GHAR JAMAI by Munshi Premchand.

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हरिधन जेठ की दुपहर में गन्ने में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुआँ उठता नजर आ रहा था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी। उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गए। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दाखिल हो गये; पर हरिधन अंदर नहीं जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बर्ताव हो रहा था और ख़ासकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव में बेड़ियाँ-सी डाले हुए था। कल उसकी सास ने तो कहा, था, “मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारा जिंदगी- – भर का ठेका लिये बैठी हूँ क्या ?” और सबसे बढ़कर अपनी पत्नी की कठोरता ने उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। वह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार भी उसके मुँह से नहीं निकला, “अम्माँ, तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो !” बैठी गट-गट सुनती रही।

हरिधन जेठ की दुपहर में गन्ने में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर में से धुओं उठता नजर आ रहा था। छन-छन की आवाज भी आ रही थी। उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गए। दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दाखिल हो गये; पर हरिधन अंदर नहीं जा सका। इथर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बर्ताव हो रहा था और ख़ासकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव में बेडियाँ-सी डाले हुए था। कल उसकी सास ने तो कहा, था, “मेरा जी तुमसे भर गया, मैं तुम्हारा जिंदगी-भर का ठेका लिये बैठी हूँ क्या ? और सबसे बढ़कर अपनी पत्नी की कठोरता ने उसके दिल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। चह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार भी उसके मुँह से नहीं निकला, “अम्माँ, तुम गट-गट सुनती रही। क्यों इनका अपमान कर रही हो!” ‘बैठी शायद मेरी दुर्गति पर खुश हो रही थी। इस घर में वह कैसे जाय ? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए 7 और आज इस घर में जीवन के दस साल गुजर जाने पर यह हाल हो रहा है। में किसी से कम काम करता हूँ क्या ? दोनों साले मीठी नींद सोए रहते हैं और में बैलों को चारा-पानी देता हूँ; फसल काटता हूँ। वहाँ सब लोग पल-पल हुक्का पीते हैं, मैं आँखें बन्द किये अपने काम में लगा रहता हूँ। शाम के वक़्त घरवाले गाने-बजाने चले जाते हैं, में देर रात तक गाय-भैंसे दुहता रहता हूँ। उसका यह इनाम मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता। उल्टे गालियाँ मिलती है। उसकी पत्नी घर में से बाल्टी लेकर निकली और बोली- “जरा इसे कुएँ से भर लाओ । घर में एक बूंद पानी नहीं है।

हरिधन ने बाल्टी ली और कुएँ से पानी भर लाया। उसे जोर की भूख लगी थी, वो समझा अब खाने को बुलाने आएगी; मगर उसकी अंदर गयी तो वहीं की हो गई। हरिधन थका-माँदा भूख से बेचैन पड़ा-पड़ा सो गया।

अचानक उसकी पत्नी गुमानी ने आकर उसे जगाया।

हरिचन ने पड़े-पड़े कहा- “क्या है? क्या पड़ा भी नहीं रहने देगी या और पानी चाहिए?” गुमानी कड़वे स्वर में बोली खाने को तो बुलाने आयी हूँ।

पत्नी बाल्टी लेकर

“गुरात में हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के खाना खाकर चले जा रहे थे। उसके बदन में आग लग गयी। “मेरी अब यह नौबत आ गयी कि इन लोगों के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता। ये लोग मालिक हैं तो क्या में इनकी जूठी थाली चाटने वाला हूँ। मैं इनका कुत्ता हूँ, जिसे खाने के

बाद एक टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है”। यही घर है जहाँ आज से दस साल पहले उसका कितना आदर और स्वागत होता था। साले गुलाम बने रहते थे। तब उसके पास रुपये थे, जायदाद थी। गरीब है, उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया। अब उसे रोटियों के भी लाले पड़ गए A थे। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इसी वक्त अंदर जाकर सास को और सालों को भिगो- भिगोकर लगाये; पर गुस्सा सहन करके रह गया। वो

