SUBHAAGI by Munshi premchand.

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और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी

लड़की सुभागी को लड़के रामू से थोड़ा भी कम प्यार न

करते थे। रामू जवान होकर भी बेवकूफ था। सुभागी ग्यारह

साल की बच्ची होकर भी घर के काम में इतनी चतुर, और

खेती-बाड़ी के काम में इतनी समझदार थी कि उसकी माँ

लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बच्चो से भगवान को भी तो प्यार है। कोई सुभागी की बड़ाई न करे, इसलिए वह बिना बात के ही उसे डाँटती रहती थी। बड़ाई से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह डर तो न था, डर था नजर का ! वही सुभागी आज ग्यारह साल की उम्र में विधवा हो गयी। घर में रोना मचा हुआ था। लक्ष्मी रो-रो कर परेशान थी। तुलसी अलग से दुःख से मरे जा रहे थे। सिर पीटते थे। उन्हें रोता देखकर सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती, क्यों रोती हो अम्माँ, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यों रोती हो ? उसकी मासूम बातें सुनकर माँ का दिल और भी फटा जाता था। वह सोचती थी भगवान तुम्हारा यही खेल है! जो खेल खेलते हो, वह दूसरों को दु:ख देकर। ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे तो उसे पागलखाने भेजते हैं, मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसकी कोई सजा नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोयें और तुम हँसो। तुम्हें तो लोग दया करने वाला कहते हैं।

यही तुम्हारी दया है !

और सुभागी क्या सोच रही थी ? उसके पास बहुत सारे रुपये होते, तो वह उन्हें छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके

से बाजार चली जाती और अम्माँ के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाती, दादा जब कुछ माँगने आते, तो तुरंत रुपये निकालकर दे देती, अम्माँ-दादा कितने खुश होते। जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर जोर डालने

लगे कि, लड़की की शादी कहीं कर दो। जवान लड़की का

ऐसे घूमना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई

बुराई नहीं है, तो क्यों परेशान होते हो ? तुलसी ने कहा- “भाई मैं तो तैयार हूँ, लेकिन जब सुभागी भी माने। वह किसी तरह तैयार नहीं होती।”

हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- “बेटी, हम तेरे ही भले के लिए कहते हैं। माँ-बाप अब बूढ़े हुए, उनका क्या भरोसा। तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी ?”

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा- “चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ, लेकिन मेरा मन शादी करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिंता नहीं है। मैं सब कुछ सहने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह मेहनत से करूँगी, मगर शादी करने को मुझसे न कहो। जब मेरी कोई गलती देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर मैं सच्चे बाप की बेटी हूँगी, तो बात की भी पक्की हूँगी। फिर इज़्ज़त रखने वाले तो भगवान हैं, मेरी क्या

हस्ती कि अभी कुछ कहूँ। उजड्ड रामू बोला – “तुम अगर सोचती हो कि भैया कमाएंगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस सहारे न रहना। यहाँ किसी ने जनम भर का ठेका नहीं लिया है।”

रामू की दुल्हन रामू से भी दो ऊँगली ऊँची थी। मटककर बोली- “हमने किसी का पैसा थोड़े ही खाया कि जनम भर बैठे भरा करें। यहाँ तो खाने को भी अच्छा चाहिए, पहनने को भी अच्छा चाहिए, यह हमारे बस की बात नहीं।”

सुभागी ने गर्व से भरी आवाज में कहा- “भाभी, मैंने तुम्हारा सहारा कभी नहीं लिया और भगवान ने चाहा तो कभी चाहूंगी भी नहीं। तुम अपनी देखो, मेरी चिंता न करो।”

रामू की पत्नी को जब मालूम हो गया कि सुभागी शादी न करेगी, तो और भी उससे लड़ने लग गयी। हमेशा एक-न-एक शिकायत लगाये रहती। उसे रुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह बेचारी देर रात से ही उठकर कूटने-पीसने में लग जाती, चौका-बरतन करती, गोबर पाथती। फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात को कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसके हाथ -पैर दबाती। तुलसी को चिलम की आदत थी। उन्हें बार-बार चिलम पिलाती। जहाँ तक कोशिश होती, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, यह तो जवान आदमी हैं, यह काम न करेंगे तो घर कैसे चलेगा।

