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मुंशी इंद्रमणि की आमदनी कम थी और खर्च ज्यादा। अपने बच्चे के लिए दाई का खर्च न उठा सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की परवरिश की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबरवालों से नीचे बन कर रहने का अपमान इस खर्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था, हरदम उसके गले का हार बना रहता। इसलिए दाई और भी जरूरी लगती थी, पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह विनम्रता के कारण दाई को जवाब देने की हिम्मत नहीं कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। वो अपना काम बड़ा मन लगाकर मेहनत से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और बेकार दोष निकालना इंद्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के ख़िलाफ़ था, पर सुखदा इस मामले में अपने पति से सहमत न थी।
उसे शक था कि दाई हमें लूटे लेती है। जब दाई बाजार से लौटती तो सुखदा बरामदे में छिपी रहती कि देखें कहीं आटा छिपा कर तो नहीं रख देती; लकड़ी तो नहीं छिपा देती। उसकी लायी हुई चीजों को घंटों देखती, पूछताछ करती। बार-बार पूछती, “इतना ही क्यों ? क्या भाव है। क्या इतना महँगा हो गया ?” दाई कभी तो इन शक से भरे सवालों का जवाब शांति से देती, लेकिन जब कभी बहू जी ज्यादा तेज हो जातीं तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। कसमें खाती। सफाई के सबूत पेश करती। बहस में घंटों लग जाते। रोज़ अक्सर यही दशा रहती और हर दिन यह नाटक दाई के आसुओं के साथ ख़त्म होता था। दाई का इतनी सख्ती झेल कर पड़े रहना सुखदा के शक को और भी गहरा करता था। उसे विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया सिर्फ बच्चे के प्रेम के कारण पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतना बच्चों से प्रेम करने वाली नहीं समझती थी।
संयोग से एक दिन दाई को बाजार से लौटने में जरा देर हो गयी। वहाँ दो औरतों में देवता और असुर जैसी जंग छिड़ी हुई थी। उनके हाव-भाव, उनकी आग उगलती हुई बहस, उनके तानें, और व्यंग्य सब मजेदार थे। ज़हर की दो नदी थी या आग के दो पहाड़, जो दोंनो तरफ से उमड़ कर आपस में टकरा गये थे। उनके शब्दों के इस्तेमाल, उनके लड़ने की कला पर ऐसा कौन-सा कवि है जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शांति आश्चर्यजनक थी। देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। वह शर्म को भी शर्मिंदा करने वाले इशारे, वह भद्दे शब्द जिनसे गंदगी के भी कान खड़े हो जाते, हज़ारों मज़ा लेने वालों के लिए मनोरंजन का कारण बने हुए थे।
दाई भी खड़ी हो गयी कि देखें क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान न रहा। अचानक जब नौ बजे घंटे की आवाज कान में आयी तो वो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली ।
सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही ताव बदल कर 1. बोली-“क्या बाजार में खो गयी थी?” दाई ने नरमी से जवाब दिया -“एक जान-पहचान की औरत से भेंट हो गयी। वह बातें करने लगी”।
सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़ कर बोली-“यहाँ दफ्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है”। लेकिन दाई ने इस समय चुप रहने में भी भलाई समझी. वो बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़क कर कहा-“रहने दो, तुम्हारे बिना वह बेचैन नहीं हुआ जा रहा”। दाई ने इस आज्ञा को मानना ज़रूरी नहीं समझा। बहू जी का गुस्सा ठंडा करने के लिए इससे असरदार और कोई उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाये लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोद से छीन कर बोली-“तुम्हारी यह चालाकी बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइयो। यहाँ जी भर गया”। दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच यह ऐसा मजबूत संबंध था, जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा की कड़वी बातें सुनकर भी उसे यह विश्वास न होता था कि मुझे निकालने पर उतारू है। सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कहीं और रुद्र को ऐसी बेरहमी से छीन लिया कि दाई से सहन न हो सका । वो बोली-“बहू जी ! मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो आधा घंटा की देर हुई होगी। इस पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ क्यों नहीं कह देतीं कि दूसरा दरवाजा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। काम का अकाल थोड़े ही है”।
