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सुबह सुबह सूरज की सुहानी सुनहरी धूप में कलावती दोनों बेटों को गोद में बैठाकर दूध और रोटी खिला रही थी। केदार बड़ा था, माधव छोटा। दोनों मुँह में निवाला लिये, कई कदम उछल-कूद कर फिर गोद में आ बैठते और अपनी तोतली बोली में इस प्रार्थना की रट लगाते, जिसमें एक पुराने भावुक कवि ने किसी ठंड के सलाये हुए बच्चे के दिल की बात को प्रकट किया है दैव-दैव घाम करो तुम्हारे बालक को लगता जाड माँ उन्हें पुचकारकर बुलाती और बड़े-बड़े निवाले खिलाती। उसके दिल में प्रेम की उमंग थी और आँखों में गर्व की झलक। दोनों भाई बड़े हुए। साथ-साथ गले में डाले खेलते थे। केदार की बुद्धि तेज़ थी। माधव का शरीर फुर्तीला था। दोनों में इतना प्रेम था कि साथ-साथ स्कूल जाते, केदार चम्पा पर मोहित था और माधव श्यामा पर। लेकिन कलावती का मन किसी से न मिला। वह दोनों से खुश और दोनों से नाखुश थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा का बहुत हिस्सा इस बेकार की कोशिश में खर्च होता था कि चम्पा अपने बोलने की चतुराई का कुछ हिस्सा श्यामा के शांत स्वभाव से बदल साथ-साथ खाते और साथ साथ रहते थे ! समय के साथ दोनों भाइयों की शादी हुई। केदार की पत्नी चम्पा बोलने में चतुर और चंचल थी। माधव की पत्नी श्यामा साँवली-सलोनी, रूप की खान थी। बड़ा ही मीठा बोलने वाली, बड़ी ही सुशील और शांत स्वभाव की थी।
ले। ला दोनों भाई के बच्चे हुए । हरा-भरा पेड़ खूब फैला और फलों से लद गया। मुरझाए पेड़ में सिर्फ एक फल दिखाई दिया, वह भी कुछ पीला सा, मुरझाया हुआ, लेकिन दोनों नाखुश थे। माधव को दौलत-जायदाद का लालच था और केदार को संतान की इच्छा।
भाग्य की इस कूटनीति ने धीरे-धीरे ज़हर का रूप ले लिया जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारने-सुधारने में लगी रहती; उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अन्याय कभी-कभी कड़वे शब्दों में निकल आती थी। श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। लेकिन उसकी यह सहनशीलता चम्पा के गुस्से को शांत करने के बदले और बढ़ा देती। यहाँ तक कि प्याला पूरा ऊपर तक भर गया। हिरन भागने का रास्ता न पा कर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्थामा अलग अलग हो गयीं| उस दिन एक ही धर में दो चूल्हे जले, लेकिन भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही।
कई साल बीत गये। दोनों भाई जो किसी समय एक ही साथ बैठते थे, ही थाली में खाते थे और एक ही माँ का दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना मुश्किल हो गया। लेकिन खानदान के नाम में दाग न लगे, इसलिए जलन और गुस्से की धधकी हुई आग को राख के नीचे दबाने की बेकार कोशिश की जाती थी। उन लोगों में अब भाई का प्रेम न था। सिर्फ भाई के नाम की शर्म थी। माँ भी जिंदा थी, पर दोनों बेटों का मन मुटाव देख कर आँसू बहाया करती। दिल में प्रेम था, पर आँखों में अभिमान न था। कुसुम वही था, लेकिन वह चमक न थी। दोनों भाई जब बच्चे थे, तब एक को रोता देख दूसरा भी रोने लगता, तब वह नादान, नासमझ और भोले थे। आज एक को रोते हुए देख दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता है। अब वह समझदार और बुद्धिमान जो हो गये हैं। जब उन्हें अपने-पराये की पहचान न थी, उस समय अगर कोई छेड़ने के लिए एक को अपने साथ ले जाने की धमकी देता, तो दूसरा जमीन पर लोट जाता और उस आदमी का कुर्ता पकड़ लेता। अब अगर एक भाई को मौत भी धमकाती तो दूसरे के आँखों में ऑँसू न आते। अब उन्हें अपने-पराये की पहचान हो गयी थी। बेचारे माधव की दशा दयनीय थी। खर्च ज़्यादा था और आमदनी कमा उस पर कुल-मर्यादा की ज़िम्मेदारी । दिल चाहे रोये, पर होंठ हँसते रहें।
