AAKHIRI HEELA by Munshi premchand.

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About Book

हालाँकि मेरी याददाश्त धरती के इतिहास की सारी याद रखने लायक तारीखें भूल गयीं, वह तारीखें जिन्हें रातों को जागकर और दिमाग को परेशान कर याद किया था, मगर शादी की तारीख समतल जमीन में एक खम्बे की तरह पक्की है। न भूलता हूँ, न भूल सकता हूँ। उससे पहले और पीछे की सारी घटनाएँ दिल में मिट गयीं, उनका निशान तक बाकी नहीं। वह सारी अलग बाते अब एक हो गयी है और वह मेरी शादी की तारीख है। चाहता हूँ, उसे भूल जाऊँ, मगर जिस तारीख को रोज याद किया जाता हो, वह कैसे भूला जाय, रोज याद क्यों करता हूँ, यह उस मुसीबत से पूछिए जिसे भगवान के भजन के सिवा जीवन के उद्धार का कोई सहारा न रहा हो। लेकिन क्या मैं शादीशुदा जीवन से इसलिए भागता हूँ कि

मुझमें हँसी मज़ाक करने की आदत नहीं है और मैं नाजुक से मन को मोहने वाली के मोह से दूर हो गया हूँ और मेरा हर मोह माया से नाता टूट चुका है। क्या मैं नहीं चाहता कि जब मैं सैर करने निकलूँ, तो दिल में बसने वाली पत्नी भी मेरे साथ हों। ऐय्याशी की चीज़ो की दुकानों पर उनके साथ जाकर थोड़ी देर के लिए उन चीज़ो के लिए उसकी जिद देखने की खुशी मिले। मैं उस गर्व और ख़ुशी और जरुरत को महसूस कर सकता हूँ, जो मेरे और भाइयों की तरह मेरे दिल में भी जिंदा होगा, लेकिन मेरे भाग्य में वह खुशियाँ वह मौज-मस्ति नहीं हैं।

क्योंकि चित्र का दूसरा पहलू भी तो देखता हूँ। एक पक्ष जितना ही मन को लुभाने वाला और खींचने वाला है, दूसरा उतना ही दिल दुखने वाला और डरावना। शाम हुई और आप बदनसीब बच्चे को गोद में लिये तेल या ईंधन की दुकान पर खड़े हैं। अंधेरा हुआ और आप आटे की पोटली बगल में दबाये गलियों में ऐसे कदम बढ़ाये हुए निकल जाते हैं, मानो चोरी की है। सूरज निकला और बच्चों को गोद में लिये होमियोपैथ डाक्टर की दुकान में टूटी कुर्सी पर बैठे हैं। किसी खोंमचे वाले की मीठी आवाज सुनकर बच्चे ने आसमान चीरने वाला रोना शुरू किया और आपकी जान निकली । ऐसे बापों को भी देखा है, जो दफ्तर से लौटते हुए पैसे-दो पैसे की मूंगफली या रेवड़ियाँ लेकर शर्म के साथ जल्दी से इसलिए खा जाते है कि घर पहुँचते-पहुँचते बच्चों के हमला करना से पहले ही वो ख़त्म हो जाय। कितना निराश करता है यह नज़ारा, जब देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसी खिलौने की दुकान के सामने जिद कर रहा है और पिता महोदय ऋषियों की तरह ” थोड़ी देर की जिद है” का राग अलाप रहे हैं। चित्र का पहला रुख तो मेरे लिए कामदेव का सपना है, दूसरा रुख एक कड़वा सच। इस सच के सामने मेरी सारी हँसी मज़ाक करने की आदत गायब हो जाती है। मेरे सारे उसूल, बुनियाद और कल्पना इसी शादी के फंदों से बचने में इस्तेमाल हुई है। जानता हूँ कि जाल के नीचे जाना है, मगर जाल जितना ही रंगीन और मोल लेने वाला है, दाना उतना ही दुःख देने वाला और जहरीला। इस जाल में पक्षियों को तड़पते और फड़फड़ाते देखता हूँ, और फिर भी जाल पर जा बैठता हूँ।

