SAUT by Rabindranath Tagore.

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जब रजिया के दो-तीन बच्चे होकर मर गये और उम्र ढल चली, तो रामू का प्रेम उससे कुछ कम होने लगा और दूसरी शादी की धुन सवार हुई। आये दिन रजिया से बकझक होने लगी। रामू एक-न-एक बहाना खोजकर रजिया पर बिगड़ता और उसे मारता और अन्त में वह नई पत्नी ले ही आया। इसका नाम था दासी। चम्पई रंग था, बड़ी-बड़ी आखें, जवानी की उम्र। पीली, कुशागी रजिया भला इस जवान लड़की के सामने क्या जांचती। फिर भी वह जाते हुए मालिकपन को, जितने दिन हो सके अपने अधिकार में रखना चाहती थी। घर के हिलते हुए छप्पर को सम्हालने की कोशिश कर रही थी। इस घर को उसने मर-मरकर बनाया है। उसे सहज ही में नहीं छोड़ सकती थी। वह इलनी नासमझ नहीं है कि घर छोड़कर चली जाय और दासी राज करे। एक दिन रजिया ने रामू से कहा- “मेरे पास साड़ी नहीं है, जाकर है. जाकर ला दो।

रामू उसके एक दिन पहले दासी के लिए अच्छी-सी चुंदरी लाया था। रजिया की मांग सुनकर बोला-“मेरे पास अभी रूपया नहीं है”। रजिया को साड़ी की उतनी चाह न थी जितनी रामू और दसिया की खुशी में बाधा डालने की। बोली-“रूपये नहीं थे, तो कल अपनी चहेती के लिए चुंदरी क्यों लाये? चुंदरी के बदले उसी दाम में दो साड़ियां लाते, तो एक मेरे काम न आ जाती?” रामू ने कहा-“मेरी इच्छा, जो चाहूंगा, करूंगा, तू बोलने वाली कौन है? अभी उसके खाने खेलने के दिन है। तू चाहती है, उसे अभी से घर गृहस्थी की चिन्ता में डाल में डाल दूं। यह मुझसे न होगा। ओटने-पहनने की इच्छा है तो काम कर, भगवान ने क्या हाथ-पैर नहीं दिये। पहले तो देर रात उठकर काम तुझे धंधे में लग जाती थी। अब उसकी जलन में दिन तक पड़ी रहती है। तो रूपये क्या आकाश से गिरेंगे? में तेरे लिए अपनी जान थोड़े ही दे दूंगा”।

रजिया ने कहा तो क्या मैं उसकी नौकरानी हूं कि वह रानी की तरह पड़ी रहे और में घर का सारा काम करती रहूं? इतने दिनों छाती फाड़कर काम किया, उसका यह फल मिला, तो अब मेरी बला काम करने आती है”।

मैं जैसे रखूगा, वैसे ही तुझे रहना पड़ेगा।

‘मेरी इच्छा होगी रहूंगी, नहीं तो अलग हो जाऊंगी।’

जो तेरी इचछा हो, कर, मेरा गला छोड़।

अच्छी बात है। आज से तेरा गला छोड़ती हूँ। समझ लूंगी विधवा हो गई।

रामु दिल में इतना तो समझता था कि यह गृहस्थी रजिया की बनाई हुई हैं, चाहे उसके रूप में उसके विलास के लिए आकर्षण न हो। मुमकिन था, कुछ देर के बाद वह जाकर रजिया को मना लेता, पर दासी भी कूटनीति में माहिर थी। उसने गम लोहे पर चोट जमाना शुरू कीं। बोली “आज देवी जी किस रामु ने उदास मन से कहा-“तेरी चुंदरी के पीछे रजिया महाभारत मचाये हुए है। अब कहती है, अलग रहूंगी। मैंने कह दिया, तेरी जो इच्छा हो कर”।

बात पर बिगड़ रही थी?

