दुर्गा माली डॉक्टर मेहरा, बार-ऐट ला, के यहाँ नौकर था। पाँच रुपये महिने का तनख्वाह पाता था। उसके घर में बीवी और दो-तीन छोटे बच्चे थे। बीवी पड़ोसियों के लिए गेहूं पीसा करती थी। दो बच्चे, जो समझदार थे, इधर-उधर से लकड़ियाँ, गेहूँ, उपले चुन लाते थे। लेकिन इतनी मेहनत करने पर भी वे बहुत तकलीफ में थे। दुर्गा, डॉक्टर साहब की नजर बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाजार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था। कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता। सही उसकी ऊपरी कमाई थी। इससे खाने पीने आदि काम चल जाता था। उसने कई बार डॉक्टर महोदय से तनख्वाह बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, लेकिन डॉक्टर साहब नौकर की तनख्वाह बढ़ाने को छूत की बीमारी समझते थे, जो धीरे धीरे बढ़ती जाती है। दो साफ कह दिया करते कि, “भाई में मैं तुम्हें बँधे तो हूँ नहीं। तुम्हारा गुजारा यहाँ नहीं होता; तो और कहीं चले जाओ, मेरे लिए मालियों की कमी नहीं है।” दुर्गा में इतनी हिम्मत न थी कि वह लगी हुई नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी हूँढ़ने निकलता। इससे उ्यादा तनख्वाह पाने की उम्मीद भी नहीं। इसलिए वह इसी निराशा डॉक्टर ा में पड़ा हुआ जीवन के दिन काटता और अपने किस्मत को रोता था। र महोदय को बागबानी से खास प्यार था। कई तरह के फूल-पत्ते लगा रखे थे। अच्छे-अच्छे फलों के पोधे दरभंगा, मलीहाबाद, सहारनपुर आदि जगहों से मंगवा कर लगाये थे। पेड़ों को फलों से लदे हुए देख कर उन्हें दिली खुशी होती थी। अपने दोस्तों के यहाँ गुलदस्तें और शाक-भाजी की टोकरियां तोहफे के तौर पर भिजवाते रहते थे। उन्हें फलों को खुद खाने का शौक न था, पर दोस्तों को खिलाने में उन्हें बेहद खुशी मिलती थी। हर फल के मौसम में दोस्तों की दावत करते, और पिकनिक पार्टियाँ उनके मनोरंजन का जरूरी हिस्सा थीं।
एक बार गर्मियों में उन्होंने अपने कई दोस्तों को आम खाने की दावत दी। मलीहाबादी पेड़ में आम खूब लगे हुए चे। डॉक्टर साहब इन फलों को हर दिन देखा करते थे। ये पहले ही फले थे, इसलिए वे दोस्तों से उनके मिठास और स्वाद की तारीफ सुनना चाहते थे। इस सोच से उन्हें वही खुशी थी, जो किसी पहलवान को अपने चेलों के करतब दिखाने से होता है। इतने बड़े सुन्दर और सुकोमल आम खुद उन्होंने न देखे थे। इन फलों के स्वाद पर उन्हें इतना भरोसा था कि वे एक फल चख कर उनकी परीक्षा करना जरूरी न समझते थे, खासतौर पर इसलिए कि एक फल की कमी एक दोस्त को उसके स्वाद से र कर देगी। दूर ।
शाम का समय था, चैत का महीना। दोस्त सब आ कर बगीचे के तालाब के किनारे कुरसियों पर बैठे थे। बर्फ और दूध का इंतजाम पहले ही से कर लिया गया था, शक अभी तक फल न तोड़े गये थे। डॉक्टर साहब पहले फलों को पेड़ में लगे हुए दिखा कर तब उन्हें तोड़ना चाहते थे, जिसमें किसी को यह कि फल इनके बाग के नहीं है। जब सब सज्जन जमा हो गये तब उन्होंने कहा- “आप लोगों को तकलीफ होगा, पर जरा चलकर फलों को पेड़ में लटके हुए देखिए। बड़ा ही सुंदर नजारा है। गुलाब में भी ऐसी आँखों को भाने वाली लाली न होगी। रंग से स्वाद टपक पड़ता है। मैंने इसकी कलम खास मलीहाबाद से मँगवाई थी और उसे खास तरीके से बड़ा किया है। दोस्त उठे। डॉक्टर साहब आगे-आगे चले रास्ते के दोनों ओर गुलाब के पौधे थे उनकी सुंदरता दिखाते हुए वे आखिर में आम के पेड़ के सामने गये।
मगर, आश्चर्य वहाँ एक फल भी न था। डॉक्टर साहब ने समझा, शायद वह यह पेड़ नहीं है। दो पग और आगे चले, दूसरा पेड़ मिल गया। और आगे
बढे, तीसरा पेड़ मिला। फिर पीछे लौटे और चौंक कर आम के पेड़ के नीचे आ कर सुक गये। इसमें कोई शक नहीं कि पेड़ यही है, पर फल क्या हुए?
