About Book
उन दिनों भाग्य से जिले के हाकिम एक बहुत अच्छे और प्रेमी आदमी थे। इतिहास और पुराने सिक्कों को ढूंढ़ने में उन्होंने अच्छी इज़्ज़त कमा ली थी। भगवान् जाने दफ्तर के इतने सारे काम में से उन्हें ऐतिहासिक छान -बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। वहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है ‘इतने सारे काम के बोझ से मरा जाता हूँ, सिर उठाने का समय नहीं मिलता ।’
शायद शिकार और सैर भी उनके काम में ही आते है ? उन भले आदमी की कीर्ति मैंने देखी थीं और मन में उनकी इज़्ज़त करता था; लेकिन उनकी अफसरी किसी तरह के मेलजोल में एक रूकावट की तरह थी। मुझे शक था कि अगर मेरी तरफ से शुरुआत हुई तो लोग यही कहेंगे कि इसमें मेरा कोई मतलब है और मैं किसी हालत में भी यह इलजाम अपने सिर नहीं लेना चाहता।
मैं तो बड़े अफसरो की दावतों और सभी को इक्कठा कर त्योहार में बुलावा देने को भी पसंद नहीं करता हूँ और जब कभी सुनता हूँ कि किसी अफसर को किसी आम जलसे का अध्यक्ष बनाया गया या कोई स्कूल, दवाख़ाना या विधवा आश्रम किसी गवर्नर के नाम से खोला गया, तो अपने भाई जैसे देश वासियो की गुलामों वाली सोच पर घंटों दुःखी होता हूँ; मगर जब एक दिन जिले के हाकिम ने खुद मेरे नाम
बुलावा भेजा कि मैं आपसे मिलना चाहता हूँ; क्या आप मेरे बँगले पर आने की कोशिश करेंगे, तो मैं सोच में पड़ गया। क्या जवाब दें? अपने दो-एक दोस्तों से सलाह ली। उन्होंने कहा, ‘साफ लिख दीजिए, मेरे पास समय नहीं है । वह जिले के हाकिम होंगे, तो अपने घर के होंगे, कोई सरकारी या क़ानून का काम होता, तो आपका जाना जरुरी था, लेकिन आपस में मिलने के लिए जाना आपकी इज़्ज़त के खिलाफ है। आखिर वह खुद आपके घर पर क्यों नहीं आये ? इससे क्या उनकी इज्जत में कमी आ जाती ? इसीलिए तो खुद नहीं आये कि वह जिले के हाकिम हैं। इन पागल हिन्दुस्तानियों को कब समझ आयेगी कि दफ्तर के बाहर वे भी वैसे ही आम आदमी हैं, जैसे हम या आप। शायद ये लोग अपनी पत्नियों पर भी अपने अफसर होने का रोब
मारते होंगे। अपना पद वो कभी नहीं भूलता। एक दोस्त ने, जो चुटकुलों का चलता -फिरता खजाना हैं, हिन्दुस्तानी अफसरों के बारे में कई बड़ी मजेदार बाते सुनायीं।
“एक अफसर साहब ससुराल गये। शायद पत्नी को विदा कराना था। जैसा आम रिवाज है, ससुर जी ने पहले ही वादे पर लड़की को विदा करना सही न समझा। कहने लगे बेटा, इतने दिनों के बाद आयी है अभी कैसे विदा कर दूं? भला, छ: महीने तो रहने दो”। उधर धर्म पत्नीजी ने भी
