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केशव से मेरी पुरानी अनबन थी। लिखना और पढ़ना, हंसी और मजाक सभी जगहों में मुझसे कोस्सों आगे था। उसके गुणों की चाँद की रोशनी में मेरे दीए की रोशनी कभी न दीखती। एक बार उसे नीचा दिखाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी इच्छा थी। उस समय मैं कभी नहीं माना। अपनी गलतियां कौन मानता है पर असल में मुझे भगवान ने उसके जैसा दिमाग नहीं दिया था। अगर मुझे कुछ तसल्ली थी तो यह कि पढ़ाई में चाहे मुझे उनसे कंधा मिलाना कभी नसीब पर दुनियादारी के मामले में मैं जीत ही जाऊँगा। न हो,
लेकिन बदकिस्मती से जब हम दोनों की शादी एक ही समय में हुई और वह जीतता हुआ नजर आया तो मैं परेशान हो गया। हम दोनों ने ही एम.ए. के लिए साम्यवाद यानि communism (सभी चीजों में सबके लिए समान अधिकार का principle) का विषय लिया था। हम दोनों ही साम्यवादी थे। केशव के बारे में तो यह स्वाभाविक बात थी। वह ऊँचे खानदान से न था, न वह अभीरी ही थी जो इस कमी को पूरा कर देती। मेरी हालत इसके उल्टे थी। में खानदान का जमींदार और अमीर था। मेरी साम्यवादिता पर लोगों को आश्चर्य होता था। हमारे साम्यवाद के प्रोफेसर बाबू हरिदास भाटिया साम्यवाद के सिद्धांतों को मानने वाले थे, लेकिन शायद पैसे को नजरअंदाज न कर सकते थे। अपनी लज्जावती के लिए उन्होंने तेज दिमाग केशव को नहीं, मुझे पसंद
एक दिन शाम के समय वह मेरे कमरे में आये और परेशान होकर बोले- “शारदाचरण, मैं महीनों से एक बड़ी चिंता में पड़ा हुआ हूँ। मुझे उम्मीद है कि तुम उसका हल निकाल सकते हो मेरा कोई बेटा नहीं है। मैंने तुम्हें और केशव दोनों ही को बेटे जैसा समझा है। हालांकि केशव तुमसे चालाक है, पर मुझे भरोसा है कि आज की दुनिया में तुम्हें जो सफलता मिलेगी, वह उसे नहीं मिल सकती। इसलिए मैंने तुम्हीं को अपनी लज्जा के लिए चुना है। क्या
मैं उम्मीद कर कि मेरी मन की इच्छा पूरी होगी।”
मैं आजाद था, मेरे रे माता-पिता मेरे बचपन में ही गुजर गये थे। मेरे परिवार में अब ऐसा कोई न था, जिसकी इजाजत लेने की मुझे जरूरत होती। लज्जावती जैसी अच्छे स्वभाव की, सुन्दरी, पढ़ी लिखी बीवी को पा कर कौन पति होगा जो अपने भाग्य को न सराहता। मैं फूला न समाया। लज्जा एक खिला हुआ बाग थी, जहाँ गुलाब की सुगंध थी और हरियाली की ठंडक, हवा के हल्के झोंके थे और चिड़ियों का मिठा संगीत। वह खुद साम्यवाद पसंद हकती के प्रतिनिधि बनने और करती थी। औरतों ही दूसरी चीजों के बारे में उसने मुझसे कितनी ही बार बातें की थीं। लेकिन प्रोफेसर भाटिया की तरह सिर्फ
सिद्धान्तों की भक्त न थी, उनको व्यवहार में भी लाना चाहती थी।
वह चालाक केशव को पसंद करती । फिर भी में जानता था कि प्रोफेसर भाटिया के आदेश को वह कभी नहीं टाल सकती, हालांकि उसकी इच्छा के खिलाफ में उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए तैयार न था। इस बारे में में खुद की मर्जी का सिद्धांत मानता था। इसलिए मैं केशव की दुख और बेचैनी का जितनी उम्मीद थी उतनी खुशी न उठा सका। हम दोनों ही दुखी थें, और मुझे पहली बार केशव से सहानुभूति हुई। मैं लज्जावती से सिर्फ इतना पूछना चाहता था कि उसने मुझे क्यों नजरों से गिरा दिया। पर उसके सामने ऐसे नाजुक सवाल करते हुए मुझे शर्म आई, और यह स्वाभाविक था, क्योंकि कोई
सया भरने सत लेकिन शायद लज्जावती इस हालात को मुझे बताना अपना कर्तव्य समझ रही थीं। वह इसका मौका की बात को नहीं खोल सकती।
ढूँढ़ रही थी। किस्मत से उसे जल्दी ही मौका मिल गया।
शाम का समय था। केशव राजपूत हॉस्टल में साम्यवाद पर एक भाषण देने गया हुआ था। प्रोफेसर भाटिया उस समारोह के प्रधान थे। लज्जा अपने
अकेली बैठी ने मेरी और एक उड़ती हुई नजर डाली और दया के भाव से बोली- “कुछ परेशान जान पड़ते हो ?”
