ALGYOGHA by Munshi premchand.

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About Book

भोला महतो ने पहली पत्नी के मर के जाने बाद दूसरी सगाई की तो उसके बेटे रग्घू के लिये बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय सिर्फ दस साल थी। वो चैन से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था लेकिन माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना सुंदर औरत थी और सुंदरता और घमंड में चोली-दामन का रिश्ता है। वह खुद कोई काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को चारा रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब रग्घू में सब बुराइयाँ-ही- बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह पुराने नियम की तरह आँखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये?

बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं; बेचारी उसका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो न सहती। वह तो कहो, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि सह लेती है। ताकतवर की शिकायत सब सुनते हैं, कमजोर की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! रग्घू का दिल माँ की ओर से दिन-दिन फटता जा रहा था। यहाँ तक कि आठ साल गुजर गये और एक दिन भोला भी चल बसा।

पन्ना के चार बच्चे थे- तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खर्च और कमाने वाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी पत्नी लाएगा और अलग रहेगा। पत्नी आकर और भी आग लगायेगी। पन्ना को चारों ओर अंधेरा- ही- अंधेरा दिखाई देता था। पर कुछ भी हो, वह रग्घू की दया पर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब दासी न बनेगी। जिस लड़के को अपना गुलाम समझा, उसका मुंह न ताकेगी।

वह सुन्दर थी, उम्र अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हँसेंगे। बला से! उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊँची जात में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर पर्दा ढका रहे। वह तो दुनिया को दिखाकर दूसरा घर कर सकती है, फिर वह रग्घू से दब कर क्यों रहे?

भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। शाम हो गयी थी। पन्ना इसी चिन्ता में पड़ी हुई थी कि अचानक उसे ख्याल आया, लड़के घर में नहीं हैं। यह बैलों के लौटने का समय है, कहीं कोई लड़का उनके नीचे न आ जाय । अब दरवाजे पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा? रग्घू को मेरे लड़के बिल्कुल नहीं पसंद। कभी हँसकर नहीं बोलता। घर से बाहर निकली, तो देखा, रग्घू सामने झोपड़े में बैठा गन्ने काट रहा है, लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की उसकी गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की कोशिश कर रही है। पन्ना को अपनी आँखों पर भरोसा न हुआ।

आज तो यह नयी बात है। शायद दुनिया को दिखाता है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में नफरत भरी हुई है। मौका मिले तो जान ही ले ले! काला साँप है, काला साँप! वो कठोर आवाज में बोली- ‘तुम सबके सब वहाँ क्या करते हो? घर में आओ, शाम का समय है, गाय बैल आते होंगे।

रग्घू ने दयनीय नजरों से देखकर कहा- ‘मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है?’

बड़ा लड़का केदार बोला- ‘काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू बैठेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनिया। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।’ यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकाल लाया। चार-चार पहिये लगे थे। बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।

पन्ना ने आश्चर्य से पूछा- ‘ये गाड़ियाँ किसने बनायी?’ केदार ने चिढ़कर कहा- ‘रग्घू दादा ने बनायी हैं, और किसने! भगत के घर से औजार माँग लाए और जल्दी से बना दी। खूब दौड़ती हैं काकी! बैठ खुन्नू मैं खींचू।

खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शामिल है। लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा- ‘दादा, खींचो।’ रग्घू ने झुनिया को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना आश्चर्य से यह नजारा देख रही थी और सोच रही थी कि यह वही रग्घू है या कोई और।

थोड़ी देर के बाद दोनों गाड़ियाँ लौटीं; लड़के घर में जाकर इस गाड़ी में बैठने के अनुभव बताने लगे। कितने खुश थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों। खुन्नू ने कहा- ‘काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे।’ लछमन- ‘और बछिया कैसी भागीं, सबकी सब दौड़ीं!’ केदार- ‘काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं।

झुनिया सबसे छोटी थी। उसका बताने का तरीका उछल-कूद और नजरों तक सीमित था-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही

थी।

खुन्नू- ‘अब हमारे घर गाय भी आ जायगी काकी! रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊँगा।

केदार- ‘तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पीयेंगे।’

इतने में रग्घू भी अंदर आ गया। पन्ना ने अपमान की नजर से

देखकर पूछा- ‘क्यों रग्घू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है?’

रग्घू ने कहा- ‘हाँ, माँगी तो है, कल लावेगा।’ पन्ना- ‘रुपये किसके घर से आयेंगे, यह भी सोचा है?’ रग्घू- ‘सब सोच लिया है काकी! मेरी यह लॉकेट है ना । इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पाँच रुपये बछिया के जुर्माना दे दूंगा! बस, गाय अपनी हो जायगी।’

पन्ना सन्नाटे में आ गयी। अब उसका शक से भरा मन भी रग्घू के प्यार और अच्छाई पर शक न कर सका। बोली- ‘मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जायँ, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा । इतने दिनों गाय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं जिये?’

रग्घू समझदारी के भाव से बोला- ‘बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खायेंगे। लॉकेट पहनना मुझे अच्छा भी नहीं लगता। लोग समझते होंगे कि बाप तो मर गया। इसे लॉकेट पहनने की सूझी है।

भोला महतो गाय की चिंता ही में चल बसे। न रुपये आये और न गाय मिली। मजबूर थे। रग्घू ने यह परेशानी कितनी आसानी से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार पन्ना को रग्घू पर भरोसा आया, बोली- ‘जब गहना ही बेचना है, तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे?’ मेरी माला ले लेना।’

रग्घू- ‘नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दो को क्या, लॉकेट पहनें या न पहनें।’

पन्ना- ‘चल, मैं बूढ़ी हुई। अब हार पहनकर क्या करना है। तू

अभी लड़का है, तेरा गला अच्छा न लगेगा?’ रग्घू मुस्कराकर बोला- ‘तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गयी?’ गाँव

में है कौन तुम्हारे बराबर?

रग्घू की बात ने पन्ना को शर्मिंदा कर दिया। उसके रुखे-मुरझाये चहरे पर खुशी की लाली दौड़ गयी।

भोला महतो ने पहली पत्नी के मर के जाने बाद दूसरी सगाई की तो उसके बेटे रग्घू के लिये बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय सिर्फ दस साल थी। वो चैन से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था लेकिन माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना सुंदर औरत थी और सुंदरता और घमंड में चोली-दामन का रिश्ता है। वह खुद कोई काम न करती। गोबर रग्धू निकालता, बैलों को चारा रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरी कि उसे अबा रग्घू में सब बुराइयाँ-ही- बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह पुराने नियम की तरह आँखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्धू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये?

बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं; बेचारी उसका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो न सहती। वह तो कहो, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि सह लेती है। ताकतवर की शिकायत सब सुनते हैं, कमजोर की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! रग्घू का दिल माँ की ओर से दिन-दिन फटता जा रहा था। यहाँ तक कि आठ साल गुजर गये और एक दिन भोला भी चल बसा।

पन्ना के चार बच्चे थे- तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खर्च और कमाने वाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी पत्नी लाएगा और अलग रहेगा। पत्नी आकर और भी आग लगायेगी। पन्ना को चारों ओर अंधेरा- ही- अंधेरा दिखाई देता था। पर कुछ भी हो, वह रग्घू की दया पर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब दासी न बनेगी। जिस लड़के को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी।

वह सुन्दर थी, उम्र अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यहीं न होगा, लोग हँसैंगे। बला से! उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊँची जात में होता है कि घर में चाहे

जो कुछ करो, बाहर पर्दा ढका रहे। वह तो दुनिया को दिखाकर दूसरा घर कर सकती है, फिर वह रग्घू से दब कर क्यों रहे? भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। शाम हो गयी थी। पन्ना इसी चिन्ता में पड़ी हुई थी कि अचानक उसे ख्याल आया, लड़के घर में नहीं हैं। यह बैलों के लौटने का समय है, कहीं कोई लड़का उनके नीचे न आ जाय। अब दरवाजे पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा? रग्घू को मेरे लड़के बिल्कुल नहीं पसंद। कभी हँसकर नहीं बोलता। घर से बाहर निकली, तो देखा, रग्घू सामने झोपड़े में बैठा गन्ने काट रहा है, लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की उसकी गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की कोशिश कर रही है। पन्ना को अपनी आँखों पर भरोसा न हुआ।

आज तो यह नयी बात है। शायद दुनिया को दिखाता है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में नफरत भरी हुई है। मौका मिले तो जान ही ले ले! काला सांप है, काला साँप! वो कठोर आवाज में बोली- ‘तुम सबके सब वहाँ क्या करते हो? घर में आओ, शाम का समय है, गाय बेल आते होंगे।

रग्घू ने दयनीय नजरों से देखकर कहा- ‘मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है?’ बड़ा लड़का केदार बोला- ‘काकी, रघू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुजू बैठेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनिया।

दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।

यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियाँ

निकाल लाया। चार-चार पहिये लगे थे। बैठने के लिए तख्ने और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।

पन्ना ने आश्चर्य से पूछा- ‘ये गाड़ियाँ किसने बनायी?’ केदार ने चिढ़कर कहा- ‘रग्घू दादा ने बनायी हैं, और किसने! भगत के घर से औजार माँग लाए और जल्दी से बना दी। खूब दौड़ती हैं काकी! बैठ खुन्नु

खींचू।

तू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शामिल है। खुन्ग लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा- ‘दादा, खींचो।’

रग्घू ने झुनिया को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना आश्चर्य से यह नजारा देख रही थी और

सोच रही थी कि यह वही रग्घू है या कोई और।

धौड़ी देर के बाद दोनों गाड़ियों लोटी; लड़के घर में जाकर इस गाड़ी में बैठने के अनुभव बताने लगे। कितने खुश धे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ

आये हों।

खुननू ने कहा- ‘काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे।

लछमन- ‘और बछिया कैसी भागी, सबकी सब दौड़ी! केदार- ‘काकी, राघू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं।

झुनिया सबसे छोटी थी। उसका बताने का तरीका उछल-कूद और नजरों तक सीमित था-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी।

‘अब हमारे गाय भी आ जायगी काकी। रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊँगा।

केदार- ‘तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पीयेंगे।

इतने में रघू भी अंदर आ गया। पन्ना ने अपमान की नजर से देखकर पूछा- ‘क्यों रघू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है?’

रग्घू ने कहा- हाँ, माँगी तो है, कल लावेगा।’ पन्ना- ‘रुपये किसके घर से आयेंगे, यह भी सोचा है?

रग्घू- ‘सब सोच लिया है काकी! मेरी यह लॉकेट है ना। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पाँच रुपये बछिया के जुर्माना दे दूँगा! बस, गाय अपनी हो

जायगी।’

पन्ना सन्नाटे में आ गयी। अब उसका शक से भरा मन भी रग्धू के प्यार और अच्छाई पर शक न कर सका। बोली- ‘मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जायेँ, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने दिनों गाय नहीं रही, तो त्या लड़के नहीं जिये?’ रग्घू समझदारी के भाव से बोला- बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खायेंगे। लॉकेट पहनना मुझे अच्छा भी

नहीं लगता। लोग समझते होंगे कि बाप तो मर गया इसे लॉकेट पहनने की सूझी है। भोला महतो गाय की चिंता ही में चल बसे। न रुपये आये और न गाय मिली। मजबूर थे। रग्धू ने यह परेशानी कितनी आसानी से हल कर दी। आज

जीवन में पहली बार पन्ना को राध पर भरोसा आया, बोली- ‘जब गहना ही बेचना है, तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे?’ मेरी माला ले लेना।’ रग्घू- ‘नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दों को क्या, लॉकिट पहनें या न पहने।

पन्ना- ‘चल, में बूढ़ी हुई। अब हार पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा गला अच्छा न लगेगा? रग्घू मुस्कराकर बोला- ‘तुम अभी से कैसे बूढी हो गयी?’ गाँव में है कौन तुम्हारे बराबर?

रग्घू की बात ने पन्ना को शर्मिंदा कर दिया। उसके रुखे-मुरझाये चहरे पर खुशी की लाली दौड़ गयी।

पाँच साल गुजर गये। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, अच्छी बात करने वाला दूसरा किसान गाँव में न था। वो पन्ना की इच्छा के बिना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साल की हो गयी थी। पन्ना बार-बार कहती, भया, बहू को घर ले आओ। कब तक मायके में पड़ी रहेगी? सब लोग मुझे

बदनाम करते हैं कि यही बहू को नहीं आने देती, मगर रडू टाल देता था। कहता कि अभी जल्दी क्या है? उसे अपनी पत्नी के रंग-दंग का कुछ परिचय

दूसरों से मिल चुका था। ऐसी औरत को घर में लाकर वह अपनी शांति में बाधा नहीं डालना चाहता था। आखिर एक दिन पन्ना ने जिद करके कहा – ‘तो तुम न लाओगे?

कह दिया कि अभी कोई जल्दी नहीं।

तुम्हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए तो जल्दी है। मैं आज आदमी भेजती हूँ। नः पछताओगी काकी, उसका स्वभाव अच्छा नहीं है।

तुम्हारी बला से। जब में उससे बोलूंगी ही नहीं, तो क्या हवा से लड़ेगी? रोटियाँ तो बना लेगी। मुझसे भीतर-बाहर का सारा काम नहीं होता, में आज

बुलाये लेती हूँ।

बुलाना चाहती हो, बुला लो; मगर फिर यह न कहना कि यह बीवी को ठीक नहीं करता, उसका गुलाम हो गया।

न कहूँगी, जाकर दो साड़ियाँ और मिठाई ले आ।

तीसरे दिन मुलिया मायके से आ गयी। दरवाजे पर नगाड़े बजे, शहनाइयों की मधुर

गूँजने लगी। मुँह-दिखाई की वह इस सूखी जमीन में साफ नदी की तरह थी। गेहुँआ रंग था, बड़ी-बड़ी नोकीली पले, गालों पर हल्की सुर्खी, आँखों में तेज आकर्षण। रग्घू उसे देखते ही

