BASSI BHAAT ME KHUDA KA SAJHA by Rabindranath Tagore.

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शाम को जब दीनानाथ ने घर आकर गौरी से कहा, कि “मुझे एक ऑफिस में पचास रुपये की नौकरी मिल गई है”, तो गौरी खिल उठी। देवताओं में उसका विश्वास और भी गहरा हो गया । इधर एक साल से बुरा हाल था। न कोई रोजी थी न रोजगार। घर में जो धोड़े-बहुत गहने थे, वह बिक चुके थे। मकान का किराया सिर पर चढ़ा हुआ था। जिन दोस्तों से कर्ज मिल सकता था, सबसे ले चुके थे। साल-भर का बच्चा दूध के लिए तड़प रहा था। एक वक्त का खाना मिलता, तो दूसरे वक़्त की चिन्ता होती।

तकाजों के मारे बेचारे दीनानाथ का घर से निकलना मुश्किल था। घर से निकला नहीं कि चारों ओर से शोर मच जाता “वाह बाबूजी, वाह ! दो दिन का वादा करके ले गये और आज दो महीने से सूरत नहीं दिखायी! भाई साहब, यह तो अच्छी बात नहीं, आपको अपनी जरूरत का खयाल है, मगर दूसरों की जरूरत का जरा भी खयाल नहीं? इसी से कहा है- दुश्मन को चाहें कर्ज दे दो, दोस्त को कभी न दो”। दीनानाथ को ये बातें तीर सी लगती थी और उसका जी चाहता था कि जीवन का अन्त कर डाले, मगर पत्नी और छोटे मासूम बच्चे का मुँह देखकर कलेजा धाम के रह जाता। आज भगवान् ने उस पर दया की और बुरे दिन कट गये।

गौरी ने खुश होकर कहा, मैं कहती थी कि नहीं, भगवान् सबकी सुध लेते हैं और कभी-न-कभी हमारी भी सुध लेंगे, मगर तुम्हें विश्वास ही न होता था,

बोली “अब तो भगवान की दया के कायल हुए? दीनानाथ ने ज़ोर देकर कहा- “यह मेरी दौड़-धूप का नतीजा है, इसमें भगवान की क्या दया? भगवान् को तो तब जानता, जब कहीं छप्पर फाड़कर पैसे भेज देते”।

