KAYAR by Munshi premchand.

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लड़के का नाम केशव था, लड़की का प्रेमा। दोनों एक ही कालेज में और एक ही क्लास में पढ़ते थे। केशव नये विचारों का था, जात-पात के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास रखने वाली; लेकिन फिर भी दोनों में गहरा प्रेम हो गया था और यह बात सारे कालेज में मशहूर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य जाति यानी बिज़नेस करने वाले की लड़की प्रेमा से शादी करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी। कुल-मर्यादा का विचार भी उसे ढ़ोंग और नाटक सा लगता था। उसके लिए अगर कोई चीज़ सच्ची थी, तो बस प्रेम; लेकिन प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल- परिवार के आदेश के खिलाफ़ एक कदम बढ़ाना भी नामुमकिन था। शाम का समय था। विक्टोरिया-पार्क के एक सुनसान जगह में दोनों आमने-सामने हरियाली पर बैठे हुए थे। सैर करने वाले एक-एक करके विदा हो गये; लेकिन ये दोनों अभी वहीं बैठे रहे । उनमें एक ऐसी बात छिड़ी हुई थी, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

केशव ने झुँझलाकर कहा-“इसका यह मतलब है कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं है?”

प्रेमा ने उसे शान्त करने की कोशिश करके कहा-‘ -“तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, केशव! लेकिन मैं इस बात को माँ

और पिताजी के सामने कैसे छेडूं, यह मेरी समझ में नहीं आता। वे लोग पुरानी मान्यताओं के भक्त हैं। मेरी तरफ से कोई ऐसी बात सुनकर मन में जो-जो ख़याल आएँगे , उसकी तुम कल्पना कर सकते हो?”

केशव ने गुस्से के भाव से पूछा-“तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की गुलाम हो?”

प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में प्रेम भरकर कहा-“नहीं, मैं उनकी गुलाम नहीं हूँ, लेकिन माँ और पिताजी की इच्छा मेरे लिए और सब चीजों से ज़्यादा अहमियत रखती है”। ‘तो तुम्हारा अपना व्यक्तित्व कुछ नहीं है?’ ‘ऐसा ही समझ लो।

‘मैं तो समझता था कि ये ढकोसले मूर्खों के लिए हैं; लेकिन अब मालूम हुआ कि तुम-जैसी बुद्धिमान पढ़ी लिखी लड़की भी उनकी पूजा करती हैं। जब मैं तुम्हारे लिए संसार को छोडने को तैयार हूँ तो तुमसे भी यही उम्मीद करता हूँ।’ प्रेमा ने मन में सोचा, “मेरा अपने शरीर पर क्या अधिकार है। जिन माता-पिता ने अपने खून से मेरी रचना की है, और अपने प्रेम से उसे पाला है, उनकी मर्जी के खिलाफ कोई काम करने का मेरा कोई हक नहीं।

उसने दीनता के साथ केशव से कहा – “क्या प्रेम औरत और आदमी के रूप में ही किया जा सकता है, दोस्ती के रूप में नहीं? मैं तो इसे आत्मा का बन्धन समझती हूँ”। केशव ने कठोर भाव से कहा-“इन बड़ी-बड़ी बातों से तुम मुझे पागल कर दोगी, प्रेमा! बस, इतना ही समझ लो मैं निराश होकर जिन्दा नहीं रह सकता। मैं प्रैक्टिकल आदमी हूँ, और कल्पनाओं के संसार में सच का आनन्द उठाना मेरे लिए नामुमकिन है।

यह कहकर उसने प्रेमा का हाथ पकडक़र अपनी ओर खींचने की कोशिश की। प्रेमा ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली -“नहीं केशव, मैं कह चुकी हूँ कि मैं आज़ाद नहीं हूँ। तुम मुझसे वह चीज न माँगो, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है”।

केशव को अगर प्रेमा ने कठोर शब्द कहे होते तो भी उसे इतना दुःख न हुआ होता। एक पल तक वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा भरी आवाज़ में बोला-‘जैसी | तुम्हारी इच्छा!” धीरे-धीरे कदम उठाता हुआ वो वहाँ से चला गया। प्रेमा अब भी वहीं बैठी आँसू बहाती रही।

