मुलिया हरी-हरी घास की गठरी लेकर आयी, उसके चेहरे पर गुरसा था और बड़ी-बड़ी शराबी आँखों में डर दिखाई दे रहा था महावीर ने उसका गुस्से से भरा चेहरा देखकर पूछा- क्या बात है मुलिया, क्या हाल है?
मुलिया ने कुछ जवाब न दिया- उसकी आँखें में आसू आ गए।
महावीर ने पास आकर पूछा- क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है, अम्माँ ने डॉँटा है, क्यों इतनी उदास है? है, ठीक हूँ? मुलिया ने सिसककर कहा- कुछ नहीं, हुआ क्या
महावीर ने मुलिया को को ऊपर से नीचे तक देखकर कहा- रोती ही रहेगी या कुछ बताएगी भी -क्या हुआ है ? 1 ने बाल बदल कर कहा- कोई भी बात नहीं है, क्या श्री दात मुलिया इस उम्र में गुलाब का फूल थी। गेहूं के जैसा रंग, हिरन सी आँखें, नीचे खिंची हुई ठुड्डी, गालों पर हल्की लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें,
आँखों में एक अजीब सी नमी, जिसमें एक दर्द अंदर ही अंदर साफ़ नज़र आता था। पता नहीं, चमारों के इस घर में वह परी कहाँ से आ गयी थी। क्या वो फूल के जैसे कोमल इस लायक धी, कि सर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती? उस गाँव में कुछ ऐसे भी लोग थे, जो उसके पेरों के नीचे बी फूल आँखें बिछाते थे, उसकी एक झलक के लिए रघु थे, जिनसे अगर वह एक बार बात भी कर लेती तो वो खुश हो जाते। ए तरसते लेकिन उसे आये साल-भर से ज्यादा हो गया, किसी ने उसे लड़को की ओर देखते या बातें क करते नहीं देखा था। वह घास लेकर निकलती, तो ऐसा लगता,
जैसे सूरज की सुनहरी किरणे फैल गयी हो। कोई गजलें गाता, कोई छाती पर हाथ रखता, पर मुलिया नीची आँख किये अपने रास्ते चली जाती। लोग हैरान होकर कहते- इतना घमंड! महावीर में ऐसी भी क्या खास बात है? इतना भी तो नहीं, पता नहीं यह कैसे उसके साथ रहती है! हो गयी, मगर आज ऐसी बात हो जो गजल गाता, जवान भी। इस जाति की और लड़कियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के दिल में तीर की तरह चुभती थी। सुबह का समय था, हवा में आम के फूलो की खुशबू थी, आसमान से सोने की बारिश हो रही थी। मुलिया सिर पर टोकरी रख कर घास काटने चली, तो उसका गेहुआं रंग ग सुबह की सुनहरी किरणों से सोने की तरह चमक उठा। तभी एक आदमी चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि बचकर निकल जाय; मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती? मुलिया का फूल सा खिला हुआ चेहरा आग की तरह जलने लगा। वह जरा भी नहीं डरी, जरा भी न झिझकी, टोकरी जमीन पर गिरा दिया, और
बोली- मुझे छोड़ दो, नहीं तो में शोर मचाती
चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ नीची जाती में सुंदरता का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातवालों का खिलौना
बने।ऐसी हरकते कितनी ही बार उसने की थी। पर आज मुलिया के चेहरे का रंग, उसका गुस्सा और घमंड देखकर वह डर गया। उसने होकर उसका हाथ छोड़ दिया। मुलिया जल्दी से आगे बढ़ गयी। लड़ाई की गरमा गरमी में चोट का दुःख नहीं होता, दर्द होता है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गयी, तो गुस्से, डर और अपने कुछ न कर सकने का सोच कर उसकी आँखो में आँसू भर आये। उसने कुछ देर रोकने की कोशिश की, फिर सिसक-सिसक कर रोने लगी। अगर वह इतनी गरीब न होती, तो किसी की क्या हिम्मत थी कि इस तरह उसकी बेइज्जती करता। वह रोती जाती थी और घास काटती जाती थी। महावीर का गुस्सा वह जानती थी। अगर वो उसे बता दे, तो वह इस ठाकुर को जान से ही ना मार दे। फिर न जाने क्या होगा। ये सोच कर वह डर गयी। इसीलिए उसने महावीर के सवालो का कोई जवाब नहीं दिया।
दूसरे दिन मुलिया घास के लिए नहीं गयी। सास ने पूछा- तू क्यों नहीं जाती? बाकी सब तो चली गयीं?
