BADE BHAI SAHAB by Munshi premchand.

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About Book

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन मुझसे सिर्फ़ तीन क्लास आगे थे । उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैने शुरू किया था; लेकिन पढाई के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद नहीं करते थे। इसकी बुनियाद इतनी मजबूत डालना चाहते थे कि जिस पर एक आलीशान महल बन सके। वो एक साल का काम दो साल में करते थे यानी एक क्लास को पास करने में दो साल लगाते थे । कभी-कभी तो तीन साल भी लग जाते थे। उनका कहना था कि अगर बुनियाद ही मज़बूत नहीं होगा, तो मकान कैसे मज़बूत बनेगा!

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन मुझसे सिर्फ तीन क्लास आगे थे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैने शुरू किया था लेकिन पढ़ाई के मामले में वह जल्दबाजी से काम लेना पसंद नहीं करते थे। इसकी बुनियाद इतनी मजबूत डालना चाहते थे कि जिस पर एक आलीशान महल बन सके। वो एक साल का काम दो साल में करते थे यानी एक क्लास को पास करने में दो साल लगाते थे कभी-कभी तो तीन साल भी लग जाते थे।

उनका कहना था कि अगर बुनियाद ही मज़बूत नहीं होगा, तो मकान कैसे मज़बूत बनेगा! छोटा था, वह बड़े थे। मेरी उम्र नौ साल की थी, वह चौदह साल के थे। उन्हें मेरी सुरक्षा और निगरानी का जैसे जन्म से ही अधिकार मिल गया था और मेरी समझदारी इसी में थी किम कि मैं उनके हुक्म को आर्डर समझे।

वह स्वभाव से बड़े पढ़ाकू और पढ़ाई को महत्त्व देने वाले थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कॉपी पर, कभी किताब के कवर पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे। कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या लाइन को दस-बीस बार लिख डालते। कभी ऐसी शब्द-र करते, जिसमें चना न कोई अर्थ होता, न कोई तालमेल ! मतलब एक बार उनकी कॉपी पर मैने यह लिखा देखा स्पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दरअसल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत राधेश्याम, एक घंटे तक- इसके बाद एक आदमी का चेहरा की कि इस पहेली का कोई मतलब निकाले लेकिन फेल हो गया और उनसे पूछने की हिम्मत थी नहीं। वह 9th क्लास में थे, में पाँचवी में। उनके शब्दों का मतलब जानना या उनकी रचनाओं को समझना उसके बस की बात नहीं धी। हुआ था। मैंने कोशिश मेरा जी पढ़ने में बिलकुल नहीं लगता था। घंटा एक भी किताब लेकर बैठना पहाड़ चढ़ने जैसा जैसा भारी भरकम काम लगता था। मौका मिलते ही मैं होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकर उछालता, कभी कागज की तितलियाँ उड़ाता, और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्या- कभी दीवार पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी दरवाज़े पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का गुस्से वाला रूप देखकर जान निकल जाती थी। उनका पहला सवाल होता- ‘कहाँ थे?’ हमेशा यही सवाल, इसी आवाज़ में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास सिर्फ चुप्पी थी। न जाने मुँह से यह बात क्यों नहीं निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरी चुप्पी कह देती थी कि मुझे अपनी गलती स्वीकार है और भाई साहब के पास इसके सिवा और कोई इलाज नहीं था कि प्यार और गुस्से से मिले हुए शब्दों से मेरा स्वागत

इस तरह अंग्रेजी पढ़ोगे, तो जिंदगी भर पढ़ते रहोगे और एक शब्द ही नहीं आयेगा। अंग्रेजी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं, ऐसा होता तो हर ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेजी कि पंडित हो जाते। यहाँ रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती है और खून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विद्या आती है और आती क्या है, हाँ, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े ज्ञानी भी शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिख सकते, बोलना तो टूर की बात है और में कहता हूँ, तुम कितने बेवकूफ हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं सीखते । मैं कितनी मेहनत करता हूँ, तुम खुद अपनी आँखों से देखते हो, अगर नहीं देखते, जो यह तुम्हारी आँखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते है, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं।