मगर रामू को यह बुरा लगता। अम्मा और दादा को कुछ नहीं करने देती और चाहती है कि मैं सारा दिन काम करू यहाँ तक कि एक दिन वह लड़ने को तैयार हो गया । सुभागी से बोला- “अगर उन लोगों का बड़ा प्यार है तो क्यों नहीं अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो पता चले कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर बड़ाई लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने दम पर काम करे”।

सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का डर था। पर उसके माँ-बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले- “क्या है रामू, उस बेचारी से क्यों लड़ते हो ? रामू पास आकर बोला- “तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसे कहता था।”

तुलसी- “जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे बाद जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर

दिया।”

रामू- “आपको बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले से लगा कर रखिए। मुझसे तो नहीं सहा जाता।” तुलसी- “अच्छी बात है। अगर तुम्हारी यह मर्जी है, तो यही होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूँगा। तुम चाहे अलग हो जाओ, सुभागी दूर नहीं हो सकती।”

और लोगों के यहाँ चाहे जो होता हो, तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी को लड़के रामू से थोड़ा भी कम प्यार न करते थे। रामू जवान होकर भी बेवकूफ था। सुभागी ग्यारह साल की बच्ची होकर भी घर के काम में इतनी चतुर, और खेती-बाड़ी के काम में इतनी समझदार थी कि उसकी माँ लक्ष्मी दिल में डरती रहती कि कहीं लड़की पर देवताओं की आँख न पड़ जाय। अच्छे बच्चो से भगवान को भी तो प्यार है। कोई सुभागी की बड़ाई न करे, इसलिए वह बिना बात के ही उसे डाँटती रहती थी। बड़ाई से लड़के बिगड़ जाते हैं, यह डर तो न था, डर था – नजर का! वही सुभागी आज ग्यारह

साल की उम्र में उम्र में विधवा हो ग गयी।

घर में रोना मचा हुआ था। लक्ष्मी रो-रो कर परेशान थी तुलसी अलग से दुःख से मरे जा रहे थे। सिर पीटते थे। उन्हें रोता देखकर सुभागी भी रोती थी। बार-बार माँ से पूछती, क्यों रोती हो अम्माँ, मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी, तुम क्यों रोली हो ? उसकी मासूम बातें सुनकर माँ का दिल और भी फटा थी भगवान तुम्हारा यही खेल है! जो खेल खेलते हो, वह दूसरों को दुःख देकर। ऐसा तो पागल करते हैं। आदमी पागलपन करे तो उसे पागलखाने भेजते हैं, मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसकी कोई सजा नहीं। ऐसा खेल किस काम का कि दूसरे रोयें और तुम हँसो। तुम्हें तो लोग

जाता था। वह सोचती थी भगवान

हते हैं। दया करने वाला कहते हैं। यही तुम्हारी दया है।

और सुभागी क्या सोच रही थी? उसके पास बहुत सारे रुपये होते, तो वह उन्हें छिपाकर रख देती। फिर एक दिन चुपके से बाजार चली जाती और अम्मां के लिए अच्छे- -अच्छे कपड़े लाती, दादा जब कुछ माँगने आते, तो तुरंत रुपये निकालकर दे देती, अग्मा-दादा कितने खुश होते।

जब सुभागी जवान हुई तो लोग तुलसी महतो पर जोर डालने लगे कि, लड़की की शादी कहीं कर दो। जवान लड़की का ऐसे घूमना ठीक नहीं। जब हमारी बिरादरी में इसकी कोई बुराई नहीं है, तो क्यों परेशान होते हो ?

तुलसी ने कहा- “भाई मैं तो तैयार हूँ, लेकिन जब सुभागी भी माने। वह किसी तरह तैयार नहीं होती। हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- “बेटी, हम तेरे ही के लिए कहते हैं। माँ-बाप अब बूढ़े हुए, उनका क्या भरोसा तुम इस तरह कब तक बैठी रहोगी?

