HIS MAJESTY’S OPPONENT by Sugata Bose.

Readreviewtalk.com
HIS MAJESTY’S OPPONENT by Sugata Bose.
Book Overview: Subhash Chandra Bose

About Book

इस बुक में आप नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन के बारे में जानेंगे जो आपको बहुत इंस्पायर करेगी. कई लोग हैं जो उनपर World War II के दौरान जर्मनी और जापान का सहयोग करने का आरोप लगाते हैं. ऐसे भी लोग हैं जो उन्हें एक fascist, कम्युनिस्ट और कट्टरपंथी लीडर मानते हैं. ये बुक आपके सामने ये राज़ खोलेगी कि नेताजी ने जो किया वो क्यों किया और वो एक देशभक्त हीरो कहलाने के लायक क्यों हैं.

यह समरी किसे पढ़नी चाहिए?

  • स्टूडेंट्स, टीचर्स, स्कॉलर
  • जिन्हें हिस्ट्री और पॉलिटिक्स में दिलचस्पी है
  • जो भी पोलिटिकल लीडर बनने की इच्छा रखते हैं

ऑथर के बारे में

सुगता बोस एक प्रोफेसर, हिस्टोरियन और पॉलिटिशियन हैं. उन्होंने कैंब्रिज से हिस्ट्री में पीएचडी की. उन्होंने अमेरिका के Tufts University में प्रोफेसर के रूप में और Harvard University में oceanic हिस्ट्री के गार्डिनर चेयर के रूप में काम किया. 2014 से 2019 तक, सुगता आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस पार्टी के तहत पार्लियामेंट के मेंबर थे. नेताजी सुगता के ग्रेट ग्रैंड अंकल हैं.

इंट्रोडक्शन (Introduction)

“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”, शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने मन में देश प्रेम की लौ जलाने वाले इन शब्दों को नहीं सना होगा, ये शब्द महान सुभाष चंद्र बोस के हैं. कई लोग उन्हें क्रांतिकारी (रेवोल्यूशनरी), कम्युनिस्ट, नाज़ी पार्टी के हमदर्द कहते हैं. कई उन्हें कट्टरपंथी लीडर कहते हैं.

लेकिन सुभाष चंद्र बोस असल में हैं कौन? एक लीडर के रूप में उनका अंतिम गोल क्या था? इस बुक में आप जानेंगे कि नेताजी ने पॉलिटिक्स में अपने करियर की शुरूआत कैसे की, आप जानेंगे कि ब्रिटिश सरकार उन्हें एक महान विरोधी के रूप में क्यों देखती थी. आप उनके प्रिंसिपल्स और आदर्शों के बारे में भी जानेंगे. बोस ने लेटर्स के माध्यम से हिटलर से बातचीत क्यों शुरू की? उन्होंने विदेशों में एक मज़बूत सेना को क्यों लीड किया? वो जापान के इग्पीरियलिस्ट जनरल से क्यों मिले? ये बुक इन सारे सवालों का जवाब देगी.

गॉडस बिलवेड लैंड (God's Beloved Land)

सुभाष का मतलब होता है जो बोलने की कला में निपुण हो, जिसकी बातें असरदार होने के साथ-साथ मन को मोह लेती हों." एक लीडर का काम आर्मी को इंस्पायर करना और उनमें जोश फूँकना होता है इसलिए ये नाम एक लीडर के लिए बिल्कुल फिट बैठता है. सुभाष प्रभावती और जानकीनाथ के नौवी संतान थे. उनकी माँ प्रभावती हाउस वाइफ और पिता जानकीनाथ लॉयर थे.

सुभाष का जन्म 23 January 1897 कटक, उड़ीसा के एक संपन्न परिवार में हुआ था लेकिन उस वक्त अकाल का प्रकोप फ़ैला हुआ था. इंडियन हिस्टोरियस का कहना है कि अकाल का कारण अंग्रेजों की कोलोनियल पॉलिसी थी. क्वीन विक्टोरिया के अधीन जो काम करते थे उन्होंने भारत को जरुरत का सामान जैसे दूध और कुछ खाने की चीज़े भेजने का फ़ैसला किया. लेकिन भारतीय हिस्टरोरियंस ने कहा कि भारत को मौजूदा पॉलिसी में बदलाव की ज़रुरत थी दान की न

सुभाष कई भाई बहनों के बीच बड़े हुए. वो अपने माता पिता का बहुत सम्मान करते थे. वो एक मेहनती स्टूडेंट थे जो खासकर इंग्लिश में बहुत अच्छे थे. जब सुभाष टीनएज की उम्र में पहुँचे तो उन्होंने उन सभी struggles को एक्सपीरियंस किया जो हर teenager करता है. हम सब की तरह वो भी कन्फ्यूज्ड थे, दुनिया में अपनी पहचान टूढ रहे थे, जीवन की इस हताशा में उन्हें स्वामी विवेकानंद से इंस्पिरेशन मिली.