बंगले में अकेली बैठी हुई थी। मैं अपने बेचैन दिल के भाव छिपाये हुए, दुख और निराशा की आग में जलता हुआ उसके पास आ कर बैठ गया। लज्जा
मैंने बनावटी दुख से कहा- “तुम्हारी बला से।” लज्जा- “केशव का भाषण सुनने नहीं गये ?”
मेरी आँखों से आग सी निकलने लगी। उसे दबा करके बोला- “आज सिर में दर्द हो रहा था।” यह कहते-कहते यूं ही मेरे आँखों से आँसू की कई बूँदे टपक पड़ी। में अपने दुख को दिखा करके उसकी दया नहीं चाहता था। मेरे हिसाब में रोना औरतों
के लिए ही ठीक था। मैं उस पर गुस्सा जताना चाहता था और निकल पड़े आँसू। मन के भाव इच्छा के काबू में नहीं होते। मैं बुरी भावना नहीं रखता, खुरे दिल का नहीं हूँ, लेकिन न जाने क्यों लज्जा के रोने पर मुझे इस समय एक खुशी हो रही थी। उस दुखी हालत में भी मैं
मुझे रोते देख कर लज्जा की आँखों से आंसू गिरने लगे।
उसे ताना मारने से बाज न आ सका। बोला- “लज्जा, मैं तो अपनी किस्मत को रोता हूँ। शायद तुम्हारी नाइंसाफी की दुहाई दे रहा हूँ; लेकिन तुम्हारे आँसू
क्यों ? लज्जा ने मेरी ओर घिन के भाव से देखा और बोली- “मेरे आँसुओं का कारण तुम न समझोगे क्योंकि तुमने कभी समझने की कोशिश नहीं की। तुम मुझे बुरा भला सुना कर अपने मन को शांत कर लेते हो। मैं किसे जलाऊँ। तुम्हें क्या मालूम है कि मैंने कितना आगा-पीछा सोचकर, दिल को कितना दबाकर, कितनी रातें करवटें बदल कर और कितने आँसू बहा कर यह तय किया है। तुम्हारे खानदान की इज्जत, तुम्हारी अमीरी एक दीवार की तरह मेरे रास्ते में खड़ी है। उस दीवार को में पार नहीं कर सकती। में जानती हूँ कि इस समय तुम्हें घर की इज्जत और अमीरी का जरा स भी घमंड नहीं है। लेकिन यह भी जानती हूँ कि तुम्हारा कालेज की ठंडी छाया में पला हुआ साम्यवाद बहुत दिनों तक दुनिया की लू और गरमी को न सह सकेंगा। उस समय तुम जरूर
अपने फैसले पर पछताओगे और कुढ़ोंगे। मैं तुम्हारे दूध की मक्खी और दिल का काँटा बन जाऊँगीं।” मैंने दुखी होकर कहा- ‘जिन कारणों से मेरा साम्यवाद चला जायगा, क्या वह तुम्हारे साम्यवाद को जीता छोडेगा ?”
लज्जा- “हाँ, मुझे पूरा यकीन है कि मुझ पर उनका जरा भी असर न होगा। मेरे घर में कभी अमीरी नहीं रही और घर की हालत तुम अच्छी तरह जानते हो। बाबू जी ने सिर्फ अपनी कड़ी मेहनत से यह ओहदा पाया है। मैं वह नहीं भूली जब मेरी माँ जिंदा थीं और बाबू जी 11 बजे रात को प्राइवेट ट्यूशन कर के घर आते थे। तो मुझे अमीरी और खानदान की इज्जत का घमंड कभी नहीं हो सकता, उसी तरह जैसे तुम्हारे दिल से यह धमंड कभी मिट नहीं सकता। यह घमंड मुझे उसी दशा में होगा जब मैं अपनी याददाश्त खो देंगी।
मैंने अक्खड़पन से कहा- “खानदान की इज्जत को तो मैं मिटा नहीं सकता, मेरे वश की बात नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मैं आज अमीरी को छोड़ सकता हूँ।”
लज्जा बेरहमी से बोली- “फिर वही भावुकता ! अगर यह बात तुम किसी नासमझ बच्ची से करते तो शायद वह फूली न समाती। मैं एक ऐसे फैसले के बारे में, जिस पर दो लोगों के सभी जीवन का सुख-दुख टिका हुआ है, भावुकता का सहारा नहीं ले सकती। शादी बनावट नहीं है। भगवान गवाह है, मैं
मजबूर हूँ, मुझे अभी तक खुद मालूम नहीं है कि मेरी नाव किधर जायेगी; लेकिन मैं तुम्हारी जिंदगी खराब नहीं कर सकती। मैं यहाँ से चला तो इतना निराश न था जितना परेशान। लज्जा ने मेरे सामने एक नयी परेशानी खड़ी कर दी थी। हम दोनों साथ-साथ एम.ए. हुए। केशव पहला हुआ, मैं दूसरा। उसे नागपुर के एक कालेज में शिक्षक की नौकरी मिल गई। मैं धर आ कर अपनी जायदाद संभालने लगा। चलते समय हम दोनों गले मिल कर और रो कर विदा हुए। दुश्मनी और जलन को कालेज में छोड़ दिया। मैं अपने प्रांत का पहला ताल्लुकेदार था, जिसने एम.ए. किया हो। पहले तो सरकारी अधिकारियों ने मेरी खूब आवभगत की; लेकिन जब मेरे सामाजिक सिद्धांतों के बारे में जाना तो उनकी दया कुछ कम हो गई। मैंने भी उनसे मिलना-जुलना छोड़ दिया। अपना ज्यादातर समय किरायदारों के बीच में ही बिताने लगा।
