मीर दिलादूल्हा अली के पास एक बड़ी रास का कुम्मैत घोड़ा था। कहते तो वह यही थे कि मैंने अपनी जिन्दगी की आधी कमाई इस पर खर्च की है, पर असल में उन्होंने इसे फौज से सस्ते दामों मोल लिया था। यों कहिए कि यह फौज का निकाला हुआ घोड़ा था। शायद फौज के अधिकारियों ने इसे अपने यहाँ रखना सही न समझ कर नीलाम कर दिया था। मीर साहब अदालत में मोहर्रिर (अदालत में जो लिखने का काम करते हैं) थे। शहर के बाहर मकान था। अदालत तक आने में तीन मील का रास्ता तय करना पड़ता था, एक जानवर की जरूरत थी। यह घोड़ा आसानी से मिल गया, ले लिया। पिछले तीन सालों से वह मीर साहब की ही सवारी में था देखने में तो उसमें कोई बुराई न थी, पर शायद आत्म-सम्मान कुछ ज्यादा ही था। उसे उसकी इच्छा के खिलाफ या शर्मिंदा करने वाले काम में लगाना मुश्किल था। खैर, मीर साहब ने सस्ते दामों में कलाँ रास का घोड़ा पाया, तो फूले न समाये। ला कर दरवाजे पर बाँध दिया। घोड़े का ध्यान रखने वाले का इंतजाम करना मुश्किल था। देचारे खुद ही शाम-सबेरे उस पर दो-चार हाथ फेर लेते थे। शायद घोड़ा इस सम्मान से खुश होता था। इसी कारण रोज का खाना बहुत कम होने पर भी वह असंतुष्ट नहीं जान पड़ता था। उसे मीर साहब से कुछ सहानुभूति हो गयी थी। इस वफादारी में उसका शरीर बहुत पतला हो चुका था; पर वह मीर साहब को ठीक समय पर खुशी से अदालत पहुँचा दिया करता था। उसकी चाल उसके अंदर के संतोष को दिखाती थी।
दौड़ना वह अपनी स्वाभाविक गम्भीरता के खिलाफ समझता था, ये उसकी नजर में मनमानी थी। अपने मालिक के प्रति वफादारी में उसने अपने कितने ही लम्बे समय से रहे हक का बलिदान कर दिया था। अब अगर किसी हक से प्यार था तो वह रविवार के दिन घर पर रहना था। मीर साहब रविवार को अदालत न जाते थे। घोड़े को मलते, नहलाते थे। इसमें उसे बहुत खुशी मिलती। वहाँ अदालत में पेड़ के नीचे बँधे हुए सूखी घास पर मुँह मारना पड़ता था, लू से सारा शरीर झुलस जाता था; कहाँ इस दिन छप्परों की शीतल छाँव में हरी-हरी दूब खाने को मिलती थी।
इसलिए रविवार को आराम करना चाह अपना हक समझता था और मुमकिंन न था कि कोई उसका यह हक छीन सके। मीर साहब ने कभी-कभी बाजार जाने के लिए इस दिन उस पर सवार होने की कोशिश की, पर इस कोशिश में बुरी तरह मुँह की खायी । घोड़े ने मुँह में लगाम तक न ली। आखिर में मीर साहब ने अपनी हार मान ली। वह उसके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचा कर अपनी जान को जोखिम में न डालना चाहते थे। मीर साहब के पड़ोस में एक मुंशी सौदागरलाल रहते थे। उनका भी अदालत से कुछ रिश्ता था। वह मुहर्रिर न थे, कर्मचारी भी न थे। उन्हें किसी ने कभी कुछ लिखते-पढ़ते न देखा था। पर उनका वकीलों और मुख्तारों के समाज में बड़ा मान था। मीर साहब से उनकी बड़ी दोस्ती थी।
जेठ का महीना था। बारातों की धूम धी। बाजे वाले सीधे मुँह बात न करते थे। पटाखे वाले के दरवाजे पर जरूरतमंद लोग चर्खी की तरह चक्कर लगाते थे। नाचने वाले लोगों को उँगलियों पर नचाते थे। पालकी उठाने वाले लोग पत्थर के देवता बने हुए थे, तोहफे ले कर भी न पसीजते थे। इसी सब लोगों की धूम में मुशीजी ने भी लड़के की शादी तय दी। दबाववाले आदमी थे। धीरे-धीरे बारात का सब सामान जुटा तो लिया, पर पालकी का इंतज़ाम न कर सके। पालकी उठाने वालों ने ऐन समय पर एडवांस लौटा दिया। मुशी जी
बहुत गुस्सा हुए, हरजाने की धमकी दी, पर कुछ फल न हुआ। मजबूर होकर यही तय किया कि दूल्हे को घोड़े पर बिठा कर बारात की रस्म पूरी कर ली जाय। छह बजे शाम को बारात चलने का मुहूर्त था। चार बजे मुशी ने आकर मीर साहब से कहा- “यार अपना घोड़ा दे दो, दूल्हे को स्टेशन तक पहुँचा दें।
पालकी तो कहीं मिलती नहीं मीरा साहब- “आपको मालूम नहीं, आज रविवार का दिन है।”
मुंशी जी- “मालूम क्यों नहीं है, पर आखिर घोड़ा ही तो ठहरा। किसी न किसी तरह स्टेशन तक पहुँचा ही देगा। कौन सा दूर जाना है ?”