सास मुँह देखती रहती थी। पत्नी पूजा करती थी।

पड़े-पड़े बोला- “मुझे

गुमानी कहा-” नहीं खाओगे मेरी े बला से, ा नहीं तो ! खाओगे तो तुम्हारे ही पेट में जाएगा कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायगा”। अब आँसू बन गया। यह मेरी पत्नी है, जिसके लिए मैंने अपना सब कुछ मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बनाकर यह सब अब निकाल हरिधन की गिरती मद जाऊ! क्या करू। देना चाहते हैं।

बाला- मुझे भूख नहीं है। आज नहीं खाऊँगा”।

उसकी सास आकर बोली- “चलकर खा क्यों नहीं लेते जी, रूठते किस पर हो ? यहाँ तुम्हारे नखरे सहने का किसी में ज़ोर नहीं है। जो देते हो वह मत देना और क्या करोगे। तुमसे बेटी की शादी की है, कोई तुम्हारा जिदगी का ठेका नहीं लिया है।

हरिधन के मन पर गहरी चोट लगी, उसने कहा- “हाँ अम्माँ, मेरी भूल थी कि में यही समझ रहा था अब मेरे पास है कि क्या कि तुम मेरी जिंदगी का ठेका लोगी। जब मेरे पास दौलत थी तब सब कुछ आता था। अब गरीब हूँ, तो तुम क्यों बात पूछोगी”। बूढी सास भी मुँह फुलाकर अंदर चली गयी।

बच्चों के लिए बाप एक फालतू-सी चीज ऐश करने का सामान भर है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग होता है । माँ दाल -रोटी है। मोहनभोग उम्र-भर न भी मिले तो किसका नुकसान है; मगर एक दिन रोटी-दाल के दर्शन न हों, तो फिर देखिए, क्या हाल होता है। पिता के दर्शन कभी-कभी सुबह-शाम हो जाते हैं, वह बच्चे को उछालता है, दुलारता है, कभी गोद में लेकर या उँगली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसकी ज़िम्मेदारी है। वह परदेस चला जाय, तो बच्चे को परवाह नहीं होती; लेकिन माँ तो बच्चे का सब कुछ है। बच्चे एक मिनिट के लिए भी उससे दूरी नहीं सह सकते।

पिता कोई उसे परवाह नहीं, सिर्फ एक उकलालने-कुदाने वाला आदमी होना चाहिए: लेकिन माँ तो अपनी ही होनी चाहिए, सोलह आने अपनी; भी हो, वही रूप, वही रंग, वही प्यार, वही सब कुछ! कह अगर नहीं है तो बच्चे के जीवन का स्रोत ही मानो सुख जाता है, फिर वह शिव का नन्दी जैसा हो जाता है, जिस पर फूल या ज़ल चढ़ाना ज़रूरी नहीं, अख्तियारी है। हरिधन की माँ को गुजरे दस साल हो गए थे; उस बक्त उसकी शादी हो चुकी थी। वह सोलह साल का धा। पर माँ के मरते ही उसे लगा कि मैं कितना असहाय हूँ। जैसे उस पर उसका कोई अधिकार ही न रहा हो। बहुनों की शादी हो चुकी था। थी। भाई कोई दूसरा धा नहीं। बेचारा अकेले घर में जाते हुए भी डरता था। माँ के लिए रोता धा; पर माँ की परछाई से डरता था। जिस कोठरी में उसकी धी। माँ ने आखरी सांस ली थी, उधर वह देखता तक नहीं था। को बहुत प्यार करती थी। हरिधन को अब दूध ज्यादा मिलता था और काम भी कम करना पड़ता था। बुआ उससे घर में एक बुआ थी, वह रामधन को था,

