AGNI SMADHI by Munshi premchand.

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About Book

साधु-संतों के साथ में बुरे भी अच्छे हो जाते हैं, लेकिन

पयाग की बुरी किस्मत थी, कि उस पर सत्संग का उल्टा

ही असर हुआ। उसे गाँजे, चरस और भांग की आदत लग गयी, जिसका नतीजा यह हुआ कि एक मेहनती, कमाऊ नौजवान आलस का पुजारी बन बैठा। जीवन की लड़ाई में यह ख़ुशी कहाँ ! किसी बरगद के पेड़ के नीचे धूनी जल रही है, एक जटाधारी महात्मा बैठे हैं, भक्तजन उन्हें घेरे बैठे हुए हैं, और थोड़ी-थोड़ी देर में चरस के दम लग रहे हैं। बीच-बीच में भजन भी हो जाते हैं। मेहनत-मजदूरी में यह सुख कहाँ ! चिलम भरना पयाग का काम था। भक्तों को मरने के बाद में पुण्य-फल की उम्मीद थी, पयाग को तुरंत फल मिलता था, चिलम पर पहला हक उसी का होता था। महात्माओं के श्रीमुख से भगवत् कथा सुनते हुए वह ख़ुशी से पागल हो उठता, उस पर बेसब्री-सी छा जाती। वह महक, संगीत और रौशनी से भरे हुए एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता था। इसलिए जब उसकी पत्नी रुक्मिन रात के दस-ग्यारह बज जाने पर उसे बुलाने आती, तो पयाग को वह बात बहुत बुरी लगती , संसार उसे काँटों से भरा हुआ जंगल-सा दिखता, खासतौर पर जब घर आने पर उसे पता चलता कि अभी चूल्हा नहीं जला और खाने -पीने की चिंता करनी है। वह जाति का भर था, गाँव की चौकीदारी उसे बाप दादा से मिली हुई थी, दो रुपये और कुछ आने वेतन मिलता था। वरदी और साफा मुफ्त। काम था हफ्ते में एक दिन थाने जाना, वहाँ अफसरों के दरवाजे पर झाडू लगाना, घोड़ो की जगह साफ करना, लकड़ी चीरना। पयाग खून के घूँट पी-पी कर ये काम करता, क्योंकि ये काम न करना, शरीर और पैसे दोनों ही मामले में महँगी पड़ती थीं। आंसू यूं पोंछते थे , कि चौकीदारी में अगर कोई काम था, तो इतना ही, और महीने में चार दिन के लिए दो रुपये और कुछ आने कम न थे। फिर गाँव में भी अगर बड़े आदमियों पर नहीं, तो नीचों पर रोब था। वेतन पेंशन थी और जब से महात्माओं का साथ हुआ, वह पयाग के जेब-खर्च की खाते में आ गयी। इसलिए रोजी-रोटी का सवाल हर दिन परेशानी का कारण बनने लगा। इन सत्संगों के पहले यह पति-पत्नी गाँव में मजदूरी करते थे।

रुक्मिन लकड़ियाँ तोड़कर बाजार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभी हल जोतता, कभी पुर हाँकता। जो काम सामने आ जाए, उसमें लग जाता था। हँसमुख, मेहनती, खुशमिजाज,आजाद आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखा नहीं मरता। उस पर अच्छा इतना कि किसी काम के लिए ‘नहीं न करता। किसी ने कुछ कहा और वह ‘अच्छा भैया’ कह कर दौड़ा। इसलिए गाँव में उसका मान था। इसी वजह से काम न होने पर भी दो-तीन साल उसे ज्यादा परेशानी नहीं हुई।

दो वक़्त की रोटी की तो बात ही क्या, जब महतो को यह दौलत नहीं मिल पाई थी, जिनके दरवाजे पर बैलों की तीन-तीन जोड़ियाँ बँधती थीं, तो पयाग किस गिनती में था । हाँ, एक वक्त की दाल-रोटी में शक न था। लेकिन अब यह समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। उस पर परेशानी यह थी कि रुक्मिन भी अब किसी कारण से ज़्यादा पति की भक्त, सेवा करने वाली और मन से तैयार न थी। नहीं, उतनी चतुरता और बातूनी में हैरान करने वाला विकास होता जाता था। इसलिए पयाग को किसी ऐसी कामयाबी की जरुरत थी, जो उसकी रोजी -रोटी की चिंता खत्म कर दे और वह बेफिक्र हो कर कीर्तन और साधु-सेवा में लग जाए। एक दिन रुक्मिन बाजार में लकड़ियाँ बेच कर आयी, तो पयाग ने कहा-“ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ।” रुक्मिन ने मुँह फेर कर कहा -“दम लगाने की ऐसी आदत लगी है, तो काम क्यों नहीं करते ? क्या आजकल कोई बाबा नहीं हैं, जा कर चिलम भरो ?” पयाग ने आँख दिखा कर कहा -“भला चाहती है तो पैसे

दे दे; नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊँगा, तब रोयेगी।” रुक्मिन अँगूठा दिखा कर बोली – “रोये मेरी बला । तुम रहते भी हो, तो कौन सा सोने का टुकड़ा खिला देते हो ? अब भी मेहनत करती हूँ, तब भी मेहनत करूंगी।”

पयाग- “तो अब यही फैसला है ?” रुक्मिन- “हाँ-हाँ, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं हैं।

पयाग- “गहने बनवाने के लिए पैसे हैं, और मैं चार पैसे माँगता हूँ, तो इस तरह जवाब देती है !”

रुक्मिन तुनक कर बोली “गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हे क्यों जलन होती है ? तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता ?”

पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गये, तब

रुक्मिन ने दरवाजे बंद कर लिये। समझी, गाँव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी बला जाती है। जब दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रुक्मिन को चिंता हुई। गाँव भर ढूंढ आयी। चिड़िया किसी जगह पर न मिली। उस दिन उसने रोटी नहीं बनायी। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं। शंका हो रही थी, पयाग सचमुच घर-गृहस्थी से अलग तो नहीं हो गया। उसने सोचा,सुबह सभी जगह देखूंगी, किसी साधु-संत के 1. साथ होगा। जाकर थाने में रिपोर्ट कर दूँगी। अभी सुबह हुई थी कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गयी। दरवाजे बंद करके निकली थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछे एक औरत भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रँगी हुई चादर, लम्बा घूँघट और शर्मीली चाल देख कर रुक्मिन का कलेजा धक्-से हो गया। वह एक पल हक्की-बक्की -सी खड़ी रही, तब बढ़ कर पति की नयी पत्नी को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस तरह धीरे-धीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई बीमार जिंदगी से तंग हो कर जहर खा रहा हो !

