About Book
महामारी नेचर का वो सच है जिसे टाला नहीं जा सकता. World Health Organization का कहना है कि हमें हर 27 साल में एक बार इसका सामना करना होगा. इस बुक में आप 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू महामारी और वो किस वायरस के कारण हुआ था उस बारे में जानेंगे. इंसानों ने पहले भी कई बार ऐसी जानलेवा महामारियों का सामना किया है. हम भी ऐसा कर सकते हैं. यब बुक आपको सिखाएगी कि येकैसे करना है. यह समरी किसे पढ़नी चाहिए?
जो भी 1918 स्पेनिश फ्लू महामारी के बारे में जानना चाहते हैं
जो भी कोविड-19 महामारी से डरे हुए हैं
ऑथर के बारे में
जॉन एम बैरी एक अवार्ड विनिंग प्रोफेसर, हिस्टोरियन और ऑथर हैं. उनकी किताबें “Rising Tide” और “The Great Influenza” न्यूयॉर्कटाइम्स की बेस्ट सेलर लिस्ट में शामिल हैं. बैरी को उनके उम्दा काम के लिए कई अवार्ड्स से नवाज़ा गया है. उन्होंने टाइम मैगज़ीन, वॉल स्ट्रीट जर्नल और कई पब्लिकेशन के लिएभीलिखा है.
इंट्रोडक्शन (Introduction)
1918 का स्पेनिश फ्लू हिस्ट्री की सबसे खतरनाक महामारी रही है. इस बुक में आप ये जानेंगे कि इसकी शुरुआत कैसे हुई ये कैसे फैला और कैसे इसका अंत हुआ. इसमें आप एक वायरस के नेचर के बारे में भी जानेंगे. वायरस कहाँ से आता है और इंसान और जानवर कैसे इसकी चपेट में आ जाते हैं, ये बुक उन सभी सवालों का जवाब देगी. ये बुक हमें कुछ अहम बातें सिखाएगी कि कैसेइंसान एक जानलेवा महामारी के खिलाफ़ लड़कर खुद को बचा सकता है.
हस्केलकाउंटी(Haskell County)
एक्सपर्ट्स का कहना है कि 1918 स्पेनिश फ्लू की शुरुआत हस्केल, कंसास जो यूनाइटेड स्टेट्स में है, से हुई थी. हस्केल में रहने वालों के कमाई का साधन खेती तथा. वहाँ के लोगों के लिए उनके खेल, पालतू जानवर और फ़सल ही उनका खज़ाना हुआ करते थे. लगभग हर परिवार बड़े प्यार से अपनी मुर्गियों और दूसरे पालतू जानवरों की देखभाल करता था. हस्केल काउंटी में एक डॉ. भी रहा करते थे. उनका नाम था डॉ. Loring Miner. January से February 1918 तक डॉ. लोरिंग को एक एवस्ट्रा ऑर्डिनरी एक्सपीरियंस हुआ. उनके पास एक पेशेंट आया जिसके symptoms से लग रहा था जैसे उसे कॉमन फ्लू है. उसे तेज बुखार था, वो लगातार खांस रहा था और उसके सिर और बॉडी में बहुत दर्द था लेकिन फिर, कोपलेंड,सैंटा फ़ेके खेतों से अजीब मामले सामने आने लगे,
डॉ. लोरिंग को यकीन था यह बीमारी इन्फ्लुएंजा है लेकिन उन्होंने इससे पहले इस तरह के गंभीर मामले नहीं देखे थे. इन्फ्लुएंजा शरीर में तेज़ी से हमला करते हुए बढ़ता है. डॉ. लोरिंग के 12 पेशेंट्स ने इसके कारण दम तोड़ दिया था.सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि वो सारे पेशेंट्स काफ़ी स्ट्रॉग और healthy थे मगर फिर भी वो इस बीमारी लड़ नहीं पाए, डॉ. लोरिंग ने इस बीमारी के बारे में ज्यादा जानने के लिए जान लगा दिया.उन्होंने पेशेंट्स के यूरिन, ब्लड और कफ़ के सैंपल कलेक्ट किये, अपनी मेडिकल की सारी किताबों और जर्नल को पढ़ा. यहाँ तक उन्होंने मदद के लिए अपने कुछ साथियों को भी बुलाया. उन्होंने US पब्लिक हेल्थ सर्विस को भी ख़बर की लेकिन सब ने डॉ. लोरिंग की बातों को अनदेखा कर दिया.डॉ. लोरिंग पेशेंट्स की लगातार बढ़ती हुई लाइन देख कर घबरा गए थे. हर रोज़ वो बस उनकी देखभाल में ही लगे रहते. ना जाने कितनी रातें डॉ. लोरिंग ने जाग कर बिताई.
