About Book
रंगमंच का परदा गिर गया। तारा देवी ने शकुंतला का पार्ट खेलकर दर्शकों को मुग्ध कर दिया था। जिस वक्त वह शकुंतला के रुप में राजा दुष्यंत के सामने खड़ी ग्लानि, दर्द , और अपमान से पीड़ित भावों को गुस्से में प्रकट कर रही थी, दर्शक मर्यादा के नियमों को अनदेखा कर मंच की ओर पागलों की तरह दौड़ पड़े और तारादेवी का नाम लेकर वाहवाही करने लगे। कितने तो स्टेज पर चढ़ गये और तारादेवी के चरणों पर गिर पड़े। सारा स्टेज फूलों से भर गया, गहनों की बारिश होने लगी।
अगर उसी पल मेनका का रथ नीचे आकर उसे उड़ा न ले जाता, तो शायद उस धक्कम-धक्के में दस-पाँच आदमियों की जान पर बन जाती। मैनेजर ने तुरन्त आकर दर्शकों को उनकी तारीफ़ और तालियों के लिए धन्यवाद दिया और वादा भी किया कि दूसरे दिन फिर वही नाटक दिखाया जाएगा। तब जाकर लोगों की दीवानगी शांत हुई । मगर एक नौजवान उस वक्त भी मंच पर खड़ा रहा। वो लम्बे कद का था, तेजस्वी चेहरा , शुद्ध सोने जैसा, देवताओं जैसा रूप, गठा हुआ शरीर , चेहरे पर चमक । मानो कोई राजकुमार हो। जब सारे दर्शक बाहर निकल गये, उसने मैनेजर से पूछा
_”क्या तारादेवी से मिल सकता हूँ?
मैनेजर ने अपमान के भाव से कहा-“हमारे यहाँ ऐसा नियम
नहीं है”।
नौजवान ने फिर पूछा-“क्या आप मेरा कोई ख़त उसके
पास भेज सकते हैं?” 11 मैनेजर ने उसी अपमान के भाव से कहा-“जी नहीं। माफ़ कीजिएगा। यह हमारे नियमों के ख़िलाफ़ है”। नौजवान ने और कुछ न कहा, निराश होकर स्टेज के नीचे उतर पड़ा और बाहर जाना ही चाहता था कि मैनेजर ने
पूछा -“जरा ठहर जाइये, आपका कार्ड?” नौजवान ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाल कर कुछ लिखा और दे दिया। मैनेजर ने कागज़ को उड़ती हुई नज़र
से देखा-“कुंवर निर्मलकान्त चौधरी, ओ. बी. ई.”। मैनेजर
के कठोर हाव भाव कोमल हो गए ।
कुंवर निर्मलकान्त-शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकदार, साहित्य के उभरते हुए रत्न, संगीत के दिग्गज आचार्य, उच्च-कोटि के विद्वान, आठ-दस लाख साल में मुनाफ़ा कमाने वाले, जिनके दान से देश की कितनी ही संस्थाएँ चलती थीं-इस समय एक गरीब के समान अर्जी लगा रहे थे। मैनेजर अपने अपमान -भाव पर शर्मिंदा हो गया। विनम्र शब्दों में बोला-“माफ़ कीजिएगा, मुझसे बड़ा | अपराध हुआ। मैं अभी तारादेवी के पास हुजूर का कार्ड लिए जाता हूँ”।
कुंवर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा-“नहीं, अब रहने ही दीजिए, मैं कल पाँच बजे आऊँगा। इस वक्त तारादेवी को तकलीफ़ होगी । यह उनके आराम करने का समय है”।
मैनेजर-“मुझे विश्वास है कि वह आपकी खातिर इतनी तकलीफ़ ख़ुशी-ख़ुशी सह लेंगी, मैं एक मिनट में आता हूँ”। लेकिन कुंवर साहब अपना परिचय देने के बाद अपने उतावलेपन पर संयम का परदा डालने के लिए मजबूर थे। उन्होंने मैनेजर को धन्यवाद किया और कल आने का वादा करके चले गये।
तारा एक साफ- -सुथरे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने किसी विचार में मग्न बैठी थी। रात का वह नज़ारा उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। ऐसे दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं?
