
About Book
क्या आपके मन में सवाल नहीं आता कि दुनिया में फ़ैल रहे वायरस और महामारी आख़िर कहाँ से जन्म लेते हैं, कहाँ से आते हैं?तो ये बुक आपके सवालों का जवाब देगी. ईटिंग एनिमल्स में, आप फैक्ट्री फार्स और बूचडखानों में चल रहे घिनौनी हरकतोंकेरहस्यों से रूबरू होंगे. आप हमारे एनवायरनमेंट, हमारे हेल्थ, मोरल वैल्यूज और फ्यूचर पर मीट इंडस्ट्रीके नेगेटिव प्रभावों के बारे में जानेंगे. 2017 में, इस बुक पर एक फ़िल्म भी बनाई गई थी.
यह समरी किसे पढ़नी चाहिए?
हर माता पिता को ताकि वो अपने परिवार के लिए एक बेहतर और healthy खाने का चुनाव कर सकें.
जो लोग मीट खाना पसंद करते हैं ख़ासकर फ़ास्ट फूड, प्रोसेस्ड मीट और ग्रोसरी के फ्रोज़ेन मीट.
. हर समझदार और सेंसिबल इंसान को जो यह मानते हैं कि हमें जानवरों के जीवन का सम्मान करना चाहिए
ऑथर के बारे में
जोनथन सफ़रान फ़ॉयरएक नॉवेलिस्ट और कॉलेज इंस्ट्रक्टर हैं. उन्होंनेचार नॉवेल और दो नॉन-फिक्शन किताबें लिखी हैं. वो NYU में क्रिएटिव राइटिंग सिखाते हैं. जोनथन Farm Forward के बोर्ड मेंबर भी हैं जो एक नॉन-प्रॉफिट आर्गेनाईजेशन है जिसका मकसद है लंबे समय तक चलने वाले एग्रीकल्चर, healthy फूड चॉइस और एनिमल राइट्स को बढ़ावा देना.
इंट्रोडक्शन (Introduction)
पोल्ट्री और मीट इडस्ट्री तो कंट्रोल से बाहर होती जा रही है. हमारे स्वाद की भारी कीमत जानवरों और एनवायरनमेंट को चुकानी पड़ रही है. तो दुनिया
में मीट की बढ़ती डिमांड को एग्रीकल्चर इंडस्ट्री कैसे सप्लाई कर पा रहा है? फ़ास्ट फूड चेन के डेली ऑर्डर्स को मीट producers कैसे पूरा कर पाते हैं ? इतनी भारी डिमांड होने के बावजूद भी कैसे ग्रोसरी स्टोर्स में सस्ते अंडों और फ्रोज़न मीट का अंबार लगा रहता है जिसे हम इतने चाद से एन्जॉय करने करते हैं?
ये बुक सिर्फ vegetarians के लिए ही नहीं बल्कि मीट लवर्स के लिए भी है. इस बुक के ज़रिये आप मीट इंडस्ट्री के घिनौनेसच के बारे में जानेंगे, केस साथ जो अत्याचार हो रहा है आप उस बारे में जानेंगे. कहीं ऐसा ना हो कि ये बुक आपको सोचने पर मजबूर कर दे कि असल में जानवर है कौन? वो जो दिखने में जानवर जैसे हैं या हम जो जानवर जैसे दिखते तो नहीं लेकिन शायद उनसे ज्यादा खूंखार हैं. हो सकता है कि सब सच जानने के
बाद आपकी इंसानियत आपसे सवाल करने लगे.
फैक्ट्री फार्म (Factory Farm)
क्या आप भी जंक फूड के दीवाने हैं? क्या Kfc के चिकन बर्गर और Mcdonalds के चिकन नगेट्स का नाम सुन कर आपके मुँह में पानी आ जाता है? क्या आप अक्सर सुपरमार्केट से प्रोसेस्ड मीट प्रोडक्ट्स खरीदते हैं? इनमें प्लास्टिक से सील किया गया चिकन, चिकन विंग्स, हॉटडॉग्स, बीफ़ पैटीज़
सब शामिल हैं जिन्हें ग्रोसरी के फ्रिज में स्टोर किया जाता है. आपका एक बात जानना बहुत ज़रूरी है. अक्सर ये पोल्ट्री और मीट के प्रोडक्ट्स जानवरों को बेहद तकलीफ़ पहुँचा कर बनाए जाते हैं.
एक समय था जब अमेरिका के 100%। 6 फार्म फॅमिली फार्म हुआ करते थे. ये 1970 से पहले की बात है. इनफार्म्स और जानवरों की देखभाल करने के लिए पूरा परिवार साथ मिलकर काम करता था. फार्म पेशेंस और कड़ी मेहनत का सिंबल होते हैं. किसान अपने जानवरों का बहुत खयाल रखते थे
क्योंकि एक खुश और healthy जानवर का मीट बहुत टेस्टी होता है.
हालांकि, आज अमेरिका के 99% फार्म्स फैक्ट्री फार्म में बदल चुके हैं. इनके मालिक कोई परिवार नहीं बल्कि बड़े बड़े corporations होते हैं. फार्म में किसी किसान नामो निशान तक नहीं है. उसमें बस दो चीजें शामिल हैं जानवरों की हत्या और उनका चीखें. लेकिन ये तो सिर्फ शुरुआत है, अभी तो बहुत कुछ ऐसा है जो आपको पता नहीं है.
corporation लोगों को फैक्ट्री फार्म चलाने के लिए encourage करते हैं, वो कॉन्ट्रेक्ट तैयार हैं जिनमें रूल्स बताए जाते हैं कि जानवरों को क्या खिलाना है, कितना खिलाना, कब उन्हें मारना है और कैसे उनके मीट को प्रोसेस कर के ट्रांसपोर्ट करना है. उनका सिर्फ एक ही मकसद होता है
प्रोडक्शन बढ़ा कर कॉस्ट कम करना.
