DUSSAHAS by Munshi premchand.

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लखनऊ के नौबस्ते मोहल्ले में एक मुंशी मैकूलाल मुख्तार रहते थे। बड़े उदार, दयालु और अच्छे आदमी थे। अपने काम में इतने अच्छे थे कि ऐसा शायद ही कोई मुकदमा होता था जिसमें वह किसी न किसी ओर से न रखे जाते हों। साथु-संतों से भी उन्हें प्यार था। उनके सत्संग से उन्हें कुछ धार्मिक बातें सीख लीं थीं और कुछ गाँजे-चरस की आदत लगा लीं थीं। रही शराब, यह उनकी खानदानी परंपरा थी। शराब के नशे में वह कानूनी ड्राफ्ट खूब लिखते

थे, उनका दिमाग काम करने लगता था। गाँजे और चरस का असर उनके दिमाग पर पड़ता था। दम लगा कर वह सबसे मन हटाकर ध्यान में मग्न हो जाते थे। मोहल्लेवालों पर उनका वड़ा रोब था। लेकिन यह उनकी कानूनी प्रतिभा का नहीं, उनकी

दयालु अच्छाई का फल था। मोहल्ले के घोड़ा गाड़ी वाले, दूध वाले और पानी भरने वाले उनकी बात मानते थे, सौ काम छोड़ कर उनका काम करते थे।

उनकी शराब से पैदा हुई दयालुता कुछ कहने-सुनने की जरूरत न थी. अन वस में कर लिया था। वह रोज अदालत से आते ही पानी भरने वाले अलगू के सामने जाता था। बस, महफिल जम जाती। यारोसका मतलब समझता था। शाम को शराब की एक बोतल और कुछ गाँजा और चरस दो रुपये फेंक देते थे।

मुंशी जी के सामने आ

एक ओर मुवक्किलों की कतार बेठती, दूसरी ओर दोस्तों की। सन्यास की और ज्ञान की बातें होने लगती। बीच-बीच में मुवक्किलों से भी मुकदमे की दो-एक बातें कर लेते दस बजे रात को वह सभा खत्म होती थी। मुंशी जी अपने काम और ज्ञान की बातों के सिवा और कोई दर्द सिर मोल न लेते थे। देश के किसी आन्दोलन, किसी सभा, किसी सामाजिक सुधार से उनका कोई लेना देना न था। इस सब से वे सच में दूर थे। बंग-भंग हुआ, नरम-गरम दल बने, राजनैतिक सुधारों आए, आजादी की इच्छा ने जन्म लिया, खुद को बचाने की आवाजे देश में गूँजने लगीं, लेकिन मुशी जी की शांति में जरा भी खलल न पड़ा। अदालत और शराब के सिवाय वह दुनिया की सभी चीजों को धोखा समझते थे, सभी से उदासीन रहते दिये जल चुके थे। मुशी मैकूलाल की सभा जम गयी थी, उन्हें मानने वाले जमा हो गये थे, अभी तक शराब न आई थी। अलगू बाजार से न लौटा था। सब लोग बार-बार बेचैन नजरों से देख रहे थे। एक आदमी बरामदे में इंतजार कर रहा था, दो-तीन लोग खोज लेने के लिए सड़क पर खड़े थे, लेकिन अलगू आता नजर न आता था। आज जीवन में पहला मौका था कि मुंशी जी को इतना इंतजार खींचना पड़ा। उनकी इंतजार से पैदा हुई बेचैनी ने गहरी चुप्पी का रूप ले लिया था, न कुछ बोलते थे, न किसी ओर देखते थे। पूरी ताकत इंतजार करने के लिए इकट्ठा हो गयीं।

अचानक खबर मिली कि अलगू आ रहा है। मुंशी जी जाग पड़े, दोस्त खिल गये, बैठने का तरीका बदल कर सँभल बैठे, उनकी आँखें खील गयीं। उम्मीद भरा इंतजार खुशी को और बढ़ा देता है।

में अलगू आ कर सामने खड़ा हो गया। मुंशी जी ने उसे डाँटा नहीं, यह पहली गलती थी, इसका कुछ न कुछ कारण जरूर होगा, दबे हुए पर बेचैन नजरों से अलगू के हाथ की और देखा। बोतल न थी। आश्चर्य हुआ, यकीन न आया, फिर गौर से देखा बोतल न थी। यह असधारण घटना थी, पर इस पर उन्हें गुस्सा न आया, नम्रता के साथ पूछा- ‘बोतल कहाँ है ?”