मौरसाहब- “ऐसे तो आपका जानवर है, ले जाइए। पर मुझे उम्मीद नहीं कि आज वह खुद पर हाथ तक रखने दे। मुंशी जी- “अजी मार के आगे भूत भागता है। आप डरते हैं। इसलिए आप से बदमाशी करता है। बच्चा पीठ पर बैठ जाएगा तो कितना ही उछले-कूदे पर
उन्हें हिला न सकेगा।”
मीरसाहब- “अच्छी बात है, जाइए और अगर उसकी यह जिद आप लोगों ने तोड़ दी, तो में आपका बड़ा एहसान मानँगा।”
मगर जैसे ही मुंशी जी अस्तबल में पहुँचे, घोड़े ने शक भरी नजरों से देखा और एक बार हिनहिना कर कहा कि तुम आज मेरी शांति में खलल डालने वाले कौन होते हो। बाजे की धड़-धड़, पों-पों से वह बेचैन हो रहा था। मुंशी जी ने जब रस्सी को खोलना शुरू किया तो उसने कान खड़े किए और घमंड
से हरी-हरी घास खाने लगा।
लेकिन मुशी जी भी चालाक खिलाड़ी थे। तुरंत घर से थोड़ा-सा दाना मँगवाया और घोड़े के सामने रख दिया। घोड़े ने इथर बहुत दिनों से दाने की सूरत न देखी थी! बड़ी रुचि से खाने लगा और तब एहसानमंद नजरों से मुंशी जी की ओर ताका, मानो अनुमति दी कि मुझे आपके साथ चलने में कोई परेशानी
नहीं है।
मुंशी जी के दरवाजे पर बाजे बज रहे थे। दूल्हा गहने कपड़े पहने हुए घोड़े का इंतजार कर रहा था। मुहल्ले की औरतें उसे विदा करने के लिए आरती लिये खड़ी थीं। पाँच बज गये थे। अचानक मुंशी जी घोड़ा लाते हुए दिखायी दिये। बाजे वालों ने आगे की तरफ कदम बढ़ाया। एक आदमी मीर साहब के
घर से दौड़ कर सामान लाया। घोड़े को
को खींचने की ठहरी, मगर वह लगाम देख कर मुँह फेर लेता था। मुंशी जी ने चुमकारा-पुचकारा, पीठ सहलायी, फिर दाना दिखलाया। पर धोड़े ने न खोला, तब उन्हें गुस्सा आ गया। ताबड़तोड़ कई चाबुक लगाये। घोड़े ने जब अब भी मुँह में लगाम न ली, तो उन्होंने उसके नथनों पर चाबुक मुह तक
बैंत से कई बार मारा। नथनों से खून निकलने लगा। घोड़े ने इधर-उधर दुखी और मजबूर आँखों से देखा। गंभीर समस्या थी। इतनी मार उसने कभी न der खाई थी। मीर साहब की अपनी चीज थी। वो इतनी बेदर्दी से कभी पेश न आते थे। सोचा मुँह नहीं खोलता तो नहीं मालूम और कितनी मार पड़े। उसने मीर য न लगाम ले ली। फिर क्या था, मुंशी जी की जीत हो गयी। उन्होंने तुरंत जीन भी कस दी। दूल्हा कूद कर धोड़े पर सवार हो गया।
के
जब दूल्हा घोड़े की पीठ पर बैठ गया, तो घोड़ा मानो नींद से जागा। विचार करने लगा, थोड़े-से दाने के बदले अपने हक से हाथ धोना, एक कटोरे कढ़ी से के लिए अपने जन्म के हक को बेचना है। उसे याद आया कि मैं कितने दिनों से आज के दिन आराम करता रहा हूँ, तो आज क्यों यह खराब क ? ये लोग मुझे न जाने कहाँ ले जायेंगे, लड़का घुड़सवारी जानने वाला जान पड़ता है, मुझे दौड़ायेगा, ऍड लगायेगा, चाबुक से मार-मार कर अधमरा कर देगा, फिर न जाने खाना मिले या नहीं। यह सोच-विचार कर उसने तय किया कि मैं यहाँ से कदम न उठाऊँगा। यही न होगा मारेंगे, सवार को लिये हुए जमीन