मुलिया ने सिर झुकाकर कहा- मैं अकेली नहीं जाऊँगी। सास ने गुस्से से कहा- अकेले क्या तुझे शेर उठा ले जायगा?
मुलिया ने और भी सिर झुका लिया और धीरे से बोली- सब मुझे छेड़ते हैं।
सास ने डाँटा- न तू औरों के साथ जायगी, न अकेली जायगी, तो फिर जायगी कैसे। साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि मैं नहीं जाऊँगी। यहाँ मेरे धर में रानी बन के गुजारा न होगा। किसी को चमड़ी प्यारी नहीं होता, काम ही प्यारा होता है। तू बड़ी सुंदर है, तो तेरी सुंदरता लेकर चाहूँ? उठा टोकरी और घास
ला! दरवाजे पर नीम के पेड़ की छावं में महावीर खड़ा घोड़े को मल रहा था। उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाये जाते देखा; पर कुछ बोल न सका।उसका बस चलता तो मुलिया को दिल में बैठा लेता, आँखों में छिपा लेता; लेकिन घोड़े का पेट भरना तो जरूरी था। घास खरीद कर खिलाये, तो बारह आने
रोज का खर्चा। मजदूरी से ये सब कैसे होता। मुश्किल से डेढ़-दो रुपये मिलते हैं, वह भी कभी मिले, कभी न मिले।
जब से यह मोटर गाड़ियां चलने लगी हैं; घोड़ा गाडी वालो की कमाई ही कम हो गयी है। कोई नहीं पूछता। महाजन से डेढ़ सौ रुपये उधार लेकर गाड़ी और घोड़ा खरीदा था; मगर मोटर गाड़ियों के आगे घोड़ा गाडी को कौन पूछता है। महाजन का ब्याज ही नहीं दे पाते थे, मूल रकम का तो कहना
क्या। ऊपरी मन से बोला- ना मन हो, तो रहने दो, देखी जायगी।
इस दिलासा से मुलिया खुश हो गयी। बोली- घोड़ा खायेगा क्या?
ही
आज वो कल चाले रास्ते से नहीं गयी और खेतों के किनारे-किनारे होती हुई चली। बार-बार बहुत ध्यान से इधर-उधर देखते हुए जाती थी। दोनों तरफ गन्ने के खड़े थे। जरा भी आवाज होती, तो वह डर जाती, कहीं कोई खेत में छिपा न बैठा हो। मगर कोई नयी बात नहीं हुई। गन्ने के खेत पार हो गये, आमों का बाग निकल गया; सिंचे हुए खेत नजर आने लगे। दूर के कुएँ पर पुर चल रहा था। खेतों के किनारे पर हरी-हरी घास जमी हुई थी। मुलिया काजी ललचाया।
यहाँ आधा घंटे में जितनी घास काट सकती है, सूखे मैदान में दोपहर तक भी नहीं कर पायेगी। यहाँ देखता ही कौन है। कोई चिल्लायेगा, तो चली जाऊँगी। वह बैठकर काटने लगी और एक घंटे में उसकी टोकरी आधे से ज्यादा भर गई। वह अपने काम में इतनी खोयी थी कि उसे चैनसिंह के आने का पता ही न चला ।अचानक उसने आवाज सुन कर सिर उठाया, तो चैनसिंह को खड़ा देखा।
मुलिया डर गयी। मन में आया भाग जाये, टोकरी उलट दे और खाली टोकरी लेकर चली जाये, पर चैनसिंह ने बहुत दूर से ही रुककर कहा- डर मत, डर भगवान जानता है। मैं तुझसे कुछ नहीं बोलूंगा। जितनी घास चाहे काट ले, मेरा ही खेत है। मुलिया के हाथों में जैसे जान नहीं थी, खुरपी हाथ में जम-सी गयी, घास नजर ही न आती थी। जी चाहता था, जमीन फट जाय और मैं समा जाऊँ।
मत,
जमीन आँखो के सामने तैरने ल गी।
चैनसिंह ने प्यार से समझाया – काटती क्यों नहीं? मैं तुमसे कुछ कहता थोड़े ही हूँ। यहीं रोज चली आया कर, मैं काट दिया करगा।
मुलिया मूर्ति की तरह बैठी रही।
चैनसिंह ने एक कदम आगे बढ़ाया और बोला- तू मुझसे इतना डरती क्यों है। क्या तू समझती है, में आज भी तुझे तंग करने आया हूँ? भगवान् जानता