कितने लोग उसे देखने के लिए बेचैन हो रहे थे ? इतना कि , एक-दूसरे पर कूद रहे थे । कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था हाँ, ठुकरा दिया था। मगर उन लोगों में सिर्फ एक दिव्य मूर्ति शांत रुप से खड़ी थी। उसकी आँखों में कितना गम्भीर प्रेम था, कितना पक्का इरादा ! ऐसा लग रहा था मानों उसकी दोनों आखें दिल में चुभी जा रही हों। आज फिर उस आदमी के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है। लेकिन अगर आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किये बिना न जाने देगी।
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था, कौन कह सकता था कि वह नया नया
फूल तैंतीस बसंत की बहार देख चुका है। वह तेज़ , वह
कोमलता, वह चंचलता, वह मधुरता अभी-अभी जवानी में कदम रखने वाली औरत को भी शर्मिंदा कर सकता था। तारा एक बार फिर दिल में प्रेम का दीपक जला बैठी। आज से बीस साल पहले एक बार उसे प्रेम का कड़वा अनुभव हुआ था। तब से वह एक तरह से विधवा का जीवन जी रही थी । कितने प्रेमियों ने अपना दिल उसे भेंट करना चाहा; पर उसने किसी की ओर आँख उठाकर भी न देखा। उसे उनके प्रेम में कपट की गन्ध आती थी। मगर आह! आज उसका संयम हाथ से निकल गया।
एक बार फिर दिल में उसी मधुर कशिश का अनुभव हुआ, जो बीस साल पहले हुआ था। एक आदमी का सौम्य रूप उसकी आँखें में बस गया, दिल उसकी ओर खिंचने लगा। उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी। उसी आदमी को अगर उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो शायद उधर ध्यान भी न देती । पर उसे अपने सामने प्रेम का तोहफ़ा हाथ में लिए देखकर वह शांत न रह सकी।
तभी दाई ने आकर कहा-“बाई जी, रात की सब चीजें रखी | हुई हैं, कहिए तो लाऊँ?” तारा ने कहा-“नहीं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं”।
‘सामान का ढेर लगा है बाई जी, कहाँ तक गिनाऊँ अशर्फियाँ हैं, ब्रूच, बाल के पिन, बटन, लॉकेट, अंगूठियाँसभी तो हैं। एक छोटे-से डिब्बे में एक सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा। सब बक्से में रख दिया है। ‘अच्छा, वह बक्सा मेरे पास ला।’ दाई ने बक्सा लाकर मेज रख दिया। उधर एक लड़के ने एक ख़त लाकर तारा को दिया। तारा ने ख़त को उतावली नज़रों से देखा – “कुंवर | निर्मलकान्त ओ. बी. ई.”। लड़के से पूछा-“यह ख़त किसने दिया? वह तो नहीं, जो रेशमी पगड़ी बांधे हुए थे?”
रंगमंच का परदा गिर गया। तारा देवी ने शकुंतला का पार्ट खेलकर दर्शकों को मुग्ध कर दिया था। जिस वक्त वह शकुंतला के रुप में राजा दुष्यंत के सामने खड़ी ग्लानि, दर्द, और अपमान से पीड़ित भावों को गुस्से में प्रकट कर रही थी, दर्शक मर्यादा के नियमों को अनदेखा कर मंच की और पागलों की तरह दौड़ पड़े और तारादेवी का नाम लेकर वाहवाही करने लगे। कितने तो स्टेज पर चढ़ गये और तारादेवी के चरणों पर गिर पड़े। सारा स्टेज फूलों से
भर गया, गहनों की बारिश होने लगी।
अगर उसी पल मेनका का रथ नीचे आकर उसे उड़ा न ले जाता, तो शायद उस धक्कम-धक्के में दस-पाच आदमियों की जान पर बन जाती। मैनेजर तुरन्त आकर दर्शकों को उनकी तारीफ़ और तालियों के लिए धन्यवाद दिया और वादा भी किया कि दूसरे दिन फिर वही नाटक दिखाया जाएगा।
तब जाकर लोगों की दीवानगी शांत हुई। मगर एक नौजवान उस बक्त भी मंच पर खड़ा रहा। बो लम्बे कद का था, तेजस्वी चेहरा, शुद्ध सोने जैसा, देवताओं जैसा रूप, गठा हुआ शरीर चेहरे पर चमक । मानों कोई राजकुमार हो।
जब सारे दर्शक बाहर निकल गये, उसने मैनेजर से पूछा-“क्या तारादेवी से मिल सकता हूँ?
मैनेजर ने अपमान के भाव से कहा-“हमारे यहाँ ऐसा नियम नहीं है”। नौजवान ने फिर पूछा-“क्या आप मेरा कोई खत उसके पास भेज सकते हैं?”