पोल्ट्री के एक किसान ने एक दर्दनाक कहानी बताई. मुर्गियों को एक बाड़े (बानी) के अंदर बंद कर दिया जाता है और तहाँ बिलकुल रौशनी नहीं होती.
24 घंटे इतना गहरा अँधेरा होता है कि आपको अपना हाथ तक नहीं दिखेगा. उन्हें आर्टिफीसियल तरीके से बनाया गया चारा खिलाया जाता है और उस अंधकार में तीन हफ़्ते के लिए छोड़ दिया जाता है. फ़िर उसके बाद, दिन में 20 घंटे के लिए लाइट चालू की जाती है ताकि मुर्गियों को लगे कि स्प्रिं सीजन आ गया है जिसका मतलब समय हो चुका है.
उसके बाद मुर्गियां अंडे देती है. पोल्ट्री इंडस्ट्री में इस सिस्टम का ज़ोरों शोरों से इस्तेमाल किया जाता है और मुर्गियां पूरे साल अंडे देती हैं चाहे सच में स्प्रिंग सीजन हो या ना हो. मुर्गियों को कभी पता नहीं चलता कि मौसम बदला है या नहीं क्योंकि उन्हें हमेशा बंद करके रखा जाता है. एक मुर्गी साल में एवरेज 300 अंडे देती है जो उसके बायोलॉजिकल और नेचुरल प्रोसेस से तीन गुना ज्यादा तो सोचिये, वया ये नेचर के साथ खिलवाड़ नहीं हुआ? एक साल के बाद इन मुर्गियों को स्पेंट मुर्गियाँं कहा जाता है यानी अंडे देने की इनकी बायोलोजिकल साइकिल पूरी हो जाती है और अब वो उतने अंडे नहीं दे सकती जितना एक साल पहले देती थी, इसलिए फार्म के अब ये किसी काम की नहीं होती और उन्हें मार दिया जाता है. ये सिस्टम ना सिर्फ प्रोडक्शन बढ़ाता है बल्कि चिकन प्रोडक्ट्स को बहुत सस्ता भी बनाता है. पोल्ट्री इंडस्ट्री ने जान लिया है कि इस तरह मुर्गियों को पालना सस्ता होता है.
जो मुर्गियां काम की नहीं उन्हें मरने दो और हर साल एक नए बैच के साथ शुरुआत करो, सुपरमार्केट में मीट प्रोडक्टस पर लगे लेबल जिन पर लिखा होता है फ्री-रेंज, आर्गेनिक, केज-फ्री, फ्रेश चिकन ये सत्य एक बहुत बड़ा झूठ है, ये सब फैक्ट्री फार्म से आते हैं.यकीन मानिए जिस दिन आपको सच्चाई का पता चलेगा कि कैसे इन जानवरों को बेरहमी से मारा जाता है, तो आपका
favourite चिकन बर्गर का एक निवाला भी आपके गले से नीचे नहीं उतरेगा,
मीट इंडस्ट्री के नेगेटिव इफेक्ट्स और उसमें चल रही निर्मम हत्याएं आपकी आँखें खोल देगा. एनवायरनमेंट की दुर्दशा, जानलेवा पलू वायरस, तेज़ी से बढ़ती हार्ट की बीमारियाँ, स्टोक और कैंसर तक नहीं. तो अब समय है जागरूक क न अनगिनत साइड इफेक्ट्स में से कुछ हैं जो ये ज़हर खाने से तेज़ी से फ़ैल रहा है और हमें इसकी भनक का. आप सोच रहे होंगे कि ऐसा सिर्फ अमेरिका में होता है. लेकिन मीट इंडस्ट्री में यही कल्चर दुनिया के हर देश ने अपना लिया है फिर चाहे वो युरोप हो,
चाइना हो या इंडिया. Kfc और Mcdonaids के हर एक ब्रांच के लिए हर दिन लाखों चिकन और दूसरे जानवरों के साथ बेरहमी से पेश आया जाता है. उसमें उनकी चीखें और दर्द शामिल होती हैं जो हमें ना दिखाई देती ना सुनाई देती है क्योंकि हमें तो बस अपने जीभ का स्वाद चाहिए, है ना?
द फर्स्ट फैक्ट्री फार्मर (The First Factory Farmer)
सेलिया स्टील (Celia Steele) डेलावेयर (Delaware) की एक हाउसवाइफ थी. 1923 में उनके साथ एक मज़दार वाक्या हुआ. सेलिया मुर्गियों के एक छोटे ग्रुप की देखभाल करती थी जिसके लिए उन्हें पैसे मिलते थे. एक दिन, उन्होंने 50 चूजों (मुर्गी के बच्चे) का आर्डर दिया ताकि वो उन्हें पाल सके. लेकिन 50 की जगह सेलिया को 500 चूज़े मिले. सेलिया ने उन्हें लौटाया नहीं बल्कि सबको पालने का फ़ैसला किया. सैलिया ने इन चूज़ों के साथ एक्सपेरिमेंट करने के बारे में सोचा. सर्दियों का मौसम शुरू होने वाला था. उसने सोचा क्या होगा अगर वो उन चूज़ों को सर्दियों में बाहर के बजाय अंदर रखेंगी तो? क्या वो जिंदा रह पाएँगे?