बार-बार पूछती- “बेटा ! कुछ खाओगे?” बाप भी अब उसे ज्यादा प्यार करता, उसके लिए एक अलग गाय मँगवा दिया गया, दो कभी-कभी उसे कुछ पैसे दे देते कि दे देते कि जैसे चाहे खर्च करे। पर इन मरहमों से वह घाव नहीं भरता था; जिसने उसकी आत्मा को दुःख दिया था। यह दुलार और प्यार उसे बार-बार माँ की याद दिलाते। माँ की डांट में जो मजा था; वह क्या इस दुलार में था ? माँ से माँगकर, लड़कर, ठुनककर, रूठकर लेने में जो आनन्द था, वह क्या उपकार और दया भाव में था? पहले स्वस्थ अच्छे-से-अच्छे खाना उसे दिया जाता; पर उसे भूख ही नहीं लगती या, माँगकर खाता था, लड़-लड़कर खाता, पर अब वह बीमार रहने लगा था, साल-भर तक वह दशा में रहा। फिर उसकी दुनिया बदल गयी। एक नयी पत्नी जिसे लोग उसकी माँ कहते थे, उसके घर में आयी और देखते-देखते एक काली घटा की तरह उसके सिमटी हुई दुनिया पर छा गयी- सारी हरियाली, सारी रोशनी पर अंधकार का परदा पड़ गया। हरिधन ने इस नकली माँ से बात तक नहीं की, कभी उसके पास गया तक नहीं। बस एक दिन घर से निकला और अपने ससुराल चला आया। र बुलाया; पर उनके जीते-जी वह फिर उस घर में नहीं गया। जिस दिन उसके पिता के मौत की खबर मिली, उसे एक तरह जलन से भरी खुशी मिली । उसकी आँखों में आँसू की एक बूंद भी न आयी। इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर माँ के प्रेम का आनन्द मिला। उसकी सास ने ऋषि-वरदान की तरह उसके खाली जीवन को भर दिया था। जैसे रेगिस्तान । सालियों की शरारत में, सास के दुलार में, सालों के बात व्यवहार में और पत्नी के प्रेम में उसके जीवन में हरियाली की सारी इच्छाएं पूरी हो गयीं। उसकी सास कहती- “बेटा, तुम इस घर को अपना ही समझो, तुम्हीं मेरी आँखों के तारे हो। वह उससे अपने लड़कों की, बहुओं की शिकायत करती। वह दिल में समझता था कि सासूजी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं। मरते ही वह घर गया और की जायदाद को कड़ा करके रुपयों की थैली अपने हिस्से लिए हुए आ गया। अब उसका दुगना आदर-सत्कार होने लगा। उसने अपनी सारी जायदाद सास के चरणों पर अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अब तक उसे कभी-कभी धर की याद आ जाती थी। अब भूलकर भी उसकी याद न आती, मानो वह उसके जीवन का कोई भयानक कांड था, जिसे भूल जाना ही उसके लिए अच्छा था। वह सबसे पहले उठता, सबसे ज्यादा काम करता, उसकी मेहनत और लगन देखकर गाँव के लोग दाँतों तले उँगली दबाते थे। उसके ससुर के भाग्य की तारीफ़ करते जिसे ऐसा दामाद मिला था; लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गये, उसका मान-सम्मान घटता गया।

वो पहले देवता, फिर घर का आदमी, अंत में घर का नौकर बन गया। रोटियों में भी बाधा पड़ गयी। उसका अपमान होने लगा। अगर घर के लोग भूखें मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता, तो उसे जरा भी शिकायत नहीं होती। लेकिन जब वो इन लोगों का ताव देखता तो सोचता सिर्फ मैं ही दूध की मक्खी बना दिया गया हूँ, तो उसके दिल की गहराई से एक लम्बी, ठंडी आह निकल आती। अभी उसकी उम्र पच्चीस साल ही तो थी। बाकी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी? और तो और, उसकी पत्नी ने भी उससे आँखें फेर लीं। यह उस तकलीफ का सबसे कुर नज़ारा था।

हरिधन तो उधर भूखा -प्यासा,चिंता में जल रहा था, इधर घर में सास और दोनों सालों में बातें हो रही थीं। गुमानी भी उनकी हाँ-में हाँ मिलाती जाती थी। बड़े साले ने कहा-“हम लोगों की बराबरी करते हैं। यह नहीं समझते कि किसी ने उनकी जिंदगी भर का ज़िम्मा थोड़े ही लिया है। दस साल हो गये।

इतने दिनों में क्या लाखों नहीं खा गये होंगे?”