नाइन से ख़बर भेज दी अभी मैं नहीं जाना चाहती। आखिर माता-पिता से भी तो मेरा कोई रिश्ता है । तुम्हारे हाथ बिक थोड़े ही गयी हूँ ? दामाद साहब अफसर थे, सरकारी रोब में गुस्सा हो गये। तभी घोड़े पर बैठे और सदर को चल पड़े। दूसरे ही दिन ससुरजी को सरकारी अफसर की तरह आदेश दे दिया। बेचारा बूढ़ा आदमी तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुँचा। तब जाके उनकी जान बची”। “ये लोग ऐसे झूठे अभिमानी होते हैं और फिर तुम्हें जिले के हाकिम से लेना ही क्या है? अगर तुम कोई लड़ाई की कहानी या लेख लिखोगे, तो तुरंत गिरफ्तार कर लिये जाओगे। जिले के हाकिम जरा भी दया न करेंगे। कह देंगे यह सरकार का हुक्म है, मैं क्या करूँ ? अपने लड़के के लिए कानूनगोई या नायब तहसीलदारी की इच्छा तुम्हें है नहीं । बेकार क्यों दौड़े जाओ।”
लेकिन, मुझे दोस्तों की यह सलाह पसन्द न आयी। एक भला आदमी जब बुलावा देता है, तो सिर्फ इसलिए मना कर देना कि जिले के हाकिम ने भेजा है, बेकार की जिद है। हाँ ये और बात है कि हाकिम साहब मेरे घर आ जाते, तो उनकी इज्जत कम न होती। दयालु आदमी बिना सोचे चला आता, लेकिन भाई, जिले की अफसरी बड़ी चीज है और एक लेखक की हस्ती ही क्या है।
इंगलैंड या अमेरिका में कहानी लेखकों और उपन्यासकारों
की मेज पर बुलावा होने में प्रधानमंत्री भी अपना गौरव
समझेगा, जिले के हाकिम की तो गिनती ही क्या है ? लेकिन
यह भारत है, जहाँ हर अमीर के दरबार में कविता के राजाओ
की भीड़ अमीरो के गुणगान के लिए जमा रहता था और आज भी राज्याभिषेक में हमारे लेखक-समूह बिना बुलाये राजाओं की सेवा में आते हैं, तारीफ़ करते हैं और इनाम के लिए हाथ फैलाते हैं। तुम ऐसे कहाँ के बड़े वह हो कि जिले के हाकिम तुम्हारे घर चला आये। जब तुममें इतनी अकड़ और नखरे है, तो वह तो जिले का राजा है। अगर उसे कुछ घमंड भी हो तो सही है। इसे उसकी कमजोरी कहो, बदतमीजी कहो, बेवकूफी कहो, असभ्य कहो, फिर भी सही है। देवता होना गर्व की बात है, लेकिन इंसान होना भी गुनाह नहीं। और मैं तो कहता हूँ भगवान को धन्यवाद दो कि जिले के हाकिम तुम्हारे घर नहीं आये, वरना तुम्हारी कितनी बेइज़्ज़त्ती होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था ? ढंग की एक कुर्सी भी नहीं है। उन्हें क्या तीन टाँगों वाले सिंहासन पर बैठाते या मटमैली फर्श पर बिछी चादर पर ? तीन पैसे की चौबीस बीड़ियाँ पीकर दिल खुश कर लेते हो। है हैसियत रुपये के दो सिगार खरीदने की ? तुम तो इतना भी नहीं जानते कि वह सिगार मिलता कहाँ है, उसका नाम क्या है।
उन दिनों भाग्य से जिले के हाकिम एक बहुत अच्छे और प्रेमी आदमी थे। इतिहास और पुराने सिक्कों को ढूंढ़ने में उन्होंने अच्छी इज़्ज़त कमा ली धी। भगवान् जाने दफ्तर के इतने सारे काम में से उन्हें ऐतिहासिक छानबीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। वहाँ तो जब किसी अफसर से पूछिए, तो वह यही कहता है इतने सारे काम के बोझ से मरा जाला हूँ, सिर उठाने का समय नहीं मिलता। शायद शिकार और सैर भी उनके काम में ही आते है ? उन भले आदमी की कीर्ति मैंने देखी थीं और मन में उनकी इज़्ज़त करता था; लेकिन उनकी अफसरी किसी तरह के मेलजोल में एक रूकावट की तरह थी। मुझे शक था कि अगर मेरी तरफ से शुरुआत हुई तो लोग यही कहेंगे कि इसमें मेरा कोई