दसिया ने आँखें मटकाकर कहा-“यह सब नखरे है कि तुम जाकर हाथ-पाव जोड़ो, मनाओ और कुछ नहीं। तुम चुपचाप बैठे रहो। दो-चार दिन में आप ही गरमी उतर जायेगी। तुम कुछ बोलना नहीं, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जायगा”। अपने रामू ने गम्भीर भाव से कहा-“दासी, तुम जानती हो, वह कितनी घमंडी है। वह मुंह से जो बात कहती है, उसे करके छोड़ती है।

रजिया को भी रामू से ऐसी नाशुक्री की आशा न थी। वह जब पहले की-सी सुन्दर नहीं, इसलिए रामू को अब उससे प्रेम नहीं है। आदमी के चरित्र में यह कोई असाधारण बात न थी, लेकिन रामू उससे अलग रहेगा, इसका उसे विश्वास न हो रहा धा। यह घर उसी ने पैसा-पैसा जोड़ेकर बनवाया था।

गृहस्थी भी उसी की जोड़ी हुई है। अनाज का लेन-देन उसी ने शुरू किया। इस घर में आकर उसने कौन-कौन सी तकलीफ़ नहीं झोली, इसीलिए ना कि उम्र के कारण धक जाने पर एक टुकड़ा चैन से खायगी और पड़ी रहेगी, और आज वह इतनी बेरहमी से दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दी गई! रामू ने इतना भी नहीं कहा-“तू अलग नहीं रहने पायेगी में या खुद मर जाऊंगा या तुझे मार डालूगा, पर तुझे अलग न होने दूंगा। तुझसे मेरी शादी हुई है, कोई हंसी-मज़ाक नहीं है । तो जब रामू को उसकी परवाह नहीं है, तो वह रामू की क्यों परवाह करे। क्या सभी औरतों के पति बैठे होते हैं। सभी के मां-बाप, बेटे-पोते होते हैं। आज उसके लड़के जिंदा होते, तो मजाल थी कि यह नई पत्नी लाते, और मेरी यह दुर्गति करते?

इस बेरहम को मेरे ऊपर इतनी भी दया न आई? औरत के मन की मजबूरी इस अत्याचार से विद्रोह करने लगी। वही आग जो मोटी लकड़ी को छू भी नहीं कर सकती, फूस को जलाकर भस्म कर देती है।

दूसरे दिन रजिया दूसरे गांव में चली गई। उसने अपने साथ कुछ न लिया। जो साड़ी उसने पहन रखी थी, वही उसकी सारी जायदाद धी। विधाता ने उसके बच्चों को पहले ही छीन लिया था। आज घर भी छीन लिया।

रामू उस समय दासी के साथ बैठा हुआ हंसी- समझा। इस तरह चोरों की तरह बह जाना भी न चाहती थी। वह दासी को, उसके पति को और सारे गांव को दिखा देना चाहती थी कि वह इस घर से एक चीज भी नहीं ले जा रही है। गांव वालों की नज़रों में रामू का अपमान करना ही उसका मकसद था। उसके चुपचाप चले जाने से तो कुछ भी न

सी-मज़ाक कर रहा था। रजिया को जाते देखकर शायद वह समझ न सका कि वह जा रही है। रजिया ने यही

होगा। रामू उलटा सबसे कहेगा, रजिया उसने घर का सारा सामान उठा ले गई। राम को पुकार कर कहा-“संभालो अपना घर। मैं जाती हूँ। तुम्हारे धर की कोई भी चीज अपने साथ नहीं ले जा रही “। रामू एक पल के समझ

लिए यूं घर का सामान ले जाने लगेगी, तब वह गांव वालों की दिखाकर उनकी हमदर्दी हासिल करेगा। अब क्या करें। दसिया बोली- जाकर गांव में ढिंढोरा पीट आओ। यहां किसी का डर नहीं है। तु अपने घर से लेकर ही क्या आई थीं, जो कुछ लेकर जाओगी”। रजिया ने उसके मुंह न लगकर रामू ही से कहा- “सनुते हो, अपनी चहेती की बातें। फिर भी मुंह नहीं खुलता। मैं तो जाती हूं, लेकिन दस्सो रानी, तुम भी

कर्तव्य-भ्रष्ट हो गया। क्या काहे, उसकी

में नहीं आया। उसे आशा न थी कि वह

चली जायगी। उसने सोचा था, जब वह

बहुत दिन राज न करें. भगवान के दरबार में अन्याय नहीं फलता। वह बड़े-बड़े घमण्डियों का घमण्ड चूर कर देते हैं। दसिया ठहाके मारकर हसी, पर रामू ने सिर झुका लिया। रजिया चली गई।

रजिया जिस नये गांव में आई थी, वह रामू के गांव से मिला ही हुआ था, इसलिए यहां के लोग उसे जानते थे। वह कितनी कुशल गृहिणी है, कितनी बात की सच्ची यहां किसी से छिपा न था। रजिया को मज़दूरी मिलने में कोई बाधा न हुई। जो एक लेकर दो का काम करे, उसे काम

क्या कमी?