बीस-पच्चीस आम एक का भी पता नहीं दोस्तों की ओर अपराधी की तरह आँखों से देख कर बोले- “आश्चर्य है कि इस पेड़ में एक भी फल नहीं है। आज सुबह मैंने देखा था, पेड़ फलों से लदा हुआ था। यह देखिए, फलों का डंठल है। यह जरूर माली की बदमाशी है। मैं आज उसकी हड्डियाँ तोड़ दूंगा। उस पाजी ने मुझे कितना धोखा दिया! मैं शर्मिंदा हूँ कि आप लोगों को बेकार तकलीफ हुई। में सच कहता हूँ, इस समय मुझे जितना दुख है, उसे बता नहीं कर सकता। ऐसे रंगीले, कोमल, बहुत सुंदर फल मैंने अपने जीवन में कभी न देखे थे। उनके ऐसे गायब हो जाने से मेरे दिल के टुकड़े हुए जाते हैं।”
यह कह कर वे उदास हो कर कुरसी पर बैठ गये। दोस्तों ने सांत्वना देते हुए कहा- “नोकरों का सब जगह यही हाल है। आप हम लोगों की तकलीफ का दुख न करें। आम न सही दूसरे फल सही।”
एक आदमी ने कहा- “साहब, मुझे तो सब आम एक ही से मालूम होते हैं। आम, मोहनभोग, लँगड़े, बम्बई, फजली, दशहरी इनमें कोई फ़र्क ही नहीं मालूम होता, न जाने आप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फर्क मालूम होता है।
दूसरे आदमी बोले- “यहाँ भी वही हाल है। इस समय जो फल मिले, वही मँगवाइए। जो गये उनका अफसोस क्या ?” डॉक्टर साहब ने दुखी भाव से कहा- “आमों की क्या कमी है, सारा बाग भरा पड़ा है, खूब शौक से खाइए और बाँध कर घर ले जाइए। वे हैं और किस लिए? पर वह रस और स्वाद कहाँ ? आपको यकीन न होगा, उन सुफेदों ऐसे लाल थे कि सेब मालूम होते थे। सेब भी देखने में ही सुन्दर होता है, उसमें वह ध्यान खिचने वाला आकर्षण, चह मिठास कहाँ! इस माली ने आज वह काम किया है कि मन चाहता है नमकहराम को गोली दें। इस समय
सामने आ जाय तो मुँह नोच लूँ।” माली बाजार गया था। डॉ.
मार
गया हुआ डॉ. साहब ने नौकर से कुछ आम तुडवाये, दोस्तों ने आम खाये, दूध पिया और डॉक्टर साहब को धन्यवाद दे कर अपने-अपने घर चले गए। लेकिन मिस्टर मेहरा वहाँ होज के किनारे हाथ में हंटर लिए माली का इंतजार करते रहे। चहरे से जान पड़ता था मानो खुद गुर्सा जिंदा ही गया था।
कुछ रात गये दुर्गा बाजार से लौटा। वह चौकन्नी आँखों से इधर-उधर देख रहा था। जैसे ही उसने डॉक्टर साहब को होज के किनारे हाथ में हुंटर लिये बैठे देखा, उसके होश उड़ गये। समझ गया कि चोरी पकड़ ली गयी! इसी डर से उसने बाजार में खूब देर की थी। उसने समझा था, डॉक्टर साहब कहीं सैर करने गये होंगे, मैं चुपके कटहल के नीचे अपनी झोपड़ी में जा बैठूँगा, सबेरे कुछ पूछताछ भी हुई तो मुझे सफाई देने का मौका मिल जायगा। कह दूंगा, सरकार, मेरे झोपड़े की तलाशी ले लें, इस तरह मामला दब जायगा। समय सफल चोर का सबसे बड़ा दोस्त है। एक-एक पल उसे बेकसूर साबित करता जाता है। लेकिन जब वह रंगे हाथों पकड़ा जाता है तब उसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं रहता। खून के सूखे हुए धब्बे रंग के दाग बन सकते हैं, पर ताजा खून साफ नजर आता है। दुर्गा के पैर थम गये, छाती धड़कने लगी। डॉक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ गयी थी। अब उलटे पाँव लौटना बेकार था।
डॉक्टर साहब उसे दूर से देखते ही उठे कि चल कर उसकी खूब मरम्मत करूँ। लेकिन वकील थे, सोचा कि इसका बयान लेना जरूरी है। इशारे से निकट बुलाया और पूछा- “आम के पेड़ में कई आम लगे हुए थे। एक भी नहीं दिखायी देता। क्या हो गये ?” दुर्गा ने मासूमियत से जवाब दिया- “हुजूर, अभी में बाजार गया हूँ तब तक तो सब आम लगे हुए थे। इतनी देर में कोई तोड़ ले गया हो तो में नहीं कह
सकता।”
डॉक्टर- “तुम्हे किस पर शक है ?”