मतलब है और मैं किसी हालत में भी यह इलजाम अपने सिर नहीं लेना बाहत
मैं तो बड़े अफसरों का ह अफसरों की दावतों और सभी को इक्कठा कर त्योहार में बुलावा देने को भी पसंद नहीं करता हूँ और जब कभी सुनता हूँ कि किसी अफसर को किसी आम जलसे का अध्यक्ष बनाया गया या कोई स्कूल, दवाताना या विधवा आश्रम किसी गवर्नर के नाम से खोला गया, तो अपने भाई जैसे देश वासियों की गुलामों वाली सोच पर घंटों दुःखी होता हूँ: मगर जब एक दिन जिले के हाकिम ने खुद मेरे नाम बुलावा भेजा कि मैं आपसे मिलना चाहता हूँ, क्या आप मेरे बंगले पर आने की कोशिश करेंगे, तो में सोच में पड़ गया। क्या जवाब दूं? अपने दो-एक दोस्तों से सलाह ली। उन्होंने कहा, साफ लिख दीजिए, मेरे पास समय नहीं है। वह जिले के हाकिम होंगे, तो अपने घर के होंगे, कोई सरकारी या कानून का काम होता, तो
आपका जाना जरुरी था, लेकिन आपस में मिलने के लिए जाना आपकी इज़्ज़त के खिलाफ है। आखिर वह खुद आपके घर पर क्यों नहीं आये ?
इससे क्या उनकी इज्जत में कमी आ जाती ? इसीलिए तो खुद नहीं आये कि वह जिले के हाकिम हैं। इन पागल हिन्दुस्तानियों को कला समझ आयेगी
कि दफ्तर के बाहर वे भी वैसे ही आम आदमी हैं, जैसे हम या आप। शायद ये लोग अपनी पत्नियों पर भी अपने अफसर होने का रोब मारते होंगे। अपना एक दोस्त ने, जो चुटकुलों का चलता -फिरता खजाना हैं, हिन्दुस्तानी अफसरों के बारे में कई बड़ी मजेदार बाते सुनायीं।
पद वो कभी नहीं भूलता।
“एक अफसर साहब ससुराल गये। शायद पत्नी को विदा कराना था। जैसा आम रिवाज है, ससुर जी ने पहले ही वादे पर लड़की को विदा करना सही न समझा। कहने लगे बेटा, इतने दिनों के बाद आयी है अभी कैसे विदा कर दें? भला, छ: महीने तो रहने दो” । उधर धर्म पत्नीजी ने भी नाइन से ख़बर भेज दी अभी में नहीं जाना चाहती। आखिर माता-पिता से भी तो मेरा कोई रिश्ता है। तुम्हारे हाथ बिक थोड़े ही गयी हूँ ? दामाद साहब अफसर थे, सरकारी गुस्सा हो गये। तभी घोड़े पर बैठे और सदर को चल पड़े। दूसरे ही दिन ससुरजी को सरकारी अफसर की तरह आदेश दे दिया। बेचारा बूढ़ा आदमी
तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुँचा। तब जाके उनकी जान बची”। ये लोग ऐसे झूठे अभिमानी होते हैं और फिर तुम्हें जिले के हाकिम से लेना ही क्या है? अगर तुम कोई लड़ाई की कहानी या लेख लिखोगे, तो तुरंत गिरफ्तार कर लिये जाओगे। जिले के हाकिम जरा भी दया न करेंगे। कह देंगे यह सरकार का हुक्म है, मैं क्या करूं? अपने लड़के के लिए कानूनगोई या नायब तहसीलदारी की इच्छा तुम्हें है नहीं। बेकार क्यों दौड़े जाओ।”
