आज बन्दी छूटकर घर आ रहा है। करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था। इन तीन सालों में उसने मेहनत-मजदूरी करके जो दस-पाँच रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पति के सेवा और स्वागत की तैयारियों में खर्च कर दिये।
पति के लिए दो नयी धोती लायी थी, नये कुरते बनवाये थे, बच्चे के लिए नये कोट और टोपी के लिए किये थे। बार-बार बच्चे को गले लगाती और खुश होती। अगर इस बच्चे ने सूरज की तरह रोशनी देकर उसके जीवन के अंधेरे को न खतम किया होता, तो शायद ठोकरों ने उसे मार ही दिया होता। पति के जेल जाने के तीन ही महीने बाद इस बच्चे का जन्म हुआ।
उसी का मुँह देख-देखकर करूणा ने यह तीन साल काट दिये थे। वह सोचती- जब मैं बच्चे को उनके सामने ले जाऊँगी, तो वह कितने खुश होंगे!
उसे देखकर पहले तो हैरान हो जायेंगे, फिर गोद में उठा लेंगे और कहेंगे- करूणा, तुमने यह रत्न देकर मुझे दुनिया की सारी खुशियां दे डाली। जेल के
सारे दुःख बच्चे की तोतली बातों में भूल जायेंगे, उनकी सरल, पवित्र, मन को अच्छी लगने वाली एक झलक, सारे दुखो को खत्म कर देगी। ये सोचना ही उसे बहुत खुशी दे रहा था।
वह सोच रही थी- आदित्य के साथ बहुत से आदमी होंगे। जिस समय वह दरवाजे पर पहुँचेंगे, जय-जयकार की आवाज से आसमान गूंज उठेगा। कितना अच्छा यह सब। उन आदमियों के बैठने के लिए करीना ने एक फटा-सा टाट बिछा दिया था, कुछ पान बना दिये थे और बार-बार उम्मीद भरी आँखों से दरवाजे की ओर देख रही थी। पति का सुन्दर चेहरा बार-बार उसकी आँखों में घूम रहा था। उनकी वे बातें बार-बार याद आती थीं, जो आत्मबल,
चलते समय उन्होंने कही थी, वह धीरज, वह कही थी गर्व, जो समय भी उनके थी; खुद
उनका
जो पुलिस की मार के सामने भी नहीं टूटा, वह मुस्कराहट जो उस समय भी उनके होंठो
पर गांव, जा उस चेहरे था, भूल ये याद आते ही करुणा का मुरझाया चेहरा गर्व से लाल हो गया । यही वह उम्मीद थी, जिसने इन तीन सालो की मुश्किलों में भी उसके मन को संभाले बाहों में वह सब कुछ रखा था। कितनी ही राते बिना खाये गुजरी, कभी-कभी तो घर में दिया भी नहीं जला, पर इन बातो से परेशान होकर वो कभी रोई नहीं। आज वो सब खत्म हो जाएँगी। पति की मजबूत परेशानियाँ खत्म हो हँसकर झेल लेगी। दो वापिस आ जाये तो फिर उसे कुछ नहीं चाहिए। आसमान में सूरज अब छिपने चला था, जहाँ शाम ने सुनहरा फर्श सजाया था और सफ़ेद फूलों का बिस्तर था। उसी समय करूणा को एक आदमी लाठी टेकता आता दिखाई दिया, मानों किसी बूढ़े की दर्द भरी आवाज हो। वो थोड़ी -धोड़ी देर में रूककर खाँसने लगता था। उसका सिर झुका हुआ था,
पर करूणा उसका चेहरा न देख सकी, लेकिन चाल-ढाल से कोई बूढ़ा आदमी लगता था; गया, तो करूणा पहचान गयी। वह उसका प्यारा पति ही था, हाय उसकी सुरत कितनी बदल गयी थी। वह जवानी, वह तेज, वह फुर्ती, चह सुंदरता, अब कुछ भी नहीं शा। वो सिर्फ हड्डियों का एक ढाँचा रह गया था। न कोई संगी, न साथी, न यार, न दोस्त। करूणा उसे पहचानते ही बाहर निकल आयी, पर गले लगने की इच्छा मन में ही रह गयी। जो सोचा था सब धरा रह गया। मन की खुशी आँसुओं में बह गई। आदित्य ने घर में कदम रखते ही मुस्कराकर करूणा को देखा। पर उस मुस्कान में बहुत दर्द भरा हुआ था। करूणा ऐसी ढीली हो गयी, मानो दिल की धड़कने रूक गयी हो। वह लगातार आँखे खोले पति को देखे जा रही थी, मानो उसे अपनी आँखों पर अब भी यकीन न हो। स्वागत या दुःख का एक शब्द भी उसके मुँह से न निकला। बच्चा भी गोद में बैठा हुआ डरी हुई आँखों से इस कंकाल को देख रहा था और माँ की गोद में चिपटा जाता था। आखिर उसने दुःख से कहा-“तुम्हारी क्या हालत हो गयी है? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते!”
आदित्य ने उसकी चिन्ता को शांत करने के लिए मुस्कराने की कोशिश करके कहा-“कुछ नहीं, जरा कमजोर हो गया हूँ। तुम्हारे हाथों का खाना खाकर फिर मोटा हो जाऊँगा
करूणा– “छी! सूखकर काँटा हो गये। क्या वहाँ भरपेट खाना नहीं मिलता? तुम कहते थे, राजनैतिक आदमियों के साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया जाता है और वह तुम्हारे दोस्त थे ? जो तुम्हें हर वक्त घेरै रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे?”