पूरा साल भर भी न गुजरने पाया कि एक ताल्लुकेदार की मौत ने कौंसिल में एक जगह खाली कर दी। मैंने कौंसिल में जाने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नहीं की। लेकिन काश्तकारों ने अपना नेता बनने का भार मेरे ही सिर रखा। बेचारा केशव तो अपने कालेज में लेक्चर देता था, किसी को खबर भी न थी कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है और मैं अपने खानदान के नाम की बदौलत कौंसिल का मेम्बर हो गया। मेरी भाषण अखबारों में छपने लगीं। मेरे सवालों की तारीफ होने लगी।
फॉसिल में मेरा खास सम्मान होने लगा, कई लोग ऐसे निकल आये जो जनतावाद के भक्त थे। पहले वह हालातयों से कुछ दबे हुए थे, अब वह खुल पड़े। हम लोगों ने लोकवादियों का अपना एक अलग दल बना लिया और किसानों के हकों को जोरों के साथ बताना शुरू किया। ज्यादातर अमीरों ने मेरी बात न मानी। कई लोगों ने धमकियाँ भी दी; लेकिन मेंने अपने तय रास्ते को न छोड़ा। सेवा के इस अच्छे मौके को कैसे हाथ से जाने देता। दूसरा साल खत्म होते-होते जाति के प्रधान नेताओं में मेरी गिनती होने लगी। मुझे बहुत मेहनत करना, बहुत पढ़ना, बहुत लिखना और बहुत बोलना पड़ता, पर जरा भी न घबराता। इस मेहनती होने के लिए केशव का कर्जदार था। उसी ने मुझे ऐसा बना दिया था।
मेरे पास केशव और प्रोफेसर भाटिया के चिट्ठी बराबर आती रहती थी। कभी-कभी लज्जावती भी मिलती थी। उसके चिट्ठियों में श्रद्धा और प्यार का परिणाम दिनोंदिन बढ़ता जाता था। वह मेरी देशसेवा का बड़े उदार, बड़े अच्छे शब्दों में बखान करती। मेरे बारे में उसे पहले जो शक थे, वह मिटले जाते थे।
मेरी तपस्या उस देवी को आकर्षित करने लगी थी। केशव के चिट्ठियों से उदासीनता टपकती धी। उसके कालेज में पैसे की कमी थी। तीन साल हो गये थे, पर उसकी तरक्की न हुई थी। चिट्ठियों से ऐसा लगता था था मानो वह जीवन से असंतुष्ट है शायद इसका मुख्य कारण यह था कि अभी तक अरे साल गर्मियों की तातील में प्रोफेसर भाटिया मुझसे मिलने आये और बहुत खुश हो कर गये। उसके एक ही सप्ताह पीछे लज्जावती की चिट्ठी आई. अदालत ने फैसला सुना दिया, मेरी डिग्री हो गयी। केशव की पहली बार मेरे मुकाबले में हार हुई। मेरी खुशी की कोई सीमा न थी। प्रो. भाटिया का इरादा भारत के सब प्रांतों में घूमने का था। वह साम्यवाद पर एक किताब लिख रहे थे जिसके लिए हर बड़े नगर में कुछ खोज करने की जरूरत थी। लज्जा
उसके जीवन का सपना पूरा न हुआ था। तीसरे
को अपने साथ ले जाना चाहते थे। तय हुआ कि उनके लौट आने पर आगामी चैत के महीने में हमारी शादी हो जाए। में यह जुदाई के दिन बड़ी बेसब्री से काटने लगा।
तक मैं जानता था बाजी केशव के हाथ रहेगी, मैं निराश था, पर शांत था। अब उम्मीद थी और उसके साथ बड़ी अशांति थी। महीना था। इंतजार का समय पूरा हो चुका था। कड़ी मेहनत के दिन गये, फसल काटने का समय आया। प्रोफेसर साहब ने ढाका से चिट्ठी लिख मार्च का थी कि कई जरूरी कारणों से मेरा लौटना मार्च में नहीं मई में होगा। इसी बीच में कश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर नैनीताल आये। बजट पेश था। उन पर व्यवस्थापक सभा में बहस हो रहा था गवर्नर की ओर से दीवान साहब को पार्टी दी गयी। सभा के नेताओं को भी निमंत्रण मिला। कौंसिल की ओर से मुझे अभिवादन करने का मौका मिला।