लेकिन, मुझे दोस्तों सलाह पसन्द न आयी। एक भला आदमी जब बुलावा देता है, तो सिर्फ इसलिए मना कर देना कि जिले के हाकिम ने भेजा है, जिद है। हाँ ये और बात है कि हाकिम साहब मेरे बेकार की घर आ जाते, तो उनकी इज्जत कम न होती। दयालु आदमी बिना सोचे चला आता, लेकिन भाई जिले औीज है और एक लेखक की हस्ती ही क्या है। की अफसरी बड़ी इंगलैंड या अमेरिका में कहानी लेखकों और उपन्यासकारों की मेज पर बुलावा होने में प्रधानमंत्री भी अपना गौरव समझेगा, जिले के हाकिम की तो
लेकिन यह भारत है, जहाँ हर अमीर के दरबार में कविता के राजाओं की भीड़ अमीरों के गुणगान के लिए जमा रहता था और आज
गिनती ही क्या है ? लेकिन यह
भी राज्याभिषेक में हमारे लेखक-समूह बिना बुलाये राजाओं की सेवा में आते हैं, तारीफ़ करते हैं और इनाम के लिए हाथ फेलाते हैं। तुम ऐसे कहाँ के
ह वह हो कि जिले के हाकिम तुम्हारे घर चला आये। जब तुममें इतनी अकड़ और नखरे है, तो वह तो जिले का राजा है।
अगर उसे कुछ घमंड भी हो तो सही है। इसे उसकी कमजोरी कहो, बदतमीजी कहो, बेवकूफी कहो, असभ्य कहो, फिर भी सही है। देवता होना गर्व की बात है, लेकिन इंसान होना भी गुनाह नहीं। और मैं तो कहता हूँ भगवान को धन्यवाद दो कि जिले के हाकिम तुम्हारे घर नहीं आये, वरना तुम्हारी कितनी बेइज्जत्ती होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था? ढंग की एक कुर्सी भी नहीं है। उन्हें क्या तीन टॉगों वाले सिंहासन पर बैठाते या मटमैली फर्श पर बिछी चादर पर? तीन पैसे की चौबीस बीडियाँ पीकर दिल खुश कर लेते हो। है हैसियत रुपये के दो सिगार खरीदने की? तुम तो इतना भी नहीं जानते कि वह सिगार मिलता कहाँ है, उसका नाम क्या है।
अपने भाग्य को दुआ दो कि अफसर साहब तुम्हारे घर नहीं आये और तुम्हें बुला लिया। चार-पाँच रुपये खर्च भी हो जाते और शर्मिंदा भी होना पड़ता। और कहीं तुम्हारी बुरी किस्मत और पापों की सजा उनकी धर्मपत्नी भी उनके साथ होतीं, तब तो तुम्हें थरती में समा जाने के अलावा और कोई जगह न तुम या तुम्हारी धर्मपत्नी उस औरत का स्वागत कर सकते थे? तुम तो डर ही जाते और पागल हो जाते ! वह तुम्हारे बैठक तक ही न रहती जिसे थी। तुमने गरीबो के ढंग से सजा रखा है। यहाँ तुम्हारी गरीबी जरूर है, पर बेढंगापन नहीं। अन्दर तो हर कदम पर बेढंगापन दिखाई देता। तुम अपने में फटे-पुराने पहनकर और अपनी गरीबी में मगन रहकर जिन्दगी काट सकते हो; लेकिन कोई भी इज़्ज़तदार आदमी यह पसन्द नहीं कर