सेलियाने मार्केट में नए डेवेलोप किए गए चारों का इस्तेमाल किया. उसे खाने के बाद सच में वो चूज़े कई महीनों तक अंदर स्टोरेज में अच्छे से सर्वाइव कर पाए. 1926 तक सेलिया के 500 चूजे बढ़ कर 10,000 मुर्गियां बन गए थे, 1935 तक बो कुल मिलाकर 2.50,000 हो गए थे. उस समय के दौरान, ज़्यादातर फार्म्स में सिर्फ 23 मुर्गियों हुआ करती थीं. इस तरह सिर्फ 10 सालों में सेलिया के साथ हुए एक मज़ेदार किस्से के कारण डेलावेयर दुनिया का पोल्ट्री कैपिटल बन गया. उस एरिया में रहने वालो की कमाई का साधन पोल्ट्री फार्मिंग बन गया था था. था.
सेलिया की मुर्गियों को महीनों तक ना धूप मिली ना चलने फिरने की जगह. जहां उन्हें रखा गया था वहाँ बहुत भीड़ हो गई थी. लेकिन चारे में मिलाए गए विटामिन डी और विटामिन ए के कारण वो सब जिंदा थे.
1930 2 में बड़े बिजनेसमैन जॉन टायसन और आर्थर परड्यू ने पोल्ट्री इंडस्ट्री में कदम रखा. उन्होंने बड़े और विशाल फैक्ट्री फार्म्स को सेट किया और इंडस्ट्रियल एग्रीकल्चर में तरह के इनोवेटिव टेक्निक्स को Introduce किया. इनमें से एक मेथड था डी-बीकिंग(de-beaking} यानी मुर्गी की चोंच को हटा देना ताकि उन्हें चोंच से आसपास की जगह तलाशने की जरूरत महसूस ना हो. दूसरा । था, automatic लाइट जो मुर्गियों के अंडे देने फर्स्ट चिकन ऑफ़ टुमॉरो The First Chicken of Tomorrow) 940 के साम साइकिल में हेर फेर करता था. मेमुर्गियों की ग्रोथ को बढ़ाने के लिए पोल्ट्री बिज़नेस में जेनेटिक्स की शुरुआत की गई. US Drug Administration (USDA)
समय की मदद से एक कांटेक्ट लांच किया गया जिसका नाम था “चिकन ऑफ़ टुमारो” इसका रूल ये धा कि जो भी कम से कम चारे का इस्तेमाल कर के एक तगड़े मुर्गी को तैयार करेगा वो जीतेगा, इस कांटेक्ट को कैलिफ़ोर्निया के चार्ल्स वॉनट्रेस ने जीता था उसकी मुर्गी को खुराक कम दी गई थी लेकिन उसका शरीर दिखने में एक रेसलर जितना स्ट्रोंग और मस्कुलर था, 1940 में चारे में एंटीबायोटिक भी मिलाया जाने लगा, बहुत सारी मुर्गियों को एक साथ बंद कर के रखने से बीमारी फैलने का खतरा होता है, इसका मकसद होता है उन बीमारियों को तो देखा आपने एक मुर्गी की जिंदगी के साथ किस तरह खिलवाड़ किया जाता है. अब मुर्गी बस अंडे देने की मशीन और मीट याऑयलर) के लिए स्तेमाल की जाने वाली एक सामान से ज्यादा कुछ नहीं थी. जिन मुर्गियों को सिर्फ उनके मीट के इस्तेमाल के लिए पाला जाता है उन्हें ब्रॉयलर कहते हैं. ब्रॉयलर का एवरेज साइज़ 65% हो गया था, उन्हें 50% कम खाना खिलाया जाता है. उनकी ग्रोथ का समय गिर कर 60% हो गया. मुर्गियां बड़ी और ताकतवर तो हो गई लेकिन उनकी उम्र अब भी कम थी. कहने का मतलब है कि फार्म का टारगेट होता है कि मुर्गियों को तेज़ी से बड़ा कर के जल्दी बेच को रोकना,
दो. अगर आप इसकी तुलना इंसानों से करते हैं तो ये बिलकुल ऐसा हुआ जैसे आप अपने बच्चों को सिर्फ विटमिन और एनर्जी बार खिला रहे हैं और 10 साल की छोटी उम्र में ही उनका वजन 300 pound हो जाता है. ठीक इसी तरह, मुर्गियों के पूरी तरह बड़े होने से पहले ही उन्हें मार दिया जाता है. पोल्ट्री इंडस्ट्री में मुर्गियों को बंद कर के रखना, एंटीबायोटिक्स देना, जेनेटिक्स का इस्तेमाल करना आम बात हो गई थी. इस सिस्टम में जहां एक तरफ़ ओनर्स के लिए ज्यादा प्रॉफिट और consumer के लिए ज्यादा अडे और मीट था, तो वहीं दूसरी ओर लाखों मुर्गियों का उदास छोटा सा जीवन जिसमें वो घुट घुट कर जीते हैं.