सुखदा ने कहा-“तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है ? तुम्हारी जैसी बहुत हैं जो गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं”। दाई ने जवाब दिया-“हाँ, नारायण आपको कुशल रखें। दाइयाँ आपको बहुत मिलेंगी। मुझसे जो कुछ अपराध हुआ हो, माफ़ कीजिएगा, मैं जाती हूँ।
सुखदा-“जा कर बाबू से अपना हिसाब कर लो”। दाई-“मेरी तरफ से रुद्र बाबू को मिठाइयाँ मँगवा दीजिएगा”। इतने में इंद्रमणि भी बाहर से आ गये, पूछा-“क्या हुआ ?” दाई ने कहा-“कुछ नहीं। बहू जी ने जवाब दे दिया है, मैं घर जाती हूँ।
इंद्रमणि घर के जंजाल से इस तरह बचते थे जैसे कोई नंगे पैर
वाला आदमी काँटों से बचता है। उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर काँटों पर पैर रखने की हिम्मत न थी। वो खिन्न हो कर बोले-“बात क्या हुई ?” सुखदा ने कहा-“कुछ नहीं। अपनी इच्छा। उसका जी नहीं चाहता, तो नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गये”। इंद्रमणि ने झुंझला कर कहा-“तुम्हें बैठे-बैठे एक न एक दोष सूझता रहता है”।
सुखदा ने तुनक कर कहा-“हाँ, मुझे तो इसकी बीमारी है। क्या करूँ स्वभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे यहाँ जरूरत नहीं”।
मुशी इंद्रमणि की आमदनी कम थी और खर्च ज्यादा। अपने बच्चे के लिए दाई का खर्च न उठा सकते थे। लेकिन एक तो बच्चे की परवरिश की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबरवालों से नीचे बन कर रहने का अपमान इस खर्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था, हरदम उसके गले का हार बना रहता। इसलिए दाई और भी जरूरी लगती थी, पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह विनम्रता के कारण दाई को जवाब देने की हिम्मत नहीं कर सकते थे। बुढ़िया उनके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। वो अपना काम बड़ा मन लगाकर मेहनत से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और बेकार दोष निकालना इंद्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के खिलाफ़ था पर सुखदा इस मामले में अपने पति से सहमत न थी।
उसे शक था कि दाई हमें लूटे लेती है। जब दाई बाजार से लौटती तो सुखदा बरामदे में छिपी रहती कि देखें कहीं आटा छिपा कर तो नहीं रख देती; लकड़ी तो नहीं छिपा देती। उसकी लायी हुई चीजों को घंटों देखती, पूछताछ करती। बार-बार पूछती, “इतना ही क्यों ? क्या भाव है। क्या इतना महँगा हो गया ?” दा ई कभी तो इन शक से भरे सवालों का जवाब शांति से देती, लेकिन जब कभी बहू जी ज्यादा तेज हो जाती तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। सफाई के कसमें खाती। सबूत पेश करती। बहस में । घंटों लग जाते। रोज अक्सर यही दशा रहती और हर दिन यह नाटक दाई के आसुओं के साथ खत्म होता था। दाई का इतनी सख्ती झोल कर पड़े रहना सुखदा के शक को और भी गहरा करता था। उसे विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया सिर्फ बच्चे के
प्रेम के कारण पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतना बच्चों से प्रेम करने वाली नहीं समझती थी। संयोग से एक दिन दाई को बाजार से लौटने में जरा देर हो गयी। वहाँ दो औरतों में देवता और असुर जैसी जंग छिड़ी हुई थी। उनके हाव-भात, उनकी
आग उगलती हुई बहस, उनके तानें, और व्यग्य सब मजेदार थे। ज़हर की दो नदी थी या आग के दो पहाड़, जो दोंनो तरफ से उमड़ कर आपस में टकरा गये थे। उनके शब्दों के इस्तेमाल, उनके लड़ने की कला पर ऐसा कौन-सा कवि है जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शांति आश्चर्यजनक थी। देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। वह शर्म को भी शर्मिंदा करने वाले इशारे, वह भट्टे शब्द जिनसे गंदगी के भी कान खड़े हो जाते,
हज़ारों मजा लेने वालों के लिए मनोरंजन कारण बने हुए थे।
दाई भी खड़ी हो गयी कि देवू क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान
आवाज कान में आयी तो वो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली। सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही ताव बदल कर बोली-“क्या बाजार में खो गयी थी?”