आवाज़ आकाश में

रस्म की गई।

मंत्र-मुग्ध हो गया।

सुबह पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहुँआ रंग सुबह की सुनहरी किरणों से सोना हो जाता, मानों सुबह अपनी सारी सुगंध, सारा विकास और

पागलपन लिये मुस्कराती चली जाती हो।

मुलिया मायके से ही जली- ‘भुनी आयी थी। मेरा पति छाती फाड़कर काम करे, और पन्ना रानी बनी बैठी रहें, उसके लड़के अमीर बने घूमें। मुलिया से

यह मंजूर न होगा। वह किसी की गुलामी न करेगी। अपने लड़के तो अपने होते ही नहीं, भाई किसके होते हैं? जब तक बड़े नहीं होते, रू को घेरे हुए हैं। जैसे ही जरा बड़े हुए, हाथ झाड़कर निकल जायेंगे, बात भी न पूछेंगे।

एक दिन उसने रग्बी से कहा- ‘तुम्हें इस तरह गुलामी करनी हो, तो करो, मुझसे न होंगी। रग्घू- ‘तो फिर क्या करूँ, तू ही बता? लड़के तो अभी धर का काम करने लायक भी नहीं हैं

मुलिया- ‘लड़के दूसरे के हैं, तुम्हारे नहीं है। यही पन्ना है, जो तुम्हें दाने-दाने को तरसाती थी। सब सुन चुकी हूँ। मैं दासी बनकर न रहँगी। रुपये-पैसे का मुझे हिसाब नहीं मिलता। न जाने तुम क्या लाते हो और वह क्या करती है। तुम समझते हो, रुपये धर ही में तो हैं: मगर देख लेना, तुम्हें

कौड़ी भी मिले।

रघु- ‘रुपये-पैसे तेरे हाथ में देने लगूं तो दुनिया क्या कहे गी, यह तो सोच।

जो एक फूटी

मुलिया- ‘दुनिया जो चाहे, कहे। दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना, अच्छा करके भी कुछ न होगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए मरो, मै क्यों

रग्घू ने कुछ जवाब न दिया। उसे जिस बात का डर था, वह इतनी जल्द सिर आ पड़ी। अब समझा बुझाकर भी साल-छ:महीने और काम चलेगा। बस,

इससे ज्यादा कुछ न होगा। बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी?

एक दिन पन्ना ने महुए को सूखने के लिए डाला। बरसात शुरु हो गयी थी। बारिश में अनाज गीला हो रहा था। मुलिया से बोली- ‘बह, जरा देखती रहना,

मैं तालाब से नहा आऊँ?

मुलिया ने लापरवाही से कहा- ‘मुझे नींद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक दिन न नहाओगी तो क्या होगा? पन्ना ने साड़ी उतारकर रख दी, नहाने न गयी। मुलिया का वार खाली गया।

कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर लौटी, अंधेरा हो गया था। दिन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी, मगर देखा तो

यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। पन्ना ने धीरे से पूछा- ‘आज अभी चूल्हा नहीं जला?’ केदार ने कहा- ‘आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी! भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।

पन्ना- ‘तो तुम लोगों ने खाया क्या?

केदार- ‘कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन और लछमन ने खायीं। मैंने सत्तू खा लिया।

पन्ना- ‘और बहू?

केदार- ‘वह पड़ी सो रही है, कुछ नहीं खाया।

पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूँथती रही थी और रो रही थी। क्या नसीब है? दिन-भर खेत में जली, घर आयी तो

चूल्हे केस सामने जलना पड़ा। केदार 14 साल का हुआ। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थित समझ रहा था। बोला- ‘काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।

पन्ना ने चौंककर पूछा- ‘व्या कुछ कहती थी?

केदार- ‘कहती कुछ नहीं थी मगर है उसके मन में वही बात। फिर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है। पन्ना ने दाँतों से जीभ दबाकर कहा- ‘चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी न कहना। राघू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलोगे तो

समझ लेना, जहर खा लूंगी।

दशहरा आया। इस गाँव से कोस-भर दूर एक गांव में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई;

मगर पैसे कहाँ से आयें? चाबी तो मुलिया के पास थी। रघु ने आकर मुलिया से कहा- लड़के मेले जा रहे हैं, सब को दो-दो पैसे दे दो।

मुलिया ने गुस्से से कहा- ‘पैसे घर में नहीं हैं।

रग्घू- ‘अभी तो फसल बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये खर्च हो गए? मुलिया- हां, उठ खर्च हो गए।

रग्धू- ‘कहाँ खर्च हुए? जरा सुनें, आज दशहरे के दिन लड़के मेला देखने न

मुलिया- ‘अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़कर क्या करेंगी?

जायेंगे?’

टी पर चाबी लटक रही थी।धू ने चाबी उतारी और चाहा कि संदूक खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली- ‘चाबी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चाहिए, कागज-किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिए नहीं है कि दूसरे

खायें और मजे उठाएं।

अन्ना ने राजू से कहा- “भइया, पैसे क्या होंगे! लड़के मेला देखने न जायंगे।

रग्घू ने झिडककर कहा- ‘मेला देखने क्यों न जायेंगे?’ सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायँगे?

यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये; मगर चाबी जब मुलिया को देने लगा, तब दिया और मुँह ढककर लेट गयी! लड़के मेला देखने न गये।

उसने उसे आँगन में फेंक

इसके बाद दो दिन गुजर गये। मुलिया ने कुछ नहीं खाया और पन्ना भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मनाला, कभी उसे:पर न यह उठती, न वह आखिर रग्घू ने हैरान होकर मुलिया से पूछा- ‘कुछ मुँह से तो कह, चाहती क्या है?’ जमीन की ओर देख कर कहा- ‘मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुंचा

मुलिया ने राधू- ‘अच्छा उठ, खाना बना, खा। पहुँचा दूँगा।

दो।’

मुलिया ने रघू की ओर आँखें उठायी। राधू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह मिठास, वह मोहकता, वह सुंदरता गायब हो गई थी। उसके दाँत निकल आये थे, आँखें ट गयी थीं और नथुने फड़क रहे थे। आग की-सी लाल ऑँखों से देखकर बोली- ‘अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मंत्र पढ़ाया

है?’ तो में ऐसी कच्ची नहीं हूँ। तुम दोनों की छाती पर मूँग दलँगी। हो किस फेर में?’ रा्घू- ‘अच्छा तो मूँग ही दल लेना। कुछ खा-पी लेगी, तभी तो मुँग दल सकेगी।’

मुलिया- ‘अब तो तभी मुँह में पानी डालूँगी, जब घर अलग हो जायगा। बहुत झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता।

राजू सन्नाटे आ गया। एक मिनट तक उसके मुँह से आवाज ही न निकली। अलग होने का तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था। उसने गाँव में दो-चार

परिवारों को अलग होते देखा था। वह अच्छे से जानता था, रोटी के साथ लोगों के दिल भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए पराए हो जाते हैं। फिर उनमें वही रिश्ता रह जाता है, जो गाँव के और आदमियों में। रग्घू ने मन में ठान लिया था कि इस चीज को घर में न आने दूँगा; मगर इसके के सामने

उसकी एक न चली।

आह! मेरी ही बदनामी होगी, दुनिया यही कहेगी कि बाप के मर जाने पर दस साल भी एक साथ रहना न हो सका। फिर किससे अलग हो जाऊँ? जिनको गोद में खिलाया, जिनको बच्चों की तरह पाला, जिनके लिए तरह-तरह के तकलीफें झेली, उन्हीं से अलग हो जाऊँ? अपने प्यारों को घर से निकाल बाहर कसै? उसका गला भर गया। काँपते हुई आवाज़ में बोला- ‘तू क्या चाहती है कि मैं अपने भाइयों से अलग हो जाऊँ? भला सोच तो, कहीं मुँह दिखाने लायक रहूँगा?