आदित्य ने माथा सिकोड़ा और बोले- यह बड़ा ही कड़वा अनुभव है करूणा! मुझे न पता था कि मेरे कैद होते ही लोग इस तरह बदल जायेंगे, कोई हाल भी न पूछेगा। देश के नाम पर मिटने वालों का यही इनाम है, यह मुझे न पता था। जनता अपने सेवकों को बहुत जल्द भूल जाती है, यह तो मैं जानता था, लेकिन अपने साथ में काम करने वाले इतने बेवफा होते हैं, ये मैंने पहली बार देखा । लेकिन मुझे किसी शिकायत नहीं। सेवा ही अपना इनाम हैं। मेरी भूल थी कि मैं इसके लिए यश और नाम चाहता था।” करूणा-“तो क्या वहाँ खाना भी न मिलता था?”
आदित्य-“यह न पूछो करूणा, बड़ी दुःख भरी कहानी है। बस, यही बहुत समझो कि जिन्दा लौट आया। तुम्हे देखना ही था, नहीं तो मुसीबते तो ऐसी थी की शायद मर ही जाता । मैं आराम करूंगा। खड़ा नहीं रहा जाता। दिन-भर में इतनी दूर से आया हूँ।”
करूणा— “चलकर कुछ खा लो, तो आराम से लेटो। (बच्चे को गोद में उठाकर) बाबूजी हैं बेटा, तुम्हारे बाबूजी। इनकी गोद में जाओ, तुम्हें प्यार करेंगे।” आदित्य ने आँसू-भरी आँखों से बच्चे को देखा और उनका एक-एक रोम उन्हें तानें देने लगा। अपनी कमजोर हालत पर उन्हें कभी इतना दुःख न हुआ न की दया से अगर उनकी हालत संभल जाती, तो वह फिर कभी देश के आन्दोलन के पास न जाते। इस फूल-से बच्चे को इस तरह दुनिया था। भगवा में लाकर उसे गरीबी में पालना, क्या ये सही था?
वह अब माँ लक्ष्मी की पूजा करेंगे और अपना बचा हुआ जीवन बच्चे की पालने में बिताएंगे। उन्हें इस समय ऐसा लगा कि बच्चा उनका मजाक उड़ा रहा है, मानो कह रहा रहा है- “मुझे दुनिया में लाकर मेरे लिए किया क्या ?” वो अपने बच्चे को अपने गले लगाने को बेचैन हो उठे, पर हाथ फैल न सके।
हाथों में ताकत ही न
करूणा बच्चे को लिये हुए उठी और धाली में खाना निकालकर लायी। आदित्य ने आंसू भरी आँखों से थाली की ओर देखा, मानो आज बहुत दिनों के की बाद कोई खाने की चीज सामने आयी है। वो जानता था कि कई दिनों के व्रत के बाद और अपने शरीर की हालत देखते हुए उसे अपनी जबान को काबू में रखना चाहिए पर सब न कर सका, थाली पर टूट पड़ा और देखते ही देखते थाली साफ कर दी। करूणा डर गयी। उसने दोबारा किसी चीज के लिए न पूछा। थाली उठाकर चली गयी, पर उसका दिल कह रहा था- इतना तो कभी न खाते घे।
करूणा बच्चे को कुछ खिला रही थी, कि अचानक कान्नों
करूणा ने आकर पूछा- “क्या तुमने मुझे बुलाया?
में आवाज आयी ” करूणा!”
आदित्य का चेहरा पीला पड़ गया था और साँस जोर-जोर से चल रही थी। वो हाथों के सहारे वहीं टाट पर लेट गये थे। करूणा उनकी यह हालत देखकर
घबरा गयी। बोली- “जाकर किसी वैद्य को बुला लाऊँ?”
आदित्य ने हाथ के इशारे से उसे मना करके कहा- ‘बेकार है करूणा! अब तुमसे छिपाना बेकार है, मुझे टीबी हो गया है। कई बार मरते-मरते बचा हूँ। तुम लोगों को देखना लिखा था इसलिए जान नहीं निकली। देखो प्रिये रोओ मत।”
करूणा ने सिसकियों को दबाते हुए कहा- मे वैद्य को लेकर अभी आती हूँ।” आदित्य ने फिर सिर हिलाया-“नहीं करूणा, सिर्फ मेरे पास बैठी रहो। अब किसी से कोई उम्मीद नहीं है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। मैं तो हैरान हूँ
कि यहाँ पहुँच कैसे गया। न जाने कौन सी दिव्य शक्ति मुझे वहाँ से खींच लायी।शायद यह इस बुझते हुए दीये की आखरी झलक थी। आह! मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। इसका मुझे हमेशा दुःख रहेगा! में तुम्हें कोई सुख न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। सिर्फ शादी का दाग लगाकर और
एक बच्चे की छोड़कर हूँ। आह!”
करूणा ने मन को मजबूत करके कहा ‘तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं है? आग बना लाऊँ? कुछ बताते क्यों नहीं?” आदित्य ने करवट बदलकर कहा- “कुछ करने की जरूरत नहीं प्रिये! कहीं दर्द नहीं। बस, ऐसा मालूम हो रहा
डूबा जाता हूँ। जीवन अब खत्म हो रही है। मैं दीये को बुझते हुए देख रहा हूँ। नहीं सकता, कब आवाज डालना चाहता हूँ, क्यों वह इच्छा ले आऊँ। मेरे एक सवाल का जवाब दोगी, पूछँ?”