लड़के का नाम केशव था, लड़की का प्रेमा। दोनों एक ही कालेज में और एक ही क्लास में पढ़ते केशव नये विचारों का था, जात-पात के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रधाओं में पूरा विश्वास रखने वाली; लेकिन फिर भी दोनों में गहरा प्रेम हो गया था और यह बात सारे कालेज में मशहूर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्य जाति यानी बिज़नेस करने वाले की लड़की प्रेमा से शादी करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी। कुल-मर्यादा का विचार भी उसे ढ़ोंग और नाटक सा लगता था। उसके लिए अगर कोई चीज़ सच्ची थी, तो बस प्रेम; लेकिन प्रेमा के लिए माता-पिता औ र कुल-परिवार के आदेश के खिलाफ़ एक कदम बढ़ाना भी नामुमकिन था। -पार्क के एक सुनसान जगह में दोनों आमने-सामने हरियाली पर बैठे हुए थे। सैर करने वाले एक-एक करके विदा हो गये; शाम का समय था। विक्टोरिया-

लेकिन ये दोनों अभी वहीं बैठे रहे । उनमें एक ऐसी बात छिड़ी हुई थी, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। केशव ने इाँझलाकर कहा-“इसका यह मतलब है कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं है?”

प्रेमा ने उसे शान्त करने की कोशिश करके कहा- “तुम मेरे साध अन्याय कर रहे हो, केशव! लेकिन में इस बात को माँ और पिताजी के सामने कैसे समझ में नहीं आता। वे लोग पुरानी मान्यताओं के भक्त हैं। मेरी तरफ से कोई ऐसी बात सुनकर मन में जो-जो खयाल आएँगे . उसकी तुम

छेडूं, यह मेरी कल्पना कर सकते हो?”

केशव ने गुस्से के भाव से पूछा “तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की गुलाम हो?” प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में प्रेम भरकर कहा नहीं, मैं उनकी गुलाम नहीं हूँ, लेकिन माँ

ज़्यादा अहमियत रखती है।

तो तुम्हारा अपना व्यक्तित्व कुछ नहीं है?’

ऐसा ही समझ लो।’

और पिताजी की इच्छा मेरे लिए और सब चीजों से

मैं तो समझता था कि ये ढकोसले मूखों के लिए हैं; लेकिन अब मालूम हुआ कि तुम-जैसी बुद्धिमान पढ़ी लिखी लड़की भी उनकी पूजा करती हैं जब में तुम्हारे लिए संसार को छोड़ते को तैयार हूँ तो तुमसे भी यही उम्मीद करता हूँ।

प्रेमा ने मन में सोचा, “मेरा अपने शरीर पर क्या अधिकार है। जिन माता-पिता ने अपने खून से मेरी रचना की है, और अपने प्रेम से उसे पाला है, उनकी मर्जी के खिलाफ कोई काम करने का मेरा कोई हक नहीं”।

उसने दीनता के साथ केशव से कहा-“क्या प्रेम औरत और आदमी के रूप में ही किया जा सकता है, दोस्ती के रूप में नहीं? में तो इसे आत्मा का बन्धन समझती हूँ केशव ने कठोर भाव से कहा “इन बड़ी-बड़ी बातों से तुम मुझे पागल कर दोगी, प्रेमा! बस, इतना ही समझ लो मैं निराश होकर जिन्दा नहीं रह सकता।

मैं प्रैक्टिकल आदमी हूँ, और कल्पनाओं के संसार में सच का आनन्द उठाना मेरे लिए नामुमकिन है। यह कहकर उसने प्रेमा का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचने की कोशिश की। प्रेमा ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली-“नहीं केशव, मैं कह चुकी

हूँ कि मैं आज़ाद नहीं हूँ। तुम मुझसे वह चीज न माँगो, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है”। केशव को अगर प्रेमा ने कठोर शब्द कहे होते तो भी उसे इतना दुःख न हुआ होता। एक पल तक वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा भरी आवाज़ में बोला-जैसी तुम्हारी इच्छा!” धीरे-धीरे कदम उठाता हुआ वो वहाँ से चला गया। प्रेमा अब भी वहीं बैठी आँसू बहाती रही।