दो महीने इस बीमारी से जूझने के बाद जब March का महिना शुरू हुआ तो ये बीमारी अचानक गायब हो गई. बच्चे वापस स्कूल जाने लगे और लोग अपने अपने काम पर लग गए, जिंदगी फिर से नार्मल हो । मगर डॉ. लोरिंग गहरी चिंता में डूबे हुए थे.
उनकी चिंता जायज़ थी. इन्फ्लुएंजा ने कभी इतना गंभीर रूप नहीं लिया था. इतने कम समय में इतने सारे लोग एक साथ कभी इन्फेक्ट नहीं हुए थे, डॉ. लोरिंग ने पब्लिक हेल्थ ऑफिसर्स को सावधान करने की कोशिश की लेकिन किसी ने उनकी बातों गंभीरता से नहीं लिया, इस बीच, ये वायरस धीरे धीरे और स्ट्रोंग हो रहा था.ये हस्केल काउंटी में ही खत्म हो सकता था क्योंकि वे जगह थोड़ी अलग थलग थी और वहाँ की पॉपुलेशन भी कम थी. इन्फ्लुएंजा का वायरस वहाँ हर एक को इन्फेक्ट करके नहीं खत्म हो सकता था क्योंकि अगर सब इसकी चपेट में आ जाते तो वहाँ एक भी healthy इंसान नहीं बचता. लेकिन उस वक्त World War | ने दुनिया में आतंक मचा रखा था.
डीन नीलसन जीन, हस्केल काउंटी का एक नौजवान सोल्जर था. वो भी इस बीमारी का शिकार हो गया था. एक पेशेंट इन्फेक्ट होने के एक हफ्ते के अंदर ही इस वायरस को बाहर फैला सकता है. डीन को जब फ्लू हुआ तब वो छुट्टी पर था. लेकिन एक हफ्ते के बाद ही वो ड्यूटी पर कैंपफस्टन लौट गया. जॉन बॉटम भी कोपलैंड, हस्केल काउंटी का एक सोल्जर था. वो भी निमोनिया की चपेट में आ गया था. February में डीन ने भी ड्यूटी के लिए कैंप फैशन में रिपोर्ट किया. कैंप फंस्टन कंसास नदी के किनारे था जहां 56,000 soldier ट्रेनिंग ले रहे थे.4 March को, कैंप फंस्टन में कुक के रूप में
काम करने वाला एक जवान इन्फ्लुएंजा की वजह से बीमार हो गया,सिर्फ तीन हफ़्तों में ही ये नंबर बढ़कर 1,100 तक पहुँच गया था. सभी जवानों को
हॉस्पिटल में एडमिट कराना पड़ा. उनमें से 237 को निमोनिया था और 38 जवानों की मौत हो गई थी.
द स्वार्म (The Swarm)
सबूतों से ज़ाहिर था कि फंस्टन में जो बीमारी फैल रही थी वो हस्केल से आई थी.हस्केल से आने के बाद अब इस वायरस में किसी तरह का बदलाव रहा था जिस वजह से फंस्टन में स्थिति इतनी ख़राब हो गई थी.जब वायरस के अपने genes में बदलाव या शिफ्ट होता है तो उसे म्युटेशन कहा जाता
हो
बहरहाल, फंस्टन से जवानों को अमेरिका और यूरोप के दूसरे कैंप में भेजा जाने लगा.वायरस का बस एक ही मकसद होता है जो है नंबर में बढ़ते जाना और फैलना, लेकिन इसका मतलब नहीं है कि वायरस एक सिंपल और बहुत पुराना जीव है. इंसानों और जानवरों की तरह इनमें भी समय के साथ डेवलपमेंट और प्रोग्रेस होता है, वायरस काफी डेवलप्ड जीव होते है. अब बात करते हैं इन्फ्लुएंजा के वायरस की.