है कि दिल बैठा जाता है, जैसे पानी में
बन्द हो जाये। जो कुछ कहना है, वह कह
करूणा के मन की सारी कमजोरी, सारा दुःख, सारा दर्द मानो गायब हो गया और उनकी जगह उस आत्मबल का जन्म हुआ, जो मौत पर हँसता है और दुःख के सौंप से खेलता है। रत्नों से जड़ी मखमली म्यान में जैसे तेज तलवार छिपी रहती है, पानी के कोमल बहाव में जैसे कितनी ताकत छिपी रहती है, वैसे ही औरत का कोमल मन- हिम्मत और धीरज को अपनी गोद में छिपाये रहता है। गुस्सा जैसे तलवार को बाहर खींच लेता है, विज्ञान जैसे पानी की ताकत को सामने ले आता है, वैसे ही प्यार औरत के साहस और धीरज को बढ़ा देता करुणा ने पति के सिर पर हाथ रखते हुए कहा- “पूछते क्यों नहीं प्यारे।”
आदित्य ने करूणा के कोमल हाथों को पकड़ते हुए कहा “तुम्हारे विचार में मेरा जीवन कैसा था? बधाई के लायक ? देखो, तुमने मुझसे कभी कोई बात नहीं छुपाई। इस समय भी साफ़ साफ कहना। तुम्हारे विचार में मुझे अपने जीवन पर हँसना चाहिए या रोना चाहिए? करूणा ने जोश के साथ कहा “यह सवाल क्यों करते हो स्वामी ? क्या मैंने कभी तुम्हारा ध्यान नहीं रखा? तुम्हारा जीवन बिलकुल भगवान् जैसा था,
लालच या मतलब नहीं, अलग विचार और सभी यूलिया! परेशानियों से तंग आकर मैंने तुम्हें कितनी ही बार अपनी इस दुनिया में खींचना चाहाः पर उस समय भी मैं मन में जानती थी कि मैं तुम्हें ऊँचे आसन से गिरा रही हूँ।
अगर तुम हमारे प्यार और घर की जिम्मेदारियों में फंसे होते, तो शायद मेरे मन को ज्यादा खुशी होती : लेकिन मेरी आत्मा को दह गर्व और खुशी न होती, जो इस समय हो रही है। में अगर किसी को बड़े-से- से-बड़ा आर्शीवाद दे सकती हूं, तो वह यही होगा कि उसका जीवन तुम्हारे जैसा हो।” यह कहते-कहते करूणा के बेजान चेहरे पर चमक आ गयी, मानो उसकी आत्मा दिव्य हो गयी हो। आदित्य ने गर्व भरी आँखों से करूणा को देखकर कहा-” बस, अब मुझे चिंता नहीं, करूणा, इस बच्चे की और से मुझे कोई चिंता नहीं, उसके लिए तुमसे ज्यादा जिम्मेदार कोई नहीं हो सकता। मुझे विश्वास है कि जीवन-भर मेरे रूप में यह तुम्हारे सामने रहेगा। अब में मरने को तैयार हूँ।”
सात साल बीत गये।
बच्चा, प्रकाश अब दस साल का सुन्दर, ताकतवर और हसमुख लड़का था, बल का तेज, साहसी और बुद्धिमान्। डर तो उसे छ भी नहीं गया था। करूणा का परेशान मन उसे देखकर शांत हो जाता। दुनिया चाहे करूणा को बदकिस्मत और बेचारी समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीं रोती। उसने उसके लिए कोई नया काम न था। इसी को उसने अपने
उन गहनों को बेच डाला, जो पति के जीवन में उसे जान से भी ज्यादा प्यारे थे, र उन पैसे औ में से कुछ गायें और भैंसे खरीद ली। वह किसान की बेटी थी, और
जीने का साधन बनाया। बिना पानी मिला दूध
रहना पड़ता, पर वह खुश थी। उसके चेहरे ।
गाथ-पालना
कहाँ मिलता है? सब दूध हाथों-हाथ बिक जाता। करूणा को सुबह से लेकर देर रात लक काम में लगा
पर निराशा या गरीबी की छाया नहीं, संकल्प और हिम्मत की चमक थी। उसके एक-एक अंग से उसके गर्व की रोशनी-सी निकल रही है:
आँखों में एक दिव्य चमक हे, गंभीर, गहरी और दूर तक। उसके सारे -दुःख -पति का न होना और किस्मत का साथ न देना, सब उस चमक की गहराई में
खत्म हो गया है।
प्रकाश पर वह जान देती है। उसकी खुशी, इच्छाएं, दुनिया, और उसका स्वर्ग सब प्रकाश है; पर इसका मतलब यह नहीं कि प्रकाश कोई शरारत करे और करूणा आँखें बंद कर ले। नहीं, वह उसकी बड़ी सख्ती से देख-भाल करती थी। वह प्रकाश की माँ नहीं, माँ-बाप दोनों हैं। उसके पुत्र-प्रेम में माँ की ममता के साथ पिता की सख्ती भी मिली हुई है। पति के आखिरी शब्द अभी तक उसके कानों में गूँज रहे हैं। वह अंदर से खुशी, जो उनके चेहरे पर दिखने लगी थी, वह गर्व की लाली, जो उनकी आँखो में छा गयी थी,अभी तक उसकी आँखों में तैर रही है। हमेशा पति के बारे में सोचते-सोचते, आदित्य उसकी आँखों में बस गया है। वह हमेशा उसे अपने साथ महसूस करती। उसे ऐसा लगता कि आदित्य की आत्मा हमेशा उनका ध्यान रखती है। उसकी यही इच्छा है, कि प्रकाश बड़ा होकर पिता के रास्ते पर चले।
शाम हो गयी थी। एक भिखारिन दरवाजे पर आकर भीख माँगने लगी । करूणा उस समय गाय को पानी दे रही थी। प्रकाश बाहर खेल रहा था। बच्चे ही तो है उसे शरारत करने की सूझी। वो घर में गया और कटोरे में थोड़ा-सा भूसा लेकर बाहर निकला। भिखारिन ने झोली फैला दी। प्रकाश ने भूसा उसकी झोली में डाल दिया और जोर-जोर से तालियाँ बजाता हुआ भागा। भिखारिन ने गुस्से से आँखे लाल कर के कहा-“वाह रे लाडले! मुझसे हँसी करने चला है! यहीं माँ-बाप ने सिखाया है! तब तो खूब परिवार का नाम ऊँचा करोगे!”
करुणा उसकी बोली सुनकर बाहर निकल आयी और पूछा- “क्या है माता? किसे कह रही हो?”