न रहा। अचानक जब नौ बजे घंटे की
से जवाब दिया -“एक जान-पहचान की औरत से भेंट हो गयी। वह बातें करने लगी”। सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़ कर बोली-“यहाँ दफ्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सापाटे की सूझती है”। लेकिन दाई ने इस समय चुप रहने में भी भलाई समझी, वो बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़क कर कहा-“रहने
नहीं हुआ जा रहा दाई
दो, तुम्हारे बिना वह बेचैन
इस आज्ञा मानना ज़रूरी नहीं समझा। बहू जी का गुस्सा ठंडा करने के लिए इससे असरदार और कोई उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे
से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाये लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोद से छीन कर बोली-“तुम्हारी यह चालाकी बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को
दिखाइयो। यहाँ जी भर गया”।
दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच यह ऐसा मजबूत संबंध था,
जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा की कड़वी बातें सुनकर भी उसे यह विश्वास न होता था कि मुझे निकालने पर उतारू बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो आधा घंटा की देर हुई होगी। इस पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ क्यों नहीं कह देती कि दूसरा दरवाजा देखो। मिलेंगी। मुझसे जो कुछ अपराध हुआ हो, माफ़ कीजिएगा, मैं जाती हूँ।
है। सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कहीं और रुद्र को ऐसी बेरहमी से छीन लिया कि दाई से सहन न हो सका। वो बोली-“बह जी! मुझसे कोई
नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। काम का अकाल थोडे ही है”। सुखदा ने कहा-“तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है ? तुम्हारी जैसी बहुत हैं जो गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं।
दाई ने जवाब दिया-“हाँ, नारायण आपको कुशल -“जा कर बाबू से अपना हिसाब कर लो”।
रखें। दाइयाँ आपको बहुत
मेरी तरफ से रुद्र बाबू को मिठाइयाँ मैंगवा दीजिएगा। दाई-“
इतने में ई इंद्रमणि भी बाहर से आ गये, पूछा- क्या हुआ? दाई ने कहा-“कुछ नहीं। बहू जी ने जवाब दे दिया है, मैं घर जाती हैं।
इंद्रमणि घर के जंजाल से इस तरह बचते थे जैसे कोई नंगे पैर वाला आदमी काँटों से बचता है । उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर
काँटों पर पैर रखने की हिम्मत न थी। वो खिन्न हो कर बोले-“बात क्या हुई ?
सुखदा ने कहा-“कुछ नहीं। अपनी इच्छा। उसका जी नहीं चाहता, तो नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गये। इंद्रमणि ने झुंझला कर कहा-“तुम्हें बैठे-बैठे एक न एक दोष सूझता रहता है”।
सुखदा ने तुनक कर कहा- हाँ, मुझे तो इसकी बीमारी है। क्या करूँ स्वभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे यहाँ जरूरत नहीं।
दाई घर से निकली तो उसकी आँखे भरी हुई थीं। दिल रुद्रमणि के लिए तड़प रहा था। जी चाहता था कि एक बार बच्चे को लेकर प्यार कर लँ; पर यह इच्छा लिये हुए ही उसे घर से बाहर निकलना पड़ा।
रुद्रमणि दाई के पीछे-पीछे दरवाजे तक आया, पर दाई ने जब दरवाजा बाहर से बंद कर दिया तो वह मचल कर जमीन पर लेट गया और अन्ना-अन्ना कह कर रोने लगा। सुखदा ने पुचकारा, प्यार किया, गोद में लेने की कोशिश की, मिठाई देने का लालच दिया, मेला दिखाने का वादा किया, इससे जब काम चला तो बंदर, सिपाही, और हौआ की धमकी दी पर रुद्र ने वह रौद्र रूप धारण किया, कि किसी तरह चुप न हुआ। यहाँ लक कि सुखदा को गुस्सा आ गया, बच्चे को वहीं छोड़ दिया और आकर घर के काम में लग गयी। रोते-रोते रुद्र का मुँह और गाल लाल हो गये, आँखें सूज गयीं। अंत में वह वहीं जमीन पर सिसकते-सिसकते सो गया।
सुखदा ने समझा था कि बच्चा थोड़ी देर में रो-धो कर चुप हो जायेगा। रुद्र ने जागते ही अन्ना की रट लगायी। तीन बजे इंद्रमणि दफ्तर से आये और बच्चे की यह हालत नाराज़गी से देखकर उसे गोद में उठा लिया और बहलाने लगे। जब अंत में रुद्र को यह विश्वास हो गया कि दाई देखी तो पत्नी की तरफ मिठाई लेने गयी है तो उसे संतोष हुआ।