छोटे साले बोले- “मज़दूर हो तो आदमी डाँटे भी, अब इनसे कोई क्या कहे। न जाने इनसे कभी पिंड छूटेगा भी या नहीं। अपने दिल में समझते होंगे, मैंने लाखों रूपए नहीं दिये हैं क्या ? लेकिन यह नहीं समझते कि उनके पैसे कब के उड़ चुके

सास ने गंभीर भाव से कहा- “बड़ी भारी खुराक है उसकी !”

गुमानी माँ के सिर से जूँ निकाल रही थी। गलते हुए दिल से बोली- ‘निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है ? बड़े साले ने कहा – “खाने की कोई बात नहीं है। जिसकी जितनी भूख हो उतना खाय, लेकिन कुछ पैदा भी तो करना चाहिए!”

छोटे साले ने कहा- “मैं तो एक दिन कह दूँगा, अब अपना रास्ता हूढिये, हमने आपका कर्जा नहीं खाया है”। गुमानी घरवालों की ऐसी बातें सुनकर अपने पति से नफरत करने लगी थी। अगर वह बाहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान-सम्मान होता, वह भी रानी बनकर रहती। न जाने क्यों, कहीं बाहर जाकर कमाते हुए उसकी नानी मरती है। गुमानी की अक्ल और सोच अभी तक बिलकुल

बच्चों जैसी थीं थीं। उसका अपना कोई घर नहीं था। उसी घर का अच्छा-बुरा उसके लिए भी पहले था। वह भी उन्हीं शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्हीं आँखों से देखती जैसे उसके घरवाले देखते

थे।

संच ती है, कुछ पैसे दे दिए तो क्या हमें खरीद लिया? दस साल में इतने पैसे होते ही क्या हैं। डेढ़ लाख ही तो साल भर के हुए। क्या दो आदमी साल भर में डेढ़ लाख भी नहीं खायेंगे। फिर कपड़े-लत्ते, दूध-घी, सभी कुछ तो है। दस साल हो गये, एक पीतल का छल्ला तक नहीं बना। घर से निकलते तो

जैसे इनकी जान निकलती है। सोचते हैं जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जनम-भर होती रहेगी। यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी, अब और बात बहू तो पहले ससुराल जाती है तो उसका कितना स्वागत होता है।

उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गाँव-मुहल्ले की औरतें उसका मुँह देखने आती हैं और रुपये देती हैं। महीनों उसे अच्छा खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, कोई काम नहीं कराया जाता; लेकिन छ: महीनों के बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता, वह घर की मुर्गी दाल बराबर हो जाती है। उनके घर में मेरी भी तो वही हालत होती। फिर काहे का रोना। जो यह कहो कि में तो काम करता हूँ, तो तुम्हारी भूल है, मज़दूर की और बात है। उसे आदमी डाँटता भी है, मारता भी है, जब चाहता है, रखता है, जब चाहता है, निकाल देता है। और तो और उससे कसकर काम भी करवाता है। यह नहीं

कि जब जी में आया, कुछ काम किया, जब जी में आया, पड़कर सो रहे।

हरिवन अभी पड़ा अंदर-ही-अंदर जल रहा था, कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले- “भैया, उठो तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे ? खेत में सारा काम पड़ा हुआ है”। हरिधन चट उठ बैठा और तेज़ आवाज़ में बोला- “क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है।

दोनों साले हक्के-बक्के हो गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बांधे हाजिर रहा. वह आज अचानक इतना आत्माभिमानी हो जाय, यह उनको चौंका देने के लिए काफी था। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा।

हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गये हैं, तो एक धक्का और देने की तेज़ इच्छा को न रोक सका। उसी ढंग से बोला- “मेरी भी आँखें हैं। मैं अंधा नहीं हूँ, न बहरा हूँ। छाती फाड़कर काम करूँ और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊँ ऐसे गधे और कहीं होंगे!”