भिखारिन ने प्रकाश की तरफ इशारा करके कहा “वह तुम्हारा लड़का है न। देखो, कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया। चुटकी-भर आटा था, वह भी मिट्टी में मिल गया। कोई इस तरह गरीब को तंग करता है? सबके दिन एक-से नहीं रहते! आदमी को घमंड न करना चाहिए।
करूणा ने गुस्से से बुलाया-“प्रकाश प्रकाश शर्मिंदा नहीं था। वो
घम्मड से सिर उठाए हुए आया और बोला-“वह हमारे घर भीख क्यों माँगने आयी है? कुछ काम क्यों नहीं करती?” करुणा ने उसे समझाने की कोशिश करके कहा- शर्म नहीं आती, उल्टे और आँख दिखाते हो।”
प्रकाश शर्म क्यों आए? यह क्यों रोज भीख माँगने आती है? हमारे यहाँ क्या कोई चीज मुफ्त में आती है?” करूणा- “तुम्हें कुछ न देना था तो सीधे कह देते कि जाओ। लेकिन तुमने यह शरारत क्यों की?”
प्रकाश- “उनकी आदत कैसे छूटेगी?”
करूणा ने अब गुस्से से कहा- “तुम अब पिटोगे मुझसे।”
प्रकाश- “पियूँगा क्यों? आप जबरदस्ती पीटेंगी? दूसरे देशों में अगर कोई भीख मांगे, तो कैद कर लिया जाय। यह नहीं कि उल्टे भीख मांगने वाले को और बढ़ावा दें।”
करुणा- “जो शरीर से लाचार है, वह कैसे काम करे?”
प्रकाश-“तो जाकर डूब मरे, जिन्दा क्यों रहती है?”
के पास अब जवाब नहीं था। बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया, पर प्रकाश की बेकार की बाते उसे बहुत बुरी लगी। उसने यह बदतमीजी, बड़ों का अपमान कहाँ से सीखा? रात को भी उसे बार-बार यही बात परेशान करती रही।
आधी रात के लगभग अचानक प्रकाश की नींद टूटी। लालटेन जल रही थी और करुणा बैठी रो रही थी। वो उठ बैठा और बोला- “अम्मों, अभी तुम सोयी नही कोरोना ने मुँह फेरकर कहा-“नींद नहीं आयी। तुम कैसे जग गये? प्यास तो नहीं लगी?” प्रकाश-” नही अम्माँ, न जाने क्यों आँख खुल गयी। मुझसे आज बड़ी गलती हुई, अम्मा !”
करूणा ने उसकी तरफ प्यार से देखा।
प्रकाश– “मैंने आज बुढिया के साथ बड़ी शरारत की। मुझे माफ़ करो, फिर कभी ऐसी शरारत न कूँगा।”
यह कहकर वो रोने लगा। करूणा ने प्यार से उसे गले लगा लिया और उसके गालो को चुम कर बोली- “बेटा, मुझे खुश करने के लिए कह रहे हो या तुम्हारे मन में सचमुच पछतावा हो रहा है?”
प्रकाश ने सिसकते हुए कहा-“नहीं अन्मों, मुझे दिल से बुरा लग रहा है। अबकी वह बुढ़िया आयेगी, तो मैं उसे बहुत-से पैसे दूंगा।” करूणा का मन खुशी से हल्का हो गया। ऐसा लगा, आदित्य सामने खड़े बच्चे को आर्शीवाद दे रहे हैं और कह रहे हैं -“करूणा, चिंता मत कर, प्रकाश अपने पिता का नाम रोशन करेगा, तेरी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएँगी।”
लेकिन प्रकाश के काम और बाते बिलकुल अलग थी। और समय बीतने के साथ उसका स्वभाव सामने आ रहा था। उसकी बुद्धि तेज़ थी और विश्वविद्यालय से उसे scholarship मिलती थी, करूणा भी जितना हो सकता मदद करती थी, फिर भी उसका खर्च पूरा न पड़ता था। वह कम खर्च और सरल जीवन पर पंडितो, ज्ञानियों की तरह बाते बता सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अंध भक्तों से जरा भी कम न था। दिखावे की धुन उस पर हमेशा सवार रहती। उसके मन और बुद्धि में लगातार उलझने चलती रहती थी। मन जाति की ओर था, बुद्धि अपनी ओर। बुद्धि मन को दबाये रहती थी। उसके सामने मन की एक न चलती। जाति-सेवा बंजर खेती है, वहाँ बड़े-से-बड़ा इनाम जो मिल सकता है, वह है गौरव और यश; पर वह भी टिकाऊ नहीं, इतना कच्चा कि पल में जीवन-भर की कमाई पर पानी फिर सकता है।
इसलिए उसका दिमाग एशो आराम के जीवन की ओर झुकता था। यहाँ तक कि धीरे-धीरे उसे किसी बात पर रोकने पर या बंधनो से नफरत होने लगी। वह खराब हालातों से और गरीबो से नफरत करता था उसके पास ना तो दिल था, ना भावनाएं थी, बस दिमाग था। दिमाग में दर्द कहाँ होता है वहाँ तो बस तर्क हैं और अपना इरादा है।
। हजारों लोग तबाह हो गये। स्कूल ने वहाँ एक सेवा समिति भेजी। प्रकाश के मन में उलझन होने लगी-जाऊँ या न जाऊँ? इतने दिनों अगर वह परीक्षा की तैयारी करें, तो फर्स्ट आ सकता है। चलते समय उसने बीमारी का बहाना कर दिया। करूणा ने लिखा, तुम सिन्ध न गये, सिंध में बाट में बाढ़ आयी।