ड्रीम्स ऑफ़ यूथ (Dreams of Youth)

सुभाष उस समय सिर्फ 15 साल के थे लेकिन इस छोटी सी उम्र में भी वो स्वामीजी के संदेश को समझ गए कि भगवान की सेवा करने के लिए पहले इंसानों की सेवा करना जरूरी है. इस बात को सुनकर सुभाष इस नतीजे पर पहुँचे कि मानवता की सेवा में पूरे देश की सेवा शामिल है. सुभाष ने मैडिटेशन करना शुरू कर दिया. वो कटक में सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने लगे. उन्होंने उन पेशेंट्स की देखभाल करने में मदद की जो स्मॉल पॉक्स और कॉलेरा जैसी बीमारियों से पीड़ित थे. इसके साथ-साथ वो कई यूथ organizations में भी शामिल थे.

सुभाष ने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से फिलोसोफी में BA की डिग्री पूरी की. वो साइकोलॉजी में मास्टर की डिग्री हासिल करने के बारे में सोच ही रहे थे जब उनके पिता ने उन्हें इंडियन सिविल सर्विस ज्वाइन करने के लिए मना लिया. सुभाष को कैंब्रिज, इंग्लैंड में एडमिशन मिल गया था लेकिन उन्होंने ICS में अपना करियर नहीं बनाया. सोसाइटी में ऊँचा नाम या रूतबा बनाना उनके लिए मायने नहीं रखता था. उन्होंने अपने पेरेंट्स को एक लैटर लिखा कि वो अपना जीवन गरीबी हटाने और लोगों की सेवा करने में समर्पित करना चाहते थे,

एग्ज़ाइल इन यूरोप (Exile in Europe)

लगभग इसी समय महात्मा गांधी साउथ अफ्रीका में 20 साल सेवा करने के बाद भारत लौटे. 1915 तक गांधी जी हिंसा विरोधी समूह के नेता बन गए थे. सुभाष कैंब्रिज में फिलोसोफी की डिग्री पूरी करने के बाद भारत लौटे, वो अपने देश की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का पक्का इरादा कर चुके थे.

इंग्लैंड से लौटने के बाद सुभाष गांधी जी से मिलने गए. गांधी जी ने उन्हें देशबंधु चित्तरंजन दास की शरण में ट्रेनिंग लेने की सलाह दी. सुभाष जब मिले तो उन्हें उनसे एक कनेक्शन और जुड़ाव महसूस हुआ, उन्हें सी.आर.दास की सोच और पोलिटिकल विचार बहुत अच्छे लगे, दास बंगाल के कांग्रेस लीडर थे.

सुभाष उनके समर्पित शिष्य बन गए. इंडियन नेशनल कांग्रेस स्वराज या "सेल्फ-रूल" पर जोर दे रही थीं, गांधीजी ने समझाया कि कांग्रेस अंग्रेजों के गाइडेंस में भारत की अपनी सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी. लेकिन आज़ादी की तरफ बढ़े हर कदम में अंग्रेज़ बाधा डाल रहे थे.

Year Event Impact
1921 Jailed for Revolutionary Activities Increased dedication to India's freedom
1924 Exiled to Europe Broadened international support for Indian independence

March 1919 में Rowlatt Act पास किया गया जिसके अनुसार सभी भारतीय लॉ ब्रेकर्स को बिना किसी सुनवाई के गिरफ्तार किया जाएगा. इसके परिणाम स्वरूप April 1919 में पंजाब में बहुत खून खराबा हुआ. भारत की ये स्तिथि थी जब सी.आर.दास ने सुभाष को बंगाल में नॉन कोऑपरेशन मूवमेंट को लीड करने की जिम्मेदारी सौंपी. सुभाष ने एंटी कोलोनियल प्रेस के लिए एक एक्टिव एडिटर और राइटर के रूप में काम किया.

इन क्रांतिकारी एक्टिविटीज के कारण December 1921 से लेकर यूरोप में उनके देश निकाला (exile) के वात तक उन्हें बार जेल में बंद किया गया. जेल में उन्होंने अपना ज्यादातर वक़्त किताबें पढ़कर और मैडिटेशन कर के बिताया. October 1924 मैं सुभाष को एक सर्च वारंट दिया गया. अंग्रेज अफ़सरों ने bomb और हथियारों के लिए उनके घर की तलाशी ली लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला.