लेकिन शाम होते ही उसने फिर चोदना शुरू किया-” अन्ना मिठाई ला”।
इस तरह दो-तीन दिन बीत गये। रुद्र को अन्ना की रट लगाने और रोने के सिवा और कोई काम न था। वह शांत प्रकृति का कुत्ता, जो उसकी गोद से एक पल के लिए भी न उतरता था; वह चुप्पी साधे बिल्ली, जिसे ताख पर देख कर वह खुशी से फूला न समाता था; वह बिना पंखों की चिड़िया, जिस पर वह जान देता था, सब उसके मन से उतर गए। वह उनकी तरफ आँख उठा कर भी न देखता। अन्ना जैसी जीती-जागती, प्यार करने वाली, गोद में लेकर 1 घुमाने वाली, थपकी देकर सुलाने वाली, गा-गाकर खुश करने वाली की जगह उन बेजान चीजों से पूरी न हो सकती थी। वह अक्सर सोते-सोते चौंक पड़ता अन्ना-अन्ना पुकार कर हाथों से इशारा करता, मानो उसे बुला रहा है। अन्ना की खाली कोठरी में घंटों बैठा रहता। उसे आशा होती कि अन्ना यहाँ आती होगी। इस कोठरी का दरवाजा खुलते सुनता तो अन्ना-अन्ना कह कर दौड़ता। समझता कि अन्ना आ गयी। उसका भरा
हुआ शरीर कमज़ोर हो गया, गुलाब जैसा चेहरा सूख गया, माँ और बाप उसकी मोहनी हँसी के लिए तरस कर रह जाते। अगर बहुत गुदगुदाने या छेड़ने
हँसता भी तो ऐसा लगता था कि दिल से नहीं हँसता, सिर्फ़ दिल रखने के लिए हँस रहा है। उसे अब दूध से प्रेम न मन मिश्री से, न मेवे से, न मीठे बिस्कुट से, न ताजी इमरती से। उनमें मजा तब था जब अन्ना अपने हाथों से खिलातीं थी। अब उनमें मजा नहीं । दो साल का लहलहाता हुआ सुन्दर पौधा मुरझा गया। वह बच्चा जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गरमी और भारीपन का अनुभव होता था, अब सूख कर काँटा हो गया। सुखदा अपने बच्चे की यह दशा देख कर अंदर ही अंदर कुढ़ती, अपनी मूर्खता पर पछताती। इंद्रमणि, जो शांत पसंद आदमी थे, अब बच्चे को गोद से अलग न करते थे, उसे रोज साथ हवा खिलाने ले जाते । रोज़ नये खिलौने लाते पर मुझाया हुआ पौधा किसी तरह भी न पनप रहा था।
दाई उसके लिए संसार की सूरज थी। उस स्वाभाविक गर्मी और रौशनी से वंचित रहकर हरियाली को बाहर कैसे दिखाता ? दाई के बिना उसे अब चारों और सन्नाटा दिखायी देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गयी थी। पर रुद्र उसकी सुरत देखते ही मुँह छिपा लेता था मानो वह कोई राक्षस हो।
अपने सामने दाई को न देख कर रुद्र अब उसकी कल्पना में मम्न रहता। वहाँ उसकी अन्ना चलती-फिरती दिखायी देती थी। उसकी वह गोद, वही प्रेम वही प्यारी-प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मजेदार मिठाइयाँ, वही सुहाना संसार, वही आनन्द से भरा जीवन। अकेले बैठ कर कल्पना वाली अन्ना से बातें करता, अन्ना, कुत्ता भाँका। अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना; सफ़ेद घोड़ा दौड़ा। सुबह होते ही लोटा लेकर दाई की कोठरी में जाता और कहता-“अन्ना, पानी। दूध का गिलास लेकर उसकी कोठरी में रख आता और कहता-“अन्ना, दूध पिला। अपनी चारपाई पर
तकिया रख कर चादर से ढाँक देता, और कहता-“अन्ना सोती है”। सुखदा जब खाने बैठती तो कटोरे उठा-उठा कर अन्ना की कोठरी में ले जाता और कहता- अन्ना खाना खायगी।
उसके लिए एक स्वर्ग की चीज़ थी, जिसके लौटने की अब उसे बिलकुल आशा न थीं। रुद्र के स्वभाव में धीरे-धीरे बच्चों की चंचलता और अज्ञा अब जिंदादिली की जगह उदासी और एक शांति दिखायी देने लगी। इस तरह तीन हफ्ते गुजर गये। बरसात का मौसम था। कभी बेचैन करने वाली गर्मी, कभी हवा के ठंडे झोंके। बुखार और जुकाम का जोर था। रुद्र की कमजोरी मौसम के इस बदलाव को बर्दाश्त न कर सकी। सुखदा उसे फलालैन का कुत्ता पहनाये रखती थी। उसे पानी के पास नहीं जाने देती। नंगे पैर एक कदम भी नहीं चलने देती। पर ठंड लग ही गयी। रुद्र को खाँसी और बुखार आने लगा।
सुबह का समय था। रुद्र चारपाई पर आँख बन्द किये पड़ा था। डाक्टरों का इलाज काम नहीं कर रहा था। सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छाती में तेल की मालिश कर रही थी और इंद्रमणि दुःख की मूर्ति बने हुए दया भाव आँखों से बच्चे को देख रहे थे। इधर सुखदा से बहुत कम बात करते थे। उन्हें