इन्फ्लुएंजा का वायरस इंसानों से नहीं आया था.वो ओरिजनली बाई से आया था. इन्फ्लुएंजा वायरस के कई स्ट्रेन बर्ड्स में मौजूद हैं. इन्फ्लुएंजा इंसानों के रेस्पिरेटरी सिस्टम को अटैक करता है. लेकिन बर्डस में वो गैस्टोइंटेस्टिनल टैक्ट पर हमला करता है. इसलिए बर्डस के मल में बहुत बड़ी मात्रा में वायरस होता है. वो जब उड़ते हैं तो उनके मल झील, नदी और हर तरह के पानी के सोर्स में गिर जाते हैं. एवियन वायरस अपने आप एक इसान से दूसरे इंसान को इन्फेक्ट नहीं कर सकता. ये पहले बदलता या चेंज होता है यानी म्यूटेट करता है. कभी-कभी
पिग्स को इन्फेक्ट करता है और फिर पिग्स से इंसानों में ट्रान्सफर हो जाता है. जब भी इन्पलुएंजा के किसी नए स्ट्रेन में कोई बदलाव होता है और वो इंसानों को इन्फेक्ट करना शुरू करता है तो ये महामारी को जन्म देता है. इस महामारी की शुरुआत को टाला नहीं जा सकता, ये नेचर का ही एक हिस्सा आइए अब एक वायरस के स्ट्रक्चर को समझते हैं. वायरस एक बॉल की तरह होता है जिसके चारों ओर spikes होते हैं. वायरस काफ़ी हद तक मेम्ब्रेन
से बना होता है. इसके अंदर RNA होता है जिसमें आठ gene होते हैं जो बताता है कि आखिर वायरस है क्या.एक वायरस का साइज़ एक मिलीमीटर
का 1/10,000 हिस्सा होता है.
वायरस के आस पास जो spikes होते हैं वो असल में प्रोटीन होते हैं. उन्हें । Hemagglutinin कहा जाता है. उनका बस एक ही काम होता है और अब मान लेते हैं कि वायरस एक इंसान के रेस्पिरेटरी सिस्टम के अंदर चला जाता है. वो बॉडी के सेल्स को अटैक करता है.सेल्स के चारों ओर सियालिक एसिड रिसेप्टरहोते हैं जिसे Hemagglutinin टच करने लगता है. Hemagglutinin और सियालिक एसिड का स्ट्रक्चर ऐसा है कि वो एक पजल के टुकड़ों की तरह आपस में जुड़ जाते हैं. जैसे-जैसे वायरस सेल मेम्ब्रेन के साथ जुड़ता जाता है वैसे वैसे hemagglutinin
वो है अटैक करना.
एसिड के साथ जुड़ते जाते हैं.
सियालिक
इसके बाद सेल के मेम्ब्रेन में एक गड्ढा जैसा बन जाता है जिसके द्वारा वायरस सेल के अंदर घुसने लगता है.अब वायरस खुद को एक बबल से कवर कर लेता है. ऐसा करने से वायरस का पता लगाना मुश्किल हो जाता है.बबल के अंदर वायरस खुद को ट्रांसफॉर्म कर देता है. जैसे पैरों से मोज़े उतारते समय वो इकट्ठा हो जाते हैं उसी तरह वायरस भी फोल्ड होने लगता है.साइंटिस्ट इस प्रोसेस को अन्कोटिंग (uncoating) कहते हैं, अब वायरस सेल के अंदर खुद को खुला छोड़ देता है. उसका बबल और मेम्ब्रेन टूट कर गलने लगते हैं. इस वजह से वायरस का genes सेल्स के nucleus के अंदर चला जाता है. ये genes सेल्स के genes को हटाकर उनकी जगह ले लेते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे कोई दूसरा आपसे ज़बरदस्ती आपकी गाड़ी की स्टीयरिंग व्हीलछीन लेता है.
अब nucleus के अंदर वायरस का पूरा कंट्रोल है और वो सेल को हज़ारों वायरस के प्रोटीन बनाने का आर्डर देता है. ये प्रोटीन और वायरस बनाने के
लिए जुड़ने लगते हैं.
इस प्रोसेस में आमतौर पर दस घंटे लगते हैं. ये वो टाइम फ्रेम है जब वायरस सेल से जुड़ कर नए वायरस पैदा करने लगता है. अब जिस सेल में इसकी शुरुआत हुई थी उसे होस्ट सेल कहते हैं और वो फूट जाता है. एक मिलियन वायरस वहाँ से निकल कर नए सेल्स को अटैक करने लगते हैं.
इटबिगिन्स (It Begins)
4 March को कैंप फस्टन में इन्फ्लुएंजा का पहला केस सामने आया. 18 March को जॉर्जिया में कैप ग्रीनलीफ़ और कैंप फॉरेस्ट से भी नए मामलों के बारे में पता चला. कुल मिलाकर, अमेरिका में 24 बड़े आर्मी कैम्पस में इन्फ्लुएंजा की महामारी फैल गई थी. सारे जवान इतने बीमार और कमज़ोर हो
गए थे कि ना वो ट्रेनिंग ले सकते थे और ना उनमें लड़ने की ताकत थी. यूरोप में इसकी ।
। शुरुआत ब्रेस्ट, फ्रांस में हुई. ये 10 April के आस पास की बात थी जब अमेरिका के जवान वहाँ पहुँच चुके थे, इस कैंप के बाद ये
बीमारी कई दूसरे कैम्पस में फेलती चली गई.