रात को खाना खाकर प्रेमा जब अपनी माँ के साथ लेटी, तो उसकी आँखों में नींद न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात कह दी थी, जो चंचल पानी में पड़ने वाली छाया की तरह उसके दिल पर छायी हुई थी। हर पल उसका रूप बदल रहा था। वह उसे शांत नहीं कर पा रही थी। माँ से इस बारे में कुछ कहे तो कैसे? शर्म मुँह बन्द कर देती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरी शादी न हुई तो उस समय मेरा क्या कर्त्तव्य होगा। अगर केशव ने कुछ गुस्ताखी कर डाली तो मेरे लिए संसार में फिर क्या रह जायगा; लेकिन मेरा बस ही क्या है। इस तरह के विचारों में एक बात जो उसके मन में पक्की थी, वह यह उसकी माँ ने पूछा-“क्या तुझे अब तक नींद न आयी? मैंने तुझसे कितनी बार कहा कि थोड़ा-बहुत घर का काम-काज किया कर; लेकिन तुझे थी कि केशव के सिवा वह और किसी से शादी न करेगी।

किताबों से ही फुरसत नहीं मिलती। चार दिन में तू पराये धर जायगी, कौन जाने कैसा घर मिले। अगर कुछ काम करने की आदत न रही, तो वहाँ कैसे

निभाएगी?”

प्रेमा ने भोलेपन से कहा-“मैं पराये घर जाऊँगी ही क्यों?”

माँ ने मुस्कराकर कहा-“लड़कियों के लिए यही तो सबसे बड़ी मुश्किल है, बेटी! माँ-बाप की गोद में पलकर जैसे ही सयानी हुई, दूसरों की हो जाती है।

अगर अच्छे लोग मिले, तो जीवन आराम से कट गया, नहीं तो रो-रोकर दिन काटना पड़ाता है। सब भाग्य का खेल है। अपनी बिरादरी में तो मुझे कोई घर पसंद नहीं आता । कहीं लड़कियों का सम्मान नहीं, लेकिन करना तो बिरादरी में ही पड़ेगा। न जाने यह जात-पात का बन्धन कब टूटेगा?”

प्रेमा डरते-डरते बोली”कहीं-कहीं तो बिरादरी के बाहर भी शादियाँ होने लगी हैं।” उसने कहने को कह दिया; लेकिन उसका दिल कॉप रहा था कि माँ कुछ भाँप न जायँ।

माता ने चकित होकर पूछा “क्या हिन्दुओं में ऐसा हुआ है!”

फिर उन्होंने खुद ही उस सवाल का जवाब भी दिया- “और दो-चार जगह ऐसा हो भी गया, तो उससे क्या होता है?”

प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न दिया, डर था कि माँ कहीं उसका मतलब समझ न जायें। उसका भविष्य एक अन्धेरी खाई की तरह उसके सामने मुँह खोले

खड़ा था, मानों उसे निगल जायगा।

उसे न जाने कब नींद आ गयी

सुबह प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक अजीब सी हिम्मत का उदय हो गया था। सभी अहम् फैसले हम अचानक लिया करते हैं, मानों कोई दिव्य-शक्ति हमें उनकी और खींच ले जाती है; वहीं हालत प्रेमा की थी। कल तक वह माता-पिता के फ़ैसले को ही सही मानती थी, पर मुसीबत को सामने देखकर उसमें उस हवा के जैसी हिम्मत पैदा हो गयी थी, जिसके सामने कोई पहाड़ आ गया हो। वही धीमी हवा तेज़ी से पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाती उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ जा पहुंचती है। प्रेमा मन में सोच रही थी-“मान लिया कि, यह शरीर माता-पिता की देन है; लेकिन आत ्मा तो मेरी है। मेरी आत्मा को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, वह इसी शरीर से तो भुगतना पड़ेगा। अब वह इस बारे में संकोच करना गलत ही नहीं, खतरनाक समझ रही थी। अपने जीवन को क्यों एक झूठे सम्मान पर बलिदान करे? उसने सोचा शादी का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह शरीर के व्यापार जैसा ही तो है। आत्म-समर्पण क्यों बिना प्रेम के भी हो सकता है? इस कल्पना से ही कि न जाने किस अनजान लड़के से उसके शादी हो जाए, उसका दिल विद्रोह कर उठा।