तीन साल अकेले रजिया ने कैसे काटे, कैसे एक नई गृहस्थी बनाई, कैसे खेती शुरू की, इसका बयान करने बैठें, तो रात हो जाय। पैसे जमा करने के जितने मंत्र हैं, जितने साधन हैं, वे रजिया को खूब मालूम थे। गांव वाले उसकी मेहनत देखकर दाँतों उंगली दबाते थे। वह रामू को दिखा देना चाहती है

“मैं तुमसे अलग होकर भी आराम से रह सकती ह”। अब वो औरत किसी के मोहताज या किसी के सहारे नहीं है। अपनी कमाई खाती है”। रजिया के पास बैलों की एक अच्छी जोड़ी थी। रजिया उन्हें सिर्फ खली-भूसी देकर नहीं रह जाती, रोज दो-दो रोटियाँ भी खिलाती थी। फिर उन्हें घंटों सहलाती। कभी-कभी उनके कंधों पर सिर रखकर रोती और कहती, “अब बेटे हो तो, पति हो तो तुम्हीं हो। मेरी जान अब तुम्हारे ही साथ है”। दोनों बैल द रजिया की शायद भाषा और भाव समझते थे। वे आदमी नहीं, बैल हैं। दोनों सिर नीचा करके रजिया का हाथ चाटकर उसे दिलासा देते। वे उसे देखते ही कितने प्रेम से उसकी ओर ताकते लगते. कितनी खुशी से कंधा झलाते और इतनी जी तोड काम करते, यह वे लोग समझ सकते हैं, जिन्होंने बैलों की

सेवा की है और उनके दिल को अपनाया है। रजिया इस गांव की चौधराइन है। उसकी

निकलकर बढ़ने और उन्नति करने लगी थी।

बुद्धि जो पहले रोज़ आधार खोजती रहती थी और आजादी से अपना विकास न कर सकती थी, अब छाया

एक दिन रजिया घर लौटी, तो एक आदमी ने कहा–तुमने नहीं सुना, चौधराइन, रामू तो बहुत बीमार है। सुना दस लंघन हो गये हैं।

रजिया ने उदासी से कडा

कहा-“जूड़ी है क्या?”

जूड़ी, नहीं, कोई दूसरा रोग है। बाहर खाट पर पड़ा था। मैंने पूछा, कैसा जी है रामू? तो रोने लगा। बुरा हाल है। घर में एक पैसा भी नहीं है कि के एक लड़का हुआ है। वह तो पहले भी काम-धन्धा न करती थी और अब कैसे काम करने आय। सारी मार राम के सिर जाती है।

करें। दसिया गाने चाहिए नई दुल्हन ऐसे कैसे रहे।

नई रजिया ने घर में जाते । ही हुए कहा “जो जैसा करेगा, आप भोगेगा।

से दवादारू फिर लेकिन अन्दर उसका मन न लगा। वह एक पल में फिर बाहर आई। शायद उस आदमी से कुछ पूछना चाहती थी और इस अन्दाज से पूछना चाहती थी,

मानो उसे कुछ परवाह नहीं है।

पर वह आदमी चला गया था। रजिया ने हर ओर जाकर देखा। वह कहीं न मिला। तब रजिया दरवाज़े के चौखट पर बैठ गई। इसे वे शब्द याद आये, जो

उसने तीन साल पहले रामू के घर से निकलते समय कहे थे। उस वक्त जलन में उसने वह शाप दिया था। अब वह जलन न धी। समय ने उसे कुछ शान्त था।

रामू और दासी उसने सोचा, रामू को दस लंघन हो गये हैं, तो जरूर ही उसकी दशा अच्छी न होगी। मोटा-ताजा तो पहले भी न था, दस लंघन ने तो बिल्कुल ही सुखा डाला होगा। फिर इधर खेती-बारी में भी कमी रही। खाने-पीने को भी ठीक-ठीक न मिला होगा… पड़ोस की एक औरत ने आग लेने के बहाने आकर पूछा-सुना, रामू बहुत बीमार हैं जो जैसा करेगा, वैसा पायेगा। तुम्हें इतनी बेदर्दी से निकाला कि