मैनेजर ने उसी अपमान के भाव से कहा “जी नहीं। माफ़ कीजिएगा। यह हमारे नियमों के खिलाफ़ है। नौजवान ने और कुछ न कहा, निराश होकर स्टेज के नीचे उतर पड़ा और बाहर जाना ही चाहता था कि मैनेजर ने पूछा जरा ठहर जाइयें,
कार्ड”
आपका
नौजवान ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाल कर कुछ लिखा और दे दिया। मैनेजर ने कागज़ को उड़ती हुई नज़र से देखा-कुंवर निर्मलकान्त चौधरी, ओ. बी.ई.”। मैनेजर के कठोर हाव भाव कोमल हो गए। कुंवर निर्मलकान्त-शहर के सबसे बड़े रईस और ताल्लुकदार, साहित्य के उभरते हुए रत्न, संगीत के दिग्गज आचार्य, उच्च-कोटि के विद्वान, आठ-दस
लाख साल में मुनाफ़ा कमाने वाले, जिनके दान से देश की कितनी ही संस्थाएँ चलती थीं-इस समय एक गरीब के समान अर्जी लगा रहे थे। मैनेजर अपने अपमान -भाव घर शर्मिंदा हो गया। विनम्र शब्दों में बोला- ‘माफ़ कीजिएगा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। में अभी तारादेवीं के पास हुजूर का कार्ड
लिए जाता हूँ।
कुंवर साहब ने उससे रुकने का इशारा करके कहा “नहीं, अब रहने ही दीजिए, में कल पाँच बजे आऊँगा। इस बक्त तारादेवी को तकलीफ़ होगी। यह
उनके आराम करने का समय है”।
मैनेजर मुझे विश्वास है कि वह आपकी खातिर इतनी तकलीफ खुशी-खुशी सह लेंगी, में एक मिनट में आता हूँ लेकिन कुंवर साहब अपना परिचय देने के बाद अपने उतावलेपन पर संयम का परदा डालने के लिए मजबूर थे। उन्होंने मैनेजर को धन्यवाद किया और
कल आने का वादा करके चले गये।
तारा एक साफ-सुथरे और सजे हुए कमरे में मेज के सामने किसी विचार में मग्न बैठी थी। रात का वह नज़ारा उसकी आँखों के सामने नाच रहा था। ऐसे कितने लोग उसे देखने के लिए बेचैन हो रहे थे? इतना कि , एक-दूसरे पर कूद रहे थे। कितनों को उसने पैरों से ठुकरा दिया था हाँ, ठुकरा दिया था।
दिन जीवन में क्या बार-बार आते हैं?
मगर उन लोगों में सिर्फ एक दिव्य मूर्ति शांत रुप से खड़ी थी। उसकी आँखों में कितना गम्भीर प्रेम था, कितना पक्का इरादा! ऐसा लग रहा था मानों में उसकी दोनों आंखें दिल में चुभी जा रही हों। आज फिर उस आदमी के दर्शन होंगे या नहीं, कौन जानता है। लेकिन अगर आज उनके दर्शन हुए, तो तारा उनसे एक बार बातचीत किये बिना न जाने देगी।
यह सोचते हुए उसने आईने की ओर देखा, कमल का फूल-सा खिला था, कौन कह सकता था कि वह नया नया फूल तैंतीस बसंत की बहार देख चुका है। वह तेज़ , वह कोमलता, वह चंचलता, वह मधुरता अभी-अभी जवानी में कदम रखने चाली औरत को भी शर्मिदा कर सकता था। तारा एक बार फिर दिल में प्रेम का दीपक जला बैठी। आज से बीस साल पहले एक बार उसे प्रेम का कड़दा अनुभव हुआ था। जीवन जी रही थी। कितने प्रेमियों ने अपना दिल उसे भेंट करना चाहा; से वह एक तरह से विधवा का उसने किसी की ओर आँख उठाकर भी न देखा। उसे उनके प्रेम में कपट की
गन्ध आती थी। मगर आह! आज उसका संयम हाथ से निकल गया। एक बार फिर दिल में उसी मधुर कशिश का अनुभव हुआ, जो बीस साल पहले हुआ था। एक आदमी का सौम्य रूप उसकी आँखें में बस गया, दिल
उसकी ओर खिंचने लगा। उसे वह किसी तरह भूल न सकती थी। उसी आदमी को अगर उसने मोटर पर जाते देखा होता, तो शायद उधर ध्यान भी न देती । पर उसे अपने सामने प्रेम का तोहफा हाथ में लिए देखकर वह शांत न रह सकी।
तभी भाई ने आकर कहा-“बाई जी, रात की सब चीजें रखी हुई हैं, कहिए तो लाऊँ?”
तारा ने कहा-“नहीं, मेरे पास चीजें लाने की जरुरत नहीं; मगर ठहरो, क्या-क्या चीजें हैं। सामान का ढेर लगा है बाई जी, कहाँ तक गिनाऊँ अशर्फियों हैं, ब्रुच, बाल के पिन, बटन, लॉकेट, अंगूठियाँ सभी तो हैं। एक छोटे-से डिब्बे में एक
सुन्दर हार है। मैंने आज तक वैसा हार नहीं देखा। सब बक्से में रख दिया है। ‘अच्छा, वह बक्सा मेरे पास ला।’ दाई ने बक्सा लाकर भेज रख दिया। उधर एक लड़के ने एक खत लाकर तारा को दिया। तारा ने खत को उतावली नज़रों से देखा-“कुंवर निर्मलकान्त ओ, बी. ई.”। लड़के से पूछा-“यह खत किसने दिया? वह तो नहीं, जो रेशमी पगड़ी बाँधे हुए थे?”