सी.आर.दास सहित स्वराज मूवमेंट के 17 और मेंबर्स को भी गिरफ़्तार किया गया. सच तो ये है कि दास और सुभाष दोनों ही आतंकवाद में विश्वास नहीं करते थे. उनका मानना था कि आंतकवादी तरीकों को इस्तेमाल कर के स्वराज सहमत नहीं थे, हासिल नहीं किया जा सकता. लेकिन वे गांधीजी की अहिंसा वाली सोच से भी पूरी तरह सहमत नहीं थे, दास गिरफ्तारी समय न्याय ना मिलने के कारण बौखलाए हुए थे.

द वारियर एंड द सेंट (The Warrior and the Saint)

उन्होंने कहा, "अगर देश प्रेम अपराध है तो मैं अपराधी हूँ". साल 1929 कलकत्ता में सुभाष ने पूरी आज़ादी की मांग पर ज़ोर दिया. ये गांधीजी के डोमिनियन स्टेटस के इरादे के खिलाफ़ था. डोमिनियन स्टेटस में स्टेट्स ब्रिटिश रूल के अधीन थे उन्हें अपनी गवर्नमेंट बनाने का मौक़ा दिया जाता है और उन्हें अधिकार भी दिया जाता है लेकिन वे फ़िर भी ब्रिटिश जो सरकार के अधीन ही होते हैं. बोस को इस बात मैं शक था कि ब्रिटिश सरकार अगले साल तक भारत की डोमिनियन स्टेटस को मजूरी देगी.

उन्होंने कहा कि पूरी आज़ादी की माँग भारत में फैली गुलामी की मानसिकता को बदलेगा. लेकिन बोस के प्रस्ताव को कांग्रेस में ज्यादा चोट नहीं मिले. डोमिनियन स्टेटस के पक्ष में 1350 वोट थे जबकि आजादी के लिए सिर्फ 973.

इसके अलावा, 1929 में सुभाष ने हुगली डिस्ट्रिक्ट के एक स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन के लिए स्पीच भी दिया. उन्होंने भारत की आजादी के संघर्ष में आदमियों के साथ-साथ औरतों, वर्कर्स और नीची जातियों को लड़ने के लिए encourage किया.

विएना में बोस को ट्यूबरक्लोसिस का पता चला, डॉक्टरों ने कहा कि दूसरे कैदियों से इन्फेक्ट हो सकते थे, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए यूरोप जाने की अनुमति दी. वो अब भी बोस को क्रांतिकारी हिंसा में सहयोगी के रूप में देखते थे. विएना में बोस की हेल्थ बेहतर होने लगी. लेकिन वो अब्य भी पेट दर्द से परेशान थे जो उनके गॉल ब्लैडर में पथरी के कारण था. इसके बावजूद, बोस ने वो यूरोप का दौरा करने का इरादा किया.

उन्होंने सोचा कि भारतीय नेशनलिस्ट्स ने इंटरनेशनल कूटनीति (डिप्लोमेसी) की स्ट्रेटेजी का इस्तेमाल नहीं किया था. उन्होंने भारत की आज़ादी को दुनिया के सामने लाने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. यूरोप में उनके दो ख़ास मकसद थे, पहला, देश के संघर्ष के बारे में वहाँ रह रहे भारतीय स्टूडेंट्स को educate करना. करना चाहते थे, अगले भारत और दूसरे देशों के बीच दोस्ती स्थापित करना. वो भारत की आज़ादी के लिए इंटरनेशनल लीडर्स का सपोर्ट हासिल दौरान वो एक क्रांतिकारी लीडर से एक तीन सालों तक, बोस ने अपने मकसद की दिशा में काम करना जारी रखा, इस समय इंटरनेशनल डिप्लोमेट में बदल गए थे.

बोस ने सपोर्ट हासिल करने के लिए जर्मनी का दौरा किया, लेकिन वो काफ़ी निराश हुए क्योंकि हिटलर ने कहा कि भारत ब्रिटिश शासन के अधीन रहे वही बेहतर होगा. बोस को एहसास हुआ कि जर्मनी के लोगों में भारत के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी, यहाँ तक कि म्युनिक की सड़कों में भी उनके साथ भेदभाव किया गया, बोस ने इटली, हंगरी, टर्की, रोमेनिया, यूगोस्लाविया और बुल्गारिया का भी दौरा किया. यहाँ उनका अनुभव अच्छा रहा. उन्होंने वहाँ की खूबसूरती और नए नए लोगों से मिलने के एडवेंचर को बहुत एन्जॉय किया.

1934 में बोस अपनी बुक "द इंडियन स्ट्रगल" पर काम करने के लिए विएना में रुक गए. ये 1920 से 1934 तक भारत में आजादी के आंदोलन के बारे में था. इस समय के दौरान ही बो अपनी वाइफ एमिली शैंकल से मिले थे. बोस को अपनी बुक की manuscript पर मदद करने के लिए एक क्लर्क की ज़रूरत थी. अप्लाई करने वाले लोगों में एक एमिली भी थी. बोस कुंवारे रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने उन सभी रिश्तों को मना कर दिया था जो उनके परिवार और दोस्तों ने उनके लिए बताए थे.

