यह किसके लिए है
-जो लोग टीम में काम कर रहे हैं
कोई भी व्यक्ति जो जानना चाहता है कि दिल टूटने पर दर्द क्यों होता है
मनोविज्ञान का शौक रखने वाले लोगों के लिए
लेखक के बारे में
मैथ्यु डी लीबरमैन यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लास एंजिल्स में मनोविज्ञान के प्रोफेसर और सागाजिक शोध करने वाली न्यूरोसाइस लेबोरेट्री के डायरेक्टर हैं। उनके शोध साइस, नेचर और अमेरिकन साइकोलॉजिस्ट जैसी कई नामी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। साल 2007 में उन्हें अमेरिकन साइकोलॉजिस्ट एसोशियन द्वारा अली करिभर कान्टरीव्यूशन टू साइकोलॉजी के लिए नामी वैज्ञानिक अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है।
ये किताब आपको क्यूँ पढ़नी चाहिए
कौन-सी चीज है जो आपको, जो आप हैं, वो बनाती है। इसका एक जवाब है- आपका स्व यानि अहमा”आपका अहम आपकी प्राथमिकताओं, विचारों और इच्छाओं का निर्धारण करता है जो आपके चरित्र का निर्माण करती है और आपको दूसरे से अलग बनाती हैं। इस विचार को काफी अधिक लोगों द्वारा स्वीकार किया जाता है। लेकिन क्या बस इससे यह विचार सही हो जाता है?
यह सवाल मनोवैज्ञानिक डेनियल लीबरमान इस किताब ‘सोशल में पूछते हैं। फंगक्शनल मैग्रेटिक रीसोनेन्स इमेजिंग (FMRI) स्कैन द्वारा की गई रीसर्च और अपने
नाए त्यूरोसाईंस एविडेन्स के द्वारा वे थोड़े-से अलग नतीजे पर पहुंचे हैं। आनुवांशिक और सांस्कृतिक तौर पर जो चौज हमें असल में परिभाषित करती है वह है- हमारी
सामाजिकता।
दूसरों से कनेक्ट होने की इच्छा और लोगों के साथ रहने की इच्छा मुख्य रुप से हमें जन्म से ही प्राप्त होती है। यहाँ तक कि लीबरमैन का यह भी मानना है कि सामाजिक रूप से सोचने और दूसरों का दिमाग पढ़ने की क्षमता भी हमारे शुरुआती विकास का ही परिणाम है। और सबसे जरूरी बात, ये चीजें आज भी हमारी खुशी और कामायाबी में अपना योगदान देती हैं।
इस किताब में आप जानेंगे
कैसे किसी लोकल चैरिटी के साथ जुड़ना आपको अपनी तनख्वाह में बढ़ोतरी से भी ज्यादा खुश बना सकता है
दूसरे लोगों का दिमाग पढ़ने की कला हम कैसे सीखते हैं
सेल्फ कण्ट्रोल कैसे एक बेहद जरूरी सोशल फैक्टर है
सामाजिक नजरिए से सोचने के लिए हमारे दिमाग में पहले से ही एक खास तरह का जुनून मौजूद है।
1997 में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के गॉईन शूलमन और उनके साथियों ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया जिसमे हसानी दिमाग से जुड़े एक असामान्य प्रश्न पर प्रकाश डाला गया था। उनका सवाल था कि जब दिमाग के पास करने को कोई खास काम नहीं होता है तो वह क्या करता है? इस सवाल का जवाब काफी आश्चर्यजनक था। जिसके अनुसार जब हम विश्राम की अवस्था में होते हैं तो हमारे दिमाग का एक हिस्सा जिसे ‘डिफ़ॉल्ट नेटवर्क कहते हैं, अपना काम करना शुरू कर देता है। मगर ऐसा क्यों होता है कि जब हम खुद को कामों से दूर कर रहे होते हैं तब भी दिगाग काम कर रहा होता है।