इसका मुझे दुख है। तुम उडीसा में अकाल । तुग बीमार रहते हुए भी वहाँ जा सकते थे। समिति में डॉक्टर भी तो थे! प्रकाश ने ख़त का जवाब न दिया। पड़ा। लोग लोग मक्खियों की तरह मरने लगे। कांग्रेस ने वहाँ के लोगो के लिए एक मिशन तैयार किया। उन्हीं दिनों स्वूलों ने इतिहास के स्टूडेंट्स को ऐतिहासिक खोज के लिए लंका भेजने का फैसला किया। करूणा ने प्रकाश को लिखा-“तुम उड़ीसा जाओ। पर प्रकाश लंका जाने को तैयार था। ई दिन इसी उलझन में रहा। जीत सीलोन की हुई, उड़ीसा हार गया। करुणा नै अबकी बार उसे कुछ न लिखा। चुपचाप रोती रही। ह कई | चह सीलोन से लौटकर प्रकाश छुट्टियों में धर गया। करुणा उससे नाराज रहीं। प्रकाश मन में शर्मिंदा हुआ और इरादा किया कि अबकी बार कोई मौका आया, अम्मी को जरूर खुश किया। यह ठान कर वह स्कूल वापिस आया। लेकिन यहाँ आते ही फिर परीक्षा की फिक्र हो गयी। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन आ गये; मगर इम्तहान खत्म होने की बाद भी प्रकाश घर न गया। स्कूल के एक टीचर कश्मीर सैर करने जा रहे थे। प्रकाश उन्हीं के साथ कश्मीर चला गया।
व परीक्षा-फल निकला और प्रकाश फर्स्ट आया, तब उसे घर की याद आयी! उसने तुरन्त करूणा को खत लिखा और अपने आने की खबर दी। माँ
को खुश करने के लिए उसने दो-चार शब्द जाति-सेवा पर भी लिखे- अब मै आपकी हर बात मानने को तैयार हूँ। मैंने शिक्षा-सम्बन्धी काम करने का सोचा है इसी विचार से मैने वह ख़ास जगह हासिल की है। हमारे नेता भी तो स्कूल के आचा्यों ही की इज़्ज़त करते हैं। अभी तक इन खिताब के मोह से वो आज़ाद नहीं हुए हैं। हमारे नेता भी गुण, जोश, लगन का उतना सम्मान नहीं करते, जितना खिताबों का! अब मेरी इज्जत करेंगे और जिम्मेदारी का काम सौपेंगे, जो पहले माँगे भी न मिलता।
की आस फिर बँधी।
स्कूल खुलते ही प्रकाश के नाम रजिस्ट्रार का खत पहुँचा। उन्होंने प्रकाश को इंग्लैंड जाकर पढ़ाई की तैयारी करने के लिए सरकारी scholarship की मंजूरी की सूचना दी। प्रकाश ख़त हाथ में लिये हुए खुशी से माँ से बोला-“अम्मां, मुझे इंग्लैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी scholarship मिल गया।”
- करूणा ने उदास भाव से पूछा-“तो तुम्हारा क्या इरादा है?”
प्रकाश-“मेरा इरादा? ऐसा मौका पाकर भला कौन छोड़ता है!” करूणा– “तुम तो स्वयंसेवकों (volunteer) में भरती होने जा रहे थे?”
प्रकाश- “तो आप समझती हैं, स्वयंसेवक बन जाना ही जाति सेवा में इंग्लैंड से आकर भी तो सेवा कर सकता हूँ और अम्माँ, सच पूछो, तो एक मजिस्ट्रेट अपने देश का जितना भला कर सकता है, उतना एक हजार स्वयंसेवक मिलकर भी नहीं कर सकते। मैं तो सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठूँगा और मुझे विश्वास है कि सफल करूणा ने चकित होकर पूछा- “तो क्या तुम मजिस्ट्रेट हो जाओगे?” प्रकाश-” सेवा-भाव रखनेवाला एक मजिस्ट्रेट कांग्रेस के एक हजार सभापतियों से ज्यादा सेवा कर सकता है। अखबारों में उसकी लम्बी-लम्बी तारीफें न छपेंगी, उसके बोले जाने पर तालियाँ न बजेंगी, जनता उसके जुलूस की गाड़ी न खींचेगी और न स्कूल के स्टूडेंट उसे प्रशंसा-खत देंगे; पर सच्ची सेवा मजिस्ट्रेट ही कर सकता है।”
करूणा ने एतराज के भाव से कहा- “लेकिन यही मजिस्ट्रेट तो जाति के सेवकों को सजा देते हैं, उन पर गोलियाँ चलाते हैं ?” प्रकाश– “अगर मजिस्ट्रेट के दिल में सेवा का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है, जो दूसरे गोली चलाकर भी नहीं कर सकते।” करूणा– “में यह नहीं मानती। सरकार अपने नौकरों को इतनी आजादी नहीं देती। वह एक नीति बना देती है और हर सरकारी नौकर को उसे मानना पड़ता है। सरकार की पहली नीति यह है कि वह हर दिन ज्यादा बड़ी और मजबूत बने । इसके लिए आजादी के भाव को खत्म करना जरूरी है; अगर कोई मजिस्ट्रेट इस नीति के खिलाफ काम करता है, तो वह मजिस्ट्रेट न रहेगा। वह हिन्दुस्तानी था, जिसने तुम्हारे बाबूजी को जरा-सी बात पर तीन साल की सजा दे दी थी।
इसी सजा ने उनकी जान ले ली बेटा, मेरी इतनी बात मानो। सरकारी नौकरी का लालच मत करो। मुझे यह मंजूर है कि तुम मोटा खाकर और मोटा पहनकर देश की कुछ सेवा करो, इसके बदले कि तुम सरकारी नौकर बन जाओ और शान से जीवन बिताओ यह समझ लो कि जिस दिन तुम सरकारी कुरसी पर बैठोगे, उस दिन से तुम्हारा दिमाग नौकरों जैसा हो जाएगा। तुम यही चाहेगे कि अफसरों में तुम्हारा नाम और तरक्की हो। एक गैँवारू मिसाल लो। लड़की तक मैके में कुंवारी रहती है, वह अपने को उसी घर की समझती है, लेकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरों करुणा घूर कर देखते हुए बोली-“अगर ठोकर खाकर आत्मा आजाद रह सकती है, तो में कहूँगी, ठोकर खाना अच्छा है।”
का घर समझने लगती है। माँ-बाप, भाई-बंद सब वही रहते हैं, लेकिन वह घर अपना नहीं रहता। दुनिया में यही होता आया है।”
प्रकाश ने खीझकर कहा- “तो क्या आप यही चाहती हैं कि मैं जिंदगी-भर चारों तरफ ठोकरें खाता फिरें?”