पर लोट जाऊँगा। खुद ही छोड़ देंगे। मेरे मालिक मीर साहब भी तो यहीं कहीं होंगे। उन्हें मुझ पर इतनी मार पड़ती देख कभी पसंद न आयेगी कि कल उन्हें अदालत भी न ले जा सकूँ।
दूल्हा जैसे ही घोड़े पर सवार हुआ औरतों ने मंगलगान किया, फूलों की बारिश हुई। बारात के लोग आगे बढ़े। मगर घोड़ा ऐसा अड़ा कि पैर ही नहीं उठाता। दूल्हा उसे एंड लगाता है, चाबुक मारता लगाम को झटके देता है, मगर घोड़े के कदम मानों जमीन में ऐसे गड़ गये हैं कि उखड़ने का नाम नहीं लेते।
मुंशी ऐसा गुस्सा आ रहा था कि अपना जानवर होता तो गोली मार देते। दोस्त ने कहा- “अड़ियल जानवर है, ऐसे न चलेगा। इसको पीछे से डंडे
लगाओ, खुद दौड़ेगा
मुंशी जी यह सलाह मान ली। पीछे से जाकर कई डंडे लगाये, पर घोड़े ने पैर न उठाये, उठाये तो भी अगले पैर, और आकाश की ओर। दो-एक बार पिछले पैर भी, जिससे पता चलता था कि वह बिलकुल बेजान नहीं है। मुंशी जी बाल-बाल बच गये।
तब दूसरे दोस्त ने कहा- “इसकी पूँछ के पास एक जलती हुई लकड़ी जलाओ, आग के डर से भागेगा।” यह सलाह भी मान ली गई। नतीजा यह हुआ कि घोड़े की पूँछ जल गयी। वह दो-तीन बार उछला-कूदा पर आगे न बढ़ा। पक्के इरादे वाला था, शायद
इस तकलीफ ने उसके हौसले को और भी मजबूत कर दिया था। इतने में सूरज डूबने का समय होने लगा। पंडित जी ने कहा- “जल्दी कीजिए नहीं तो मुहूर्त टल जायगा।” लेकिन अपने वश की बात तो थी नहीं। जल्दी
कैसे होती। बाराती लोग गाँव के बाहर जा पहुँचे। यहाँ औरतों और बच्चों का मेला लग गया। लोग कहने लगे- “कैसा घोड़ा है कि पैर भी नहीं उठाता।” एक अनुभवी इसान ने कहा- ‘मार-पीट से काम न चलेगा। थोड़ा-सा दाना मँगवाइए। एक आदमी इसके सामने टोकरी में दाना दिखाता हुआ चले। दाने के लालच से खट-खट चला जायगा। मुंशी जी ने यह उपाय भी करके देखा पर कामयाब न हुए। घोड़ा अपने हक को किसी दाम पर बेचना न चाहता था। एक महाशय ने कहा- ‘इसे थोड़ी-सी शराब पिला दीजिए, नशे में आ कर खूब चौकड़ियाँ भरने लगेगा।” शराब की बोतल आयी। एक बर्तन में शराब
कर घोड़े के सामने रखी गयी, पर उसने सुधी तक नहीं।
उँडेल कर
अब क्या हो ? दिये जल गये मुहूर्त टल चुका था। घोड़ा तरह-तरह के बुरे व्यवहार सह कर दिल में खुश होता था और अपने सुख में खलल डालने वाले की बुरी हालत और परेशानी का मजा उठा रहा था। उसे इस समय इन लोगों की कोशिशों पर एक खुशी मिल रही थी। देखें आप लोग अब क्या करते हैं। वह जानता था कि अब मार खाने की गुंजाइश नहीं है। लोग जान गये कि मारना बेकार है। वह सिर्फ अपने अच्छे उपायों के बारे में सोच रहा था। पाँचवें आदमी ने कहा- अब एक ही तरकीब है। खेत में खाद फेंकने की जो दो-पहिया गाड़ी होती है, उसे घोड़े के सामने ला कर रखिये। इसके दोनों अगले पैर उसमें रख दिये जायें और हम लोग गाड़ी को खींचें। तब तो जरूर ही उसके पैर उठ जायेंगे। अगले पैर आगे बढ़े तो पिछले पेर भी झख मार कर उठेंगे ही। घोड़ा चल निकलेगा।”