“सरकार, अब मैं किसे बताऊँ इतने नौकर-चाकर हैं, न जाने किसकी नीयत बिगड़ी हो।” दुगा मेरा
डॉक्टर- शक तुम्हारे ऊपर है, अगर तोड़ कर रखे हो तो ला कर दे दो या साफ-साफ कह दो कि मैंने तोड़े हैं, नहीं तो मैं बुरी तरह पेश आउऊँगा।” चोर सिर्फ सजा से ही नहीं बचना चाहता, वह बेइज्जती से भी बचना चाहता है। वह सजा से उतना नहीं डरता जितना बेइज्जती से। जब उसे सजा से
बचने की कोई उम्मीद नहीं रहती, उस समय भी वह अपने अपराध को नहीं मानता। वह दोषी बन कर छूट जाने से बेकसूर बन कर सजा भुगतना सही समझता है। दुर्गा इस समय अपराध मान कर सजा से बच सकता था, पर उसने कहा- “हुजूर मालिक हैं, जो चाहें करें, पर मैंने आम नहीं तोड़े। सरकार
ही बतायें, इतने दिन मुझे आपकी नौकरी करते हो गये, मैंने एक पत्ती भी छुई है।”
डॉक्टर- “तुम कसम खा सकते हो ?” दुर्गा- “गंगा की कसम जो मैंने आमों को हाथ से छुआ भी हो।”
डॉक्टर- “मुझे इस कसम पर भरोसा नहीं है। तुम पहले लोटे में पानी लाओ, उसमें तुलसी की पत्तियाँ डालो, तब कसम खा कर कहो कि अगर मेंने तोड़े हों तो मेरा लड़का मेरे काम न आये। तब मुझे विश्वास आएगा।
दुर्गा- हुजरू साँच को आँच क्या, जो कसम कहिए खाऊँगा। जब मैंने काम ही नहीं किया तो मुझ पर कसम क्या पड़ेगी।” डॉक्टर- “अच्छा, बातें न बनाओ, जा कर र पानी लाओ।”
डॉक्टर महोदय के चाल चलन के जानकार थे। हमेशा अपराधियों से व्यवहार रहता था। हालांकि दुर्गा जबान से सच्चाई की बातें कर रहा था, । ईसान के पर उसके दिल में डर समाया हुआ था। वह अपने झोपडे में आया, लेकिन लोटे में पानी लेकर जाने की हिम्मत न हुई। उसके हाथ थरथराने लगे। ऐसी घटनाएँ याद आ गयीं जिनमें झूठी कसम खाने पर भगवान के गुस्से का वार हुआ था। भगवान के सब जगह होने का ऐसा दिल को छूने वाला यकीन उसे कभी नहीं हुआ था। उसने तय किया, ‘मैं झूठी कसम न खाऊँगा, यही न होगा, निकाल दिया जाऊँगा। नौकरी फिर कहीं न कहीं मिल जायगी और नौकरी भी न मिले तो मजदूरी तो कहीं नहीं गयीं है। कुदाल भी चलाऊँगा तो शाम तक आध सेर आटे का इंतजाम हो आयगा। वह धीरे-धीरे खाली हाथ डॉक्टर साहब के सामने आ कर खड़ा हो गया !
डॉक्टर साहब ने कड़े आवाज़ से पूछा- “पानी लाया ?” दुर्गा- “हुजूर, मैं कसम न खाऊँगा।”
डॉक्टर- “तो तुम्हारा आम तोड़ना साबित है !”