प्रकाश ने निश्चित भाव से पूछा-“तो आपकी यही इच्छा है?” करूणा ने उसी आवाज़ में जवाब दिया- हाँ, मेरी यही इच्छा है।
प्रकाश ने कुछ जवाब न दिया। उठकर बाहर चला गया और तुरन्त रजिस्ट्रार को मना करते हुए खत लिख भेजा; मगर उसी पल से मानों उसके सिर पर दुखो ने डेरा डाल दिया। वो बेमन सा, अलग थलग अपने कमरें में पड़ा रहता, न कहीं घूमने जाता, न किसी से मिलता। मुँह लटकाये भीतर आता और फिर बाहर चला जाता, यहाँ तक एक महीना गुजर गया।
न चेहरे पर वह लाली रही, न चमक; आँखें अनाथो के जैसी भीख मांगती हुई, होंठ हँसना भूल गये, मानों उस खत के साथ उसकी सारी चंचलता, शरारत, सारी सरलता गायब हो गयी। करूणा उसके मन के भाव समझती थी और उसके दुःख को भुलाने की कोशिश करती, पर रूठे देवता खुश न होते थे। आखिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा- बेटा, अगर तुमने विदेश जाने की ठान ही ली है, तो चले जाओ। मैं मना न करूंगी। मुझे दुःख है कि मैंने तुम्हें रोका। अगर में जानती कि तुम्हें इतना धक्का लगेगा, तो कभी न रोकती। मैंने तो सिर्फ इसलिए रोका था कि तुम्हें जाति-सेवा में लगे देखकर तुम्हारे बाबूजी की आत्मा खुश होगी। उन्होंने आखरी समय में यही इच्छा की थी।” प्रकाश ने रूखाई से जवाब दिया- “अब क्या जाऊँगा! इनकार का -खत लिख चुका हूँ। मेरे लिए कोई अब तक बैठा थोड़े ही होगा। कोई दूसरा लड़का चुन लिया होगा और फिर करना ही क्या है? जब आपकी मर्जी है कि गाँव-गाँव के धक्के खाता फिरूँ, तो वही सही।”
करूणा का गर्व चूर-चूर हो गया। इस सुझाव से उसने बाधा का काम लेना चाहा था; पर सफल न हुई। बोली-“अभी कोई न चुना गया होगा। लिख दो,
में जाने को तैयार हूँ।”
प्रकाश ने झुँझलाकर कहा “अब कुछ नहीं हो सकता। लोग हँसी उड़ायेंगे। मैने सोच लिया है कि आपकी इच्छा के हिसाब से करूंगा।”
करूणा- “तुमने अगर शुद्ध मन से यह इरादा किया होता, तो यों न रहते। तुम मेरा शांति से विरोध कर रहे हो; अगर मन को दबाकर, मुझे अपनी राह का काँटा समझकर तुमने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या? मैं तो जब जानती कि तुम्हारे मन में अपने आप ही सेवा का भाव पैदा होता। तुम आज ही रजिस्ट्रार साहब को खत लिख दो।”
प्रकाश-“अब मैं नहीं लिख सकता।”
करूणा-“तो इसी दुःख में बैठे रहोगे? प्रकाश-“मजबूरी है।”
करूणा ने और कुछ न कहा। जरा देर में प्रकाश ने देखा कि वह कहीं जा रही है; मगर वह कुछ बोला नहीं। करूणा के लिए बाहर आना-जाना कोई बड़ी बात न थी; लेकिन जब शाम हो गयी और करुणा न आयी, तो प्रकाश को चिन्ता होने लगीं। अम्मा कहाँ गयीं? यह सवाल बार-बार उसके मन में उठने लगा।
प्रकाश सारी रात दरवाजे पर बैठा रहा। तरह तरह के सवाल उसके मन में उठने लगे। उसे अब याद आया, चलते समय करूणा कितनी उदास थी;
उसकी आँखें कितनी लाल थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आयी? वह क्यों स्वार्थ में अंधा हो गया था? हां, अब प्रकाश को याद आया- “माँ ने साफ-सुथरे कपड़े पहने थे। उनके हाथ में छतरी भी थी। तो क्या वह कहीं बहुत दूर गयी हैं? किससे पूछे? कुछ बुरा होने के डर से प्रकाश रोने लगा।”
सावन की अंधेरी डरावनी रात थी। आकाश में काले बादल, बुरे सपनो की तरह छाए हुए थे। प्रकाश रह-रहकर आकाश की ओर देखता, मानो करूणा उन्हीं बादलो में छिपी बैठी हो। उसने फैसला किया, सवेरा होते ही माँ को ढूंढने चलूँगा और अगर…
किसी ने दरवाजा खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खोला, तो देखा, करूणा खड़ी है। उसका चेहरा इतना खोया हुआ था, इतना बुझा हुआ, जैसे आज ही उसका पति मर गया है, जैसे दुनिया में अब उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबते देख रही है और कुछ कर नहीं सकती।
प्रकाश ने बेचैन होकर पूछा- “अम्माँ कहाँ चली गयी थी? बहुत देर लगायी?”