द स्टोरी ऑफ़ फ्रैंक रीस, द लास्ट पोल्ट्री फार्मर (The Story of Frank Reese, the last poultry farmer)
फ्रैंक रीस अमेरिका में इकलौते पोल्ट्री फार्मर थे जो फैक्ट्री फार्मिंग में शामिल नहीं थे, वो अपने टर्की (जो एक तरह का पक्षी होता है। को पुराने तरीके से नैचुरली बड़ा होने देते थे. उन्हें बचपन से ही टर्की बहुत आकर्षक लगते थे. फ्रैंक ने देखा कि वो सिर्फ़ बेहद खूबसूरत जीव ही नहीं बल्कि बहुत फ्रेंडली और चंचल भी होते हैं. फ्रैंक 60 साल से अपनी टर्की के साथ रह रहे थे. अब तो जैसे वो उनकी भाषा भी समझने लगे थे. जब कभी ट्की डरे हुए होते या बहुत excited होते तो एक अजीब से आवाज निकालते थे. मम्मी टर्की अलग अलग आवाज़ निकाल कर अपने बच्चों को अलर्ट करती जैसे “यहाँ से हट जाओ” या
“मेरे नीचे छुप जाओ”.
फ्रेंकके फार्म के आस पास से गुजरने वाले बच्चे ये सब देख कर दंग रह जाते. सारे पक्षी खुली हवा में धूप के नीचे आज़ाद घूमते, जो मन में आता वो करते. बच्चे फ्रैंक से पूछते, टर्की ऊपर पेड़ पर कैसे पहुँच गया?”, फ्रैंक कहते, “उन्होंने वहाँ तक उड़ान भरी है लेकिन बच्चे इस पर विश्वास नहीं कर पाते थे पात ध. इस अविश्वास का एक कारण था. ग्रोसरी में बेची जाने वाली टर्की तो बड़ी मुश्किल से चल पाती है इसलिए उसका उड़ना या उछलना तो दूर की बात है.
यहाँ तक कि वो तो नैचुरली बच्चे भी पैदा नहीं कर सकते थे. उन्हें तो खुद आर्टिफीसियल मेथड के इस्तेमाल से जन्म दिया गया था. फ्रैंक का कहना था कि जेनेटिक्स टर्की के नार्मल फंक्शन से छेड़छाड़ करती है.वो उन्हें लाचार और उदास बना देता है. जानवर फैक्ट्री फार्म की भीड़ में था ।
बीमार और दुखी अपनी मौत का इंतज़ार करते रहते हैं.
लेकिन फ्रैंक के टर्की अलग थे. उन्हें कभी एंटीबायोटिकया वैवसीन की ज़रुरत नहीं पड़ती थी क्योंकि वो स्वस्थ और खुश थे. वो बाहर की ठंड में अच्छे जिंदा रह सकते थे. फ्रैंक को यह कहने में गर्व होता था कि उनकी टर्की पूरी तरह बड़ी होती थी, उनके चोंच, नाखून, शरीर पूरी तरह डेवलप होते थे. फैक्ट्री में की तरह उनकी चोच को निकाला नहीं गया था. वो पुरा दिन बाहर घूमते जिससे उनकी अच्छी खासी एक्सरसाइज हो जाती थी. उनका इम्यून सिस्टम काफी स्ट्रॉग था क्योंकि उनके नेचुरल प्रोसेस से कोई छेडछाड नहीं की गई थी. फ्रैंक का कहना था कि फैक्ट्री के किसानों को समझ में आ गया था कि बीमार मुर्गियों को पालना ज्यादा फायदेमंद होता है. उनके पास मरे हुए जानवरों को जलाने की मशीन भी होती है,
फैक्ट्री फार्म जानवरों के genes के साथ खिलवाड़ करते हैं. वो जानवरों को एंटीबायोटिक और ग्रोध हॉर्मोन देते हैं जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते और फिर हम इन बीमार और दुखी जानवरों को बड़े ते हैं और अपने बच्चों को भी खिलाते हैं. एक दिन, फ्रैंक ने वहाँ के एक लोकल डॉक्टर से बात की. बच्चों के डॉक्टर ने कहा कि बच्चे ऐसी बीमारियों का शिकार हो रहे थे जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखा, इसमें ऑटो इम्यून डिजीज जैसे बच्चों को होने ताली डायबिटीज, अजीब तरह की स्किन एलर्जी और Infiamatory डिजीज जिसमें बॉडी के organs में सूजन होने लगती है शामिल थे. कई बच्चे ऐसे भी आए थे जिनका अस्थमा इतना भयंकर था कि उसे कंट्रोल करना नामुमकिन लग रहा n organs 4 নच्च्वों की बॉडी में होमोनेस के बदलाव होने लगे थे जो एक गंभीर बात है. था, समय से पहले ही बच्चों फ्रैंक ने अपने टर्की को वैसे ही पाला था जैसे सदियों से परंपरा चली आ रही थी. वो धीरे धीरे नेचुरल तरीके से बड़े होते थे, ज़्यादा चारा खाते थे. इस वजह से वो सब healthy थे और फ्रैंक इस बात से बहुत खुश थे, फ्रैंक अपने जानवरों की दिल से परवाह करते थे,वो हर रात बाहर खेत में जाकर टर्की को वापस घर के अंदर आने के लिए आवाज़ देते. उनके जानवर
उन्हें अच्छे से जानते थे इसलिए वो सब वापस आ जाते और फ्रैंक खेत का फेंस बंद कर देते. फ्रैंक के लिए सबसे मुश्किल समय तब होता था जब टर्की को बूचडखानेslaughter house) ले जाना पड़ता था. वो उनकी ओर देखते और कहते, प्लीज,मुझे माफ़ कर देना”
फ्लू वायरस (FIu Virus)
1918 में स्पैनिश फ्लू ने दुनिया में महामारी का रूप ले लिया था. सिर्फ 24 हफ्तों में पूरी दुनिया में 24 मिलियन लोगों की जान जा चुकी थी. आश्चर्य की बात ये थी कि बूढ़े या बच्चे इसके इन्फेक्ट नहीं हुए थे बल्कि जवान हुए थे जिनकी इम्यूनिटी सबसे ज़्यादा स्ट्रोंग होती है. सबसे ज़्यादा मौत 20 से 29 साल के बीच के लोगों की हुई थी. दुनिया का एक चौथाई हिस्सा इसकी चपेट में आ गया था. 1957 और 1968 में भी महामारी का प्रकोप फैला था लेकिन वो 1918 जितना भयानक नहीं
था. वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन (WHO) का कहना है कि महामारी के प्रकोप को टाला नहीं जा सकता, समय समय पर होती रहेंगी, एवरेज में, ये हर 27 साल में होता है.