वह अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा-में कल तुम्हारे प्रिन्सिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बड़ी तारीफ कर

रहे थे” प्रेमा ने सरल भाव से कहा-“आप तो यों ही कहा करते हैं

नहीं, सच।

यह कहते हुए उन्होंने अपने टेबल की दराज खोली, और मखमली चौखटों में जड़ी हुई एक तस्वीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले_”यह लड़क़ा आई०सी०एस० के टेस्ट में फर्स्ट आया है। इसका नाम तो तुमने सुना होगा?” बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका बाँध दी थी कि माँ उनका मतलब न समझ सकी लेकिन प्रेमा भाँप गरयी! उसका मन तीर की तरह निशाने पर जा पहुँचा। उसने बिना तस्वीर की ओर देखे कहा”नहीं, मैंने तो उसका नाम नहीं सुना”।

पिता ने बनावटी आश्चर्य से कहा-“क्या! तुमने उसका नाम ही नहीं सुना? आज के न्यूज़पेपर में उसकी तस्वीर और जीवन की कहानी छपी है”। प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया-होगा, मगर मैं तो उस टेस्ट का कोई महत्त्व नहीं समझती। मैं तो समझती हूँ, जो लोग इस टेस्ट में बैठते हैं वे बहुत ही

स्वार्थी होते हैं। आखिर उनका मकसद इसके सिवा और क्या होता है कि अपने गरीब, दलित भाइयों पर राज करें और खूब दौलत जमा करें। यह तो

जीवन में कोई ऊँचा मकसद नहीं है।

इस आपत्ति में जलन थी, अन्याय था; बेरहमी थी। पिता जी ने समझा था, प्रेमा यह बखान सुनकर लट्टू हो जायगी। यह जवाब सुनकर वो तीखे स्वर में बोले-“तू तो ऐसी बातें कर रही है जैसे तेरे लिए दौलत और अधिकार की कोई कीमत ही नहीं, प्रेमा ने ढिठाई से कहा-“हाँ, में तो इसकी कीमत नहीं समझती। में तो आदमी में त्याग देखती हूँ। में ऐसे नौजवानों को जानती हूँ, जिन्हें यह पद

जबरदस्ती भी दिया जाए, तो स्वीकार न करेंगे। पिता ने हसी उड़ाते हुए कहा “यह तो आज मैंने नई बात सुनी। मैं तो देखता हूँ कि छोटी-छोटी नौकरियों के लिए लोग मारे-मारे फिरते हैं। मैं जरा उस लड़के की सूरत देखना चाहता हूँ, जिसमें इतना त्याग हो। मैं तो उसकी पूजा करूँगा”। शायद किसी दूसरे मौके पर ये शब्द सुनकर प्रेमा शर्म से सिर झुका लेती; पर इस समय उसकी हालत उस सिपाही की तरह थी, जिसके पीछे गहरी खाई

हो। आगे बढ़ने के सिवा उसके पास और कोई रास्ता न था। अपने गुस्से को संयम से दबाती हुई, आँखों में विद्रोह भरे, वह अपने कमरे में गयी, और केशव की कई तस्वीरों में से एक चुनकर लायी, जो उसकी नज़र में सबसे खराब थी और पिता के सामने रख दी। बूढ़े पिता ने तस्वीर को बेपरवाह के भाव से देखना चाहा; लेकिन पहली नज़र में ही उसने उन्हें आकर्षित कर लिया। ऊँचा कद और दुबला पतला होने पर भी उसके डील डौल से स्वास्थ्य और संयम का अनुभव हो रहा था। चेहरे पर प्रतिभा का तेज न था; पर बुद्धिमानी और समझदारी की ऐसी झालक थी, जो उनके मन में विश्वास पैदा कर रही थी। उन्होंने

उस तस्वीर की और देखते हुए पूछा-“यह किसकी तस्वीर है?” प्रेमा ने संकोच से सिर झुकाकर कहा- यह मेरे ही क्लास में पढ़ते हैं”।

‘अपनी ही बिरादरी का है?