लेकिन इधर कुछ दिनों से श्रीमतीजी ने बिना चैन लिए जिद करना शुरू किया कि मुझे बुला लो। पहले जब छुट्टियों में जाता था, तो मेरा सिर्फ ‘कहाँ चलोगी’ कह देना मन की शांति के लिए बहुत होता था, फिर मैंने ‘झंझट है’ कहकर उन्हें तसल्ली देनी शुरू की। इसके बाद घर-परिवार की मुश्किलों से डराया, पर अब कुछ दिनों से उनकी शंका बढ़ती जा रही है। अब मैंने छुट्टियों में भी उनकी जिद के डर से घर जाना बंद कर दिया है कि कहीं वह मेरे साथ न चल खड़ी हों और अलग-अलग बहानों से उन्हें डरता रहता हूँ।

हालाँकि मेरी याददाश्त धरती के इतिहास की सारी याद रखने लायक तारीखें भूल गयीं, वह तारीखें जिन्हें रातों को जागकर और दिमाग को परेशान कर याद किया था, मगर शादी की तारीख समतल जमीन में एक खम्बे की तरह पक्की है। न भूलता हूँ, न भूल सकता हूँ। उससे पहले और पीछे की सारी घटनाएँ दिल में मिट गयीं, उनका निशान तक बाकी नहीं। वह सारी अलग बाते अब एक हो गयी है और वह मेरी शादी की तारीख है। चाहता हूँ, उसे भूल जाऊँ, मगर जिस तारीख को रोज़ याद किया जाता हो, वह कैसे भूला जाय, रोज याद क्यों करता हूँ, यह उस मुसीबत से पूछिए जिसे भगवान के भजन के सिवा जीवन के उद्धार का कोई सहारा न रहा हो

क्या मैं शादीशुदा जीवन से इसलिए भागता हूँ कि मुझमें हँसी मज़ाक करने की आदत नहीं है और मैं नाजुक से मन को मोहने वाली के मोह से लेकिन क्या में दूर हो गया हूँ और मेरा हर मोह माया से नाता टूट चुका है। क्या में नहीं चाहता कि जब मैं सैर करने निकलूँ, तो दिल में बसने वाली पत्नी भी साथ १ मेरे हों। ऐय्याशी की चीज़ो की दुकानों पर उनके साथ जाकर थोड़ी देर के लिए उन चीज़ो के लिए उसकी जिद देखने की खुशी मिले। मैं उस गर्व और खुशी और जरुरत को महसूस कर सकता हूँ, जो मेरे और भाइयों की तरह मेरे दिल में भी जिंदा होगा, लेकिन मेरे भाग्य में वह खुशियाँ वह मौज-मस्ति नहीं हैं। क्योंकि चित्र का दूसरा पहलू भी तो देखता हूँ। एक पक्ष जितना ही मन को लुभाने वाला और खींचने वाला है, दूसरा उतना ही दिल दुखने वाला और दूसरा डरावना। शाम हुई और आप बदनसीब बच्चे को गोद में लिये तेल या ईधन की दुकान पर खड़े हैं। अधेरा हुआ आप आटे की पोटली बगल में दबाये गलियों में ऐसे क से कदम बढ़ाये हुए निकल जाते मानो चोरी की है। किसी जाते हैं, गाना चोरी की है। सूरज निकला और बच्चों को गोद में लिये होनियोपैथ डाक्टर की दुकान में टूटी कुर्सी पर बैठे हैं। किसी खोंमचे वाले की मीठी आवाज सुनकर बच्चे ने आसमान चीरने वाला रोना शुरू किया और आपकी जान निकली। ऐसे बापों को भी वाली रोनी शुरू देखा है, जो दफ्तर से लौटते हुए मैसे-दो पैसे की मूँगफली या रेवड़ियाँ लेकर शर्म के साथ जल्दी से इसलिए खा जाते है कि घर पहुँचते-पहुँचते बच्चों { पसे-दो ।

के हमला करना से पहले ही वो खत्म हो जाय। कितना निराश करता है यह नज़ारा, जब देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसी खिलौने की दुकान के सामने ा हूँ । जिद कर रहा है और पिता महोदय ऋषियों की तरह ” थोड़ी देर की जिद है” का राग अलाप रहे हैं। चित्र का पहला रुख तो मेरे लिए कामदेव का सपना है, दूसरा रुख एक कड़वा सच। इस सच के सामने मेरी सारी हँसी मज़ाक करने की आदत गायब हो जाती है। मेरे सारे उसूल, बुनियाद और कल्पना इसी शादी के फंदों से बचने में इस्तेमाल हुई है। जानता हूँ कि जाल के नीचे जाना है, मगर जाल जितना ही रंगीन और मोल लेने वाला है, दाना उतना ही दुःख देने वाला और जहरीला। इस जाल में पक्षियों को तड़पते और फड़फड़ाते देखता हूँ, और फिर भी