अब बड़े साले भी गर्म हो गए -“तुम्हें किसी ने यहाँ बाधेकर तो नहीं रखा है।

अबकी हरिधन के पास कोई जवाब नहीं था।

बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा- अगर तुम यह चाहो कि जन्म-भर नए जमाई बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार

बाल नहीं है”। हरिधन ने आँखें निकालकर कहा- “क्या

बड़े ने कहा – “यह कौन कहता है ?”

मैं तुम लोगों से कम काम करता हूँ ?”

हरिधन- “तो तुम्हारे घर की नीति है क्या कि जो सबसे ज्यादा काम करे वही भूखा मर जाय ?” बड़े ने जवाब दिया -“तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुँह में निवाला डाल देता ?”

हरिधन ने होंठ चबाकर कहा- “मैं खुद खाने नहीं गया ये कहते तुम्हें शर्म नहीं आती ?” क्यों क्या मेरी बहन तुम्हें बुलाने नहीं आई थी ?

छोटे साले ने कहा- “आमाँ भी तो आयी थीं। तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं है, तो क्या करती।

सास अंदर से लपकी चली आ रही थी। यह बात सुनकर बोली- “कह-कहकर हार गयी, कोई उठे ही नहीं तो मैं क्या कर?” रामधन ने जहर, खून और आग सामने रूखी रोटी का टुकड़ा फेंक आवाज़ में कहा- मैं तुम्हारे लड़कों का झूठा खाने के लिए हूँ क्या? मैं कुत्ता हूँ कि तुम लोग खाकर मेरे हुई बुढ़िया ने ऐंठकर कहा- “तो क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ?”

हरिधन हार गया। बुढ़िया ने एक ही बात से ऐसी चोट की कि उसका काम तमाम कर दिया। उसकी तनी हुई भवें दीली पड़ गयीं, आँखों की आग बुझ गयी, फडकते हुए नाक शांत हो गये। किसी घायल इंसान की तरह वह जमीन पर गिर पड़ा। ‘क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ?’ यह शब्द एक लंबे भाले की तरह उसके दिल में चुभते चले गए, न दिल का अंत था, न उस भाले का सारे घर ने खाया; पर हरिधन नहीं उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मनाकर थक गये। लेकिन हरिधन नहीं उठा:

वहीं दरवाज़े पर एक खाट पर पड़ा रहा। उसे उठाकर सबसे अलग कुएँ पर ले गया और ज़मीन पर बिछाकर सो गया। काफी रात हो चुकी थी। अनंत रोशनी में चमकते तारे बच्चों की तरह खेल रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आँखे भींचकर फिर खोल देता, कोई बहादुर बच्चा छलांग भरकर एक पल में उस बड़ी सी जगह को पार कर लेता और न जाने कहाँ छिप जाता। हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह खेला करता था। उसकी बचपन की यादें उन्हीं चमकीले तारों की तरह चमक रही थीं। वह अपना छोटा सा घर, वह आम के बाग, जहाँ वह केरियोँ चुना करता था, वह मैदान जहाँ वह कबड्डी खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फिर अपनी ममता से भरी माँ की मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गयी। उन आँखों में कितनी ममता थी, कितनी दया थी। उसे ऐसा लगा मानो उसकी माँ आँखों में आँसू भरे, उसे गले से लगा लेने के लिए हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही थी। वह उस मधुर भावना में खुद को भूल गया। उसे लगा जैसे माँ ने उसे गले से लगा लिया और उसके सिर पर हाथ फेर रही थी। वह रोने लगा, फूट-फूटकर रोने लगा। उसी सम्मोहित दशा में उसके मुँह से यह शब्द निकला, *अम्मा, तुमने मुझे भुला दिया। देखो, तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है ? कोई उसे पानी भी नहीं पूछता। क्या जहाँ तुम हो, वहाँ मेरे लिए जगह नहीं है ?” तभी गुमानी ने आकर पुकारा- “क्या सो गये तुम, चलकर खा क्यों नहीं लेते ? कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे ?”

हरिधन उस कल्पना-जगत् से बेरहम हकीकत में आ गया। वही कुएँ था, वही फटा हुआ खाट और गुमानी सामने खड़ी कह रही थी, कब तक कोई तुम्हारे लिए बैठा रहे!

हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला- “भला तुम्हें मेरी सुध तो आयी। मैंने तो कह दिया था, मुझे भूख नहीं है”।

गुमानी- “तो कितने दिन नहीं खाओगे ?” अब इस घर का पानी भी नहीं पीऊँगा, तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं?

पक्के इरादे से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली- “कहाँ जा रहे हो?” हरिधन ने मानो नशे में कहा- “तुझे इससे क्या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना, मुझसे कहा नहीं।

गुमानी आपत्ति के भाव से बोली- “तुम बताते क्यों नहीं, कहाँ जा रहे हो ?”

तू मेरे साथ चलेगी या नहीं?

जब तक तुम बता नहीं दोगे, मैं नहीं जाऊँगी।’

तो पता चल गया कि तू नहीं जाना चाहती। मुझे इतना ही पूछना था, नहीं तो अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता। यह कहकर वह उठा और अपने घर की ओर चला। गुमानी पुकारती रही, सुन लो, सुन लो; पर उसने पीछे मुडकर भी न देखा।

तीस मील की दूरी हरिधन ने पाँच घंटों में तय की। जब वह अपने गाँव के आम के बागीचे के सामने पहुँचा, तो उसकी भावना सुबह की सुनहरी गोद में खेल रही थी। उन पेड़ों को देखकर उसका बेचैन दिल नाचने लगा। मंदिर का वह सुनहरा कलश देखकर वह इस तरह दौड़ा मानो एक छलाँग में उसके ऊपर जा पहुँचेगा। वह तेज़ी से दौड़ा जा रहा था मानों उसकी माँ गोद फैलाये उसे बुला रही हो। जब वह आम के बाग में पहुँचा, जहाँ डालियों पर बैठकर वह हाथी की सवारी का आनन्द लेता था, जहाँ की कच्ची बेरों और लिसोड़ों में स्वर्ग जैसा स्वाद था, तो वह बैठ गया और ज़मीन पर सिर झुका कर रोने लगा, मानो अपनी माँ को अपनी दर्द की कहानी सुना रहा हो।

वहाँ की हवा में, वहाँ की रौशनी में, मानो कण-कण में उसकी माँ का प्यार समाया हुआ था, वहाँ की ज़मीन का एक एक कण माँ के पैरों के निशान से पवित्र थी, माँ के दुलार में डूबे हुए शब्द अभी तक जैसे आसमान में गूंज रहे थे। इस हवा और इस आकाश में न जाने कौन-सी संजीवनी थी जिसने उसके दुःख से भारी दिल को बचपने के जोश से भर दिया था। वह एक पेड़ पर चढ़ा और आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। सास के वह कठोर शब्द, पत्नी की निर्दयीता के वो घाव, सारा अपमान वह भूल गया। उसके पाँव फूल गये थे, तलवों में जलन हो रही थी; पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न

तभी अचानक रखवाले ने पुकारा- “बह कोन ऊपर चढ़ा हुआ है रे? उतर अभी नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूंगा कि वहीं ठंडे हो जाओगे।

उसने कई गालियाँ भी दीं। इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरिधन को स्वर्ग जैसा आनंद मिल रहा था। वह डालियों में छिप गया, कई आम

काट-काटकर नीचे गिराता, और जोर से ठहाके मारकर हसता। ऐसे जी खोलकर ना जाने वो कितने दिनों से नहीं हसा था। रखवाले को वह हँसी जानी पहचानी लगी। मगर हरिचन यहाँ कहाँ ? वह तो ससुराल की रोटियाँ तोड़ रहा है। कैसा हंसमुख था, कितना चंचल न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ होगा? पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था। अब गाँव में ऐसा कौन है ?