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा- “चाचा, मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ, लेकिन मेरा मन शादी करने को नहीं कहता। मुझे आराम की चिंता नहीं है। मैं सब कुछ सहने को तैयार हूँ। और जो काम तुम कहो, वह मेहनत से करगी, मगर शादी करने को मुझसे न कहो। जब मेरी कोई गलती देखना तो मेरा सिर काट लेना। अगर में सच्चे बाप की बेटी हूँगी, तो बात की भी पक्की हूँगी। फिर इज्जत रखने वाले तो भगवान हैं, मेरी क्या हस्ती कि अभी कुछ कहूँ।” उजड्ड रामू बोला – “तुम अगर सोचती हो कि भैया कमाएंगे और में बेठी मौज करूँगी, तो इस सहारे न रहना। यहाँ किसी ने जनम भर का ठेका नहीं

है।

रामू की दुल्हन रामू से भी दो उंगली ऊँची थी। मटक कर बोली- “हमने किसी का पैसा थोड़े ही खाया कि जनम भर बैठे भरा करें। यहाँ तो खाने को भी अच्छा चाहिए, पहनने को भी अच्छा चाहिए, यह हमारे बस की बात नहीं।

सुभागी ने गर्व से भरी आवाज में कहा- “भाभी, मैंने तुम्हारा सहारा कभी नहीं लिया और भगवान ने चाहा तो कभी चाहूगी भी नहीं। तुम अपनी देखो,

मेरी चिंता न करो।”

रामू की पत्नी को जब मालूम हो गया कि सुभागी शादी न करेगी, तो और भी उससे लड़ने लग गयी। हमेशा एक-न-एक शिकायत लगाये रहती। उसे रुलाने में जैसे उसको मजा आता था। वह बेचारी देर रात से ही उठकर कुटने-पीसने में लग जाती, चौका-बरतन करती, गोबर पाथती। फिर खेत में काम करने चली जाती। दोपहर को आकर जल्दी-जल्दी खाना पकाकर सबको खिलाती। रात को कभी माँ के सिर में तेल डालती, कभी उसके हाथ -पैर

दबाती। तुलसी को चिलम की आदत थी। उन्हें बार-बार चिलम पिलाती। जहाँ तक कोशिश होती, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती, यह तो जवान आदमी है, यह काम न करेंगे तो धर कैसे चलेगा। – मगर रामू बुरा लगता। अम्मा और र दादा को कुछ नहीं करने देती और चाहती है कि मैं सारा दिन काम करू। यहाँ तक कि एक दिन वह लड़ने

को तैयार हो गया। सुभागी से बोला- “अगर उन लोगों बड़ा प्यार है, तो क्यों नहीं अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो पता चले कि सेवा कड़वी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर बड़ाई लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने दम पर काम करे”। सुभागी ने तो कुछ जवाब न दिया। बात बढ़ जाने का डर था। पर उसके माँ-बाप बैठे सुन रहे थे। महतो से न रहा गया। बोले- क्या है राम, उस बेचारी से

क्यों लड़ते हो?”

रामू पास आकर बोला- “तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसे कहता था।” तुलसी- “जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम उसे कुछ नहीं कह सकते । मेरे बाद जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया।

रामू- “आपको बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले से लगा कर रखिए। मुझसे तो नहीं सहा जाता।” तुलसी- “अच्छी बात है। अगर तुम्हारी यह मर्जी है, तो यही होगा। मैं कल गाँव के आदमियों को बुलाकर बँटवारा कर दूँगा। तुम चाहे अलग हो जाओ, सुभागी दूर नहीं हो सकती।”

रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्म की खुशी में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक पैसा न खर्च किया। बेटे को रत्न समझा और बेटी को पिछले जनम के पापों कि सजा। वह रत्न कितना बेकार निकला

और यह सजा कितनी अच्छी।

दूसरे दिन महतो ने गाँव के आदमियों को बुला कर कहा- “पंचो, अब रामू का और मेरा एक घर में गुजारा नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ से जो कुछ मुझे दे दो, यह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की लड़ाई अच्छी नहीं।”

गाँव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े अच्छे आदमी थे। उन्होंने रामू को बुलाकर पूछा- “क्यों जी, तुम अपने बाप से अलग रहना चाहते हो ? तुम्हें शर्म नहीं

आती कि औरत के कहने से माँ-बाप को अलग किये देते हो ? राम राम !” रामू ने बेशर्मी के साथ कहा-“जब एक साथ रहने में लड़ाई हो, तो अलग हो जाना ही अच्छा है।”

सजनसिंह 5- “तुम्हें एक में क्या तकलीफ होती है ?