लेकिन मुँह से चाहे कुछ कहे, भगवान् के प्रति उसके मन में श्रद्धा जाग गयी थी।

दीनानाथ का मालिक बड़ा ही रूखा आदमी था और काम में बड़ा चुस्त। उसकी उम्र पचास के लगभग थी और सेहत भी अच्छी न था, फिर भी वह ऑफिस में सबसे ज्यादा काम करता। मजाल न थी कि कोई आदमी एक मिनट की भी देर करे, या एक मिनट भी समय के पहले चला जाय। बीच में 15 मिनट की छुट्टी मिलती थी, उसमें जिसका जी चाहे पान खा ले, या सिगरेट पी ले या खान पान कर ले। इसके अलावा एक मिनट की छुट्टी न मिलती थी। वेतन पहली तारीख को मिल जाता था। त्योहारों में भी दफ्तर बंद रहता था और तय समय के बाद कभी काम न कराया जाता था। सभी काम करने वालों को बोनस मिलता था और प्रॉविडेन्ट फंड की भी सुविधा थी। फिर भी कोई आदमी खुश न था। काम समय की पाबन्दी की किसी को शिकायत न थी। शिकायत थी सिर्फ मालिक के रूखे व्यवहार की। कितना ही जी लगाकर काम करो, कितना ही जान दे दो, पर उसके बदले धन्यवाद का एक शब्द भी न मिलता था। काम करने वालों में और कोई सन्तुष्ट हो या न हो, दीनानाथ को मालिक से कोई शिकायत न थी। वह डांट और फटकार सुनकर भी शायद उतनी ही मेहनत से काम करता। साल-भर में उसने कर्ज चुका दिये और कुछ पैसे जमा भी कर लिया। वह उन लोगों में था, जो थोड़े में भी संतुष्ट रह सकते हैं अगर नियमित रूप से मिलता जाय। एक रुपया भी किसी खास काम में खर्च करना पड़ता, तो पति पत्नी में घंटों सलाह होती और बड़े झाँव-झाँव के बाद कहीं मंजूरी मिलती थी। बिल गौरी की तरफ से पेश होता, तो दीनानाथ विरोध में खड़ा होता। दीनानाथ की तरफ से पेश होता, तो गौरी उसकी कड़ी निंदा करती। बिल को पास करा लेना पेश करने वाले की जोरदार बकालत पर निर्भर करता था। सर्टिफाई करने वाली कोई तीसरी शक्ति वहाँ न थी। का पास और दीनानाथ अब पक्का आस्तिक हो गया। भगवान् की दया या न्याय में अब उसे कोई शक न था। रोज़ पूजा और गीता का पाठ करने लगा। एक दिन उसके एक नास्तिक दोस्त ने जब भगवान की बुराई की, तो उसने कहा- “भाई, इसका तो आज तक फेसला नहीं हो सका कि भगवान हैं या नहीं। दोनों पक्षों के पास मज़बूत दलीलें मौजूद थीं , लेकिन मेरे विचार में नास्तिक रहने से आस्तिक रहना कहीं अच्छा है। अगर भगवान् की सत्ता है, तब तो नास्तिकों को नरक के सिवा कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा। आस्तिक के दोनों हाथों में लड्डू है। भगवान् है तो पूछना ही क्या, नहीं है, तब भी क्या बिगड़ता है। दो-चार मिनट का समय ही तो जाता है ? नास्तिक दोस्त इस दोरुखी बात पर मुँह बिचकाकर चल दिये।

एक दिन जब दीनानाथ शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो मालिक ने उसे अपने कमरे में बुलाया और बड़ी खातिर से कुर्सी पर बैठाकर बोला, ‘तुम्हे यहाँ काम करते कितने दिन हुए ? साल-भर तो हुआ ही होगा? दीनानाथ ने नम्रता से कहा- जी हाँ, तेरहवाँ महीना चल रहा है।

आराम से बैठो, इस वक्त घर जाकर नाश्ता करते हो?

जी नहीं, मैं नाश्ते की आदत नहीं।

पान-वान तो ही होगे? जवान आदमी होकर अभी से इतना संयम।’ यह कहकर उसने घण्टी बजायी और चपरासी से पान और कुछ मिठाइयाँ लाने को कहा।

दीनानाथ को कि आज इतनी खातिरदारी क्यों हो रही है। कहाँ तो सलाम भी नहीं लेते थे, कहाँ आज मिठाई और पान सभी कुछ मैंगाया होता है मेरे काम से खुश हो गये हैं। इस खयाल से उसमें कुछ आत्मविश्वास आया और भगवान् की याद आ गयी । जरूर भगवान् सब रहा है ! मालूम देखते हैं और न्याय करते हैं; नहीं तो मुझे कौन पूछता?

चपरासी मिठाई और पान लाया। दीनानाथ को विनती से मजबूर होकर मिठाई खानी पड़ी।

मालिक ने मुस्कराते हुए कहा, तुमने मुझे बहुत रूखा देखा होगा। बात यह है कि हमारे यहाँ अभी तक लोगों को अपनी जिम्मेदारी का इतना कम मा कि अफसर जरा भी एहसास पड़ जाय, तो लोग उसकी शराफत का गलत फायदा उठाने लगते हैं और काम खराब होने लगता है। कुछ ऐसे भाग्यशाली हैं, जो नौकरों से हेल-मेल भी उनसे हँसते-बोलते भी हैं, फिर भी नौकर नहीं बिगड़ते, बल्कि और भी दिल लगाकर काम करते हैं।

मुझमें वह नहीं है, इसलिए मैं अपने आदमियों से कुछ अलग-थलग रहना ही अच्छा समझता हूँ और अब तक मुझे इस नीति से कोई नुक्सान भी नहीं हुआ, लेकिन मैं आदमियों का रंग-ढंग देखता रहता हूँ और सबको परखता रहा हूँ। मैंने तुम्हारे बारे में जो राय बनाई है ज है, यह है कि तुम वफादार हो और मैं तुम्हारे ऊपर विश्वास कर सकता हूँ, इसलिए मैं तुम्हें ज्यादा जिम्मेदारी का काम