इसकी वजह से कई लोग बीमार हुए लेकिन अब तक इसने गंभीर रूप नहीं लिया था. लोग धीरे धीरे रिकवर होने लगे थे, April के खत्म होते होते इन्फ्लुएंजा ने ब्रिटिश आर्मी को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया था. कुछ समय बाद ये पेरिस और इटली तक पहुँच गयी. इतना
फैल जाने के बाद इस महामारी को स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया. फ्रांस, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम में गवर्नमेंट ने असली रिपोर्ट को बाहर जाने से रोक दिया. सिर्फ पॉजिटिव रिपोर्ट ही पब्लिक को दिखाया जा रहा था ताकि जवानों मनोबल ना टूटे.
हालांकि, स्पेन में सटीक और सही खबरें दिखाई जा रही थीं. सिर्फ स्पेनिश अखबारों ने इन्फ्लुएंजा के बढ़ते प्रकोप के बारे में बताया. ये खासकर तब ह आ जन किंग अल्फोंस XII ख़ुद इन्फेक्ट हो ग ए थे. फ्लू रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था और फैलते फैलते पोर्टुगल और ग्रीस तक पहुँच गया. June में पूरा जर्मनी इसकी चपेट में था. July में, नॉर्वे
और डेनमार्क के लोग बीमार पड़ने लगे. August तक, स्वीडन और हॉलैंड भी इससे अछूता नहीं रह पाया. 29 May, बॉम्बे में इसका पहला केस सामने आया. वो सात सैनिक थे जो शिप और docks में काम करते थे, दूसरे गवर्नमेंट वर्कर्स भी बीमार होने
लगे. ये बीमारी रेलवे के रास्ते से फैलना शुरू हुई और बॉम्बे से कलकत्ता, मद्रास, रंगून और कराची तक पहुँच गई.
उस समय तक ये वायरस शंघाई में भी फ़ैलने लगा था. एक राइटर का कहना है कि चाइना में तो इस वायरस की जैसे एक लहर उठ रही थी.September तक वायरस ने न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया तक अपना रास्ता बना लिया था. सिडनी की 30% पापुलेशन बीमार हो गई थी.
पैसेज(Passage)
1918 में स्पेनिश फ्लू एक वेव(लहर) की तरह आया था जो एक महामारी के लिए नार्मल बात है. इसकी फर्स्ट वेव स्प्रिंग के मौसम में उठी थी. उस ज़्यादातर केस हलके फुल्के थे और पेशेंट्स ठीक भी हो रहे थे. बहुत कम लोगों की जान गई थी.कुछ हेल्थ ऑफिसर्स का कहना था कि वायरस ख़त्म
वक़्त
हो गया था लेकिन उनका अंदाज़ा बिलकुल गलत साबित हुआ. ऐसा लग रहा था जैसे वायरस कुछ समय के लिए अंडरग्राउंड हो गया था. लेकिन असल में उसमें म्यूटेशन हो रहा था और वो बड़े रूप में अटैक करने की तैयारी कर रहा था. इसके सेकंड वेव की शुरुआत ऑटम के मौसम में हुई. उस समय तक वायरस बहुत खतरनाक हो गया था और 1918 तक इसने
जानलेवा बीमारी रूप ले लिया था. अब सवाल आता है कि इस फ्रेंड का क्या कारण है? ये तो आम बात है कि एक महामारी हलके फुल्के रूप से शुरू होती है और दूसरे वेव में उत्पात
मचाना शुरू कर देती है. आखिर ये कैसे होता है?हर बार जब वायरस एक होस्ट से दूसरे होस्ट की बाडी में जाता है तो वो और भी ज्यादा स्ट्रोंग हो जाता है. वायरस नए वायरस बनाने में, बढ़ने में, फैलने में और बेहतर तरीके से काम करने लगता है.वो अटैक करने में और माहिर हो जाता है. इस घटना को पैसेज (passage) कहते हैं. लेकिन वायरस के भी अटैक करने की एक लिमिट होती है. वो हमेशा स्ट्रॉग नहीं हो सकता. जब वायरस बहुत efficient तरीके से इन्फेक्ट करने
लगता है तब एक ऐसा वात आला हैं जब उसे अटैक करने के लिए कोई नया होस्ट नहीं मिलता.उस पॉइंट पर वायरस खुद को डिस्ट्रॉय करने लगता है.