दुर्गा- “अब सरकार जो चाहें, समझे। मान लीजिए, मैंने ही आम तोड़े तो आपका गुलाम ही तो हूँ। रात-दिन नौकरी करता हूँ, बाल-बच्चे आमों के लिए रोएँ तो कहाँ जाऊँ। इस बार माफ कर दें, फिर ऐसा कसूर न होगा।” ही।
डॉक्टर महोदय इतने दयालु न थे। उन्होंने यही बड़ा एहसान किया कि दुर्गा को पुलिस के हवाले न किया और हंटर ही लगाये। उसकी इस धार्मिक श्रद्धा हैं कुछ नर्म कर दिया था। मगर ऐसे कमज़ोर दिल को अपने यहाँ रखना नामुमकिन धा। उन्होंने उसी पल दुर्गा को जवाब दे दिया और उसकी आधे
ने उन्हं महीने के बाकी वेतन को जब्त कर लिया।
कई महीनों के बाद एक दिन डॉक्टर मेहरा बाबू प्रेमशंकर के बाग की सैर करने गये। वहाँ से कुछ अच्छी-अच्छी कलमें लाना चाहते थे। प्रेमशंकर को भी बागबानी से प्यार था और दोनों इंसानों में यही समानता थी, अन्य सभी चीजों में एक दूसरे से अलग धे। प्रेमशंकर बड़े संतोषी, सरल, अच्छे दिल के इंसान थे। वे कई साल अमेरिका रह चुके थे। वहाँ उन्होंने कृषि विज्ञान की खूब पढ़ाई की था और यहाँ आ कर इस काम को अपनी जीविका का जरिया
बना लिया था। बना लिया था।
इसान के चाल चलन और अभी के सामाजिक संगठन के बारे में उनकी सोच अलग थी। इसीलिए शहर के सभ्य समाज में लोग उनका मजाक उड़ाते थे
और उन्हें पागल समझते थे। इसमें शक नहीं कि उनके सिद्धान्तों से लोगों को एक तरह की सहानुभूति थी, पर उनके असरदार होने के बारे में उन्हें बड़ा शक था। दुनिया काम करने की जगह है, दर्शन की जगह नहीं। यहाँ सिद्धांत, सिद्धांत ही रहेंगे, उनका होने वाली घटनाओं से रिश्ता नहीं। डॉक्टर साहब बगीचे में पहुंचे तो उन्होंने प्रेमशंकर को पौधों में पानी देते हुए पाया। कुएँ पर एक आदमी खड़ा पम्प से पानी निकाल रहा था। मेहरा ने उसे तुरंत ही पहचान लिया। वह दुर्गा माली था। डॉक्टर साहब के मन में उस समय दुर्गा र एक अजीब सी जलन का भाव पैदा हुआ। जिस बदमाश
को उन्होंने सजा दे कर अपने यहाँ से अलग कर दिया उसे नौकरी क्यों मिल गयी? अगर दुर्गा इस समय फटेहाल रोनी सूरत बनाये दिखायी देता तो
डॉक्टर साहब को उस पर आ जाती। हो सकता है, वे उसे कुछ इनाम देते और प्रेमशंकर से उसकी प्रशंसा भी कर देते। उनके स्वभाव में दया थी और अपने नौकरों को वे दया की नज़र से देखते थे। लेकिन उनकी इस दया में जरा सा भी अंतर न था, जो अपने कुत्तों और
घोड़ों से थी। इस दया का कारण इंसाफ नहीं, गरीबों का पालन है। दुर्गा ने उन्हें देखा, कुएँ प् खड़े -खड़े सलाम किया और फिर अपने काम में लग गया। उसका यह घमंड डॉक्टर साहब के दिल में भाले की तरह चुभ गया। उन्हें यह सोच कर बहुत गुस्सा आया कि मेरे यहाँ से निकलना इसके लिए अच्छा हो गया। उन्हें अपनी अच्छाई पर जो घमंड था, उसे बड़ी चोट लगी। प्रेमशकर जैसे ही उनसे हाथ मिला कर उन्हें क्यारियों की सैर कराने लगे, वैसे ही डॉक्टर साहब ने उनसे पूछा- “यह आदमी आपके यहाँ कितने दिनों से
प्रेमशंकर- “यही 5 या 7 महीने होंगे।”
डॉक्टर- “कुछ नोच-खसोट तो नहीं करता? यह मेरे यहाँ माली था। इसकी चोरी से तंग आ कर मैंने इसे निकाल दिया था। कभी फूल तोड़ कर बेच