प्रेमा का चेहरा फीका पड़ गया। इसी सवाल के जवाब पर उसकी किस्मत का फैसला हो जायगा। उसके मन में पछतावा हुआ कि बेकार में इस तस्वीर को यहाँ लायी। उसमें एक पल के लिए जो हिम्मत आयी थी, वह इस पैने सवाल के सामने कमज़ोर हो गई। वो दबी हुई आवाज में बोली-जी नहीं, वह ब्राह्मण हैं। और यह कहने के साथ ही बेचैन होकर कमरे से निकल गयी मानों यहाँ की हवा में उसका गला घुटा जा रहा हो और दीवार की आड़ में खड़ी होकर रोने लगी।

लाला जी को तो पहले ऐसा गुस्सा आया कि प्रेमा को बुलाकर साफ-साफ कह दें कि यह नामुमकिन है। वे उसी गुस्से में दरवाजे तक आये, लेकिन प्रेमा को रोते देखकर नरम हो गये। इस लड़के के प्रति प्रेमा के मन में क्या भाव थे, यह उनसे छिपा न रहा। वे लड़कियों को पढ़ाने में पूरा विश्वास करते थे; लेकिन इसके साथ ही कुल-मर्यादा की रक्षा भी करना चाहते थे। अपनी ही जाति के अच्छे लड़के के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर सकते थे लेकिन उस रेखा के बाहर अच्छे से अच्छा और योग्य से योग्य लड़के की कल्पना भी उनके सहन शक्ति से बाहर थी। इससे बड़ा अपमान वे सोच ही न सकते थे।

उन्होंने कठोर आवाज़ में कहा-“आज से कालेज जाना बन्द कर दो, अगर पढ़ाई कुल-मर्यादा को डुबाना ही सिखाती है, तो ऐसी पढ़ाई धूल है”।

प्रेमा ने दुखी आवाज़ में कहा-“परीक्षा तो करीब आ गयी है”। लाला जी ने कठोरता से कहा-आने दो।

और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये।

छ: महीने गुजर गये।

लाला जी ने घर में आकर पत्नी को अकेले में बुलाया और बोले “जहाँ तक मुझे मालूम है, केशव बहुत ही सुशील और प्रतिभाशाली लड़का है। मैं तो समझता हूँ प्रेमा इस गम में घुल-घुलकर जान दे देगी। तुमने भी समझाया, मैंने भी समझाया, दूसरों ने भी समझाया; पर उस पर कोई असर ही नहीं होता। ऐसी हालत में हमारे पास और क्या उपाय है”।

उनकी पत्नी ने चिन्तित भाव से कहा-“कर तो दोगे; लेकिन रहोगे कहाँ? न जाने कहाँ से यह नालायक मेरी कोख में आयी? लाला जी ने भवें सिकोडकर अपमान के साथ कहा-“यह तो हजार बार सुन चुका; लेकिन कुल-मर्यादा के नाम को कहाँ तक रोएँ। चिडिया के पंख खोलकर यह आशा करना कि वह तुम्हारे आँगन में ही फुदकती रहेगी भ्रम है। मैंने इस पर पर ठण्डे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। कुल-म्यादा के नाम पर मैं प्रेमा की हत्या नहीं कर सकता। दुनिया हँसती है तो, हँसे; मगर वह जमाना बहुत जल्द आने वाला है, जब ये सभी बन्धन टूट जाएँगे। आज भी सेकड़ों शादियाँ जात-पात के बन्धनों को तोड़क़र हो चुकी हैं। अगर शादी का मकसद औरत और आदमी का भी र न है, तो हम इसे अनदेखा नहीं कर सकते हैं”। बुढ़िया ने दुखी होकर कहा”जब तुम्हारी यही इच्छा है, तो मुझसे क्या पूछते हैं? लेकिन मैं कहे देती हूँ, कि मैं इस शादी के करीब न जाऊँगी, न कभी सुखी जीवन। इस छोकरी का मुँह देखूँगी, समझ लूँगी, जैसे और सब लड़के मर गये वैसे यह भी मर गयी”।

तो फिर आखिर तुम क्या करने को कहती हो?

क्यों नहीं उस लड़के से शादी कर देते, उसमें क्या बुराई है? वह दो साल में सिविल सर्विस पास करके आ जायगा। केशव के पास क्या रखा है, ज़्यादा से ज़्यादा किसी ऑफिस में क्लर्क हो जायगा।’

और अगर प्रेमा आत्महत्या कर ले, तो?

