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दफ्तर में ज़रा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उतनी ही देर में आता है; और उतने ही जल्दी जाता भी है। चपरासी की नौकरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना पूरा काम देना पड़ता है । खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़ कर साईकिल ली, नौकर ने दौड़कर कमरे का पर्दा उठा दिया और जमादार ने डाक की किश्त मेज पर ला कर रख दी।
मदारीलाल ने पहला सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग उड़ गया। वे कई मिनट तक हैरानी की हालत में खड़े रहे, मानो सारी सुनने,समझने की ताकत ही खत्म हो गयी हो। उन्हें पहले भी बड़े-बड़े धक्के लग चुके थे, पर इतने परेशान वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचन्द्र को वह जगह दी थी और सुबोधचन्द्र वह आदमी था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को नफ़रत थी। वह सुबोधचन्द्र, जो उनके साथ पढ़ता था, जिसे हराने की उन्होंने कितनी ही कोशिश की, पर कभी सफल न हुए। वही सुबोध आज उनका अफसरहोकर आ रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना पता था कि वह फौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा-वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानों जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसके नीचे पद पर काम करना पड़ेगा। इस बेइज्जती से तो मर जाना कहीं बेहतर था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी बातें जरूर याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से निकलवा देने के लिए कई बार कोशिश की, झूठे इल्ज़ाम लगाए, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी बातो का बदला लेगा। मदारी बाबू को अपने बचने का कोई तरीका समझ नहीं आ रहा था। मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही तकरार थी , दोनों एक ही
दिन, एक ही स्कूल में भर्ती हुए और पहले ही दिन से दिल में जलन और नफरत की वह चिनगारी पड़ गयी, जो आज बीस साल बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध की गलती यही थी कि वह मदारीलाल से हर बात में आगे था। अच्छा शरीर,रंग-रूप, अच्छा व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सब खूबी उसमें थी। मदारीलाल ने उसकी यह गलती कभी माफ़ नहीं की। सुबोध बीस साल तक लगाकर उनके दिल में चुभता रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ्तर में काम करने लगे , तब उनका मनशांत हुआ। पर जब पता चला कि सुबोध बसरे जा रहा है, तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी नफरत निकल गयी। पर हाय री किस्मत ! आज वह पुराना जख्म कौन-कौन से दर्द और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। भगवान इतना जालिम है ! समय इतना ताकतवर!
जब जरा मन शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा-“अब आप लोग जरा हाथ-पाँव सँभाल कर रहिएगा। सुबोधचन्द्र वे आदमी नहीं हैं, जो गलतियों को माफ़ कर दें?”
एक क्लर्क ने पूछा-“क्या बहुत बेरहम है?” मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा-“वह तो आप लोगों को दो-चार दिन में पता लग ही जाएगा। मै अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूँ? बस, समझा दिया कि जरा हाथ-पाँव सँभाल कर रहिएगा। आदमी लायक है, पर बड़ा ही गुस्से वाला, बड़ा घमंडी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों खा कर जाए और डकार तक न ले; पर क्या हिम्मत कि कोई नीचे वाला एक रूपए भी खाने पाए। ऐसे आदमी से भगवान ही बचाये! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर सेवा करनी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजारजख्म कौन-कौन से दर्द और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। भगवान इतना जालिम है ! समय इतना ताकतवर!
जब जरा मन शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्को को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा-“अब आप लोग जरा हाथ-पाँव सँभाल कर रहिएगा। सुबोधचन्द्र वे आदमी नहीं हैं, जो गलतियों को माफ़ कर दें?”