आता, कभी पौधे उखाड़ ले जाता, और फलों का कहना क्या? वे इसके मारे बचते ही न थे। एक बार मैंने दोस्तों की दावत की थी। मलीहाबादी आम खूब फल लगे हुए थे। जब सब आकर बैठ गये और मैं उन्हें फल दिखाने के लिए ले गया तो सारे फल गायब! कुछ न पूछिये, उस समय कितनी बेइज्जती हुई! मैंने उसी पल इन महाशय को निकाल दिया। बड़ा ही दगाबाज आदमी है, और ऐसा चालाक है कि इसको पकड़ना मुश्किल है। कोई जैसा चालाक आदमी हो तो इसे पकड़ सकता है। ऐसी सफाई और ढिठाई से झूठ बोलता है कि इसका मुँह देखते रह जाइए। आपको तो
वकीलों ही धोखा नहीं दिया
प्रेमशकर- “जी नहीं, कभी नहीं। मुझे इसने शिकायत का कोई मौका नहीं दिया। यहाँ तो खूब मेहनत करता है, यहाँ तक कि दोपहर की छुट्टी में भी आराम नहीं करता। मुझे तो इस पर इतना भरोसा हो गया कि सारा बगीचा इस पर छोड़ रखा है। दिन भर में जो कुछ आमदनी होती है, वह शाम को मुझे बोले लुटता है और आपको खबर भी
दे है और कभी एक पैसे का भी अंतर नहीं पड़ता।” डॉक्टर- “यही तो इसकी खुबी है कि आपको बिन
नहीं। आप इसे तनख्वाह क्या देते हैं ?” प्रेमशंकर- “यहाँ किसी तनख्वाह नहीं दिया जाता। सब लोग फायदे में बराबर के हिस्सेदार हैं। महीने भर में जरूरी खर्च के बाद जो कुछ बचता है, उनमें से हर 100 में से 10 रु. धर्मखाते में डाल दिया जाता है, बाकी रुपये समान भागों में बाँट दिये जाते हैं। पिछले महीने में 140 रु, की आमदनी हुई थी। मुझे मिला कर यहाँ सात आदमी हैं। 20 रु. हिस्से पड़ें। अबकी नारंगियाँ खूब हुई हैं, मटर की फलियों, गन्ने, गोभी आदि से अच्छी आमदनी हो रही
है, 40 रु. से कम न पड़ेंगे।”
डॉक्टर मेहरा ने आश्चर्य से पूछा- “इतने में आपका काम चल जाता है ?”
प्रेमशंकर- जी हाँ, बड़ी आसानी से। में इन्हीं आदमियों के जैसे कपड़े पहनता हूँ, इन्हीं के जैसा खाना खाता हूँ और मुझे कोई 20 रु. महीना उन दवाइयों का खर्च है, जो गरीबों को दी जाती हैं। ये रुपये सबकी कमाई से अलग कर लिये जाते हैं, किसी को कोई एतराज नहीं होती।
दूसरी लत नहीं है। यहाँ
यह साइकिल जो आप देखते हैं सबकी कमाई से ही ली गयी है। जिसे जरूरत होती है इस पर सवार होता है। मुझे ये सब काम में सबसे अच्छा समझते र मुझ पर पूरा भरोसा करते हैं। बस मैं इनका मुखिया हूँ। जो कुछ सलाह देता हूँ, उसे सब मानते हैं। कोई भी यह नहीं समझता कि मैं किसी का नौकर हूँ। सब-के-सब अपने को हिस्सेदार समझते हैं और जी तोड़ कर मेहनत करते हैं। जहाँ कोई मालिक होता है और दूसरा उनका नौकर तो उन दोनों में तुरंत दुश्मनी पैदा हो जाता है। मालिक चाहता है कि इससे जितना काम लेते अने, लेना चाहिए। नौकर चाहता है कि में कम से कम काम कर, उसमें प्यार या
सहानुभूति का नाम तक नहीं होता। दोनों असल में एक दूसरे के दुश्मन होते हैं। इस आपसी कलह का फल हम और आप देख ही रहे हैं। मोटे और पतले आदमियों के अलग अलग दल बन गए हैं और उनमें बड़ी लड़ाई हो रही है। पहले हुई घटनाओं से पता चलता है कि यह होड़ अब कुछ ही दिनों की मेहमान है। इसकी जगह अब एक साथ मिल कर काम करने का समय आने वाला है। मैंने दूसरे देशों में इस खतरनाक लड़ाई के नजारे देखे हैं और मुझे नफरत हो गयी है। मिल कर काम करना ही हमें इस मुसीबत से आजाद कर सकती है।”