तो कर ले, तुम तो उसे और शह देते हो? जब उसे हमारी परवाह नहीं है, तो हम उसके लिए अपने नाम को क्यों खेल नहीं है। यह सब धमकी है। मन घोड़ा है, जब तक उसे लगाम न दो, पीठ पर हाथ भी न रखने देगा। जब उसके मन का यह हाल है, तो कौन कहे, कलंकित करें? आत्महत्या करना कोई केशव के साथ ही जिन्दगी भर निभाएगी। जिस तरह आज उससे प्रेम है, उसी तरह कल दूसरे से हो सकता है। तो क्या पत्ते पर अपना माँस बिकवाना चाहते हो?”

लालाजी ने पत्नी को सवाल की नजरों से देखा और कहा-“और अगर वह कल खुद जाकर केशव से शादी कर ले, तो तुम क्या कर लोगी? फिर तुम्हारी कितनी इज्जत रह जायगी। वह चाहे संकोच के कारण, या हम लोगों के लिहाज से यों ही बैठी रहे; पर अगर जिद पकड़ ले तो, हम-तुम कुछ नहीं कर पाएगे”

इस समस्या का ऐसा भयंकर अन्त भी हो सकता है, यह इस बुढ़िया के ध्यान में भी न आया था। यह सताल बम के गोले की तरह उसके सिर पर गिरा। एक पल तक वह हक्की-बक्की बैठी रह गयी, मानों इस हमले ने उसकी बुद्धि की धज्जियाँ उड़ा दी हों। फिर हारकर बोली-“तुम्हें अनोखी कल्पनाएँ सूझती हैं। मैंने तो आज तक कभी भी नहीं सुना कि किसी अच्छे घर की लड़की ने अपनी इच्छा से शादी की हो”।

तुमने न सुना हो; लेकिन मैंने सुना है, और देखा है और ऐसा होना बहुत सम्भव है।

जिस दिन ऐसा होगा; उस दिन तुम मुझे जिंदा न देखोगे। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होगा ही; लेकिन होना मुमकिन है।

तो जब ऐसा होना है, तो इससे तो यही अच्छा है कि हम इसका इंतज़ाम करें। जब नाक ही कट रही है, तो तेज चाकू से क्यों न कटें। कल केशव को बुलाकर देखो, क्या कहता है।

केशव के पिता सरकारी पेन्शनर थे, मिजाज के चिड़चिड़े, कंजूस और लालची। धर्म के दिखावे में ही उनके न को शान्ति मिलती थी। उनमें ज़रा सोचने समझने की शक्ति कम थी। किसी की भावनाओं का सम्मान न कर सकते थे। वे अब भी उस संसार में रहते थे, जिसमें उन्होंने अपने बचपन और जवानी के दिन काटे थे। नए युग की बढ़ती हुई लहर को चे सर्वनाश कहते थे, और कम-से-कम अपने घर को दोनों हाथों और पैरों का जोर लगाकर उससे बचाए रखना चाहते थे; इसलिए जब एक दिन प्रेमा के पिता उसके पास पहुँचे और केशव से प्रेमा की शादी की बात चलाई, तो बूढ़े पण्डित जी अपने आपे में न रह सके। यो धुंधली आँखें फाडकर बोले-“आप भाग तो नहीं खाकर आए हैं? इस तरह का रिश्ता, वाहे और कुछ हो लेकिन शादी तो नहीं है। लगता है, आपको भी नये जमाने की हवा लग गयी”।

