KAFAN by Munshi premchand.

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झोपड़े के दरवाजे पर बाप और बेटा हाथ सेंकने के लिए जलाई हुई आग के सामने चुपचाप बैठे हुए थे. अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया, जो माँ बनने वाली थी, वो दर्द में कराह रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल देहला देने वाली आवाज़ निकल रही थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। कड़ाके की ठंड थी, रात का वक़्त था, प्रकृति सन्नाटे में और सारा गाँव अन्धकार में डूबा हुआ था।

पिता घीसू ने कहा- “लगता है, बचेगी नहीं। तेरा सारा दिन दौड़ते हुए बीत गया, जा देख तो आ”। माधव चिढकर बोला- “मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूं?”

तो बड़ा बेरहम है! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई! तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पॉव पटकना नहीं देखा जाता। क

ये चमारों का परिवार था और सारे गाँव में बदनाम भी था घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर धा कि आध था। धीसू ए घण्टे काम करता तो घण्टे भर बैठकर चैन से हुक्का पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो बस वो मगर लोग इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम निकलवाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा नहीं होता था।

दोनों काम से तोबा दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडियां तोड़ लाता और माधव उसे बाज़ार में बेच देता और जब तक कर लते। जब वह पैसे रहते, दोनो इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी नहीं थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम मौजूद थे।

अगर ये दोनों साध होते. तो उन्हें संतोष और नीरज के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत नहीं होती। यह तो इनका स्वभाव था अजीब राह नहीं थी। जीवन था इनका! घर में निट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई दौलत या जायदाद नहीं थी। फटे चीथडों से ये अपने तन को ढाँके हुए जिये जा रहे थे। कोई या को संसार की चिन्ताओं से आज़ाद लेकिन बुरी तरह कर्ज़ में डूबे हुए। ये गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर इन्हें कोई गम नहीं होता। है। ये खाते, ये इतने गरीब और दयनीय हालात में थे कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल होने पर ये दूसरो या ओलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच गना उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी में साठ बेटे की तरह बाप ही के नशे कदम पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी रोशन कर रहा था। इस वक्त काट दी और माधव भी सपूत बेटे की भी दोनों आग के सामने बैठकर आलू भून रहे थे जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। धीसू की पत्नी का तो बहुत दिन पहले ही देहान्त हो गया था। माधव की शादी पिछले साल हुई थी। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस घर को रहने साल की लायक बना दिया था और इन दोनों बे-गैरतों के सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखती थी। जब से वह आयी थी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडने भी लगे थे। कोई अगर काम करने के लिए बुलाता, तो ये बेशर्मी से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज डिलीवरी के दर्द से र रही थी यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो ये आराम से सोयें।

घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा- “जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? इतना चीख रही है, चुडैल का साया होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!” माधव

र था, कि अगर वह कोठरी में गया, तो घीसू सारे आलू खा जाएगा। वो बोला-“मुझे वहाँ जाते हुए डर लगता है।

डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।

‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?

मेरी पत्नी जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं था; और फिर ये तेरी पत्नी है, क्या वो मुझसे शर्माएगी नहीं? मैंने जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका आधे कपड़ों में लिपटा हुआ शरीर दे ! उसे तो अभी अपने शरीर की सुध भी नहीं होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी नहीं मार सकेगी।

में सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!

सब कुछ आ जाएगा। भगवान दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ नहीं था; मगर भगवान ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार लगा ही दिया।’

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत अच्छी नहीं थी, और किसानों के मुकाबले में वो लोग, जो किसानों की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा दौलतमंद थे, वहाँ इस तरह की सोच और ख़याल का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा समझदार और परवाह करने वाला था. जिन किसानों में सोचने समझने की शक्ति ख़त्म हो गई थी उनके ग्रुप में शामिल होने के बजाय वो बैठकबाजों की बदनाम मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति नहीं थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मुखिया।