एक क्लर्क ने पूछा-“क्या बहुत बेरहम है?” मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा-“वह तो आप लोगों को दो-चार दिन में पता लग ही जाएगा। मै अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूँ? बस, समझा दिया कि जरा हाथ-पाँव सँभाल कर रहिएगा। आदमी लायक है, पर बड़ा ही गुस्से वाला, बड़ा घमंडी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों खा कर जाए और डकार तक न ले; पर क्या हिम्मत कि कोई नीचे वाला एक रूपए भी खाने पाए। ऐसे आदमी से भगवान ही बचाये! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर सेवा करनी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजार से सामान लायेगा और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा और चपरासी तो शायद दफ्तर में दिखाई ही न दे।”
दफ्तर में ज़रा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उतनी ही देर में आता है; और उतने ही जल्दी जाता भी है। चपरासी की नौकरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना पूरा काम देना पड़ता है खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़ कर साईकिल नौकर ने दौड़कर कमरे का पर्दा उठा दिया
और जमादार ने डाक की किश्त मेज पर ला कर रख दी। मदारीलाल ने पहला सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग उड़ गया। वे कई मिनट तक हैरानी की हालत में खड़े रहे, मानो सारी सुनने,समझने की
ताकत ही खत्म गया है। उन्हें पहले भी अड़े-बड़े धक्के लग चुके थे, पर इतने परेशान वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड के सेक्रेटरी की जो होकर आ रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना पता था कि वह फोज में भरती हो गया था। मदारीलाल ल ने समझा वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानों जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसके नीचे पद पर काम करना की पड़ेगा। इस बेइज्जती से तो मर जाना कहीं बेहतर था। सुबोध को स्कूल और कालेज की सारी बातें जरूर याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कालेज से की
जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचन्द्र को वह जगह दी थी और सुबोधचन्द्र वह आदमी था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को नफ़रत थी। बह सुबोधचन्द्र, जो उनके साथ पढ़ता था, जिसे हराने की उन्होंने कितनी ही कोशिश की, पर कभी सफल न हुए। वही सुबोध आज उनका अफसर
पुरानी बातों का मदारी बाबू को अपने वचने का कोई ीक स कवा तोव कुछ मूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही बदला लगा। समझ नहीं आ रहा था। मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही तकरार थी, दोनों एक ही दिन, एक ही स्कूल में भर्ती हुए और पहले ही दिन से दिल में जलन और नफरत की वह चिनगारी पड़ गयी, जो आज बीस साल बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध की गलती यही थी कि वह मदारीलाल से हर बात में आगे था। अच्छा के वह शरीर,रंग-रूप, अच्छा व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सब खूबी उसमें थी। मदारीलाल ने उसकी यह गलती कभी माफ़ नहीं की। सुबोध बीस साल तक लगाकर उनके दिल में चुभता रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ्तर में काम करने लगे, तब उनका मन शांत हुआ। पर जब पता चला कि सुबोध बसरे जा रहा है, तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी नफरत निकल गयी। पर हाय ज वह पुराना जख्म कौन-कौन से दर्द और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। भगवान इतना जालिम किस्मत! आज है! समय इतना ताकतवर!
निकलवा देने के लिए कई बार
की, झूठे इल्ज़ाम लगाए, बदनाम किया। क्या।
जब जरा मन शांत हुआ, तब मदारी ने दफ्तर के क्लर्कों को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा”अब आप लोग जरा हाध-पवि सँभाल कर रहिएगा। सुबोधचन्द्र वे आदमी नहीं हैं, जो गलतियों को माफ़ कर दें?” एक क्लर्क ने पूछा “क्या बहुत बेरहम है?”
मदारीलाल ने मुस्करा कर कहा-“तह तो आप लोगों को दो-चार दिन में पता लग ही जाएगा। मै अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करू? बस, समझा दिया कि जरा हाथ-पॉव सँभाल कर रहिएगा। आदमी लायक है, पर बड़ा ही गुस्से वाला, बड़ा घमंडी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों खा कर जाए और डकार तक न ले; पर क्या हिम्मत कि कोई नीचे वाला एक रूपए भी खाने पाए। ऐसे आदमी से भगवान ही बचाये! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक्त घर पर सेवा करनी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा। कोई बाजार से सामान लायेगा और कोई उन्हें अखबार सुनायेगा और चपरासी तो शायद दफ्तर में दिखाई ही न दे।
इस तरह सारे दफ्तर को सुबोधचन्द्र की तरफ से भड़का कर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया। इसके एक हफ्ते बाद सुबोधचन्द्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ्तर सब कर्मचारी वही मिले सब उनका स्वागत करने आये थे। मदारीलाल को
देखते ही सुबोध जल्दी से बढ़ कर उनके गले से लिपट गये और बोले “तुम खूब मिले भाई। यहाँ कैसे आये? ओह! आज कितने साल के बाद मिले। मदारीलाल बोले-“यहाँ जिला-बोर्ड के दफ्तर में हेड क्लर्क हूँ। आप तो ठीक हैं ?” सुबोध-अजी, मेरी न पूछो। बसरा, फ्रांस, मिश्र और न-जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा। तुम दफ्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ में ही न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिलकुल कोरा हूँ पर जहाँ जाता हूँ, मेरा भाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसे में सभी अफसर खुश थे। फ्रांस में
भी खूब मजे किये। दो साल में कोई पचीस हजार रूपये बना लाया और रहा। यहाँ आया तब तुम सब उड़ा दिया। वहां से आकर कुछ दिनों को-आपरेशन दफ्तर में मस्ती करता म मिल गये। (क्लर्कों को देख कर वे लोग कौन हैं?”