ऐसा होने के बाद वायरस का फैलना कम हो जाता है और फ़िर ये अपने आप खत्म होने लगता है.
द पेस्टिलेस (The Pestilence)
स्पेनिश फ्लू का सेकंड वेव 1918 के ऑटम के मौसम में आया, एवसपर्टस को विश्वास था कि पूरी दुनिया में जो बीमारी फ़ैल रही है वो सिर्फ और सिर्फ इन्पलुएंजा ही थी. लेकिन ये वायरस इतना पावरफुल हो गया था और ऐसे symptoms सामने आ रहे थे जो पलू से काफ़ी अलग थे, ये बात ज्यादा गंभीर केसेस में सच साबित हो रही थी.कई पेशेंट्स को पूरी बॉडी में बहुत दर्द था.
फिलेडेल्फिया के क्लिफोर्ड ऐडम्स ने अपनी तकलीफ़ बताते हुए कहा कि “मैं किसी और चीज़ के बारे में सोच ही नहीं पाता था. मुझे परवाह नहीं है कि मैं जिंदा रहूँगा या नहीं, अभी मेरी जो हालत है, मुझे तो लगता है कि मैं मर चुका हूँ. मुझे जिंदा होने का एहसास इस बात से होता है कि बस मेरी सांसें चल रही
वाशिंगटन के बिल सांसों का कहना था मुझे समय का पता ही नहीं चलता, ना मैं नार्मल तरीके से सोच पाता हूँ, ना नार्मल तरीके से रियेक्ट कर पाता रोज़ मुझे कुछ ना कुछ भ्रम हो जाता है”.
इलेनॉइस के जोस ब्राउन ने कहा ” मेरा दिल इतनी ज़ोरों से धड़क रहा था कि मुझे लगा कहीं वो मेरी बॉडी से बाहर ना आ जाए. मुझे बहुत तेज़ था और बहुत ठड लगती थी. मेरी बॉडी में बहुत कंपन होता था.
बुखार ये इन्फ्लुएंजा ही था लेकिन कई डॉक्टर्स इन Symptoms के कारण हैरान थे. उनमें से एक symptom था सायनोसिस. इस कंडीशन में शरीर के कुछ हिस्से नीले पड़ जाते हैं.एक डॉक्टर ने बताया कि सायनोसिस बहुत हैरान करने वाला कंडीशन था जिसमें उंगलियाँ, कान, नाक, जीभ सब गहरे नीले हो जाते थे”,
दूसरा शॉकिंग symptom था एपिरटेक्सिस (epistaxis) या नाक से खून बहना. अमेरिका के आर्मी कैम्पस के 15% पेशेंट्स में ये symptom नज़र आए थे.
रिपोर्ट में लिखा गया था कि पेशेंट का सिर नीचे किए जाने पर नाक और मुँह से खून निकलने लगता था. छ लोगों को खून की उल्टियां हो रही थीं. इसकी वजह से खून की कमी के कारण एक पेशेंट की मौत हो गई.
सबसे चौकाने वाली बात तो ये थी कि स्पेनिश फ्लू के एक जैसे symptom नहीं थे. इससे भी ज़्यादा डरावनी बात तो ये थी कि जवान और healthy लोग इसकी वजह से दम लोड रहे थे.
नार्मल फ्लू और निमोनिया ज्यादातर बच्चों और बूढ़ों को अटैक करता है लेकिन स्पेनिश फ्लू का सबसे खराब असर 21-30 साल के healthy पर हो रहा था. सबसे ज़्यादा उन लोगों की मौत हो रही थी जो कम उम्र के थे.
लोगों उम्र की बजह से उनकी इम्युनिटी स्ट्रॉग थी लेकिन वो फ़िर भी इस ख़तरनाक वायरस से नहीं लड़ पा रहे थे.यहाँ तक कि पोस्ट mortem के रिपोर्ट से भी कुछ साफ़ साफ़ पता नहीं चल रहा था. ये इन्प्लुएंजा ही था लेकिन इसने पेशेंट्स के बॉडी के हर ऑर्गन को खराब कर दिया था. हार्ट, ब्रेन, किडनी, लीवर सब किसी ना किसी तरह डैमेज हो गए थे. लेकिन सबसे बुरा हाल lungs का था.