सकता कि उसकी कमजोरी दूसरों के लिए हंसी-मजाक का कारण बने। उस औरत के सामने तो तुम्हारी जबान बंद हो का कारण। इसलिए मैंने जिले के हाकिम का बुलावा मान लिया और जैसे की उनके स्वभाव में कुछ फ़ालतू अफसरी की शान थी लेकिन उनके प्यार और दया ने शान थी; म इस बात पर इतना ध्यान देने की कोई जरुरत भी न थी, इसलिए काई मोका न दिया। आम्सराना आदन को बदलना उनके बस से बाहर था। आया। किसी से इसका जिक्र करने की जरूरत ही क्या ? मानो स में यह ध्यान न दिया। उन्होंने मुझको बुलाया, मैं चला गया। कुछ गप-शप किया और वापस गया। सब्जी खरीदने बाजार गया था। लेकिन ढूंढ़ने वालो ने जाने केसे ढूंढ लिया। खास समूहो ह जिक्र होने लगा कि जिले के हाकिम से मेरी बड़ी गहरी दोस्ती है और वह मेरी बड़ी इज़ज़त करते हैं। बढ़ा-चढ़ाकर कर बताने से मेरी बात को हाड़ा वह मेरी बडी इज़्ज़त और बढ़ गयी थी। यहाँ तक मेरी इज़्ज़त बढ़ी कि वह मुझसे सलाह लिये बिना कोई फैसला या रिपोर्ट नहीं लिखते। कोई भी समझदार आदमी इस शोहरत से फायदा उठा सकता
में आदमी बावला हो जाता है। तिनके का सहारा हूँढ़ता फिरता है। ऐसों को विश्वास दिलाना कुछ मुश्किल न था कि मेरे जरिये उनका काम निकल सकता है, लेकिन मैं ऐसी बातों से नफरत करता हूँ। हज़ारों आदमी अपनी परेशानियाँ लेकर मेरे पास आये। किसी के साथ पुलिस ने बिना मतलब मुसीबत खड़ी की थी। कोई इन्कम टैवस वालों की ताकत से दुःखी था, किसी की यह शिकायत थी कि दफ्तर में उनका हक छीना जा रहा है। और उसके पीछे के आदमियों को जल्दी – जल्दी तरक्की मिल रही हैं। उसका नम्बर आता है, तो कोई ध्यान नहीं देता। इस तरह का कोई-न-कोई किस्सा रोज़ ही मेरे पास आने लगा, लेकिन मेरे उन सबके लिए एक ही जवाब था मुझसे कोई मतलब नहीं।
था। मतलब
एक दिन में अपने कमरे में बेठा था, कि मेरे बचपन के एक दोस्त अचानक आ गए। हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ने जाया करते थे। कोई 45 साल की पुरानी है। मेरी उम्र 19 से ज्यादा न थी। वह भी लगभग इसी उम्र के रहे होंगे; लेकिन मुझसे कहीं ताकतवर और सेहतमंद। में समझदार था, वह एकदम बुदुधू। मौलवी साहब उनसे हार गये थे और उन्हें सबक पद्धाने की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी थी। अपने से ताकतवर आदमी को पढ़ाना में अपने लिए गौरव की बात समझता था और खूब मन लगाकर पढ़ाता।
नतीजा यह हुआ कि मौलवी साहब का डंडा जो न कर सका, वह मेरे प्यार ने कर दिखाया। बलदेव चल निकला, खालिकबारी तक जा पहुँचा, मगर इस
में मौलवी साहब का स्वर्गवास हो गया और वह डाल टूट गयी। उनके शिष्य भी इधर-उधर हो गये। तब से बलदेव को मैंने सिर्फ दो-तीन बार रास्ते
में देया में अब भी वही कमजोर पहलवान हैं और वह अब भी ताकतवर) राम-राम हुई, हाल -चाल