लड़के ने सिर्फ इतना कहा “मैनेजर साहब ने दिया है” और लपककर बाहर चला गया। बक्से में सबसे पहले डिब्बा नजर आया। तारा ने उसे खोला तो सच्चे मोतियों का सुन्दर हार था। डिब्बे में एक तरफ एक कार्ड भी था। तारा ने तुरंत उसे
पढ़ा-“कुवर निर्मलकान्त..”। कार्ड उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा। वह झपट कर कुरसी से उठी और बड़ी तेज़ी से कई कमरों और बरामदों को पार करती मैनेजर के सामने आकर खड़ी हो गयीं। मैनेजर ने खड़े होकर उसका स्वागत किया और बोला-“मैं रात की कामयाबी पर आपको बधाई देता है। तारा ने खड़े “कुँवर निर्मलकांत क्या बाहर हैं? लड़का खत दे कर भाग गया, मैं उससे कुछ पूछ न सकी”।
- खड़े पूछा- कुँवर साहब का खत तो रात ही तुम्हारे चले आने के बाद मि मिला था।
तो आपने उसी वक्त मेरे पास क्यों न भेज दिया? मैनेजर ने दबी जवान से कहा
मैने समझा, तुम आराम कर रही होगी, तकलीफ़ देना ठीक न समझा और भाई, साफ बात यह है कि मैं डर रहा था,
कहीं कुँवर साहब को तुमसे मिला कर तुम्हें खो न बेठूं। अगर में औरत होता, तो उसी वक्त उनके पीछे हो लेता। ऐसा देवरुप आदमी मैंने आज तक नहीं
देखा। वही जो रेशमी साफा बाँध खड़े थे तुम्हारे सामने। तुमने भी तो देखा था। तारा ने मानो आधी नींद की हालत में कहा “हाँ. देखा तो था-क्या वो फिर आयेंगे?”
“हाँ, आज पाँच बजे शाम। बड़े विद्वान आदमी हैं, और इस शहर के सबसे बड़े रईस।’
आज मैं रिहर्सल में न आऊँगी।’
कुँवर साहब आ रहे होंगे। तारा आईने के सामने बैठी और दाई उसका श्रृंगार कर रही है। श्रृंगार भी किसी जमाने में एक कला थी। पहले दस्तूर के अनुसार ही श्रृंगार किया जाता था। कवियों, चित्रकारों और रसिकों ने श्रृंगार की एक मर्ा बॉंध दी थी। आँखों के लिए काजल लाजमी (ज़रूरी) था, हाथों के लिए मेंहदी, पाँव के लिए आल्ता । एक-एक अंग एक-एक ज़ेवर के लिए बना हुआ था। आज वह दस्तूर नहीं रही। आज हर औरत अपनी पसंद, बुद्धि और भाव से श्रृंगार करती है। उसकी सुंदरता किस तरह आकर्षण की सीमा पर पहुँच सकती है,
यही उसका मकसद होता है और तारा इस कला में माहिर थी। वह पन्द्रह साल से इस कम्पनी में थी और अपना पूरा जीवन उसने आदमियों के दिल से
खेलने ही में बिताया था। किस अदा से, किस मुस्कान से, किस अँगड़ाई से, किस तरह बाल को बिखेर देने से दिलों का कल्ले आम हो जाता है; इस कला आज उसने चुन-चुन आजमाये हुए तीर तरकस से निकाले, और जब अपने हथियारों से सज कर दीवान खाने में आयी, तो लगा मानों संसार की सारी सुंदरता उसकी नज़र उतार रही हो। वह मेज के पास खड़ी होकर कुँवर साहब का कार्ड देख रही थी, उसके कान मोटर की आवाज की ओर लगे हुए थे। वह चाहती थी कि कुँवर साहब इसी वक्त आ जाएँ और उसे इसी अन्दाज से खड़े देखें। इसी अन्दाज से वह उसकी परी छवि देख सकते थे।
में कौन ह उससे बढ़कर सकता था!