डॉक्टर- “तो यह कहिए कि आप सोशलिस्ट हैं।
प्रेमशकर- “जी नहीं, मैं सोशलिस्ट या डेमोक्रेट कुछ नहीं हूँ। मैं सिर्फ इंसाफ और धर्म का छोटा नौकर हूँ। मैं बीना स्वार्थ की सेवा को पढ़ाई से बढ़ कर समझता हूँ। मैं अपनी आत्मा की और मन की ताकतों का, दिमाग की काबिलियत का, पैसे और शान-शौक़त का गुलाम नहीं बनाना चाहता। मुझे अभी की शिक्षा और सभ्यता पर भरोसा नहीं। पढ़ाई का काम है आत्मा की उन्नति का फल, दयालुता, बलिदान, अच्छी इच्छाएं, सहानुभूति, इसाफ पसंद करना और दयाशीलता।
जो शिक्षा हमें कमजोरों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमंत धरती और पैसे का गुलाम बनाये, जो हमें भोग-विलास में डुबाये, जो हमें दूसरों का खून पीकर मोटा होने का इच्छा करनेवाला बनाये, वह शिक्षा नहीं है। अगर बेवकूफ लालच और मोह के पंजे में फैस जाए तो वे माफ किए जा सकते है, लेकिन शिक्षा और सभ्यता को मानने वालों का स्वार्थ में अंधा होना बहुत ही शर्मनाक है। हमने शिक्षा और अक्लमंदी को दौलत की ऊँचाई पर चहने का रास्ता बना लिया। असल में वह सेवा और प्यार का सामान था। कितनी अजीब हालत है कि जो जितना ज्यादा पढ़ा लिखा है, वह उतना ही ज्यादा स्वार्थी है। बस, हमारी सारी शिक्षा और दिमाग, हमारा सारा उत्साह और प्यार, पैसे की लालच में फंसा हुआ है। हमारे प्रोफेसर साहब एक हजार से कम तनख्वाह पायें तो उनका मुँह ही नहीं सीधा होता। हमारे दीवान और माल के अधिकारी लोग दो हजार महीने पाने पर भी अपने किस्मत को रोया करते हैं। हमारे डॉक्टर साहब चाहते कि मरीज मरे या लाग
जिये, मेरी फीस न रुके और हमारे वकील साहब माफ कीजिएगा) ईश्वर से मनाया करते हैं कि जलन और दुश्मनी बढ़े और सोने की दीवार खड़ी कर लँ। समय पैसा है’ इस बात को हम भगवान के द्वारा कहा गया समझ रहे हैं। इन महान आदमियों में से हर आदमी सैकड़ों नहीं हजारों-लाखों की जीविका हड़प जाते हैं। और फिर भी उनका जाति का भक्त बनने का दावा है। चह अपने स्वजाति-प्यार का डंका बजाता फिरता है। पैदा दूसरे करें, पसीना दूसरे बहायें, खाना और नाम कमाना इनका काम है। मैं पूरे पढ़े लिखे लोगों को सिर्फ निकम्मा ही नहीं, बल्कि सब बर्बाद करने वाला भी समझता हूँ।” डॉक्टर साहब ने बहुत धीरज के साथ पूछा- “तो क्या आप चाहते हैं कि
प्रेमशंकर- “जी नहीं, हालाँकि ऐसा हो तो इंसान का बड़ा उपका है, वह सिर्फ हालातों में इस गलत बराबरी से है। अगर एक सब-के-सब मजदूरी करें ?” र हो| मुझे जो परेशानी मजदूर 5 रुपया में अपना गुजारा कर सकता है, तो एक दिमाग से काम करने वाले इंसान के लिए इससे दुगुना-तिगुना पैसा काफी होनी चाहिए और वह अंतर इसलिए कि उसे कुछ अच्छे खाने, कपड़े और सुख की जरूरत होती है। मगर पाँच और पाँच हजार, पचास और पचास हजार जितना बड़ा फ़र्क क्यों हो ? इतना नहीं, हमारा समाज पाँच और पांच लाख के अंतर को भी मना नहीं करता, बल्कि उसकी और भी तारीफ करता है। शासन-प्रबंध, वकालत, इलाज, आर्ट, शिक्षा, दलाली, व्यापार, संगीत और इसी तरह की सैकड़ों दूसरी कलाएँ पढ़े लिखे लोगों के पैसे कमाने का जरिया बनी हुई हैं। से एक भी खुद पैसा नहीं कमातीं। इनका सहारा दूसरों की कमाई पर है। मेरी समझ में नहीं आता कि वह काम-धंधे जो जिंदा रहने का सामान पैदा करते हैं, जिन पर जीवन का टिका हुआ है, क्यों उन कामों से नीचे समझे जायेँ, जिनका काम सिर्फ मनोरंजन या ज्यादा से ज्यादा पैसा माने में मदद करना है।