उससे एक तरह की घृणा-सी हो गयी थी। वह रुद्र की बीमारी का इकलौता कारण उसी को समझते थे। वह उनकी नज़रों में बहुत नीच स्वभाव की औरत भी। सुखदा ने डरते-डरते कहा-“आज बड़े हकीम साहब को बुला लेते; शायद उनकी दवा से फायदा हो”। इंद्रमणि ने काली घटाओं की ओर देख कर रुखाई से जवाब दिया- बड़े हकीम नहीं, अगर धन्वन्तरि भी आ जाएं तो भी उसे कोई फायदा न होगा।
सुखदा ने कहा-“तो क्या अब किसी की दवा न होगी की देवा होगी
इंद्रमणि-“बस. -“बस, इसकी एक ही दवा है और पहुँच से बाहर है। T है और पहुँच से बाहर।
सुखदा-“तुम्हें तो बस वही धुन सवार है। क्या बुढ़िया आकर अमृत पिला देगी?” इंद्रमणि-“वह तुम्हारे लिए चाहे जहर हो, पर लड़के के लिए अमृत ही होगा”।
में नहीं समझती कि उसके अधीन है”। -“में सुखदा- भगवान् की इच्छा इंद्रमणि-“अगर नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझी, तो रोओगी। बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा”
सुखदा-“चुप भी रहो, क्या , क्या अशुभ बात मुंह से निकालते हो। अगर ऐसी ही जली-कटी सुनानी है, तो बाहर चले जाओ।
इंद्रमणि-“तो मैं जाता हूँ। पर याद रखो, वह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। अगर लड़के को तंदुरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ, उससे विनती और प्रार्थना करो, माफ़ी माँगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसी की दया के अधीन है”।
सुखदा ने कुछ ने कुछ जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
इंद्रमणि ने पूछा-“क्या मर्जी है, जाऊँ उसे बुला लाऊँ ?” सुखदा-“तुम क्यों जाओगे, मैं खुद चली जाऊँगी
इंद्रमणि-“नहीं, माफ़ करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। न जाने तुम्हारे जबान से क्या निकल पड़े कि जो वह आती भी तो न आए सुखदा ने पति की और फिर अपमान की नजर से देखा और बोली-“हाँ, और क्या, मुझे अपने बच्चे की बीमारी का दुःख थोड़े ही है। मैंने शर्म के मारे तुमसे कहा नहीं, पर मेरे दिल में यह बात बार-बार उठी है। अगर मुझे दाई के मकान का पता मालूम होता, तो में कब की उसे मना लायी होती। वह मुझसे कितनी ही नाराज हो, पर रुद्र से उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊँगी। तुम विनती करने को कहते हो, में उसके पैर पड़ने के लिए तैयार हूँ। उसके पैरों को आँसुओं से भिगोऊँगी, और जिस तरह राजी होगी, राजी करूगी”। सुखदा ने बहुत धैर्य धर कर यह बातें कहीं, लेकिन उमड़े हुए आँसू न रुक सके। इंद्रमणि ने पत्नी की ओर हमदर्दी से देखा और शर्मिंदा होकर बोले-“मैं तुम्हारा जाना ठीक नहीं समझता। मैं खुद ही जाता हूँ कैलासी संसार में अकेली थी। किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था; लेकिन धीरे-धीरे उसकी सब पत्तियाँ गिर गयीं। अब उसकी सब हरियाली बर्बाद हो गयी, और अब वही एक सूखी हुई टहनी उस हरे-भरे पेड़ की निशानी रह गयी थी। लेकिन रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गयी थी। इसमें हरी-भरी पत्तियाँ निकल आयी थीं। वह जीवन, जो अब तक नीरस और सूखा था; अब रस से भरने लगा और खिल उठा। अँधेरे जंगल में भटके हुए राही को रौशनी की झलक दिखने लगी। अब उसका जीवन बेकार नहीं बल्कि सार्थक हो गया था।
कैलासी रुद्र की भोली-भाली बातों पर मुग्ध हो गयी; पर वह अपना प्रेम सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि माँ के दिल में जलन पैदा न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिप कर मिठाइयाँ लाती और उसे खिला कर खुश होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती कि बच्चा खूब मज़बूत हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जायेगी। हमेशा वह दूसरों के सामने बच्चे के कम खाने का रोना रोया करती। उसे बुरी नजर
से