मुलिया- ‘तो मेरा इन लोगों के साथ रहना न होगा। रग्घू- ‘तो तू अलग हो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती है?

मुलिया- तो मुझे क्या तुम्हारे घर में मिठाई मिलती है?’ मेरे लिए क्या दुनिया में जगह नहीं है?’ रग्बी- तेरी जैसी मर्जी, जहाँ चाहे रह। मैं अपने घर वालों से अलग नहीं हो सकता। जिस दिन इस घर में दो चूल्हे जलेंगे, उस दिन मेरे कलेजे के दो टुकड़े हो जायँगे। मैं यह चोट नहीं सह सकता। तुझे जो तकलीफ हो, वह मैं दूर कर सकता हूँ। माल-असबाब की मालकिन तु है ही, अनाज- ‘पानी तेरे ही हाथ स है, अब रह क्या गया है? अगर कुछ काम-धंधा करना नहीं चाहती, मत कर। भगवान ने मुझे हैसीयत दी होती, तो मैं तुझे तिनका तक उठाने न देता। तेरे

यह कोमल हाथ-पाँव मेहनत-मजदूरी करने के लिए बनाये ही नहीं गये है; मगर क्या करें अपना कुछ बस ही नहीं है। फिर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे, मत कर; मगर मुझसे अलग होने को न कहू, तेरे पैर पड़ता हूँ।

मुलिया ने सिर से आँचल खिसकाया और जरा पास आकर बोली- ‘मैं काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हूँ मगर मुझसे किसी की धौस

नहीं सही जाती। तुम्हारी ही काकी घर का काम-काज करती हैं, तो अपने लिए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के लिए करती हैं। मुझ पर कुछ एहसान नहीं करतीं, फिर मुझ पर थौंस क्यों जमाती हैं? उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मुझे तो तुम्हारा सहारा है। मैं अपनी आँखों से यह नहीं देख सकती कि सारा घर तो चैन करे, जरा-जरा-से बच्चे तो दूध पीयें, और जिसके दम पर घर चल रहा है, वह मही को तरसे। कोई उसका पूछने वाला न हो। जरा अपना मुँह तो देखो, कैसी सूरत निकल आयी है। औरों के तो चार बरस में अपने जवान लड़के तैयार हो जायेंगे। तुम तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों हो? क्या मारकर भागोगे? मैं तुम्हें जबरदस्ती न बाँध लूँगी, या मालकिन का हुवम नहीं है? सच कहूँ, तुम बड़े पत्थर दिल

हो। मैं जानती, ऐसे बेरहम से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती। आती भी मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे लग गया । घर भी जाऊँ, तो मन यहाँ ही रहेगा और तुम जो हो, मेरी बात नहीं पूछते।’ मुलिया की ये रसीली बातें राधू पर कोई असर न डाल सकी। वह उसी रुखेपन से बोला- ‘मुलिया, मुझसे यह न होगा। अलग होने का ध्यान करते ही मेरा

मन न जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मुझ से न सही जायगी। मुलिया ने परिहास करके कहा- ‘तो चूड़ियाँ पहनकर अन्दर बैठी न! लाओ में मूँछें लगा लूँ। मैं तो समझती थी कि तुममें भी कुछ हिम्मत है। अब देखती

हैं, तो नरम दिल हो।

पन्ना दरवाजे में खड़ी दोनों की बातचीत सुन रही थी। अब उससे न रहा गया। सामने आकर र्धू से बोली- ‘जब वह अलग होने पर तुली हुई है, फिर तुम क्यों उसे जबरदस्ती मिलाये रखना चाहते हो? तुम उसे लेकर रहो, हमारे भगवान मालिक हैं। जब महतो मर गये थे, और कहीं पत्ती की भी छाँह न थी, जब उस वक्त भगवान ने संभाल लिया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान की दया से तीनों लड़के सयाने हो गये हैं, अब कोई चिन्ता नहीं। रग्घू ने आँसू-भरी आँखों से पन्ना को देखकर कहा- ‘काकी, तू भी पागल हो गयी है क्या? जानती नहीं, दो रोटियाँ होते ही दो मन हो जाते हैं। पन्ना- ‘जब वह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोगे? भगवान की मर्जी होगी, तो कोई क्या करेगा? नसीब में जितने दिन एक साथ रहना लिखा था, उतने दिन रहे। अब उसकी यही मर्जी है, तो यही सही। तुमने मेरे बाल-बच्चों के लिए जो कुछ किया, वह भूल नहीं सकती। तुमने इनके सिर हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या गति होती, न जाने किसके दरवाजे पर ठोकरें र भूलूगी। अगर मेरी । खाते होते, न जाने कहाँ-कहाँ भीख माँगते फिरते। तुम्हारा एहसान कभी न खाल तुम्हारे जूते बनाने के काम आये, तो खुशी से दे देँ। चाहे तुमसे अलग हो जाऊँ, पर जिस समय पुकारोगे, दौड़ी आऊँगी। यह भूलकर भी न सोचना कि तुमसे अलग होकर मैं तुम्हारा बुरा चाहुँगी। जिस दिन तुम्हारा बुरा मेरे मन में आएगा, उसी दिन जहर खाकर मर जाऊँगी। भगवान करे, तुम दूधों नहाओं, पूर्ती फो! मरते दम तक यही आशीर्वाद मेरे रोएँ-रोएँ से निकलती रहेगी और अगर लड़के भी अपने बाप के हैं। तो मरते

दम तक तुम्हारा एहसान मानेंगे।” यह कहकर पन्ना रोती हुई वहाँ से चली गयी। राधू वहीं मूर्ति की तरह बैठा रहा। आसमान की ओर एकटक देख रहा था और आँखों से आँसू बह रहे थे।

पन्ना की बातें सुनकर मुलिया समझ गयी कि अपना काम हो गया। जल्दी से उठी, घर में झाडू लगायी, चूल्हा जलाया और कुएँ से पानी लाने चली।

उसकी इच्छा पूरी हो गयी थी।

गाँव में औरतों के दो दल होते हैं -एक बहुओं का, दूसरा सासों का! बहुएँ सलाह और सहानुभूति के लिए अपने दल में जाती है, सासें अपने में। दोनों की बातें अलग होती हैं। मुलिया को कुएँ पर दो-तीन बहुएँ मिल गयी। एक ने पूछा- ‘आज तो तुम्हारी बुढ़िया बहुत रो-धो रही थी। मुलिया ने जीतने की खुशी से कहा- ‘इतने दिनों से घर की मालकिन बनी हुई हैं, राज-पाट छोड़ते किसे अच्छा लगता है? बहन, मैं उनका बुरा नहीं चाहती: लेकिन एक आदमी की कमाई में कहाँ तक बरकत होगी। मेरे भी तो यही खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के दिन हैं। अभी उनके पीछे मरो, फिर हो जायें, उनके पीछे मरो। सारी जिन्दगी रोते ही कट जाय।

एक बहु- ‘बुढ़िया यही चाहती है कि यह सब जन्म-भर दासी बनी रहें बचाखुचा खाएँ और पड़ी रहें। दूसरी बहू- ‘किस भरोसे पर कोई मरे-अपने लड़के तो बात नहीं पूछे पराये लड़कों का क्या भरोसा? कल इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, फिर कौन पूछता है!