ही साथ काम करते करते बोस और एमिली का प्रोफेशनल रिश्ता प्यार में बदलने लगा. एमिली मिलनसार और हँस मुख लड़की थी, बोस उन्हें प्यार से "बाघिनी" कह कर बुलाते थे जिसका बंगाली में मतलब होता है शेरनी. एक परदेसी होने के बावजूद, एमिली के परिवार ने खुशी खुशी इस रिश्ते को अपनाया. बोस की बुक 1935 में पब्लिश हुई. इसे भारत में बैन कर दिया गया था लेकिन इस बुक को पूरे यूरोप में, लन्दन में काफ़ी पॉजिटिव reviews मिले.

यूरोप में बोस का देश निकाला का समय खत्म हो गया था. 1938 में उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस में अपनी लीडरशिप की भूमिका की शुरुआत की. Sist सेशन गुजरात में आयोजित किया गया था. मंच पर योद्धा और संत पास पास बैठे थे. कई लोग आए थे, उनके सामने गांधीजी और बोस ने भारत के फ्यूचर के बारे में बात की. ये बहुत ज़रूरी था क्योंकि ये एंटी कोलोनियल मूवमेंट में एकता का प्रतीक था.

गांधी अहिंसा में विश्वास करते थे जबकि बोस का मानना था कि आज़ादी हासिल के लिए हिंसा की एक स्ट्रेटेजी के रूप में ज़रुरत थी. अलग अलग विचारधारा होने के बावजूद, एक आज़ाद देश के रूप में भारत को एकजुट करने का उनका सपना एक था. भारत की इकॉनमी को लेकर भी उनकी सोच एक दूसरे से काफी अलग थी.बोस चाहते थे कि भारत के पास मॉडर्न इंडस्ट्रियल इकॉनमी हो जो आगे बढ़ने के लिए बेहद ज़रूरी था. लेकिन गांधी रामराज्य में विश्वास रखते थे.

ये विलेज कम्युनिटी द्वारा बनाई गई एक स्वपन लोक जैसी इकॉनमी है जो आत्मनिर्भर और आज़ाद होती है लेकिन असल जिंदगी में ऐसा हो पाना थोड़ा मुश्किल होता है. विचारों में मतभेद होने के बावजूद गांधी और बोस एक दूसरे को पसंद करते थे, एक दूसरे का सम्मान करते.

Conclusion

इस मीटिंग से एक महीने पहले, बोस ने हरिपुर में कांग्रेस के प्रेसिडेंट के रूप में शपथ ली थी. विट्ठल नगर नाम का एक टेम्परी काम्प्लेक्स सारे मेहमानों को ठहराने के लिए तैयार किया गया था, एक भव्य जुलूस के बाद बोस विट्ठल नगर पहुंचे. उन्होंने भारतीय तिरंगा उठाया और घोषणा की, " दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो भारत को अब और गुलाम रख सके. हम आज़ाद होंगे". उनका भाषण आज़ादी के संग्राम के अंतिम चरण और आज़ाद भारत को जो सामजिक और इकनोमिक सुधार की ज़रुरत थी उस बारे में था.

बोस ने ब्रिटिश सरकार की ताकत और कमज़ोरियों को समझाने से इसकी शुरुआत की, उन्होंने कहा कि ब्रिटिश की कई

Netaji Subhash Chandra Bose

Netaji Subhash Chandra Bose: The Journey for India's Freedom

दूसरी कॉलोनी और गरीब अंग्रेज़ जनता भारत की तरह ही दुखों को झेल रहे थे. जब भारत आजाद होगा तो कोई वजह नहीं है कि भारत के ब्रिटेन के साथ समान संबंध नहीं होंगे, इसके बाद बोस ने भारत के माइनॉरिटीज के बारे में बात की.

उन्होंने कहा कि नेशनलिस्टस को माइनॉरिटीज को भी इस संग्राम में शामिल करना चाहिए. आपसी धार्मिक और पोलिटिकल विचारों को सबर के साथ अपनाना होगा ताकि भारत एकजुट रहे सके, उनका कहना था कि माइनोरिटीज द्वारा रखे गए राज्यों में उन्हें स्वराज्य देनी चाहिए खासकर सरकार और कल्चरल मामलों में, ये एक बैलेस्ड और सेंट्रल गवर्नमेंट द्वारा हासिल किया जा सकता है. बोस ने कहा कि अलग अलग पहचान देश की एकता में बाधा नहीं होनी चाहिए.