मेरी बकवास को दीवान साहब ने बहुत पसंद किया! चलते समय मुझसे कई मिनट तक बातें की और मुझे अपने डेरे पर आने का आदेश दिया। उनके साथ उनकी बेटी सुशीला भी थी। वह पीछे सिर झुकाये खड़ी रही। जान पड़ता था, भूमि को पढ़ रही है। पर मैं अपनी आँखों को काबू में न रख सका। वह उतनी ही देर में एक बार नहीं, कई बार उठी और जैसे बच्चा किसी अजनबी की चुमकार से उसकी और लपकता है, पर फिर डर कर माँ की गोद से चिमट जाता है; वह भी डर कर आधे रास्ते से लौट गयी। लज्जा अगर खिला हुआ बाग थी तो सुशीला ठंडी नदी की धारा थी जहाँ पेड़ों के कुंज थे,
खेलते हुए हिरणों के झुंड थे, सुंदरता और लहरों का मीठा संगीत था। मैं घर पर आया तो ऐसा थका हुआ था जैसे कोई मंजिल मारकर आया हूँ। सुंदरता जिंदगी का रस है। मालूम नहीं क्यों इसका असर इतना खतरनाक
होता है।
लेटा तो वही चहरा सामने था। मैं उसे हटाना चाहता था। मुझे डर था कि एक पल भी उस भँवर में पड़ कर मैं खुद को सँभाल न सकँगा। मैं अब लज्जावती का हो चुका था, वही अब मेरे दिल की मालिक थी। मेरा उस पर कोई हक न था लेकिन मेरा सारा धिरज, सारी दलीलें बेकार हुई। पानी के बहाव में नाव को धागे से कौन रोक सकता है। आखिर में हताश हो कर मैंने खुद को सोच की लहरों में डाल दिया। कुछ दूर तक नाव तेज लहरों के साथ
चली, फिर उसी लहरों में खो गयी।
दूसरे दिन मैं तय समय पर दीवान साहब के डेरे पर जा पहुँचा, इस तरह काँपता और हिचकता जैसे कोई बच्चा आग की चमक से चौंक-चौंक कर आँख वह चमक न जाय, कहीं में उसकी चमक न देख ल भोला- भाला किसान भी अदालत के सामने इतना धबराया न होता होगा। सच्चाई यह थी कि मेरी आत्मा हार चुकी थी, उसमें अब बदला लेने की शक्ति न रही थी। दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक सवालों पर बातचीत करते रहे। मुझे उनकी बहुत सी चीजों के बारें
जानकारी पर आचर्य होता था। ऐसा बात करने अच्छा इंसान मैंने कभी न देखा धा। साठ साल की उम्र धी, पर हंसी मजाक के मानो भंडार थे। न
जाने कितने श्लोक, कितनी कविता, कितने शेर उन्हें याद थे। बात-बात पर कोई न कोई सटीक बैठने वाली पंक्तियाँ निकाल लाते थे। दुख है उस स्वभाव
के लोग अब गायब होते जाते हैं। वह पढ़ाने तरीका ना जाने कैसा था, जो – ऐसे रत्न पैदा करता था। अब तो यह कहीं दिखायी ही नहीं देती।
हर इंसान चिन्ता की मूर्ति है, उसके होंठों पर कभी हँसी आती ही नहीं खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवायी, फिर फल और मेवे मँगवाये। मैं रह-रह कर इधर-उधर बेचैन आँखों से देखता था। मेरे कान उसकी आवाज सुनने के लिए खुले हुए थे, औँखें दरवाजे की ओर लगी हुई थीं। डर भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है। लेकिन रात के नौ बज गये, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रहे होंगे। सोचते होंगे इसे कोई,
काम नहीं है ? जाता क्यों नहीं, बैठे-बैठे दो ढाई घंटे तो हो गये।
सारी बातें खत्म हो गई। उनके लतीफे भी कर लेती खत् हो गये। वह शांति छा गयी, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी। यार जिंदा व सोहबत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतजार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मोत को भी इंतजार का सामना करना पड़ता है। यहाँ लेकिन।
तक कि साढ़े नौ बज गये और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई रास्ता न रहा, जैसे दिल बैठ गया। जिसे मैंने डर कहा है, वह असल में डर नहीं था, वह बेचैनी की चरम सीमा थी।
