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कई दिनों से घर में लड़ाई-झगड़ा हो रहा था। माँ अलग नाराज बैठी थी, पत्नी अलग। घर की हवा में जैसे जहर घुला हुआ था। रात को खाना नहीं बना, दिन में मैंने स्टोव पर खिचड़ी बनाई थी ; पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास; पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता मानों उसने भी कोई गलती की हो।
लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में उदास बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे- घर में आज क्या हुआ है। भाई-बहन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोना-पीटना भी कई बार हो जाता है; पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न बने या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा
है कि चौबीस घंटे बीत जाने पर भी शांत नहीं होता, यह
शायद उनकी समझ में न आता था।
झगड़े की वजह कुछ न थी। अम्माँ ने मेरी बहन के घर तीज का सामान भेजन के लिए जिन सामानों की लिस्ट लिखायी, वह पत्नी जी को घर की हालत देखते हुए जयादा लगी। अम्माँ खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काट-छाँट कर दी थी; लेकिन पत्नी के मन में और काट-छाँट होनी चाहिए थी। पाँच साड़ियों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है।
खिलौने इतने होंगे, इतनी मिठाई की क्या जरुरत! उनका कहना था- जब काम भी नहीं चल रहा; घर खर्च थोड़ा कम करना चाहिए,
दूध-घी के बजट में कमी हो गयी, तो फिर तीज में क्यों इतना खर्च किया जाय? पहले घर में देखना चाहिए फिर बाहर का देखना चाहिए नहीं तो घर मे कुछ नहीं बचेगा । इसी बात पर सास-बहू में झगड़ा हो गया, फिर पुरानी बाते बाहर निकलने लगी।फिर बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची, बीती बाते उठ गयी। पता नहीं कौन-कौन सी बाते और ताने शुरू हुए और इसके बाद सन्नाटा हो गया ।
मैं बड़ी मुसीबत में था। अगर अम्माँ की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नी रोना-धोना शुरु करती हैं, अपने नसीब को कोसने लगती हैं; पत्नी की-सी कहता हूँ तो पत्नी का गुलाम सुनने को मिलता है। इसलिए बारी-बारी से दोनों का साथ देता था; पर सच मे, मै अपनी पत्नी के साथ ही था। खुलकर अम्माँ से कुछ न कह सकता था; पर गलती तो इन्ही की है। दुकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। ग्राहक पैसे नहीं देते, तो इन पुरानी बातो को लेकर क्यों लड़ा जाए !
बार-बार इस बात पर गुस्सा आता था । घर में तीन तो लोग हैं और उनमें भी प्यार नहीं! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाऊँ। जब अपने सिर पड़ेगा, तब इन्हें होश आयेगा; तब मालूम होगा कि घर कैसे चलता है। क्या जानता था कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी, नहीं तो शादी का नाम ही न लेता। तरह-तरह के बुरे विचार मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्माँ मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पाँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरी क्या गलती ?
मैंने उसे मना तो नहीं कर दिया है! मुझे तो ख़ुशी होगी, अगर सास-बहू में इतना प्यार हो जाय; लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं कि दोनों में प्यार डाल दूँ। अगर अम्माँ ने अपनी सास की साड़ी धोयी है, उनके पाँव दबाये हैं, उनकी डांट खायी हैं, तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों निकालना चाहती हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि अब समय बदल गया है? बहुएँ अब डर से सास की गुलामी नहीं करतीं। प्यार से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रौब दिखाकर उन पर राज करना चाहो, तो वह दिन चले गये।
सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था। मेरे घर में लड़ाई हो रही थी। शाम हो गयी थी पर घर में अंधेरा था। मनहूसियत छायी हुई थी। मुझे अपनी पत्नी पर गुस्सा आया। लड़ती हो, लड़ो; लेकिन घर में अंधेरा क्यों रखा है? मैंने जाकर कहा- “क्या आज घर में दीये न जलेंगे?” पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा- “जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?”
मुझे गुस्सा आ गया। बोला- “तो क्या जब तुम नहीं थी तो, तब घर में दीये न जलते थे?”
अम्माँ ने बात को बढ़ाया- “नहीं, तब सब लोग अंधेरे ही में पड़े रहते थे।”
पत्नी अम्माँ की बात पर भड़क कर बोली- “जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी । मुझे इस घर में आये दस साल हो गये।” मैंने डाँटा- “अच्छा चुप रहो, बहुत बड़ा नहीं।”
11 पत्नी-“ओहो! तुम तो ऐसा डाँट रहे हो, जैसे मुझे ख़रीदकर लाये हो?”