है, कल भी तुझे तंग करने के लिए मैंने तेरा हाथ नहीं पकड़ा था। तुझे देखकर अपने आप ही हाध बढ़ गये। मुझे कुछ होश नहीं रहा। तू चली गयी, तो मैं वहीं बैठकर घंटों रोता रहा। मन में आता था, हाथ काट डालूँ। कभी जी चाहता था, जहर खा लूँ। तभी से तुझे ढूँढ रहा हूँ आज तू इस रास्ते से चली आयी। मैं सब जगह देखता हुआ यहाँ आया हूँ। अब जो सजा तेरे मन में आवे, दे दे। अगर पर तू मेरा सिर भी । ले, तो गर्दन न हिलाऊँगा। मैं गुंडा था,बदमाश था लेकिन जब से तुझे देखा है, मेरे मन से सारी बुराइयां खल्म हो गयी है। अब तो यही जी में आता है कि तेरा कुत्ता होता और तेरे पीछे-पीछे चलता, तेरा घोड़ा होता, तब तो तू अपने हाथों से मेरे सामने घास डालती। किसी तरह यह जो ऐसी देवी उसे मिली।
शरीर तेरे काम आये, मेरे मन की यह सबसे बड़ी इच्छा है। मेरी जवानी काम न आये, अगर मैं किसी धोखे से मे महावीर बातें कर रहा हूँ। बड़े नसीब वाला था
मुलिया चुपचाप सुनती रही, फिर नीचा सिर करके भोलेपन से बोली- तो तुम मुझे क्या करने को कहते हो? चैनसिंह और पास आकर बोला- बस, तेरी दया चाहता हूँ। मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी शर्म न जाने कहाँ गायब हो गयी। चुभते हुए शब्दों में बोली- तुमसे
तुम्हारी शादी हो गई है या য नहीं?
चैनसिंह ने दबी जबान से कहा- शादी तो हो गई है, लेकिन शादी क्या है, शादी के नाम पर खेल है।
एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगे?
मुलिया के होठों पर अपमान की मुस्कराहट आई, बोली- फिर भी अगर मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता, तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने पर तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो। तुम्हे क्या लगता है, कि महावीर चमार है तो उसके शरीर में खून नहीं है, उसे शर्म नहीं है, अपने शान की परवाह नहीं है? मेरा रूप-रंग तुम्हें अच्छा लगता है। क्या घाट के किनारे मुझसे कहीं सुंदर औरतें नहीं घूमा करतीं? मैं उनके पैर की बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उसमें से किसी से क्यों नहीं दया माँगते! क्या उनके पास दया नहीं है? मगर वहाँ तुम न जाओगे, क्योंकि वहाँ जाते तुम्हे डर लगता है। मुझसे माँगते हो, इसलिए न कि मैं चमार हूँ, नीची जाति की नीच जाति की औरत जरा-सी डॉँट-धमकी और जरा-से लालच से तुम्हारे
हाथ में आ जायेगी। कितना सस्ता सौदा है। ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे? चैनसिंह शर्मिंदा होकर बोला- मूला, यह बात नहीं। मैं सच कहता हूँ, इसमें ऊँच-नीच की बात नहीं है। सब आदमी बराबर हैं। मैं तो तेरे पैरो पर सिर रखने
को तैयार हूँ।
मुलिया- इसीलिए न कि जानते हो, मैं कुछ कर नहीं सकती। जाकर किसी क्षत्राणी के पैरो पर सिर रखो, तो मालुम हो कि पैर पर सिर रखने का क्या
फल मिलता है। फिर यह सिर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।
चैनसिंह मारे शर्म के जमीन में गड़ा जा रहा था। उसका मुँह ऐसा सुख गया मानो महीनों की बीमारी से उठा हो। मुँह से बात न निकलती थी। मुलिया इतनी समझदार है बातों का जवाब देने में इसका उसे अंदाजा भी न था।
मुलिया फिर बोली- मैं भी रोज बाजार जाती हूँ। बड़े-बड़े घरों का हाल जानती हूँ। मुझे किसी बड़े घर का नाम बता दो, जिसमें कोई वाला, कोई गाडी चलाने वाला, कोई भिश्ती, कोई पंडित, कोई महाराज न घुसा बैठा हो? यह सब बड़े घरों के हाल है और वह औरतें जो कुछ करती हैं, ठीक करती हैं। उनके घरवाले भी तो चमारिनों और कहारिनों पर जान देते फिरते हैं। लेना-देना बराबर हो जाता है। बेचारे गरीब आदमियों के लिए यह बातें कहाँ? मेरे आदमी के लिए दुनियाँ में जो कुछ हूँ, मैं हूँ।