तो उसके पास भी नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहता हूँ, उस पर भी एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ फिर तुम कैसे उम्मीद करते र यूहीं खेल-कुद में वक्त, गँवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो–तीन साल ही लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी क्लास में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है, तो ठीक है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। पिताजी की मेहनत की कमाई क्यों ब्बाद करते हो? यह डांट-फटकार सुनकर आँसू बहाने लगता। मेरे पास जवाब ही क्या था। गलती तो मैंने की थी लेकिन डांट कियसे | अच्छा लगता है? भाई साहब भाषण देने की कला में माहिर थे। ऐसी-ऐसी चुभने वाली बातें कहते कि मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत टूट जाती। इस तरह जी जान से मेहनत करने कि शक्ति मझमें नहीं धी ओर उस निराशा में जरा देर के लिए में सोचने लगता- “क्यों न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बस के बाहर उसमें हाथ डालकर क्यों अपनी जिंदगी खराब कर। मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत! मुझे तो चक्कर आ जाता था। लेकिन घटे-दो घटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब मन लगाकर पढेगा। उसके बाद में चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। बिना पहले से प्लान बनाये, बिना कोई स्कीम तैयार किये काम कैसे शुरू कर? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की नशा बिलकुल उड़ जाता। सुबह-सुबह उठना, छ: बजे मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर पढ़ने बैठ जाना। छ: से आठ तक इंग्लिश, आठ से नौ तक मैथ्स नौ से साढ़े नौ तक हिस्ट्री , फिर खाना और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस आकर आधा घंटा आराम, चार से पाँच तक जियोग्राफी, पाँच से छ: तक ग्रामर, आधा घंटा होस्टल के सामने टहलना, साढ़े छ: से सात तक इंग्लिश कम्पोजीशन, फिर खाना खाकर आठ से नौ तक ट्रांसलेशन, नौ से दस तक हिंदी, दस से ग्यारह तक दूसरे सब्जेक्ट, फिर आराम।

मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसे तोड़ना शुरू हो जाता। मैदान की वह हरियाली, हवा के हल्के-हल्के झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-पेंच, वॉलीबॉल की वह तेजी और फुर्ती मुझे एक अनजान और ज़बरदस्त रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही में सब कुछ भूल जाता। वह जानलेवा टाइम- टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तके कुछ की याद नहीं रहता, और फिर भाई साहब को जान देने का और डांट लगाने का मौका मिल जाता।

मैं उनके साये से भी भागता था, उनकी आँखों से दूर रहने कि कोशिश करता। कमरे में इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हें खबर भी ना हो। उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरी जान निकली। ऐसा लगता था जैसे सिर पर हमेशा एक तलवार लटक रही है । फिर भी जैसे मौत और मुसीबत के बीच में भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं डोट और फटकार खाकर भी खेल-कूद को छोड़ नहीं सकता था।

फाइनल एग्जाम हुआ। भाई साहब फेल हो गये, मैं पास हो गया और क्लास में फर्स्ट आया। अब मेरे और उनके बीच सिर्फ़ दो साल का फ़र्क रह गया था। जी में आया, भाई साहब से पूछ- “आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गयी? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और क्लास में फर्स्ट भी आया । लेकिन वह इतने दुःखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिल से हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही बहुत गलत लगने लगा । हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ घमंड हुआ और आत्मसम्मान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रोब मुझ पर नहीं रहा। मैं आजादी से खेल-कूद में शामिल होने लगा। मेरा दिल मजबूत था। अगर उन्होंने फिर मेरी insult की, तो मैं साफ कह दूँगा- “आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते हुए भी क्लास में फर्स्ट आ गया।

लेकिन जबान से यह हेकड़ी जताने की हिम्मत न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ जाहिर था कि भाई साहब का वह डर का आतंक अब मुझ पर नहीं था। भाई साहब भाँप लिया- उनकी बुद्धि बड़ी तेज़ थी और एक दिन जब मैं सुबह का सारा समय गुल्ली-डंडे खेलकर ठीक खाने के समय लौटा, ने इसे तो भाई साइब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े “देखता हूँ, इस साल पास हो गये और क्लास में फर्स्ट आ गये, तो तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़ों का नहीं रहा, तो तुम क्या चीज़ हो, तुमने हिस्ट्री में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा सबक लिया? या बस यूं ही पढ़ लिया?