कर दिया

की बुरी हालत अब जलन के लायक

दया के लायक थी।

कोई अपने दुश्मन को भी न निकालेगा”।

रजिया ने टोका”नहीं दीदी, ऐसी बात न थी। वे तो बेचारे कुछ बोले ही नहीं। मैं चली तो सिर झुका लिया। दसिया के कहने में आकर वह चाहे जो कुछ हों, ऐसे मुझे कभी कुछ नहीं कहा किसी की बुराई क्यों करूं। फिर कौन सा आदमी ऐसा है जो औरजों के बस में नहीं हो जाता। दसिया के कारण उनकी यह दशा हुई है”।

पड़ोसिन ने आग न माँगा, मुंह फेरकर चली गई।

रजिया ने मटकी और रस्सी उठाई और कुएं पर पानी खींचने गई। बैलों को चारा-पानी देने का वक़्त हो गया था, पर उसकी आंखें उस रास्ते की ओर लगी थीं, जो मलसी (रामू का गांव) को जाता था। कोई उसे बुलाने ज़रूर आ रहा होगा। नहीं, बिना बुलाये वह कैसे जा सकती है। लोग कहेंगे, आखिर

दौड़ी आई न!

मगर रामू तो बेहोश पड़ा होगा। दस लंघन थोड़े नहीं होते। उसके शरीर में था ही क्या। फिर उसे कौन बुलापेगा? दसिया को क्या गरज पड़ी है। कोई दूसरा घर कर लेगी। जवान है। सौ लोग मिल जाएंगे। अच्छा वह आ तो रहा है। हां, आ रहा है। कुछ घबराया-सा लगता है।

मलसी में नहीं देखा, मगर उस वक्त से मलसी कभी गई भी तो नहीं। दो-चार नये आदमी आकर बसे ही होंगे।

कौन आदमी है, इसे तो कभी राहगीर चुपचाप कुएं के पास से निकला। रजिया ने मटकी ज़मीन पर रख दी और उसके पास जाकर बोली-“रामू महतो ने भेजा है तुम्हें? अच्छा तो चलो घर, में तुम्हारे साथ चलती हूं। नहीं, अभी मुझे कुछ देर हे, बैलों को चारा-पानी देना है, दिया-बत्ती करनी है। तुम्हें रुपये दे दूं, जाकर दसिया को दे

देना। कह देना, कोई काम हो तो बुला भेजे”।

राहगीर राम क्या जाने। वो किसी दूसरे गांव का रहने वाला था। पहले तो चकराया, फिर समझ गया। चुपके से रजिया के साथ चला लेकर जाने लगा । चलते-चलते रजिया ने पूछा “अब क्या हाल है उनका?”

राहगीर ने अंदाज़े से कहा”अब तो कुछ सभल रहे हैं। रसिया बहुत रो-धो तो नहीं रही है ह?’

रोती तो नहीं थी।

था। वह क्यों रोयेगी। मालूम होगा पीछे।

राहगीर चला गया, तो रजिया ने बैलों को दाना-पानी किया, पर मन रामू की और ही लगा हुआ था पुरानी मीठी यादें छोटे-छोटे तारों की तरह मन में चमक रहे थे। एक बार जब वह बीमार पड़ी थी, वह बात याद आई। दस साल हो गए। वह कैसे रात-दिन उसके सिरहाने बैठा रहता था। खाना-पीना तक भूल गया था। उसके मन में आया क्यों न चलकर देख ही आऊँ। कोई क्या कहेगा? किसका मुंह है जो कुछ कहे। चोरी करने नहीं जा रही हूँ। उस अदमी

के पास जा रही हूं, जिसके साथ पन्द्रह-बीस साल बिताए हैं। दसिया नाक सिकोड़ेगी। मुझे उससे क्या मतलब। रजिया ने दरवाज़ा बन्द किया, पर मज़दूर को सहेजा, और रामू को देखने चली, कांपती, झिझकती, माफ़ी का दान लिये हुए।