बचाने के लिए ए ताबीज और गंडे लाती रहती। यह उसका खरा प्रेम धा। उसमें स्वार्थ की गंध भी न धी। प्रेम । इस घर से निकल कर आज केलासी की वह दशा थी, जो थियेटर में अचानक बिजली लैम्प के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूंज रही थीं। उसे अपना घर काटने को दौड़ता था। उस कालकोठरी में दम घुटा जा रहा था। रात जैसे तैसे कटी। सुबह वह घर में झाड़ू लगा रही थी। बाहर ताजे हलवे की आवाज सुन कर बड़ी फूर्ती से घर से बाहर निकल आयी। तब्ब याद आ
गया, “आज हलवा कौन खायेगा? आज गोद में बैठ कर कौन चहकेगा ?” वह मधुर गान सुनने के लिए जो हलवा खाते समय रुद्र की आँखों से, होंठों से, और शरीर के एक-एक अंग से बरसता, कैलासी का दिल तडप गया। वह बेचैन होकर घर से बाहर निकली कि चलँ रुद्र को देख आऊँ। पर आधे रास्ते रुद्र कैलासी के ध्यान से एक पल भर के लिए भी नहीं उतरता था। वह सोते-सोते चौक पड़ती, लगता कि जैसे रुद्र डंडे का घोड़ा दबायें चला आ रहा
से लौट गयी।
है। पड़ोसियों के पास जाती, तो रुद्र ही की चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और जान में बसा हुआ था सुखदा के कठोर और बुरे व्यवहार का तो उसे ध्यान नहीं था। वह रोज इरादा करती कि आज रुद्र को देखने चलँगी। उसके लिए बाजार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती। घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती। कभी दो-चार कदम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौन सा मुँह लेकर जाऊँ। जो प्रेम को चालाकी समझता हो, उसे कौन-सा मुँह दिखाऊँ ? कभी सोचती अगर रुद्र मुझे न पहचाने तो ? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या ? नयी दाई से हिल-मिल गया होगा। यह खयाल उसके पैरों पर जंजीर का काम कर जाता था। इस तरह दो हफ्ते बीत गये। कैलासी का जी उचटा रहता, जैसे उसे कोई लम्बी यात्रा करनी हो। घर की चीजें जहाँ की तहाँ पड़ी रहतीं, न खाने की सुध थी, न कपड़े की। रात-दिन रुद्र के ही ध्यान में डूबी रहती। संयोग से इन्हीं दिनों बद्रीनाथ की यात्रा का समय आ गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियां करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया की-सी थी, जो पिंजड़े से निकल कर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे इन का यह अच्छा मौका मिल गया। वो यात्रा के लिए तैयार हो गयी।
आसमान पर काली घटाएँ छायी हुई थीं, और हलकी-हलकी फुहारें पड़ रही थीं। देहली स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। कुछ गाड़ियों में बैठे थे, कुछ अपने घरवालों से विदा हो रहे थे। चारों तरफ एक हलचल-सी मची थी। संसार की माया आज भी उन्हें जकड़े हुए थी। कोई पत्नी को सावधान कर रहा था कि धान कट जाए तो तालाब वाले खेत में मटर बो देना, और बाग के पास गेहूँ। कोई अपने जवान लड़के को समझा रहा था, किराएदारों पर बकाया लगान की नालिश में देर न करना, और दो रुपये सैकड़ा सुद जरूर काट लेना। एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपने मुनीम से कह रहे थे कि माल आने में देर हो तो खुद चले जाइएगा, और चलतू माल लीजिएगा, नहीं तो रुपया फँस जायेगा। पर कोई-कोई ऐसे श्रद्धालु आदमी थे, जो धर्म में मग्न दिखायी देते थे। वे या तो चुपचाप आसमान की ओर निहार रहे थे या माला फेरने में भी एक गाड़ी में बैठी सोच रही थी, इन भले आदमियों को अब भी संसार की चिंता नहीं छोड़ती। वही बनिज-व्यापार, लेन-देन की तल्लीन थे। कैलासी भी चर्चा। रुद्र इस समय यहाँ होता, तो बहुत रोता, मेरी गोद से कभी न उतरता। लेट कर उसे ज़रूर देखने जाऊँगी। या भगवान् किसी तरह गाड़ी चले; गर्मी के मारे जी बेचैन हो रहा है। इतने बादल उमड़े हुए हैं, लेकिन बरसने का नाम नहीं लेते। मालूम नहीं, यह रेलवाले क्यों देर कर रहे हैं। झूठमूठ इधर-उधर दौड़ते-फिरते हैं। यह नहीं कि झटपट गाड़ी खोल दें। यात्रियों की जान में जान आये। तभी उसने इंद्रमणि को साईकल लिये प्लेटफार्म पर आते देखा। उसका चेहरा उतरा हुआ, और कपड़े पसीने से तर थे। वह गाड़ियों में झाँकने लगे। कैलासी सिर्फ यह जताने के लिए कि मैं भी यात्रा करने जा रही हूँ; गाड़ी से बाहर निकल आयी और ईंद्रमणि उसे देखते ही लपक कर करीब आ गये और बोले-“क्यों कैलासी, तुम भी यात्रा को चली ?”