आज सारे वकीलों को देश-निकाला हो जाय, सारे अधिकारी वर्ग गायब हो जायेँ और सारे दलाल मर जाएँ, तब भी दुनिया का काम चलता रहेगा, बल्कि आसानी से किसान खेत जोतेंगे, जुलाहे कपड़े बनेंगे, बढ़ई, लोहार सब-के-सब पहले की तरह अपना-अपना काम करते रहेंगे। उनकी पंचायतें उनके झगड़ों का निबटारा करेंगी। लेकिन अगर किसान न हों तो सारी दुनिया भूखे मर जाए। लेकिन किसान के लिए 5 रु. बहुत समझा जाता है और वकील साहब या डॉक्टर साहब को पाँच हजार भी काफी नहीं।
डॉक्टर आप इकोनॉमिक्स के उस ज़रूरी प्रिंसिप्ल को भूल रहे हैं जिसे division of labor कहते हैं। प्रकृति ने इंसानों को अलग अलग ताकतें दी हैं और उन्हें बढ़ने के लिए अलग अलग हालातों की जरूरत है। प्रेमशंकर- “मैं यह कब कहता हूँ कि हर इंसान को मजदूरी करने पर मजबूर किया जाय ! नहीं जिसे भगवान ने सोचने की ताकत दी है, वह शास्त्रों की
पढ़ाई करे। जो भावुक हो, वह कविता लिखे। जो नाइंसाफी से नफरत करता हो वह वकालत करे। मेरा कहना यह है कि अलग अलग कामों की हैसियत में इतना फर्क न रहना मानसिक और इंडस्ट्रियल कार्मो में इतना फर्क इसाफ के खिलाफ है। यह प्रकृति के नियमों के खिलाफ लगता है कि चाहिए। जरूरी काम ज्यादा गैरजरूरी कार्मो को अहमियत मिले। कुछ लोगों का मानना है कि इस समानता से गुणी लोगों की बेइज्जती होगी और दुनिया को उनके अच्छी सोच और काम से फायदा न मिल पाएगा।
लेकिन वे भूल जाते हैं कि दुनिया के बड़े-से-बड़े पंडित, बड़े-से-बड़े कवि, बड़े-से-बड़े Irventor, बड़े-से-बड़े टीचर पैसे और ताकत के लालच से आजाद थे। हमारे बनावटी जीवन का एक बुरा असर यह भी है कि हम जबरजस्ती कवि और टीचर बन जाते हैं। दुनिया में आज अनगिनत लेखक और कवि, वकील और टीचर हैं। वे सब-के-सब धरती पर बोझ हैं। जब उन्हें मालूम होगा कि इन दिव्य कलाओं में कुछ फायदा नहीं है तो वही लोग कवि होंगे, जिन्हें कवि होना चाहिए। कम शब्दों में कहना यही है कि पैसे की प्रधानता ने हमारे पूरे समाज को उलट-पलट दिया है।”
डॉक्टर मेहरा परेशान हो गये; बोले- “महाशय, समाज-संगठन का यह रूप भले ही शास्त्रों के हिसाब से ठीक हो, पर असल दुनिया के लिए और इस मॉडर्न समय में वह बिल्कुल काम का नहीं हो सकता।”
प्रेमशकर- “सिर्फ इसी कारण से अभी तक अमीरों का, जमींदारों का और पढ़े लिखे लोगों की हुकूमत चल रही है। पर इसके पहले भी, कई बार इस हुकूमत को धक्का लग चुका है। और आसारों से लगता है कि आने वाले समय में फिर इसकी हार होने वाली है। शायद वह हार फैसला करेगी। समाज का चक्र समानता से शुरू होकर फिर समानता पर ही खत्म होता है। एकाधिकार, अमीरों की हुकूमत और व्यापार का ताकतवर होना, उसके बीच के हालात हैं।