मैं भड़क गया -“मैं कहता हूँ, चुप रहो!” पत्नी-“क्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।” मैंने गुस्से से कहा -“यही है पति की इज्जत ?” पत्नी-“जैसा मुँह होता है ,वैसे ही जवाब मिलते हैं !” मैं हार कर बाहर चला आया, और अंधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा जब इस से मेरी शादी हुई थी । इस अँधेरे में भी दस साल का जीवन फिल्मो की तरह मेरी आँखों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं कुछ भी अच्छा नहीं था, कहीं प्यार नहीं था।
कई दिनों से घर में लड़ाई-झगड़ा हो रहा था। माँ अलग नाराज बैठी थी, पत्नी अलग। घर की हवा में जैसे जहर घुला हुआ था। रात को खाना नहीं बना, दिन में मैंने स्टोव पर खिचड़ी बनाई थी पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास; पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता मानों उसने भी कोई गलती की हो। लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में उदास बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे- घर में आज क्या हुआ है। भाई-बहन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोना-पीटना भी कई बार हो जाता है; पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न बने या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा है कि चौबीस घंटे बीत जाने पर भी शांत नहीं होता, यह शायद उनकी समझ में न आता था। झगड़े की वजह कुछ न थी। । । अम्माँ ने मेरी बहन के घर तीज का सामान भेजन के लिए जिन सामानों की लिस्ट लिखायी, वह पत्नी जी को धर की हालत देखते हुए जयादा लगी। अम्मा खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काट-छाँट कर दी थी; लेकिन पत्नी के मन में और काट-छाँट होनी चाहिए धी। पाँच साड़ियों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है। खिलौने इतने होंगे, इतनी मिठाई की क्या जरुरत! उनका कहना था- जब काम भी नही चल
रहा तो घर खर्च थोड़ा कम करना Fधी के बजट में कमी हो गयीं, तो फिर चाहिए
र तीज में क्यों इतना खर्च किया जाय? पहले घर में देखना चाहिए फिर बाहर का देखना चाहिए नहीं तो घर कुछ नहीं बचेगा । इसी बात पर सास-बहू में झगड़ा हो गया, फिर पुरानी बाते बाहर निकलने लगी। फिर बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची, बीती बाते उठ गयी। पता नहीं कौन-कौन सी बाते और ताने शुरू हुए और इसके बाद सन्नाटा हो गया ।
में
मैं बड़ी मुसीबत में था। अगर अम्माँ की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नी रोना-धोना शुरु करती हैं, अपने नसीब को कोसने लगती हैं; पत्नी की-सी कहता हूँ तो पत्नी का गुलाम सुनने को मिलता है। इसलिए बारी-बारी से दोनों का साथ देता था; पर सच में, मै अपनी पत्नी के साथ ही था। खुलकर अम्माँ से कुछ न कह सकता था; पर गलती तो इन्ही की है दुकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। ग्राहक पैसे नहीं देते, तो इन पुरानी बातो
को लेकर क्यों लड़ा लड़ा जाए।
बार-बार इस बात पर गुस्सा आता था । घर में तीन तो लोग हैं और उनमें भी प्यार नहीं! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी
सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाऊँ। जब अपने सिर पड़ेगा, तब इन्हें होश आयेगा; तब मालूम होगा कि घर केसे चलता है। क्या जानता था कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी, नहीं तो शादी का नाम ही न लेता। तरह-तरह के बुरे विचार मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्मों मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पाँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरी क्या गलती ? उसे मना तो नहीं कर दिया है! मुझे तो खुशी होगी, अगर सास-बहू में इतना प्यार हो जाय; लेकिन मेरे वश की बात नहीं कि दोनों में प्यार डाल हूँ। अगर अम्माँ ने अपनी सास की साड़ी धोयी है, उनके पाँव दबाये हैं, उनकी डांट खायी हैं, तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों निकालना चाहती
हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखाई देता कि अब समय बदल गया है? बहुएँ अब डर से सास की गुलामी नहीं करतीं। प्यार से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो, लेकिन जो रौब दिखाकर पर राज करना चाहो, तो वह दिन चले गये।
सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो मेरे घर में लड़ाई हो रही थी। शाम हो गयी थी पर घर में अधेरा था। मनहूसियत छायी हुई थी। मुझे पर गुस्सा आया। लड़ती हो, लड़ी; लेकिन घर में अधेरा क्यों रखा है? मैंने जाकर कहा- “व्या आज धर में दीये न जलेंगे?”