दरअसल यही वो जगह है जहाँ पर सोशल थिंकिंगकी एंट्री होती है। जब हम फुरसत के पलों में होते हैं तो अक्सर हम समाज में अपनी स्थिती और दूसरे लोगों के साथ अपने संबंधों पर विचार करते हैं। वैज्ञानिक इसे सोशल काग्निशनयानि सामाजिक संज्ञान कहते हैं। शोधकर्ता कहते हैं कि जब हमारा दिमाग सोशल काग्रिशन कर रहा होता है तो हमेशा दिमाग का एक ही हिस्सा हमेशा चालू रहता है; जिसका मतलब हो सकता है कि इसानी दिमाग जन्म से ही सामाजिक मामलों को समझाने के लिए डिजाइन किये गए एक खास टूल के साथ आता है।
इसी वजह से हम अपना बहुत सारा वक्त बत सामाजिक इन्टरएक्शन के बारे में ही सोचने में बिता देते हैं। बहुत सारा लेकिन कितना? यह जानने की शुरुआत हयूमन नेचर जर्नल में साल 1997 में छपे एक आर्टिकल के साथ करते हैं जिसके मुताबिक हमारी 70% बातें सीधे तौर पर सामाजिक मामलों के साथ जुड़ी होती हैं। इसके अलावा अगर हम मोटे तौर पर अंदाजा लगाएं कि दिन में हमारे पास मौजूद 15 घटों में से 20% समय हम अपने डिफ़ॉल्ट नैटवर्क में बिताते हैं तो इसका मतलब है कि हम दिन में करीब 3 घंटे का वक्त सोशल थिंकिंग करते हुए बिताते हैं।
इस बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए मैल्कम ग्लेडवेल द्वारा अपनी प्रसिद्ध किताब ‘आउटलायर्स में किये गए दावे पर विचार करते हैं जिसके अनुसार किसी क्षेत्र में एक्सपर्ट बनने के लिए करीब 10,000 घंटों की प्रेक्टिस लगती है। हम अपने दिन के करीब 3 घंटे सामाजिक चिंतन करने में बिताते हैं इस हिसाब से देखा जाए तो हम दस साल के होने से पहले ही सोशल थिंकिंग के मामले में एक्सपर्ट बन जाते हैं।
इंसानी दिमाग स्वाभाविक रूप से संबंध बनाने का समर्थन करता है इसी वजह से सामाजिक पीड़ा बहुत खतरनाक होती है।
इसानी दिमाग एक जटिल मशीन है जिसमें बेहद शानदार विचारों को पैदा करने की क्षमता मौजूद है। लेकिन दिमाग को इन कौशलों को विकसित करते में चक्त लगता है क्योंकि अगर दिमाग पहले से ही पूरी तरह परिपक्व होता तो बच्चों का जन्म होना तो फिर पूरी तरह असभव ही हो जाता। दुनिया में हम अपरिपक्च दिमागों के साथ पैदा होते हैं जिन्हें सही ढंग से विकसित होने के लिए बेहद नाजुक केयर की जरूरत होती है। और यही कारण है कि हमें समाज की जरूरत पड़ती है।
नवजात बच्चे अपनी खुद की केयर करने के काबिल नहीं होते हैं। जीवन के शुरुमात दिनों में हमें जिंदा रहने के लिए सिर्फ स्वाना-पानी की जरूरत नहीं होती है बल्कि उसे हम तक पहुंचाने वाले किसी व्यक्ति की जरूरत भी पड़ती है। इसी वजह से केयर इंसानी जिंदगी की सबसे जरूरी चीजों में से एक है। खुशकिस्मती से सभी स्तनधारी प्राणियों को पास यह पता लगाने का साधन मौजूद है कि उनके बच्चों को पर्याप्त सुरक्षा मिल रही है या नहीं बच्चे रोने लगते हैं जब उन्हें लगता है उनकी सुरक्षा करने वाला व्यक्ति उनसे दूर चला गया है।