दो डाँटकर बोला- वहाँ बैठे-बैठे हँसोगे, तो आकर सारी हँसी निकाल हूँगा, सीधे से उतर आओ”। वह गालियाँ देने जा था कि एक मुठली आकर उसके सिर पर लगी। वो सिर सहलाता हुआ बोला- “यह कौन शैतान है ? नहीं मानता, ठहर तो, मैं आकर तेरी खबर लेता हूँ

उसने अपनी लकड़ी नीचे रखी और बंदरों की तरह चटपट ऊपर चढ़ गया। देखा तो हरिधन बैठा मुस्कुरा रहा है। वो चकित होकर बोला- “अरे हरिचन । यहाँ कब आये ? इस पेड़ पर कब से बैठे हो ?”

तुम ३ दोनों बचपन के दोस्त वहीं गले मिले।

यहाँ कब आये ? चलो, घर चलो भले आदमी, क्या वहाँ आम भी नसीब न होते थे ?

हरिधन ने मुस्कुराकर कहा- “मैंगरू, इन आमों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आमों में नहीं है। गाँव का क्या रंग-ढंग है ?” मैंगरू- “सब ठीक ही है भैया! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ लिया। इस तरह कोई अपना गाँव-घर छोड़ देता है क्या ? जब से तुम्हारे पिता मरे सारी

गृहस्थी ही चौपट हो गयी। दो छोटे-छोटे लड़के हैं, वो बेचारे क्या कर लेंगे?”

हरिचन बोला – “मुझे अब उस घर से क्या वास्ता है भाई ? मैं तो अपना ले-दे चुका। यहाँ मज़दूरी तो मिलेगी न? तुम्हारी गाय मैं ही चरा दिया कगा;

बस मुझे खाने को दे देना

मैंगरू ने कहा- “अरे भैया कैसी बात करते हो, तुम्हारे लिए जान तक हाजिर है। क्या ससुराल में अब नहीं रहोगे ? कोई चिंता नहीं। पहले तो तुम्हारा घर ही है। उसे संभालो। छोटे-छोटे बच्चे हैं, उन्हें पालो। तुम नयी अमाँ से बेवजह डरते थे। बड़ी सीधी हे बेचारी। बस, अपनी माँ ही समझो, तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे?”

हरिधन ने कहा – “उसका अब मुँह नहीं देखेंगा। मेरे लिए वह मर गयी”।

मुंगरू बोला- “तो दूसरी सगाई हो जायगी। अबकी ऐसी पत्नी ला दूंगा कि उसके पैर धो-धोकर पिओगे; लेकिन कहीं पहली भी आ गयी तो ?”

हरिधन बोला “वह नहीं आयेगी।

हरिधन अपने घर पहुँचा तो दोनों भाई, ‘भैया आये! भैया आये !’ कहकर अंदर दौड़े और माँ को खबर दी। उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शांति का अनुभव हुआ मानो वह अपनी माँ की गोद में बैठा हुआ हो। इतने दिनों ठोकरें खाने से उसका मन कोमल हो गया था। जहाँ पहले अभिमान था, हेकड़ी थी, वहाँ अब निराशा थी, हार थी, दुआ और प्रार्थना थी। बीमारी का जोर कम हो चला था; अब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थी, किले की दीवारें छिद चुकी थीं, अब उसमें घुस जाना मुश्किल नहीं था। वही घर जिससे एक दिन उसका मोह खत्म हो गया था, अब गोद फैलाये उसे को तैयार था हरिधन का मन यह आसरा पाकर मानो तूप्त हो गया था। देने । सहारा शाम को उसकी सौतेली माँ ने कहा- “बेटा, तुम घर आ गये, हमारे धन्य भाग । अब इन बच्चों को पालो; माँ का नाता न सही, बाप का नाता तो है ही।

मुझे एक रोटी दे देना, खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी। तुम्हारी माँ से मेरा बहन का नाता है। उस नाते से भी तो तुम मेरे बेटे होते हो ?” हरिधन को अपनी माँ के लिए तरसती आँखों में सोतेली माँ के रूप में अपनी माँ के दर्शन हुए। घर के एक-एक कोने में माँ की यादें चाँदनी की तरह फैली नर हुई थी, सौतेली माँ का बुढ़ापा से ढलता चेहरा भी उसी नुर से चमक रहा था।