अपनी पी
पत्नी ने मुँह फुलाकर कहा- “जला क्यों नहीं लेते तुम्हारे हाथ नहीं हैं? मुझे गुस्सा गया। बोला- “तो क्या जब तुम नहीं थी तो, तब घर में दीये न जलते थे?”
अम्मा ने बात को न बढ़ाया- “नहीं, तब सब लोग अंधेरे ही में पड़े रहते थे।”
पत्नी अम्मा की बात
पर भड़क कर बोली- “जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे इस घर में आये दस साल हो गये।
मैंने डाँटा- “अच्छा चुप रहो, बहुत बड़ी नहीं।”
पत्नी- “ओहो! तुम तो ऐसा डॉँट रहे हो, जैसे मुझे खरीदकार लाये हो?”
मैं भड़क गया “मैं कहता हूँ, चुप रहो!
पत्नी- “न्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।” मैंने गुस्से से कहा -“यही है पति की इज्जत ?
पत्नी-“जैसा मुँह होता है ,वैसे ही जवाब मिलते हैं!”
मैं हार कर बाहर चला आया, और अंधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा जब इस से मेरी शादी हुई थी। इस अँधेरे में भी दस
साल का जीवन फिल्मो की तरह मेरी आँखों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं कुछ भी अच्छा नहीं था, कहीं प्यार नहीं था।
अचानक मेरे दोस्त पंडित जयदेव ने दरवाजे पर बुलाया -“अरे, आज़ यह अंधेरा क्यों कर रखा है? कुछ पता है । कहाँ हो?” मैंने कुछ न बोला। सोचा, यह आज कहाँ से टपक पड़े ।
जयदेव ने फिर बुलाया -“अरे, कहाँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?
कहीं से कोई जवाब न मिला।
जयदेव ने दरवाजा को इतनी जोर से मारा कि मुझे डर हुआ, कहीं दरवाजा टूट न जाय । फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना मुझे अच्छा नहीं
रहा था।
जयदेव चले गये। मैंने आराम की साँस ली। फिर मैंने कहा मुसीबत टली, नहीं तो घंटों सिर खाता।
लग
मगर पाँच ही मिनट में फिर किसी के पैरों की आने की आवाज सुनी और अबकी बार टार्च की लाइट से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देखकर चौक कर पूछा- “तुम कहाँ गये थे जी? घंटों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है? लालटेन क्यों नहीं जलाई ?”
मैंने बहाना किया- “क्या जाने, मेरे सिर में दर्द था, दुकान से आकर लेटा तो नींद आ गयी” जयदेव- “और बड़ी गहरी नींद में धे ?
मैंने जवाब दिया- हाँ यार, नींद आ।
जयदेव मगर घर में दीया तो जलाना चाहिए था या वो भी नहीं होगा?” घर में लोग व्रत से हैं । काम में उलझे होंगे” में बोला।
खैर चलो, कहीं घूमने चलते हो? सेठ घूरेमल के मंदिर में ऐसी झाँकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाये हैं कि आँखें झपक उठती हैं। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फौवारा लगाया है कि उसमें से गुलाबजल की फुहारें निकलती हैं। मेरा मन बहुत खुश हुआ देखकर सीधे तुम्हारे पास दौड़ा चला आ रहा हूँ। बहुत झाँकियाँ देखी होंगी तुमने, लेकिन यह और ही चीज है भीड़ लगी है सुनते हैं दिल्ली से कोई बहुत अच्छा कारीगर आया है। उसी का कमाल है।”
मैंने उदास भाव से कहा- “मेरी तो जाने की इच्छा नहीं है भाई! सिर में जोर का दर्द है।” जयदेव-“तब तो जरुर चलो। दर्द भाग न जाय तो कहना।”
तुम तो यार, बहुत जिद करते हो। इसी मारे में चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले; लेकिन तुम तो अड़ ही गये। कह दिया- में न जाऊँगा।” मैंने चिढ कर कहा। जयदेव- “और मैंने कह दिया, मैं जरूर ले जाऊँगा।”