इस बात को साइकोलॉजिस्ट जॉन बोबली से समझने की कोशिश करते हैं। 1950 में बोबली ने दर्शाया कि हमारे दिमाग में एक इनबिल्ट सिस्टम मौजूद होता है जो हमारी केयर करने वाले की शारीरिक नजदीकी को मॉनीटर करता रहता है और उस व्यक्ति के हमसे दूर जाने पर यह सिस्टम हमारे अंदर डिस्ट्रेस पेदा करता है। इसके बाद हमारे दिमाग की आभासी घंटियाँ बजने लगती हैं और हम रोना शुरु कर देते हैं। एक तरह जहाँ बच्चे इत सिग्लों को पैदा करते हैं वहीं दूसरी ओर वयस्क स्वाभाविक रूप उन्हें रीसौच करने की क्षमता रस्वते हैं। तभी तो बच्चों को रोते हुए देखना काफी कष्टदायी होता है। इसीलिए हम अपने बच्चे का हिस्ट्रेस दूर करने का उपाय ट्ूंटने लगते हैं।
थोड़े अलग शब्दों में कहें तो एक इसान के रुप में सामाजिक जरूरतें ही वो मुल वीजें होती है जो हमें वह बनाती है जो हम है। यही वजह है कि हमारा दिमाग सामाजिक दर्द को भी शारीरिक दर्द के जैसा ही समझता है। यही बात लीबरमैन और उनके साथी 2001 में FMRस्कैन की सहायता से किये गए गए शोध में साबित कर पाए जिसमे उन्होंने भागियों को साइबरबॉल नाम का एक विडिओ गेम खेलने को दिया था।
खेल बहुत ही आसान था इसमें रिवेलाड़ियों को एक वर्चुअल गेंद को एक-दूसरे के बीच मागे-पीট उछालना था। हालांकि शोध में हिस्सा लेने वाले लोगों को नहीं पता था कि अन्य खिलाड़ी अवतार थे जिन्हें बॉल की शेयरिंग को रोकने और एक निश्चित पॉइंट के बाद उन्हें निकालने के लिए प्रोग्राम किया गया था। इस वजह से प्रतिभागियों ने एक काफी ईमोशनल प्रतिक्रिया जाहिर की। शोध पूरा हो जाने के बाद हुए एक साक्षातकार में उन्होंने अपने अनुभवों को क्रोधपूर्ण और दुखदायी बताया।
प्रतिभागियों के एफएमआरआई स्कैन के जरिए प्राप्त किये गए डाटा की शारीरिक दर्द से जुड़ी एक अन्य स्टडी में प्राप्त डाटा से तुलना की गई। इससे नतीजा निकला कि सामाजिक और शारीरिक दर्द काफी हद तक एक दूसरे से मेल खाते हैं और इन दोनों केसों में दिमाग के डॉर्सल ऐन्टीरीअर सिंगुलेट कॉर्टेक्स (dACC) हिस्से में हलचल बढ़ने का पता चला।
दूसरों के विचारों और भावनाओं को समझने की हमारी क्षमता हमारे सामाजिक प्रयासों को सफल बनाने में सहायक होती है।
आप क्या सोचते हैं कि आपके साथ काम करने वाले लोग कैसे होने चाहिए? इस बात की काफी संभावना है कि आप अपने साथी में पहला गण यह चाहते कि वह आपके कामों को समझे और आपके साथ मिलकर लगातार काम करे। हालाकी यह कोई कोरी कल्पना नहीं है। दरअसल इंसान कुछ हद तक एक-दूसरे का दिमाग पढ़ने की काबिलियत रखते हैं।