यहाँ से चला तो ऐसा ढीला ढाला और बेजान था मानो जान निकल गये हों। अपने को कोसने लगा। अपनी छोटेपन पर उनमें शर्मिंदा हुआ।
तुम समझते एस हो कि हम भी कुछ हैं। यहाँ किसी को तुम्हारे मरने-जीने की परवाह नहीं। माना उसके लक्षण कुँवारियों के से हैं। दुनिया में कुँयारी लड़कियों की कमी नहीं। सुंदरता भी ऐसी भी कोई चीज नहीं जो आसानी से पाई न जा सके। अगर हर सुंदर और कुंवारी लड़की को देख कर तुम्हारी वही हालत होती रही तो भगवान ही मालिक है। वह भी तो अपने दिल में यही सोचती होगी। हर संदर लड़के पर उसकी आँखें क्यों उठें। अच्छे घर की औरतों के यह ढंग नहीं होते। आदमियों के लिए अगर यह सुंदरता की ओर खींचाव शर्मनाक है तो औरतों के लिए खतरनाक है। किसी दो को तीसरे से भी इतना नुकसान नहीं पहुँच सकता, जितना सुंदरता को।
दूसरे दिन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा चिट्ठी देख रहा था। क्लब जाने को भी जी नहीं चाहता था मन कुछ उदास था। अचानक मैंने दीवान साहब को घोड़ा गाड़ी पर आते देखा। मोटर से उन्हें नफरत थी। वह उसे भूतों की सवारी कहा करते थे। उसके बगल में सुशीला थी। मेरा दिल धक् धक् करने लगा। उसकी नजर मेरी तरफ उठी हो या न उठी हो, पर मेरी टकटकी उस समय तक लगी रही जब तक घोड़ागाड़ी गायब न हो गयी। तीसरे व दिन मैं फिर बरामदे में आ बैठा। आँखें सड़क की ओर लगी हुई थीं। घोडागाड़ी आयी और चली गयी। अब यही उसका रोजप्रति का नियम हो गया है। मेरा अब यही काम था कि सारे दिन बरामदे में बैठा रहेँ। मालूम नहीं घोड़ागाड़ी कब निकल जाय। खासतौर पर तीसरे पहर तो मैं अपनी जगह से हिलने का नाम भी न लेता था। इस तरह एक महीना बीत गया। मुझे अब कौंसिल के कामों में कोई खुशी न था। अखबारों में, किताबों में जी न लगता। कहीं सैर करने का भी जी न चाहता। प्यार करनेवालों को न जाने जंगल-पहाड़ में भटकने की, काँटों में उलझने की सनक कैसे सवार होती है। मेरे तो जैसे पैरों में बेडियाँ-सी पड़ गयी थीं।
बस बरामदा था और में, और घोड़ा गाड़ी का इंतजार। मेरी सोचने की ताकत भी शायद जा चुकी थी। मैं दीवान साहब को या अँगरेजी शिष्टता के अनुसार सुशीला को ही, अपने वहाँ नियंत्रित कर सकता था, पर असल में में अभी तक उससे डरता था। अब भी लज्जावती को अपनी पत्नी समझता था। वह अब भी मेरे दिल की रानी थी, चाहे उस पर किसी दूसरी ताकत का हक ही क्यों न हो गया हो! एक महीना और निकल गया, लेकिन मैंने लज्जा को कोई चिट्ठी न लिखी। मुझमें अब उसे चिट्ठी लिखने की भी हिम्मत न थी। शायद उससे चिट्ठी लिखने को मैं नैतिक जुल्म समझता था। मैंने उसे धोखा दिया था। मुझे अब उसे अपने गंदे हो चुके मन में भी अपवित्र करने का कोई हक न था। इसका नतीजा क्या होगा? यही चिंता दिन-रात मेरे मन पर कोहरे में बादल की तरह मिल गयी थी। चिंता की आग से दिनोंदिन घुलता जाता था। दोस्त अव्सर पूछा करते आपको क्या बीमारी है ? चहरे की चमक चली गई, मुरझाया सा हो गया। खाना दवाई के समान लगता। सोने जाता तो जान पड़ता, किसी ने पिंजरे में बंद कर दिया है। अजीब हालत थी।
एक दिन शाम को दीवान साहब की घोड़ा गाड़ी मेरे दरवाजे पर कर दिखाने के लिए आये थे। मैंने उन्हें बैठने के लिए बहुत कहा, लेकिन उन्होंने यही कहा- “सुशीला को यहाँ आने में हिचक होगी और घोड़ागाड़ी पर अकेली वह घबरायेगी।” वह चले तो मैं भी साथ हो लिया और धोड़ागाड़ी तक पीछे-पीछे आया। जब वह घोड़ागाड़ी पर बैठने लगे तो मैंने सुशीला को बेफिक हो आँख र कर देखा, जैसे कोई प्यासा राहगीर गर्मी के दिन में मनभर कर पानी पिये कि न जाने कब उसे जल मिलेगा। मेरी उस एक नजर में तेज, वह विनती, वह जोश, वह दया, वह श्रद्धा, वह आग्रह, वह दुख