मण्डली के और लोग गाँव के हेड और बने हुए थे, धीसू पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह पूरा यकीन था कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों के जैसे जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसके भोलेपन और बेबसी का दूसरे लोग गलत फ़ायदा तो नहीं उठाते! दोनों – आलू निकालकर उसे गरमागरम ही खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। उनमें इतना सब्र भी न था कि उसे ठण्डा हो जाने दें। इस वजह से कई बार दोनों की ज़बान भी जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता धा और उस अंगारे को मुंह में रखने से ज्यादा भलाई इसी में थी कि वह पेट के अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे। इसलिए दोनों उसे जल्दी-जल्दी निगल जाते। था। उस दावत में उसे जो संतुष्टि और तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन कोशिश में हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल रहे थे। घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया में एक याद रखने लायक बात थी, और आज । उसकी याद ताज़ा थी, वो बोला- “मैं वह दावत नहीं भूलता। तब से लेकर आज तक उस तरह का लज़ीज़ और भरपेट खाना नहीं मिला। लड़की वालों ने सबको भर पेट पुडिसाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडियाँ खायीं और वो भी असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार सब्ज़ी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस दावत में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, चीज़ चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसे खाया, ऐसे खाया, कि किसी से पानी भी नहीं पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल धी की सुगंध से भरी कचौडियाँ डालते जा रहे थे। कोई मना करता कि और नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोक लेता तब भी वो दिये जाते और जब सबने खाना खत्म कर मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध धी? मुझे से तो खड़ा भी नहीं हुआ जा में तो चटपट जाकर अपने कम्बल में घुस गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!

माधव ने इतने सारे स्वादिष्ट खाने का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-“अब हमें कोई ऐसी दावत नहीं खिलाता”।

अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा धा। अब तो सब कम से कम खर्च करना चाहते हैं। शादी-ब्याह में खर्च मत करो, अंतिम संस्कार में खर्च मत करो। ज़रा कोई पूछो उनसे कि गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च करते वक्त की सूझती है! तुमने बस बीस पूरियाँ खायी होंगी?’

बीस से से ज्यादा खायी थीं।”

में पचास खा जाता!

पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था । तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं बुझी हुई आग के सामने अपनी धोतियाँ ओढकर पाँव फेट में डाले सो गए जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हो।

और बुधिया अभी तक कराह रही थी।

सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी पत्नी बिलकुल ठण्डी पड़ चुकी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। आँखें जैसे पत्थर की हो गई हो और वो ऊपर की ओर देख रही थी। पूरा शरीर धूल से लथपथ था। उसके पेट में बच्चा मर गया था। माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए

आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे। मगर ज्यादा रोने-पीटने का समय नहीं था। कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले से माँस?

बाप-बेटे रोते हुए गाँव के गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से भी नफ़रत करते थे। वो कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट भी चुके थे, चोरी करने के लिए, वादा कर काम पर न आने के लिए। उन्होंने पूछा-“वया है बे घिसुआ, रोता क्यों है? आजकल तो तू कहां दिखाई भी नहीं देता! मालूम

होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता”।

धीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-“सरकार! बड़ी तकलीफ़ में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, लेकिन फिर भी वह हमें धोखा दे गयी। अब तो हमें कोई एक रोटी देने वाला भी नहीं रहा मालिक! हम तबाह हो गये। हमारा घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा । हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में चला गया। सरकार की दया होगी, तो उसकी लाश उठेगी। आपके सिवा किसके दरवाज़े पर

जाऊँ।

जमींदार साहब बहुत दयालु थे मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना जैसा था। उनके जी में तो आया कि कह दें, “चल, दूर हो यहाँ से।

यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब ज़रुरत पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। निकम्मा कहीं का, बदमाश!” लेकिन यह गुस्सा करने का या सज़ा देने का मौका नहीं था। जी में कुढ़ते हुए उन्होंने दो रुपये निकालकर उसकी ओर फेक दिए मगर हमदर्दी का एक शब्द भी उनके मुँह से नहीं निकला। उन्होंने दास की तरफ देखा तक नहीं। उनके लिए ऐसा था जैसे उन्होंने सिर का कोई बोझ उतार दिया हो।

जब जमींदार साहब ने दो रुपये दे दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों की मना करने की कहाँ हिम्मत होती ? घीसु जमींदार के नाम का दिंढोरा भी पीटना कहीं से लकड़ी और दोपहर में घीसू और माधव बाज़ार कफ़न लाने चल दिए। इधर लोग बाँस-वॉँस काटने लगे थे। गाँव की नर्मदिल औरतें आ-आकर लाश देखती और उसकी बेकसी पर दो बूंद आँसू बहाकर चली जाती।

जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चार आने। एक घण्टे में धीसु के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया,

बाज़ार में पहुंचकर घीसू बोला-“उसे जलाने भर की लकड़ी तो मिल गयी है, क्यों माधव!” माधव बोला-“हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।

तो चलो, कोई हलका-सा कफन ले लें।’

हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है? रिवाज है कि जिसे जीते जी हाँकने को चीथड़ा भी मिलें, उसे मरने पर नया कफ़न कैसा बुरा कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।

और र क्या रखा है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते। और दोनों। एक-दूसरे के मन की बात समझ रहे थे। वो दोनों बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस दुकान पर गये, कभी उस दुकान पर! तरह-तरह के

कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ पसंद नहीं आया। ऐसे घूमते-घूमते शाम हो गयी। फिर दोनों एक शराबखाने के सामने जा पहुँचे, बहाँ जरा देर तक दोनों दुविधा में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-“साहूजी, एक बोतल हमें भी देना”। उसके बाद थोड़ा चिकन आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्ति से पीने लगे।

थोड़ा पीने के बाद दोनों को नशा लगा

घीस बोला-“कफन लगाने से क्या मिलता है? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो जाएगा नहीं। माधव आसमान की ओर देखकर बोला, मानों देवताओं को अपने निर्दोष होने का साक्षी बना रहा हो-“दुनिया का दस्तूर है, नहीं तो लोग बाँभनों को

हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं। बड़े आदमियों के पास दौलत है, वो के ना। हमारे पास फूँकने को है ही क्या?’ लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेगे नहीं, कफ़न कहाँ है?

घीसू हँसा-“अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत हूँढा, मिले ही नहीं। लोगों को विश्वास नहीं होगा, लेकिन फिर वही रुपये भी दे देंगे। इस अचानक से मिले सौभाग्य पर माधव भी हंसा| बोला-“बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी भी तो हमें खूब खिला-पिलाकर!”

दोनों आधी बोतल से ज़्यादा शराब गटक चुके थे। घीसू ने दो सेर पूडिग़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दुकान थी। माधव लपककर दो पत्तों में सारा सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया था। अब सिर्फ थोड़े से पैसे बचे थे।

दोनों उस वक्त इस तरह शान से बैठकर पूडिय़ां खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। उन्हें न जवाब देने का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था यानी इससे अब उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। घीसू एक ज्ञानी पंडित के भाव सेब से बोला-“हमारी आत्मा खुश और तृप्त हो रही है तो क्या उसे पुण्य नहीं मिलेगा?” माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर कहा -“जरूर मिलेगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैंकुण्ठ ले जाना हम दोनों दिल से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो खाना मिला है वह उम्र-भर नहीं मिला था”।

एक पल के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-“क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?” घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ जवाब नहीं दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा नहीं डालना चाहता था।

अगर वहाँ हम लोगों से पूछा गया कि तुमने कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?

कहेंगे तुम्हारा सिर!”

पूछेगी तो जरूर!

तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न नहीं मिलेगा? तू मुझे ऐसा गथा समझता है क्या? मैं क्या साठ साल दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसे कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा।

माधव को विश्वास नहीं हुआ, वो बोला-“कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी, उसकी माँग में तो सिंदूर मैंने डाला था।

कौन देगा, बताते क्यों नहीं? वही लोग देंगे, जिन्होंने अब तक दिया है। हाँ, इस बार रुपये हमारे हाथ नहीं आएँगे।

जैसे-जैसे अँधेरा बढ़ता जा रहा था और सितारों की चमक तेज हो रही थी, शराबखाने की रौनक भी बढ़ती जा रही थी। कोई गा रहा था, कोई डींग मार रहा था, कोई अपने साथी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में जाम का कुल्हड़ लगा देता था। वहाँ के माहौल और में ही नशा भरा हुआ था। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा बहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की मुश्किलें उन्हें यहाँ खींच लाती धीं और कुछ देर के लिए वो सब भूल जाते थे कि वे जिंदा हैं या नहीं। अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें उनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्यशाली हैं! उनके बीच में पूरी एक बोतल शराब रखी है।