अभी चक्र ने बीच के हालातों को पूरा लिया है और वह अपने आखिरी जगह के पास आता जाता है। लेकिन हमारी आँखें ताकत और अधिकार के धमंड से ऐसी भरी हुई हैं कि हमें आगे-पीछे कुछ नहीं सूझता चारों ओर से जनतावाद की तेज आवाज हमारे कानों में आ रही है, पर हम ऐसे बेफिक्र हैं मानो वह साधारण बादल गरज रहें है। हम अभी तक उन्हीं शिक्षाओं और कलाओं में डूबे हैं जिनका सहारा दूसरों की मेहनत है। हमारे स्कूलों की संख्या बढ़ती जाती है,
हमारे वकीलखाने में पाँव रखने की जगह बाकी नहीं, गली-गली फोटो स्टूडियो खुल रहे हैं, डॉक्टरों की संख्या मरीजों से भी ज़्यादा हो गयी है, पर अब भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं। हम इस बनावटी जीवन, इस सभ्यता के जाल से बाहर निकलने की कोशिश नहीं करते। हम शहरों में कारखाने खोलते फिरते हैं, इसलिए कि मजदूरों की मेहनत से मोटे हो जायें। 30 रु. और 40 रु. सैकड़े लाभ की कल्पना करके फूले नहीं समाते, पर ऐसा कहीं देखने में नहीं आता कि किसी पढ़े लिखे इंसान ने कपड़ा बुनना या जमीन जोतना शुरू किया हो। अगर कोई बदकिस्मती ऐसा करे भी तो उसकी हँसी उड़ायी जाती है। हम उसी को इज्जत के लायक समझते हैं, जो तकियागद्दी लगाये बैठा रहे, हाथ-पैर न हिलाये और लेन-देन पर, उधार और व्याज के जरिए यही बातें हो रही थी कि दुर्गा माली एक टोकरी नारंगियाँ, गोभी के फूल, अमरूद, मटर की फलियाँ आदि सजा कर लाया और उसे डॉक्टर साहब के सामने दिया। उसके चेहरे पर एक तरह का गर्व था, मानों उसकी आत्मा जाग गई हो। वह डॉक्टर साहब के पास एक मोटे चटाई पर बैठ गया और लाखों को बर्बाद करता हो….”
बोला- “हुजूर को केसी कलमें चाहिए ? आप बाबू जी को एक चिट पर उनके नाम लिख कर दे दीजिए। मैं कल आपके मकान पहुँचा दूँगा। आपके बाल-बच्चे तो अच्छी तरह हैं ?”
डॉक्टर साहब ने कुछ सकुचा कर कहा- “हाँ, लड़के अच्छी तरह हैं, तुम यहाँ अच्छी तरह हो ?” आपकी दया से बहुत आराम से हूँ।”
डॉक्टर साहब उठ कर चले तो प्रेमशंकर उन्हें विदा करने साथ-साथ दरवाज़े तक आये। डॉक्टर साहब मोटर पर बैठे तो मुस्करा कर प्रेमशंकर से बोले “मैं आपके सिद्धांतों का कायल नहीं हुआ, पर इसमें शक नहीं कि आपने एक पशु को इसान बना दिया। यह आपके साथ का असर है। लेकिन माफ भी कहूँगा कि आप इससे होशियार रहियेगा। यूजेनिक्स (जेनेटिक्स) अभी तक किसी ऐसे प्रयोग का आविष्कार नहीं कर सका है, कीजिएगा. जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे सीख इस कहानी का सार आप इसके अंतिम कुछ लाइनों से समझ सकते हैं। सबसे जरूरी है, ‘जन्म के संस्कारों को मिटाया नहीं जा सकता। लेकिन यहां इस लाइन का दो मतलब निकाला जा सकता है। एक जो डॉक्टर साहब कहना चाहते थे और दूसरा जो मुंशीजी जी समझाना चाहते हैं। हालांकि दोनों की बातें अलग-अलग थी लेकिन यह एक लाइन दोनों की बातें का पक्ष लेती है। इंसान की परवरिश और पढ़ाई लिखाई उसके दिमाग और सोच को इस तरह से गढ़ती है, कि वह आखरी दम तक कभी उससे अलग हो कर सही या गलत नहीं समझ पाता। इंसान के लिए वही सही है जो उसे बचपन से सिखाया जा रहा है और वही गलत है जो उसे बताया जा रहा है। शिक्षा, परवरिश और संस्कार ही हैं जो इंसान को जानवर या जानवर को इंसान बना सकते हैं।