यह बात हमारी हाईवायरिंग से जुड़ी हुई है: जहाँ कहीं भी हम नज़र दौड़ाते हैं, इंसानी दिमाग हमें कुछ निश्चित इरादों से जुड़े ऐक्टिव दिमागों को ढूंढने में मदद करता है। लोगों के व्यवहार के द्वारा उनके दिमाग में चल रहे विचारों का पता लगाने की इस काबिलियत को वैज्ञानिक “च्योरी ऑफ माइंड कहते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान हम मेंटलाइज़ कर रहे होते हैं। यह हर वक्त हमारे साथ होता है। एजाम्पल के लिए याद कीजिए जब हम बस ड्राइवर के सामने हाथ उठाकर उसका ध्यान रखीचते है उसे यह बताने की कोशिश करते है कि हमें अगले स्टॉप पर उतरना है। मेंटलाइजिंग ड्राइवर को बताती है कि आप उसे हाथ हिलाकर क्या बताने की कोशिश कर रहे हैं।
पर जब बात दूसरे लोगों की होती है तो हम सिर्फ मेंटलाइज़ ही नहीं करते हैं। हम, लोगों में उनके विचारों को ढूंढने के इतने आदि हो चुके हैं कि जब भी हम कुछ देखते हैं तो उसमें हमारा दिमाग भी शामिल होता है। इसे ऑस्ट्रीयन साइकोलॉजिस्ट फिट्ज़ हैदर के द्वारा समझने का प्रयास करते हैं। अपने एक अध्ययन में उन्होंने लोगों को दो घूमते हुए त्रिभुजों यानि ट्रायंगल और एक वृत यानि सर्कल की छोटी सी ऐनमेटिड क्लिप दिखाई और उनसे पूछा कि आपको क्या दिख रहा है। अध्ययन में शामिल लोगों ने जवाब में काफी भावनात्मक कहानियाँ कही। कुछ ने एक त्रिभुज को बुली यानि दूसरे पर अत्याचार करने वाले की नजर से देखा जबकि कुछ के मुताबिक वह बेचारा सर्कल के साथ फ्लर्ट करने करने की कोशिश कर रहा था
ये जवाब दर्शाते हैं कि मेंटलाजिंग की प्रक्रिया कितनी जटिल है। हालांकि इसे सीखने में वक्त लगता है- यह बात 1980 के दशक के दौरान किये गए एक प्रयोग, जिसे सैली-ऐती एक्सपेरिमेंट कहा जाता है, में साबित हो चुकी है। इस प्रयोग में को एक कठपुतली का शो कहा जिसमे दो कठपुतलियाँ, नाम सेली और ऐनी था, अभिनय कर रही थी। इसमें सेली एक टोकरी में एक कंचा रखती और वहाँ से चली जाती है। इसके बाद ऐनी मंच पर आती है और उस कंचे को एक बबसे में डाल देती है। जब सैली दोबारा वापस आती है तो बच्चों को पूण जाता है कि उनके हिसाब से सेली मार्यल को कहाँ ट्ूंढेगी?
तीन साल की उम्र के ज्यादातर बच्चों के मुताबिक, सैली भी जानती है कि कचा बॉक्स के अदर है। उनका यह जवाब काफी आत्मकेंद्रित था। इसके उलट पाँच साल की उम्र वाले बच्चों ने मेंटलाइज़ करने की काफी अच्छी क्षमता विकसित कर ली थी। जिसकी वजह से वे यह समझने लगे थे कि लोग उन चीजों पर विश्वास करते हैं जिनपे वे स्वयं विश्वास नहीं करते हैं जो कि गलत हो सकता है। जिसके कारण उन्होंने अनुमान लगाया कि सैली कंचे को टोकरी में हंढेगी जो कि पूरी तरह से सही था।
‘स्व’का भाव हमें सामाजिक समूहों से जुड़ने और उनके साथ घुलने-मिलने की अनुमति देता है।
अक्सर हमें लगता है कि हमारा ‘अहम एक व्यक्तिगत स्थान है जहाँ पर हमारे सबसे गहरे विवार और इच्छाएं मौजूद होती हैं। हमारे इस आइडरीया के मुताबिक, इन चीजों को जानने से हमारे अटर स्व का भावपैदा होता है जो हमें उन चीजों को समझने में हमारी मदद करता है जो हम जिंदगी में पाना चाहते है। यह काफी आम धारणा है पर क्या ये सच भी है?