मदारीलाल के दिल में तीर से चल रहे थे दुष्ट पचीस हजार रूपये बसरे में कमा लाया! यहाँ कलम चलाते-चलाते जीवन निकल गया और पाँच सो भी जमा कर सके। बोले-“कर्मचारी हैं। नमस्ते करने आये हैं।” सुबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और कहा-आप लोगों बेकार में परेशान हुए। बहुत धन्यवाद करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि आप सब लोगो को मुझसे कोई शिकायत न होगी। मुझे अपना अफसर नहीं, अपना भाई समझिए। आप सब लोग मिल कर इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड का अच्छा नाम हो और मैं भी खुश रूँ। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने और
बहुत बोलने अच्छे दोस्त है।”
ने में चालाक एक क्लर्क ने कहा हम सब हुजूर की बात मानने वाले हैं। जहां तक हो सके आपको निराश न करेंगे, लेकिन आदमी ही हैं, अगर
कोई गलती हो भी जाए, तो हुजूर उसे माफ़ करेंगे।
सुबोध ने प्यार से कहा-“यही उसूल है और हमेशा से यही उसूल रहा है। जहाँ रहा, नीचे पद वालों के साथ दोस्तों के जैसा रहा। हम और आप दोनों ही किसी तीसरे के नौकर हैं। फिर रौब कैसा और अफसरी कैसी? हाँ, हमें अच्छे मन के साथ अपना काम करना चाहिए।”
जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस
एक- “आदमी तो अच्छा मालूम होता है।”
दूसरा – “हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा लगता तीसरा – “पहले सभी ऐसे ही बातें करते हैं।”
में बातें होनी लगीं
था कि सबको कच्चा ही खा जायगा।”
चौथा- बाते सिर्फ कहने के लिए हैं।” सुबोध को आये एक महीना हो गया। बोर्ड के क्लर्क, नौकर, चपरासी सभी उसके व्यवहार से खुश हैं। वह इतना खुशमिजाज है, वह इतने अच्छे स्वभाव
का है कि जो उससे एक बार मिला, हमेशा के लिए उसका दोस्त हो जाता है। बुरा शब्द तो उनकी जबान पर आता ही नहीं। इनकार को भी वह बुरा नहीं लगने देता, लेकिन जलने वाले की आँखों में गुण और भी बुरा हो जाता है। सुबोध के सारे अच्छे गुण मदारीलाल की आँखों में चुभते रहते। उसके खिलाफ कोई न कोई चाल चुपचाप चलते ही रहते। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, कुछ न बना । ठेकेदारों को उठाने का का बीड़ा सोचा, शर्मिदा होना पड़ा। वे चाहते थे कि भुस में आग लगा कर दूर से तमाशा देखें । सुबोध से यो हँस कर मिलते, यो मीठी-मीठी बातें करते, मानों उसके सच्चे दोस्त हैं, पर मौका ढूंठते रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीलाल को अब
भी अपना दोस्त समझते।
एक दिन मदारीलाल सेक्रटरी साहब के कमरे में गए तब कुर्सी खाली देखी। वे किसी काम से बाहर गए थे। उनकी मेज पर पाँच हजार के नोट बँधे हुए रखे थे। बोर्ड के स्कूलों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार को पैसे लेने के लिए बुलाया गया था। आज
गड्डी में
ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मँगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदें में झॉक कर देखा, सुबोध का कहीं पता नहीं। उनकी नीयत बदल गयी। जलन में लालच मिल गया। कापते हुए हाथों से गड्डियाँ उठाई। पैंट की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से निकले ओर चपरासी को बुला कर
अंदर हैं ?” चपरासी तो खुद ठेकेदार से कुछ पैसे लेने की खुशी में पागल भा। सामने वाले तमोली के दकान से आकर बोला जी नहीं, कचहरी में किसी से लातें
कर रहे हैं। अभी-अभी तो गये ह।
मदारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लर्क से कहा-“यह फ़ाइल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।” क्लर्क फ़ाइल लेकर चला गया। थोड़ी देर में वापस आकर बोला-“सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइल मेज पर रख आया हूँ।”
मदारीलाल ने मुँह बना कर कहा-“कमरा छोड़ कर कहाँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा खाएंगे।” क्लर्क ने कहा-“उनके कमरे में दफ्तर वालों के सिवा और जाता ही कौन है?”