रामू को थोड़े ही दिनों में मालूम हो गया था कि उसके घर की आत्मा निकल गई, और वह चाहे कितना जोर करे, कितना ही सिर खपाये, उसमें जान नहीं आएगी दासी सुन्दर थी, शौकीन थी और फूहड़ थी। जब पहला नशा उतरा, तो ठांय-ठायं शुरू हुई। खेती की उपज कम होने लगी, और जो होती भी थी, वह ऊटपटांग खर्च हो जाती थी. कर्ज लेना पड़ता था। इसी चिन्ता और दुःख में उसकी सेहत बिगड़ने लगी। उसने शुरू में कुछ परवाह न की। ।

परवाह करके ही क्या करता। घर में पैसे न थे

ढोंगियों के इलाज के बीमारी मजबूत कर दी और आज दस-बारह दिन से उसका दाना-पानी छूट गया था। मौत के इन्तजार में खाट पर की जड़ और पड़ा कराह रहा था और अब वह दशा हो गई थी जब हम भविष्य से बेफिक्र होकर अतीत में आराम करते हैं, जैसे कोई गाड़ी आगे का रास्ता बन्द पाकर पीछे लौट जाती है। रजिया को याद करके वह बार-बार रोता और दासी को कोसता–तेरे ही कारण मैंने उसे घर से निकाला। वह क्या गई, लक्ष्मी चली गई।

मैं जानता हूं, अब भी बुलाऊं तो दौड़ी आयेगी, लेकिन बुलाऊं किस मुंह से! एक बार वह आ जाती और उससे अपने अपराध की माफ़ी मांग लेता.

फिर मैं खुशी से मरता, अब और कोई इच्छा नहीं है।

अचानक रजिया ने आकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए पूछा-“कैसा जी है तुम्हारा? मुझे तो आज पता चला”। रामू ने भीगी आँखों से उसे देखा, पर कुछ कह न सका। दोनों हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया, पर हाथ जुड़े ही रह गये, और आंख उलट गई।

लाश घर में पड़ी थी। रजिया रोती थी, दसिया चिन्तित थी। घर में रूपये का नाम नहीं था । लकड़ी तो चाहिए ही, उठाने वाले भी कहेंगे पिएंगे ही, कफन के बगैर लाश उठेगी कैसे। दस से कम का खर्च न था यहां,

घर में दस पैसे भी नहीं थे। डर रही थी कि आज बड़ी मुसीबत आई । ऐसी कीमती भारी गहने ही कौन से थे। किसान की बिसात ही क्या, दो-तीन नग बेचने से दस मिल जाएंगे। मगर और हो ही क्या सकता है उसने चोधरी के लड़के को बुलाकर कहा-“देवर जी, यह बेड़ा र लगे! गांव में कोई धेले का भी विश्वास करने वाला नहीं। मेरे गहने हैं। चौधरी से कहो, इन्हें गिरवी रखकर आज का काम चलाएं, फिर भगवान् मालिक है।

रजिया से क्यों नहीं मांग लेती।

तभी रजिया आंखें पोछती हुई आ निकली। उसके कान में भनक पड़ी तो पूछा-“क्या है जोखूं, क्या सलाह कर रहे हो? अब मिट्टी उठाओगे कि सलाह का वक्त है?”

हा. उसी का का इंतज़ाम कर रहा हूँ। रुपये-पैसे तो

यहां होंगे नहीं। बीमारी में खर्च हो गए होंगे। इस बेचारी को तो बीच मंझथार में लाकर छोड़ दिया। तुम दौड़ कर उस घर चले जाओ भैया! चाबी लेते जाओ। मंजूर से कहना, भंडार से पचास रुपये निकाल दे। कहना, ऊपर की पटरी पर रखे हैं। कौन सा दूर है, वह तो चाबी लेकर उधर गया, इधर दसिया राजो के पैर पकड़ कर रोने लगी। अपनेपन के ये शब्द उसके दिल में बैठ गए। उसने देखा, रजिया में कितनी दया, कितनी क्षमा है।

रजिया ने उसे गले से लगाकर कहा-“क्यों रोती है बहन? वह चला गया। मैं तो हूं। किसी बात की चिन्ता न कर। इसी घर में हम और तुम दोनों उसके नाम पर बैठेंगी। मैं वहां भी देखुंगी यहां भी देखुंगी। धाप-भर की बात ही क्या? कोई तुमसे गहने-पाते मांगे तो मत देना। दसिया बोली–मेरे दूध होता ही नहीं। गाय जो तुम छोड़ गई थीं, वह मर गई। दूध नहीं मिलता”।

दसिया को यूं लग रहा था कि सिर पटक कर मर जाय। इसे उसने कितना जलाया, कितना रुलाया और घर से निकाल कर छोड़ा। रजिया ने पूछा-“जिस-जिस के रुपये हो, मुझे बता देना। मैं झगड़ा नहीं रखना चाहती। बच्चा दुबला क्यों हो रहा है?”