दरअसल ये पूरी तरह से गलत है। हमारा अहमएक ट्रोजन हॉर्स के जैसा होता है- यह सामाजिक दुनिया को चुपके से देख कर हमारा व्यक्तित्व बदल देता है। उन आम
धारणाओं पर विचार कीजिए जिन्हें हम अक्सर बिना सोचे-समझे पकड़े रखते हैं।
“नीला रंग लड़कों के लिए और गुलाबी लड़कियों के लिए भी ऐसी ही एक गलत आम धारणा है। इस धारणा को कई लोग बड़ी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं जैसे कि यह उनकी खुद की राय हो। यह धारणा बस सही लगती है जबकी इसका उल्टा हमें जचता नहीं है। हालांकि अगर आप बीसवीं सदी के शुरुआत की ट्रेड जर्नल्स को उठाकर देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि उन्होंने क्या ऐट्टाहज़ करने की कोशिश की थी “नीला रंग लड़कियों के लिए और गुलाबी लड़कों के लिए”
मगर इसके बावजूद भी सम्पूर्ण पिछली सदी में लोगों की यह धारणा नहीं बदल सकी, लोग अभी भी उसी पुराने नतीजे पर पहुंच रहे हैं। ज्यादातर लोगों ने बिना कुछ सोचे बहुत ही आसानी से उस धारणा को अपनी राय बना लिया जिसे ज्यादातर लोग मानते थे। वैसे इसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं है क्योंकि लोग अक्सर नदी के विपरीत बहने के बजाय उसके बहाव के साथ बहना ज्यादा पसंद करते हैं।
यह शांत है कि हमारे सामाजिक व्यवहार का ताना-बाना काफी हद तक हाथ से बुना हुआ होता है जिसके बाबत कई बार हमें खबर तक नहीं होती है। तो यह काम कैसे करता है? दरअसल यह डोरमेडियल प्रोफ्रन्टल कॉर्टेक्स (MPFC) की वजह से होता है। यह दिमाग का यह हिस्सा होता है जो तब सक्रिय होता है जब हम स्वयं के बारे में या लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं इस बारे में विचार करते हैं। इसे एक बड़े न्युरल हाइवे के रूप में समझिए जो हमारी वैल्यूस और धारणाओं का ट्रांसपोर्ट करता है जो अंत में हमें गहराई से प्रभावित करती हैं।
साल 2010 में लीवरमैन और उनके साथियों द्वारा किये गए शोध में इसके काम करने के तरीके का प्रदर्शन किया गया। शोधकर्ताओं ने यूसीएलए (यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लॉस एजल्स) के अन्डरग्रेजुएट्स से उनके सनस्क्रीन उपयोग के बारे में सवाल पूछे। इसके बाद उन्हें प्रो-सन्स्क्रीन इफोमर्शियल दिखाते हुए fMRस्केनर से उनकी जांच की। इसके बाद भविष्य में उनसे सनस्क्रीन इस्तेमाल करने से सबंधित सवाल पूछे गए जिनके काफी मिश्रित जवाब प्राप्त हुए। बाद में उनके दाचों और वास्तविक व्यवहार के बीच में एक छोटा-सा सह-संबंध पाया गया।
इस प्रयोग में पता चला कि इन्फोर्मरशियल देखते वक्त जिन छात्रों का MPFCसबसे ज़्यादा ऐक्टिव था उनमें भविष्य में अपना सनस्क्रीन का इस्तेमाल बढ़ाने की संभावना सबसे ज्यादा पाई गई।
आत्मनियंत्रण की हमारी काबिलियत सिर्फ हमें ही फायदा नहीं पहुंचाती बल्कि यह सामाजिक जुड़ाव के लिए काफी जरुरी है।
दो-तीन साल की उम्र के बच्चों के एक समूह की कल्पना कीजिए जिन्हें दो विकल्प दिष्ट गाए है। पहला विकल्प तो है कि चे एक मार्शमेलो मिठाई अभी खा लें। जबकि दूसरा विकल्प है कि वे उसे थोड़ी देर तक पकड़े रहें जिसके बाद उन्हें दो मार्शमेलो दी जाएगी। आपको क्या लगता है कि इनमें से कितने बच्चे दूसरा ऑप्शन चुनेंगे?