अलगू- “आज नहीं मिली।

मैकूलाल- “यह क्यों 2

अलगू- “दूकान के दोनों नाके रोके हुए आजादी वाले खड़े हैं, किसी को उधर जाने ही नहीं देते।” अब मुंशी जी को गुस्सा आया, अलगू पर नहीं, आजादी के लिए लड़ने वालों पर। उन्हें मेरी शराब बन्द करने का क्या हक है? समझने के भाव से बोले

तुमने मेरा नाम नहीं लिया अलगू- “बहुत कहा, लेकिन वहाँ कौन किसी की सुनता था ? सभी लोग लौटे आते थे, मैं भी लौट आया।”

मुंशी “चरस लाये ?”

अलगू- “वहाँ भी यही हाल था।”

मुंशी- “तुम मेरे नौकर हो या आजादी वालों के ?”

अलगू- “मुँह काला करवाने के लिए थोड़े ही नौकर हूँ?”

मुंशी- “तो क्या वहाँ बदमाश लोग मुँह में काला भी लगा रहे हैं ?”

अलगू- तो नहीं, लेकिन सब यही कहते थे।”

मुंशी- “अच्छी बात है, मैं खुद जाता हूं, देखें किसकी हिम्मत है जो रोके। एक-एक को जेल का रास्ता दिखा दूँगा, यह सरकार का राज है, कोई गुंडा राज नहीं है। वहाँ कोई पुलिस का सिपाही नहीं था ?”

अलगू- “थानेदार साहब खुद ही खड़े सबसे कहते थे जिसका जी चाहे जाय शराब ले या पीये लेकिन लौट आते थे, उनकी कोई न सुनता था।” मुंशी- “थानेदार मेरे दोस्त हैं, चलो जी ईटू चलते हो। रामबली, बेचन, झिनकू सब चलो। एक-एक बोतल ले लो, देखें कौन रोकता है। कल ही तो मजा चखा दूंगा।

Dussahas Munshi Premchand

मुंशी जी अपने चारों साथियों के साथ शराबखाने की गली के सामने पहुँचे तो वहाँ बहुत भीड़ थी। बीच में दो बड़े लोग खड़े थे। एक मौलाना जामिन थे जो शहर के मशहूर इस्लामी नेता थे, दूसरे स्वामी चनानन्द थे जो वहाँ की सेवासमिति के संस्थापक और लोगों अच्छा सोचने वाले थे। उनके सामने ही थानेदार साहब कई कानस्टेबलों के साथ खड़े थे। मुंशी जी और उनके साथियों को देखते ही थानेदार साहब प्रसन्न होकर बोले- “आइए मुख्तार साहब, क्या आज आप ही को तकलीफ करनी पड़ी ? यह चारों आप ही के साथी हैं न ?” मुंशी जी बोले- “जी हाँ, पहले आदमी भेजा, वह नाकाम वापस गया। सुना आज यहाँ शोर मची हुई है, आजादी वाले किसी को अंदर जाने ही नहीं देते।” थानेदार- “जी नहीं, यहाँ किसकी मजाल है जो किसी के काम में रोक लगा सके। आप शौक से जाइए। कोई चूं तक नहीं कर सकता। आखिर मैं यहाँ किस लिए हूँ।

मुंशी जी ने घमंड भरी नजरों से अपने साथियों को देखा और गली में घुसे कि इतने में मौलाना जामिन ने ईदू से बड़ी नम्रता से कहा- दोस्त, यह तो तुम्हारी नमाज का वक्त है. यहाँ कैसे आये ? क्या इसी ईमानदारी के दम पर खिलाफत का मामला हल करेंगे इंदू के पैरों में पैरों जैसे लोहे की बेड़ी पड़ गयी। शर्मिंदा हो कर खड़ा जमीन की ओर ताकने लगा। आगे कदम रखने की हिम्मत न हुई। घनानन्द ने मुंशी जी और उनके बाकी तीनों साथियों से कहा- “बच्चा, यह पंचामृत लेते जाओ, तुम्हारा भला होगा।” झिनकू, रामबली और बेचन ने हमेशा की तरह हाथ फैला दिये और स्वामी जी से पंचामृत ले कर पी गये। मुंशी जी ने कहा- ‘इसे आप खुद पी जाइए। मुझे जरूरत नहीं।”

स्वामी जी उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गये और मजाक से बोले- “इस भिखारी पर आज दया कीजिए, उधर ने जाइए।” उनका हाथ पकड़ कर सामने से हटा दिया और गली में चले गए गये। उनके तीनों साथी स्वामी जी के पीछे सिर झुकाये

लेकिन मुंशी मुंशी- रामबली, झिनकू आते क्यों नहीं? किसकी ताकत है कि हमें रोक सके।

झिनकू- “तुम ही व्यों नहीं लौट आते हो। साधु-संत की बात माननी चाहिए।” मुंशी- “तो इसी हिम्मत से घर से निकले थे ?”