अपनी-अपनी बीवियों का मुँह देखेंगे। पहले ही से फटकार देना अच्छा है, फिर तो कोई तकलीफ न होगी। मुलिया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली- ‘जाओ, नहा आओ, रोटी तैयार है। रग्घू ने मानों सुना ही नहीं। सिर पर पर हाथ रखकर दरवाजे की तरफ ताकता रहा।

मुलिया क्या कहती हूं, कुछ सुनाई देता है, रोटी तैयार र है, जाओ नहा आओ। रग्घु- ‘सुन तो रहा हूँ, क्या बहरा हूँ?4 रोटी तैयार है तो जाकर रखा ले। मुझे भूख नहीं है।

मुखिया ने फिर नहीं कहा। जाकर चुल्हा बुझा दिया, रोटियाँ उठाकर छींके पर रख दी और मुँह टाँककर लेटी रही।

जरा देर में पन्ना आकर बोली- ‘खाना तैयार है, नहा-धोकर खा लो! बहु भी भूखी होगी। राधा ने झुंझलाकर कहा- ‘काकी तू घर में रहने देगी कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाउऊँ?’ खाना तो खाना ही है, आज न खाऊँगा, कल

खाऊँगा, लेकिन अभी मुझसे न खाया जायगा। केदार क्या अभी स्कूल से नहीं आया?

पन्ना- ‘अभी तो नहीं आया, आता ही होगा। पन्ना पन्ना समझ गयी कि जब तक वह खाना बनाकर लड़कों न खिलाएं और खुद न खाएगा रग्घू न खायेगा। इतना ही नहीं, उसे रग्धू से लड़ाई करनी

पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी। उसे यह दिखाना पड़ेगा कि मैं ही उससे अलग होना चाहती हूँ नहीं तो वह इसी चिन्ता में घुल- ‘बुलकर जान दे देगा। यह सोचकर उसने अलग चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्ू आ गये। पन्ना ने कहा- ‘आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार

है।

केदार ने पूछा- ‘भइया को भी लो न?

पन्ना- ‘तुम आकर खा लो। उसकी रोटी बहू

ने अलग बनायी है।’

खुनू- ‘जाकर भइया से पूछ न आऊँ? पन्ना- ‘जब उनका जी चाहेगा, खायेंगे। तू बैठकर खा, तुझे इन बातों से क्या मतलब?’ जिसका जी चाहेगा खायेगा, जिसका जी

जब वह और उसकी बीवी अलग रहने पर तुले हैं, तो कोन मनायें? केदार- ‘तो क्यों अम्माजी, क्या हम अलग घर में रहेंगे?

पन्ना- ‘उनका जी चाहे, एक घर में रहें, जी चाहे आँगन में दीवार डाल लें।

खुजू ने दरवाजे पर आकर झाँका, सामने फूस की झोपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रग्घू नारियल पी रहा था।

‘भइया तो अभी नारियल लिये बैठे हैं। पन्ना- ‘जब जी चाहेगा, खायेंगे।

केदार- ‘भइया ने भाभी को डाँटा नहीं?

मुलिया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोली- ‘भइया ने तो नहीं डॉटा अब तुम आकर डॉटों। केदार के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने फिर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना खाया और बाहर निकले। लू चलने लगी

लड़के-लड़कियाँ हवा से गिरे हुए आम चुन रहे थे केदार ने कहा- ‘आज हम भी आम चुनने चलें, खूब आम गिर रहे हैं।

खुडू- ‘दादा जो बैठे हैं?

लछमन- ‘मैं न जाऊँगा, दादा डांटेंगे।

केदार- ‘वह तो अब अलग हो गये।

लक्षमन- ‘तो अब हमको कोई मारेगा, तब भी दादा न बोलेंगे?

केदार- ‘वाह, तब क्यों न बोलेंगे?

रग्घू ने तीनों लड़कों को दरवाजे पर खड़े देखा, पर कुछ बोला नहीं। पहले तो वह घर के बाहर निकलते ही उन्हें डाँट बैठता था, पर आज वह मूर्ति के लड़कों को खिला-पिला व लड़कों को कुछ हिम्मत हुई। कुछ दूर और आगे बढ़े। रग्घू अब भी न बोला, कैसे बोले?’ वह सोच रहा था, काकी ने रहा। में उनको मार-पीट तो न सकेंगा। ल में सब मारे-मारे फिरेंगे। कहीं बीमार न पड़ जायँ। उसका दिल मसोसकर रह जाता था, लेकिन मुँह से कुछ कह न

समान चुपचाप बैठा

मुझसे पूछा तक नहीं। क्या उसकी आँखों पर भी परदा पड़ गया है: अगर मैंने लड़कों को पुकारा और वह न आयें तो?’

सकता था। लड़कों ने देखा कि यह बिलकुल नहीं बोलते, तो निडर होकर चल पड़े। अचानक मुलिया ने आकर कहा- ‘अब तो उठोगे कि अब भी नहीं? जिनके नाम पर गुस्सा कर रहे हो, उन्होंने मजे से लड़कों को खिलाया और आप चलो भइया, खा लो।

खाया, अब आराम से सो रही हैं। एक बार भी तो मुँह से न फूटा कि

रग्घू को इस समय मरने जैसा दर्द हो रहा था। मुलिया के इन कठोर शब्दों ने घाव पर नमक छिड़क दिया। दुखी आँखों से देखकर बोला- तेरी जो मर्जी

थी, वही तो हुआ। अब जा, ढोल बजा!

मुलिया ‘नहीं, तुम्हारे लिए थाली परोसे बैठी हैं।

‘मुझे चिढ़ा मता तेरे पीछे में भी बदनाम हो रहा हूँ। जब तू किसी की होकर नहीं रहना चाहती, तो दूसरे को क्या पड़ी है, जाकर काकी से पूछ, लड़के आम चुनने गये हैं, उन्हें पकड़ लाऊँ

मुलिया अँगूठा दिखाकर बोली- ‘यह जाता है। तुम्हे सौ बार पड़ी हो, जाकर पूछो। इतने में पन्ना भी भीतर से निकल आयी। रग्घू ने पूछा- लड़के बगीचे में चले गये काकी, लू चल रही है। पन्ना- ‘अब उनको पूछने वाला कौन है?’ बगीचे में जायें, पेड़ पर चढ़े, पानी में डूबें। में अकेली क्या- क्या कं?