मदारीलाल ने तेज आवाज में कहा-“तो क्या दफ्तर वाले सब के सब भगवान हैं? कब किसकी नीयत बदल जाए, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छे -अच्छों की नीयत बदलते देखी हैं। इस वक्त हम सभी ईमानदार हैं, लेकिन मौका मिलते शायद ही कोई छोड़े। लोगों की
यही आदत है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाजे बन्द कर दीजिए।” पहा
क्लर्क ने टाल कर कहा—‘चपरासी तो दरवाजे पर बैठा हुआ है।” H
मदारीलाल ने थोड़े गुस्से से कहा “आप से मैं जो कहता हूँ, वह कीजिए।” वह कहने लगें, “चपरासी बैठा हुआ है।”
मदारीलाल – “चपरासी कोई शरीफ है? चपरासी ही कुछ चोरी कर ले, तो आप उसका क्या कर लेंगे? जमानत भी है तो तीन सौ की। यहाँ एक-एक
कागज लाखों का है।
यह कह कर मदारीलाल खुद उठे और दफ्तर के दरवाजे दोनों तरफ से बन्द कर दिये।
जब मन शांत हुआ तब नोटों की गड्डी जेब से निकाल कर एक आलमारी में कागजों के नीचे छिपा कर रख दिये फिर आकर अपने काम में लग गये।
सबोधचन्द्र कोई घंटे-भर में लौटे। तब उनके कमरे का दरवाजा बन्द था। दफ्तर आकर मुस्कराते हुए बोले”मेरा कमरा किसने बन्द कर दिया है, भाई
क्या मुझे निकाल दिया गया है ?
मदारीलाल ने खड़े होकर हल्के से अपमान करते हुए कहा “साहब, गलती माफ हो, आप जब कभी बाहर जाएँ, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा-बन्द कर दिया करें। आपकी मेज पर रूपये-पैसे और सरकारी कागज-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न जाने किस वक्त किसकी
मैंने अभी सुना कि आप कहीं गये हैं, जब दरवाजे बन्द कर दिये।” सुबोध चंद्र दरवाजा खोल कर कमरे में गये और सिगार पीने लगे मेज़ पर नोट रखे हुए है, इसका पता ही नहीं था।
नीयत बदल जाए।
अचानक ठेकेदार ने आकर नमस्ते किया तो सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले-“तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था। दस ही बजे
আामे मेंगव लिखवा लाये ह रुपये | लिये थे। रसीद हो न?”
ठेकेदार-“हुजूर रसीद लिखवा लाया हूँ।” सुबोध
-तो अपने रूपये ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत खुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगायी और काम में सफाई भी नहीं है। अगर काम फिर करोगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जाएगा।”
यह कह कर सुबोध ने मेज पर देखा, तब नोटों की गड्डी नहीं थी। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गये हों। कुरसी के पास के सब कागज
ऐसा
उलट-पुलट डाले, मगर नोटो का कहीं पता नहीं। ये नोट कहाँ गये! अभी तो मैंने यही रख दिये थे। जा कहाँ सकते हैं । फिर फाइलों को उलटने- पुलटने लगे। दिल में जरा-जरा धड़कन होने लगी। सारी मेज के कागज छान डाले, नोटों का पता नहीं। तब चे कुरसी पर बैठकर इस आधे घटे में होने चाली
घटनाओं को मन में याद करने लगे-“चपरासी ने नोटों की गड़ियाँ लाकर मुझे दी, खूब याद है। भला, यह भी भूलने की है और इतनी जल्दी ! मैने नोटों को लेकर यहीं मेज पर दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गये, पुरानी जान
पहचान वाले वाले हैं। उनसे बातें करता हुआ थोड़ी देर उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मँगवाये, बस इतनी ही देर हुई। जब गया हूँ तब नोट रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहाँ गायब हो गये? मैंने किसी बक्से, दराज या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये तो कहाँ? शायद दफ्तर में किसी ने संभालने के लिए उठा कर रख दिये हों, यही बात है। मैं बेकार ही इतना घबरा गया। छि:
तुरन्त दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले-‘आपने मेरी मेज पर से ट तो उठा कर नहीं रख दिय?” मदारीलाल ने चौंक कर कहा”क्या आपकी मेज पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो पता ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे, तब आपको कमरे में न देखा। जब मुझे पता चला कि आप किसी से बातें करने चले गये हैं, तो मैंने दरवाजे बन्द करा दिये। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैं ?” सुबोध आँखें फैला कर बोले-“अरे साहब, पूरे पाँच हजार के है। अभी-अभी चेक भुनाया है।”
मदारीलाल ने सिर पीट कर कहा-“पूरे पाँच हजार! सुबोध – “अजी पंद्रह मिनट से ढूंढ रहा हूँ।” भगवान! आपने मेज पर अच्छी तरह देख लिया?”