रामू – “एक बात हो तो बताऊँ।” सजनसिंह तो बतलाओ।”

“कुछ

रामू- -“साहब, एक में मेरा इनके एक में मेरा उनके साथ गुजरा नहीं होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।”

यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना।

तुलसी -” देख लिया आप लोगों ने इसका गुस्सा! आप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे ें, पर अब मैं इस पापी के साथ न रहूँगा। भगवान ने बेटी को दुःख दे दिया, नहीं मुझे खेती-बारी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता वहीं कमाता खाता भगवान ऐसा बेटा किसी दुश्मन को भी न दें। लड़के से

लड़की भली, जो समझदार हो।” अचानक सुभागी आकर बोली

“दादा, यह सब हिस्सा बाँटना मेरी वजह से तो हो रहा है. भुझे व्यों नहीं देते। मैं मेहनत-मजदूरी करके अपना

अलग कर

पेट पाल लगी। मुझ से जो कुछ । बन पड़ेगा, तुम्हारी सेवा करती रहूँगी, पर रहूँगी अलग। इस तरह घर का बंटवारा होते मुझसे नहीं देखा जाता। मैं अपने माथे पर यह दाग नहीं लेना चाहती।

तुलसी ने कहा- “बेटी, हम तुझे न छोड़ेंगे चाहे दुनिया छूट जाय रामू का में मुँह नहीं देखना चाहता, उसके साथ रहना तो दूर रहा। रामू की पत्नी बोली- “तुम किसी का मुँह नहीं देखना चाहते, तो हम भी तुम्हारी पूजा करने को बेचैन नहीं हैं। महतो गुस्से में उठे कि बहू को मारें, मगर लोगों ने पकड़ लिया।

बँटवारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानों पेंशन मिल गयी। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ-न-कुछ करते ही रहते थे, पर अब उन्हें पूरा आराम था। पहले दोनों दूध-धी को तरसते थे। सुभागी ने कुछ रुपये बचाकर एक भैंस ले ली। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका खाना है। अच्छा खाना न मिले तो वे जीवन कैसे जियें। चौधरी ने बहुत विरोध किया। कहने लगे, घर का काम पहले ही क्या कम है कि तू यह नई मुसीबत पाल रही है। सुभागी उन्हें मनाने के लिए कहती “दादा, दूध के बिना मुझे खाना अच्छा नहीं लगता।” लक्ष्मी ने हँसकर कहा- “बेटी, तू झूठ कब से बोलने लगी। कभी दूध को हाथ तक तो लगाती नहीं, खाने की कौन कहे। सारा दूध हम लोगों के पेट में

उतार देती है।”

गाँव में जहाँ देखो सबके मुँह से सुभागी की तारीफ। लड़की नहीं देवी है। दो आदमी के बराबर का काम करती है, उस पर माँ-बाप की सेवा भी किये

जाती है। सजनसिंह तो कहते, यह उस जन्म की देवी है। मगर शायद महतो को यह सुख बहुत दिन तक भोगना न लिखा था।

सात-आठ दिन से महतो को जोर का बुखार चढा हुआ था। शरीर पर एक कपड़ा नहीं रहने देते। लक्ष्मी पास बैठी रो रही थी। सभागी पानी लिये खड़ी में

है। अभी कुछ देर पहले महतो ने पानी माँगा था, पर जब तक वह पानी लेकर आई, उनकी हालत बिगड़ गयी और हाथ-पाँव ठंडे हो गये। सुभागी उनकी हालत देखते ही राम के धर गयी और बोली- “भैया, चलो, देखो आज दादा न जाने कैसे हुए जाते हैं। सात दिन से बुखार नहीं उतरा।” रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा- तो क्या मैं डावटर-हकीम हूँ कि देखने चलेँ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उनके गले का हार बनी हुई थीं। अब

जब मरने लगे तो मुझे बुलाने आयी हो!”