हाथ मिलाते हुए कहा, “आओ भाई बलदेव, मजे में तो हो? कैसे याद किया, क्या करते हो आजकल ?” पूछा, और अपने -अपने रास्ते चल दिए। मैंने उनसे बलदेव ने भारी आवाज से कहा, ‘ज़िन्दगी के दिन पूरे कर रहे हैं, भाई, और क्या। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। याद करो वह स्कूल थाली बात, जब तुम मुझे पढ़ाया करते थे। तुम्हारी वजह से चार अक्षर पढ़ गया और अपनी जमींदारी का काम सँभाल लेता हूँ, नहीं तो बेवकूफ ही बना रहता। तुम मेरे गुरु हो भाई, सच कहता हूँ, मुझ-जैसे गंधो को पढ़ाना तुम्हारा ही काम था। न-जाने क्या बात थी कि मौलवी साहब से सबक पढ़कर अपनी जगह पर आया नहीं कि बिलकुल साफ। तुम जो पढ़ाते थे, वह बिना याद किये ही याद हो जाता था। तुम तब भी बड़े समझदार थे।’
यह कहकर उन्होंने मुझे गर्व भरी आँखों से देखा।
में बचपन के दोस्तों को देखकर खुश हो जाता हूं। पानी भरी आँखों से बोला, “मैं तो जब तुम्हें देखता हूँ, तो यही मन में आता है कि दौड़कर तुम्हारे गले लिपट जाऊँ। 45 साल का समय मानो बिलकुल गायब हो जाता है। वह स्कूल आँखों के सामने फिरने लगता है और बचपन सारी सुंदरताओं के साथ बलदेव ने भी भरी आवाज से जवाब दिया “मैंने तो भाई, तुम्हें हमेशा अपना भगवान समझा है। जब तुम्हें देखता हूँ, तो सीना चौड़ा हो जाता है कि
ताजा हो जाता है।
वह मेरा बचपन का दोस्त जा रहा है, जो समय आ पड़ने पर कभी धोखा न देगा। तुम्हारी बड़ाई सुन-सुनकर मन-ही-मन खुश हो जाता हूँ, लेकिन यह बताओ, क्या तुम्हें खाना नहीं मिलता ? कुछ खाते-पीते क्यों नहीं ? कमजोर क्यों हुए जाते हो ? घी न मिलता हो, तो दो-चार डिब्बे भिजवा टूं। अब तुम भी बूढ़े हुए, खूब सारा खाया करो।
अब तो शरीर में जो कुछ तेज और ताकत है, वह बस खाने से ही मिलना है। में तो अब भी सेर-भर दूध और पाव-भर घी खा जाता हूँ। इधर थोड़ा से । मक्खन भी खाने लगा हूँ। जिन्दगी-भर बाल-बच्चों के लिए मर मिटे। अब कोई यह नहीं पूछता कि तुम्हारी तबियत कैसी है। अगर आज काम करना बंद कर दें, तो कोई एक लोटे पानी को न पूछे। इसलिए खूब खाता हूँ और सबसे ज्यादा काम करता हूँ। घर पर अपना रोब बना हुआ है।
वही जो तुम्हारा बड़ा लड़का है, उस पर पुलिस ने एक झूठा मुकदमा चला दिया है। जवानी के नशे में किसी को कुछ समझता नहीं है। है भी
अच्छा-खासा पहलवान। दारोगाजी से एक बार कुछ कहा-सुनी हो गयी। तब से मौका हूंढ़ने में लगे हुए थे इधर गाँव में एक चोरी हो गयी। दारोगाजी ने र थे। जांच में उसे भी फंसा लिया। आज एक हफ्ते से जेल में है। मुकदमा मुहम्मद खलील, डिप्टी के हाथ में है और मुहम्मद खलील और दारोगाजी से बहुत