2009 में स्वाइन फ्लू की महामारी फैली थी. ये बर्ड, पिग और इंसान तीनों के वायरस के कॉम्बिनेशन से हुआ था,स्टडी करने पर साइंटिस्ट्स को पता चला कि 1918 के स्पेनिश फ्लू असल में एवियन इन्फ्लुएंजा या बर्ड फ्लू से आया था. सच तो ये है कि हम कभी भी इन वायरस के exact कारण या जड़ का पता नहीं लगा सकते. लेकिन हम ये यकीन से कह सकते हैं कि ये वायरस “जूनोटिक” (zoonotic) होते हैं. इसका मतलब है कि ये फार्म के जानवर जैसे मुर्गियां, टर्की या पिग के साथ इंसान के कांटेक्ट से पैदा होते हैं.
जब से इंसान ने खेती करना सीखा है तब से खेतों और जानवरों से उसका एक गहरा रिश्ता रहा है. जानवर अक्सर हमारे घरों और पीने के पानी के पास पास ही गदगी फैला देते थे.साइंटिस्ट्स ने भी पता लगाया है कि फ्लू वायरस असल में उन पक्षियों से आया है जो मौसम बदलने पर एक जगह से दूसरी जगह चले जाते हैं.
हंस, बतख, टर्की, टर्न सभी अलग अलग किस्म के फ्लू के वायरस को कैरी करते हैं. बर्डस में HI से H6 का फ्लू स्ट्रेन होता है साथ ही NI से N6 तक होता है.
अक्सर ऐसा होता है कि ये बईस वायरस को लेकर दुनिया भर में उड़ते हैं. ये उनके मल के माध्यम से फैलता है जो हमारे झीलों और नदियों में गिरते फैक्ट्री फार्म के अंदर जिस प्रोसेस का इस्तेमाल किया जाता है उससे साफ़ जाहिर है कि ये वायरस हमारे खाने में भी मिल जाता है. इंसान सिर्फ HI, H2
और H3 के प्रति कमज़ोर या असुरक्षित होते हैं. पिग ।HI और H3 के प्रति कमज़ोर होते हैं. लेकिन आख़िर ये है क्या? H का मतलब होता है | Hemagglutinin. ये फ्लू वायरस को कवर करने वाले प्रोटीन होते हैं. वायरस एक बॉल की तरह दिखता है. इसके चारों ओर spikes होते हैं. ये spikes Hemagglutinin हैं. |Hero Agglutinin में रेड ब्लड सेल्स को एक साथ जोड़ने की ताकत होती है. वो एक ब्रिज की तरह काम करते हैं जो वायरस को हमारे ब्लड में फ्लो करने में में मदद करता है. Hemagglutinin हमारे रेस्पिरेटरी सिस्टम में सबसे ज़्यादा डैमेज करता है. एक जीव का वायरस दूसरे जीव के वायरस से जुड़ना शुरू करते हैं. इस तरह बर्ड्स, पिग्स और इंसानों में तवा शुरू होती वायरसम्युटेशन(परिवर्तन) होता चलिए अब दोबारा फैक्ट्री फार्म में होने वाली दुर्दशा की बात करते हैं. वहाँ बईस की genes से छेड़छाड़ किया जाता है ताकि उन्हें ज़्यादा muscular बनाया जा सके, अक्सर इन जानवरों का पैर अपने ही वज़न के कारण टूट जाता है. उन्हें बस एक जगह बंद कर के रख दिया जाता है जिसका मतलब है ही जगह पर खाते हैं, सोते हैं और मल त्याग भी करते हैं. एक रिसर्च में और पता चला है कि ग्रोसरी में बिकने वाली ‘75% मुर्गियां E.Colf बैक्टीरिया से इन्फेक्टेड होती हैं. उनमें से 8% को 5almonella बैक्टीरिया र 90% में शायद Campylobacter बैक्टीरिया होता है जो बहुत खतरनाक बीमारियों को जन्म दे सकता है. बूचडखाने में गंध और बैक्टीरिया को दूर करने के लिए मुर्गियों को क्लोरीन और पानी से नहलाया जाता है. लेकिन इसका ज़्यादा असर नहीं होता. इसके बाद मशीन का इस्तेमाल कर के उनकी आँतों को बाहर निकाला जाता है, मशीन की वजह से अक्सर ऐसा होता है कि आंत कट जाती है और सारामल एक भरोसेमंद ज्नलिस्टने बताया कि पस, मल, बैक्टीरिया, ट्यूमर, स्किन प्रॉब्लम, हार्ट और लंग्स की बीमारी से पीडित लाखों मुर्गियां हर दिन ग्रोसरी में बेचीं जाती हैं. लेकिन consumer इस नोटिस नहीं करते क्योंकि मुर्गियों में नमकीन पानी इंजेक्ट किया जाता है. यही कारण हैं कि मीट दिखने में अच्छा लगता है, उसकी गंध और स्वाद भी अच्छे होते हैं,