सिर्फ एग्जाम पास कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है, असली चीज है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका मतलब समझो। रावण पूरी दुनिया का स्वामी

था। ऐसे राजाओं को चक्रवर्ती कहते हैं। आजकल अंग्रेजों के राज्य बहुत बढ़ गए हैं, पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कह सकते। दुनिया में कई देश अंग्रेजों के स्वीकार नहीं करते। वो बिल्कुल आज़ाद हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था। दुनिया के सभी राजा उसे टैक्स देते थे। बड़े-बड़े देवता उसकी गुलामी राज को करते थे। आग आग और पानी के देवता भी उसके गुलाम थे; मगर उसका अंत क्या हुआ? घमंड ने उसका नामो-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक बूँद पानी देने वाला भी नहीं बचा। आदमी चाहे बुरे काम करे; पर घमंड न करे, इतराये नहीं । जिसने घमंड किया वो दुनिया से गया। शैतान का हाल | भी पढ़ा ही होगा। उसे यह अहंकार था कि भगवान् का उससे बढ़कर सच्चा, भक्त कोई है ही नहीं। अंत में यह हुआ कि उसे स्वर्ग से

नरक में ढकेल दिया गया। शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था। वो भीख माँग-माँगकर मर गया। तुमने तो अभी सिर्फ एक वलास पास किया और अभी से तुम्हारा सिर चढ़ गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से पास नहीं हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गया यानी बिना मेहनत किए तुमने ये सब पा लिया । मगर बटेर सिर्फ़ एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। कभी-कभी गुल्ली-डंडे में भी तुक्का मारने से सही निशाना लग जाता है। उससे कोई अच्छा प्लेयर नहीं हो जाता। अच्छा प्लेयर वह है, जिसका कोई निशान खाली न जाय। मेरे फेल होने पर मत जाओ।

मेरे अलास में आओगे, तो होश ठिकाने आ जाएगा जब algebra और geometry के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और अंग्रेज़ों का हिस्ट्री पढ़ना पडेगा! बादशाहों नाम याद रखना आसान नहीं है। आठ-आठ हेनरी ही गुजरे है। कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवाँ लिखा और सब नंबर गायब! सफाचट। ज़ीरो भी नहीं मिलेगा, ज़ीरो भी! तुम हो किस ख्याल में! एक दर्जन तो जेम्स है, दरजनो विलियम, चार्ल्सी दिमाग चक्कर खाने लगता है। इन अभागों के नाम भी नहीं होते थे। एक ही नाम के पीछे 2, 7,

14.15 लगाते चले गये। मुझसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता और जामेट्री का तो बस भगवान् ही मालिक है अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नंबर कट गये। कोई इन निर्दयी लोगों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्या फर्क है और बेकार की बात के लिए क्यों स्टूडेंट का खून चूसते हों। दाल-चावल-रोटी खायी या चावल-दाल-रोटी खायी, इसमें क्या रखा है; मगर इन टीचर को क्या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो बुक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के एक-एक शब्द रट डालें और इसी रटने का नाम एजुकेशन रख दिया है. आखिर इन बे-सिर-पैर की बातों को पढ़ने से क्या फायदा?

इस लाइन पर वह perpendicular गिरा दो, तो बेस perpendicular से डबल होगा। पूछिए, इसका क्या मकसद है ? डबल नहीं, चार गुना हो जाय, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन एग्जाम में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी। कह दिया- ‘समय की punctuality पर एक essay लिखो, जो चार पन्नों से कम का ना हो। अब आप कॉपी सामने खोले, पेन हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए। कौन नहीं जानता कि समय की पाबंदी बहुत अच्छी बात है। इससे आदमी के जीवन में कंटोल आ जाता है, लोग उसे पसंद करने लगते हैं और उसके बिज़नेस में उन्नति होती है: लेकिन समझता इस जरा-सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें? जो बात एक लाइन में कही जा सके, उसे चार पन्ने में लिखने की क्या जरूरत? मैं तो इसे बेवकफ़ी यह तो समय की बचत नहीं, बल्कि उसका गलत इस्तेमाल करना है कि बेकार में किसी बात को ठँस दिया। हम चाहते हैं, आदमी को जो कुछ कहना हो,