राम-राम! बेचारा मुरझा गया। मैं कल ही गाय लाऊंगी। सभी गृहस्थी उठा लाऊंगी। वहां क्या रखा है। लाश उठी। रजिया उसके साथ गई। अंतिम संस्कार किया। खान पान हुआ कोई दो सौ रुपये खर्च हो गए। लेकिन किसी से मांगने न पडे।

दसिया के जौहर भी इस त्याग की आंच में निकल आये। ऐशो आराम करने वाली सेवा की मूर्ति बन गई।

आज रामू को मरे सात साल हुए हैं। रजिया घर संभाले हुए है। दसिया को वह सौत नहीं, बेटी समझती है। पहले उसे पहनाकर तब ख़ुद पहनती हैं, उसे खिलाकर खुद खाती है। जोखू पढ़ने जाता है। उसकी सगाई की बातचीत पक्की हो गई। इस जाति में बचपन में ही शादी हो जाती है। दसिया ने कहा

“बहन गहने बनवा कर क्या करोगी। मेरे गहने लो पड़े ही हैं।

रजिया ने कहा नहीं रे, उसके लिए नये गहने बनवाऊंगी। अभी तो मेरा हाथ चलता हैं, जब थक जाऊं, तो जो चाहे करना। तेरै अभी पहनने-ओढ़ने के दिन हैं, तू अपने गहने रहने दे”।

नाइन ठकुरसोहाती करके बोली- आज जोखू के बाप होते, तो कुछ और ही बात होती”। रजिया ने कहा- वे नहीं हैं, तो मैं तो हूं। वे जितना करते, मैं उसका दुगना करूंगी। जब मैं मर जाऊं, तब कहना जोखू का बाप नहीं है!”

शादी के दिन दसिया को रोते देखकर रजिया ने कहा-“बहु, तुम क्यों रोती हो? अभी तो मैं जिंदा हूं। घर तुम्हारा हैं जैसे चाहो रहो। मुझे एक रोटी दे दो, बस और मुझे क्या करना है। मेरा आदमी मर गया तुम्हारा तो अभी जिंदा है”। दसिया ने उसकी गोद में सिर रख दिया और खूब रोई-“जीजी, तुम मेरी माँ हो। तुम न होती, तो मैं किसके दरवाजे पर खड़ी होती। घर में तो चूहें दौड़ते थे। उनके राज में मुझे दुख ही दुख उठाने पड़े। सुहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज में मिला। मैं दुख से नहीं रोती, रोती हूं भगवान् की दया पर कि कहां मैं और कहां यह खुशहाली!”

रजिया गुस्करा कर रो दी सीख ये कहानी हमें सिखाती है कि बुरे कर्म का बुरा नतीजा होता है, जिंदगी में आप चाहे छोटे फ़ैसले लें या बड़े लेकिन बहुत सोच समझकर कदम उठाएं और इस बात का ध्यान ज़रूर रखें कि फैसले से किसी के दिल को ठेस तो पहुंचा कई बार हम अपने फ़ायदे और मतलब के लिए ऐसे फैसले ले लेते हैं जो हमारे अपनों या क़रीबी लोगों को बहुत दुःख पहुंचाते हैं लेकिन हम अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो जाते हैं कि हमें और कुछ नहीं सूझता. हमारी आखें तब खुलती हैं जब हम बर्बाद हो रहे होते हैं.

उस वक़्त हम बिलकुल अकेले हो जाते हैं, हमारी मदद के लिए कोई नहीं आता. उस वक्त हमें एहसास होता है कि हमने कितना गलत काम किया था, ये कहानी ये भी सिखाती है कि हर इसान को इंडिपेंडेंट बनना चाहिए. किसी के सहारे रहने से बुरे वक्त में औरों के सामने हाथ फैलाने तक की नौबत आ सकती है.

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