जब पड़ोसियों की भीड़ हट गयी तो रुक्मिन ने पयाग से पूछा-“इसे कहाँ से लाये ?”

पयाग ने हँस कर कहा -“घर से भागी जाती थी, मुझे रास्ते में मिल गयी। घर का काम-धंधा करेगी, पड़ी रहेगी।” रुक्मिन- “लगता है, मुझसे तुम्हारा जी भर गया।” पयाग ने तिरछी आँखों से देख कर कहा-“हट पगली ! इसे

तेरी सेवा-टहल करने को लाया हूँ।”

रुक्मिन- “नयी के आगे पुरानी को कौन पूछता है ?” पयाग- “चल, मन जिससे मिले वही नयी है, मन जिससे न मिले वही पुरानी है। ला, कुछ पैसा हो तो दे दे, तीन दिन से दम नहीं लगाया, पैर सीधे नहीं पड़ते। हाँ, देख दो-चार दिन इस बेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो ख़ुद ही काम करने लगेगी।”

साधु-संतों के साथ में बुरे भी अच्छे हो जाते हैं, लेकिन पयाग की बुरी किस्मत थी, कि उस पर सत्संग का उल्टा ही असर हुआ। उसे गाँजे, चरस और भांग की आदत लग गयी, जिसका नतीजा यह हुआ कि एक मेहनती, कमाऊ नौजवान आलस का पुजारी बन बैठा। जीवन की लड़ाई में यह खुशी कहाँ किसी बरगद के पेड़ के नीचे धूनी जल रही है, एक जटाधारी महात्मा बैठे हैं, भक्तजन उन्हें घेरे बैठे हुए हैं, और थोड़ी-थोड़ी देर में चरस के दम लग रहे हैं। बीच-बीच में भजन भी हो जाते हैं। मेहनत-मजदूरी में यह सुख कहाँ! चिलम भरना पयाग का काम था। भक्तों को मरने के बाद में पुण्य-फल की उम्मीद थी, पयाग को तुरंत फल मिलता था, चिलम पर पहला हक उसी का होता था।

महात्माओं के श्रीमुख से भगवत् कथा सुनते हुए वह खुशी से पागल हो उठता, उस पर बेसब्री-सी छा जाती। वह महक, संगीत और रौशनी से भरे हुए एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता था। इसलिए जब उसकी पत्नी रुव्मिन रात के दस-ग्यारह दज जाने पर उसे बुलाने आती, तो पयाग को वह बात बहुत बुरी लगती, संसार उसे कॉटों से भरा हुआ जंगल-सा दिखता, खासतौर पर जब घर आने पर उसे पता चलता कि अभी चूल्हा नहीं जला और खाने -पीने की चिंता करनी है। वह जाति का भर धा, गाँव की चौकीदारी उसे बाप दादा से मिली हुई थी, दो रुपये और कुछ आने वेतन मिलता था। वरदी

और सास और साफा मुफ्त। काम था हाते में

में एक दिन थाने जाना, वहाँ अफसरों के दरवाजे पर झाडू लगाना, घोड़ो की जगह साफ करना, लकड़ी चीरना। पयाग खून के घूँट पी-पी कर ये काम करता, क्योंकि ये काम न करना, शरीर और पैसे दोनों ही मामले में महँगी पड़ती थीं। आंसू यूं पोंछते थे, कि चौकीदारी में अगर कोई काम था, तो इतना ही, और महीने में चार दिन के लिए दो रुपये और कुछ आने कम न थे। फिर गाँव में भी अगर बड़े आदमियों पर नहीं, तो नीचों पर रोब था। वेतन पेंशन थी और जब जब से महात्माओं का साथ हुआ, वह पयाग के जेब-खर्च की खाते में आ गयी। इसलिए रोजी-रोटी का सवाल हर दिन परेशानी का

कारण बनने लगा। इन सत्संगों के पहले यह पति-पत्नी गाँव में मजदूरी करते । रुविमन लकड़ियाँ तोड़कर बाजार ले जाती, पयाग कभी आरा चलाता, कभी हल जोतता, कभी पुर हाँकता। जो काम सामने आ जाए, उसमें लग जाता था। हँसमुख, करता , मेहनती, खुशमिजाज,आजाद आदमी था और ऐसा आदमी कभी भूखा नहीं मरता। उस पर अच्छा इतना कि किसी काम के लिए ‘नहीं न । किसी ने कुछ कहा और वह ‘अच्छा भैया’ कह कर दौड़ा। इसलिए गाँव में उसका मान था। इसी बजह से काम न होने पर भी दों-तीन साल उसे

ते थे।

ज्यादा परेशानी नहीं हुई।

दो वक्त की रोटी की तो बात ही क्या, जब महतो को यह दौलत नहीं मिल पाई थी, जिनके दरवाजे पर बेलों की तीन-तीन जोडियाँ बँधतती थीं, तो पयाग किस गिनती में। एक वक्त की दाल-रोटी में शक न धा। लेकिन अब यह समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। उस पर परेशानी यह थी कि रुक्मिन भी अब ब किसी कारण से ज्यादा पति की भक्त, सेवा करने वाली और मन से तैयार न थी। नहीं, उतनी चतुरता और बातूनी में हैरान करने वाला विकास होता जाता था। इसलिए पयाग को किसी ऐसी कामयाबी की जरुरत थी, जो उसकी रोजी रोटी की चिंता खत्म कर दे और वह बेंफिक्र कर

कीर्तन और साधु-सेवा में लग जाए।

एक दिन रुक्मिन बाजार में लकड़ियाँ बेच कर आयीं, तो पयाग ने कहा-ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ।” रुक्मिन ने मुँह फेर कर कहा-दम लगाने की ऐसी आदत लगी है, तो काम क्यों नहीं करते ? क्या आजकल कोई बाबा नहीं हैं, जा कर चिलम भरो ?”

पयाग ने आँख दिखा कर कहा – “भला चाहती है तो पैसे दे दे; नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊँगा, तब रोयेगी।”रुक्मिन

अँगूठा दिखा कर बोली – “रोये करंगी।”

मेरी बला । तुम रहते भी हो, तो कौन सा सोने का टुकड़ा खिला देते हो? अब भी मेहनत करती हैं, तब भी मेहनत

पयाग- ‘तो अब यही फैसला है ?” रुक्मिन- “हाँ-हाँ, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं हैं।” पयाग- ‘गहने बनवाने के लिए पैसे हैं, और मैं चार पैसे माँगता हूँ, तो इस तरह जवाब देती है !”

रुक्मिन तुनक कर बोली- “गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हें क्यों जलन होती है ? तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता ?”

पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गये, तब रुक्मिन ने दरवाजे बंद कर लिये। समझी, गाँव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी बला जाती है। जब दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रूविमिन को चिता हुई। गाँव भर ढूंढ आयी । चिड़िया किसी जगह पर न मिली। उस दिन उसने रोटी नहीं बनायी। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं। शंका हो रही थी, पयाग सचमुच घर-गृहस्थी से अलग तो नहीं हो

गया।

उसने सोचा,सुबह सभी जगह देखूंगी, किसी साधु-संत के साथ होगा। जाकर थाने में रिपोर्ट कर देँगी। अभी सुबह हुई थी कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गयी। दरवाजे बंद करके निकली थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछे एक औरत भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रंगी हुई चादर, लम्बा पूँघट और शर्मीली चाल देख कर रुक्मिन का कलेजा धक्-से हो गया। वह एक पल हक्की-बक्की सी खड़ी रही, बढ़ कर पति की नयी पत्नी को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस तरह धीरे-धीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई बीमार जिंदगी से तंग हो कर जहर

खा रहा हो !

जब पड़ोसियों की भीड़ हट गयी तो रुक्मिन ने पयाग से पूछा–इसे कहाँ से लाये ?”

पयाग ने हँस कर कहा-‘घर से भागी जाती थी, मुझे रास्ते में मिल गयी। धर का काम-धंधा करेगी, पड़ी रहेगी।”

रुविमन- “लगता है, मुझसे तुम्हारा जी भर गया।” पयाग ने तिरछी आँखों से देख कर कहा-हट पगली ! इसे तेरी सेवा-टहल करने को लाया हूँ।”

रुविमन- “नयी के आगे पुरानी को कौन पूछता है ?”

पयाग- “चल, मन जिससे मिले वहीं नयी है, मन जिससे न मिले वहीं पुरानी है। ला, कुछ पैसा हो तो दे दे, तीन दिन से दम नहीं लगाया, पैर सीधे नहीं पड़ते। हाँ, देख दो-चार दिन इस बेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो खुद ही काम करने लगेगी।”

रुक्मिन ने पूरा रुपया ला कर पयाग के हाथ पर रख दिया। दूसरी बार कहने की जरूरत ही न पड़ी। पयाग में चाहे और कोई गुण हो या न हो, यह मानना पड़ेगा कि उसे राज करने के असली तरीके पता थे। उसने अंतर-नीति को अपना हथियार बना लिया था एक महीने तक किसी तरह की परेशानी नहीं आयी। रुक्मिन अपनी सारी चतुराई भूल गयी। सुबह-सुबह उठ जाती कभी लकड़ियाँ तोड़ कर, कभी चारा काट कर, कभी उपले पाथ कर बाजार ले जाती। वहाँ जो कुछ मिलता, उसका आधा पयाग के हाथ में देती। आधे में घर का काम चलता। वह सौत को कोई काम न करने देती। पड़ोसियों से कहती, बहन, सौत है तो क्या, है तो अभी कल की दुल्हन। दो-चार महीने भी आराम से न रहेगी, तो क्या याद करेगी। मैं तो काम करने को हूँ गाँव भर में रुव्मिन के अच्छे स्वाभाव की तारीफ़ होती, पर सत्संगी चालाक पयाग सब कुछ समझता था और अपनी चाल की सफलता पर खुश होता था। एक दिन बहू ने कहा -“दीदी, अब तो घर में बैठे-बैठे जी ऊबता है। मुझे भी कोई काम दिला दो”। रुक्मिन ने बड़े प्यार से कहा-“क्या मेरा मुँह हूँ ही।” काला करने की लगी हुई है ? अंदर का काम किये जा, बाहर के लिए में हूँ ही। बहू का नाम कौशल्या था, जो बिगड़कर सिलिया हो गया था। इस वक्त सिलिया ने कुछ जवाब न दिया। लेकिन अब नोकरानी जैसी हालत उसके लिए बर्दश्त के बाहर हो गयी थी। वह दिन भर घर का काम करते-करते मरे, र हो । कोई नहीं पूछता। रुक्मिन बाहर से चार पैसे लाती है, तो घर की मालकिन बनी हुई है। अब सिलिया भी मजदूरी करेगी और मालकिन का घमंड तोड़

देगी। पिया को पैसो से प्यार है, यह बात उससे अब छिपी न ६ न थी। जब रुक्मिन चारा ले कर बाजार चली गयी, तो उसने घर के दरवाजे की कुण्डी लगायी और गाँव का रंग-ढंग देखने के लिए निकल पड़ी। गाँव में ब्राह्मण, ठाकुर, कायस्थ, बनिये सभी थे। सिलिया ने स्वभाव और हिचक का कुछ ऐसा नाटक रचा की सभी औरते उस पर मोहित हो गयीं। किसी ने चावल दिया, किसी ने दाल, किसी ने कुछ! नयी बहू स्वागत कौन न करता ? पहले ही दौरे में सिलिया को पता चल गया कि गाँव में चक्की की जगह खाली

का

और वह इस कमी को कर सकती है। वह यहाँ से घर लौटी, तो उसके सिर पर गेहूँ से भरी हुई एक टोकरी थी। पूरा पयाग ने रात को चक्की की आवाज सुनी, तो रुक्मिन से बोला ‘आज तो सिलिया अभी से पीसने लगी।” विमान बाजार से आटा लायी थी। अनाज और आटे भाव में ज्यादा फ़र्क न था उसे हैरानी हुई कि सिलिया इतने सबेरे क्या पीस रही हैं। उठ कर पीस रही है। उसने उसका लिया और टोकरी को बोली

कोठरी में सिलिया अँधेरे में बैठी कुछ आयी, तो देखा कि

तुझसे किसने पीसने को कहा है ? किसका अनाज पीस रही है?”

जा कर

हाथ पकड़

उठा कर

सिलिया ने मजबूती से कहा-“तुम जा कर आराम सोती क्यों नहीं। में पीसती हूँ, तो तुम्हारा क्या बिगड़ता है! चक्की की घुमुर-घुमुर भी नहीं सही

जाती ? लाओ, टोकरी दे दो, बैठे-बैठे कब तक खाऊँगी, दो महीने तो हो गये।”

रुक्मिन- ‘मैंने तो तुझसे कुछ नहीं कहा !”

सिलिया- “तुम कहो, चाहे न कहो; अपना धरम भी तो कुछ है।” रुक्मिन- तू अभी यहाँ के आदमियों को नहीं जानती। आटा तो पिसाते सबको अच्छा लगता है पर पैसे देते रोते हैं। किसका गेहूँ है? मैं सबेरे सबके घर

वापिस कर आऊँगी।”

सिलिया ने सविमन के हाथ से टोकरी छीन ली और बोली – “पैसे क्यों न देंगे? क्या मुफ़्त में काम करती हूँ ?”