फ़टाफ़ट कह दे और बात खत्म करे । मगर नहीं, आपको चार पन्ने काले इंक से रंगने पड़ेंगे, चाहे जैसे भी लिखिए और पन्ने, भी पूरे फुलस्केप पेपर के। यह स्टूडेंट्स पर अत्याचार नहीं तो और क्या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, शोर्ट में लिखो। समय की पाबंदी पर शोर्ट में एक essay लिखो, जो चार पन्नों से कम का ना हो। वाह भई! शोर्ट मतलब चार पन्ने हुए, नहीं तो शायद सौ-दो सो पन्ने लिखवाते। मतलब तेज भी दौड़िये और धीरे-धीरे भी। है ना ये उल्टी बात या नहीं? बच्चे भी इतनी-सी बात समझ सकते हैं, लेकिन इन टीचरों को इतनी अक्ल भी नहीं हैं। उस पर कहते हैं कि हम टीचर हैं। मेरे क्लास में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालुम होगा। इस क्लास में फर्स्ट आ गये हो, तो जमीन पर पाँव नहीं रख रहे हो । इसलिए मेरा कहना मानो । भले ही मैं लाख बार फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूँ, दुनिया का मुझे तुमसे ज्यादा एक्सपीरियंस है। जो कुछ कहता हूँ, उसे गाँठ बाँध लो नहीं तो पछताओगे”।

स्कूल का समय हो रहा था, भगवान् जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्त होती। खाना आज मुझे बेस्वाद -सा लग रहा था। जब पास होने पर यह

अपमान हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद जान ही ले लेंगे। भाई साहब ने अपने क्लास की पढ़ाई की जो भयंकर तस्वीर खींची धी; उसने मुझे

डरा दिया। में कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब होता है; लेकिन इतने अपमान पर भी किताबों में मेरी अरुचि जैसी की तैसी बनी रही। में

खेल-कूद का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता था। पढ़ना भी धा, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्क पूरा हो जाय और क्लास में जलील न

होना पड़े। मेरा अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर गायब हो गया और फिर मेरा चोरों के जैसा जीवन कटने लगा।

फिर फाइनल एग्जाम हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि में फिर पास हो गया और भाई साहब फिर फेल हो गये। मैंने बहुत मेहनत नहीं की पर न जाने कैसे क्लास में फर्स्ट आ गया। मुझे खुद आश्चर्य हुआ। भाई साहब ने जी तोड़ मेहनत की थी। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गये थे; इधर दस बजे रात तक, सुबह चार बजे तक छ: से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले। चेहरे से चमक खत्म हो गयी थी, मगर बेचारे फेल हो गये। मुझे उन पर दया आ रही थी रिजल्ट सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने की खुशी आधी हो गयी थी। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दुःख नहीं होता, लेकिन किस्मत की बात कौन टाले।

मेरे और भाई साहब के बीच में अब सिर्फ़ एक कलास का फ़र्क रह गया था। मेरे मन में एक दूष्ट भावना ने जन्म लिया कि कहीं भाई साहब एक साल ।

और । हो गए, तो में उनके बराबर हो जाउंगा, फिर वह किस आधार पर मेरी insult कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस बुरे विचार को दिल से निकाल र फेल डाला। आखिर वह मुझे मेरे भले के लिए ही तो डाँटते हैं। हाँ, ज़रूर मुझे उस वक्त बुरा लगता है, मगर यह शायद उनके भाषण का ही असर है कि मैं दनादन पास होता जाता हूँ अच्छे नंबरों से। और इतने । से। अब भाई साहब बहुत कुछ नर्म पड़ गये थे। कई बार मुझे डॉँटने का मौका मिलने पर भी उन्होंने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा था; या रहा भी तो बहुत कम। मैरी आज़ादी भी बढ़ी। में उनके सब्र का गलत फ़ायदा उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसा ख़याल आया कि मैं तो पास हो ही जाऊँगा, पढें या न पढ़े मेरी किस्मत बहुत अच्छी है, इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद कर दिया। मुझे पतंग उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी को ही देने लगा था, फिर भी मैं भाई