यही वो सवाल था जो मनोवैज्ञानिक वाल्टर मिचेल ने 1970 के दशक में हुए इस प्रयोग में बच्चों से पूछा था जिसे “मार्शमैलो टेस्ट के नाम से भी जाना जाता है। इस टेस्ट का नतीजा कुछ इस तरह था। प्रयोग में पाया गया कि एक तिहाई से भी कम बच्चे त्वरित लालच को रोक पाए और एक अन्य मार्शमेलो का इंतज़ार कर पाए। सेल्फ कण्ट्रोल न होने से बच्चों ने न सिर्फ मिठाई से हाथ धोया बल्फि बाद के कई शोधों में पाया गया कि जिन बच्चों में भपने मन को नियंत्रित करने की मामता होती है वे पढ़ाई में भी अच्छा प्रदर्शन कर पाते हैं। शोधकर्ताओं ने अच्छे स्वनियंत्रण को अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी कमाई के साथ भी जोड़ा है।
लेकिन स्वनियंत्रण यानि लालच और आवेग से खुद को दूर रखने की काबिलियत सिर्फ जन्मजात ही नहीं पाई जाती है: इसे हमारे सामाजिक घेरे की सहायता से भी पैदा किया जा सकता है। अग्रेजी दार्शनिक जेरेमी बेंथम के प्रसिद्ध प्रयोग पेनोपटिकोन थॉट एक्सपेरीमेन्ट को ही ले लीजिए। पेनोपटिकोन शब्द जो दो ग्रीक शब्दो पेन यानि सभीऔर ‘ऑप्टिकयानि दृश्यके मेल से बना है, एक ऐसी इमारत की ओर संकेत करता है जिसके सारे कमरे एक केन्द्रीय टावर के चारों तरफ अरेंड होते हैं। जहाँ से उस बिल्डिंग में रहने वाला हर व्यक्ति- चाहे वह कोई इन्मेट हो या फिर कोई स्टूडेंट या कोई पेशेट- हर किसी पर उस जगह से हर समय नजर रखी जा सकती है।
लेकिन इस डिजाइन की एक खास बात है। इसमे कोई व्यक्ति यह पता नहीं लगा सकता है कि उसपे नज़र रखी जा रही है या नहीं। बेंधम के मुताबिक, मात्र देखे जाने की सभावना होना ही लोगों के व्यवहार को बदलने और उनमें नियम-कानून का पालन करने का सेल्फ-कट्रोल पैदा करने के लिए पर्याप्त है। हालांकि कभी कोई असली पैनोपटिक बना तो नहीं मगर फिर भी यह सिद्धांत काफी सही मालूम पड़ता है। एक अध्ययन में पता चला है कि किसी कैफिटौरीया में एक बड़ी आँख का पोस्टर टांग देने मात्र से ही लोगों द्वारा फैलाई जाने वाली गंदगी में करीब 50% की कमी आ जाती है।
मात्र कुछ बुरी चीजों की फेहरिस्त बनाकर उनसे दूर रहना सेल्फ कण्ट्रोल नहीं है बल्कि जितना ज्यादा नियंत्रण हमारा खुद पर होता है उतना ही ज्यादा हम अपने समाज के लिए उपयोगी होते हैं। एग्जांपल के तौर पर धूम्रपान को ही ले लीजिए। सिगरेट पीना कुछ देर के लिए धूम्रपान करने वाले व्यक्ति को आनंद दे सकता है। हालांकि लॉग टर्म में फायदे पाने के लिए यह जरूरी है कि वे अपनी इस लत पर लगाम लगाएँ। दूसरी तरफ समाज है जो निकोटीन छोड़ने की पीड़ा को नहीं महसूस कर सकता है इसलिए इससे शॉर्ट-टर्म में छोटा-सा फायदा है। लेकिन लंबे वक्त के लिए समाज को उन लोगों से फायदा होता है जिनमे सेल्फ कण्ट्रोल पाया जाता है। क्योंकि ये लोग अक्सर लंबा जीवन जीते हैं और समाज में ज्यादा योगदान दे पाते हैं।
सामाजिक फैक्टर रोजमर्रा की जिंदगी में खुशहाली और दफ्तर में हमारी प्रोडक्तिविटी को बढ़ा सकते हैं।