देना चाहता हूँ, जहाँ तुम्हें खुद बहुत कम काम करना पड़ेगा, सिर्फ निगरानी करनी पड़ेगी। तुम्हारे वेतन में पचास रूपये की और तरक्की हो जायेगी। मुझे विश्वास है, तुमने तक जितनी इमानदारी से काम किया है, उससे भी ज्यादा इमानदारी से आगे करोगे। दीनानाथ की आँखों में आँसू भर आये और गले की मिठाई कुछ नमकीन हो गयी। जी में आया, मालिक के पैरों पर सिर रख दे और कहे- “आपकी सेवा के लिए मेरी जान हाजिर है। आपने मेरा जो सम्मान बढ़ाया है, मैं उसे निभाने में कोई कसर न रखूँगा; लेकिन उसकी आवाज़ काँप रही थी और वह सिर्फ आभार -भरी आँखों से देखकर रह गया।

सेठजी ने एक मोटा-सा लेजर (ledger) निकालते हुए कहा, “मैं एक ऐसे काम में तुम्हारी मदद चाहता हूँ, जिस पर इस ऑफिस का सारा भविष्य टिका हुआ है। इतने आदमियों में मैंने सिर्फ तुम्हीं को विश्वास करने लायक समझा है और मुझे आशा है कि तुम मुझे निराश न करोगे। यह पिछले साल का लेजर है और इसमें कई ऐसी रकम दर्ज हो गयी हैं, जिनके अनुसार कम्पनी को कई हजार फ़ायदा होता है, लेकिन तुम जानते हो, हम कई महीनों से घाटे पर काम कर रहे जिस क्लर्क ने यह लेजर लिखा था, उसकी लिखावट तुम्हारी लिखावट से बिलकुल मिलती है। अगर दोनों लिखावटें आमने-सामने रख दी जाये, किसी एक्सपर्ट को भी उनमें फर्क करना मुश्किल हो जायेगा। मैं चाहता हूँ, तुम लेजर में एक पेज फिर से लिखकर जोड़ दो और उसी नम्बर का पेज तो उसमें से निकाल लो। मैंने पेज का नम्बर छपवा लिया है; एक आदमी भी ठीक कर लिया है, जो रात भर में लेजर की जिल्दबन्दी कर देगा। किसी को पता तक न चलेगा। जरूरत सिर्फ यह है कि तुम अपनी पैन से उस पेज की नकल दो”। 1 कर दी ।

दीनानाथ ने शंका की, ‘जब उस पेज की नकल ही करनी है, तो उसे निकालने की क्या जरूरत है ? सेठजी हँसे- “तो क्या तुम समझते हो, उस पेज की हृबहू नकल करनी होगी! मैं कुछ रकमों में बदलाव कर दूंगा। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं सिर्फ़ होगी। ऑफिस की भलाई के खयाल से यह काम कर रहा हूँ। अगर यह बदलाव न किया गया, तो ऑफिस के सौ आदमियों के रोज़गार में बाधा पड़ जायगी।

इसमें कुछ सोच-विचार करने की ज़रूरत ही नहीं। सिर्फ आधा घंटे का काम है। तुम बहुत तेज लिखते हो”। कठिन समस्या धी। साफ़ था कि उससे जाल बनाने को कहा जा रहा है। उसके पास इस रहस्य का पता लगाने का कोई साथन न था कि सेठजी जो कुछ स्वार्थ के कारण है या ऑफिस की रक्षा के लिए: लेकिन किसी हालत में भी है यह जाल था, गहरा जाल। क्या वह अपनी आत्मा की कह रहे हैं, वह करेगा? नहीं; किसी तरह भी नहीं। हत्या कर उसने डरते-डरते कहा, ‘मुझे आप माफ़ करें, मैं यह काम न कर सकँगा। सेठजी ने उसी अविचलित मुस्कान के साथ पूछा, क्यों ?