अच्छी १ दोस्ती है। जरूर सजा हो जायगी। अब तुम्हीं बचाओ, तो उसकी जान बच सकती है। और कोई उम्मीद नहीं है। सजा तो जो होगी वह होगी ही; इज्जत भी मिटटी में मिल जायगी। तुम जाकर जिले के हाकिम से इतना कह दो कि मुकदमा झूठा है, आप खुद चलकर जांच कर लें बस, देखो भाई, बचपन के साथी हो, मना मत करना। जानता हूँ, तुम इन मामलो में नहीं पड़ते और तुम्हारे-जौसे आदमी को पड़ना भी न चाहिए। तुम जनता लड़ाई लड़ने वाले आदमी हो, तुम्हारा सरकार के आदमियों से मेल-जोल बढ़ाना सही नहीं, नहीं तो जनता की नजरों से गिर जाओगे। लेकिन यह घर का मामला है। इतना समझ लो कि मामला बिलकुल झूठ न होता, तो मैं कभी तुम्हारे पास न आता। लड़के की माँ रो-रोकर जान दिये डालती है, खाना-पानी छोड़ रखा है। सात दिन से घर में चूल्हा नहीं जला। में तो थोड़ा सा दूध पी लेता हूँ, लेकिन दोनों सास-बहू तो बिना खाये पड़ी हुई हैं, अगर बच्चा को सजा हो गयी, तो दोनों मर जायगी। मैंने यही कहकर उन्हें समझाया है कि जब तक हमारा छोटा भाई सही है, कोई हमारा कोई कुछ नहीं
कर सकता।
तुम्हारी भाभी ने तुम्हारी एक किताब पढ़ी है। वह तो तुम्हें भगवान समझती है और जब कोई बात होती है, तुम्हारा उदाहरण देकर मुझे ताना मारती है। मैं भी साफ कह देता हूँ मैं उस छोकरे के जैसा दिमाग कहाँ से लाऊँ ? तुम्हें उसकी नजरों से गिराने के लिए तुम्हें लड़का, कमजोर सभी कुछ कहता हूँ, पर
तुमसे मेरी बराबरी नहीं में प्रद
मैं बड़ी परेशानी में पड़ गया। मेरी ओर से जितनी आपत्तियां हो सकती थीं, उन सबका जवाब बलदेवसिंह ने पहले ही दे दिया था। इनको फिर से कहना बेकार था। इसके आलावा कोई जवाब न समझ आया कि मैं जाकर साहब से कहूँगा। हाँ, इतना मैंने अपनी तरफ से और बढ़ा दिया कि मुझे उम्मीद नहीं कि मेरे कहने पर खास ध्यान दिया जाय, क्योंकि सरकारी मामलों में अफसर हमेशा अपने नीचे काम काम करने वालो की ही सुनते हैं। बलदेवसिंह ने खुश होकर कहा, “इसकी चिन्ता नहीं, किस्मत में जो लिखा है, वह तो होगा ही। बस, तुम जाकर कह भर दो।”
मैंने कहा- अच्छी बलदेवसिंह -‘तो कल जाओगे ?
मैंने कहा -हाँ जरूर, जाऊँगा?
बलदेवसिंह ‘यह जरूर कहना कि आप चलकर जांच कर लें। मैंने कहा -हाँ, यह जरूर कहूँगा।’
बलदेवसिंह और यह भी कह देना कि बलदेवसिंह मेरा भाई है।’ बलदेवसिंह ‘तुम मेरे भाई नहीं हो? मैंने तो हमेशा तुम्हें अपना भाई समझा है। मैंने कहा -‘अच्छा, यह भी कह दूंगा।’
बलदेवसिंह को विदा करके मैंने अपना खेल खत्म किया और आराम से खाना खाकर लेटा। मैंने उससे पीछा छुड़ाने के लिए झूठा वादा कर दिया। मेरा इरादा जिले के हाकिम से कुछ कहने का नहीं था मैंने अपना बचाव करते हुए पहले ही जता दिया था कि अफसर आम तौर पर पुलिस के मामलो में दखल नहीं देते, इसलिए सजा हो भी गयी, तो मुझे यह कहने का मौका था कि साहब ने मेरी बात नहीं मानी। कई दिन गुजर गये। मैं इस बात को बिलकुल भूल गया था। अचानक एक दिन बलदेवसिंह अपने पहलवान बेटे के साथ मेरे कमरे में आये बेटे ने मेरे