करुणा ज़मीन की ओर देखते हुए जवाब दिया “एक काम से गयी थी। देर हो गयी।”
यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बंद लिफाफा फेक दिया। प्रकाश ने बेचैन होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही स्कूल की मुहर थी। उसने तुरन्त ही लिफाफा खोलकर पढ़ा। हलकी-सी लालिमा उसके चेहरे पर दौड़ गयी। पूछा- “यह तुम्हें कहाँ मिल गया अम्मा?”
करूणा- “तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लायी हूँ।” “क्या तुम वहाँ चली गयी थी?
प्रकाश
करूणा- “और क्या करती।”
प्रकाश- “कल तो गाड़ी का समय न था?” करूणा- “मोटर ले ली थी।”
प्रकाश कुछ पल चुप खड़ा रहा, फिर परेशान होकर बोला-” जब तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मुझे क्यों भेज रही हो?” करूणा ने दुखी मन से कहा-“इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। मुझसे तुम्हारा यह हाल नहीं देखा जाता। अपने जीवन के बीस साल तुम्हारे जीवन को अच्छा बनाने में लगा दिए, अब तुम्हारी इच्छाओं को नहीं मार सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही मेरा दिल से आशार्वाद है।” था, वह सब खर्च हो गया। कुछ कर्जा भी लेना पड़ा। नये सुट बने, सूटकेस करुणा का गला भर आया और वो कुछ न कह सकी।
प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारी करने लगा। करूणा के पास जो कुछ लिए गये। प्रकाश अपनी धुन में मस्त था। कभी किसी चीज की मांग लेकर आता, कभी किसी चीज की।
आँखों में बस इंगलैंड ना कमजोर हो गयी कि उसके बालों पर सफेदी आ गयी. चेहरे पर झुर्रियों पड़ गयी, यह उसे कुछ न नजर आता। उसकी चलने का दिन आया। आज कई दिनों के बाद धूप निकली थी। करूणा पति के पुराने कपड़ों को बाहर निकाल रही थी। उनकी मोटी चादरें, खद्दर के कुरते, पजामे और लिहाफ अभी तक बक्से में संभाल कर रखे थे। हर साल वे धूप में सुखाये जाते और झाड़-पोंछकर रख दिये जाते थे। करूणा ने आज फिर उन कपड़ो को निकाला, मगर सुखाकर रखने के लिए नहीं गरीबों में बाँट देने के लिए। वह आज पति से नाराज है। वह लुटिया, डोर और घड़ी, जो आदित्य के हमेशा साथ रहती थीं और जिनकी बीस सालों से करूणा ने पूजा की थी, आज
निकालकर आँगन में फेंक दी गयी; वह झोली जो कितने साल आदित्य के कन्धों पर सजी रह चुकी थी, आज कूड़े में डाल दी गयी; वह चेहरा जिसके सामने बीस साल से करूणा सिर झुकाती थी, आज वही बड़े कठोर मन से जमीन पर फेंक दिया। पति की कोई याद वह अब अपने घर में नहीं रखना चाहती।
दुःख और निराशा से मन के अंदर कुछ टूट गया और पति के सिवा वह किस पर गुस्सा उतारे? , कौन उसका अपना है? वह किससे अपन दर्द कहे? किसके सामने अपन दुखड़ा रोये ?, वह होते तो क्या प्रकाश गुलामी की जंजीर गले में डालकर खुश न होता ?, उसे कौन समझाये कि आदित्य भी इस मौके पर पछताने के सिवा और कुछ न कर सकते थे।
प्रकाश के दोस्तों ने आज उसे जाने की खुशी में खाने का इंतजाम किया था। वहाँ से वह शाम को कई दोस्तों के साथ मोटर पर वापिस आया सफर का सामान मोटर पर रख दिया गया, तब वह अन्दर आकर माँ से बोला- “अम्मा, जाता हूँ। बम्बई पहुँचकर ख़त लिखँगा। तुम्हें मेरी कसम, रोना मत और मेरे खत का जवाब हमेशा देना।’
जैसे किसी लाश को बाहर निकालते समय रिश्तेदारों का धीरज छूट जाता है, रूके हुए आँसू निकल पड़ते हैं और दुःख की तरंगें उठने लगती हैं, वही हाल करूणा का हुआ। दिल में एक टीस उठी, जिसने उस कमजोर औरत को कंपा दिया। मालूम हुआ, पाँव पानी में फिसल गया है और वह लहरों में बही जा रही है। उसके मुँह से दुःख या आर्शीवाद का एक शब्द भी न निकला। प्रकाश ने उसके पैर छुए, आसुओ से माँ के पैर धोये, फिर बाहर चला।
करूणा पत्थर की मूरत की तरह खड़ी थी।
अचानक गाय की देखभाल करने वाले ने आकर कहा- “बहुजी, भइया चले गये। बहुत रोते थे।” तब करूणा होश में आयी। देखा, सामने कोई नहीं है। घर में मौत की-सी शांति है, और मानो दिल की थडकने बन्द हो गयी है।
फिर अचानक करूणा की नज़र ऊपर गयी। उसने देखा कि आदित्य अपनी गोद में प्रकाश का बेजान शरीर लिए खड़े हैं। करूणा बेहोश होकर गिर पड़ी।
करूणा जिंदा थी, पर दुनिया से उसका कोई रिश्ता न था। उसका छोटा-सा संसार, जिस के लिए उसने क्या क्या सोचा था, किसी सपने की तरह टूट गया था। जिस प्रकाश को सामने देखकर वह जीवन की अंधेरी रात में भी दिल में आशाओं की दौलत लिये जी रही थी, वह बुझ गया और जायदाद लुट गई। अब न कोई ठिकाना था और न उसकी जरूरत। जिन गायो को वह दोनों वक्त अपने हाथों से घास खिलाती और प्यार करती थी, वे अब खूँटे पर अर्थे परेशान से दरवाजे की ओर देखते रहते थे। बछड़ों को गले लगाकर प्यार करने वाला अब कोई न था, जिसके लिए दूध निकाले, मट्ठा निकाले। खाने वाला ही कौन था? करूणा ने खुद को अपने ही अंदर समेट लिया था।