वह किसी दूसरी औरत की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। ये अलग बात है कि मैं थोड़ी संदर हूँ, लेकिन मैं काली-कलूटी भी होती, तब भी वह मुझे इसी तरह रखता। इसका मुझे विश्वास है। मैं चमारिन होकर भी इतनी नीच नहीं हूँ कि विश्वास का बदला धोखे से दूँ। हाँ, अगर अपने मन की करने
लगे, और मुझे दुःख देने लगे, तो मैं भी यही करूँगी । तुम मेरी सुंदरता पर ही मरते हो ना, आज मेरे चेहरे पर दाग हो जाए, एक आँख फुट जाए, तो मेरी हूँ?
ओर देखोगे भी नहीं। बोलो, झूठ कह रही चैनसिंह मना न कर सका।
मुलिया ने उसी गर्व से भरी आवाज में कहा- लेकिन मेरी एक नहीं, दोनों आँखें फूट जायें, तब भी वह मुझे इसी तरह रकखेगा। मुझे उठाएगा, बिठायेगा,
खिलायेगा। तुम चाहते हो, मैं ऐसे आदमी के साथ धोखा कर? जाओ, अब मुझे कभी न छेड़ना, नहीं तो अच्छा न होगा।
जवानी जोश है, ताकत है, दया है, हिम्मत है, आत्म-विश्वास है, इज़्ज़त है और सब कुछ जो जीवन को शुद्ध, चमकदार और पूरा बना देता है। जवानी का नशा घमंड है, बेरहमी है,मतलब है, बड़ाई है, गन्दगी है, कड़वापन है और वह सब कुछ जो जीवन को जानवरो के जैसे जीना, बुराई और नाश की ओर ले जाता है। चैनसिंह पर जवानी का नशा था। मुलिया ने प्यार से समझा कर उसका घमंड उतार दिया। जैसे उबलती हुई चाशनी में पानी के छीटे पड़ जाने से झाग मिट जाता है, मैल निकल जाता है और शांत, शुद्ध रस निकल आता है। जवानी का घमंड जाता रहा, सिर्फ जवानी रह गयी। सुन्दर औरत की बाते जितनी आसानी से किसी को बहका सकती हैं, उतनी ही आसानी से उन्हें समझा कर सही रास्ता भी दिखा सकती हैं। चैनसिंह उस दिन से दूसरा ही आदमी हो गया। वो हर वक्त गुस्से में रहता था, बात-बात पर मजदूरों को गालियाँ देना, डाँटना और पीटना उसकी आदत थी। उधार लेने वाले उससे डरते थे। मजदूर उसे आते देखकर अपना काम और तेजी से करते, पर जैसे ही उसने मुँह घुमाया तो उन्होंने चिलम पीना शुरू किया। सब दिल में उससे जलते थे, उसे गालियों देते थे। मगर उस दिन से चैनसिंह इतना दयालु, इतना गंभीर, इतना सहनशील हो गया कि लोगों
का आश्चर्य होता था। कई दिन गुजर गये। एक दिन शाम के समय चैनसिंह खेत देखने गया। पुर चल रहा था। उसने देखा कि एक जगह नाली टूट गयी है, और सारा पानी बहा चला जाता है। पौधों में पानी बिलकुल नहीं पहुँचता, मगर क्यारी बनाने वाली बुद्धिया चुपचाप बैठी है। उसे इसकी जरा भी चिंता नहीं है कि पानी क्यों नहीं । आता। पहले यह दशा देखकर चैनसिंह बहुत गुस्सा करता था। उस औरत की उस दिन मजूरी काट लेता और पुर चलाने वालों पर भी चिल्लाता, पर आज उसे गुस्सा नहीं आया। उसने मिट्टी लेकर नाली बांध दी और खेत में जाकर बुढ़िया से बोला- तू यहाँ बैठी है और पानी सब बहा जा रहा है।
बुढ़िया घबरा कर बोली- अभी खुल गयी होगी। राजा। मैं अभी जाकर बंद किये देती हूँ। यह कहती हुई वह डर से काँपने लगी। चैनसिंह ने उसे प्यार से कहा- भाग मत, भाग मत। मैंने नाली बंद कर दी। बुढाऊ कई दिन से नहीं दिखाई दिये,
कहीं काम पर जाते हैं कि नहीं?