पैरो पर सिर रख दिया और आदर से एक किनारे खड़ा हो ग गया।
बलदेवसिंह बोले, बिलकुल आजाद हो गया भैया! साहब ने दारोगा को बुलाकर खूब डाँटा कि तुम भले आदमियों को तंग करते हो और बदनाम करते हो। अगर फिर ऐसा झूठा मुकदमा लाये, तो नौकरी से हटा दिये जाओगे। दारोगा जी बहुत शर्मिंदा हुए। मैंने उन्हें झुककर नमस्ते किया। मैं बच तो if गया प र बहुत शर्म आयी।
यह तुम्हारे कहने से ही हुआ है, भाई साहब! अगर तुमने मदद न की होती, तो हम बर्बाद हो गये थे। यह समझ लो कि तुमने चार लोगों की जान बचा ली। मैं तुम्हारे पास बहुत डरते-डरते आया था। लोगों ने कहा था उनके पास बेकार जाते हो, वह बिना दिल वाला आदमी है, वो किसी का भला नहीं कर सकता। आदमी तो वह होता है, जो दूसरों का भला करे। वह क्या आदमी है, जो किसी की कुछ सुने ही नहीं! लेकिन भाईजान, मैंने किसी की बात न मानी। मेरे दिल में मेरा राम बैठा कह रहा था था तुम चाहे कितने ही रूखे और खरे हो, लेकिन मुझ पर जरूर दया करोगे।” यह कहकर बलदेवसिंह ने अपने बेटे को इशारा किया। वह बाहर गया और एक बड़ा-सा गट्ठर उठा लाया, जिसमें तरह तरह की गाँव की चीज़े बँधी हुई थीं।
और मैं बार बार कहे जाता था “तुम ये चीजें बेकार लाये, इनकी क्या जरूरत थी, कितने गँवार हो, आखिर तो ठहरे गाँव के लोग, मैंने कुछ नहीं कहा, मैं तो साहब के पास गया भी नहीं,” लेकिन कौन सुनता है। खोया, दही, मटर की फलियाँ, अमावट, ताजा गुड़ और जाने क्या-क्या आ गया। मैंने कहने को से कह दिया मैं साहब के पास गया ही नहीं, जो कुछ हुआ, खुद हुआ, मेरा कोई एहसान नहीं है, लेकिन उसका मतलब यह निकाला गया कि में सिर्फ प्यार से और चीजो वापस लौटाने का कोई बहाना ढूँढने के लिए ऐसा कह रहा हूँ।
मुझ में इतनी हिम्मत न हुई कि मैं इस बात का विश्वास दिलाता। इसका जो मतलब निकाला गया, वही में चाहता धा। मुफ्त का एहसान छोड़ने का जी चाहता था, अन्त में जब मैंने जोर देकर कहा, कि किसी से इस बात का जिक्र न करना, नहीं तो मेरे पास शिकायतों का मेला लग जायगा, तो मानो मेंने स्वीकार कर लिया कि मैंने सिफारिश की और जोरों से की। सीख – इस कहानी में हमारे समाज का वह रूप दिखाया गया है, जब किसी बड़े पद के अधिकारी से किसी आदमी की दोस्ती या मिलना जुलना होता है, तो उसके जान पहचान के लोगों की उससे उम्मीदे कितनी बढ़ जाती है । उसके पास अपने मतलब और स्वार्थ की सिफारिश करने वालों की लाइन लग जाती है. कई बार इस जान पहचान का नाजायज़ फ़ायदा भी उठाया जाता है, तो कई बार ऐसा भी होता है कि जो काम उसने नहीं किया उसका
श्रेय भी उसे दे दिया जाता है यानी मुफ्त का यश और ये इंसान की फितरत है कि उसे मुफ्त की चीज़ें बहुत भाति है.