मुंशी जी डूब रहे थे। कोई तिनका सहारे के लिए काफी था। दो आदमी गये। दो-पहिया गाड़ी निकाल लाये। टूल्हे ने लगाम तानी। चार-पाँच आदमी घोड़े के पास डडे ले कर खड़े हो गये। दो आदमियों ने उसके अगले पाँव जबरदस्ती उठाकर गाड़ी पर रखे। घोड़ा अभी तक यह समझ रहा था कि मैं यह उपाय भी न चलने दूंगा, लेकिन जब गाड़ी चली, तो उसके पिछले पैर अपने आप उठ गये। उसे ऐसा जान पड़ा, मानो पानी में बहा जा रहा हूँ। कितना ही चाहता था कि पैरों को जमा लूँ पर कुछ अक्ल काम न करती थी। चारों ओर शोर मचा चला-चला।’ तालियाँ बजने लगीं लोग ठट्टे मार-मार हँसने लगे। घोड़े को यह हसीं और यह अपमान सहन न था, पर करता क्या ? हाँ, उसने धीरज न छोड़ा। मन में सोचा इस तरह कहाँ तक ले जायेंगे। जैसे ही गाड़ी रुकेगी मैं भी रुक जाऊँगा। मुझसे बड़ी भूल हुई, मुझे गाड़ी पर पैर ही न रखना चाहिए
था।
आखिर में वही हुआ जो उसने सोचा था। किसी तरह लोगों ने सौ कदम तक गाड़ी खींची, आगे न खींच सके। -दो-सौ कदम ही खींचना होता, तो शायद लोगों की हिम्मत बँध जाती पर स्टेशन पूरे तीन मील पर था। इतनी दूर घोड़े को खींच कर ले जाना मुश्किल था। जैसे ही गाड़ी रुकी घोड़ा भी रुक गया! दूल्हे ने फिर लगाम को झटके दिये, ऍड लगायी। चाबुकों की बारिश की पर घोड़े ने अपनी टेक न छोड़ी। उसके नथुनों से खून निकल रहा था, चाबुक की मार से सारा शरीर छिल गया था, पिछले पैरों में घाव हो गये थे, पर वह मजबूत मन का घोड़ा अपनी आन पर अड़ा हुआ था। पुरोहित ने कहा- “आठ बज गये। मुहूर्त टल गया।” दीन-कमज़ोर घोड़े ने मैदान मार लिया। मुंशी जी गुस्से से भर कर रो पड़े। दूल्हा एक कदम भी पैदल नहीं चल सकता। शादी के मौके पर जमीन पर पाँव रखना मना है, नाम खराब होता है, बेइज्जती होती है, खानदान पर दाग लगता है पर अब पैदल चलने के सिवाय कोई उपाय न था। आकर घोड़े के सामने खड़े हो गए और दुखी आवाज से बोले- “महाशय, अपनी किस्मत को सराहो कि मीर साहब के घर हो।
अगर मैं तुम्हारा मालिक होता तो तुम्हारी हड्डी-पसली का पता न लगता। इसके साथ ही मुझे आज मालूम हुआ कि जानवर भी अपने हक की रक्षा कैसे कर सकता है। मैं न जानता था, तुम नियम पालन करने वाले हो। बेटा, उतरी, बारात स्टेशन पहुँच रही होगी। चलो पैदल ही चलें। हम आपस ही के दस-बारह आदमी हैं, हँसने वाला कोई नहीं। ये रंगीन कपड़े उतार दो। रास्ते में लोग हँसेंगे कि पैदल शादी करने जाता है। चल बे अडियल घोड़े, तुझे मीर साहब के हवाले कर आऊँ।”
सीख – इस कहानी के जरिए मुंशी जी उस स्तत्वधारी अड़ियल घोड़े की तारीफ करना चाहते थे या उसकी कहानी के जरिए हमें कुछ सिखाना चाहते थे, यह समझना मुश्किल नहीं। जब यह कहानी उन्होंने लिखी, तब हमारे देश के क्या हालात थे, हम अच्छी तरह जानते हैं और उस समय हक कितना जरूरी था, वह भी समझते हैं। लेकिन आज भी हमारा हक उतना ही जरूरी है और उसके लिए लड़ना भी, उतना ही जरूरी। हालांकि यह कहानी कई दशकों पुरानी है लेकिन ना उसका सार बदला है न ही उसके सार का महत्व घटा है।