रुक्मिन-“तो तू न मानेगी ?”

सिलिया- “तुम्हारी नौकरानी बन कर न रहूँगी।”

यह लड़ाई सुन कर पयाग भी आ पहुँचा और रुक्मिन से बोला- “काम करती है तो करने क्यों नहीं देती ? अब क्या जनम भर दुल्हन ही बनी रहेगी?

हो गये दो महीने

रुक्मिन – “तुम क्या जानो, नाक तो मेरी कटेगी।’

सिलिया बोल उठी, “तो क्या कोई खाली बिठा कर खिलाता है? चौका-बरतन, झाडू, रोटी-पानी, पीसना-कूटना, यह कौन करता है? पानी

खींचते-खींचते मेरे हाथों में निशान पड़ गये। मुझसे अब सारा काम न होगा।”

पयाग ने कहा”तो तू ही बाजार चली जाया कर। घर का काम रहने दे ! रुकिमिन कर लेगी।”

रुक्मिन ने ऐतराज किया, “ऐसी बात मुँह से निकालते शर्म नहीं आती ? नई दुल्हन बाजार में धूमेगी, तो संसार क्या कहेगा !” सिलिया ने जिद करके कहा- लोग क्या कहेंगे, क्या कोई गलत काम करने जाती सिलिया की जीत हो गयी। शासन रुविमन के हाथ से निकल गया। सिलिया की राज हो गयी। जवान औरत थी। गेहूँ पीस कर उठी तो औरों के साथ

घास छीलने गयी, और इतनी घास छीली कि सब हैरान रह गयीं ! गट्ठर उठाये न उठता था। जिन आदमियों को घास छीलने की बहुत आदत थी, चली उनसे भी वह जीत गयी! यह गहर बारह आने का बिका। सिलिया ने आटा, चावल, दाल, तेल, नमक, सब्जी, मसाला सब कुछ लिया, और चार आने

बचा भी लिये।

रुक्मिन ने समझ रखा था कि सिलिया बाजार से दो-चार आने पैसे ले कर लौटेगी तो उसे डाटूँगी और दूसरे दिन से फिर बाजार जाने लगूंगी। फिर मेरा

राज हो जायगा। पर यह सामान देखे, तो आँखें खुल गरयीं। पयाग खाने बैठा तो मसालेदार सब्जी की तारीफ करने लगा। महीनों से ऐसी स्वादिष्ट चीज़ नहीं मिली थी। वो बहुत खुश हुआ। खाना खाकर बाहर जाने लगा, तो सिलिया बरामदे में खड़ी मिल गयी। बोला- “आज कितने पैसे मिले

सिलिया- “बारह आने मिले थे।” पयाग- “सब खर्च कर डाले ? कुछ बचे हों तो मुझे दे दे।”

?”

सिलिया ने बचे हुए चार आने पैसे दे दिये। प्रयाग पैसे खनखनाता हुआ बोला- “तूने तो आज मालामाल कर दिया। रुक्मिन तो दो-चार पैसों ही में

टाल देती थी।”

सिलिया- “मुझे दबा कर रखना थोड़े ही है। पैसा खाने-पीने के लिए है कि उठाकर रखने के लिए?” पयाग- “अब तू ही बाजार जाया कर, रुक्मिन घर का काम करेगी।”

रुक्मिन और सिलिया में जंग छिड़ गई। सिलिया पयाग पर अपना हक़ जमाये रखने के लिए जी-जान से मेहनत करती। देर रात से ही उसकी चक्की की आवाज कानों में आने लगती। दिन निकलते ही घास लाने चली जाती और जरा देर आराम कर बाजार चल देती। वहाँ से वापस आकर भी वह बेकार न बैठती, कभी सन कातती, कभी लकड़ियाँ तोड़ती। रुक्मिन उसके काम में हमेशा कमी निकालती और जब मौका मिलता तो गोबर बटोर कर उपले पाथती और गाँव में बेचती। पयाग के दोनों हाथों में लड्डू थे। औरते उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे देने और ज्यादा प्यार देकर अपनी ओर लाने की कोशिश करती रहतीं, पर सिलिया ने कुछ ऐसी मजबूती से अपनी जगह बना ली थी कि, किसी तरह हिलाये न हिलती थी।

तक कि एक दिन दोनों खिलाड़ियों में खुलेआम लड़ाई बज गयी। एक दिन सिलिया घास ले कर लौटी तो पसीने से तर थी। फागुन का महीना था; बजे धूप तेज थी। उसने सोचा, नहा कर तब बाजार जाऊँगी। घास दरवाजे पर ही रख कर वह तालाब में नहाने चली गयी। रुविमिन ने धोड़ी-सी धास निकाल कर पड़ोसी के घर छिपा दी और मिट्टी को ढीला करके बराबर कर दिया। सिलिया नहा कर लोटी तो घास कम मालूम हुई। रुक्मिन से पूछा। उसने कहा घर में से । “मैं नहीं जानती”। सिलिया ने गालियाँ देनी शुरू की, “जिसने मेरी घास को हाथ लगाया हो, उसके शरीर में कीड़े पड़ें, उसके बाप और भाई मर जाएँ, मरी पास की उसकी आँखें फूट जाएँ । रुक्मिन कुछ देर तक तो बर्दाश्त किये बैठी रही, आखिर खून में उबाल आ ही गया। गुस्साकर उठी और सिलिया को दो-तीन चाटे लगा दिये। सिलिया छाती पीट-पीट कर रोने लगी। सारा मुहल्ला इकठ्ठा हो गया। सिलिया की दुद्धिमानी और मेहनत सभी की आँखों में चुभती थी. वह सबसे ज्यादा घास क्यों छीलती है, सबसे ज्यादा लकड़ियाँ क्यों लाती है, इतने सबेरे क्यों उठती है, इतने पैसे क्यों लाती है, इन कारणों ने उसे पड़ोसियों की हमदर्दी से दूर कर दिया था। सब उसी को बुरा-भला कहने लगीं। मुट्ठी भर घास के लिए इतना शोर मचा डाला, इतनी घास तो आदमी या। झाड़ कर फेंक देता है। धास न हुई, सोना हो गया। तुझे तो सोचना चाहिए था कि अगर किसी ने ले ही लिया, तो है तो ग ाँव-घर का ही । | बाहर का कोई

चोर तो आया नहीं। तूने इतनी गालियाँ दीं, तो किसको दी ? पड़ोसियों को ही तो ?” संयोग से उस दिन पयाग थाने गया हुआ था। शाम को थका-हारा लौटा तो सिलिया से बोला- ‘ला, कुछ पैसे दे दे, तो दम लगा आऊँ। थक कर चूर हो गया हूँ।” सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी। पयाग ने धबरा कर पुछा-“ब्या हुआ ? क्यों रोती है ? कहीं मुसीबत तो नहीं हो गयी ? मायके से

कोई आदमी तो नहीं आया ?”