Equality and Justice

मजबूत वो लोअर कार्ट के लिए न्याय चाहते थे. वो हिन्दुस्तानी को official लैंग्वेज बनाना चाहते थे. वो बढ़ती हुई आबादी के मुद्दे पर भी चर्चा की. उनका मानना था कि आबादी को कंट्रोल किया जाना चाहिए ताकि हर भारतीय को भरपूर खाना, पूरे कपड़ा और अच्छी एजुकेशन मिल सके. बोस ने खेती बाड़ी में सुधार करने की बात पर भी जोर दिया.

उन्होंने कहा कि ज़मींदारी सिस्टम बंद होना चाहिए और गरीब किसानों को क़र्ज़ के भार से मुक्त कराना चाहिए. इकॉनमी को और बेहतर बनाने के लिए खेती को स्टेट द्वारा संचालित इंडस्ट्री से जोड़ा जाना चाहिए.

Confronting the British

वन मैन एंड ए वर्ल्ड एट वॉर (One Man and a World at War) July 1940 में बोस को सिविल disobedience मूवमेंट के लिए एक बार फ़िर गिरफ़्तार किया गया. उन पर राजद्रोह मामले में दो आरोप लगाए गए. यह मामला बंगाल में एक मोनुमेंट से सम्बंधित था जिसे हिन्दू और मुस्लिम दोनों अपमानजनक मानते थे. इससे पहले बोस कांग्रेस के प्रेसिडेंट पद से रिजाइन कर चुके थे.

उन्होंने जेल में अपना एंटी कोलोनियल विरोध जारी रखा. उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की. फ़िर उन्होंने ब्रिटिश गवर्नर को एक पोलिटिकल टेस्टामेंट भेजा. पहले बोस ने अपने टेस्टामेंट को सरकारी डाक्यूमेंट्स के रखने की जगह पर जमा करने के लिए रिक्वेस्ट किया ताकि आने वाली पीढ़ी (इच्छापत्र) भेजा उनकी भावनाओं को समझ सके, उनका मानना था कि एक आदमी भले ही मर सकता है लेकिन उसके विचार हज़ारों बार जन्म ले सकते हैं.

Political Testament and Strategies

Key Demands Description
Unity Among Religions उन्होंने ब्रिटिश सरकार से हिन्दुओं और मुसलमानों को धर्म के नाम पर बाँटने की सोच को बंद करने के लिए कहा.
Hunger Strike Protocol उन्होंने अँगरेज़ ऑफिसर्स से कहा कि वो उनकी भूख हड़ताल में विघ्न ना डालें और ज़बरदस्ती उन्हें खिलाने की कोशिश ना करें.

बोस पीड़ा और बलिदान के द्वारा आज़ादी की इस लड़ाई को जारी रखना चाहते थे. बंगाल के गवर्नर और वाइसराय ने ठान ली थी कि बोस को जेल में बंद ही रहना होगा. लेकिन अगर वो भूख से मर गए तो वो इसका दोष अपने ऊपर नहीं आने देना चाहते थे.

Escape and Exile

ब्रिटिश ऑफिसर्स ने बोस को भूख हड़ताल शुरू करने के एक हफ़्ते बाद घर जाने दिया. उन्होंने कहा कि बोस के तंदरुस्त होने के बाद उन्हें फ़िर जेल में बंद कर दिया जाएगा. ये चूहे बिल्ली का खेल तब तक चलता रहेगा जब तक बोस को एहसास ना हो जाए कि उनकी भूख हड़ताल का उन पर कोई असर नहीं होगा और वो इससे कुछ हासिल नहीं कर पाएँगे.

इसलिए बोस एल्गिन रोड में स्तिथ अपने घर में आ गए. सादे कपड़े पहने पुलिस वाले हर वक़्त उन पर नज़र रखे हुए थे. इंटेलिजेंस के एजेंट्स बोस से मिलने वाले हर आदमी, उनसे हुई बातचीत की ख़बर पुलिस को दे रहे थे. इतने सख्त पहरे में भी बोस यूरोप जाने का प्लान बनाने में कामयाब रहे.

इसके लिए उन्होंने अपने भतीजे शिशिर और भतीजी इला की मदद ली. पूरे बोस परिवार में सिर्फ ये दोनों इस सीक्रेट प्लान के बारे में जानते थे. यहाँ तक कि बोस की माँ और उनके भाई सरत को भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. अंग्रेजों ने सोचा कि शिशिर हर रोज़ अपने चाचा के घर अपनी ड्यूटी पूरी करने जाते थे.

World War II and Beyond

उन्हें लगा कि वो फॉरेन रेडियो पर खबर सुनने के लिए अपने चाचा के साथ बैठते थे. बोस ने World War II के हर ख़बर के बारे में खुद को अपडेटेड रखा. वो जानते थे कि वर्ल्ड लेवल पर ब्रिह्न संकट में था. ये उनके लिए भागने का का सबसे अच्छा मौका था.