इसलिए कि यह सरासर जाल है।

जाल किसे कहते हैं?

किसी हिसाब में उलटफेर करना जाल होता है।

लेकिन उस उलटफेर से सौ आदमियों की जीविका बनी रहे, तो क्या इस दशा में भी वह जाल है ? कम्पनी की असली हालत कुछ और है, कागज पर हालात कुछ और; अगर यह बदलाव न किया गया तो तुरन्त कई हजार रुपये नुक्सान के देने पड़ जायँगे और नतीजा यह होगा कि कम्पनी का दिवाला निकल जायगा और सारे आदमियों को घर बैठना पड़ेगा। मैं नहीं चाहता कि थोड़े से मालदार हिस्सेदारों के लिए इतने गरीबों का खून किया जाय। भलाई के लिए कुछ जाल भी करना पड़े, तो वह आत्मा की हत्या नहीं है। दीनानाथ को कोई जवाब न सूझा। अगर सेठजी का कहना सच है और इस जाल से सौ आदमियों की रोजी बनी रहे तो सच में वह जाल नहीं, कर्तव्य है;

अगर आत्मा की हत्या हत्या होती भी हो, तो सौ आदमियों की रक्षा के लिए उसकी परवाह न करनी चाहिए, लेकिन नैतिक हल हो जाने पर अपनी रक्षा का विचार आया। दो बोला- “लेकिन कहीं मामला खुल गया तो मैं फस जाऊँगा। चौदह साल के लिए काले पानी भेज दिया जाऊँगा”। सेठ ने जोर से हंसकर कहा–अगर मामला खुल गया, तो तुम न फैसोगे, मैं फैसँगा। तुम साफ इनकार कर सकते हो”। लिखावट तो पकड़ी जायगी?

पता ही कैसे चलेगा कि कौन सा पेज बदला गया, लिखावट तो एक-सी है। दीनानाथ हार गया और उसी वक्त उस पेज की नकल करने लगा।

फिर भी दीनानाथ के मन में चोर पैदा हुआ था गौरी से इस बारे में वह एक शब्द भी न कह सका।

एक महीने के बाद उसकी तरक्की हुई। सौ रुपये मिलने लगे। दो सौ बोनस के भी मिले। यह सब कुछ था, घर में खुशहाली नजर आने लगी; लेकिन दीनानाथ का अपराधी मन एक बोझ से दबा रहता था। जिन दलीलों से सेठजी ने उसकी जबान बन्द कर दी थी, उन दलीलों से गौरी को सन्तुष्ट कर सकने का उसे विश्वास न था।

भगवान् के प्रति उसकी निश्चा उसे हमेशा डराती रहती। इस अपराध का कोई भयंकर दंड ज़रूर मिलेगा। किसी प्रायश्चित्त, किसी पूजा-पाठ से उसे रोकना नामुमकिन है। अभी न मिले, साल-दो साल न मिले, दस-पाँच साल न मिले: पर जितनी ही देर में मिलेगा, उतना ही भयंकर होगा, जैसे प्रिंसिपल इंटरेस्ट के साथ बढ़ता जाता है । वह अक्सर पछताता, मैं क्यों सेठजी के लालच में आ गया ऑफिस टूटता या रहता, मेरी बला से; आदमियों की रोजी जाती या रहती, मेरी बला से; मुझे तो यह गहरी पीड़ा न होती, लेकिन अब तो जो कुछ होना था हो चुका और दंड ज़रूर मिलेगा। इस चिंता ने उसके जीवन की उमंग, खुशी और मिठास सब कुछ हर लिया।

मलेरिया फैला हुआ था। बच्चे को बुखार आया। दीनानाथ की जान सूख गई दण्ड का क़ानून आ पहुँचा। कहाँ जाय, क्या करे, कुछ नहीं सूझा, जैसे बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हो।

गौरी ने कहा-“जाकर कोई दवा लाओ, या किसी डाक्टर को दिखा दो, तीन दिन तो हो गये। दीनानाथ ने चिन्तित मन से कहा- “हाँ, जाता हूँ, लेकिन मुझे बड़ा डर लग रहा है”।

डरने की कौन-सी बात है, ये बात की बात मुँह से निकालते हो। आजकल किसे बुखार नहीं आता?’