एक साइंटिस्ट का कहना था कि वायरल इन्फेक्शन में Iungs पर इतना बुरा असर होना नार्मल बात नहीं थी.स्पेनिश फ्लू से इन्फेक्टेड लोगों के lungs थ कि वायरल इन्फेक्शन में। घाव थे. ऐसा लग रहा था मानो उन्होंने में बहुत जहरीली गैस सूंघ ली हो. पोरट mortem के समय जब Iungs को बाहर निकाला जाता है तो एक balloon की तरह उसकी हवा निकल जाती है. लेकिन उन पेशेंट्स के lungs को जब निकाला गया तो वो फूले हुए थे जैसे उनमें हवा भरी हुई हो. लेकिन टेस्ट करने पर जो सामने आया उसने सबको हिला दिया. चो हवा से नहीं बल्कि बुरी तरह डैमेज हुए सेल्स के कचरे से भरे हुए थे. वाइट ब्लड़
सेल्स, enzymes सब इधर उधर बिखरे हुए थे. lungs में खून फैला हुआ था. इन्फ्लुएजा वायरस और इम्यून सिस्टम के बीच ये जंग lungs में हुई थी, इसका मंज़र किसी जंग के मैदान से कम नहीं था और उस तबाही में कुछ भी
नहीं बचा था.
टोलिंग ऑफ़ द बेल (Tolling of the Bell)
महामारी इतनी तेजी से फैल रहा था कि सभी दुकानें, स्कूल और ऑफिस को बंद कर दिया गया. सडकें एकदम सुनसान हो गई, नेशनल और लोकल गवर्नमेंट ने इस बीमारी के बारे में पब्लिक को कोई जानकारी नहीं दी. न्यूज़पेपर में छपवाया गया कि घबराने की ज़रुरत नहीं है. गवर्नमेंट लोगों का मनोबल बचाए रखना चाहती थी लेकिन इसके बजाय लोगों के मन में डर बैठ गया.लोगों को किसी भी बात की पूरी जानकारी नहीं थी जो उनके डर को और बढ़ा रहा था. न्यूज़पेपर बातों को तोड़ मरोड़ कर लिख रहे थे और किसी भी पोलिटिकल पार्टी ने कभी भी इन्फ्लुएंजा के गंभीर खतरे की बात को स्वीकार नहीं किया था.
ये वायरस एक शिकारी की तरह हो गया था जो इसानों को अपना शिकार बनाने के लिए तलाश रहा था. शहर हो या गाँव या कोई छोटा कस्बा, हर जगह लोग मर रहे थे. दुनिया का ऐसा कोई भी कोना नहीं बचाथा जिसे इस वायरस ने बक्शा हो.
सबसे ज़्यादा मौतें इंडिया में हुई थी. स्प्रिंग केमौसम में इंडिया में वायरस का फर्स्ट वेव चल रहा था. लेकिन September 1918 में वायरस का कहर दोबारा बॉम्बे पर बरसा, उस समय बस लाशों की ढेर बॉम्ब पर स्टेशन पहुँचती तो वो सिर्फ लाशों से भरी होती थीं. गई थी.जब भी कहीं से ट्रेन रवाना होती तो उसमें जीते जागते लोग होते थे लेकिन जब वो दिल्ली के एक हॉस्पिटल में 13,190 पेशेंट्स को एडमिट किया गया. उनमें से 7,044 लोगों की जान जा चुकी थी. सबसे ज्यादा तबाही पंजाब में हुई थी. एक डॉक्टर ने बताया कि हॉस्पिटल इतने खचाकच भरे हुए थे कि डेड बॉडी हटाने तक की जगह नहीं थी, लोग सडकों पर गिर कर दम तोड़ रहे थे, लाशें जलाने के लिए लकड़ियाँ कम पड़ने लगी. अब लाशों को नदी में डाला जाने लगा. इससे नदियाँ भी लाश से भरने लगी थी. ऐसा अनुमान लगाया गया था कि करीब 20 मिलियन लोग अपनी जान गवा चुके थे,
एंडगेम (Endgame)
विक्टर वॉघन आर्मी में डिजीज डिपार्टमेंट के हेड थे. उन्होंने कहा कि अगर वायरस इसी स्पीड से फैलता रहा तो कुछ ही हफ्तों में इस दुनिया से इंसानों का नामोनिशान मिट जाएगा. ये वायरस अब इंसानों के जीवन लिए खतरा बन गया था.