अब ये उनकी भतीजी की ज़िम्मेदारी थी कि वो इस बात का ध्यान रखे कि सब काम ठीक ठाक रूप से चले ताकि कहीं कोई शक की कोई गुंजाइश ना हो उन्हें सबको ये यकीन दिलाना था कि बोस अपने कमरे में आराम कर रहे हैं. इस बीच, शिशिर हर रोज उनके घर से भागने की प्रैक्टिस करते.

बोस ने तय किया कि दा कि र्े सामने वाले मेन गेट का इस्तेमाल करना होगा ताकि ब्रिटिश एजेंट्स को कहीं कुछ अटपटा ना लगे. इसलिए 16 January 1941 रात 30 बजे शिशिर आखरी बार बोस के घर से निकले. उनके चाचा सुभाष पैसेंजर सीट में "मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के भेष में बैठे थे. उन्होंने काली तुर्की टोपी, लंबा ब्राउन कोट और आँखों पर चश्मा पहना था.

ये सब इतनी होशियारी से किया गया था कि 27 January को जा कर बोस के गायब होने की ख़बर बाहर आई. ये खबर हिंदुस्तान स्टेण्डर्ड और Reuters में पब्लिश हुई थी. अंगरेज़ ऑफिसर्स को बहुत बड़ा झटका लगा था और वो सब इस घटना से बहुत शर्मिंदा हुए कि इतने सख्त पहरे के बावाजूद बोस उनकी नाक के नीचे से निकल गए और उन्हें भनक तक नहीं लगी.

द टेरीबल प्राइस ऑफ़ फ्रीडम (The Terrible Price of Freedom) युद्ध अक्सर ऐसे लोगों में पार्टनरशिप या समझौते करवा देता है जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी, जैसे विंस्टन चर्चिल और जोसफ स्टॅलिन, ये सुभाष चंद्र बोस और अडोल्फ़ हिटलर के समझौते से अलग नहीं था.

बोस सिर्फ भारत की आज़ादी के लिए ज्यादा से ज्यादा इंटरनेशनल लीडर्स का सपोर्ट हासिल करना चाहते थे. May 1947 में बोस ने एक नोट लिखा जिसमें उन्होंने भारत के साथ-साथ अरब देशों की आज़ादी का ऐलान करने के लिए एक्सिस पावर्स की मदद माँगी थी. उस समय इराक में ब्रिटिश विरोधी मूवमेंट की शुरुआत हो चुकी थी.

बोस ने इराकी ग्रुप की मदद करने के लिए जर्मनी से विनती की. उनका मानना था कि सोवियत यूनियन और जर्मनी के बीच शांति बनाए रखी जानी चाहिए. इससे भारत और मिडिल ईस्ट बेवजह युद्ध में घसीटे नहीं जाएँगे.

बोस को बहुत निराशा हुई जब उन्हें पता चला की जर्मनी ने सोवियत यूनियन पर आक्रमण कर दिया था, उन्होंने अपनी चिंता जर्मन फॉरेन ऑफिस में व्यक्त की. उन्होंने कहा कि जर्मनी आक्रमंकारी और हमलावर (aggressor) का रूप लेता जा रहा था. लेकिन जर्मन ऑफिसर्स ने उन्हें यकीन दिलाया कि वो को एक आज़ाद देश के रूप में धोषणा करेंगे, लेकिन वो ये उचित समय आने पर करेंगे.

बोस ने हिटलर द्वारा सोवियत यूनियन पर हमला करने के बारे में अपनी राय बताई कि इसके बहुत बुरे परिणाम होंगे. उन्होंने ये भी कहा कि भारत की सीमा के पास जर्मन आर्मी का मार्च भारतीयों के मन में जर्मनी के लिए बैर पैदा कर सकता है.

June में, बोस दूसरे मामलों में बिजी हो गए. उन्होंने पूरे यूरोप में भारतीय स्टूडेंट्स और जिन भारतीयों को देश निकाला दे दिया गया था उनकी मदद से फ्री इंडिया सेंटर" की स्थापना लड़ने के लिए तैयार थे, ये जांबा क रतीय सेना की स्थापना भी की जो भारतीय सैनिकों द्वारा बनाई गई धी और जो भारत की आज़ादी के लिए। नौजवान भारत के अलग अलग कलर और धार्मिक बैकग्राउंड से आए थे,

फ्री इंडिया सेंटर और भारतीय सेना के मेंबर्स बोस को प्यार से "नेताजी" कह कर बुलाने लगे जिसका मतलब होता है "रिस्पेक्टेड लीडर". आगे चल कर साउथ ईस्ट एशिया में उनके लॉयल followers भी उन्हें नेताजी कहने लगे थे.