भगवान् इतना बेरहम क्यों है?

भगवान बेरहम है पापियों के लिए। हमने किसका क्या बुरा किया है?

भगवान पापियों को कभी माफ़ नहीं करता? पापियों को दण्ड न मिले, तो संसार में अनर्थ हो जाय।

लेकिन आदमी ऐसे काम भी तो करता है, जो एक नज़र से पाप हो सकते हैं, दूसरी नज़र से पुण्य।’

मैं नहीं समझी।

मान लो, मेरे झूठ बोलने से किसी की जान बचती हो, तो क्या वह माप है?

मैं तो समझती हूं, ऐसा झूठ पुण्य है।

तो जिस पाप से इंसान का कल्याण हो, वह पुण्य है?

‘और क्या।

दीनानाथ के बुरे विचार थोड़ी देर के लिए दूर हो गए ।वो डाक्टर को बुला लाया, इलाज शुरू किया, बच्चा एक हफ़्ता में ठीक हो गया। मगर थोड़े दिन बाद वह खुद बीमार पड़ गया। वह ज़रूर ही भगवान् का दिया दण्ड है और अब वह बच नहीं सकता। आम मलेरिया का बखार था; पर दीनानाथ की दण्ड की कल्पना ने उसे बेहोशी का रूप दे दिया। बुखार में, नशे की हालत की तरह वैसे भी कल्पना की शक्ति तेज़ हो जाती है। पहले सिर्फ छिपी हुई शंका थी, अब वह भयानक सच बन गयी। कल्पना ने यमदूत रच डाले, उनके भाले और गदाएँ रच डालीं, नरक का अग्नि कुंड दहका दिया। डाक्टर की एक पूँट दवा एक हजार मन की गदा की आवाज और आग के उबलते हुए समुद्र के शरीर पर क्या असर करती ? दीनानाथ जालसाज़ न था। पुराणों की रहस्यमय कल्पनाओं में उसे विश्वास न था। नहीं, वह लॉजिक से चीज़ों पर विश्वास करता था और भगवान में भी तभी उसे विश्वास आया, जब उसकी तर्कबुद्धि कायल हो गयी थी । लेकिन भगवान के साथ उसकी दया भी आयी, उसका दण्ड भी आया। दया ने उसे काम दिया मान दिया। भगवान की दया न होती, तो शायद वह भूखों मर जाता, लेकिन भूखे मरना अग्नि कुण्ड में ढकेल दिये जाने से कहीं आसान था। दण्ड-भावना जन्म-जन्मान्तर के संस्कार से ऐसी बैठ गयी थी, मानो उसकी बुद्धि का, उसकी आत्मा का, एक हिस्सा हो गयी हो। उसका तर्कवाद और बुद्धि इन जमे हुए संस्कार पर समुद्र की ऊँची लहरों की तरह आता; पर एक पल में उन्हें पानी में डुबा कर फिर लौट जाता था और वह पहाड़ जैसे का तैसा अटल खड़ा रहता था।

जिन्दगी बाकी थी, तो दीनानाथ बच गया। ताकत आते ही दफ्तर जाने लगा। एक दिन गौरी बोली, ‘ज़िन दिनों तुम बीमार थे और एक दिन तुम्हारी हालत बहुत नाजुक हो गयी थी, तो मैंने भगवान से कहा, था कि यह अच्छे हो जायेंगे, तो पचास ब्राह्मणों को खाना खिलाऊँगी । दूसरे ही दिन से तुम्हारी हालत सुधरने लगी। भगवान् ने मेरी विनती सुन ली। उसकी दया न होती, तो मुझे कहीं माँगे भीख न मिलती।

आज बाजार से सामान ले आओ, मन्नत पूरी कर दें। पचास ब्राह्मण को बुलाएंगे, तो सौ ज़रूर आयेंगे। पचास भिखारी भी समझ लो और दोस्तों में बीस-पचीस निकल ही आयेंगे। दो सौ आदमियों का हिसाब है। मैं सामान की लिस्ट लिख देती हूँ।

दीनानाथ ने माधा सिकोड़कर कहा- “तुम समझती हो, मैं भगवान् की दया से अच्छा हुआ हूँ?”