दिल चाहे मैले हो, पर कपड़े मैले न हों। चार बेटे थे, चार बेटियाँ और ज़रूरी सामान महँगा हो गया था । कुछ पैसों की जमींदारी कहाँ तक घर संभालती लड़कों की शादी अपने वश की बात थी। पर लड़कियों की शादी कैसे टल सकती है। दो पाई जमीन पहली बेटी की शादी में भेंट हो गयी। उस पर भी बराती बिना भात खाये आँगन से उठ गये। बची हुई दूसरी बेटी की शादी में निकल गयी। साल भर बाद तीसरी लड़की की शादी हुई, पेड़-पत्ते भी न बचे। हाँ, अब की डाल भरपूर थी। लेकिन गरीबी और गिरवी रखे हुए सामान में वही रिश्ता है जो मांस और कुत्ते में होता है ।
इस लड़की का अभी गौना न हुआ था कि माधव पर दो साल के बकाया लगान का वारंट आ पहुंचा। लड़की के गहने गिरवी रखे गये तब गला छूटा। चम्पा इसी समय की ताक में थी। तुरन्त नये नातेदारों को ख़बर दी। तुम लोग बेखबर बैठे हो, यहाँ गहनों का सफाया हुआ जाता है। दूसरे दिन एक नाई और दो ब्राह्मण माथव के दरवाजे पर आकर बैठ गये। बेचारे के गले में फाँसी पड़ गयी। रुपये कहाँ से आएं, न जमीन, न जायदाद, न बाग, न बगीचा।
रहा विश्वास, वह तो कब का उठ चुका था। अब अगर कोई जायदाद थी, तो सिर्फ़ वही दो कोठरियाँ, जिसमें उसने अपनी सारी उम्र बितायी थी, और उनका कोई ग्राहक न था: देर होने से कट जाती।
इसलिए मजबूर हो कर केदार के पास आया और आँखों में आँसू भरे बोला, “भैया इस समय मैं बड़ी मुसीबत में हूँ, मेरी मदद करो”। केदार ने जवाब दिया-“मधू । आजकल में भी तंग हो रहा हूँ, तुमसे सच कहता हूँ।
चम्पा अधिकार भरे आवाज़ से बोली-“अरे, तो क्या इनके लिए भी तंग हो रहे हैं! अलग रहने से क्या इज्जत अलग हो जायेगी !” केदार ने पत्नी की ओर आँखों के कोरने से ताक कर कहा-“नहीं-नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था। हाथ तंग हे तो क्या, कोई न कोई बंदोबस्त किया ही जायेगा।
चम्पा ने माधव से पूछा- पाँच बीस से कुछ ऊपर ही पर गहने रखे थे न”।
माधव ने जवाब दिया-“हाँ, व्याज लेकर कोई सवा सौ रुपये होते केदार रामायण पढ़ रहे थे। फिर पढ़ने में लग गाये चम्पा ने बातचीत शुरू की- “रुपया बहुत है, हमारे पास होता तो कोई बात न थी लेकिन हमें भी दूसरे से दिलाना पड़ेगा और महाजन बिना कुछ लिखाये-पढ़ाये रुपया देते नहीं”।
माधव ने सोचा, अगर मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ाने को होता, तो क्या और महाजन मर गये थे, तुम्हारे दरवाजे आता क्यों? बोला-“लिखने-पढ़ने को मेरे पास है ही क्या? जो कुछ जगह-जायदाद है, वह यही घर है”। केदार और चम्या ने एक दूसरे को उदास आँखों से देखा मन ही मन कहा-“क्या आज सचमुच जीवन के प्यारे अरमान पूरे होंगें। लेकिन दिल की यह
उमंग मुँह तक आते-आते गम्भीर रूप बन गयी। चम्पा बड़ी गम्भीरता से बोली-“धर पर तो कोई महाजन शायद ही रुपया दै। शहर हो तो कुछ किराया ही आ जाए, पर गाँव में तो कोई किराए में रहने वाला भी नहीं। फिर इस घर में सबकी हिस्सेदारी ठहरी । केदार डरे कि कहीं चम्पा की कठोरता से खेल बिगड़ न जाय। बोले-“एक महाजन से मेरी जान-पहचान है। वह शायद मान जाय !”