मुझे मनाने का तरीका मेरे दोस्त को पता है। यों तो मैं हाथा-पायी, धींगा-मुश्ती, थौल-धप्मे में किसी से पीछे रहने वाला नहीं हूँ, लेकिन किसी ने मुझे गुदगुदाया और हार गया । फिर मेरी कुछ नहीं चलती मैं हाथ जोड़ने लगता हूँ, बचने की कोशिश करता हूँ और कभी-कभी रोने भी लगता हूँ। जयदेव ने वही तरीका आजमाया और उसकी जीत हो गयी। शर्त में यही माँगा कि मैं चुपके से झाँकी देखने चलू।
सेठ घूरेलाल उन आदमियों में हैं, जिनका सुबह नाम ले लो, तो दिन-भर खाना न मिले। उनकी कंजूसी की बहुत कहानियाँ हैं। कहते हैं, एक बार मारवाड़ का एक भिखारी उनके दरवाजे पर अड़ गया कि भीख लेकर ही जाऊँगा। सेठ जी भी अड़ गये कि भीख न दूंगा, चाहे कुछ हो। मारवाड़ी उन्हीं के देश का था। कुछ देर तो उनके पूर्वजों की बाते करता रहा, फिर उनकी बुराई करने लगा, अंत में दरवाजे पर लेट गया। सेठ जी ने जरा भी परवाह न की। भी अपनी जिद का पक्का था। सारा दिन दरवाजे पर बिना कुछ खाये पड़ा रहा और अंत में वहीं मर गया। तब सेठ को दया आयी और उसके अंतिम संस्कार को बहुत धूम-धाम से किया। भिखारी की जिद सेठ जी के लिए वरदान हो गया। उनके मन में भक्ति का भाव जी ।
जग गया। अपना सारा रूपया -पैसा अच्छे काम के किये दान कर दिया ।
हम लोग वहाँ पहुँचे, तो बहुत भीड़ थी। आने और जाने के रास्ते अलग थे, फिर भी हमें आधे धंटे के बाद अंदर जाने का को भिला। जयदेव सजावट देख-देखकर हैरान हुए जाते थे, पर मुझे ऐसा लगता था कि इस बनावट और सजावट के मेले में कृष्ण की आत्मा कहीं खो गयी है। उनकी वह रत्न से जड़ी, बिजली से जगमगाती मूर्ति देखकर मेरे मन में पछता में पछतावा हुआ। इस रुप में भी प्यार का वास हो सकता है? मैंने तो रत्नों में घमंड और गर्व ही भरा देखा है। मुझे उस वक्त यही याद न रही, कि यह एक करोड़पति सेठ मन ता का मंदिर है और अमीर आदमी पैसा देने वाले भगवान् के बारे में ही सोच सकता है। अमीर भगवान् में ही उसका विश्वास हो सकता है। जिसके पास रूपए पैसा नहीं, वह उसकी दया पाने वाला हो सकता है, श्रद्धा का बिलकुल भी नहीं।
मंदिर में जयदेव को सभी जानते हैं। उन्हें तो हर जगह सब जानते हैं। मंदिर के आँगन में संगीत-मंडली बैठी हुई थी। केलकर जी अपने संगीत के स्कूल जानत उन्हें जगाया ता हर कि साथ तम्बूरा लिये बैठे थे। पखावज, सितार, सरोद, वीणा और जाने कौन-कौन बाजे, जिनके नाम भी मैं नहीं जानता, उनके चेलों के पास के शिष्यों के साथ थे। कोई गीत बजाने की तैयारी हो रही थी। जयदेव को देखते ही केलकर जी ने बुलाया, मै भी उन में जा बैठा। तभी गीत शुरु हुआ। मजा आ गया। जहाँ इतना शोर था कि तोप की आवाज भी न सुनायी देती, वहाँ इतने मीठे संगीत ने सबको अपनी और खींच लिया। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया था। मैंने कभी ऐसा सोचा भी नहीं था। मेरे सामने न वह बिजली की चमक थी, न वह रत्नों की जगमग, न वह बहुत बड़ा समारोह। मेरे सामने वही यमुना का किनारा था, लटकी हुई बेलों से ढका हुआ। वही प्यारी गायें थीं, वही गोपियों का पानी में खेलना, वहीं बांसुरी की मीठी आवाज, वहीं शीतल चाँदनी और वहीं प्यारा नंदकिशोर! जिसकी चेहरे से ही प्रेम दिखाई देता है और जिसे देखने से ही दिल को चैन आता था।