उसने अपन जीत पा ली थी। कौन कह सकता था कि
श्रृंगार कला से काल पर
কয় दोगी है याद किसी आश्रम के लिए बेचैन हो उठता है, और उसका अभि घचल जवानी उस हालत में पहुँच चुकी है, जब दिल को शांति की।
यह
नम्रता के आगे सिर झुका देता है।
तारा देवी को बहुत इन्तजार न करना पड़ा। कुँवर साहब शायद मिलने के लिए उससे भी ज्यादा बेचैन थे। दस मिनट के बाद उनकी मोटर की आवाज आयी। तारा सँभल गयी। एक पल में कुँवर साहब कमरे में आए। तारा सभ्यता के लिए हाथ मिलाना भी भूल गयी, उस्र बढ़ने के बाद भी प्रेमी की बेचैनी और लापरवाही कुछ कम नहीं होती। वह किसी शर्मीली औरत की तरह शिर झुकाए खड़ी रही।
कुँवर साहब की आते ही नज़र उसकी गर्दन पर पड़ी। वह मोतियों का हार, जो उन्होंने रात को भेट किया था, चमक रहा था। कुँवर साहब को इतनी
कभी पहले कभी न हुई थी। उन्हें एक पल के लिए ऐसा लगा मानों उनके जीवन के सारे अरमान पूरे हो गए। वो बोले”मैंने आपको आज इतनी सुबह
तकलीफ़ दी, माफ़ कीजिएगा। यह तो आपके आराम का समय होगा?” तारा ने सिर से खिसकती हुई साड़ी को सँभाल कर कहा”इससे ज्यादा आराम और क्या हो सकता कि आपके दर्शन हुए। मैं इस तोहफे के लिए आपको बहुत थन्यवाद देती हूँ। निर्मलकान्त ने मुस्कराकर कहा-कभी-कभी नहीं, रोज। आप चाहे मुझसे मिलना पसन्द न करें, पर एक बार इस दरवाज़े पर सिर झुका ही जाऊँगा। तारा ने भी मुस्करा कर जवाब दिया-“उसी वक्त तक जब तक कि दिल बहलाने के लिए कोई नयी चीज़ नजर न आ जाए! क्यों?” मेरे लिए यह मनोरंजन की बात नहीं, जिंदगी और मौत का सवाल है। हाँ, तुम इसे मजाक समझ सकती हो, मगर कोई पहवाह नहीं। तुम्हारे मनोरंजन
अब तो कभी-कभी मुलाकात होती रहेगी?”
के लिए मेरी जान भी निकल जाए, तो मैं अपना जीवन सफल समझौंगा”। दोनों तरफ से इस प्रेम को निभाने के वादे हुए, फिर दोनों ने नाश्ता किया और कल खाने का न्योता देकर कुंवर साहब विदा हुए।
एक महीना गुजर गया, कुंवर साहब दिन में कई-कई बार आते। उन्हें एक पल की जुदाई भी सहन न होती। कभी दोनों दरिया की सैर करते, कभी हरी-हरी घास पर पार्क में बैठे बातें करते, कभी गाना-बजाना होता, रोज़ नये प्रोग्राम बनते थे। सारे शहर में मशहूर था कि ताराबाई ने कुँवर साहब को फॉस लिया और दोनों हाथों से जायदाद लूट रही है। पर तारा के लिए कुँवर साहब का प्रेम ही एक ऐसी दौलत थी, जिसके सामने दुनिया भर की दौलत
बेकार थी।
उन्हें अपने सामने देखकर उसे किसी चीज़ की इच्छा न होती। मगर एक महीने तक इस प्रेम के बाजार में घूमने पर भी तारा को वह चीज़ न मिली, जिसके लिए उसकी आत्मा तड़प रही थी। वह कुँवर साहब से
प्रेम की, अपार और अतुल प्रेम की, सच्चे और निश्छल प्रेम की बातें रोज सुनती, पर उसमें ‘शादी’ शब्द कभी न आता, मानो प्यासे को बाजार में पानी छोड़कर और सब कुछ मिल रहा हो। ऐसे प्यासे को पानी के सिवा और किस चीज से तृप्ति मिल सकती है? प्यास बुझाने के बाद, मुमकिन है, ह और चीजों की तरफ उसकी रुचि हो, पर प्यासे के लिए तो पानी ही सबसे कीमती चीज़ है। वह जानती थी कि कुँवर साहब उसके इशारे पर जान तक दे देंगे, लेकिन शादी की बात क्यों उनकी जबान से नहीं निकलती? क्या इस बारे में कोई खत लिख कर अपनी इच्छा कह देना सम्भव था? क्या वह उसे सिर्फ दिल बहलाने का खिलौना बनाकर रखना चाहते हैं? यह अपमान उससे न सहा जाएगा। कँवर के एक इशारे पर वह आग में कूद सकती थी, पर यह अपमान उसके लिए सहना नामुमकिन था। किसी शौकीन रईस के साथ वह पहले शायद एक-दो महीने रह जाती और उसे नोच-खसोट कर अपने रास्ते चल देती । लेकिन प्रेम का बदला प्रेम है, कुँवर साहब के यह बेशर्मी का जीवन न बिता सकती थीं। साहव के साथ वह उधर कुंवर साहब के भाई बंद भी इससे अनजान न थे, वे किसी तरह उन्हें ताराबाई के पंजे से छुड़ाना चाहते थे। कहीं कुंवर साहब की शादी कर देना ही एक ऐसा उपाय था, जिससे सफल होने की आशा थी और यही उन लोगों ने किया। उन्हें यह डर तो न था कि कुंचर साहब इस ऐक्ट्रेस से शादी करेंगे। हाँ, यह डर ज़रूर था कि कही रियासत का कोई हिस्सा उसके नाम कर दें, या उसके आने वाले बच्चों को रियासत का मालिक ना बना दें। कुँवर साहब पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगे। यहाँ तक कि योरोपियन अधिकारियों ने भी उन्हें शादी कर लेने की सलाह दी। उस दिन शाम के समय कुंवर साहब ने ताराबाई के पास जाकर कहा-तारा, देखो, तुमसे एक बात कहता हूँ, इनकार न करना”। तारा का दिल उछलने
लगा। बोली-“कहिए, क्या बात है? ऐसी कौन सी चीज़ है, जिसे आपको भेंट करके मैं अपने को धन्य समझ?” बात मुँह से निकलने की देर थी। तारा ने स्वीकार कर लिया और खुशी के मारे पागलों की तरह रोती हुई कुंवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी।
एक पल के बाद तारा ने कहा-“मैं तो निराश हो गई थी। आपने बढ़ी लम्बी परीक्षा ली”। कुंवर साहब ने जबान दाँतों-तले दबाई, मानो कोई गलत बात सुन ली हो!