‘जाकर पकड़ लाऊँ? रग्घू.

पन्ना- ‘जब तुम्हें अपने मन से नहीं जाना है, तो फिर मैं जाने को क्यों कहूँ?’ तुम्हें रोकना होता, तो रोक न देते?’ तुम्हारे सामने ही तो गये होंगे?

पन्ना की बात पूरी भी न हुई थी कि रग्घू ने नारियल कोने में रख दिया और बाग की तरफ चला। रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो देखा मुलिया अभी तक झोंपड़े में खड़ी है। बोला- ‘तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मुझे तो इस समय भूख नहीं है।

मुलिया ऐंठकर बोली- हां, भूख क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, वह तुम्हारे पेट में पहुँच ही गया होगा।

रग्धू ने गुस्सा दबा कर कहा- ‘मुझे जला मत मुलिया, नहीं तो अच्छा न होगा। खाना कहीं भागा नहीं जाता। एक समय न खाऊँगा, तो मर न जाउँगा! क्या समझती है, धार में आज कोई छोटी बात हो गयी है?’ तूने घर में चूल्हा नहीं जलाया, मेरे कलेजे में आग लगाई है। मुझे धरमंड था कि और चाहे कुछ हो जाय, पर मेरे घर में फूट का रोग न आने पायगा, पर तूने मेरा घमंड चूर कर दिया। किस्मत की बात है। मुलिया चिढ़कर बोली- ‘सारा प्यार तुम्ही को है कि और किसी को है?’ में तो किसी को तुम्हारी तरह दुखी नहीं देखती।

रग्घू ने ठंडी साँस खींचकर कहा- ‘मुलिया, घाव पर नमक न छिड़क। तेरे ही कारण मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस घर से प्यार न होगा, तो किसे होगा?’ मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा। जिनको गोद में खेलाया, वहीं अब मेरे भागीदार होंगे। जिन बच्चों को में डॉटता था, उन्हें आज कड़ी आँखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करें, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों को लूटे लेता है। जा मुझे छोड़ दे, अभी मुझसे

कुछ न खाया जायगा।

मुलिया- मैं कसम रखा दूंगी, नहीं चुपके से चले चलो।

रग्घू- ‘देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपनी जिद छोड़ दे।

मुलिया- ‘हमारा ही खून पिये, जो खाने न उठे।

रग्घू ने कानों हाथ रखकर कहा- यह तूने कि चाहे की जगह छ: रोटियाँ खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे, पर यह दाग मेरे दिल से न मिटेगा।

क्या किया मुलिया? मैं तो उठ ही रहा था। चल खा । नहाने-धोने कौन जाय, लेकिन इतना कहे देता हूँ

मुलिया- ‘दाग-साग सब मिट जायगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं हो, उघर केसे आराम से हैं, वह तो मना ही रही थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जायें। अब वह पहले की-सी चाँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं? राकारत में कडा- “इसी बात रग्घू ने दर्द भरी आवाज कहा दुख है। काकी से मुझे ऐसी उम्मीद न थी।

रग्घू खाने बैठा, तो कौर जहर के घूँट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियों भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती। पानी कंठ के नीचे न उतरता था, दूध की तरफ देखा तक नहीं। दो-चार कौर खाकर उठ आया, जैसे किसी अपने के श्राद्ध का खाना हो।

रत का साना भी उसने दसी किया। थाना क्या किया, कसम पूरी की। रात-भर उसका मन अशांत रहा। एक अंजान शक उसके मन में हुआ था, तरह जैसे भोला महतो दरवाजे पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चांककर उठा। ऐसा लगा जैसे भोला उसकी ओर गुस्से से देख रहा है। निकलता, इस मुँह चुराये कि िन के घर। भोला का दखी चहरा आँखों के सामने धूमता रहता। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में तो इस तरह चराये वह दोनों समय खाना खाता था,पर

, सिर झुकाए मानो कोई बड़ा पाप किया हो।

पाँच साल गुजर गये। रग्घू, अब दो लड़कों का बाप था। आँगन में दीवार खिंच गयी थी, खेतों अलग कर लिए गए थे और बैल-बछिए बाँट लिये गये थे।

केदार की उम्र अब उन्नीस की हो गयी थी। उसने पढ़ना छोड़ दिया और खेती का काम करता था। खुनू गाय चराता था। सिर्फ लछमन अब तक स्कूल जाता था। पन्ना और मुलिया दोनों एक-दूसरे की सूरत से जलती थीं।

मुलिया के दोनों लड़के ज्यादातर पन्ना ही के पास रहते। वहीं उन्हें नहलातीं, वही काजल लगाती, वही गोद में ले के घूमती, मगर मुलिया के मुँह से का एक शब्द भी न निकलता। न पन्ना को यह चाहिए था। चह जो कुछ करती बीना किसी उम्मीद से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ हो गये

प्यार

थे। लड़की खाना पका लेती थी। वह खुद ऊपर का काम-काज कर लेती। इसके उल्टी वह भी कमजोर, और जवानी में रतत होने गये थे। कमर भी झुक चली अभी आयु तीस साल से ज्यादा न थी, लेकिन बाल सफेद कर रखा था। देखकर दया आती थी और खेती पसीने की चीज़ है। खेती के लिए जैसी मेहनत होनी चाहिए, चह उससे न हो पाती। फिर अच्छी फसल

अपने घर का अकेला धा,

थी। खाँसी ने परेशान

कहाँ से आती?’ कुछ करज भी हो गया था। वह चिंता और भी मारे डालती थी। चाहिए तो यह था कि अब उसे कुछ आराम मिलता। इतने दिनों के लगातार मेहनत के बाद सिर का बोझ कुछ हल्का होता, लेकिन मुलिया की खुदगर्जी और बेवकूफी ने लहराती हुई खेती उजाड़ दी। अगर

सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में दरवाजे पर बैठा हुआ नारियल पीता। भाई काम करते, वह सलाह देता। महतो बना फिरता। कहीं किसी के झगड़े चुकाता, कहीं साधु-संतों की सेवा करता। वह अवसर हाथ से निकल गया। अब तो चिंताभार दिन-दिन बढ़ता जाता था।

आखिर उसे धीमा-धीमा बुखार रहने लगा। दिल के दर्द, चिंता, कड़ी मेहनत और अभाव का यही इनाम है। पहले कुछ परवाह न की। सोचा खुदबखुद अच्छा हो जायगा, मगर कमजोरी बढ़ने लगी, तो दवा की फिक्र हुई। जिसने जो बता दिया, खा लिया, डाक्टरों और वैद के पास जाने की ताकत कहाँ?