रामबली- “निकले थे कि कोई जबर्दस्ती रोकेगा तो उसे देख लेंगे। साधु-संतों से लड़ाई करने थोड़े ही चले थे।”

मुंशी- “सच कहा है, गँवार भेड़ होते हैं।” बेचन- “आप शेर हो जायँ, हम भेड़ ही बने रहेंगे।”

मुंशी जी अकड़ते हुए शराबखाने में घुस गए। दूकान पर उदासी छायीं हुई थी, कलवार अपनी गद्दी पर बैठा जम्हाई ले रहा था। मुंशी जी की आहट पा कर चौक पड़ा, उन्हें तेज नजरों देखा मानो यह कोई अजीब जीव है, बोतल भर दी और जम्हाई लेने लगा।

मुंशी जी गली के दरवाजे पर आये तो अपने साथियों को न पाया। बहुत से आदमियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और अनाप शनाप बकने लगे।

नें कहा बहादुर देश भरदाँ विवाअद (मरदों के सामने शर्म नहीं आ सकती।) दूसरा बोला- “शर्मचे कुत्तीस्त तीसरा बोला- “है कोई पुराना शराबी पक्का लतखोरा

इतने में थानेदार साहब ने आ कर भीड़ हटा दी। मुंशी जी ने उन्हें धन्यवाद दिया और घर चले। एक कानस्टेबल भी बचाव के लिए उनके साथ चला। मंशी जी के चारों दोस्तों ने बोतलें फेंक दीं और आपस में बातें करते हुए चले।

“एक बार मेरी घोड़ागाड़ी बेकार में पकड़ी जा रही थी तो यही स्वामी जी चपरासी से कह-सुन के छुड़ा दिए थे।” रामबली- “पिछले साल जब हमारे घर में आग लगी थी तब भी तो यही सेवा-समिति वालों को ले कर पहुँच गये थे, नहीं तो घर में एक धागा न बचता।”

बेचन- “मुख्तार अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं। आदमी कोई बुरा काम करता है तो छिप के करता है, यह नहीं कि बेशर्मी की ही ठान लें।”

झिनकू- “भाई, पीठ पीछे किसी की बुराई नहीं करनी चाहिए। और जो भी हो पर आदमी बड़ा बहादुर है। उतने आदमियों के बीच में कैसे घुसता चला गया।

रामबली- “राह कोई बहादुरी नहीं है। थानेदार न होता तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता।” बेचन- “मुझे तो कोई पचास रुपये देता तो भी गली में पैर न रख सकता। शर्म से सिर ही नहीं उठता था !”

ईदू- “इनके साथ आ कर आज बड़ी मुसीबत में फँस गया। मौलाना जहाँ देखेंगे वहाँ आड़े हाथों लेंगे। ईमान के खिलाफ ऐसा काम क्यों करें होना पड़े। मैं तो आज मारे शर्म के गड़ गया। आज तोबा करता हूँ। अब इसकी तरफ आँख उठा कर भी न देखेँगा।”

रामबली- “शराबियों की तोबा कच्चे धागे से मजबूत नहीं होती। ईदू – “अगर फिर कभी मुझे पीते देखना तो मुँह में कालिख लगा देना।”

बेचन- “अच्छा तो इसी बात पर आज से में इसे छोड़ता हूँ। अब पीऊँ तो गाय का खून पीने के बराबर।”

झिनकू- “तो क्या मैं ही सबसे पापी हूँ। फिर कभी जो मुझे, बैठा के पचास जूते लगाना।” रामबली- “तो भाई मैं भी कसम खाता हूँ कि आज से खुद के पैसे निकाल कर न पीऊँगा। हाँ, मूफ्त की पीने में इनकार नहीं।”

रामबली- “अरे जा, अभी मुंशी जी बुलायेंगे, तो कुत्ते की तरह दौड़ते हुए जाओगे।” झिनकू- “मुंशी जी के साथ बैठे देखो तो सौ जूते लगाना, जिनके बात में फर्क है उनके बाप में फर्क है।”

बेचन- “खुद के पैसे तुमने कभी खर्च किये हैं?”