बुढ़िया खुश होकर बोली- आजकल तो खाली ही बैठे हैं भैया, कहीं काम नहीं लगता। चैनसिंह ने प्यार से कहा- तो हमारे यहाँ लगा दे। थोडा-सा सुत रखा है, उसे कात दें।
यह कहता हुआ वह कुएं की ओर चला गया। यहाँ चार पुर चल रहे थे; पर इस वक्त दो मज़दूर बेर खाने गये थे। चैनसिंह को देखते ही मज़दूरों के होश उड़ गये। ठाकुर ने पूछा, दो आदमी कहाँ गये, तो क्या जवाब देंगे? सब-के-सब डॉँटे जायेंगे। बेचारे दिल में डरे जा रहे थे। चैनसिंह ने पूछा- वह दोनों कहाँ चले गये
किसी के मुँह आवाज न निकली। अचानक सामने से दोनों मज़दूर धोती के एक कोने में बेर भरे आते दिखाई दिए। खुशी-खुशी बातें करते चले आ रहे थे। चैनसिंह पर नज़र पड़ी, तो दोनों डर गये। पाँच में जैसे पत्थर बाँध दिए गए हो । अब न आते बनता है, न जाते। दोनों समझ गये कि आज डॉट
पड़ेंगी, शायद मजदूरी भी कट जाय। उनकी चाल धीमी पड़ गयी। इतने में चैनसिंह ने पुकारा बढ़ आओ, बढ़ आओ, कैसे बेर हैं, लाओ जरा मुझे भी दो, मेरे ही पेड़ के हैं न न
दोनों और भी डर गए। आज ठाकुर नहीं छोड़ेगा। कैसा मीठा-मीठा बोल रहा है। उतना ही तंग करेगा। बेचारे और पीछे हो गये। चैनसिंह ने फिर कहा- जल्दी से आओ जी, पके बेर सब में ले लँगा। ज़रा एक आदमी जल्दी से घर से थोड़ा-सा नमक तो ले लो। बाकी दोनों मजूरों से बोले, तुम भी दोनों आ जाओ, उस पेड़ के बेर मीठे होते हैं। बेर खा ले, काम तो करना ही है। अब उन दोनों का डर कुछ कम हुआ। सभी ने जाकर बेर चैनसिंह के आगे डाल दिए और पके-पके छाँटकर उसे देने लगे। एक आदमी नमक लाने
दौड़ा। आधा घंटे तक चारों पुर बंद रहे। जब सब बेर खत्म हो गये और ठाकुर चलने लगे, तो दोनों ने हाथ जोड़कर कहा- भैयाजी, आज जान छोड़ दो,
कभी न जाते। बड़ी भूख लगी थी, नहीं तो
चैनसिंह ने प्यार से कहा- तो इसमें गलत क्या है? मैंने भी तो बेर खाये। एक-आध घंटे का नुकसान हुआ यही न? तुम चाहोगे, तो घंटे भर का काम आधा
घंटे में कर दोगे। न चाहोगे, दिन-भर में भी घंटे-भर का काम न होगा। चैनसिंह चला गया, तो चारों बातें करने लगे।
एक ने कहा- मालिक इस