यह बात नहीं है तारा! अगर मुझे विश्वास होता कि तुम मेरी विनती स्वीकार कर लोगी, तो शायद पहले ही दिन मैंने भिक्षा के लिए हाथ फैलाया होता, पर
मैं खुद को तुम्हारे काबिल नहीं मानता था। तुम सद गुणों की खान हो, और मे.मैं जो कुछ हूँ, वह तुम जानती ही हो। मैंने फ़ैसला कर लिया था कि उम्र
भर तुम्हारी इज्जत और प्रेम करता रहूँगा।
सोचता था शायद कभी खुश हो कर तुम मुझे बिना मांगे ही वरदान दे दो। बस, यही मेरी इच्छा थी! मुझमें अगर कोई गुण है, तो यही कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। जब तुम साहित्य, संगीत या धर्म पर अपने विचार कहती हो, तो मैं दंग रह जाता हूँ और अपनी कमी और कम ज्ञान पर शर्मिंदा हो जाता हूँ। तुम मेरे लिए इस दुनिया की हो ही नहीं, बल्कि स्वर्ग से उतरी हुई लगती हो। मुझे तो इस बात का आश्चर्य है कि इस समय में मारे खुशी के पागल क्यों
नहीं हो जी।
कुंवर साहब देर तक अपने दिल की बातें कहते रहे। उनकी आवाज़ में पहले कभी इतनी खुशी और चमक न थी! तारा सिर झुकाये सुनती थी, पर आनंद की जगह उसके चेहरे पर एक तरह की मायूसी -शर्मिदगी से मिली हुई-झलक रही था। यह आदमी इतना
साफ दिल इतना निष्कपट है। हवा तुम इतना उदार!
तभी कुँवर साहब ने पूछा-“तो मेरे भाग्य किस दिन जागेंगे, तारा? दया करके बहुत दिनों के लिए न टालना। तारा ने कुँवर साहब की सरलता से हारकर चिंतित आवाज़ में कहा-“कानून का क्या कीजिएगा?” कुँवर साहब ने तुरंत जवाब दिया-इस बारे में तुम
बेफ़िक्र रहो तारा, मैंने वकीलों से पूछ लिया है। एक कानून ऐसा हे जिसके अनुसार में और तुम प्रेम के बंधन में बँध सकते हैं। उसे सिदिल-मैरिज कहते
हैं। बस, आज ही के दिन वह शुभ मुहूर्त आयेगा, क्यों?”
तारा सिर झुकाये रही। बोल न सकी।
मैं सुबह आ जाऊँगा। तैयार रहना। तारा सिर झुकाये रही। उसके मुँह से एक शब्द न निकला।
में
कुंवर साहब चले गये, पर तारा वहीं मूर्ति की तरह बैठी रही। आदमियों के दिल से खेलने वाली चतुर औरत आज क्यों इतनी खोयी हुई थी!
शादी में एक दिन और बाकी था। तारा को चारों ओर से बधाइयाँ मिल रही थी। थिएटर के सभी आदमी और औरतों ने अपनी हैसियत के अनुसार उसे अच्छे-अच्छे तोहफ़े दिये, कुँवर साहब ने भी गहनों से सजा हुआ श्रृंगार दान भेंट किया, उनके दो-चार करीबी दोस्तों ने तरह-तरह के सौगात भेजे; पर तारा के सुन्दर चेहरे पर खुशी की रेखा तक नज़र नहीं आई। वह बेचैन और उदास थी। उसके मन में चार दिनों से लगातार यही सवाल उठ रहा था -“क्या कुँवर के साथ विश्वासघात करें? जिस प्रेम के देवता ने उसके लिए अपने कुल-मर्यादा को दाव पर लगा दिया, अपनों से नाता तोड़ा, जिसका दिल दूध के समान सफेद, साफ़ निष्कलंक है, पहाड़ के समान विशाल, उसी से कपट करे। नहीं, वह इतनी नीच नहीं है , अपने जीवन में उसने कितने ही नौजवानों से प्रेम का अभिनय किया था, कितने ही प्रेम के मतवालों को ख्वाबों के बगीचे दिखा चुकी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दुविधा न हुई, कभी उसके दिल ने उसे धिक्कारा न था। क्या इसका कारण इसके सिवा कुछ और था कि ऐसा प्रेम उसे और कहीं न मिला था।
क्या वह कुंवर साहब का जीवन सुखी बना सकती है?