था, जो पत्थर की मूर्ति को भी पिघला देती। सुशीला तो फिर औरत थी। उसने भी मेरी ओर देखा, हिम्मती सरल आँखों से, जरा भी हिचक नहीं, जरा भी झिझक नहीं। मेरे हारने में जो कसर रह गयी थी, वह पूरी हो गयी। इसके साथ उसने मुझ पर मानो अमृत की बारिश कर दी। मेरे दिल और आत्मा में एक नयी ताकत बहने लगी हो। मैं लौटा तो मन ऐसा खुश था मानो इच्छाएं पूरी करने वाला पेड़ मिल गया हो। एक दिन मैंने प्रोफेसर भाटिया को चिट्ठी लिखा- मुझे थोड़े दिनों से कोई बीमारी हो गई है। मुमकिन है, टीबी की शुरुआत हो इसलिए मैं मई में शादी करना सही नहीं समझता।”
मैं लज्जावती से इस तरह दूर नहीं होना चाहता था कि उनकी निगाहों में मेरी इज्जत कम न हो। मैं कभी-कभी अपनी खुदगरज़ी पर गुस्सा होता। लज्जा के साथ यह धोखाधड़ी, यह बेवफ़ाई करते हुए मैं अपनी ही नजरों में गिर गया था। लेकिन मन पर कोई वश न था उस बेचारी को कितना दुख होगा, यह सोच कर में कई बार रोया। अभी तक में सुशीला के स्वभाव, सोच, मानसिकता से जरा भी परिचित न था। सिर्फ उसकी सुंदरता पर अपनी लज्जा की इतने समय की इच्छाओं का बलिदान कर रहा था। नासमझ बच्चों की तरह मिठाई के नाम पर अपने दूध-चावल को ठुकराये देता था। मैंने प्रोफेसर को लिखा था, लज्जावती से मेरी बीमारी का जिक्र न करें, लेकिन प्रोफेसर साहब इतने गहरे न थे। चौथे ही दिन लज्जा का चिट्ठी आई, जिसमें उसने अपना दिल खोल कर रख दिया था। वह मेरे लिए सब कुछ, यहाँ तक कि विधवा होने का दुख भी सहने के लिए तैयार थी। उसकी इच्छा थी कि अब हमारे मिलने में एक पल का भी देर न हो, इसलिए इस चिट्ठी को लिये घंटों एक बदहवास सा बैठा रहा। इस खुद के बलिदान के सामने अपनी छोटापन, अपनी खुदगर्जी, अपनी कमजोरी कितना घिनौना था। लज्जावती सावित्री ने क्या सब कुछ जानते हुए भी सत्यवान से शादी नहीं की थी? मैं क्यों डर ? अपने फर्ज के रास्ते से क्यों हुटूँ। मैं उनके लिए ब्रत रखेँगी, तीर्थ
करूंगी, तपस्या करूंगी। डर मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता। मुझे उनसे कभी इतना प्यार न था। कभी इतनी हड़बड़ी न थी। यह मेरी परीक्षा का समय है, और मैंने तय कर लिया है। पिता जी अभी धूम कर लौटे हैं, हाथ खाली हैं, कोई तैयारी नहीं कर सके हैं इसलिए दो-चार महीनों के देरी से उन्हें तैयारी करने का मौका मिल जाता; पर में अब विलम्ब न करूँगी। हम और वह इसी महीने में एक दूसरे के हो जायँगे, हमारी आत्माएँ सदा के लिए एक हो जायँगी, फिर कोई मुसीबत, दुर्घटना मुझे उनसे अलग न कर सकेंगी।
मुझे अब एक दिन की देर भी सहा नहीं जा रहा है। में रस्म और रिवाज की गुलाम नहीं हूँ। न वही इसके गुलाम हैं। बाबू जी रस्मों के भक्त नहीं। फिर क्यों तुरंत नैनीताल चलूँ ? उनकी सेवा क, उन्हें हौसला दूँ। में उन्हें सारी चिंताओं सभी परेशानियों से आजाद कर दूँगी। इलाके का सारी जिम्मेदारी अपने हाथों में लूँगी। कॉसिल के कामों में इतना लगे होने के कारण ही उनकी यह हालत हुई। चिट्ठियों में अधिकतर उन्हीं के सवाल, उन्हीं की बात, उन्हीं की भाषण दिखायी देती हैं। मैं उनसे विनती करूँगी कि कुछ दिनों के लिए कौंसिल से इस्तीफा दे दें। वह मेरा गाना कितने चाव से सुनते थे। मैं उन्हें अपने गीत सुना कर खुश करूँगी, किस्से पढ़ कर सुनाउँगी, उनको पूरी तरह से शांत रखूँगी। इस देश में तो इस रोग की दवा नहीं हो सकती। मैं उनके पैरों पर गिर कर प्रार्थना करुगी कि कुछ दिनों के लिए यूरोप के किसी सैनिटोरियम चले और तरीके से इलाज करायें। मैं कल ही कालेज के पुस्तकालय से इस बीमारी के बारे में किताबें लाऊँगी, और ध्यान से उनको पढ़ंगी करूँगी। दो-चार दिन में कालेज बन्द हो जायगा। मैं आज ही बाबू जी से नैनीताल चलने की बात कगी।