चम्पा ने गर्दन हिला कर इस तरकीब की तारीफ़ की और बोली-“पर दो-तीन बीस से ज़्यादा मिलना मुश्किल है। केदार ने जान पर खेल कर कहा-“अरे, बहुत दबाने पर चार तीस हो जायेंगे। और क्या !”
अबकी चम्पा ने तेज़ नज़रों से केदार को देखा और अनमनी-सी होकर बोली-“महाजन ऐसे अंधे नहीं होते।
माधव अपने भाई-भाभी के इस गुप्त राज़ को कुछ-कुछ समझता था। वह चकित था कि इन्हें इतनी बुद्धि कहाँ से मिल गयी। बोला-“और रुपये कहाँ से आएँगे।
चम्पा चिढ़ कर बोली-“और रुपयों के लिए दूसरी फिक्र करो। सवा सौ रूपये इन दो कोठरियों के इस जनम में कोई न देगा, चार बीस चाहो तो एक महाजन से दिला दूं, लिखा-पढ़ी कर लो”।
माधव इन बातों से डर गया। उसे लगा कि यह लोग मेरे साथ कोई गहरी चाल चल रहे हैं। वो मज़बूती के साथ अड़ कर बोला-“और कौन सी फिक्र करूँ? गहने होते तो कहता, लाओ रख दें। यहाँ तो एक धागा भी नहीं है। जब बदनाम हुए तो क्या दस के लिए क्या पचास के लिए, दोनों एक ही बात है।
अगर घर मेरा नाम रह जाय, तो यहाँ तक तो स्वीकार है; लेकिन घर भी बेचू और उस पर भी इज्ज़त धूल में मिले, ऐसा मैं न करूँगा। सिर्फ़ नाम का ध्यान है, नहीं एक बार ना कर जाऊँ तो मेरा कोई क्या करेगा। और सच पूछो तो मुझे अपने नाम की कोई चिंता नहीं है। मुझे कौन जानता है?
संसार तो भैया हँसेगा”।
केदार का मुँह सूख गया। चम्पा भी चकरा गयीं। वह बोलने में बड़ी चतुर औरत थी। उसे माधव जैसे गँवार से ऐसी हिम्मत की आशा न थी। वो उसकी आदर से देख कर बोली- लालू, कभी-कभी तुम भी लड़कों की-सी बातें करते हो? भला इस झोपड़ी पर कौन सौ रुपये निकाल कर देगा? तुम सवा सों के बदले सौ ह ी दिलाओ, मैं आज ही अपना हिस्सा बेचती हूँ। उतना ही मेरा भी तो है? घर पर तो तुम्हें वहीं चार बीस मिलेंगे। हाँ, और रुपयों का ने कर देंगे। इज्जत हमारी-तुम्हारी एक ही है, वह न जाने पायेगी। वह रुपया अलग खाते में चढ़ा लिया जायेगा”।
बंदोबस्त हम खुद माधव की इच्छा पूरी हुई। उसने मैदान मार लिया। सोचने लगा, मुझे तो रुपयों से काम है। चाहे एक नहीं, दस खाते में चढ़ा लो। रहा मकान, वह जीते जी नहीं छोड़ने वाला । यो खुश हो कर चला। उसके जाने के बाद केदार और चम्पा ने कपट-का रूप त्याग दिया और बड़ी देर तक एक दूसरे को इस कड़े सौदे का दोषी साबित करने की कोशिश करते रहे। अंत में मन को इस तरह संतोष दिया की खाना बहुत मधुर नहीं, लेकिन भरपेट तो मिल रहा है। घर, हाँ देखेंगे कि श्यामा रानी इस घर में कैसे राज करती हैं। केदार के दरवाजे पर दो बैल खड़े थे। इनमें कितनी ताकत, कितनी दोस्ती और कितना प्रेम है। दोनों एक ही जुए में चलते हैं, बस इनमें इतना ही नाता है। लेकिन अभी कुछ दिन हुए, जब इनमें से एक चम्पा के मैके मैंगनीं गया था, तो दूसरे ने तीन दिन तक नाद में मुँह नहीं डाला। लेकिन दुःख, एक गोद के खेले भाई, एक माँ का दूध पीने वाले आज इतने बेगाने हो रहे हैं कि एक घर में रहना भी नहीं चाहते।