इस तरह रहे, तो काम करने में जी लगता है। यह नहीं कि हरदम सामने खड़े रहे।
दूसरा- मैंने तो समझा, आज कच्चा ही खा जायेंगे। तीसरा कई दिन से देखता हूँ, उनका स्वभाव नरम हो गया
चौथा- शाम को पूरी मजूरी मिले तो कहना।
पहला- तुम तो हो बेवकूफ। आदमी को नहीं पहचानते ।
है।
दूसरा- अब खूब दिल लगाकर काम करेंगे। तीसरा- और क्या। जब उन्होंने हमारे ऊपर छोड़ दिया, तो हमारा भी फर्ज है कि कोई कमी न छोडें।
चौथा- मुझे तो भैया, ठाकुर पर अब भी विश्वास नहीं आता।
एक दिन चैनसिंह को किसी काम से कचहरी जाना था। पाँच मील का रास्ता था। यों तो वह हमेशा अपने घोड़े पर जाया करता था; पर आज धूप बड़ी तेज हो रही थी, सोचा घोड़ा गाड़ी पर चलँ। महावीर को बुलाया कि मुझे लेते जाना। लगभग नौ बजे महावीर ने आवाज दी। चैनसिंह बैठा था। तुरंत घोड़ा गाड़ी पर बैठ गया। मगर घोड़ा इतना कमजोर था, गाड़ी की गद्दी इतनी गन्दी और फटी हुई, सारा सामान इतना बेकार कि चैनसिंह को उस पर बैठते शर्म आई।
पूछा यह सामान क्यों बिगड़ा हुआ है महावीर? तुम्हारा घोड़ा तो इतना दुबला कभी न था; क्या आजकल सवारियाँ कम हैं क्या? महावीर ने कहा, नहीं मालिक, सवारियाँ कम नहीं है; मगर मोटर गाडी के सामने इसे कौन पूछता है। कहाँ दो-ढाई-तीन की मजूरी करके घर लौटता था, कहाँ अब बीस आने पैसे भी नहीं मिलते? क्या जानवर को खिलाऊँ क्या आप खाऊँ? बड़ी मुसीबत में पड़ा हूँ। सोचता हूँ गाडी-घोड़ा बेच कर आप लोगों की मजूरी कर लेँ, पर कोई खरीदने वाला नहीं मिलता ज्यादा नहीं तो बारह आने तो घोड़े ही को चाहिए, घास ऊपर से। जब अपना ही पेट नहीं चलता, तो जानवर को कौन पूछे। चैनसिंह ने उसके फटे हुए कुरते की ओर देखकर कहा, दो-चार बीधे खेती क्यों नहीं कर लेते?
महावीर सिर बोला- खेती के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए मालिक। मैंने तो यही सोचा है कि कोई खरीदने वाला हाथ लग जाय, तो गाड़ी को कम झुकाकर पैसे में बेच दूं, फिर घास काट कर बाजार ले जाया करू। आजकल सास-बहु दोनों घास काटती है। तब जाकर दस-बारह आने पैसे मिलते हैं।
चैनसिंह ने पूछा- तो बुढ़िया बाजार जाती है होगी?