पैराडाइसलॉकर मीट (Paradise Locker Meat)
इस बुक के ऑथर जोनथन ने एक बार मिसौरी में पैराडाइस नाम के बूचडखाने का दौरा किया थाजिसका मालिक था मारिओ फैनटेस्मा. ये एक इंडिपेंडेंट बूचडखाना था.इसमें असेंबली लाइन नहीं थी जो कॉर्पोरेट द्वारा मैनेज किये जाने बूचडखानों में होती है. मारिओ का कहना था कि वो पैराडाइस में साफी-सफाई, जानवरों की देखभाल और एक्सपर्ट कसाई का इस्तेमाल करता था. मंडे और ट्यूसडे को जानवरों को मारा जाता था. वेडनेसडे और थर्सडे को उन्हें स्लाइस कर के पैक किया जाता था. फ्राइडे उन कस्टमर के लिए रखा गया था जो अपने पसंद से मीट कटवाते थे. जोनथन ट्यूसडे को वहाँ ग गाड़ी से उतरते ही उन्हें पिग्स के रोने और चीखने की आवाज़ सुनाई दी. मारिओ उन्हें पूरी जगह दिखाने ले गया. वो उस प्लोर पर पहुंचें जहां जानवरों गए थे.
को मारा जाता था.वहाँ एक बाड़ा (पेन) था जिसमें पिग्स को बाँध कर रखा गया था.उसके बाद वहाँ एक आदमी आया जिसे Knocker कहा जाता है. उसने अंदर से एक पिग को अंदर को निकाला और बेहोश करने वाली गन से उसके सिर पर गोली मार दी. पिग के बेहोश होने के बाद उसे एक स्टील के उसे वहीं खून बहते हाए हुक से लटका दिया गया और उसे वहीं खून बहते हुए हालत में मरने के लिए छोड़ दिया गया. के। Slaughter Act के अनुसार, यही सबसे बेस्ट तरीका होता है. जानवर को काटने से पहले उसे बेहोश कर दिया जाना चाहिए. एक पिग Humane Slau
को बाहर निकालने के बाद दरवाज़ा बंद हो जाता था ताकि दूसरे पिग्स को पता ना क्या होने वाला है. अगर वो घबराए हुए नहीं होंगे तो उन्हें बाद । पग्स की पता ना चले कि हैंडल करना आसान होगा और ये तो बहुत ज़रूरी था क्योंकि स्ट्रेस मीट की क्वालिटी को खराब कर देता है.
लेकिन ये पहला झटका सिर्फ 80% समय काम करता है.अगर पिग तब भी होश में होगा तो वो दूसरी बार स्तब्ध रह जाएगा. उसके बाद उसे उल्टा लटक कर गले पर चाकू मारा जाता है और उसके शरीर से सारा खून निकल जाता है. इसके बाद आता है हॉट scalding मशीन. खून निकलने के बाद जानवरों को इस मशीन में डाल दिया जाता है और इससे निकलने के बाद पिग एकदम प्लास्टिक की तरह shiny और चमकदार हो जाता है. इसके बाद उसेएक टेबल पर लाया जाता है दो लोग जानवर के शरीर से बचे हुए बालों को हटाते हैं. एक के हाथ में blowtorch होता है और हाथ में स्क्रेपिंग डिवाइस.जो हिस्सा काम का नहीं होता उसे स्केप कर दिया जाता है, फ़िर blowtorch से जलाया जाता है.उसके बाद पिग 1 फ़िर से लटका दिया जाता
र से लटका दिया जाता है और एक वर्कर इसे power saw (बिजली से चलने वाली आरी) से आधा आधा काट देता है.
पिग के शरीर को इसी तरह हर जगह कटा जाता है. सिर्फ उसका पेट नहीं बल्कि उसका मुहं, चेहरा और पैर भी बड़ी बेदर्दी से काटा जाता है. उसे हर जगह से चीर के खोल दिया जाता है. फिर अगला वर्कर उसके अंदर के ओर्गस को निकालता है. इसके बाद USDA का representative उन ओर्गस को चेक करता है. उसे सब “doc” कहते हैं. वो टेबल पर रखे ओगंस को चेक करता है और कभी-कभी सैंपल भी ले लेता है. उसके बाद वो सब कुछ एक बड़े से dustbin में डाल देता है. वो doc किसी हॉरर फिल्म का कुल्हाड़ी लिए हुए एक
मर्डरर जैसा लगता है, सब चेक करने के बाद उसके हाथ और apron खून से लथपथ हो जाते हैं, जोनथन ने उससे बात करके ये पता लगाने की कोशिश की कि क्या इतने सालों में उसे पैराडाइस में कुछ ऐसा मिला जो कुछ अटपटा सा हो या जिस पर शक होता हो. doc ने अपना गॉगल्स ऊपर किया और जोनथन की आंखों में घर कर देखते हुए कहा “कभी नहीं, फ़िर वो दोबारा अपने काम में लग गया.