मैं इतना खोया हुआ था कि संगीत बंद हो गया और आचार्य केलकर के एक शिष्य ने एक धुपद राग शुरु किया। कलाकारों की आदत है कि शब्दों को कुछ इस तरह बदल देते हैं, कि ज्यादातर सुनने वालों की समझ में नहीं आता कि क्या गा रहे हैं। इस गाने का एक शब्द भी मेरी समझ में न आया, लेकिन आवाज इतनी मीठी थी, कि हर सुर मेरे रोंगटे खड़े कर देता था। गले में इतना जादू भरा है, इसका मुझे आज कुछ पता लगा। मन में एक दुनिया बसने लगी, जहाँ आनंद-ही-आनंद है, प्रेम-ही-प्रेम, त्याग-ही-त्याग। ऐसा लगा, दुःख केवल एक सोच है, सच है तो बस खुशी। एक साफ़, दया-भरी कोमलता, जैसे मन को चुभने लगी। ऐसी भावना मन में उठी कि वहाँ जितने लोग बैठे हुए थे, सब मेरे अपने हैं। फिर मैं भाई की यादों में खो गया।
बहुत दिन हुए, मुझसे लड़ मरा छोटा भाई; लड़कर, घर से सार पैसे लेकर रंगून भाग गया था, और वहीं मर था। उसके बुरे व्यवहार को याद करके में पागल हो उठता था। वो जिंदा होता तो शायद उसका खून पी जाता, पर इस समय याद करके मेरा मन जैसे खुश हो उठा। में उसे गले लगाने के लिए बेचैन हो गया। उसने मेरे साथ, मेरी पत्नी के साथ, माँ के साथ, मेरे बच्चे के साथ, जो-जो बुरा किया था, वह सब मुझे भूल गये। मन में बस यही था मेरा भैया कितना दु:खी है। मुझे इस भाई के लिए कभी इतना अपनापन न हुआ था, फिर तो मन की वह दशा हो गयी, जिसे घबराहट कह सकते हैं। मन केवल यही भावना थी- मेरा भैया कितना दु:खी है। दुश्मनी का भाव जैसे मन से मिट गया था
जिन-जिन लोगो से मेरी दुश्मनी था, जिनसे गाली-गलौज, मार-पीट मुकदमाबाजी सब कुछ हो चुकी थी, वह सभी जैसे मेरे गले में लिपट-लिपटकर हो ।
हँस रहे थे। फिर विद्या (पत्नी) की मूर्ति मेरे सामने आ खड़ी हुई- वह मूर्ति जिसे दस साल पहले मैंने देखा था- उन आँखों में वही परेशानी थी, वहीं शक- विश्वास, गालो पर वही शर्म कि लाली जैसे प्यार के तालाब में कोई फूल खिला हो। वही प्यार, वही जोश, जिसमें मैंने उस न भूलने वाली रात को उसका स्वागत किया था, एक बार फिर मेरे दिल में यादे जगी। मधुर यादो का जैसे खजाना खुल गया। जी ऐसा तड़पा कि इसी समय जाकर विद्या के पैरो पर सिर रगडकर रोऊँ और रोते-रोते खो जाऊँ। मेरी आँखें भीग गयीं। मेरे मुँह से जो बुरे शब्द निकले थे, वह सब जैसे मेरे ही दिल में चुभने लगे। इसी हाल में, जैसे ममता से भरी माँ ने आकर मुझे गोद में उठा लिया। बचपन में जिस प्यार को महसूस करने कि समझ नहीं थी, वो मैंने आज महसूस किया।
गाना बंद हो गया। सब लोग उठ-उठकर जाने लगे। में अपनी सोच में डूबा रहा। अचानक जयदेव ने बोला- चलते हो, या बैठे ही रहोगे?”
MORAL:
मुंशी प्रेमचंद जी ने इस कहानी के माध्यम से बताया है कि हर किसी के जीवन में छोटी-बड़ी परेशानियाँ होती है, नोंक झोंक हर घर का हिस्सा है जिसके कारण कभी हम परेशान हो जाते है और कभी अपनों से ही भागने लगते है। ऐसे में कुछ समय के लिए हमे भीड़ का हिस्सा बनना चाहिए, संगीत की, भगवान् की शरण में जाना चाहिए। इससे मन को खुशी का अहसास होगा, नकारात्मक सोच दूर होगी और हमें अपनों के साथ की कद्र होने लगेगी.