मदारीलाल “चपरासी से लिया कि कौन-कौन आया था?”
सुबोध “आइए, जरा आप लोग भी देख लीजिये। मेरे तो होश उड़े हुए हैं।”
सारा दफ्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज, आलमारियाँ, बक्से सब देखे गये। रजिस्टरों के वर्क उलट-पुलट कर देखे गये, मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शक न था। सुबोध ने एक लम्बी साँस ली ओर कुर्सी पर बेठ गये। चेहरे का रंग उड़ गया। मुँह पर परेशानी साफ़ दिख रही थी। इस समय कोई उन्हें देखता तो समझता कि महीनों से बीमार हैं। मदारीलाल ने दया दिखाते हुए कहा- “गजब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा बुरा न हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गये, कभी
एक रुपए की चीज न हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रूपये-पैसे के मागले में होशियार रहिएगा, मगर होनी थी, गायब ध्यान ही न रहा। जरूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ा कर गायब हो गया। चपरासी की यही गलती है कि उसने किसी को कमरे में जाने ही क्यों दिया। वह लाख कसम खाये कि बाहर से कोई नहीं आया, लेकिन मैं इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो बस पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे, मगर दरवाजे से ही झोंक कर चले आयो
सोहनलाल ने सफाई दी–” -“मैंने तो अन्दर पैर ही नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की कसम खाता हूँ, जो अन्दर पैर रखा भी हो।” मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा-“आप बेकार में कसम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कह रहा है क्या ? (सुबोध के कान में) बैंक में कुछ रूपये हों तो निकाल कर ठेकेदार को दे दिए जाएँ, नहीं तो बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ बेइज्जती क्यों हो।” सुबोध ने दयनीय आवाज़ में कहा-‘बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रूपये होंगे, भाईजान! रूपये होते तो क्या चिन्ता थी। समझ लेता, जैसे पचीस हजार उड़ गये, वैसे ही तीस हजार भी उड़ गये। यहाँ तो कफन के लिए भी पैसे नहीं।” उसी रात सुबोधचन्द्र ने आत्महत्या कर ली।
इतने रूपयों का इंतजाम करना उनके लिए मुश्किल था मरने के अलावा उन्हें अपनी मजबूरी, अपने दर्द को छिपाने का कोई और रास्ता नहीं था। सुबह चपरासी ने मदारीलाल के घर पहुँच कर आवाज दी, मदारी को रात-भर नींद न आयी थीं। घबरा कर बाहर आये। चपरासी उन्हें देखते ही बोला-“हुजूर! बड़ा गजब हो गया, सिकट्टरी साहब ने रात को गर्दन पर छुरी फेर ली।”
मदारीलाल की आँखे ऊपर चढ़ गयीं, मुँह फैल गया और शरीर काँप गया, मानों उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।
मदारीलाल – “छुरी फेर ली?”
“जी हाँ, आज सबेरे पता चला। पुलिस वाले आये हैं। आपकों बुलाया है।”
मदारीलाल – “लाश अभी पड़ी हुई है?” चपरासी “जी हाँ, अभी डाक्टरी होने वाली है।”
मदारीलाल – “बहुत से लोग जमा हैं?”
“सब बड़े-बड़ अफसर आये हैं। हुजूर, लाश की और देखा नहीं जाता। कैसा हीरे जैसे अच्छा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोटे छोटे दो
बच्चे हैं, एक जवान लड़की है शादी के लायकी बहू जी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लाश के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीं हैं, जो रूमाल से आँखें न पोछ रहा हो। अभी इतने ही दिन हुए आए, पर सबसे कितना मेल-जोल हो गया था रूपये की तो कभी परवाह ही नहीं थी। दिल
बड़ा था!”
मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। दरवाजे की चौखट पकड़ कर अपने को सँभाल न लेते, तो शायद गिर पड़ते। पूछा–बहू जी बहुत रो रहीं
थी?”
चपरासी – कुछ न पूछिए, हुजूर। पेड़ की पत्तियाँ झड़ी जाती हैं। रो-रो कर आँखे सुज गयी है।” मदारीलाल – “कितने लड़के बतलाये तुमने?”