देयर इज़ नो पिग (There is No Pig)
दुनिया में पिग्स की कुल 16 जातियां (स्पीशीज़) होती हैं. पालतू पिग जिन्हें हम खाने में इस्तेमाल करते हैं उन्हें नस्लों (ब्रीड) में डिवाइड किया जाता है. जाति की तरह नस्ल नेचर का हिस्सा नहीं है. ब्रीडिंग का उपयोग किसानों द्वारा जानवरों के किसी ख़ास लक्षण या फीचर को चूज़ करने में किया जाता है. फैक्ट्री फार्म में इसे जेनेटिक्स और आर्टिफीसियल तरीके से जानवरों को pregnant कर के किया जाता है. पोर्क पिग का मीट) के प्रोडूसर और
consumer दोनों चाहते हैं कि पिग अच्छा खासा मोटा ताज़ा हो. हर पिग एक बड़े पानी से भरे barrel की तरह दिखाना चाहिए, लेकिन क्या पिग्स भी ऐसा चाहते हैं?
शायद नहीं क्योंकि मुर्गियों की तरह इनका भी सारा वेट इनके पैर पर पड़ता है. इन्हें अपने पैरों पर बहुत बहुत वेट महसूस होताहै और चलने में बहुत दिक्कत होने लगती है, बिलकुल मुर्गियों की तरह इन्हें भी बंद करके और एंटीबायोटिक्स पर रखा जाता है क्योंकि बीमार जानवार ज्यादा फायदेमंद होते हैं।
हैं. फैक्ट्री फार्म के ज़्यादातर पिन्स हार्ट प्रॉब्लम और पैरों की तकलीफ से पीड़ित होते हैं. उनका इम्यून सिस्टम कमज़ोर होता है. वो आसानी से स्ट्रेस में आ जात हैं. इन सब के कारण वो सिर्फ उस बंद जगह में ही जिंदा रह सकते हैं, बाहर के बदलते मौसम में नहीं.
ये जानवर डर, चिंता और स्ट्रेस से ग्रस्त होते हैं. जब एक जानवर स्ट्रेस में होता है तो उसके मसल्स से एसिड रिलीज़ होता है जिसकी वजह से मीट का स्वाद खराब होने लगता है. मीट की क्वालिटी बरकरार रखने के लिए फैक्ट्री फार्म्स ने पिग्स की बॉडी में से स्ट्रेस gene को हटाने के बारे में सोचा. लेकिन वो नाकामयाब रहे. स्ट्रेस एक बहुत काम्प्लेक्स इमोशन है. अग्रेशन, डर, चिंता सिर्फ genes तक सीमित नहीं होते. आप जेनेटिक्स के माध्यम से आंखों का रंग का पता लगा सकते हैं लेकिन आप स्ट्रेस के साथ ऐसा नहीं कर सकते.
उन्होंने ऐसा करने के लिए साइंटिस्ट्स की मदद दली.
फैमिली फार्म में नेचुरल तरीके से बढ़ने वाला पिग बहार के हर मौसम में सर्वाइव कर सकता है. आपको सिर्फ उन्हें अच्छा खाना और रहने के लिए घर देने की जरुरत है. ऐसे पिग्स खुश और स्ट्रेस फ्री होते हैं क्योंकि वो खुली हवा और धूप में कितना भी दौड़ सकते हैं, कितना भी कीचड़ में लोटपोट सकते हैं क्योंकि वो उनका स्वभाव होता है.
हो लेकिन फैक्ट्री फार्स के पिग कमज़ोर और नाजुक हो जाते हैं. उन्हें जेनेटिक रूप से डिजाईन किया जाता है इसलिए वो बीमार, कमज़ोर और हमेशा स्ट्रेस में रहते हैं, वो बाहर की रौशनी पहली और आखरी बार तब देखते हैं जब उन्हें मारने के लिए ले जाया जाता है. कुछ ऐसे भी पिग्स पालने वाले हैं जो बिना बेहोशी की दवा दिए एक दिन के पिग के बच्चे को बेरहमी से मार देते हैं. कई ऐसे भी किसान हैं जो अपने प्रोडक्ट को लेबल करने के लिए हॉट आयरन का इस्तेमाल कर के मीट पर अपना निशान बनाते हैं. फैक्ट्री फार्स के लोग इन असहाय जानवरों के साथ बहुत निर्मम व्यवहार करते हैं.
क्या आप जानते हैं कि फैक्ट्री फार्म में इतनी बदबू क्यों आती है? क्योंकि यहाँ जानवरों का मल फ़ैला होता है. कुल मिलाकर, पूरे अमेरिका में फैक्ट्री फार्म में हर सेकंड 87,000 पाउंड्स मल निकलता है. नार्थ carolina में बाड़े के बगल में बड़े बड़े गुलाबी रंग का पूल है. आपको क्या लगता है कि तो क्या है? आइये हम बताते हैं.
जानवरों का मल dispose करने के लिए पूल बनाया जाता है.जब पूल मल से भर जाता है तो ऐसे automatic स्प्रे लगे हुए होते हैं जो excess liquid को खेतों में छोड़ देते हैं, इस मल से हवा और पानी दोनों गंदै और इन्फेक्ट होना शुरू हो जाते हैं. इससे झीलों की मछलियाँ मरने लगती हैं. इन पूल्स को सीमेंट से या प्लास्टिक से ढका नहीं जाता. इन्हें सिर्फ मिट्टी में खोद कर बनाया जाता है. तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि गंदगी कितनी आसानी से मिट्टी की गहराईयों में चला जाता है. अगर आपको यकीन नहीं है तो Youtube पर विडियो देखना ना भूलें, आपके रोंगटे खड़े हो जाएँगे.