सिलिया- “अब इस घर में मेरा रहना न होगा। मैं अपने घर जाऊँगी।”

पयाग- अरे, कुछ मुँह से तो बोल; हुआ क्या ? गाँव में किसी ने गाली दी है? किसने गाली दी है? उसका घर फूँक दूं, उसे थाने में अंदर करवा दूं।” सिलिया ने रो-रो कर सारी बात कह सुनायी। पयाग को आज थाने में खूब मार पड़ी थी। वो झल्लाया हुआ था। वह कथा सुनी, तो शरीर में आग लग गयी। रुक्मिन पानी भरने गयी थी। वह अभी घड़ा भी न रखने पायी थी कि पयाग उस पर टूट पड़ा और मारते-मारते बेदम कर दिया। वह मार का जवाब गालियों से देती थी और पयाग हर एक गाली पर और झल्ला-झल्ला कर मारता था। यहाँ तक कि रुक्मिन के घुटने फूट गये, चूड़ियाँ टूट गयीं। सिलिया बीच-बीच में कहती जाती थी, वाह रे तेरी आँखे ! वाह रे तेरी जबान ! ऐसी तो औरत ही नहीं देखी। औरत काहे को, डायन है, जरा भी मुँह में लगाम

पर रुक्मिन उसकी बातों को मानो सुनती ही न थी। उसकी सारी ताकत पयाग को कोसने में लगी हुई थी। पयाग मारते-मारते थक गया, पर रुक्मिन की

जबान न थकी।

बस, यही रट लगी हुई थी तू मर जा, तेरी अर्थी निकले, तुझे भवानी खायें, तुझे मिरगी आये। परयाग रह-रह कर गुस्से से चिढ़ उठता और आ कर दो-चार लातें जमा देता। पर रुक्मिन को अब शायद चोट ही न लगती थी। वह जगह से हिलती भी न थी। उसने सिर के बाल खोले, जमीन पर बैठी इन्हीं गालियों को बार-बार बोल रही थी। उसके बोलने में अब गुस्सा न था, सिर्फ पागलपन का एक रूप था। उसका पूरा शरीर बदले की आग से जल रहा

था। अंधेरा हुआ तो रुक्मिन उठ कर एक और निकल गयी, जैसे आँखों से आँसू की धार निकल जाती है। सिलिया खाना बना रही थी। उसने उसे जाते देखा

भी, पर कुछ पूछा नहीं। दरवाजे पर पयाग बैठा चिलम पी रहा था। उसने भी कुछ न कहा। जब फसल पकने लगती थी, तो डेढ़-दो महीने तक पयाग को खेत की देखभाल करनी पड़ती थी। माघ के महीने में ही वह खेत के बीच में थोड़ी-सी जमीन साफ करके घासफूस से बनी एक छोटी सी झोपड़ी बना लेता था और रात को खा-पी कर आग, चिलम और तमाखू-चरस लिये हुए इसी झोंपड़ी पड़ा रहता था। चैत के आखिरी तक उसका यही नियम रहता था। आजकल वही दिन थे। फसल पकी हुई तैयार खड़ी थी। दो-चार दिन में कटाई शुरू

होने वाली थी। पयाग ने दस बजे रात तक रुकमिन का इन्तजार किया। फिर यह समझ कर कि शायद किसी पड़ोसिन के घर सो रही होगी, उसने खा-पी

अपनी लाठी उठायी और सिलिया से बोला. कर

दरवाजा बंद कर ले, अगर रुक्मिन आये तो खोल देना, और, मनाकर थोड़ा-बहुत खिला देना। तेरे पीछे आज इतना तुफान हो गया। मुझे न-जाने इतना मैंने उसे कभी फूल की छड़ी से भी न मारा था। अगर उसे कुछ हो गया, तो कल आफत आ जाएगी।” गुस्सा कैसे आ गया। सिलिया बोली- ‘न जाने वह आयेगी कि नहीं। में अकेली केसे रहँगी। मुझे डर लगता है।”

पयाग- ‘तो घर में कौन रहेगा? सुना घर पा कर कोई लोटा-थाली उठा ले जाए तो ? डर किस बात का है? फिर रुक्मिन तो आती ही होगी।” सिलियान ने अंदर से कुण्डी बंद कर ली। पयाग खेत की ओर चला। चरस की मौज़ में भजन गाता जाता था, “ठगिनी ! क्या नैना झमकावे, कटू काट

मृदंग बनावे, नीबू काट मजीरा, पाँच तरोई मंगल गार्वे, नाचे बालम खीरा। रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर रिझावे, गले डाल तुलसी की माला, अचानक खेत के पास पहुँचते ही उसने देखा कि सामने खेत में किसी ने आग जलायी। एक पल में बड़ी बड़ी लपटें उठने लगीं। उसने चिल्ला कर

तीन लोक भरमावे। ठगिनी.

पुकारा , “कौन है वहाँ ? अरे, यह कौन आग जला रहा है?” ऊपर उठती हुई लपटों ने इसका जवाब अपनी जलती हुई जुबान से दिया। अब पयाग को

पता चला कि उसकी झोपड़ी में आग लगी हुई है। उसकी छाती धड़कने लगी। इस झोंपड़ी में आग लगाना रुई के ढेर में आग लगाने जैसा था। हवा चल

रही थी। झोपड़ी के चारों और एक हाथ हट कर पकी हुई फसल की चादर-सी विछी हुई थी। रात में भी उनका सुनहरा रंग झलक रहा था। आग की एक लपट, सिर्फ़ एक जरा-सी चिनगारी सारे खेत को जला कर राख कर देगी। सारा गाँव बर्बाद हो जायगा। इसी खेत से लगे हुए दूसरे गाँव के भी खेत थे। वे भी जल उठेंगे। ओह! लपटे बढ़ती जा रही हैं। अब देर करने का समय न धा। पयाग ने अपना गोबर का कंडा और चिलम वहीं पटक दिया और कंधो पर लोहबंद लाठी रख कर पागलो की तरह झोंपड़ी की तरफ दौड़ा। रास्ते से जाने में चक्कर था,

इसलिए वह खेतों में से हो कर भागा जा रहा था।

हर पल आग बढ़ती जा द हेरानी हो रही थी। लगता था, पॉँव जमीन पर पड़ते ही नहीं। उसकी आँखें झोंपड़ी पर लगी हुई थीं, दाएं-बायें से और कुछ न समझ आता था। इसी खुद ै