आह मैंने कल उन्हें देखा तो पहचान न सकी। कितना सुर्ख चेहरा था, कितना भरा हुआ शरीर। मालूम होता था, सिंदूर भरा हुआ है कितना सुन्दर शरीर था? कितना तेज था ! तीन ही सालों में यह कायापलट हो गयी, चहरा पीला पड़ गया, शरीर घुल कर काँटा हो गया। आहार आधा भी नहीं रहा, हरदम चिंता में डूबे रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं देखती। इतने नौकर हैं, इतनी सुंदर जगह है मनोरंजन के सभी सामान मौजूद हैं; लेकिन इन्हें अपना जीवन अब अंधेरे से भरा जान पड़ता है। इस कलमुँही बीमारी का सत्यानाश हो। अगर इसे ऐसी ही भूख धी तो मैरा शिकार क्यों न किया। मैं बड़े प्यार से इसका स्वागत करती।
कोई ऐसा उपाय होता कि यह बीमारी इन्हें छोड़कर मुझे पकड़ लेती ! मुझे देखकर कैसे खिल जाते थे और मैं मुस्कराने लगती थी। एक-एक अंग खील एसी जाता था। ह मुझे यहाँ दूसरा दिन है। एक पर १ भी उनके चेहरे पर हँसी न दिखाई दी। जब मैंने बरामदे में कदम रखा तब जरूर हँसे थे, लेकिन कितनी निराश हँसी थी! बाबू जी अपने आँसुओं को न रोक सके अलग कमरे जाकर देर तक रोते रहे। लोग कहते हैं, कौंसिल में लोग सिर्फ सम्मान-इज्जत के लालच से जाते हैं। उनका लक्ष्य सिर्फ नाम पैदा करना होता है। बेचारे मेम्बरों पर यह कितना बड़ा इल्जाम है, कितनी बड़ी एहसानफरामोशी है। जाति १নাम पदा की सेवा में शरीर को बुलाना पड़ता है, खून को जलाना पड़ता है। यही जाति-सेवा का यहाँ के नौकरों को जरा भी चिंता की तोहफा है।
है। बाबू जी ने इनके दो-चार मिलने वालों से बीमारी का जिक्र किया; पर उन्होंने भी परवाह न की। यह दोस्तों
सहानुभूति का हाल है। सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं, किसी को खबर नहीं कि दूसरों पर क्या गुजरती है। हाँ, इतना मुझे भी मालूम होता है कि की है, किसी इन्हें क्षय का सिर्फ भ्रम है। उसके कोई लक्षण नहीं देखती। भगवान करे मेरा अनुमान ठीक हो। मुझे तो कोई और ही रोग मालूम होता है। मेंने कई बार टेम्परेचर लिया। टेम्परेचर साधारण थी। उसमें कोई अचानक बदलाव भी न हुआ। अगर यही बीमारी है तो अभी शुरुवाती हालत है, कोई कारण नहीं कि सही कोशिश से उसकी जड़ न उखड़ जाय। मैं कल से ही इन्हें सैर कराने ले जाउँगी।
मोटर की नहीं, घोड़ा गाड़ी बैठने से ज्यादा फायदा होगा। मुझे यह खुद कुछ लापरवाह से जान पड़ते हैं। इस मरज के बीमारों को बड़ी एहतियात करते देखा है। दिन में बीसों बार तो धर्मामीटर देखते हैं। खाने पीने का बड़ा ख्याल रखते हैं। चे फल, दूध और सेहतमंद चीजें खाते हैं। यह नहीं कि जो कुछ रसोइये ने अपने मन से बनाकर सामने रख दिया, वही दो-चार कौर खा कर उठ आये । मुझे तो यकीन होता जाता है कि इन्हें कोई दूसरी ही शिकायत है। जरा छुट्टी मिले तो इसका पता लगाऊँ। कोई चिंता नहीं है ? रियासत पर कर्ज का बोझ तो नहीं है? थोड़ा बहुत कर्ज तो जरूर ही होगा। यह तो अमीरों की शान है। अगर कर्ज ही इसका मूल कारण है तो जरूर कोई भारी रकम होगी।
जरूरत पर बहुत सी चिंताओं से इतना दबा हुआ है कि कुछ लिखने को जी नहीं चाहता ! मेरे सभी जीवन की अभिलाषाएँ मिट्टी में मिल गयीं। हाथ बदकिस्मती में अपने को कितनी खुशनसीब समझती थी। अब दुनिया में मुझसे ज्यादा बदनसीब और कोई न होगा। वह किमती रतन जो मुझे लम्बी की तपस्या और उपासना से न मिला, वह इस सुंदरी को यूं ही मिल जाता है। शारदा ने अभी उसे हाल में ही देखा है। शायद अभी तक उससे परस्पर बातचीत करने की नौबत नहीं आयी। लेकिन उससे कितने हिलमिल रहे हैं। उसके प्यार में कैसे दीवाने हो गये हैं। आदमियों को भगवान ने दिल नहीं दिया, सिर्फ आँखें दी वह दिल की कद्र नहीं करना जानते, सिर्फ रूप-रंग पर बिक जाते हैं। अगर मुझे किसी तरह विश्वास हो जाय कि सुशीला उन्हें मुझसे ज्यादा खुश रख हैं। सकेगी, उनके जीवन को बेहतर बना देगी, तो मुझे उसके लिए जगह खाली करने में जरा भी तकलीफ न होगी। वह इतनी घमंडी, इतनी बेदर्द है कि मुझे डर है कहीं शारदा को पछताना न पड़े।