जाल पर जा बैठता हूँ। लेकिन इधर कुछ दिनों से श्रीमतीजी ने बिना चैन लिए जिद करना शुरू किया कि मुझे बुला लो। पहले जब छुट्टियों में जाता था, तो मेरा सिर्फ कहाँ चलोगी कह देना मन की शांति के लिए बहुत होता था, फिर मैंने झंझट है कहकर उन्हें तसल्ली देनी शुरू की। इसके बाद घर-परिवार की मुश्किलों से डराया, पर अब कुछ दिनों से उनकी शंका बढ़ती जा रही है। अब मैंने छुट्टियों में भी उनकी जिद के डर से घर जाना बंद कर दिया है कि कहीं वह मेरे साथ न चल खड़ी हों और अलग-अलग बहानों से उन्हें डरता रहता हूँ।

मेरा पहला बहाना ख़त-संपादकों के जीवन की कहानियों के बारे में था। कभी बारह बजे रात को सोना नसीब होता है, कभी पूरी रात जागना पड़ जाता है। सारे दिन गली-गली ठोकरें खानी पड़ती हैं। इस पर और अलग से यह भी कि हमेशा सिर पर नगी तलवार लटकती रहती है। न जाने कब गिरफ्तार हो जाऊँ, कब जमानत की जरुरत हो जाय। जासूसी पुलिस की एक फौज हमेशा पीछे पड़ी रहती है। कभी बाजार में निकल जाता हूँ, तो लोग उंगलियाँ उठाकर कहते हैं वह जा रहा है अखबारवाला। मानो संसार में भगवान, राक्षस, दुनिया के जीव-जंतुओं की जितनी मुसीबते, उनका जिम्मेदार मैं हूँ। मानो मेरा दिमाग झूठी

का दफ्तर है। सारा दिन अफसरों की सेवा और पुलिस की चापलूसी में निकल जाता है। खबरें बनाने व कान्सटेबलों को देखा और जान निकलने लगी। मेरी तो यह हालत है और अफसर है कि मेरी सूरत से डरते हैं। एक दिन बदकिस्मती से एक अंग्रेज के बंगले की तरफ जा निकला। साहब ने पूछा “क्या काम करता है?” मैंने गर्व के साथ कहा, “अखबार का संपादक हूँ। साहब तुरंत अंदर घुस गये और दरवाजे बंद कर लिये। फिर मैंने मेम साहब और बाबा लोगों को खिड़कियों से झाकते देखा, मानो में कोई डरावना जानवर हूँ। एक बार रेलगाड़ी में सफर हमेशा साथ और कर रहा था, भी कई दोस्त थे, इसलिए अपने पद की इज्ज़त रखने के लिए सेकेंड क्लास का टिकट लेना पड़ा। गाड़ी में बैठा तो एक साहब मेरे सूटकेस पर मेरा नाम और पद देखते ही तुरंत अपना बक्सा खोला और रिवाल्वर निकालकर मेरे सामने गोलियाँ भरीं, जिससे मुझे पता चल जाय कि वह मुझसे सावधान है। मैंने देवीजी से पैसे की परेशानियों का कभी जिक्र नहीं किया, क्योंकि मैं औरत के सामने यह जिक्र करना अपनी इज़्ज़त के पर देवीजी को दया । खिलाफ समझता हूँ। हालाँकि मैं वह जिक्र करता, तो मुझ पर देवीजी जरूर आती। हैं।

मुझे विश्वास था कि श्रीमतीजी फिर यहाँ आने न लेंगी। मगर यह मेरा वहम था। उनकी जिद वैसे ही होती रही। तब मैंने दूसरा बहाना सोचा। शहरो में बहुत बीमारिया हैं। सभी खाने-पीने की चीज में मिलावट है । दूध में मिलाचट, घी में मिलावट, फलों में मिलावट, ने-पीनि साग-सब्जी में मिलावट, हवा में मिलावट, पानी में मिलावट। आदमी का जीवन पानी की लकीर है जिसे आज देखो चह कल गायब। अच्छे-खासे बैठे दिल की धड़कन बंद हो गयी। घर से सैर को निकले, मोटर से टकराकर ऊपर का रास्ता पकड़ लिया अगर कोई शाम को सही सलामत घर आ जाय, तो उसे किस्मत वाला समझो। मच्छर की आवाज कान में आयी, दिल बैठा, मक्खी नजर आयी और हाथ-पाँव फुले। चूहा बिल से निकला और जान निकल गयी। जिधर देखिए यमराज ही दिखाई देते है। अगर मोटर और गाड़ी से बचकर आ गये, तब मच्छर और मक्खी के शिकार हुए। बस यही के कि सौत हरदम सिर पर नाचती रहती समझ लो साँस भी मुश्किल से लेता हूँ कि कहीं टी बी के कीटाण के मक्छरों से लड़ता हूँ, दिन-भर मक्खियों से। नन्ही-सी जान को किन-किन दुश्मनों से बचाऊँ। रात-भर फेफड़े में न पहुँच जायेँ।