थी और पयाग के पाँद और तेजी से उठ रहे थे। कोई तेज घोड़ा भी इस बक्त उसे हरा न सकता था। अपनी तेजी पर उसे

ध्यान ने उसके पैरों में पंख लगा दिये थे। न दम फूलता था, न पाँव थकते थे। बेहद लंबा रास्ता उसने दो मिनट में तय कर लिये और झोपड़ी के पास जा किसने यह काम किया है, यह सोचने का मौका न था उसे ढूंढ़ने की तो बात ही दूसरी थी। पयाग का शक रुक्मिन पर हुआ। पर यह गुस्से का समय न धा। आग की लपटे दुष्ट बच्चों की तरह हंसती, धक्का-मुक्का करतीं, कभी दाहिनी ओर बढ़ती और कभी बायीं ओर। बस, ऐसा लगता था कि लपट अब

पहुँचा। झोपड़ी के आस-पास कोई न था।

खेत तक पहुँची, तब पहुँची। मानो लपटे जबरदस्ती क्यारियों की ओर बढ़तीं और असफल हो कर दूसरी बार फिर तेज़ी से लपकती थीं। आग कैसे

बुझे ! लाठी से पी ट कर बुझाने का मतलब न था। वह तो बहुत बेवकूफी थी। फिर क्या हो फसल जल गयी, तो फिर वह किसी को मुँह न दिखा सकेगा। आह ! गाँव में रोना-पीटना मच जायगा। तबाही हो जायेगी। उसने ज्यादा

ही सोचा। गँवारों को सोचना नहीं आता। पयाग ने लाठी सँभाली, जोर से एक छलाँग मार कर आग के अंदर झोपडी के दरवाजे पर जा पहुँचा, जलती नहीं रे से। हुई झोंपड़ी को अपनी लाठी पर उठाया और उसे सिर पर लिये सबसे चौड़े रास्ते से गाँव की तरफ भागा ऐसा लगा, मानो कोई आग की गाड़ी हवा में उड़ती चली जा रही है। फूस की जलती हुई धज्जियाँ उसके ऊपर गिर रही थीं, पर उसे ये महसूस तक न होता था। एक बार एक हिस्सा अलग हो कर उसके हाथ पर गिर पड़ा। सारा हाथ जल गया। पर उसके पाँव जरा देर के लिए भी नहीं रुके, हाथ जरा भी ना हिले । हाथों का हिलना खेती का बर्बाद होना था।

रुक्मिन और सिलिया में जंग छिड़ गई। सिलिया पयाग पर अपना हक़ जमाये रखने के लिए जी-जान से मेहनत करती। देर रात से ही उसकी चक्की की आवाज कानों में आने लगती। दिन निकलते ही घास लाने चली जाती और जरा देर आराम कर बाजार चल देती। वहाँ से वापस आकर भी वह बेकार न बैठती, कभी सन कालती, कभी लकड़ियाँ तोड़ती। रुक्मिन उसके काम में हमेशा कमी निकालती और जब मौका मिलता तो गोबर बटोर कर उपले पाथती और गाँव में बेचती। पयाग के दोनों हाथों में लड्डू थे। औरते उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे देने और ज्यादा प्यार देकर अपनी ओर लाने की कोशिश करती रहतीं, पर सिलिया ने कुछ ऐसी मजबूती से अपनी जगह बना ली थी कि, किसी तरह हिलाये न हिलती थी। यहाँ तक कि एक दिन दोनों मे से तर थी। खिलाड़ियों में खुलेआम लड़ाई बज गयी। एक दिन सिलिया ले कर लौटी तो पसीने से घास ले कर

फागुन का महीना था; धूप तेज थी। उसने सोचा, नहा कर तब बाजार जाऊँगी। घास दरवाजे पर ही रख कर वह तालाब में नहाने चली गयी। रुव्मिन भदी सी घास निकाल कर कर पड़ोसी के घर में छिपा दी और गदर को ढीला करके बराबर कर दिया। सिलिया नहा कर लौटी तो धास कम मालूम हुई! रुक्मिन से पूछा। उसने कहा-“मैं नहीं जानती”। सिलिया ने गालियाँ देनी शुरू कीं, “जिसने मेरी घास को हाथ लगाया हो, उसके शरीर में कीड़े पडे, उसके बाप और भाई मर जाएँ, उसकी आँखें फूट जाएँ”। ! रुक्मिन कुछ देर तक तो बर्दाश्त किये बैठी रही, आखिर खून में उबाल आ ही गया। गुस्साकर बठी

उठी और सिलिया को दो-तीन चांटे लगा दिये। सिलिया छाती पीट-पीट कर रोने लगी। सारा मुहल्ला इकठ्ठा हो गया। सिलिया की बुद्धिमानी और मेहनत सभी की आँखों में चुभती थी. वह सबसे ज्यादा चास क्यों छीलती है, सबसे ज्यादा लकड़ियाँ क्यों लाती है, इतने सबेरे क्यों उठती है, इतने पैसे क्यों लाती है, इन कारणों ने उसे पड़ोसियों की हमदर्दी से दूर कर दिया था। सब उ क्या व उसी को बुरा-भला कहने लगीं। “मुट्ठी भर घास के लिए इतना शोर मचा डाला, इतनी घास तो आदमी झाड़ कर फेंक देता है। घास न हुई, सोना हो गया । तुझे तो सोचना चाहिए था कि अगर किसी ने ले ही लिया, तो है तो गाँव-धर का ही । बाहर का कोई चोर तो आया नहीं। तूने इतनी गालियाँ दीं, तो किसको दी? पड़ोसियों को ही तो?” संयोग से उस दिन पयाग थाने गया हुआ था। शाम को थका-हारा लौटा तो सिलिया से बोला- “ला, कुछ पैसे दे दे, तो दम लगा आऊँ। थक कर चूर हो

गया हूँ।” सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी। पयाग ने घबरा कर पूछा-“क्या हुआ? क्यों रोती है? कहीं मुसीबत तो नहीं हो गयी ? मायके से

कोई आदमी तो नहीं आया ?” सिलिया- “अब इस घर में मेरा रहना न होगा। मैं अपने घर जाऊँगी।”