चपरासी हुजूर, दो लड़के हैं और एक लड़की।
मदारीलाल नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?
चपरासी – जी हाँ, सब लोग यही कहते है कि दफ्तर के किसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनलाल को गिरफ्तार करना चाहते थे, पर ये सब
आपसे सलाह लेकर करेंगे। सिकट्टरी साहब तो लिख गए हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है।”
मदारीलाल – “क्या सेक्रेटरी साहब कोई खत लिख कर छोड़ गये है?”
चपरासी दी।”
“हाँ, ऐसा लगता है, छुरी चलाते समय याद आयी कि शक में दफ्तर के सब लोग पकड़ लिए जाएंगे। बस, कलक्टर साहब के नाम चिट्ठी लिख
मदारीलाल – “चिट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है? तुम्हें क्या पता होगा?”
हुजूर, अब मैं क्या जानूँ, पर इतना सब लोग कहते थे कि आपकी बड़ी तारीफ
लिखी है।”
मदारीलाल की साँस और तेज हो गयी। आँखें से आँसू की दो बड़ी-बड़ी बूंदे गिर पड़ी। आँखें पॉछतें हुए बोले-‘वे ओर में एक साथ पढ़े थे, नन्दू! आठ-दस साल साध रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तरह रहले थे, जैसे दो सगे भाई रहते हों। खत में मेरी क्या तारीफ लिखी
है? मगर तुम्हें क्या पता होगा? चपरासी – “आप तो चल ही रहे हैं, देख लीजिएगा।
मदारीलाल – “कफन का इंतज़ाम हो गया?
चपरासी – ‘नहीं हुजूर, क्या है ना कि अभी लाश की डाक्टरी होगी। साहब अब जल्दी चलिए। ऐसा न हो, कोई दूसरा आदमी बुलाने आता हो।”
‘मदारीलाल हमारे दफ्तर के सब लोग आ गये होंगे?”
चपरासी – जी हाँ; इस मुहल्ले वाले तो सभी थे।”
मदारीलाल जब व सुबोधचन्द्र के घर पहुँचे, तब उन्हें ऐसा लगा कि सब लोग उनकी तरफ शक से देख रहे हैं। पुलिस इंस्पेक्टर ने तुरन्त उन्हें बुला कर कहा
“आप भी अपना बयान लिखा दें और सबके बयान तो लिख चुका हूँ।” मदारीलाल ने ऐसी सावधानी से अपना बयान लिखाया कि पुलिस के अफसर भी दंग रह गये। उन्हें मदारीलाल पर शक होता था, पर इस बयान ने उसका
अंदाजा भी दूर दिया।
इसी वक्त सुबोध के दोनों बेटे रोते हुए मदारीलाल के पास आये और कहा “चलिए, आपको अम्र्मों बुलाती हैं।” दोनों मदारीलाल मदारीलाल यहाँ तो न ही आते थे, पर घर में कभी नहीं गये थे। सुबोध की पत्नी उनसे पर्दा करती थी। यह बुलावा सुन कर उनका दिल धड़क उठा
कहीं इसका मुझ पर शक न हो। कहीं सुबोध ने मेरे बारे में कोई शक न जाहिर किया हो।
को जानते थे।
कुछ झिझकते और कुछ डरते हुए अंदर गए, तब विधवा का रोना सुन कर कलेजा कॉप उठा। इन्हें देखते ही उस लाचार औरत के आँसुओं का कोई दूसरा रास्ता खुल गया और लड़की तो दौड़ कर इनके पैरों से लिपट गई। दोनों लड़को ने भी घेर लिया। मदारीलाल को उन तीनों की आँखें में ऐसा गहरा
दर्द, ऐसी दिल चीरने वाली प्रार्थना महसूस हुई कि वे उनकी ओर देख न सके। उनकी आत्मा उन्हें कोसने लगी। जिन बेचारों को उन पर इतना दिश्वास, इतना भरोसा, इतना अपनापन, इतना प्यार था, उन्हीं की गर्दन पर उन्होंने छुरी फेरी! उन्हीं के हाथों यह भरा-पूरा परिवार बर्बाद हो गया! इन बेचारों का अब क्या हाल होगा? लड़की की शादी करनी है, कौन करेगा? बच्चों को पालने की जिम्मेदारी कौन उठाएगा? मदारीलाल को इतना पछतावा हुआ कि उनके मुँह से तसल्ली का एक शब्द भी न निकला। उन्हें ऐसा लगा कि मेरे मुंह पर काला रंग लगा है, मेरा कद कुछ छोटा हो गया है। उन्होंने जिस वक्त नोट चोरी किये थे, उन्हें अंदाजा भी न था कि उसका यह फल होगा। वे सिर्फ सुबोध को तंग करना चाहते थे। उन्हें बर्बाद करने की