और ताकत भी होती, तो रुपये खर्च कर देने के सिवा और नतीजा ही क्या था?’ पूराने बुखार की दवा आराम और पौष्टिक खाना है। न वह दवाई खा सकता था और न आराम से बैठकर अच्छा खाना कर सकता था। कमजोरी बढ़ती ही गयी। अवसर मिलता, तो वह आकर उसे तसल्ली देती लेकिन उसके लड़के अब रघू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करते, उसका और पन्ना को ।

मजाक उड़ाते। भैया समझते थे कि हम लोगों से अलग होकर सोने और ईट रख लेंगे। भाभी भी समझती थीं, सोने से लद जाऊँगी। अब देखें कौन पूछता है? सिसक-सिसककर न मरे तो कह देना। बहुत ‘हाय! हाय भी अच्छी नहीं होती। आदमी उतना काम करे, जितना हो सके। यह नहीं कि रुपये

लिए जान दे दे।

पन्ना कहती- ‘रग्घू बेचारे की क्या गलती है?

केदार कहता- चल, मैं खूब समझता हूँ। भैया की जगह में होता, तो डंडे से बात करता। मजाल थी कि औरत यों जिद करती। यह सब भैया की

थी। सब तय की हुई बात थी

के

चाल

आखिर एक दिन रग्घू का टिमटिमाता हुआ जीवन-दीपक बुझ गया। मौत ने सारी चिन्ताओं का अंत कर दिया। अंत समय उसने केदार को बुलाया था, पर केदार को गन्ने में पानी देना था। डरा, कहीं दवा के लिए न भेज दें । बहाना बना दिया। मुलिया के जीवन में अंधेरा हो गया। जिस जमीन पर उसने उम्मीद की दीवार खड़ी की थी, वह नीचे से खिसक गयी थी। जिस खूँटे के बल पर वह उछल

रही थी, वह उखड़ गया था। गाँव वालों ने कहना शुरु किया, भगवान ने कैसा तुरंत सजा दी। बेचारी मारे शर्म के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करती। गाँव में किसी को मुँह दिखाने का हिम्मत न होती। हर कोई उससे यह कहता हुआ मालूम होता था-मारे घमण्ड के धरती पर पाँव न रखती थी: आखिर सजा मिल गयी कि नहीं! अब इस घर में कैसे गुजारा होगा? वह किसके सहारे रहेगी? किसके बल पर खेती होगी? बेचारा रग्धू बीमार था। कमजोर

था, पर जब जीता रहा, अपना काम करता रहा।

मारे कमजोरी के कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता और जरा दम लेकर फिर हाथ चलाने लगता था। सारी खेती बर्बाद हो रही थी, उसे कौन

संभालेगा?’ अनाज के बंडल खलिहान में पड़ी थे, गन्ने अलग सुख रहे थे। वह अकेली क्या-क्या करेगी? फिर सिंचाई अकेले आदमी का तो काम नहीं। तीन-तीन मजदूरों को कहाँ से लाए! गाँव में मजदूर थे ही कितने। आदमियों के लिये खींचा-तानी हो रही थी। क्या करे, क्या न करे। इस तरह तेरह दिन बीत गये। क्रिया-कर्म से छुट्टी मिली। दूसरे ही दिन सवेरे मुलिया ने दोनों बालकों को गोद में उठाया और अनाज धुनने चली। खलिहान

पहुँचकर उसने एक को तो पेड़ के नीचे घास के नरम बिस्तर पर सुला दिया और दूसरे को वहीं बैठाकर अनाज धुनने लगी। बैलों को हाँकती थी और रोती थी। क्या इसीलिए भगवान ने उसको जन्म दिया था?’ देखते-देखते त्या से क्या हो गया? इन्हीं दिनों पिछले साल भी अनाज मॉड़ा गया था। वह

शाम के लिए बैंगनी लेकर आयी थी। आज कोई उसके न आगे है, न पीछे,लेकिन किसी की दासी तो नहीं हूँ।! उसे अलग

पीछे, लेकिन नहीं हूँ! तभी छोटे बच्चे का रोना सुनकर उसने उधर ताका, तो बड़ा लड़का उसे सहला कर कह रहा था- ‘बैया तुप रहो, तुप रहो। धीरे-धीरे उसके मुँह पर हाथ फेरता था और चुप कराने के लिए परेशान था। जब बच्चा किसी तरह न चुप न हुआ तो वह खुद उसके पास लेट गया और उसे छाती से लगाकर प्यार करने लगा; मगर जब यह कोशिश भी सफल न हुई, तो वह रोने लगा। उसी समय पन्ना दौड़ी आयी और छोटे बच्चे को गोद में उठाकर प्यार करती हुई बोली- ‘लड़कों को मुझे क्यों न दे आयी बहू?’ हाय! हाय! बेचारा धरती पर पड़ा लोट रहा है। जब जब में मर जाऊँ तो जो चाहे करना, अभी तो जीती हूं, अलग हो जाने से बच्चे तो नहीं अलग हो गये।

लोटे में शरबत और मटर की

होने का अब भी पछतावा न था।

मुलिया ने कहा- ‘तुम्हें भी तो छुट्टी नहीं थी अम्माँ, क्या करती पन्ना- ‘तो तुझे यहाँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी? डाँठ धून न जाती। तीन-तीन लड़के तो हैं, और किस दिन काम आएँगे?’ केदार तो कल ही धुनने को था; पर मैंने कहा, पहले गन्ने में पानी दे लो, फिर आज धुनना, धुनाई तो दस दिन बाद भी हो सकती है, गन्ने की सिंचाई न हुई तो सूख जायगी। कह रहा था; पर कल से पानी च चढ़ा हुआ खेत पुर जायगा। तब धुनाई हो जायगी। तुझे भरोसा न आगगा, जब से भैया मरे हैं, केदार को बड़ी चिंता हो गयी है। दिन में सौ-सौ बार पूछता है, भाभी बहुत रोती तो नहीं हैं?’ देख, लड़के भूखे तो नहीं हैं। कोई लड़का रोता है, तो दौड़ा आता है, देख अम्माँ, क्या हुआ, बच्चा क्यों रोता है? कल रोकर बोला-अम्मां, में जानता कि भैया इतनी जल्दी चले जायेंगे, तो उनकी कुछ सेवा कर लेता। कहाँ जगाये-जगाये उठता था, अब देखती हो, सुबह होने से पहले से उठकर काम में लग जाता है। खुन कल जरा-सा बोला, पहले हम अपनी गन्ने में पानी दे लेंगे, तब भैया की गन्ने में देंगे। इस पर केदार ने ऐसा डाँटा कि खुन्न के मुँह से फिर बात न

निकली। बोला, कैसी तुम्हारी और कैसी हमारी गन्ने? भैया ने न संभाला होता, तो आज या तो मर गये होते या कहीं भीख माँगते होते। आज तुम बड़े गन्नेवाले बने हो! यह उन्हीं का एहसान है कि आज भले आदमी बने बैठे हो। परसों रोटी खाने को बुलाने गयी, तो धुनने की जगह पर बैठा रो रहा था। पूछा, क्यों रोता है?’ तो बोला, अम्मां, भैया इसी ‘अलग्योझा के दुख से मर गये, नहीं अभी उनकी उम्र ही क्या थी! यह उस समय न सूझा, नहीं उनसे क्यों दूर होते?