पयाग- अरे, कुछ मुंह से तो बोल; हुआ क्या ? गाँव में किसी ने गाली दी है ? किसने गाली दी है ? उसका घर फूंक दूं, उसे थाने में अंदर करवा दें।” सिलिया ने रो-रो कर सारी बात कह सुनायी। पयाग को आज थाने में खूब मार पड़ी थी। वो झल्लाया हुआ था। वह कथा सुनी, तो शरीर में आग लग गयी। रुक्मिन पानी भरने गयी थी। वह अभी घड़ा भी न रखने पायी थी कि पयाग उस पर टूट पड़ा और मारते-मारते बेदम कर दिया। वह मार का जवाब गालियों से देती थी और पयाग हर एक गाली पर और झल्ला-झल्ला कर मारता था। यहाँ तक कि रुक्मिन के घुटने फूट गये, चूड़ियाँ टूट गयीं। सिलिया बीच-बीच में कहती जाती थी, वाह रे तेरी आँखे ! वाह रे तेरी जबान ! ऐसी तो औरत ही नहीं देखी। औरत काहे को, डायन है, जरा भी मुँह में लगाम नहीं

पर रुक्मिन उसकी बातों को मानो सुनती ही न थी। उसकी सारी ताकत पयाग को कोसने में लगी हुई थी। पयाग मारते-मारते थक गया, पर रुव्मिन की

जबान न थकी।

बस, यही रट लगी हुई थी, तू मर जा, तेरी अर्थी निकले, तुझे भवानी खायेँ, तुझे मिरगी आये। परयाग रह-रह कर गुस्से से चिढ उठता और आ कर दो-चार लातें जमा देता। पर रुक्मिन को अब शायद चोट ही न लगती थी। वह जगह से हिलती भी न थी। उसने सिर के बाल खोले, जमीन पर बैठी इन्हीं गालियों को बार-बार बोल रही थी। उसके बोलने में अब गुस्सा न था, सिर्फ पागलपन का एक रूप था। उसका पूरा शरीर बदले की आग से जल रहा

था।

अँधेरा हुआ तो रुक्मिन उठ कर एक ओर निकल गयी, जैसे आँखों से आँसू की धार निकल जाती है। सिलिया खाना बना रही थी। उसने उसे जाते देखा भी, पर कुछ पूछा नहीं। दरवाजे पर पयाग बैठा चिलम पी रहा था। उसने भी कुछ न कहा। जब फसल पकने लगती थी, तो डेढ़-दो महीने तक पयाग को खेत की देखभाल करनी पड़ती थी। माघ के महीने में ही वह खेत के बीच में थोड़ी-सी

जमीन साफ करके घासफूस से बनी एक छोटी सी झोंपड़ी बना लेता था और रात को खा-पी कर आग, चिलम और तमाखू-चरस लिये हुए इसी झोपड़ी चैत के आखिरी होने वाली थी। पयाग ने दस बजे सका यही नियम रहता था। आजकल वही दिन थे फसल पकी हुई तैयार खड़ी थी। दो-चार दिन में कटाई शुरू में पड़ा रहता था। रात तक रुविमिन का इन्तजार किया। फिर यह समझ कर कि शायद किसी पड़ोसिन के घर सो रही होगी, उसने खा-पी

कर अपनी लाठी उठायी और सिलिया से बोला,

दरवाजा बंद कर ले, अगर रुक्मिन आये तो खोल देना, और, मनाकर थोड़ा-बहुत खिला देना। तेरे पीछे आज इतना तुफान हो गया। मुझे न-जाने इतना गुस्सा कैसे आ गया। मैंने उसे कभी फूल की छड़ी से भी न मारा था। अगर उसे कुछ हो गया तो कल आफ़त आ जाएगी।” सिलिया बोली- ‘न जाने वह आयेगी कि नहीं। में अकेली कैसे रहँगी। मुझे डर लगता है।”

पयाग- तो घर में कौन रहेगा? सूना घर पा कर कोई लोटा-थाली उठा ले जाए तो? डर किस बात का है ? फिर रुक्मिन तो आती ही होगी।” सिलियाने अंदर से ग ने कुण्डी बंद कर ली। पयाग खेत की ओर चला। चरस की मौज़ में भजन गाता जाता था, “ठगिनी क्या नैना झमकावे, कटू काट मुदंग बनावे, नीबू काट मजीरा, पाँच तरोई मंगल गावे, नाचे बालम खीरा। रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर रिझावे, गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे। ठगिनी.

अचानक खेत के पास

स पहुँचते मे ही उसने देखा कि सामने खेत में किसी ने आग जलायी। एक पल में बड़ी बड़ी लपटें उठने लगीं। उसने चिल्ला कर पुकारा, “कौन है वहाँ? अरे, यह कौन आग जला रहा है ?” ऊपर उठती हुई लपटों ने इसका जवाब अपनी जलती हुई जुबान से दिया। अब पयाग को

पता चला कि उसकी झोपड़ी में आग लगी हुई है। उसकी छाती धड़कने लगी। इस झोंपड़ी में आग लगाना रुई के ढेर में आग लगाने जैसा था। हवा चल

रही थी। झोंपड़ी के चारों ओर एक हाथ हट कर पकी हुई फसल की चादर-सी बिछी हुई थी।

रात में भी उनका सुनहरा रंग झलक रहा था। आग की एक लपट, सिर्फ एक जरा-सी चिनगारी सारे खेत को जला कर राख कर देगी। सारा गाँव बर्बाद हो जायगा। इसी हुए दूसरे गाँव के भी खेत थे। वे भी जल उठेंगे। ओह ! लपटें बढ़ती जा रही हैं। अब देर करने का समय न था। पयाग ने अपना गोबर का कंडा और चिलम वहीं पटक दिया और कधो पर लोहबंद लाठी रख कर पागलो की तरह झोंपड़ी की तरफ दौड़ा। रास्ते से जाने में चक्कर था,

इसलिए वह खेतों में से हो कर भागा जा रहा था।

हर पल आग बढ़ती जा द हेरानी हो रही थी। लगता था, पॉँव जमीन पर पड़ते ही नहीं। उसकी आँखें झोंपड़ी पर लगी हुई थीं, दाएं-बायें से और कुछ न समझ आता था। इसी खुद ै

थी और पयाग के पाँद और तेजी से उठ रहे थे। कोई तेज घोड़ा भी इस बक्त उसे हरा न सकता था। अपनी तेजी पर उसे

ध्यान ने उसके पैरों में पंख लगा दिये थे। न दम फूलता था, न पाँव थकते थे। बेहद लंबा रास्ता उसने दो मिनट में तय कर लिये और झोपड़ी के पास जा किसने यह काम किया है, यह सोचने का मौका न था उसे ढूंढ़ने की तो बात ही दूसरी थी। पयाग का शक रुक्मिन पर हुआ। पर यह गुस्से का समय न धा। आग की लपटे दुष्ट बच्चों की तरह हंसती, धक्का-मुक्का करतीं, कभी दाहिनी ओर बढ़ती और कभी बायीं ओर। बस, ऐसा लगता था कि लपट अब