सुबह का वक़्त था। केदार के दरवाजे पर गाँव के मुखिया और नंबरदार बैठे थे। मुशी दातादयाल अभिमान से चारपाई पर बैठे घर गिरवी रखने के कागज़ तैयार करने में लगे थे। बार-बार कलम बनाते और बार-बार खत रखते, पर खत की शान न सुधरती थी। केदार का चेहरा खिला हुआ था और चम्पा फूली नहीं समाती थी। माधव कुम्हलाया और उदास था।
मुखिया ने कहा-“भाई ऐसा हित, न भाई ऐसा दुश्मन केदार ने छोटे भाई की इज्ज़त रख ली”। नम्बरदार ने हाँ में हाँ मिलाई-“भाई हो तो ऐसा हो” ।
मुख्तार ने कहा-“भाई, सपूतों का यही काम है”।
दातादयाल ने पूछा-“गिरवी रखने वाले का नाम?” बड़े भाई बोले-“माधव बल्द शिवदत्त”।
और लिखाने वाले का?
केदार बल्द शिवदत्त।
माधव ने बड़े भाई ने बड़े भाई की ओर चकित हो कर देखा। उसकी आँखें भर आयीं। केदार उसकी ओर देख न सका। नंबरदार, मुखिया और मुख्तार भी हक्के-बक्के रह गए। क्या केदार खुद ही रुपया दे रहा है? बातचीत तो किसी साहूकार की थी। जब घर ही में रुपया मौजूद है तो कागज़ात बनाने की ज़रुरत ही क्या थी? भाई-भाई में इतना अविश्वास । अरे, राम !राम क्या माधव को 80 रु. नहीं दे सकता और अगर वो दबा भी लेता, तो क्या रुपये पानी में चले जाते।
सभी की आँखें इशारों में आपस में बातें करने लगीं, मानों आश्चर्य की गहरी नदी में नौकाएँ डगमगाने लगीं। श्यामा दरवाजे की चौखट पर खड़ी थी। वह हमेशा केदार का इंतज़ार करती थी, लेकिन आज सिर्फ़ लोकरीति ने उसे अपने जेठ को आडे हाथों लेने से रोका।
बूढी अम्माँ ने सुना तो सूखी नदी उमड़ आयी। उसने एक बार आकाश की ओर देखा और माथा ठोंक ब उसे वो दिन याद आया जब ऐसी ही सुहानी सुनहरी सुबह थी और दो प्यारे-प्यारे बच्चे उसकी गोद में बेठे हुए उछल-कूद कर दूध-रोटी खा रहे थे। लिया।
उस समय माँ की आँखों में कितना गर्व था, दिल में कितनी उमंग और कितना जोश था लेकिन आज, आह आज आँखों में शर्म है और दिल में दुःख और दर्द । उसने ज़मीन की ओर देख कर भरे गले से कहा-“हे नारायण ! क्या ऐसे बेटों को मेरी ही कोख में जन्म लेना था?
सीख – इस कहानी में मुंशीजी ने घर-घर में घटने वाली सच्चाई दिखाई है. इसमें हम देख सकते हैं कि कैसे इंसान बड़े होते-होते अपनी मासूमियत खो देता है, माना जैसे-जैसे उसमें समझ बढ़ती जाती है वैसे वैसे अपनापन, इसानियत और दया कम होती जाती है. बड़े होने के बाद इंसान इतना मतलबी हो जाता है कि उसके मन में अपना पराया, लालच जैसी भावनाएं घर करने लगती हैं, बचपन की मीठी और भोली यादों को छल और कपट ढक लेता है और इसमें सबसे ज़्यादा तकलीफ़ उस माँ को पहुँचती है जो अपने बच्चों को पल-पल एक दूसरे से दूर होता हुआ देखती है.