में रजी भर हाँ, ज़रूर इस बात में उसे रत्ती भर भी शक नहीं था। भक्ति के लिए ऐसी कोन-सी चीज़ है, जो नामुमकिन हो; पर क्या वह प्रकृति को धोखा दे सकती है। क्या कभी दलते हुए सूरज में दिन की सी रोशनी हो सकती है? नामुमकिन । वह फूल्ती, बह चंचलता, वह हंसी, वह सरल छवि, वह तल्लीनता, वह त्याग, वो आत्मविश्वास वह कहाँ से लायेगी, जिसके मेल को ज़वानी कहते हैं? नहीं, वह कितना ही चाहे, पर कुंवर साहब के जीवन को सुखी नहीं बना सकतीं बूढा बैल कभी जवान बछड़ों के साथ नहीं चल सकता।
आह! उसने यह नौबत ही क्यों आने दी? उसने क्यों नकली साधनों से, बनावटी सिंगार से कुंचर को धोखे में डाला? अब इतना सब कुछ हो जाने पर किस मुँह से कहेगी कि मैं रंगी हुई गुड़िया हूँ, जवानी मुझसे कब की विदा हो चुकी, अब सिर्फ उसके क़दमों के निशान रह गए हैं। रात के बारह बज गये थे। तारा मेज के सामने इन्हीं चिंताओं में मग्न बैठी थी। मेज पर तोहफ़ों के ढेर लगे थे; पर वह किसी चीज की ओर आँख उठाकर भी न देख रही थी। अभी चार दिन पहले वह इन्हीं चीजों पर जान देती थी, उसे हमेशा ऐसी चीजों की तलाश रहती थी, जो समय के चिह्नों को मिटा सकें, पर अब उन्हीं चीजों से उसे
प्रेम सच है- और सच और झूठ, दोनों एक साथ नहीं रह सकते।
ा ने सोचा-“क्यों न यहाँ से कहीं भाग जाऊं ?” किसी ऐसी जगह जहाँ कोई उसे जानता न हो। कुछ दिनों के बाद जब कुंवर की शादी हो जाएगी, वह आकर उनसे मिलेगी और यह सारा किस्सा कह सुनाएगी। इस समय कुंवर पर बिजली ज़रूर गिरेगी–हाय न-जाने उनकी कैसी दशा होगी; पर इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं अब उनके दिन रो-रोकर कटेंगे, लेकिन उसे कितना ही दुःख क्यों न हो, वह अपने प्रियतम के साथ छल नहीं कर सकती। उसके लिए इस स्वर्ग के समान प्रेम की यादें, इसकी पीड़ा ही बहुत है।
इससे ज़्यादा उसका अधिकार नहीं।
दाई ने आकर कहा-बाई जी, चलिए थोड़ा सा खा लीजिए अब तो बारह बज गए। ने कहा-“नहीं, जरा भी भूख नहीं। तुम जाकर खा लो”।
दाई-देखिए, मुझे भूल न जाइएगा। मैं भी आपके साथ चलूँगी”।
तारा–अच्छे-अच्छे कपड़े बनवा रखे हैं न?” दाई-अरे बाई जी, मुझे अच्छे कपड़े लेकर क्या करना है? आप अपना कोई उतारा दे दीजिएगा”।
दाई चली गई। तारा ने घड़ी की ओर देखा। सचमुच बारह बज गए थे। सिर्फ छह घंटे और हैं। सुबह कुंवर साहब उसे शादी के लिए -मंदिर ले-जाने आ जाएंगे । हाय! भगवान, जिस चीज़ से तुमने इतने दिनों तक उसे दूर रखा, वह आज क्यों सामने लेकर आए ? यह भी तुम्हारा कोई खेल ही है.
तारा ने एक सफद साड़ी पहन ली। सारे गहने उतार कर रख दिये। गर्म पानी मौजूद था। साबुन और पानी से मुँह धोया और आईने के सामने जा कर
गयी “कहाँ थी वह छवि, वह ज्योति, जो आँखों को लुभा लेती थी! रुप वही था, पर विद्रोह कहाँ है? अब भी वह जवानी का नाटक कर तारा को अब वहाँ एक पल भी और रहना मुश्किल लग रहा था । मेज पर फैले हुए गहने और विलास के सामान मानों उसे काटने लगे। यह बनावटी खड़ी हो सकती है?
