिएटिविटी (Creativity) यानि रचनात्मकता लानी चाहिए जिससे वो खुद के नए आइडियाज़ बनाकर उन्हें अपनी जिन्दगी में इस्तेमाल कर सकें। हमने आज तक जितनी भी खोजें की हैं सब क्रिएटिविटी के ही नतीजे हैं। बच्चों के अदर क्रिएटिविटी लाने से हम उन्हें आने वाली नयी नयी परेशानियों से निपटने के काबिल बना सकते हैं।
तीसरी क्षमता है आलोचना यानि Criticism हमें बच्चों को हर चीज़ पर सवाल उठाने और उसकी अच्छाईयां और बुराइयां पहचानने के काबिल बनाना चाहिए जिससे वो अलग अलग हालातों में सही और गलत का फैसला कर सकें।
हम सभी स्कूल्स से बहुत सारी उम्मीदें करते हैं। एक स्कूल के चार काम होते हैं
बच्चों के हुनर को निखार कर उन्हें उनके मनपसंद काम में माहिर बनाना।
-बच्चों में क्रिएटिविटी लाना जिससे हमारे देश को अच्छे और क्वेलिंफाइड वर्कर्स मिल सके।
बच्चों को अपनी और दूसरों की सभ्यता और संस्कृति की इजात करना सिस्ाना ।
बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनाना।
इसलिए हमें बच्चों के अंदर दूसरी क्षमता विकसित करनी चाहिये। आइये देखते हैं की बाकी की पाँच क्षमताएँ क्या हैं।
बात चीत करना का हुनर यानि communication skills: हमें बच्चों को अपने विचारों को दूसरों के सामने रस्वने के काबिल बनाना चाहिये। हमें उन्हें अपने विचारों को स्पीच, गाने और आर्ट की मदद से लोगों तक पहुंचाने के काबिल बनाना चाहिये।
एक साथ काम करना यानि Collaboration: हमें बच्चों को एक साथ टीम में काम करना सिखाना चाहिए न की उन्हें एक दूसरे से कम्पटीशन करना अच्छे स्कूल्स बच्चों को टीम प्रोजेक्ट दिए जाते हैं जिसमें बच्चे एक दूसरे के साथ मिलकर किसी समस्या को सुलझाने की कोशिश करते हैं।
दयालुता यानि Compassion: हमें बच्चों को दूसरों की भावनाओं को समझने के काबिल बनाना चाहिये। उन्हें पता होना चाहिए कि परेशान होना क्या होता है जिससे वो कभी दूसरों को परेशान न करें बल्कि उनकी मदद करें।
मानसिक संतुलन बनाना यानो composure: हमें बच्चों को ध्यान के जरिये खुद पर काबू पाना सीखना चाहिए जिससे वो अपने अदर की भावनाओं को समझा कर उनपर काबू पा सकें।
नागरिकता यानि Citizenship: हमें बच्चों को राजनीति भी सिखानी चाहिए जिससे बो ये जान सकें कि उनका देश कैसे चलता है। इससे वो अपने देश के हित के लिए काम करना सीख कर अन्याय को खत्म करने की कोशिश कर सकते हैं।