साहब का सम्मान करता था, और उनकी नजर बचाकर पतंग उड़ाता था। माँझा देना, कन्नी बाँधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियाँ वगैरह समस्याएं अब छुपाकर हल की जाती थीं। भाई साहब को यह शक नहीं होने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज मेरी नजरो से कम हो गया है। एक दिन शाम के समय होस्टल से दूर में एक पतंग लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस पतंग की ओर, जो धीमी गति से झमता नीचे की ओर चला जा रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर बेपरवाह मन से नये संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। इसमें बच्चों की एक पूरी सेना लग गयी; और वो सेना एक झाड़दार बाँस लिये उनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने आगे-पीछे की खबर नहीं थी।

सभी मानो उस पतंग के साथ आकाश में उड़ रहे थे, जो एक खाली रास्ता है, न मोटरकारें हैं, न ट्राम, न गाडियाँ।

अचानक भाई साहब से मेरा झगड़ा हो गया , जो शायद बाजार से लौट रहे थे। उन्होंने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और गुस्से से बोले- “इन आवारा

लड़कों साथ एक पतंग के लिए दौड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीचे की क्लास में नहीं हो, बल्कि आठवीं

क्लास में आ गये हो और मुझसे सिर्फ एक क्लास नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवीं क्लास पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिडिल मैन को जानता हूँ, जो आज फर्स्ट क्लास के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिटेंडेंट है। कितने ही आठवीं क्लास वाले हमारे लीडर और न्यूज़पेपर के रहे हो। मुझे तुम्हारी बड़े विद्वान उनके नीचे काम करते है और तुम उसी आठवीं क्लास में आकर आवारा लड़कों के साथ पतंग के लिए दौड़ इस मूर्खता पर होता है। की हत्या कर डाले? नम दिन में सोने हो ল চা, বम काई शक नही; लेकिन वह समझदारी किस काम की, जो हमारे आल्मसम्मान भाई साहब से सिर्फ एक क्लास नीचे हूँ और अब उन्हें मुझे कुछ कहने का हक नहीं है; लेकिन यह होगे।

तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और चाहे आज कोई शक नहीं है कि अगले साल तुम जो पाँच साल का फर्क है मेरे क्लासमेट ही क्लास में आ जाओ- और पेपर चेक करने वालों का यही हाल रहा तो इसमें और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओगे – लेकिन मुझमें और तुममें उसे तुम क्या भगवान् भी नहीं मिटा सकता।

में तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूँगा। मुझे दुनिया और जिंदगी का जो एक्सपीरियंस है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम. ए. डी. फिल, और डी. लिट, ही क्यों न बन जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती। हमारी माँ ने पढ़ाई नहीं की और पिताजी भी शायद पाँचवी-छठी क्लास के आगे नहीं पढ़े, लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की एजुकेशन हासिल कर ले तब भी माँ और पिताजी को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्होंने हमें जन्म दिया है, बल्कि इसलिए किे उन्हें दुनिया का हमसे ज्यादा तजुर्बा है और रहेगा अमेरिका किस तरह का स्टेट और लॉ है और आठवें हेनरी ने कितनी शादी की और से लेकिन हजारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तमने क र आसमान में कितने constellation हैं, चाहे उन्हें ये सब बाते स ना मालूम भगवान् न करे, आज अगर मैं बीमार हो जाऊँ, तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जायेंगे। पिताजी को लैटर लिखने के सिवा तुम्हें और कुछ नहीं सुझेगा; लेकिन समान अगर तुम्हारी जगह पर पिताजी होंगे, तो किसी को लेटर नहीं लिखेंगे, घबराएंगे नहीं। पहले खुद बीमारी पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें कामयाब नहीं हुए, तो किसी डाक्टर को बुलायेंगे। बीमारी तो खैर बड़ी चीज है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का खर्च महीने भर कैसे चलाना है । जो कुछ पिताजी भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस तारीख़ तक खर्च कर डालते हैं और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं। नाश्ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से नज़रें चुराने लगते हैं; लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं, उसके आधे में पिताजी ने अपनी उम्र का बड़ा हिस्सा इज्जत और नाम के साथ निभाया है और एक परिवार को पाला भी है, जिसमें कुल मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम.ए. हैं कि नहीं; और यहाँ के एम.ए. नहीं, ऑक्सफोर्ड के हैं उन्हें पचास हजार रूपये मिलते हैं, लेकिन उनके घर में इंतजाम कौन करता है? उनकी बूढी माँ। हेडमास्टर साहब की डिग्री यहाँ आकर बेकार हो गयी। पहले खुद घर का इंतजाम करते थे। खर्च पूरा नहीं पड़ता था। हमेशा कर्ज़ में रहते थे। जब से उनकी माताजी ने मैनेजमेंट अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गयी हैं। तो भाईजान, यह घमंड दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे पास आ गये हो और अब आज़ाद हो। मेरे रहते हुए तुम रास्ते से भटक नहीं सकते। अगर तुम ऐसे नहीं मानोगे, तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका इतेमाल भी कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही है.”