पत्नी अंदर से निकल आयी और सुभागी से पूछा- “दादा को क्या हुआ है दीदी ?” उसी वक्त उसकी ।

सुभागी के पहले रामू बोल उठा- “हुआ क्या है, अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं। सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा, सीधे सजनसिंह के पास गयी। उसके जाने के बाद रामू हँसकर पत्नी से बोला -“चालाकी इसी को कहते हैं।”

पत्नी – “इसमें चालाकी की कौन बात है ? चले क्यों नहीं जाते ?”

रामू “मैं नहीं जाने वाला । जैसे उसे लेकर अलग हुए थे, वैसे उसे लेकर रहें। मर भी जायें तो न जाऊँ।” पत्नी- “मर जायेंगे तो आग देने तो जाओगे, तब कहाँ भागोगे?”

रामू – “कभी नहीं ? सब कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी।” पत्नी “तुम्हारे रहते वह क्यों करने लगी !”

रामू – “जैसे मेरे रहते उसे लेकर अलग हुए और कैसे !”

पत्नी “नहीं जी, यह अच्छी बात नहीं है। चलो देख आें। कुछ भी हो, बाप ही तो हैं। फिर गाँव में कौन सा मुँह दिखाओगे ?”

रामू – “चुप रहो, मुझे सिखाओ मत।”

उधर बाबू साहब ने जैसे ही महतो की हालत सुनी, तुरत सुभागी के साथ भागे चले आये। यहाँ पहुँचे तो महतो की हालत और खराब हो चुकी थी। नाड़ी देखी तो बहुत कम थी। समझ गये कि जिंदगी के दिन पूरे हो गये। मौत का डर छाया हुआ था। पानी भरी आँखों से बोले – “महतो भाई, कैसा जी है ?

महतो जैसे नींद से जागकर बोले- “बहुत अच्छा है भैया! अब तो चलने का वक्त है। सुभागी के पिता अब तुम्हीं हो। तुम्हीं को उसकी जिम्मेदारी देता हूँ। सजनसिंह मे रोले कहा-“भैया महतो, घबराओ मत, भगवान ने चाहा तो तुम अच्छे हो जाओगे। सुभागी को तो मैंने हमेशा अपनी बेटी समझा है और जब तक जिऊँगा। ऐसा ही समझता रहँगा। तुम चिंता ना करो। मेरे रहते सुभागी या लक्ष्मी का कोई बुरा नहीं कर सकेगा। और कुछ मन में हो तो वह भी

कह दो।”

महतो ने प्यार भरी आँखों से देखकर कहा- “और कुछ नहीं कहूँगा भैया। भगवान तुम्हें हमेशा सुखी रखे।” सजनसिंह “रामू को बुलाकर लाता हूँ। उससे जो गलती हो माफ़ कर दो।”

महतो – “नहीं भैया। उस पापी हत्यारे का मुंह में नहीं देखना चाहता।”

इसके बाद गाय के दान की तैयारी होने लगी।

रामू को गाँव भर ने समझाया, पर वह संस्कार करने पर राजी न हुआ। कहा, “जिस पिता ने मरते समय मेरा मुँह देखना नहीं चाहा, वह मेरा न पिता है, न

मैं उसका बेटा हूँ।”

लक्ष्मी ने आग दी। इन थोड़े दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा कर लिये थे कि जहा तेरहवी का सामान आने लगा तो गाँव वाले हैरान रह गए । बरतन, कपड़े, घी, शक्कर, सभी सामान बहुत सारा इकट्ठा हो गया। रामू देख-देख जलता था। और सुभागी उसे जलाने के लिए सबको यह सामान

दिखाती थी।

लक्ष्मी ने कहा- “बेटी, घर देखकर खर्च करो। अब कोई कमाने वाला नहीं बैठा है, खुद ही कमाना और खर्चा चलाना है।” सुभा बोली- “बाबूजी का काम तो धूम-धाम से ही होगा अम्मों, चाहे धर रहे या जाय। बाबूजी फिर थोड़े ही आवेगे। मैं भैया को दिखा देना चाहती