पहुँचा। झोपड़ी के आस-पास कोई न था।

खेत तक पहुँची, तब पहुँची। मानो लपटे जबरदस्ती क्यारियों की ओर बढ़तीं और असफल हो कर दूसरी बार फिर तेज़ी से लपकती थीं। आग कैसे

बुझे ! लाठी से पी ट कर बुझाने का मतलब न था। वह तो बहुत बेवकूफी थी। फिर क्या हो फसल जल गयी, तो फिर वह किसी को मुँह न दिखा सकेगा। आह ! गाँव में रोना-पीटना मच जायगा। तबाही हो जायेगी। उसने ज्यादा

ही सोचा। गँवारों को सोचना नहीं आता। पयाग ने लाठी सँभाली, जोर से एक छलाँग मार कर आग के अंदर झोपडी के दरवाजे पर जा पहुँचा, जलती नहीं रे से। हुई झोंपड़ी को अपनी लाठी पर उठाया और उसे सिर पर लिये सबसे चौड़े रास्ते से गाँव की तरफ भागा ऐसा लगा, मानो कोई आग की गाड़ी हवा में उड़ती चली जा रही है। फूस की जलती हुई धज्जियाँ उसके ऊपर गिर रही थीं, पर उसे ये महसूस तक न होता था। एक बार एक हिस्सा अलग हो कर उसके हाथ पर गिर पड़ा। सारा हाथ जल गया। पर उसके पाँव जरा देर के लिए भी नहीं रुके, हाथ जरा भी ना हिले । हाथों का हिलना खेती का बर्बाद होना था।

पयाग की ओर से अब कोई शंका न थी। अगर डर था तो यही कि झोपड़ी का बीच का भाग, जहाँ लाठी का कुंदा डाल कर पयाग ने उसे उठाया था, जल ना जाए, क्योंकि छेद के फैलते ही झोंपड़ी उसके ऊपर आ गिरेगी और आग में ही उसकी समाधि बन जायेगी। पयाग यह जानता था और हवा की चाल से उड़ा चला जा रहा था। चार फरलॉग की दौड़ है। मौत आग का रूप लिए हुए पयाग के सर पर नाच रही है और गाँव की फसल पर भी । उसकी दौड़ में इतनी तेज़ी है कि लपटों का मुँह पीछे की ओर मुड़ गया और उसके जलने की ताकत का ज्यादा हिस्सा हवा से लड़ने में लग रहा था। नहीं तो अब तक बीच में आग पहुँच गयी होती और हाहाकार मच गया होता। एक फरलॉग तो निकल गया, पयाग की हिम्मत ने हार नहीं मानी। दूसरा फरलाँग भी पूरा हो गया।

देखना पयाग, दो फरलाँग की और कसर बाक़ी है। पॉव जरा भी रुकने न पाए। आग लाठी के कुंदे पर पहुँची और तुम्हारे जीवन का अंत है। मरने के बाद भी तुम्हें गालियाँ मिलेंगी, तुम अनंत सालो तक बहुओ की आग में जलते रहोगे। मानसरोवर बस एक मिनट और अब सिर्फ दो खेत और रह गये है। सर्वनाश लाठी का कुंदा निकल गया। झोंपड़ी नीचे खिसक रही है, अब कोई उम्मीद नहीं। पयाग जान का खतरा मोल लेकर दौड़ रहा है, वह किनारे

पहुँचा। का खेत आ

अब सिर्फ दो सेकेंड का और मामला है। जीत का दरवाजा सामने बीस हाथ पर खड़ा स्वागत कर रहा है। उधर स्वर्ग है, इधर नरक। मगर वह झोपड़ी खिसकती हुई प्रयाग के सिर पर आ पहुँची। वह अब भी उसे फेंक कर अपनी जान बचा सकता है। पर उसे जान की परवाह नहीं थी। वह उस जलती हुई आग को सिर पर लिये भागा जा रहा है! वहाँ उसके पाँव लड़खडाये ! अब आग का ये बेरहम खेल नहीं देखा जाता। अचानक एक औरत सामने के पेड़ के नीचे से दौड़ती हुई पयाग के पास पहुँची। गरह रुक्मिन थी। उसने तुरंत पयाग के सामने आ कर गर्दन झुकायी और जलती हुई झोपड़ी के नीचे

पहुँच कर उसे दोनों हाथों पर ले लिया।

उसी पल पयाग बेहोश हो कर गिर पड़ा। उसका सारा मुँह झुलस गया था। रुविभिन उस आग के हेर को लिये एक सेकेंड में खेत के डॉडे पर आ पहँची, मगर इतनी दूर में उसके हाथ जल गये, मुँह जल गया और कपड़ों में आग लग गयी। उसे अब इतना होश भी न था कि झोंपड़ी के बाहर निकल आये। वह झोपड़ी लिये हुए गिर पड़ी। इसके बाद कुछ देर तक झोपड़ी हिलती रही । रुक्मिन हाथ-पाँव मारती रही, फिर आग ने उसे निगल लिया।

रुक्मिन ने अग्नि-समाधि ले ली।

कुछ देर के बाद पयाग को होश आया। उसका सारा शरीर जल रहा था। उसने देखा, पेड़ के नीचे फूस की लाल आग चमक रही है। वो उठकर दौड़ा र पैर से हटा दिया, नीचे रुक्मिन की आधी जली हुई लाश पड़ी थी। उसने बैठ कर दोनों हाथों से मुंह छुपा लिया और रोने लगा। सुबह गाँव के लोग पयाग को उठा कर उसके घर ले गये। एक हफ्ते तक उसका इलाज होता रहा, पर वो बचा नहीं। कुछ तो आग ने जलाया था, जो कुछ कसर की थी, उसे दुःख की बाकी की अग्नि ने जला दिया था।

सीख – इस कहानी में यह दिखाया गया है कि पति की जिंदगी में दूसरी औरत के आ जाने पर पति के प्यार को पाने के लिये औरत क्या-क्या करती है। दूसरी तरफ गरीबी में जीने वाले किसान न जाने कितनी मुश्किलों का सामना करने को मजबूर है, यहाँ तक की अपनी जान दैने से भी पीछे नहीं रहते । गुस्सा इंसान को अंधा कर देती है, वो अपने सोचने समझने की शक्ति खो देता है और ऐसा अनर्थ कर देता है जिसका अंजाम बहुत भयानक और दुखदायी हो सकता है, जैसे पयाग ने रुक्मिन को बेरहमी से मारकर किया था और रुविभिन ने बदले की भावना में झोपड़ी में आग लगाकर, इसलिए जब गुस्सा आए तो उसे काबू में रखने की कोशिश करें और गुस्सा ठंडा हो जाने के बाद सोच समझकर क़दम उठाएं,

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