इतने में मुंशी मैकूलाल भागते हुए आते दिखायी दिये। हलांकि वह बाजी मार कर आये थे, चहरे पर जीत की खुशी की जगह गुस्सा छाया हुआ था। किसी अंजान कारण की वजह से वह इस जीत की खुशी न मना सकते थे। दिल के किसी कोने में छिपी हुई शर्म उनका मजाक उड़ा रही थी। वह खुद

अजान थे, पर उस दुस्साहस का दुख उन्हें परेशान कर रहा था।

रामबली ने कहा- “आइए मुख्तार साहब, बड़ी देर लगायी।” मुंशी- “तुम सब-के-सब बेवकूफ ही निकले, एक साथ के बहकावे में आ गये।”

ली है।” मुंशी- “ऐसा तो मैंने आदमी ही नहीं देखा जो एक बार इसके चंगुल में फैस कर निकल जाय। मुँह से बकना दूसरी बात है।”

रामबली- “इन लोगों ने तो आज से शराब न पीने की कसम

ईदू- “जिन्दगी रही तो देख लीजियेगा।”

झिनकू- “दाना-पानी तो किसी से नहीं छूट सकता है और बाकी का जब मन में आये छोड़ दें। बस चोट लग जानी चाहिए, नशा किए बिना कोई मर नहीं जाता है।”

मुंशी- “देर गा तुम्हारी बहादुरी भी।”

बेचन- “देखना क्या है, छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं। यही न होगा कि दो-चार दिन मन सुस्त रहेगा। लड़ाई में अँगरेजों ने छोड़ दिया था जो इसे पानी की तरह पीते हैं तो हमारे लिए कोई मुश्किल काम नहीं। यही बातें करते हुए लोग मुख्तार साहब के मकान पर आ पहुँचे।

दीवानखाने में सन्नाटा था। मुवक्किल चले गये थे। अलगू पड़ा सो रहा था। मुंशी जी गद्दे पर जा बैठे और आलमारी से ग्लास निकालने लगे। उन्हें अभी तक अपने साथियों की कसम पर यकीन न आता था उन्हें पूरा यकीन था कि शराब की सुगन्ध और लालिमा देखते ही सभी की तोबा टूट जायगी। जहाँ मैंने जरा बढ़ावा दिया वहीं सब-के-सब आकर इट जायेँगे और महफिल जम जायगी। जब ईदू सलाम करके चलने लगा और झिनकू ने अपना डंडा संभाला तो मुंशी जी ने दोनों हाथ पकड़ लिये और बड़े नरम शब्दों में बोले- “यारो, यों साथ छोड़ना अच्छा नहीं। आओ जरा आज इसका मजा तो चखो,

खास तौर पर अच्छी है।

मुंशी- “अजी आओ तो, इन बातों में क्या धरा है ?”

ईदू- “आप ही को मुबारक रहे, मुझे जाने दीजिए।”

झिनकू- “हम तो भगवान् चाहेंगे तो इसके पास न जाएंगे; जूता कौन खाए?”

यह कह कर दोनों अपने अपने हाथ छुड़ा कर चले गये तब मुख्तार साहब ने बेचन का हाथ पकड़ा जो बरामदे से नीचे उतर रहा था, बोले- “बेचन, क्या

भी बेवफाई करोगे ?” बेचन-

तो बड़ी कसम खायी है। जब एक बार इसे गाय का खून कह चुका तो फिर इसकी ओर ताक भी नहीं सकता। कितना ही गया-गुजरा हूँ तो क्या गाय का खून की इज्जत भी न रडूंगा। अब आप भी छोड़िए, कुछ दिन राम-राम कीजिए। बहुत दिन तो पीते हो गये।” यह कह कर वह भी सलाम करके चलता हुआ। अब अकेले रामबली रह गया। मुंशी जी ने उससे दुखी हो कर कहा- देखो रामबली, इन सभी की बेवफाई ? यह लोग ऐसे कमजोर होंगे, मैं न जानता था। आओ, आज हमी तुम सही। दो सच्चे दोस्त ऐसे दरजनों कचलोहियों से अच्छे हैं। आओ, बैठ जाओ रामबली- “में तो हाजिर ही हूँ, लेकिन मैंने भी कसम खायी है कि कभी खुद के पैसे खर्च करके न पीऊँगा।” मुंशी- “अजी जब तक मेरे दम में दम है, तुम जितना चाहो पीयो, गम क्या है ?”