का नाम

देवीजी विश्वास न आया। दूसरे खत में भी वहीं इच्छा थी। लिखा था, तुम्हारे खत ने एक और चिंता बढ़ा दी अब। अब रोज खत लिखा करना, मैं एक न सुनेंगे और सीधे चली आऊंगी। मैंने दिल में कहा, चलो, सस्ते छूटे। मगर यह डर लगा हुआ था कि न जाने कब उन पर शहर आने की जिद सवार हो जाय। इसलिए मैंने तीसरा बहाना सोच निकाला। यहाँ दोस्तों के मारे मुसीबत रहती है, आकर बैठ जाते हैं तो उठने का नाम भी नहीं लेते मानों अपना घर बेच आये हैं। अगर घर से चले जाओ, तो आकर बेधड़क कमरे में बैठ जाते हैं और नौकर से जो चीज चाहते हैं, उधार मँगवा लेते हैं। देना मुझे पड़ता है। कुछ लोग तो हफ्तों पड़े रहते हैं, जाने का नाम ही नहीं लेते। रोज उनकी सेवा करो, रात को थिएटर या सिनेमा दिखाओ। फिर सोरे तक ताश या शतरंज खेलो। ज्यादातर तो ऐसे हैं, जो शराब बिना जिंदा ही नहीं रह सकते।

ज्यादातर तो बीमार होकर आते हैं। बल्कि ज्यादातर बीमार ही आते हैं। अब रोज डाक्टर को बुलाओ, ा पानी करो, रात भर सिर के पास बैठे पंखा करते रहो, उस पर यह शिकायत भी सुनते रहो कि यहाँ कोई हमारी बात भी नहीं पूछता मेरी घड़ी महीनों से मेरे हाथ पर नहीं बंधी । दोस्तों के साथ जलों में इस्तेमाल हो रही है। अचकन है, वह एक साहब के पास है, कोट दूसरे साहब ले गये। जूते एक बाबू ले उड़े। मैं वही बेकार कोट और चमड़े का

जूता पहनकर दफ्तर जाता हूँ।

दोस्त देखते रहते हैं कि कौन-सी नयी चीज़ लाया। कोई चीज लाता हूँ, लो मारे डर के बक्से में बंद कर देता हूँ। किसी की नज़र पड़ जाय, तो कहीं-न-कहीं मांगने खाने की लगन लग जाय। पहली तारीख को सैलरी मिलती हैं, तो चोरों की तरह डरते हुए घर आता हूँ कि कहीं कोई दोस्त रुपयों के इन्तजार में दरवाजे पर जमे न बैठे हों ! पता नहीं, उनकी सारी जरूरते पहली ही तारीख का इन्तजार क्यों करती रहती हैं। एक दिन सैलरी लेकर बारह बजे रात को आया, पर देखा तो 6-7 दोस्त उस वक्त भी बैठे हुए थे। मैंने अपना माधा पीट लिया। कितने ही बहाने करूँ, उनके सामने एक नहीं चलती। कहता हूँ, घर से खत आया है, माँ बहुत बीमार हैं। जवाब देते हैं, अजी बुढ़े इतनी जल्द नहीं मरते। मरना ही होता, तो इतने दिन जिंदा क्यों रहतीं। में अच्छी हो जायेंगी, और अगर मर भी जायें, तो बूढ़ो के मरने का दुःख ही क्या, वह तो और खुशी की बात है। कहता हूँ, देख लेना दो-चार दिन में लगान का बहुत तकाजा हो रहा है जवाब मिलता है, आजकल लगान तो बंद हो ही रहा है। लगान देने की जरूरत ही नहीं रही। अगर किसी संस्कार का बहाना करता हूँ, तो कहते हैं, तुम भी अजीब हो। इन बुरे रिवाजो को मानना तुम्हे शोभा नहीं देता। अगर तुम उन्हें खत्म करोगे, तो वह लोग क्या