इच्छा न थी।
दुखी पत्नी ने सिसकते हुए कहा “भैया जी, हम लोगों को वे बीच रास्ते में छोड़ गए। अगर मुझे पता होता कि मन में यह बात बैठा चुके हैं तो अपने पास जो कुछ था, वह सब उनके पैरों पर रख देती। मुझसे तो वे यही कहते रहे कि कोई न कोई इतजाम हो जायगा। आप ही के दम पर वे कोई बड़े आदमी से
पैसे लेकर सब ठीक करना चाहते थे। आपके ऊपर उन्हें कितना भरोसा था कि कह नाहीं सकती।”
मदारीलाल को ऐसा लगा कि कोई उनके दिल पर चोट कर रहा है। उन्हें अपने गले में कोई चीज फैसी हुई जान पड़ती थी। रामेश्वरी ने फिर कहा-“रात सोये, तब खूब हँस रहे थे रोज तरह दूध पिया, बच्चो को प्यार किया, थोड़ी देर हारमोनियम बजाया और तब कुल्ला करके लेटे। कोई ऐसी बात न थी जिससे थोड़ा भी शक होता। मुझे परेशान देखकर बोले-तुम बेकार धबराती हों बाबू मदारीलाल से मेरी पुरानी दोस्ती है। आखिर वह किस दिन काम आएगी? मेरे साथ खेले हुए हैं। इस शहर में उनकी सबसे जान पहचान है रूपयों का इंतजाम आराम से हो जायगा।” खल
फिर न जाने कब मन में यह बात आयी। मैं बदकिस्मत ऐसी सोयी कि रात को हिली नहीं। क्या जानती थी कि वे अपनी जान ले लेंगे?”
की हिली तक
मदारीलाल को सारी दुनियाँ आँखों में घूमती नजर आयी। उन्होंने बहुत कोशिश की, पर आँसुओं को न रोक सके। रामेश्वरी ने आँखे पौछ कर फिर कहा–भैया जी, जो कुछ होना था, वह तो हो चुका, लेकिन आप उस दुष्ट का पता जरूर लगाइए, जिसने हमे बर्बाद कर दिया। यह दफ्तर ही के किसी आदमी का काम है। वे तो भगवान थे। मुझसे यही कहते रहे कि मेरा किसी पर शक नहीं है, पर है यह किसी दफ्तर वाले का ही काम। आप से सिर्फ इतनी विनती करती हूँ कि उस पापी को बच कर न जाने दीजिएगा। पुलिस वाले शायद कुछ रिश्वत लेकर उसे छोड़ दें। आपको देख कर उनकी यह हिम्मत नहीं होगी। अब हमारे सिर पर आपके अलावा कौन है। किससे अपना दुःख कहें? लाश का यह हाल भी होना लिखा था।
“मदारीलाल के मन में बार ऐसा आया कि सब कुछ खोल दें। साफ कह दें- में ही वह दुष्ट, वह नींच, वह पापी हूँ। विधवा के पैरों पर गिर पड़े और कहें, वही छुरी इस हत्यारे की गर्दन पर फेर दो। पर जबान न खुली, इसी हाल में बैठे-बैठे उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि वे जमीन पर गिर पड़े।”
तीसरे पहर लाश की परीक्षा खत्म हुई। अर्थी श्मशान की ओर चली। सारा दफ्तर, सारे कर्मचारी और हजारों आदमी साथ थे। दाह-संस्कार लड़को को करना चाहिए था पर लड़के छोटे थे। इसलिए विधवा चलने को तैयार हो रही थी, कि मदारीलाल ने जाकर कहा ‘बडू जी, यह संस्कार मुझे करने दो। तुम क्रिया पर बैठ जाओगी, तो बच्चों को कौन संभालेगा। सुबोध मेरे भाई थे। जिंदगी में उनके साथ कुछ अच्छा न कर सका, अब जिंदगी के बाद मुझे
दोस्ती का कुछ हक पूरा कर लेने दो। आखिर मेरा भी तो उन पर कुछ हक था।” रामेश्वरी ने रोकर कहा-“आपको भगवान ने बड़ा दिल दिया है भैया जी, नहीं तो मरने पर कौन किसको पूछता । दफ्तर के और लोग जो
आधी-आधी रात तक हाथ बधि खड़े रहते थे झूठी बात पूछने न आये कि जरा सहारा होता”। मदारीलाल ने दाह-संस्कार किया। तेरह दिन तक क्रिया पर बैठे रहे। तेरहवें दिन पिंडदान हुआ, ब्रहमणों ने खाना खाया, भिखारियों को अन्न-दान दिया