रामबली- “लेकिन आप न रहे तब ? ऐसा अच्छा इंसान फिर कहाँ पाउँगा?” संशी, “अजी तब देखी जायगी, मैं आज मरा थोड़े ही जाता हूँ।”

रामबली- “जिन्दगी का कोई एतबार नहीं, आप मुझसे पहले जरूर ही मरेंगे, तो उस वक्त मुझे कौन रोज पिलायेगा। तब तो छोड़ भी न सकँगा। इससे बेहतर यही है कि अभी से फिक्र करूं।”

मुंशी- “यार ऐसी बातें करके दिल न छोटा करो। आओ बैठ जाओ, एक ही गिलास ले लेना।

रामबली- “मुख्तार साहब, अब ज्यादा मजबूर न कीजिए। जब ईदू और झिनकू जैसे लतियों ने कसम खा ली जो औरतों के गहने बेच-्ेच पी गये और एकदम बेवकूफ हैं, तो में इतना बेशर्म नहीं हूँ कि इसका गुलाम बना रहूँ। स्वामी जी ने मेरा सर्वनाश होने से बचाया है। उनकी आज्ञा मैं किसी तरह नहीं टाल सकता।” यह कह कर रामबली भी चला गया।

मुशीजी ने प्याला मुँह से लगाया, लेकिन दूसरा प्याला भरने के पहले उनकी शराबकी तलब गायब हो गयी थी। जीवन में यह पहला मौका था कि उन्हें अकेले में बैठ कर दवा की तरह शराब पीनी पड़ी। पहले तो साथियों पर गुस्साए। दगाबाजों को मैंने सैकड़ों रुपये खिला दिये होंगे, लेकिन आज जरा-सी बात पर सब-के-सब बदल गये। अब मैं भूत की तरह अकेला पड़ा हुआ हूँ, कोई हँसने-बोलने वाला नहीं। यह तो साथ में करने वाली चीज है, जब किसी के साथ की खुशी ही न रही तो पी कर खाट पर पड़ रहने से क्या फायदा ? मेरी आज कितना बेइज्जती हुई। जब मैं गली में में घुसा हूँ तो सैकड़ों ही आदमी मेरी और गुस्से भरी नजरों से ताक रहे थे। शराब लेकर लौटा हूँ तब तो लोगों का वश चलता तो मेरी बोटियाँ नोच खाते। थानेदार न होता तो घर तक आना मुश्किल था। यह बेइज्जती और लोगों द्वारा भला बुरा सुनना किस लिए।

इसलिए कि थोड़ी देर बैठ कर मुँह कड़वा करूँ और कलेजा जलाऊँ। कोई हँसी-मजाक करने वाला तक नहीं। लोग इसे कितनी खराब चीज समझते हैं, इसका एहसास मुझे आज ही हुआ, नहीं तो एक संन्यासी के जरा-से इशारे पर बरसों के शराबी यों मेरी बेइज्जतीन न करते। बात यही है कि अंतःकरण से सभी इसे गलत समझते हैं। जब मेरे साथ के दूध वाले, घोड़ागाड़ी वाले और पानी । वाले तक इसे छोड़ सकते हैं तो क्या में उनसे भी गया-गुजरा हूँ? इतना बेइज्जती सह कर, लोगों की नजरों में खरा ब हो कर, सारे शहर में बदनाम हो कर, नकटा बन कर एक पल के लिए सिर में नशा पैदा कर लिया तो क्या काम किया ? खराब चीजों के लिए आत्मा को इतना नीचे गिराना क्या अच्छी बात है ? यह चारों इस घड़ी मेरी । मेरी बुराई कर रहे होंगे, मुझे बुरा बना रहे होंगे, मुझे नीच समझ रहे होंगे। इन नीचों की नजरों में मैं नीचा हो गया। यह खराब हालत नहीं सही जाती। आज इस लत का अंत कर दूंगा, बेङज्जती का अंत कर ढूँगा। एक क्षण में धड़ाके की आवाज हुई। अलगू चौंक कर उठा तो देखा कि मुंशी जी बरामदे में खड़े हैं और बोतल जमीन पर टूटी पड़ी है!

कहानी का सार इस कहानी से मुंशी प्रेमचंद हम एक छोटी सी बात समझाना चाहते हैं कि अगर हम में जरा सा भी विवेक और अच्छे बुरे की समझ है, तो हम हमेशा के लिए बुरी आदतों में बंद कर नहीं रह सकते। हमें जैसे ही जरा सा प्रोत्साहन मिले, तो हम तुरंत ही इसे छोड़ देते हैं। और यह भी, कि बुरी आदत जिन्हें छोड़ना नामुमकिन समझा जाता है, उसे छोड़ना इतना भी मुश्किल नहीं।

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