लेकिन सच तो ये है कि कुछ वायरस को जिंदा रहने के लिए इंसानों की ज़रुरत होती है. इसका एक एकजाम्पल है मीज़ल्स, जब एक इंसान एक बार मीजल्स से इन्फेक्ट हो जाता है तो वो हमेशा के लिए उसके प्रति इम्यून हो जाता है यानी उस वायरस का अब उस इंसान के शरीर पर कोई असर नहीं होगा, इसलिए अगर मीज़ल्स के वायरस को इन्फेक्ट करने के लिए कोई इंसान नहीं मिला तो वो अपने आप ही मर जाएगा, एक्सपर्ट्स का का कहना है कि मीज़ल्स को कम से कम आधे मिलियन पापुलेशन की ज़रुरत होती है जिन्हें वैक्सीन नहीं लगाया गया हो और जो वायरस के क्लोज कांटेक्ट में रहते हों ताकि वायरस जिंदा रह सके. शरीर होता है. इसलिए जिंदा रहने के लिए उन्हें इंसानों की ज़रुरत नहीं होती. अगर मगर इन्फ्लुएंजा वायरस इससे बहुत अलग है. उनका घर बर्ड्स का एक भी इंसान जिंदा नहीं बचा तब भी इन्फ्लुएंजा का वायरस जिंदा रहेगा.
19th सेंचुरी में साइंस और टेक्नोलॉजी ने बहुत तरक्की की. लेकिन इंसान इस जानलेवा बीमारी के सामने अब भी असहाय था. स्पैनिश फ्लू को किसी दवाई या वैक्सीन ने खत्म नहीं किया था बल्कि ये नेचुरल प्रोसेस के कारण अपने आप खत्म हुआ था. जो साइंस नहीं कर पाया उसे नेचर ने कर दिखाया. पिछले चैप्टर में हमने पैसेज की बात की थी और जाना था कि कैसे वायरस जब एक नए होस्ट को इन्फेक्ट करता है तो वो पहले से ज़्यादा ताकतवर हो जाता है. महामारी कि शुरुआत एक हलकी फुल्की बीमारी से शुरू होती है जिसे फर्स्ट वेव कहते हैं और बाद में ये भयानाक रूप ले लेती है जिसे सेकंड देव कहते हैं, जब ये महामारी अपने सबसे खतरनाक फेज में होती है तब दो नेचुरल प्रोसेस की शुरुआत होती है. पहला है हमारे बॉडी की इम्युनिटी, जब एक वायरस बड़ी पापुलेशन को इन्फेक्ट कर देता है तो उसग्रुप के लोगों में उसके प्रति इम्युनिटी डेवलप होना शुरू हो जाती है. जो लोग इन्फेक्ट हो चुके,
उनके उसी वायरस से दोबारा इन्फेक्ट होने का चांस बहुत कम हो जाता है. एक टाउन या शहर में पहले केस से आखरी केस तक का टाइम फ्रेम 6-8 हफ्ते तक का होता है.क्योंकि आर्मी कैम्पस में ज्यादा लोग थे, वहाँ बहुत भीड़ थी तो वहाँ ये इस फ्रेम 3-4 हफ्ते का था. जब तक वायरस हर एक को इन्फेक्ट नहीं कर देता और ऐसा करने के बाद जब उसे कोई नया होस्ट नहीं নा है. मिलता तब जाकर वो मरता है.
एक्ज़ाम्पल के लिए, फिलेडेल्फिया में वायरस ने October 9-16 के बीच 4.597 लोगों की जान ली लेकिन उसके बाद बहुत कम लोग बीमार हुए और इसलिए October 26 को सभी पब्लिक जगहों को दोबारा खोल दिया गया.Novemberi को जब जंग खत्म हुई तो ऐसा लगा जैसे वायरस पूरी तरह नष्ट हो गया था. एक भी नया केस नहीं आया था और फिर ये धीरे धीरे खत्म होने लगा,
दूसरा नेचुरल प्रोसेस वो होता है जो वायरस के अंदर होता है. 1918 का ये वायरस बहुत खतरनाक और जानलेवा हो गया था. इसमें बड़ी तेज़ी से म्युटेशन हुआ था. ऐसा कहा जाता है कि जब कोई गंभीर घटना होती है तो उसके बाद होने वाली घटना इतनी गंभीर नहीं होती. तो 1978 ऑटम के मौसम में ये महामारी बेहद खतरनाक मोड़ ले चुकी थी. तो अब यहाँ वायरस का म्युटेशनकम होने लगा और धीरे धीरे खत्म होने लगा.
एज़ाम्पल के लिए, इन्फ्लयून्ज़ा के वायरस ने जिन 5 बड़े आर्मी केम्पस पर पहले अटैक किया था वहाँ 20% जवानों को निमोनिया हुआ था, जिनमें से 37% की मौत हो गई थी. सबसे ज़्यादा मौत ओहायो के कैंप शर्मन में हुई थी जहां 35% जवानों को निमोनिया हुआ था और उनमें से 61% ने दम तोड़ दिया था.