कैलासी ने दीनता से जवाब दिया-“हाँ, यहाँ क्या करूँ ? जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं, मालूम नहीं कब आँखें बंद हो जायें, परमात्मा के यहाँ मुँह दिखाने का भी तो कोई उपाय होना चाहिए। रुद्र बाबू अच्छी तरह हैं ?”
इंद्रमणि-“अब तो जा ही रही हो। रुद्र का हाल पूछ कर क्या करोगी 7 उसे आशीर्वाद देती रहना।
कैलासी की छाती धड़कने लगी। घबरा कर बोली-“उनका जी अच्छा नहीं है क्या ?” इंद्रमणि -“वह तो उसी दिन से बीमार हे जिस दिन तुम बहाँ से निकलीं। दो हफ्ते तक उसने अन्ना-अन्ना की रट लगायी। अब एक हफ्ते से खाँसी और बुखार में पड़ा है। सारी दवाइयाँ करके हार गया, कुछ फायदा न हुआ। मैंने सोचा था कि चल कर तुमसे विनती कर के ले चलूँगा। क्या जाने तुम्हें देख कर उसकी तबीयत सँभल जाये। पर तुम्हारे घर पर आया तो मालूम हुआ कि तुम यात्रा करने जा रही हो। अब किस मुँह से चलने को कहूँ। तुम्हारे साथ है।
सलूक ही कौन-सा अच्छा किया था जो इतनी हिम्मत क। फिर पुण्य-काम में विघ्न डालने का भी डर है। जाओ, उसका जिंदगी होगी है तो बच ही जायेगा। नहीं तो भगवान व न की मर्जी में किसी का क्या विश”।
भगवान् मालिक अगर कै लासी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सामने की चीजें तैरती हुई लगने लगीं। दिल अशुभ की आशंका से दहल गया। उसके दिल से निकल प का चाज करता ड़ा हे भगवान, मेरे शूद्र का बाल बाका न हो। प्रेम से उसका गला भर आया। विंचार किया में कैसी कठोर दिल की हूँ। प्यारा बच्चा रो-रोकर बेहाल हो गया, और मैं उसे देखने तक नहीं गयी। सुखदा का स्वभाव अच्छा नहीं, न सही लेकिन रुद्र ने मेरा क्या बिगाड़ा था कि मैंने माँ का बदला बेटे से लिया। भगवान् मेरा अपराध माफ़ करो। प्यारा रुद्र मेरे लिए तड़प रहा है। (इस खयाल से कैलासी का दिल मसोस उठा, और आँखों से आँसू बह निकले।) मुझे क्या मालूम था कि उसे मुझसे इतना प्रेम है। नहीं मालूम बच्चे की क्या दशा है। वो घबराकर ही बोली- दूध तो पीते हैं न ?”