‘और कैसे अच्छे छे हुए?

अच्छा ी हुआ इसलिए कि जिन्दगी बाकी थी।

ऐसी बातें न करो। मन्नत पूरी करनी होगी।

कभी नहीं। मैं भगवान को दयालु नहीं समझता।

तो क्या भगवान बेरहम है?

उनसे बड़ा बेरहम कोई संसार में न होगा। जो अपने रचे हुए खिलौनों को उनकी भूल और बेवकूफियों की सजा आग के कुण्ड में हकेलकर दे, वह भगवान् दयालु नहीं हो सकता। भगवान जितना दयालु है, उससे कई गुना बेरहम है और ऐसे भगवान् की कल्पना से मुझे घृणा होती है। प्रेम सबसे बड़ी शक्ति कही गयी है। विचारवानों ने प्रेम को ही जीवन की और संसार की सबसे बड़ी ताकत माना है। व्यवहार में न सही, आदर्श में प्रेम ही हमारे जीवन का सच है, मगर तुम्हारा भगवान् दण्ड के डर से दुनिया को चलाता है। फिर उसमें और इंसानों में क्या फर्क हुआ? ऐसे भगवान् की पूजा में नहीं करना चाहता, नहीं कर सकता।

जो अमीर हैं, उनके लिए भगवान् दयालु होगा, क्योंकि वे दुनिया को लूटते हैं। हम जैसों को तो भगवान् की दया कहीं नजर नहीं आती। हाँ, डर कदम-कदम पर खड़ा पूरा करता है। यह मत करो, नहीं तो भगवान् दण्ड देगा! वह मत करो, नहीं तो भगवान दण्ड देगा। प्रेम से राज करना इंसानियत आतंक से राज करना क्रूरता है। आतंकवादी भगवान से तो भगवान का न रहना ही अच्छा है। उसे दिल से निकालकर मैं उसकी दया और दण्ड दोनों से आज़ाद हो जाना चाहता हूँ। एक कठोर दण्ड सालों के प्रेम को मिट्टी में मिला देता है। मैं तुम्हारे ऊपर हमेशा जान देता रहता हूँ; लेकिन किसी दिन डण्डा लेकर पीट दूं, तो तुम मेरी सूरत न महटी में देखोगी।

ऐसे आतंक और सज़ा से भरे जीवन के लिए मैं भगवान् का एहसान नहीं लेना चाहता। बासी भात में खुदा की हिस्सेदारी की जरूरत नहीं। अगर तुमने ओज-भोज पर जोर दिया, तो मैं जहर खा लँगा।

गौरी उसके मुँह की ओर डर भरी नज़रों से ताकती रह गयी।

सीख इस कहानी में मुंशीजी ने एक ऐसे आदमी की सोच दिखाई है जो है तो इमानदार, बुद्धिमान लेकिन दो प्रकृति और भगवान् के सच्चे स्वरूप को समझ ही नहीं पाया, कहानी के अंत में दीनानाथ की बातों से प्रकृति के नियम, कर्म के सिद्धांत और भगवान के बारे में उसके विचारों से उसकी अज्ञानता का पता चलता है,

भगवानू को हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल हमें मिलता है. जो लोग भगवान् में विश्वास नहीं करते वो भी इस बात को ध्यान में रखें कि हर एक्शन का एक रिएक्शन होता है, यही प्रकृति का नियम है और कई बार तो हम अपनी गलत सोच और फैसलों के कारण खुद अपनी तकलीफ़ का कारण बनते हैं.

यही तो है इंसान की फितरत, जब उसके साथ कुछ अच्छा होता है तो वो उसे अपनी मेहनत का नाम दे देता है लेकिन कुछ बुरा होने ठहरा देता है. हमारे कर्म और उसके फल में भगवान की कोई भूमिका नहीं होती, पर दोषी

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