मा, दोस्तों की दावत हुई, और यह सब कुछ मुरारीलाल ने अपने खर्च से किया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कि- “आपने जितना किया उतना ही बहुत है। अब मैं आपको और परेशान नहीं करना चाहती। दोस्ती का हक इससे ज्यादा और कोई क्या पूरा करेगा”, मगर मदारीलाल ने एक न सुनी। सारे शहर में
उनकी दोस्त हो तो ऐसा हो। इज्ज़त की धूम मच गयी, सोलहवें दिन विधवा
ने मदारीलाल से कहा-‘भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और कृपा की है, उसे हम मरते दम तक नहीं पूरा कर सकते। आपने हमारे ऊपर हाथ न रखा होता, तो न-जाने हमारा क्या हाल होता। कहीं किसी का सहारा नहीं था। अब हमें घर जाने दीजिए। वहाँ गाँव में खर्च भी
कम होगा और कुछ खेती बाड़ी का काम भी कर लँगी। किसी न किसी तरह
मदारीलाल ने ल ने पूछा- “घर पर कितनी जायदाद है?”
दुःख के दिन कट ही जाएँगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखिएगा।”
रामेश्वरी-“जायदाद क्या है, एक कच्चा मकान है और दस-बारह बीघे की खेती बाड़ी है। पक्का मकान बनवाना शुरू किया
अभी अधूरा पड़ा हुआ है। दस-बारह हजार खर्च हो गये और अभी छत पड़ने की नौबत नहीं आयी।” मदारीलाल-कुछ रूपये बैंक में जमा खेती ही का सहारा है ?’
विधवा-“जमा तो एक रुपया भी नहीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रूपये रहने ही नहीं पाते थे। बस, वही खेती का सहारा है।” मदारीलाल-“तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जायगी कि लगान भी पूरा हो जाए और तुम लोगों का गुजारा भी हो?”
था; मगर रूपये पूरे न पड़े।
रामेश्वरी-“और ही क्या सकते हैं, भेया जी! किसी न किसी तरह जिंदगी तो काटनी ही है। बच्चे न होते तो में जहर खा लेती।” मदारीलाल-“और अभी बेटी की शादी भी तो करनी है।
विधवा “उसकी शादी की अब कोई चिंता नहीं। किसानों में ऐसे बहुत से मिल जाएंगे, जो बिना कुछ लिये-दिये शादी कर लेंगे।” मदारीलाल ने एक पल सोचकर कहा “अगर में कुछ सलाह दूँ, तो उसे मानेंगी आप?”
रामेश्वरी “भैया जी, आपकी सलाह न मानूंगी तो किसकी सलाह मानूँगी और दूसरा है ही कौन?” “तो आप अपने घर जाने के बदले मेरे ने चाहा तो बिटिया की शादी भी किसी अन्तो ा बर चलिए। जैसे मेरे बाल-बच्चे रहेंगे, वैसे ही आप के भी रहेंगे। आपको तकलीफ़ न होगी। भगवान
विधवा की आँखों में आंसू आ गए। बोली-मगर भैया जी सोचिए. मदारीलाल ने बात काट कर कहा-“मैं कुछ न सोचूँगा और न कोई बहाना सुगा। क्या दो भाइयों के परिवार एक साथ नहीं रहते ? सुबोध को में अपना भाई समझता था और हमेशा समझेंगा।” विधवा का कोई बहाना न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गये और आज दस साल से उनका खर्चा चला रहे हैं। दोनों बच्चे कालेज में पढ़ते और बिटिया की शादी अच्छे घर में हो गयी है। मदारीलाल और उनकी पत्नी हर तरीके से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उनके कहने पर चलते
हैं। मदारीलाल सेवा से अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं। सीख – इस कहानी में दिखाया गया है कि जलन की भावना इसान से वो करवा सकती है जिसका नतीजा कभी-कभी बेहद दर्दनाक हो सकता है, इंसान को जब अपनी गलती का एहसास होता है तो उसका पछतावा बाद में उसे चैन से जीने नहीं देता। उस का प्रायक्षित इसी जिन्दगी में, अपने कर्मों को सुधार कर करना पड़ता है।
घर में हो जायेगी।”