जीवन बर्दाश्त से बाहर हो उठा, खस की छत और बिजली के पंखों से सजा हुआ शीतल महल उसे भट्टी के समान तपाने लगा। उसने सोचा-“कहाँ भाग कर जाऊँ। रेल से भागती हूँ, तो भागने ना पाऊँगी। सुबह ही कुँवर साहब के आदमी चारों तरफ मेरी तलाश करने लगेंगे”।
वह ऐसे रास्ते से जायगी, जहां किसी का ख्याल भी न जाए।
तारा का दिल इस समय गर्व से छलका पड़ा था। वह दुःखी न थी, निराश न थी। फिर कुंवर साहब से मिलेगी, लेकिन वह निस्वार्थ संयोग होगा। प्रेम के बनाये हुए कर्तव्य रास्ते पर चल रही है, फिर दुःख क्यों हो और निराश क्यों हो?
अचानक उसे ख्याल आया “ऐसा न हो, कुँवर साहब उसे वहाँ न पा कर दुःख की दशा में अनर्थ कर बैठे। इस कल्पना से उसके रोंगटे खड़े हो गये। एक पल के लिए उसका मन डर से भर गया। फिर वह मेज पर जा बैठी, और यह खत लिखने लगी
प्रियतम, मुझे माफ़ करना। मैं खुद को तुम्हारी दासी बनने के लायक भी नहीं समझती । तुमने मुझे प्रेम का वह रूप दिखा दिया, जिसकी इस जीवन में मैं आशा न कर सकती थी। मेरे लिए इतना ही बहुत है। मैं जब तक जीऊँगी, तुम्हारे प्रेम में मग्न रहूँगी। मुझे ऐसा लग रहा है कि प्रेम की यादों में प्रेम
के भोग से कही ज्यादा मिठास और सुख है। मैं फिर आऊँगी, फिर तुम्हारे दर्शन करुंगी; लेकिन उसी दशा में जब तुम शादी कर लोगे। यही मेरे लौटने की मेरे प्रेमी, मुझसे नाराज न होना। ये जेवर जो तुमने मेरे लिए भेजे थे, अपनी ओर से नई दुल्हन के लिए छोड़े जा रही हूँ। सिर्फ़ वह मोतियों का हार, जो तुम्हारे प्रेम का पहला तोहफ़ा है, अपने साथ लिये जा रही हूँ। तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, मेरी तलाश न करना। मैं तुम्हरी हूँ और हमेशा तुम्हारी ही
शर्त है।
रहूंगी..।
तुम्हारी,
तारा यह खत लिखकर तारा ने मेज पर रखा, मोतियों का हार गले में डाला और बाहर निकल आयी। थिएटर हाल से संगीत की आवाज़ आ रही थी। एक पल
के लिए उसके पैर बँध गये। पन्द्रह सालों का पुराना रिश्ता आज टूट रहा था। तभी उसने मैनेजर को आते देखा। उसका कलेजा धक से हो गया। वह बड़ी तेजी से लपककर दीवार की आड़ में खड़ी हो गयी। जैसे ही मैनेजर गया, वह बाहर आयी और कुछ दूर गलियों में चलने के बाद उसने गंगा का रास्ता पकड़ा।
र पर सन्नाटा छाया हुआ था। दस-पाँच साधु-बैरागी धूनियों के सामने लेटे थे। दस-पाँच यात्री कम्बल जमीन पर बिछाये सो रहे थे। गंगा किसी विशाल सांप की तरह रेंगती चली जा रही थी। एक छोटी-सी नौका किनारे पर लगी थी। मल्लाहा नौका में बैठा था। तारा ने मल्लाहा को पुकारा ओ माँझी, उस पार नाव ले चलेगा?”
मॉझी ने जवाब दिया-“इतनी रात गये नाव न जाई। मगर दुगने पैसे की बात सुनकर उसने चप्पू उठाया और नाव को खोलता हुआ बोला-“सरकार, उस पार कहाँ जैहे?”
उस पार एक गाँव में जाना है।’
‘मगर इतनी रात गये कौनों सवारी-सिकारी न मिली।
कोई हर्ज नहीं, तुम मझे उस पार पहुंचा दो।
माँझी ने नाव खोल दी। तारा उस पार जा बैठी और नौका हौले-हौले चलने लगी, मानों मन सपनों की दुनिया में टहल रहा हो। उसी वक्त एकादशी का चाँद, धरती से उस पार, अपनी सफ़ेद चमकदार नौका खेता हुआ निकला और आसमान के सागर को पार करने लगा।
सीख – इस कहानी में हमें त्याग और समर्पण की तस्वीर दिखाई दी, जब किसी को सच्चे प्रेम के साथ साथ आदर मिलता है तो वो निस्वार्थ भावना से खुद को समर्पित कर देता है. तारा देवी को भी जब सम्मान और सच्चा प्रेम मिला तो उनके मन में ये भावना उठने लगी कि श्रृंगार के दम पर वो किसी को रिझा तो सकती है मगर अपने और कुंवर साहब के बीच उम्र के फ़ासले को कभी मिटा नहीं सकती. उसे लगने लगा जैसे वो कुंवर साहब को कभी वो खुशी नहीं दे पाएगी जिसके हकदार सच्चे प्रेम में इंसान दूसरे के बारे में पहले सोचता है और वही तारा ने भी किया.