दूसरे दिन हरिधन फिर कंधे पर हल रखकर खेत को चला। देने वाला बन गया था. किसी के दरवाजे पर भिखारी नहीं चहरे पर खुशी थी और आँखों में गर्व। वह अब किसी के सहारे नहीं था; बल्कि सहारा था, बल्कि घर का रक्षक बन गया था।

एक दिन उसने सुना, गुमानी ने दूसरी शादी कर ली। वो माँ से बोला- “तुमने सुना काकी ! गुमानी ने शादी कर ली”। काकी ने कहा- “क्या घर बसा लेना मजाक है ? समाज में ऐसा अनर्थ? पंचायत नहीं, अदालत तो है?” हरिधन ने कहा- “नहीं काकी, बहुत अच्छा हुआ। ला, महाबीरजी को लडडू चढ़ा आऊँ। मैं तो डर रहा था, कहीं मेरे गले न आ पड़े। भगवान ने मेरी सुन है।

ली। मैं वहाँ से यही ठानकर चला था कि अब उसका मुँह नहीं देखँगा”। सीख इस कहानी में मुंशी प्रेमचंद जी ने ये दिखाया है कि इस दुनिया में जिसकी जेब भरी होती है, इज्ज़त सिर्फ़ उसी की की जाती है. हरिधन जब तक पैसे वाला था तब तक ससुराल में उसका बहुत सम्मान होता लेकिन उसकी जेब खाली होते ही उसका अपमान किया जाने लगा.

दूसरा, हमारा मान सम्मान तभी तक होता है जब तक किसी के घर में मेहमान बनकर जाते हैं. जब हम उस घर का हिस्सा बनने की कोशिश करते हैं

तो आदमी का सारा मान ख़त्म हो जाता , लोग उसे नीची नज़रों से देखने लगते हैं. हरिधन वेसे तो सारा काम करता था लेकिन पेसे कमाकर नहीं लाता था जिस वजह से वो घर के लोगों की आँखों में खटकने लगा था.

तीसरा, इंसान को कभी अपना घर नहीं छोड़ना चाहिए नहीं तो वो एक तरह से अनाथ हो जाता है. उसकी बुनियाद, उसकी नीव हिल जाती है, जो सुख, में किसी सम्मान, चैन हमें अपने घर में मिलता है वो दुनिया जगह नहीं मिल सकता. हरिधन ने अपनी सौतेली माँ को समझने की कोशिश ही नहीं की, उसने उन्हें मौका ही नहीं दिया. वो दूसरी माँ थी तो बस उसने मान लिया कि वो बुरी होगी. हम भी अक्सर यही गलती करते हैं. हम लोगों के लिए बड़ी जल्दी अपनी राय बना लेते हैं और उन्हें गलत समझ लेते हैं लेकिन उन्हें समझने की कोशिश नहीं करते. अगर हम दूसरों को समझने की थोड़ी कोशिश भी करने लगे तो ना जाने कितने घर कितने रिश्ते टूटने से बच जाएंगे जाएँगे, है ना?

इस कहानी में इस बात भी बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है कि लोग बस माँ की ममता को ही महत्त्व देते हैं, पिता को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. हरिधन ने अपनी माँ के गुज़रने के बाद बस ये मान लिया कि उसकी दुनिया उजड गई है. उसने अपने पिता के प्यार की परवाह ही नहीं की और ना अपने बेटे होने का फ़र्ज़ निभाया. माता पिता के प्यार में तुलना नहीं की जा सकती. वो दोनों ही अपनी संतान से बिलकुल एक जैसा प्यार करते हैं बस फ़र्क सिर्फ इतना सा है कि माँ प्यार जता देती है और पिता प्यार जता नहीं पाते. एक औरत के लिए उसका पति ही उसका अभिमान होता है. हरिधन के पैसा ना कमाने कारण गुमानी अपने ही घर में शर्मिन्दा महसूस करती थी ओर इसी कारण उसने हरिधन की परवाह और इज्जत करना बंद कर दिया था. इसलिए अगर आप सम्मान के साथ जीना चाहते हैं कभी किसी के सहारे ना जिए, कभी अपना घर ना छोड़े और अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाएं.

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