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिगों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा उनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था. किसी को कुछ देने का गर्व, आनन्द और खुशी वो पहली बार अपने जीवन में महसूस कर रहा था।

धीसू ने कहा-“ले खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे ज़रूर पहुँचेगा। रोम-रोम से आशीर्वाद देना, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं।”

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-“वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी। धीसू खड़ा हो गया और जैसे खुशियों की लहरों में तैरता हुआ बोला-“हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। उसने कभी किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया

नहीं। मरते-मरते भी हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी इच्छा पुरी कर गयी। वह बैकुण्ठ नहीं जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और फिर अपने पाप धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?”

श्रद्धा और इज्जत का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। नशे की यही तो खासियत होती है, भावनाएं पल-पल रंग बदलती हैं। अब दोनों बाप बेटे को दुःख

और निराशा का दौरा उठा था।

माधव बोला-“मगर दादा, बेचारी ने ज़िन्दगी में बड़ा दुःख भोगा। कितना दुःख झेलकर मरी वो!”

वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर। घीसू ने समझाया- क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से आजाद हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।

र दोनों खड़े होकर गाने लगे- ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी…” और

पियक्कड़ों की आँखें उनकी ओर लगी हुई थीं और ये दोनों मस्त मगन होकर गायें जा रहे थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, एक्टिंग भी की और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े। ये कहानी हमें क्या सिखाती है – मुंशी प्रेमचंद जी की यही तो खासियत थी, वो बड़े हल्के-फुल्के अंदाज़ में ऐसी बातें सामने रख देते थे जो आत्मा को झकझोड़ देती है. देती है, हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं. अब इस कहानी को ही देख लीजिए किस तरह उन्होंने समाज की हकीकत को बयान किया है.

उन्होंने बताया है कि समाज में अमीर और गरीब के बीच फैली इस असामनता ने कैसे दोनों बाप बेटे को भावना हीन कर दिया था. जहां अमीर दोनों के हाथों से अनाब शनाब पैसा कमा रहे थे वहीं गरीबों को दिन रात जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से दो वक़्त की रोटी नसीब होती थी, उनका पूरा जीवन यूहीं तड़पते और तरसते हुए खत्म हो जाता था. कितने दुःख की बात है कि जिंदा लोग खाने और कपड़े को तरसते हैं, तब नहीं मिलता लेकिन मरने के बाद लोग कफ़न उड़ाने ज़रूर आ जाते हैं, गरीबी ने वीसू और माधव के अंदर की हर भावना और इंसानियत को उन्हें कुछ खत्म कर दिया था.

जिंदगी की कड़वी सच्चाई यही है कि भूख के सामने दूसरी भावनाएं दम तोड़ने लगती हैं. उन दोनों ने भी कफ़न के लिए इक्कट्ठे किए हुए पैसे से कफ़न नहीं खरीदा बल्कि अपनी भूख शांत की. जिस औरत ने जीते जी उनका इतना खयाल रखा, यहाँ तक कि मरने के बाद भी उन्हें भरपेट खाना दे गई,

उसके गुज़र जाने से उन्हें ज़रा भी तकलीफ़ नहीं हो रही थी. उन्होंने अंत तक उसके लिए कफ़न नहीं खरीदा. वो किसी भी तरह पैसों को ज़्यादा दिनों तक बचाना चाहते थे. ज्यादा घीसू समझदार था मगर किसानों की तरह जी तोड़ मेहनत नहीं करना चाहता था क्योंकि समाज में ऐसा सिस्टम बना हुआ था कि इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें जो कुछ मिलता था वो खर्च हो जाता था, बचाना तो दुर की बात थी और संघर्ष का यही अंतहीन सिलसिला चलता जा रहा था, वो गरीब ही बने हुए थे जिस वजह से वो आलसी और कामचोर बन गए थे, हाँ, कुछ हद तक वो दोनों गलत लेकिन समाज का भी इसमें बहुत बड़ा हाथ है. जब तक समाज में ये असामनता बनी रहेगी तब तक इंसानियत यू ही मरती रहेगी,

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