बूढ़े बाबूजी ने नम्रता से कहा होकर मजदूर खुद ऐसा रिश्ता पसंद नहीं करता। इस बारे में मेरे भी वही विचार हैं, जो आपके पर बात ऐसी आ पड़ी है कि मुझे र आपकी सेवा में आना पड़ा। आजकल के लडके और लड़कियाँ अपनी-अपनी मन की करते हैं, यह तो आप जानते ही हैं। हम बूढ़े लोगों के लिए अब अपने सिद्धान्तों की रक्षा करना मुश्किल हो गया है। मुझे डर है कि कहीं ये दोनों निराश होकर अपनी जान पर न खेल जायेँ”। बूढ़े पण्डित जी जमीन पर पाँव पटकते हुए गरज उठे-“आप क्या कहते हैं, साहब! आपको शर्म नहीं आती? हम ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणों में भी ऊँचें घराने के। ब्राह्मणों में इतनी मर्यादा खत्म नहीं हुई है कि बनिये की लड़की से शादी करते फिरें! जिस दिन ऊँचें घरानों के ब्राह्मणों में लड़कियाँ न रहेंगी, उस दिन यह समस्या पैदा हो सकती है। मैं कहता हूँ, आपको मुझसे यह बात कहने की हिम्मत कैसे हुई?”

बूढ़े बाबू जी जितना ही दबते थे, उतना ही पण्डित जी बिगड़ते थे। अब लाला जी अपना अपमान ज्यादा न सह सके, और अपनी तकदीर को कोसते हुए चले गये।

उसी वक्त केशव कालेज से आया। पण्डित जी ने तुरन्त उसे बुलाकर कठोर आवाज़ से कहा-“मैंने सुना है, तुमने किसी बनिये की लड़की से शादी करने किसी ने भी कहा हो। मैं पूछता हूँ, यह बात सच है, या नहीं? अगर सच है, और तुमने अपनी मर्यादा को डुबाने का फैसला कर लिया है, तो तुम्हारे लिए

का मन बना लिया है। यह खबर कहाँ तक सच है?” केशव ने अनजान बनकर पूछा-“आपसे किसने कहा?”

हमारे घर कोई जगह नहीं है । तुम्हें मेरी कमाई का एक धेला भी नहीं मिलेगा। मेरे पास जो कुछ है, वह मेरी अपनी कमाई है, मुझे अधिकार है कि मैं उसे जिसे चाहूँ, दूँ। तुम यह गलत काम करके मेरे घर में कदम नहीं रख सकते। केशव पिता के स्वभाव को जानता था। प्रेमा से प्रेम था। वह चुपचाप बिना किसी को बताए प्रेमा से शादी कर लेना चाहता था! बाप हमेशा तो बैठे न रहेंगे। माँ के प्रेम पर उसे विश्वास था। उस प्रेम की लहर में वह सारी तकलीफ़ों को झेलने के लिए तैयार था; लेकिन जैसे कोई कायर सिपाही बन्दूक के सामने जाकर हिम्मत खो बैठता है और कदम पीछे हटा लेता है, वही हालत केशव की हुई। वह आम नौजवानों की तरह बड़ी-बड़ी बातें कर सकता था, जलान से अपनी भक्ति की दुहाई दे सकता था; लेकिन इसके लिए तकलीफ़ झेलने की हिम्मत उसमें न अगर वह अपनी जिद पर अड़ा और पिता भी अपनी बात पर कायम रहे, तो उसका कहाँ ठिकाना होगा? उसका जीवन ही बर्बाद हो जायगा। उसने दबी जवान से कहा-“जिसने आपसे यह कहा है, बिल्कुल झूठ कहा है”। पण्डित जी ने गुस्सेल नज़रों से देखकर कहा-“तो यह खबर बिलकुल गलत है?”

‘जी हाँ, बिलकुल गलत।

तो तुम आज ही इसी वक्त उस बनिये को खत लिख दो और याद रखो कि अगर इस तरह की चर्चा फिर कभी उठी, तो तुम्हारा सबसे बड़ा दशमन में

होऊँगा। बस, जाओ।

केशव और कुछ न कह सका। वह यहाँ से चला, तो ऐसा लग रहा था कि पैरों में दम नहीं है।

दूसरे दिन प्रेमा ने केशव के नाम यह खत लिखा

प्रिय केशव

तुम्हारे पूज्य पिताजी ने लाला जी के साथ जो गलत और अपमानजनक व्यवहार किया है, उसका हाल सुनकर मेरे मन में बड़ी शंका पैदा हो रही है। शायद उन्होंने तुम्हें भी डाँट-फटकार लगाई होगी, ऐसी हालत में मैं तुम्हारा फैसला सुनने के लिए बेचैन हो रही हूँ। मैं तुम्हारे साथ हर तरह का दुःख झेलने को तैयार हूँ। मुझे तुम्हारे पिताजी की जायदाद का मोह नहीं है, मैं तो सिर्फ तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ और उसी में खुश हूँ। आज शाम को यहीं आकर खाना खाओ । पिताजी और माँ दोनों की तुमसे मिलने की बहुत इच्छा है। मैं वह सपना देखने में मग्न हूँ जब हम दोनों उस बंधन में बँध जायेंगे, जो । नहीं जानता। जो बड़ी-से-बड़ी मुश्किल में भी अटूट रहता है।

तुम्हारी प्रमा!