तीन हफ्ते बाद, आखरी 5 कैप पर वायरस ने हमला किया था जिनमें सिर्फ 7.1% जवानों को निमोनिया हुआ था और उनमें से 17.8% की मौत हुई थीं.
इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि एक कैंप के अंदर जिन जवानों को इन्फेक्शन पहले 10 दस दिन में हुआ था उन में से ज़्यादातर लोगों की जान गई थी उन जवानों की तुलना में जिन्हें बाद में इन्फेक्शन हुआ था.
शहरों में भी यही हाल था. फिलेडेल्फिया, बोस्टन, न्यूयॉर्क वो शहर थे जहां वायरस पहले फैला था. पहले दो हफ़्तों में इन सब जगहों में स्थिति बहुत खराब थी. हजारों लोगों की जान चली गई थी. लेकिन बाद मैं डेथ रेट कम होने लगी. ये जनरल रूल है कि महामारी जहां बाद में फैलती है वहाँ कम मौत होती है क्योंकि वायरस अपने एक्सट्रीम पॉइंट पर पहुँच जाता है जहां उसकी म्युटेशन रेट कम हो जाती है.
November 1918 के अंत तक, वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया था. उस समय दुनिया की पापुलेशन 1.8 बिलियन धी. कई स्टडी से पता चला है कि 1918 स्प्रिंग से 1919 गर्मियों के मौसम तक दुनिया की 5% पापुलेशन खत्म हो चुकी थी.
कन्क्लू ज़न (Conclusion)
रॉकफेलर इंस्टिट्यूट, जॉन होपकिंस यूनिवर्सिटी और दुनिया के कई दूसरे इंस्टीट्युशंस नेस्पेनिश प्लू का इलाज खोजने की कोशिश की लेकिन वो सब फेल हो गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने सबसे ज़रूरी बात समझने में भूल की थी और वो थी उस जीव के बारे में जो इस बीमारी का कारण बना था. ज़्यादातर डॉक्टर इस बात से सहमत थे कि स्पेनिश पलू बी. इन्फलुएन्ज़ा या बेसिलस इन्यलुएंजा के कारण होता है. लेकिन चो सबगलत थे. तो हम इस महामारी से क्या सबक सीख सकते हैं? पहला कि ऐसे सिचुएशन में गवर्नमेंट एक बहुत इम्पोर्टेन्ट रोल निभाती है. नेशनल और लोकल लीडर्स को लोगों को अवेयर करने के लिए और सही इनफार्मेशन लोगों तक पहुंचाने के लिए कदम उठाना चाहिए.
लोगों को इस बीमारी के बारे में पता होना चाहिए. उन्हें मालूम होना चाहिए कि ये किस वजह से होता है और इससे कैसे बचा जा सकता है.गवर्नमेंट को पब्लिक हेल्थ रूल्स को लागू करना चाहिए जो वायरस को फैलने से रोक क सके.
distance 1918 में आर्मी कैम्पस में सोशल dlistancing फॉलो नहीं किया गया था. वहाँ बहुत भीड़ थी और साफ़ सफाई भी इतनी नहीं धथी, जवानों को एक जगह से दूसरे जगह ले जाया जाता था. इन सब की वजह से इन्फ्लुएंजा का वायरस इतनी तेज़ी से फ़ैल रहा था. दूसरा, इसमें लोगों की भी बहुत अहम् भूमिका होती है. हमें हेल्थ डिपार्टमेंट और गवर्नमेंट के गाइडलाइन्स को फॉलो करना चाहिए. लॉकडाउन, सोशल डिसटनसिंग, मास्क और gloves पहनना, बार बार हाथ धोना ही इस महामारी के खिलाफ़ सबसे बड़ा बचाव है, अगर लोगों के बीच में काटेक्ट कोकंट्रोल किया जाता है और हाइजीन का पूरा ध्यान रखा जाता है तो इस वायरस को कुछ हद तक हराया जा सकता है, जब वायरस को इन्फेक्ट करने केलिए नया होस्ट नहीं मिलेगा तब वो अपने आप मरने लगेगा. हमें डर को खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए. हम साइंस और एजुकेशन की मदद से वायरस से लड़ सकते हैं.महामारी नेचर का वो सच है जिसे टाला नहीं जा सकता. वो समय समय पर होते रहेंगे. लेकिन हमारे पास अपने देश और अपनों की रक्षा करने का पॉवर ज़रूर है.