आसमान से आवेंगे? बात यह है कि किसी तरह जान नहीं बचती। मैंने समझा था कि हमारा यह बहाना चल जाएगा। ऐसे घर में कौन औरत रहना पसंद करेगी, जो दोस्तों का ही हो गया हो ! पर मुझे फिर वहम हुआ। जवाब में फिर वही जिद थी। तब मैंने चौथा तरीका सोचा। यहाँ के मकान हैं कि चिड़ियों के पिंजरे, न हवा, न रोशनी। वह बदबू उड़ती है कि खोपड़ी फट जाती है। कितने को तो इसी बदबू के कारण हैजा, टाइफाइड, टी. बी.जैसे बीमारियों हो जाती हैं। बारिश हुई और मकान टपकने लगा। पानी चाहे घंटे भर बरसे, मकान रात भर

बरसता रहता है। ऐसे बहुत कम घर होंगे, जिनमें भूत का साया न हों, लोगों को डरावने सपने दिखाई देते हैं। कितने तो पागल हो जाते है। आज नये घर

आये, कल ही उसे बदलने की चिंता शुरू हो गयी। कोई ठेला सामान से भरा हुआ जा रहा है, कोई आ रहा है। जिधर देखिये ठेले-ही-ठेले नजर आते

चोरियाँ तो इतनी होती हैं कि अगर कोई रात ठीक से कट जाय, तो देवताओं के सामने हाथ जोड़ते हैं। आधी रात हुई और चोर-चोर! लेना-लेना । की आवाजें आने लगीं। लोग दरवाजों पर मोटे-मोटे लकड़ी के फट्टे या जूते या चिमटे लिये खड़े रहते हैं; फिर भी चौर इतने तेज हैं कि आँख बचाकर अंदर पहुँच ही एक मेरे बेशर्म दोस्त हैं, प्यार में मेरे पास बहुत देर तक बैठे रहते हैं। रात अंधेरे में बर्तन खड़के, तो मैंने बिजली की बत्ती जलाई! देखा, तो वही दोस्त बर्तन चोरी कर रहे हैं। मेरी आवाज सुनकर जोर से हँसे,और बोले, मैं तुम्हें चकमा देना चाहता था। मैंने दिल में समझ लिया, अगर निकल जाते. तो बर्तन आपके थे, जब जाग पड़ा तो खेल हो गया।

घर में आयें कैसे, यह रहस्य है। कभी रात को ताश खेलकर चले, तो बाहर जाने के बदले नीचे अँधेरी कोठरी में छिप गये। एक दिन एक दोस्त मुझसे खत लिखाने आये, कमरे में कलम-दवात न थी। ऊपर के कमरे से लाने गया। लौटकर आया तो देखा जनाब गायब हैं और उनके साथ फाउंटेन पेन भी गायब है। कम शब्दों में कहूं तो यह कि शहर का जीवन नरक से कम दुःख देने वाला नहीं है। मगर पत्नीजी पर शहरी जीवन का ऐसा जादू चढ़ा हुआ है कि मेरा कोई बहाना उन पर असर नहीं करता। इस खत के जवाब में उन्होंने लिखा “मुझसे

बहाना करते हो, में बिलकुल न मानूंगी, तुम आकर मुझे ले जाओ।

आखिर मुझे पाँचवाँ बहाना करना पड़ा। यह खोमचे वालों के बारे में था।

अभी बिस्तर से उठा भी नहीं था कि कानों में अजीब आवाजें आने लगीं। बाबुल के मीनार के बनने के साथ ऐसी बेकार आवाजें न आयी होंगी। वह खोंमचे वालों के शब्द का खेल है। सही तो यह था, यह खोंमचे वाले ढोल-मॅजीरे के साथ लोगों को अपनी चीजों की ओर खींचते, पर इन कम

अक्लवालों को यह कहाँ समझ आता है। ऐसे भूत की तरह आवाज निकालते हैं कि सुनने वाले डर जाते हैं। बच्चे माँ की गोद में चिपट जाते हैं। मैं भी रात को अक्सर चौंक पड़ता हूँ। एक दिन तो मेरे पड़ोस में एक दुर्घटना हो गयी।