लेकिन एक ही हफ्ते में करूणा के जीवन ने फिर रंग बदला। उसकी छोटा-सी दुनिया फिर से बड़ी हो गयी। जिस की वजह से वह जिम्मेदारियों में फंसी थी, वही चला गया। अब वो पूरी दुनिया में कही भी घूमे या भटके, चाहे वह हमेशा के लिए उसमे खो जाए।
करूणा दरवाजे पर आ बैठती और मुहल्ले-भर के लड़कों को बुला कर दूध पिलाती। दोपहर तक मक्खन निकालती और वह मक्खन मुहल्ले के लड़के खाते। फिर तरह -तरह के पकवान बनाती और कुत्तों को खिलाती। अब यही उसका रोज़ का काम हो गया। चिड़ियाँ, कुत्ते, बिल्लियाँ चीटे-चीटियाँ सब अपने हो गये। प्रेम का वह दरवाजा अब किसी के लिए बन्द न था। उस जरा सी जगह में, जो प्रकाश के लिए भी काफी न थी, अब उसमें सारा संसार समाय समा गया था।
एक दिन प्रकाश का खत आया। करूणा ने उसे उठाकर फेंक दिया। फिर थोड़ी देर के बाद उसे उठाकर फाड़ डाला और चिड़ियों को दाना चुगाने लगी; मगर जब गुस्सा कम हुआ, तो अंदर से माँ की ममता ने आवाज लगाई- प्रकाश का खत पढ़ने के लिए उसका मन बेचैन हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है? मेरा उससे क्या मतलब? हाँ, प्रकाश मेरा कौन है? हाँ, प्रकाश मेरा कौन है?
दिल ने जवाब दिया, प्रकाश तेरा सब कुछ है, वह तेरे उस अमर प्रेम की निशानी है, जिससे तू हमेशा के लिए दूर हो गयी। वह तेरी जिंदगी है, तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी अधूरी खुशियों की मिठास, तेरे आंसुओ में तैरने वाला हँस। करूणा उस ख़त के टुकड़ों को जमा करने लगी, जैसे उसकी जान बिखर गई हो एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक टुकड़ा-सा मालूम होता था।
व सारे कागज मिल गये, तो करूणा दीये के सामने बैठकर उसे जोड़ने लगी, जैसे कोई टूटा दिल, प्यार के टूटे हुए तारों को जोड़ रहा हो। हाय री ममता! वह बदकिस्मत सारी रात उन टुकड़ो को जोड़ने में लगी रही। खत दोनों ओर लिखा था, इसलिए टुकड़ो को ठीक जगह पर रखना और भी मुश्किल था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में गायब हो जाता। उस एक टुकड़े को बह फिर ढूंढने लगती। सारी रात बीत गयी, पर ख़त अभी तक अधूरा था। दिन चढ़ आया, मुहल्ले के लड़के मक्खन और दूध की चाह में आ गये, कुत्ते और बिल्लियां भी आ चुके थे, चिड़ियाँ आ-आकर आँगन में फुदकने लगी, कोई ओखली पर बैठी,कोई तुलसी के चबूतरे पर, पर करूणा को सिर उठाने तक का वक्त नहीं।
दोपहर हुआ, करुणा ने सिर न उठाया। उसे न भूख थी, न प्यास। फिर शाम हो गयी। पर वह ख़त अभी तक अथूरा था। खत का मतलब समझ में आ रहा था– प्रकाश का जहाज कहीं-से-कहीं जा रहा है। उसके दिल में कुछ उठा हुआ है। क्या उठा हुआ है, यह करुणा न सोच सकी? करूणा बेटे के लिखे एक-एक शब्द पढ़ना और उसे दिल में बसा लेना चाहती थी।
इस तरह तीन दिन बीत गये। शाम हो गयी थी। तीन दिन की जागी करुणा की आँख लग गयी। करूणा ने देखा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा है, उसमें मेज और कुर्सियों लगी हुई हैं, बीच में ऊँचे मंच पर कोई आदमी बैठा हुआ है। करूणा ने ध्यान से देखा, तो वो प्रकाश था। एक पल में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके हाथ-पाँव में जंजीर थी, कमर झुकी हुई, यह आदित्य थे।
आँखें खुल गयीं। उसके आँख से आँसू बहने लगे। उसने ख़त के टुकड़ों को फिर समेट लिया और उसे जलाकर राख कर डाला। राख की एक करूणा की चुटकी के सिवा वहाँ कुछ न रहा, जो उसके दिल में छेद कर रही थी। इसी एक चुटकी राख में उसका गुड़ियों वाला बचपन, उसकी जवानी, और बिना के तड़पता हुआ जीवन सब समा गया लोगों ने देखा, पंछी पिंजड़े से से उड़ चूका था! आदित्य की तसवीर अब भी उसके बेजान शरीर से चिपटी हुई थी। अब वह अपने पति के पास जा चुकी थी और प्रकाश का जहाज योरप चला जा रहा था।
स कहानी में मुशीजी ने बताया है कि माता पिता अपने बच्चों के लिए ना जाने कितने बलिदान देते हैं लेकिन बच्चे अक्सर अपने स्वार्थ में
MORAL
उन्हें अकेला छोड़कर चले जाते हैं. अपने स्वर्गवासी पति की आखिरी इच्छा को पूरा करने के लिए, एक माँ अपने बेटे को पिता जैसा बनाना चाहती है। इस सपने को पूरा करने के लिए वह अपनी सब खुशियों का त्याग करती है। लेकिन बेटा माँ के दुःख भूलकर, माँ के सपने को तोड़ कर अपनी खुशियों को चुनता है। अंत में माँ की ममता मजबूर होकर बेटे की खुशियों के आगे झुक जाती है।