कि एक कमजोर क्या कर सकती है। वह समझते होंगे इन दोनों के किये कुछ न होगा। उनका यह घमंड तोड़ दूंगी।” सजनसिंह -“तुमसे तो मैं माँगता नहीं। महतो मेरे दोस्त और भाई थे। उनके साथ कुछ मेरा भी तो धर्म है।”

लक्ष्मी । हो गयी। तेरहवी के दिन आठ गाँव के ब्राह्मणों का खाना हुआ। चारों तरफ वाह-वाही मच गयी। पिछले पहर का समय धा: लोग खाना खा कर चले गये थे। लक्ष्मी थक कर सो गयी थी। सिर्फ सुभागी बची हुई चीजें उठा-उठाकर रख रही थी

ठाकुर सज्जन सिंह आकर कहा- “अब तुम आराम करो बेटी सबेरे यह सब काम कर लेना।” सुभागी ने कहा- “अभी थकी नहीं हूँ दादा। आपने जोड़ लिया कुल कितने रुपये खर्च हुए ?”

सजनसिंह – “वह पूछकर क्या करोगी बेटी ?”

सुभागी “कुछ नहीं यो ही पूछती थी।”

सजनसिंह -“कोई तीन सौ रुपये खर्च ये खर्च हुए होंगे।” “सुभागी ने सकुचाते हुए कहा- मैं इन रुपयों को दूंगी।”

सुभागी – आपकी यही दया क्या कम है कि मेरे ऊपर इतना विश्वास किया, मुझे कौन 300/- देता ? सजनसिंह सोचने लगे। इस औरत की धर्म-बुद्धि का कहीं जवाब भी है या नहीं।

लक्ष्मी उन औरतो में थी जिनके लिए पति का दुःख जीवन जीना कि वजह खत्म हो जाना है। पचास साल के साथ के बाद अब यह अकेला जीवन उसके लिए काटना मुश्किल हो गया। उसे अब महसूस हुआ कि मेरी बुद्धि, मेरी हिम्मत, मेरी होशियारी मानी सब खत्म हो गए। उसने कितनी बार भगवान से माँगा कि, मुझे पति के सामने उठा लेना, मगर उसने यह बात नहीं मानी। मौत पर अपना बसा नहीं, तो क्या जीवन पर भी

बस नहीं है ?

वह लक्ष्मी जो गाँव में अपनी बुद्धि के लिए जानी जाती थी, जो दूसरे को समझाया करती थी, अब पागल हो गयी है। सीधी-सी बात करते नहीं बनती। लक्ष्मी का खाना पीना उसी दिन से छूट गया। सुभागी के कहने पर चौके में जाती, मगर टुकड़ा गले के नीचे न उतरता। पचास साल हुए एक दिन भी

ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाये खुद खाया हो। अब उस नियम को कैसे तोड़े ? आखिर उसे खाँसी आने लगी। कमजोरी ने जल्द ही खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे! ठाकुर साहब के रुपये देने के लिए मन लगा कर मेहनत से काम करने की जरूरत थी। यहाँ माँ बीमार पड़ गयी। अगर बाहर जाय तो माँ अकेली पड़ जाती । उनके पास बैठे तो बाहर का काम कौन करे। माँ की हालत देखकर सुभागी समझ गयी कि इनका समय भी आ पहुँचा। महतो को भी तो यही बुखार था।

गाँव में और किसे लगी थी कि दौड़-भाग करता। सजनसिंह दोनों वक्त आते, लक्ष्मी को देखते, दवा पिलाते, सुभागी को समझाते, और चले जाते; मगर लक्ष्मी की हालत बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि पंद्रहवें दिन वह भी दुनिया से चली गयी। आखिरी समय पर रामू आया और उसके पैर छूना चाहता था, पर लक्ष्मी ने उसे ऐसी डाँट लगाई कि वह उसके पास न जा सका। सुभागी को उसने आशीर्वाद दिया, “तुम्हारे-जैसी बेटी पाकर मैं धन्य हो गयी। मेरा क्रिया-कर्म तुम्हीं करना। मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि उस जन्म में भी तुम मेरी कोख से जनम लो।”