इस बीच, ब्रिटिश ऑफिसर्स ने बोस हत्या की योजना बनाई. लेकिन नेताजी ने उन्हें हर बार चकमा दे दिया. December 1947 से January 1942 तक भारतीय सेना ने और कई जवानों को आर्मी में शामिल किया. उनकी रगों में जोश और देशभक्ति का रस घोलने के लिए बोस तो हमेशा उनके साथ थे ही.

The Rise of INA

जर्मनी के फ्रैंकेनबर्ग में एक बड़ी ट्रेनिंग कैंप बनाई गई. इस बीच, बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर ऑफिसियल रूप से खोला गया. उन्होंने अपने झंडे के लिए इंडियन नेशनल कांग्रेस के तिरंगे को अपनाया.

बोस जैसे और कई लोग देश निकाला को झेल रहे थे. उन सब ने यूरोप में शरण ली थी, वो भारत की आज़ादी की लड़ाई में बोस के साथ जुड़ गए. वो अपने देश में नहीं थे लेकिन बोस ने उन्हें एंटी कोलोनियल मूवमेंट में अपनी आवाज़ उठाने के लिए encourage किया,

Road to Delhi

पहली इंडियन नेशनल आर्मी (INA) February 1942 में बनाई गई थी. बोस ने उनके लीडर की भूमिका निभाई. उन्होंने अपनी गहरी देशभक्ति की भावना और मज़बूत इरादों को जवानों के साथ शेयर किया. बोस को लगा कि अब समय आ चुका था जब INA को विदेश से दिल्ली ले जाना होगा.

February 1942 में ब्रिटिश सेना सिंगापुर में चारों खाने चित्त हो गई थी. वहाँ लड़ने वाले भारतीय जवानों को ब्रिटिश ने जापानियों को सौंप दिया. इसलिए 5 0,000 भारतीय जवान चांगी में इकठ्ठा हुए. जापान के जनरल फुजिवारा इताइची ने सब के सामने अपनी बात रखी.

जापानी मानते थे कि "एशिया सिर्फ एशिया के लोगों के लिए था". वो ब्रिटिश रूल का अंत और भारत की आज़ादी के सपोर्ट में थे. उन्होंने भारतीय जवानों को INA ज्वाइन करने की आज्ञा दे दी. ये सुन कर सब बहुत खुश हुए. अब जवानों का मन उम्मीद से भर गया था.

Calls for Unity and Freedom

June 1942 में बोस को बैंकाक में देश निकाला झेल रहे भारतीयों द्वारा इनविटेशन मिला. वो साउथ ईस्ट एशिया में उनके लीडरशिप के लिए रिक्वेस्ट फोर्सेज के पक्ष में था, सोवियत यूनियन को यूरोप में जर्मनी के खिलाफ़ फ़ायदा हो रहा था. पसिफ़िक एरिया में अमेरिका जापनी टेरीटरी पर जीत हासिल कर रहा था.

बोस ने कहा कि उन्हें भी लगता है कि दुनिया भर में फैले भारतीय नेशनलिस्टस को एकजुट करने की ज़रुरत है. June 1942 से लेकर ]uly 1943 तक साउथ ईस्ट एशिया में बोस की योजनाओं में देरी हुई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस समय युद्ध अलाइड.

July 1943 में बोस सिंगापुर पहुंचे. जब यो प्लेन से उतर रहे थे तो उनके स्वागत के लिए मार्चिंग गीत बजाया गया. बोस को गाने में "एशिया का आफ़ताब" कहा गया यानी "एशिया का चिराग". उन्हें भारत के प्रिय नेता और गर्व के रूप में वेलकम किया गया.

Alliance with Japan

May 1943 में बोस टोक्यो में थे. वो जापान के प्राइम मिनिस्टर हिंदेकी तोजो का सपोर्ट हासिल करने के लिए उनसे बात करना चाहते थे. लेकिन बोस जानते थे कि पहले उन्हें एक अच्छा इम्प्रैशन जमाना होगा. जब तक तोजो बिजी थे, बोस हाई रैंक वाले कई जापानी जनरल से मिले.

बोस ने उन्हें भारत में चल रहे आज़ादी के संग्राम के बारे में बताया. बोस ने जापान के बारे में और ज्यादा जानने के लिए भी समय निकाला. June 1943 में बोस पहली बार प्राइम मिनिस्टर तोजो से मिले. हिटलर के साथ उनकी मीटिंग व्यर्थ थी लेकिन यहाँ उन्हें काफ़ी पॉजिटिव रिस्पांस मिला.

प्राइम मिनिस्टर ने कहा कि जापान भारत की आज़ादी के लिए बिना किसी शर्त या निजी मकसद के उन्हें अपना पूरा सपोर्ट देंगे.