इंद्रमणि-“तुम दूध पीने को क कहती हो। उसने दो दिन से आँखें तक नहीं खोली”। कैलासी- हे मेरे परमात्मा ! अरे कुली कुली बेटा, आकर मेरा सामान गाड़ी से उतार दे। अब मुझे तीरथ जाना नहीं सूझता। हाँ बेटा, जल्दी कर। बाबू तांगा रवाना हुआ। सामने सड़क पर बग्घियाँ खड़ी थीं। घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। कैलासी बार-बार झुँझलाती थी और तांगे वाले से कहती थी, “बेटा जी, देखो कोई तांगा हो तो रोक लो”।
जल्दी कर। मैं तुझे कुछ ज्यादे पैसे दे दूंगी”। रास्ते में मुसाफिरों की भीड़ देख कर उसे गुस्सा आ रह था। उसका जी चाहता था कि घोड़े के पंख लग
जाते; लेकिन इंद्रमणि का मकान करीब आ गया तो कैलासी का दिल उछलने लगा। बार-बार दिल से रुद्र के लिए शुभ आशीर्वाद निकलने लगा।भगवान् करे सब कुशल-मंगल हो। तांगा इंद्रमणि की गली की ओर मुड़ा। तभी कैलासी के कान में रोने की आवाज़ पड़ी। उसका दिल मुँह को आ गया। सिर लगा जैसे नदी में डूबी जा रही हूँ। जी चाहा कि तांगे पर से कूद पड़ें। पर थोड़ी ही देर में पता चला कि कोई औरत मैके से विदा हो रही है, तो उसे संतोष हुआ। अंत में इंद्रमणि का मकान आ पहुँचा। केलासी ने डरते-डरते दरवाजे की तरफ ताका। जैसे कोई घर से भागा हुआ अनाथ लड़का शाम को भूखा-प्यासा घर आये, दरवाजे की ओर टिकी हुई आँखों से देखें कि कोई बैठा तो नहीं है। दरवाजे पर सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज बैठा सुरती मल रहा था। कैलासी को जरा दिलासा हुआ। घर में बैठी तो नयी दाई पुलटिस पका रही है। मन में हिम्मत बढ़ी सुखदा के कमरे में गयी तो उसका मन गर्मी
चकरा गया
के दोपहर तरह काँप की बरद कैलासी ने रहा था। सुखदा रुद्र को गोद में लिये दरवाजे की ओर एकटक ताक रही थी। दुःख और करुणा की मूर्ति बनी हुई थी। ने सुखदा से कुछ नहीं पूछा। रुद्र को उसकी गोद से लिया और उसकी तरफ भीगी ऑँखों से देख कर कहा-“बेटा रुद्र, आँखें खोलो”। रुद्र ने आँखें खोली, पल भर दाई को चुपचाप देखता रहा, फिर तुरंत दाई के गले से लिपट कर बोला-“अन्नাा आयी! अन्ना आयी द्र का पीला मुझया हुआ चेहरा खिल उठा, जैसे बुझते हुए दीपक में तेल पड़ गया हो। ऐसा लगा मानो उसकी लौ कुछ बढ़ गई हो। रुद एक हफ्ता बीत गया। सुबह का समय था। रुद्र आँगन में खेल रहा था। इंद्रमणि ने बाहर से आकर उसे गोद में उठा लिया, और प्यार से बोले-“तुम्हारी
अन्ना को मार कर भगा दें ?”
रुद्र ने मुँह बना कर कहा-“नहीं, रोयेगी”।
कैलासी बोली-“क्यों बेटा, तुमने तो मुझे बद्रीनाथ नहीं जाने दिया। मेरी यात्रा का पुण्य-फल कौन देगा?” इंद्रमणि ने मुस्करा कर कहा-“तुमने उससे ज्यादा पुण्य कमा लिया। यह तीर्थ महातीर्थ है”।
सीख – क्या इससे ज़्यादा मासूम रिश्ता कोई हो सकता है? मुंशीजी ने कितनी खूबसूरती से दिखाया है। सच्चे दिल के रिश्तों में कितनी ताकत होती है.
जहां रुद्र की भोली भाली बातों ने कैलासी का मन मोह कर उसे रुद्र से जोड़ दिया था वहीं केलासी के निस्वार्थ प्रेम में रुद्र को माँ दिखाई देने लगी थी.
देखा जाए तो सुखदा का शकी स्वभाव बेवजह झगड़े का कारण बन रहा था. हाँ, हमें बिलकुल सतर्क रहना चाहिए लेकिन शायद अगर हम अपने लिए काम करने वालों को सिर्फ स्टाफ़ ना समझकर उन्हें भी इंसान समझने लगें तो ये बदला हुआ नज़रिया हमें गलत फ़ैसले लेने से रोक देगा. अक्सर हम गुस्से और अहंकार में ऐसे शब्द बोल देते हैं या ऐसा कदम उठा लेते हैं जिसकी वजह से हमें बाद में पछताना पड़ता है इसलिए हमेशा शांति से सोच समझकर फैसला लें, era रुद्र का इतना बीमार हो जाना दिखाता है कि कैलासी उसे कितने प्यार से रखती थी, उसकी कितनी देखभाल करती थी. वहीं कैलासी भी उसकी चिंता में बेचैन रहने लगी थी. उस बच्चे ने उसके बेरंग जीवन में रंग और मिठास घोल दी थी, बच्चों का मन इतना कोमल और साफ़ होता है कि उन्हें जहां भी प्रेम मिल जाए वो वहीं खिंचे चले जाते हैं इसलिए इसमें कोई शक नहीं है कि केलासी का प्रेम कितना सच्चा था. कैलासी ने बच्चे के पास लौटकर जो इंसानियत और अपने कर्तव्य के प्रति इमानदारी दिखाई थी वो ये साबित करती है कि उसने तीर्थ से मिलने वाले पुण्य से ज़्यादा पुण्य कमा लिया था.