यह मेरा स्वार्थ है। सुशीला धमंडी सही, बैदर्द सही, विलासिनी सही, शारदा ने अपना प्यार उस पर अर्पण कर दिया है। वह अक्लमंद हैं, चालाक हैं, दूरदर्शी हैं। अपना सही गलत सोच सकते हैं। उन्होंने सब कुछ सोच कर ही तय किया होगा। जब उन्होंने मन में यह बात ठान ली तो मुझे कोई हक नहीं है कि उनके खुशियों का काँटा बनूँ। मुझे सब्र करके, अपने मन को समझा कर यहाँ से निराश, परेशान, टूटे दिल, विदा हो जाना चाहिए। भगवान से सती। मुझे ज़रा भी जलन, जरा भी घमंड नहीं है। यही प्रार्थना है कि उन्हें खुश रखना मुझ अगर उन्हें मुझे जहर दे देने से खुशी होती तो में शौक से जहर का प्याला पी लेती। प्यार ही जीवन का जान है। हम इसी के लिए जीना चाहते हैं। अगर इसके लिए मरने का भी मौका मिले तो खुशकिस्मती। अगर सिर्फ मेरे हट जाने से सब काम सही हो सकते हैं तो मुझे कोई इनकार नहीं। भगवान की इच्छा ! लेकिन मानव शरीर पा कर कौन मायामोह से दूर होता है ? जिस प्यार के पेड़ को लम्बे समय से पाला था, आँसुओं से सींचा था, उसको पैरों तले रौंदा जाना नहीं देखा जाता। दिल टूट जाता है। अब कागज तैरता जान पड़ता है, आँसू उमड़े चले आते हैं, कैसे मन को ख अब कारा रखींचूँ
! जिसे अपना समझती थी, जिसके पैरों पर खुद को दे कर चुकी थी, जिसके सहारे जी रही थी, जिसे हाय जिस से दिल-मन्दिर में पूजती थी, जिसके ख्यालों में खो जाना जीवन का सबसे प्यारा काम था, उससे अब हमेशा के लिए दूर होना पड़ रहा है। आह किससे अब फरियाद कर? किसके सामने जा कर रोऊँ? किससे अपनी दुख भरी कहानी कहूँ। मेरा कमजोर दिल यह चोंट नहीं सह सकता। यह चोंट मेरी जान लेकर छोड़ेगी। अच्छा ही होगा। बीना दिल है प्यार दिल के लिए दुनिया जेल है, निराशा और अंधेरै से भरी हुई। मैं जानती हूँ अगर आज बाबू जी उनसे शादी के लिए जोर दें तो वह तैयार हो जायँगे, में में तो थाबू जी बस इंसानियत के घुतले हैं सिर्फ मेरा मन रखने के लिए अपनी जान पर खेल जायेंगे। वह उन अच्छे आदमियों में हैंजिन्होंने नहीं करना ही नहीं सीखा। अभी तक उन्होंने दीवान साहब से सुशीला के बारे में कोई बातचीत नहीं की। शायद मेरा रवैया देख रहे हैं। इसी असमंजस ने उन्हें इस हालत में पहुँचा दिया है। वह मुझे हमेशा खुश रखने की कोशिश करेंगे। मेरा दिल कभी न दुखावेंगे, सुशीला की बात भूल कर भी न करेंगे। मैं उनके स्वभाव को जानती हूँ। वह इंसानों में जैसे हैं। लेकिन में उनके पैरों की बेड़ी नहीं बनना चाहती। जो कुछ बीते अपने ही ऊपर बीते। उन्हें क्यों समेहूँ ? डूबना ही है तो आप क्यों न डूबें, उन्हें अपने साथ क्यों डुबाऊँ
वह भी जानती हूँ कि अगर इस दुख ने पुला-पुला कर मेरी जान ले ली तो यह अपने को कभी माफ न करेंगे उनका सभी जीवन दुख और पछतावे में बीतेगा, उन्हें कभी शांति न मिलेगी। कितनी बड़ी परेशानी है। मुझे मरने की भी आजादी नहीं। मुझे इनको खुश रखने के लिए अपने को खुश रखना होगा। उनसे खराब व्यवहार करना पड़ेगा। चालाकी करनी पड़ेगी। दिखाना पड़ेगा कि इस बीमारी के कारण अब शादी की बातचीत बेकार है। कसम को तोड़ने का इल्जाम अपने सिर लेना पड़ेगा। इसके सिवाय सब ठीक करने का और कोई तरीका नहीं? भगवान मुझे बल दो कि इस परीक्षा में सफल हो जाऊँ।