ग्यारह बजे थे। कोई औरत बच्चे को दध पिलाने उठी थी। अचानक जो किसी खोंमचे वाले की डरावनी आवाज कानों में आयी, तो चीख मारकर चिल्ला

उठी और फिर बेहोश हो गयी। महीनों की दवा-खाने के बाद अच्छी हुई और अब रात को कानों में रुई डालकर सोती है। ऐसे काम शहरो में रोज होते

रहते हैं। मेरे ही दोस्तों में कई ऐसे हैं जो अपनी औरतों को घर से लाये; मगर बेचारियाँ दूसरे ही दिन इन आवाजों से डर कर वापिस चली गयीं। श्रीमतीजी ने इसके जवाब में लिखा तुम समझते हो, “मैं खोमचे वालों की आवाजों से डर जाऊँगी। यहाँ गीदड़ों का चिल्लाना और उल्लूओं का चीखना आखिर में मुझे एक ऐसा बहाना दिमाग में आया, जिसकी कामयाबी का मुझे पूरा विश्वास था। पर इसमें कुछ बदनामी थी; लेकिन बदनामी से मैं इतना नहीं डरता, जितना उस मुसीबत से। फिर मैंने लिखा शहर शरीफ औरतों के रहने की जगह नहीं है । यहाँ की नौकरानियाँ इतनी बुरी तरह बोलती हैं

सुनकर तो डरती नहीं खोंमचे वालों से क्या इरूगी

की बात का जवाब गालियों से देती हैं, और उनके बनाव-सँवार का क्या पूछना। अच्छे घर की औरते तो उनके रहन-सहन देखकर ही शर्म से पानी-पानी

हो जाए सिर से पाँव तक सोने से लदी हुई, सामने से निकल जाती हैं, तो ऐसा लगता है कि सुगंध की लपट निकल गयी। आम औरते ये मौज कहाँ से

लायें? उन्हें तो और भी सैकड़ों चिंताएँ हैं। इन नौकरानियों को तो बनाव-सिंगार के सिवा दूसरा काम ही नहीं। रोज नए-नए सज-धाज, नयी हरकते और चंचल तो इस तरह हैं; मानो शरीर में खून की जगह पारा भर दिया हो। उनका चमकना, मटकना और मुस्कराना देखकर आम औरते शर्मा जाती हैं और दादागिरी ऐसी कि बिना डरे जबरदस्ती घरों में घुस पड़ती हैं। जिधर देखो इनका मेला-सा लगा हुआ है। इनके मारे सीधे आदमियों का घर में बैठना मुश्किल है। कोई खत लिखाने के बहाने से आ जाती है; कोई खत पढ़ाने के बहाने से। असली बात तो यह है कि घर कि औरतो का रंग फीका करने में

इन्हें मजा आता है। इसलिए शरीफ औरते शहरों में बहुत कम आती हैं।

मालूम नहीं इस ख़त में मुझसे क्या गलती हुई कि तीसरे दिन पत्नीजी एक बूढ़े डोली ढोने वाले के साथ मेरा पता पूछती हुई अपने तीनों बच्चों को लिये मैंने परेशान होकर पूछा- क्यों सब ठीक तो है?”

एक पेचीदा बीमारी की तरह आ गयी।

पत्नीजी ने चादर उतारते हुए कहा- “घर में कोई चुडैल बैठी तो नहीं है? यहाँ किसी ने पैर रखा तो नाक काट लुँगी। हाँ, जो तुमने किसी को घुसाया हो !” अच्छा, तो अब राज खुला। मैंने सिर पीट लिया क्या जानता था, अपना तमाचा अपने ही मुँह पर पडेगा।

सीख – शहर में रह रहे पति के तरह -तरह के बहानों को एक पत्नी तब तक बर्दाश्त करती है जब तक उन बहानो में दोस्तों की हरकतों, शहरी जीवन की समस्याएँ और बीमारियों का जिक्र होता है लेकिन जैसे ही कोई दूसरी औरत के नाम पर बहाना बनाकर टाला जाता है , तो अपने घर टूटने का डर पत्नी को बेचैन कर देता है और वो अपना घर बचाने के लिए दौड़ी चली आती है। इस कहानी में मुंशीजी ने शादी के साथ आने वाली ज़िम्मेदारियों का ज़िक्र भी किया है. कहानी का किरदार इन ज़िम्मेदारियों से बचने के लिए लाख बहाने बनाता है लेकिन अंत में उसका पासा उल्टा पड़ जाता है,

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