यह कहकर पन्ना ने मुलिया की ओर इसारे से देखकर कहा- ‘तुम्हें वह अलग न रहने देगा बहू, कहता है, भैया हमारे लिए मर गये तो हम भी उनके बाल-बच्चों के लिए मर जायँगे।

मुलिया की आँखों से आँसू जारी थे। पन्ना की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची सान्त्वना, सच्ची चिन्ता भरी हुई थी। मुलिया का मन कभी उसकी और इतना आकर्षित न हुआ था। जिनसे उसे मजाक और हसी उड़ाने का डर था, वे इतने दयालु, इतने अच्छी सोच वाले हो गये थे। आज पहली बार उसे अपनी खुदगर्जी पर शर्म आयी। पहली बार आत्मा ने अलग्योझे पर धिक्कारा।

इस घटना को हुए पाँच साल गुजर गये। पन्ना आज बुढी हो गयी है। केदार घर का मालिक है। मुलिया घर की मालकिन है। खुन्नू और लछमन के विवाह हो चुके हैं मगर केदार अभी तक क्वाँरा है। कहता है- में विवाह न करुंगा। कई जगहों से बातचीत हुई, कई सगाइयाँ आयीं: पर उसने हामी न भरी। पन्ना नै फन्दे लगायें, जाल फैलाये, पर वह न फँसा। कहता- ‘औरतों से कौन सुख?” बीवी घर में आयी और आदमी का स्वभाव बदला। फिर जो कुछ है, वह बीवी है। माँ-बाप, भाई-बन्धु सब पराये हैं। जब भेया जैसे आदमी का स्वभाव बदल गया, तो फिर दूसरों की क्या गिनती? दो लड़के भगवान के दिये हैं और क्या चाहिए। बिना ब्याह किए दो बेटे मिल गये, इससे बढ़कर और क्या होगा? जिसे अपना समझो वह अपना है; जिसे पराया समझो, वह पराया है।

एक दिन पन्ना ने कहा- ‘तेरा वंश कैसे चलेगा?

केदार- ‘मेरा वंश तो चल रहा है। दोनों लड़कों को अपना ही समझता हूँ।

पन्ना- ‘समझने ही पर है, तो तू मुलिया को भी अपनी मेहरिया समझता होगा?’

केदार ने शर्माते हुए कहा- ‘तुम तो गाली देती हो अम्मा

पन्ना- ‘गाली कैसी, तेरी भाभी ही तो है! पना- केदार- ‘मेरे जैसे गँवार को वह क्यों पूछने लगी!”

पन्ना-‘तू करने को कह, तो में कहतो में उससे पूछ?

केदार- ‘नहीं मेरी अम्माँ, कहीं रोने गाने न लगे।’

पन्ना- ‘तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन को जान लूँ?

केदार- ‘मैं नहीं जानता, जो चाहे कर।

पन्ना केदार के मन की बात समझ गयी। लड़के का दिल मुलिया पर आया हुआ है, पर शर्म और डर के मारे कुछ नहीं कहता। उसी दिन उसने मीडिया से कहा- ‘क्या करें बहु, मन की लालसा मन में ही रह जाती है। केदार का घर भी बस जाता, तो मेरी चिंता खत्म हो जाती।

मुलिया- ‘वह तो करने को ही नहीं कहते।’

पन्ना- ‘कहता है, ऐसी औरत मिले, जो घर में मेल से रहें, तो कर लूँ!

मुलिया- ऐसी औरत कहाँ मिलेगी? कहीं ढूँढो निश्चिन्त

पन्ना- ‘मैंने तो ढूँढ लिया है।

मुलिया- ‘सच, किस गाँव की है?’

पन्ना- ‘अभी न बताऊँगी, लेकिन यह जानती हूँ कि उससे केदार की सगाई हो जाय, तो घर बन जाय और केदार की जिन्दगी भी सुधर जाए। न जाने

लड़की मानेगी कि नहीं।

मुलिया- ‘मानेगी क्यों नहीं अम्माँ, ऐसा सुन्दर कमाऊ, सुशील लड़का और कहाँ मिला जाता है? उस जन्म का कोई साधु-महात्मा है, नहीं तो लड़ाई-झगड़े के डर से कौन बिन शादी रहता है। कहाँ रहती है, मैं जाकर उसे मना लाऊँगी।

पन्ना- तू चाहे, तो उसे मना ले। तेरे ही ऊपर है।

मुलिया- में आज ही चली जाऊँगी, अम्माँ, उसके पैर पड़कर मना लाऊँगी।

पन्ना- -‘बता हूँ वह तू ही है!

मुलिया लजाकर बोली- तुम तो अम्माजी, गाली पन्ना- ‘गाली कैसी, देवर ही तो है!

मुलिया- मुझ जैसी बुढ़िया को वह क्यों पूड़ेंगे?

देती हो।

पन्ना- ‘वह तुझी पर दाँत लगाये बैठा है। तेरे सिवा कोई और उसे भाती ही नहीं। डर के मारे कहता नहीं; पर उसके मन की बात मैं जानती हूँ।

विधवा होने के दुख से मुरझाया हुआ मुलिया का पीला बदन कमल की तरह खील गया। दस सालों में जो कुछ खोया था, वह इसी एक पल में मानों व्याज के साथ मिल गया। वही सुंदरता, वही विकास, वही आकर्षण, वही कोमलता!

कहानी का सार

मुंशी जी की यह कहानी, मानव समाज की एक सबसे जरूरी और मूलभूत जरूरत के बारे में बताती है। इंसान की सबसे बड़ी ताकत और सबसे बड़ी कमजोरी दोनों ही प्यार और आपसी मेलजोल है। मिलजुल कर रहना इंसान के लिए बहुत जरूरी है। जिस समय इंसान स्वार्थ में पढ़कर अपनों से अलग

होने का सोचता है वही उसके लिए सबसे खराब समय होता है। मिलजुल कर रहने के लिए हमें अपनों की गलतियों और बुराइयों को माफ करते हुए, तालमेल बनाकर रहना होता है। हम अपनों के द्वारा किए गए बुरे

व्यवहार को याद रख उनके साथ गलत नहीं कर सकते! क्योंकि जब समय खराब होता है तब वही अपने हमारा सहारा बनते हैं। यह बात रग्घू को बहुत

अच्छे से पता थी, इसलिए पन्ना के खराब व्यवहार को सहकर भी, उसने कभी पन्ना या अपने भाइयों के साथ बुरा नहीं किया। क्योंकि वह परिवार का

महत्व समझता था। और उसके अच्छे व्यवहार ने पन्ना को भी परिवार का असली मतलब समझाया। मुलिया ने भी परिवार का महत्व परिवार खोने के बाद ही समझा। पन्ना और उसके बच्चों से अलग होने के बाद, मुलिया का सिर्फ र्घु ही परिवार था, और उसे खोकर जैसे उसने सब गंवा दिया। लेकिन पन्ना जिसने कभी उसी जगह रघु से मदद और सहारा पाया था, मुलिया को सहारा देने आ पहुंची।

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