महावीर शरमाता हुआ बोला- नहीं भैया, वह इतनी दूर कहाँ चल सकती है। घरवाली चली जाती है। दोपहर तक घास काटती है, तीसरे पहर बाजार जाती है। वहाँ से रात होने तक वापिस आती है। परेशान हो जाती है भैया, मगर क्या करूँ, किस्मत का क्या करे। चैनसिंह कचहरी पहुँच गये और महावीर सवारियों के इंतज़ार में इधर-उधर गाडी को घुमाता हुआ शहर की तरफ चला गया। चैनसिंह ने उसे पाँच बजे आने को कह दिया।
कोई बजे चैनसिंह कचहरी से काम पूरा कर बाहर निकले। बगल में पान की दुकान थी, जरा और आगे बढ़कर एक बड़ा बरगद का पेड़ था, उसकी में बीसों ही ताँगे; गाड़ियां, खड़ी थीं। घोड़े खोल दिए गये थे। वकीलों, और अफसरों की सवारियाँ यहीं खड़ी रहती थीं। चैनसिंह ने पानी पिया, पान खाया और सोचने लगा कोई गाड़ी मिल जाय, तो जरा शहर चला जाऊँ कि उसकी नजर एक घासवाली पर पड़ गयी। सिर पर घास की टोकरी रखे घोड़े वालों से मोल-भाव कर रही थी। चैनसिंह का दिल उछल पड़ा यह तो मुलिया है। बनी-ठनी, एक गुलाबी साड़ी पहने गाड़ी वालों से मोल-तोल कर रही थी। कई गाड़ी वाले जमा हो गये थे। कोई उससे हंसी-मजाक करता था, कोई घूरता था, कोई हँसता था।
एक काले-कलूटे गाडी वाले ने कहा- मूला, घास तो ज्यादा से ज्यादा छ; आने की है। मुलिया ने गुस्से वाली आँखों से देखकर कहा- छ: आने पर लेना है, तो सामने घसियारिनें बैठी हैं, चले जाओ, दो-चार पैसे कम में पा जाओगे, मेरी घास तो बारह आने में ही जायगी।
एक अधेड़ गाडी वाले ने बग्धी के ऊपर से कहा- तेरी अलग बात है, बारह आने नहीं एक रुपया माँगालेने वाले मजबूर होकर लेंगे। निकलने दे वकीलों को, अब देर नहीं।
एक ताँगेवाले ने, जो गुलाबी पगड़ी बांधे हुए था, बोला- बुढ़ऊ के मुँह में पानी भर आया, अल मुलिया काहे को किसी की और देखेगी! चैनसिंह को ऐसा गुस्से आ रहा था कि इन लफंगो को जूते से पीटे। सब-के-सब कैसे उसकी ओर घूरते हैं जैसे आँखों से पी जायेंगे। और मुलिया भी यहाँ कितनी खुश है। न शर्माती है, न झिझकती है, न डरती है। कैसा मुस्कुरा कर, रसीली आँखो से देख-देखकर, सिर से कपड़ा हटा कर, मुँह बना-बना कर
बातें कर रही है। वही मुलिया, जो शेरनी की तरह तड़प उठी थी। इतने में चार बजे। काम करने वालों और वकीलों का एक मेला-सा निकल पड़ा। काम करने वाले लोग सब गाडियों पर दौड़े। वकील इन सवारियों की
और चले। गाड़ी वालों ने भी तुरंत घोड़े जोते कई लोगो ने मुलिया को प्यार भरी नज़रों से देखा और अपनी-अपनी गाड़ियों पर जा बैठे। मालिया घास टोकरी लिये उस बग्धी के पीछे दोडी। तगपी में एक अंग्रेज़ी फेशन के जवान वकील साहब बैठे थे। उन्होंने पावदान पर घास अचानक मुलिया घास की
रखवा ली, जेब से कुछ निकालकर मुलिया को दिया। मुलिया मुस्कराई, दोनों में कुछ बातें भी हुईं, जो चैनसिंह न सुन सके एक पल में मुखिया खुशी से घर की ओर चली। चैनसिंह पानवाले की दुकान में ऐसे खड़ा रहा जैसे कुछ उसे कुछ याद न हो। पानवाले ने दुकान बढ़ाई,
कपड़े पहने और केबिन का दरवाजा बंद करके नीचे उतरा तो चैनसिंह को होश आया। पूछा क्या दुकान बंद कर दी? पानवाले ने तरस दिखाकर कहा- इसकी दवा करो ठाकुर साहब, यह बीमारी अच्छी नहीं है!
चैनसिंह ने चकित होकर पूछा- कैसी बीमारी?
पानवाला बोला- कैसी बीमारी! आधा घंटे से यहाँ खड़े हो जैसे कोई मुरदा खड़ा हो। सारी कचहरी खाली हो गयी, सब दुकानें बंद हो गयीं, मेहतर तक झाडू लगाकर चल दिये; तुम्हें कुछ खबर हुई? यह बुरी बीमारी है, जल्दी दवा कर डालो। चैनसिंह ने छड़ी संभाली और दरवाजे की ओर चला कि महावीर की घोड़ा गाड़ी सामने से आती दिखाई दी।
कुछ दूर घोड़ा गाड़ी निकल गयी , तो चैनसिंह ने पूछा- आज कितने पैसे कमाये महावीर महावीर ने हँसकर कहा- आज तो मालिक, दिन भर खड़ा ही रह गया। किसी ने भी न पकड़ा। ऊपर से चार पैसे की बीडि पी गया।
चैनसिंह ने जरा देर के बाद कहा- मेरी एक सलाह है। तुम मुझसे एक रुपया रोज लिया करो। बस, जब मैं बुलाऊँ तो घोड़ा गाडी लेकर चले आया करो।
तब तो तुम्हारी घरवाली को घास लेकर बाजार न जाना पड़ेगा। बोलो मंजूर है? महावीर ने आँखो से देखकर कहा- मालिक, आप ही का तो खाता हूँ। आपका नौकर हूँ। भरी मजजी हो, जैसे आप कहे। आपसे रुपये.