शाम हो गयी और इस ख़त का कोई जवाब न आया। उसकी माँ बार-बार पूछती थी-“केशव आये नहीं?” बूढ़े लाला भी दरवाजे की ओर आँख लगाये बैठे थे। यहाँ तक कि रात के नौ बज गये, पर न तो केशव आए, न उनका खत। प्रेमा के मन में तरह-तरह के ख़याल आ रहे थे, शायद उन्हें खत लिखने का मौका न मिला हो, या आज आने की फुरसत न मिली होगी, कल ज़रूर आ जाएँगे। केशव ने पहले उसके पास जो प्रेम-पत्र लिखे थे, उन सबको उसने फिर पढ़ा। उनके एक-एक शब्द से कितना प्रेम टपक रहा था, उनमें कितनी बेताबी, कितनी तमन्ना थी! फिर उसे केशच के वे शब्द याद आए: जो उसने सैकड़ों बार कहे थे। कितनी बार वह उसके सामने रोया था। इतने सबूतों के होते हुए निराशा के लिए कहाँ जगह थी, मगर फिर भी सारी रात उसका मन जैसे सूली पर टैँगा रहा। सुबह केशव का जवाब आया। प्रेमा ने कॉपते हुए हाथों से ख़त पढ़ा। उसके हाथ से खत गिर गया। ऐसा लगा मानो शरीर में खून जम गया हो। उसमें लिखा था

मैं बड़ी मुसीबत में हैं, कि तुम्हें क्या जवाब दूं! मैंने इस समस्या पर खूब ठण्डे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अभी जो हालात उसमें मेरे लिए पिताजी की आज्ञा के खिलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं है। मुझे कायर न समझना। में स्वार्थी भी नहीं हूँ, लेकिन मेरे सामने जो बाधाएँ हें उन्हें पार करने की शक्ति मुझमें नहीं है। पुरानी बातों को भूल जाओ। उस समय मेंने इन बाधाओं की कल्पना न की थी! एक लम्बी, गहरी, जलती हुई साँस खींची और उस खत को फाडक़र फेक दिया। उसकी आँखों से आसुओं की धारा बहने लगी। जिस केशव को उसने दिल से मान लिया था, वह इतना बेरहम हो जायगा, इसकी उसे ज़रा भी उम्मीद न थी। ऐसा लगा मानो, अब तक वह कोई सुनहरा सपना देख थी; पर आँख खुलने पर वह सब कुछ गायब हो गया। जीवन में जब आशा ही खत्म हो गयी, तो अंधकार के सिवा और क्या रहा। अपने दिल की सारी दौलत लगाकर उसने एक नाव लदवायी थी, वह नाव पानी में डूब गयी। अब दुसरी नाव कौन वहाँ से लदवाये; अगर वह नाव टूटी है तो उसके साथ भी डूब जायेगी।

माँ ने पूछा- क्या केशव का खत है?”

प्रेमा ने जमीन की ओर ताकते हुए कहा-हाँ, उनकी तबीयत ठीक नहीं है”-इसके सिवा वह और क्या कहे? केशव की कठोरता और बेवफाई की ख़बर सुनाकर शर्मिंदा होने की हिम्मत उसमें न थी। दिन भर वह घर के काम-धन्धों में लगी रही, मानो उसे कोई चिन्ता ही नहीं है। रात को उसने सबको खाना खिलाया, खुद भी खाया और बड़ी देर हारमोनियम पर गाती रही। मगर सुबह हुई, तो उसके कमरे में उसकी लाश पड़ी हुई थी। धूप की सुनहरी किरणे उसके पीले चेहरे को जीवन की चमक दे रहे थे।

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