उनकी इस नयी तरकीब के सामने मेरा सर उनके सामने झुक गया। मुझे आज सचमुच अपनी कमी और छोटेपन का एहसास हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा पैदा हुई। मैंने नाम आँखों से कहा- “हरगिज नहीं। आप जो कुछ कह रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का पूरा अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले- मैं पतंग उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन क्या करूँ, अगर खुद बेराह चला गया तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूगा? यह ज़िम्मेदारी भी तो मेरे सिर पर है ना!”

संयोग से उसी वक्त एक कटी हुई पतंग हमारे ऊपर से गुजरी। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक ग्रुप उसके पीछे-पीछे दौड़ा चला आ रहा था। भाई साहब लंबे थे ही उन्होंने उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ दौड़े। मैं उनके पीछे-पीछे दौड़ रहा था। सीख इस कहानी में मुशी प्रेमचंद जी ने जिम्मेदारियों के बारे में बताया है. अक्सर देखा जाता है कि घर का जो सबसे पहला वा बड़ा बच्चा होता है उससे परिवार वाले बहुत सी उम्मीदें लगाकर बैठ जाते हैं. उससे उम्मीद की जाती है कि वो अपनी जिम्मेदारियों को समझे और अपने छोटे भाई बहनों के लिए एक अच्छा एग्ज़ाम्पल सेट करे. इस कहानी में भी बड़े भाई साहब पर कई बोझ थे- पढ़ाई का बोझ, अपने छोटे भाई को सही रास्ते पर रखने की ड्यूटी. इसमें बड़ा भाई पढ़ाई को बहुत महत्त्व देता है क्योंकि वो जानता है कि बिना पढ़े लिखे एक अच्छी जिंदगी जीना नामुमकिन है. ऐसा नहीं था कि उसका मन खेलने कूदने के लिए मचलता नहीं था लेकिन अपने बड़े होने के एहसास ने उसकी इच्छाओं को जैसे दबा दिया था. उसे एसी लगता था कि अगर वो ही आवारागर्दी करेगा तो उसका छोटा भाई क्या सीखेगा? भले ही छोटा भाई पढ़ने में होशियार था लेकिन बड़े भाई की बातों से उसकी समझ और गहराई का पता चलता है. वो बहुत समझदार था, उसमें अपनी ज़िम्मेदारी निभाने का एहसास था. उसे कभी अपने छोटे भाई से जलन नहीं हुई. हम अक्सर ये समझने में चूक जाते हैं कि हमारे बड़ों की डांट में हमारी ही भलाई छुपी होती है. उनकी डांट फटकार हमें बुरी ज़रूर लगती है लेकिन उसमें जिंदगी की कड़वी सच्चाई छुपी होती है जिसे हम देख नहीं पाते. उन्हें जिंदगी का ज़्यादा एक्सपीरियंस होता है इसलिए हमें उनकी बातों पर ध्यान देना चाहिए नहीं तो समय निकलने के बाद पछताने के अलावा हम कुछ भी नहीं कर पाएँगे, इसके साथ-साथ हम सभी में अपनी-अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए और इससे बचने के बजाय उसे दिल से निभाना चाहिए जैसे बड़े भाई साहब निभा रहे थे, परिवार वालों को भी ये समझना होगा कि घर का बड़ा बच्चा है तो क्या हुआ आखिर वो भी तो बच्चा ही है, उसके भी अपने अरमान और इच्छाएं हैं तो उस पर बेकार का बोझ डालकर उसे क्यों दबाया जाए,

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