जब चैनसिंह ने बात काटकर कहा- नहीं, मैं तुमसे काम बिन पैसे नहीं लेना चाहता। तुम मुझसे एक रुपया रोज ले जाया करो। घास लेकर घरवाली को बाजार मत भेजा करो। तुम्हारी इज्जत मेरी इज्जत है। और भी रुपये-पैसे का जब काम लगे, बिना सोचे चले आया करो। हाँ, देखो, मुलिया से इस बात को भूलकर भी न बताना । क्या । क्या फायदा
कई दिनों के बाद शाम के समय मुलिया चैनसिंह से मिली। चैनसिंह किरायदारों से लगान ले कर घर की ओर जा रहा था कि उसी जगह जहाँ उसने मुलिया की बॉडी की बाँह पकड़ी थी, मुलिया की आवाज कानों में आयी। उसने ठिठक कर पीछे देखा, तो मुलिया दोड़ी आ रही थी। बोला- क्या है
दौड़ती हो, मैं तो खड़ा है
मुलिया ने हाफते हुए कहा- कई दिन से तुमसे मिलना चाहती थी। आज तुम्हें आते देखा, तो दौड़ी। अब मैं घास बेचने नहीं जाती।
चैनसिंह ने कहा ने कहा- बहुत अच्छी बात है।
क्या तुमने कभी मुझे धास बेचते देखा है?’ हाँ, एक दिन देखा था। क्या महावीर ने तुझसे सब कह डाला? मैंने तो मना कर दिया था।
वह मुझसे कोई बात नहीं छिपाता।’ दोनों एक पल चुप खड़े रहे। किसी को कोई बात समझ नहीं आ रही थी। तभी मुलिया ने मुस्कराकर कहा- यहाँ तुमने मेरी बाँह पकड़ी थी।
चैनसिंह ने शर्मिंदा होकर कहा- उसे भूल जाओ मूला। मुझ पर ना जाने कौन सा भूत सवार था। मुलिया खुशी से भरे गले से बोली- उसे क्यों भूल जाऊँ। उसी की शर्मिदगी की वजह से तो तुम ये शराफ़त दिखा रहे हो। गरीबी आदमी से करावे। तुमने मुझे बचा लिया। फिर दोनों चुप हो गये।
जरा देर के बाद मुलिया ने फिर कहा- तुमने समझा होगा, में हँसने-बोलने में मगन हो रही थी? चैनसिंह ने जोर देकर कहा- नहीं मुलिया, मैंने एक पल के लिए भी नहीं समझा।
मूला। क्यों
जो चाहे मुलिया मुस्कराकर बोली- मुझे तुमसे यही आशा थी, और है। हवा सिंचे हुए खेतों में आराम करने जा रही थी, सूरज रात की गोद में सोने जा रहा था, और उस धुधली रौशनी में चैनसिंह मुलिया को दूर जाते हुए देख रहा था! सीख -इस कहानी में मुंशीजी ने ये सीख दी है कि जब कोई अपनी मर्यादा लांधने लगे तो उसे रोकना और उसकी हरकत के लिए उसे शर्मिंदा करना कितना ज़रूरी होता है. अगर मुलिया ने हिम्मत दिखाकर चैनसिंह को डांटा नहीं होता तो उसे एहसास नहीं होता कि उसकी हरकतों से मुलिया को कितना अपमान महसूस होता था, मुलिया गरीब ज़रूर थी लेकिन अच्छे चरित्र की थी और अपने पति के प्रति समर्पित भी. कभी-कभी डांट इंसान को सही रास्ते पर लाने का काम करती है.