आपने वह कहावत तो जरूर सुनी होगी कि पैसा खुशी नहीं खरीद सकता है। कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे मगर फिर भी यह कहावत हमें इस तरह ऐक्ट करने से नहीं रोक पाती है जैसे कि हमारी व्यक्तिगत और पेशेवर जिंदगी में मौजूद सारी बड़ी परेशानियों का समाधान पैसा है। इसका विकल्प क्या हो सकता है? खैर हमारे पास एक अच्छा आइडिया मौजूद है अगर हा अपनी जिंदगी में खुशहाली का भाव बढ़ाना चाहते हैं तो हमें सोशल फ़ैक्टरों पर फोकस करना होना। यह उतना सैद्धांतिक नहीं है जितना यह लग रहा है। हमारे सामाजिक जीवन और जीवन की खुशहाली के बीच संबंध बहुत जरूरी है तभी तो अर्थशास्त्री इसे अपनी रीसर्च के केंद्र में रखते हैं।
कई शोधों में पाया गया है कि शादी करने और परोपकार का कोई काम करने से हमारे जीवन की खुशी पर काफी प्रभाव पड़ता है। वर्ष 2008 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इन सोशल सिग्नलों को नबर दिए गए थे जो काफी हैरान कर देने वाले थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक, हफते में कम से कम एक बार भलाई का काम करता हमारी सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है क्योंकि इससे आपको उतनी ही खुशी मिलती है जितनी आपकी सालाना तनख्वाह तिगुनी हो जाने पर आपको मिलेगी।
इससे पता चलता है कि सामाजिकता कितनी ज्यादा जरूरी है। हालांकि यह बात काफी चिंताजनक है कि सामाजिकता में गिरावट आ रही है। 1985 में पहली बार किये गाए एक सर्वे को ही देख लीजिए। इसमें लोगों से पूछा गया कि उन लोगों के नाम बताइए जिनसे उन्होंने पिछले 6 महीने में कोई खास बातचीत की है। ज्यादातर लोगों ने 3 लोगों के नाम बताए। जब इसी सर्वेक्षण को साल 2004 में दोहराया गया तो नतीजे काफी चौकाने वाले थे। ज्यादातर लोगों ने बताया कि उन्होंने पिछले आधे साल से किसी व्यक्ति से कोई खास और अर्थपूर्ण बातचीत की ही नहीं है।
सामाजिक प्रोत्साहन सिर्फ आपकी व्यक्तिगत खुशी के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि ये चीजें दफतार में आपकी सफलता में भी काफी योगदान देती हैं। यह बात काफी अजीब है कि ज्यादातर कंपनियां अपने कर्मचारियों से अच्छा काम करवाने के लिए उन्हें फाइनेन्शल इन्सेनटिंव देती हैं जबकि ऐसे बहुत से प्रमाण मौजूद हैं जो इस बात की गवाही देते हैं कि सोशल इन्सेन्टीव वित्तीय प्रोत्साहन से ज्यादा असरदार है।
इसी बात को अर्थशास्त्री लेन लरकिन ने “पेडग 30,000 डॉलर फॉर अ गोल्ड स्टारनामक पेपर में दर्शाया है। इसमें लरकिन ने एक अध्ययन के बारे में बताया था जो एक सॉफ्टवेयर वेंडर की इन्सेनटिव स्कीम के बारे में था। सिस्टम काफी सरल था- हर साल सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले वाले कर्मचारियों को अन्य फ़ायदों के साथ उनकी स्टेशनरी और बिजनस कार्डों पर एक गोल्डस्टार दिया जाता था।
मजे की बात तो यह है कि कर्मचारी इस स्कीम से इतने ज्यादा प्रभावित हुए कि उनमें से 68 प्रतिशत ने सिर्फ अपना प्रदर्शन अच्छा करने के लिए सेल्स को अपरिपक्च ढंग से क्लोज किया। अगर कर्मचारी उन अपूर्ण सेल्स को आने वाले क्वार्टर में पूरा कर देते तो इससे कंपनी को 27,000 डॉलर का अतिरिक्त फायदा हो जाता। कंपनी के एक कर्मचारी का कहना था कि उनके लिए वह स्टार और उसके साथ जुड़ी सामाजिक प्रसिद्धि पैसे से कई गुना बढ़कर थी।
संक्षेप में कहें तो मानव विकास ने हमें अपने सामाजिक मामलों को स्पष्ट रुप से प्रायराटाइज करने की काबिलियत दी है। इसे सही ठंग से समझना हमें खुद को, अपने मोटवेशन्स को और अपने व्यवहार को समझने में मदद करता है।