कन्क्लू जन (Conclusion)
तो आपने मॉडर्न पोल्ट्री और मीट इंडस्ट्री के घिनौने सच के बारे में जाना,आपने जाना कि फैक्ट्री फार्में किन टेक्निक्स का इस्तेमाल करके जानवरों को टार्चर | जाता है. आपने जानवरों तड़प और उनके साथ हो रहे कुर बारे में भी जाना. सब जानने के बाद क्या अब भी आपका मीट खरीदने का मन करेगा? क्या आप फैक्ट्री फार्म के बने चिकन और पोर्कको खाना पसंद करेंगे? क्या आप अपने बच्चों को ये जहरीले फ़ास्ट फूड खाने देंगे?
बड़े corporation ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि इन सब की बहुत ज़बरदस्त डिमांड है. एक समय था जब सारे एनिमल प्रोडक्ट्स आर्गेनिक और नेचुरल हुआ करते थे. आपके पास अब भी जानवरों के साथ हो रहे इस दुर्व्यवहार से दूर जाने की चॉइस है.
इंडिपेंडेंट किसानों को सपोर्ट करें, उन किसानों को सपोर्ट करें जो पुराने और नेचुरल तरीके से जानवरों का पालन पोषण करते हैं, फॅमिली फार्म से चीज़ें खरीदें. फ्रैंक रीज़ जैसे किसानों की तलाश ज्यादा सब्ज़ियाँ खा तलाश करें जो अपने जानवरों की खाए. हरी सब्ज़ियों में हाई प्रोटीन होता है। परवाह करते हैं. होता है, आपको इसके लिए मीट खाने की ज़रुरत नहीं है, सबसे अच्छी बात तो ये है कि सब्जियों में कोलेस्ट्रॉल नहीं होता. अगर आप बहुत सारी सब्ज़ियाँ भी खाएंगे तब भी आपको कभी स्ट्रोक, हार्ट डिजीज या हाई ब्लड प्रेशर नहीं होगा. इस प्लेनेट पर सिर्फ हम ही सांस लेने वाले प्राणी नहीं हैं और आप ये नहीं कह सकते कि मुर्गियां और पिग्स मूर्ख हैं और इंसान ही श्रेष्ट है इसलिए हम उन्हें मार सकते हैं जानवर भी अपने तरीके से जीते हैं. उनकी बद्धि, भाषा और जीने का ढंग हमसे अलग है, समय आ गया है जब हमें समझना होगा के वो जीते जागते जीव हैं, उनमें भी जान है, उन्हें भी उतनी ही तकलीफ होती है जितनी मुझे और आपको फ़िर चाहे वो शारीरिक तकलीफ़ हो या मानसिक,लेकिन हम इंसान बहुत सेल्फिश होते हैं, हम अपने स्वाद के लिए किसी को मारने या तकलीफ़ पहुंचाने से भी नहीं चूकते, क्या आपने कभी गौर किया है कि हमारे जीभ का कई काबू ही नहीं है.कुछ मिनटों के स्वाद के ी स्वाद बस कुछ ही मिनटों का होता है फ़िर वो खाना पेट में चला जाता है लेकिन हमारा अपने जीभ पर।
स्वाद के लिए हम एक जानवर को उसके छोटे से जीवन में हर दिन ना जाने कितना टार्चर करते हैं, हमें सिर्फ से मतलब है और बड़े corporations को पैसों से, सही और गलत के बारे में कौन सोचे है जैसा खाओ अन्न वैसा हो जाए मन. है ना?
स्वाद बड़े बुजुर्ग एक बात कहा करते थे कि जो खाते हैं उसका सिर्फ हमारे शरीर पर ही नहीं बल्कि मन पर भी बहुत मन. हम जो गहरा असर होता है. हर खाने में एक एनर्जी होती है जो खाने के बाद हमारी एनर्जी का हिस्सा बन जाती है. example के लिए,रेस्टोरेंट का खाना टेस्टी तो हो सकता है लेकिन माँ के हाथ के खाने की वो कभी बराबरी नहीं कर सकता क्योंकि उसमें माँ का प्यार मिला होता है लेकिन रेस्टोरेंट का मकसद होता है सिर्फ पैसा कमाना,दोनों की एनर्जी में जमीन आसमान का फ़र्क है. ठीक इसी तरह, जो जानवर डर और घुटन के माहौल में रहते हैं उनकी एनर्जी पूरी तरह बदल जाती है. आजकल हम प्रोसेस्ड और फ्रोज़ेन फूड ज़्यादा
खाने लगे हैं शायद इसलिए हम भी डरे हुए, insecure और कमज़ोर होते जा रहे हैं. क्या आप ऐसी चीज़ें खाना पसंद करेंगे जिसमें किसी का दर्द, डर
और चीखें शामिल हैं? जानवर भी बिलकुल इंसानों की तरह खुशी और शांति से जीना चाहते हैं, अपने स्वार्थ के लिए उन्हें इस तरह टार्चर करने का हक़ हमें किसने दिया? शायदअब हमें रुक कर सोचने की जरुरत है कि जानवर असल में है कीन, वो या हम?