माँ के मरने के बाद सुभागी के जीवन का सिर्फ एक लक्ष्य रह गया सजनसिंह के रूपये देना। 300/- पिता के क्रिया-कर्म में लगे थे। लगभग 200/- माँ के काम में लगे। 500/- का कर्जा था और वह अकेली! मगर वह हिम्मत न हारती थी। तीन साल लक सुभागी ने रात को रात और दिन को दिन i en atz ane न समझा। उसकी मेहनत और ताकत देखकर लोग हैरान होते थे। दिन भर खेती-बाड़ी का काम करने के बाद वह रात को चार-चार पसेरी आटा पीस डालती। तीसरे दिन 15/- लेकर वह सजनसिंह के पास पहुँच जाती। इसमें कभी देरी नहीं होती। यह मानो प्रकृति का पक्का नियम था। अब चारों ओर से उसकी र सगाई के न्योते आने लगे। सभी उसके लिए उम्मीद लगाए हुए थे। जिसके घर सुभागी जायगी, उसके भाग्य बदल जायेंगे।

सुभागी यही जवाब देती, “अभी वह दिन नहीं आया।”

जिस दिन सुभागी ने आखिरी किस्त चुकाई, उस दिन वह बहुत खुश धी। आज उसके जीवन का कठोर व्रत पूरा हो गया। वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा- बेटी, तुमसे एक प्रार्थना है। कहो तो कहूँ, कहो न कहूँ, मगर वादा करो कि मानोगी।”

सुभागी ने एहसान के भाव से देखकर कहा- “दादा, आपकी बात न मानूँगी तो किसकी बात मानूँगी। मेरा तो बाल बाल आपका गुलाम है।” सजनसिंह -“अगर तुम्हारे मन में यह भाव है, तो मैं न कहूँगा। मैंने अब तक तुमसे इसलिए नहीं कहा, कि तुम खुद मेरा कर्जदार समझ रही थीं। अब । मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नहीं है, थोड़ा भी नहीं। बोलो कहूँ ?”

रुपये पूरे गये। सुभागी “जो आप कहे।

सजनसिंह- “देखो मना नहीं करना, नहीं तो मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखाऊँगा।”

सुभागी- “क्या हुकुम है

सजनसिंह- “मेरी इच्छा है कि तुम मेरी बहू बनकर मेरे घर को धन्य करो। में जात-पाँत को मानता हूँ, मगर तुमने मेरे सारे वहम दूर कर दिए । मेरा लड़का तुम्हे बहुत मानता है। तुमने भी उसे देखा है। बोलो, हाँ करती हो ?”

सुभागी- “दादा, इतना मान पाकर पागल हो जाऊँगी।”

सजनसिंह- “तुम्हारा मान भगवान कर रहे हैं बेटी तुम बिलकुल देवी का रूप हो।” सुभागी – “मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ। आप जो कुछ करेंगे, मेरे अच्छे ही के लिए करेंगे। आपके हुक्म को कैसे मना कर सकती हूँ।

सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा- “बेटी, तुम्हारे पति कि लम्बी उम्र हो। तुमने मेरी बात रख ली। मुझ-सा भाग्यशाली दुनियाँ में और कौन होगा?”

सीख -इस कहानी में मुंशीजी ने दिखाया है कि ज्यादातर माँ-बाप लड़के और लड़की में फर्क समझते है। उन्हें लगता है कि बेटा बुढ़ापे का सहारा होता उसी बेटे को माँ – बाप बुढ़ापे में बोझ लगने लगते है। कहानी में सुभागी रात-दिन मेहनत करके अपने बूढ़े माता-पिता की जी-जान से सेवा करती है.

है, और बेटी सिर्फ बोझ।

यहाँ तक कि उनके लिए कर्ज़ में लिए गए रूपए को कड़ी मेहनत के द्वारा चुका भी देती है. इससे हमारे समाज को एक नई दिशा दिखाने की कोशिश की

गई है.

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