The March to Delhi

INA के लिए बोस की योजना बर्मा से दिल्ली तक मार्च करने की थी. उन्हें तसल्ली थी कि उन्हें अब काफ़ी लोगों का सपोर्ट मिल चुका था. बोस ने 19 June को टोक्यो में एक प्रेस काफ्रेंस आयोजित की, वहाँ 60 जर्नलिस्ट मौजूद थे.

बोस भारत को आशा की किरण दिखाना चाहते थे कि अब वो बंगाल की जेल में चुपचाप बंद नहीं थे बल्कि जापान में कई लोगों के सपोर्ट के साथ मजबूती से खड़े थे, बोस ने कहा कि ये हर भारतीय का फ़र्ज़ था कि वो आज़ादी के लिए अपना खून बहाने से भी ना चूकें.

उन्होंने अपने भारतीय साथियों से विनती की कि वो ब्रिटिश द्वारा किये जा रहे झूठे प्रचारों पर नहीं बल्कि उन पर अपना विश्वास रखें. बोस ने उन वीर क्रांतिकारियों के बारे में भी बात की जिन्हें जेल में बंद कर दिया गया था. उन्होंने वचन दिया कि वो जल्द से जल्द उन्हें अँधेरे जेल की सलाखों से बाहर निकालेंगे ताकि भारत के वो वफ़ादार बेटे फ़िर से रोशनी में कदम रख सकें.

उन्होंने कहा कि अब समय गया था कि हर देशभक्त भारतीय इस युद्ध का हिस्सा बनें. जब देश से प्यार करने वालों का खून बहेगा, तभी भारत आजाद होगा.

A Life Immortal

18 August 1945 को ताइवान में एक प्लेन दुर्घटना के कारण नेताजी की मृत्यु हो गई. उनके वफ़ादार साथियों ने उनके जाने का शोक जताया. उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि नेताजी अब उनके बीच नहीं थे ब्रिटिश ऑफिसर्स को अब भी लगता था कि ये उनकी कोई चाल थी.

1945 से 1946 तक INA ने भारत में तहल्का मचा दिया. लोगों ने उनका हीरो के रूप में स्वागत किया. उनकी ताकत और हिम्मत देख कर ब्रिटिश सरकार को विश्वास हो गया था कि बोस अब भी जिंदा थे. एक ब्रिटिश एजेंट ने सिंगापुर में अपने एक साथी को पूछा की क्या बोस सच में मर गए थे या नहीं?

अँगरेज़ और भी ज़्यादा कंफ्यूज तब हुए जब गांधीजी बोस के बारे में प्रेजेंट टेस में बात कर रहे थे, ऐसे जैसे कि वो अब भी जिंदा हों. बोस के परिवार पर सख्त निगरानी रखी जा रही थी. लेकिन अंत में उन्हें छोड़ दिया गया.

1940 में लिखे एक लैटर में नेताजी ने कहा था कि एक दिन दुनिया में सब कुछ मिट जाएगा लेकिन विचार और सपने कभी नहीं मिटेंगे.

Conclusion

नेताजी ने पूरी जिंदगी जो भी किया सिर्फ भारत की आज़ादी के लिए किया, भले ही गांधीजी से उनके विचार अलग थे, भले ही उन्होंने एक अलग तरीका चुना लेकिन देश के लिए उनका प्यार अनंत और गहरा था. उनकी जिंदगी का बस यही मकसद था आज़ाद भारत" भारत की आज़ादी के लिए उनका संघर्ष तब शुरू हुआ जब वो कैंब्रिज से ग्रेजुएशन कर के लोटे, तब भी जारी था जब वो सी. आर. दास के शिष्य बने, तब भी कायम था जब वो बगाल में एंटी कोलोनियल राइटर थे और ये संघर्ष उनके जीवन के अंत तक चलता रहा.

ज़रा सोच कर देखिये, एक ही मकसद के लिए 10 से ज्यादा बार जेल जाना और फिर भी उसके लिए डट कर खड़े रहना, ये सिर्फ एक महान देशभक्त ही कर सकता है. बोस सिर्फ अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाते हुए देखना चाहते थे, वो जितने भी साल यूरोप और एशिया में लगातार घुमे, इंटरनेशनल लीडर्स का सपोर्ट लेने की कोशिश करते रहे, अपने देश को आजाद कराने की हर योजना हर कोशिश में.

आखिर उनकी जीत हुई. इंडियन नेशनल आर्मी ने दिल्ली पहुँच कर अपनी ताकत दिखाई. और आखिर में, ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पड़े और भारत में उनके शासन का अंत हुआ. नेताजी लोगों के जेहन में वीरता और देशभक्ति के जीते जागते नाम बन गए. वो पूरी जिंदगी देश के लिए जिए और अंत में देश के लिए ही अपनी जान कुर्बान कर दी. शायद इसलिए हमारे बीच ना होकर भी वो आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं.

For more articles and insights, visit our website and blog.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *