DAFTARI by Munshi premchand.

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रफाकत हुसैन मेरे दफ्तर का दफ्तरी था। 10 रु. महीना तनख्वाह पाता था। दो-तीन रुपये बाहर के छोटे मोटे काम से मिल जाते थे। यही उसकी जीविका थी, पर वह अपनी हालत से संतुष्ट था। उसकी अंदर की हालात का तो पता नहीं, पर वह हमेशा साफ-सुथरे कपड़े पहनता और खुश मिजाज रहता। कर्ज इस वर्ग के लोगों का गहना है। रफाकत पर इसका जादू न चलता था। उसकी बातों में नकली शिष्टाचार की झलक भी न होती। बेलगाम और खरी कहता था। कर्मचारियों में जो बुराइयाँ देखता, साफ कह देता। इसी साफ बोलने के कारण लोग उसकी इज्जत हैसियत से ज्यादा करते थे। उसे जानवरों से खास प्यार था। एक घोड़ी, एक गाय, कई बकरियाँ, एक बिल्ली और एक कुत्ता और कुछ मुर्गियाँ पाल रखी थीं। इन जानवरों पर जान देता था। बकरियों के लिए पत्तियों तोड़ लाता, घोडी के लिए धास छील लाता।

हालांकि उसे आये दिन जानवर खाने के दर्शन करने पड़ते थे, और अवसर लोग उसके जानवर के प्यार की हँसी उड़ाते थे, पर वह किसी की न सुनता था और उसके इस प्यार मे स्वार्थ न था। किसी ने उसे मुर्गियों के अंडे बेचते नहीं देखा। उसकी बकरियों के बच्चे कभी कसाई की छुरी के नीचे नहीं गये और उसकी घोड़ी ने कभी लगाम का मुँह नहीं देखा। गाय का दूध कुत्ता पीता था। बकरी का दूध बिल्ली के हिस्से में आता था। जो कुछ बचा रहता, वह आप पीता था। किस्मत से उसकी पत्नी भी अच्छी थी। हालांकि उसका घर बहुत छोटा था,

पर किसी ने दरवाजे पर उसकी आवाज नहीं सुनी। किसी ने उसे दरवाजे पर झाँकते नहीं देखा। वह गहने कपड़ों की मांगों से पति की नींद हराम न करती थी। दफ्तरी उसकी पूजा करता था। वह गाय का गोबर उठाती, घोड़ों को घास डालती, बिल्ली को अपने साथ बिठा कर खिलाती, यहाँ तक कि कुत्ते को नहलाने से भी उसे परेशानी न होती थी।

बरसात थी, नदियों में बाढ़ आयी हुई थी। दफ्तर के कर्मचारी मछलियों का शिकार खेलने चले। किस्मत का मारा रफाकत भी उनके साथ हो लिया। दिन भर लोग शिकार खेला किये, शाम को मूसलाधार पानी बरसने लगा। कर्मचारियों ने तो एक गाँव में रात काटी, दफ्तरी घर चला, पर अँधेरी रात राह भूल गया और सारी रात भटकता फिरा। सुबह घर पहुँचा तो अभी अँधेरा ही था, लेकिन दोनों दरवाजे-पट खुले हुए थे। उसका कुत्ता पूँछ दबाये दुखी आवाज से कराहता हुआ आकर, उसके पैरों पर लोट गया।

दरवाजे खुले देख कर दफ्तरी का कलेजा सन्न-से हो गया। घर में कदम रखे तो बिलकुल सन्नाटा था। दो-तीन बार बीवी को पुकारा, लेकिन कोई जवाब मिला।

घर भाँय-भाँय कर रहा था। उसने दोनों कोठरियों में जा कर देखा। जब वहाँ भी उसका पता न मिला तो जानवरघर में गया। भीतर जाते हुए अंजान डर हो रहा था जो किसी अँधेरी गुफ में जाते हुए होता है। उसकी बीवी वहीं जमीन पर बेहोश पड़ी हुई थी। मुँह पर मक्खियाँ बैठी हुई थी, होंठ नीले पड़ गये आँखें पथरा गयी थीं। लक्षणों से अंदाजा होता था कि साँप ने डस लिया है। दिन रफाकत आया तो उसे पहचानना मुश्किल था लग रहा सालों का बीमार है। बिलकुल खोया हुआ, गुम-सुम बैठा रहा मानो किसी दूसरी दूसरे दिन का दुनिया में है। शाम होते ही वह उठा और बीवी की कब्र पर जा कर गया। अँधेरा हो गया। तीन-चार घड़ी रात बीत गयी, पर दीपक टिमटिमाते हुए रोशनी में उसी कब्र पर उदासी और दुख की मूर्ति बना बैठा रहा, मानो मौत का इंतजार कर रहा हो।

मालूम नहीं, कब घर आया। अब यही उसका रोज का नियम हो गया। सुबह उठ कर मजार पर जाता, झाडू लगाता, फूलों के हार चढ़ाता, अगरबत्ती जलाता और नौ बजे तक कुरान का पाठ करता, शाम समय फिर यही क्रम शुरू होता। अब यही उसके जीवन का रोज का काम था। अब वह अंअपने अंदर बसी दुनिया में रहता था। बाहरी दुनिया से उसने मुँह मोड़ लिया था। दुख ने सब से उसका मन हटा दिया था। कई महीने तक यही हाल रहा। कर्मचारियों को दफ्तरी से सहानुभूति हो गयी थी। उसके काम कर लेते, उसे तकलीफ न देते। उसकी पत्नी-भक्ति पर लोगों को आश्चर्य होता था।

लेकिन इंसान हमेशा ख्यालों की दुनिया में नहीं रह सकता। वहाँ का मौसम उसके लिए ठीक नहीं। वहाँ वह सुंदर, मजेदार, भावनाएँ कहाँ ? उदासी में वह चिंता में डूबा सुख कहाँ ? वह उम्मीद से भरी खुशी कहाँ ? दफ्तरी को आधी रात तक ध्यान में डूबे रहने के बाद चूल्हा जलाना पड़ता, सुबह जानवरों की देखभाल करनी पड़ती। यह बोझ उससे सहा नहीं जा रहा था। हालात ने भावुकता पर जीत पायी। रेगिस्तान के प्यासे राही की तरह दफ्तरी फिर शादी के सुख की तलाश ओर दौड़ा। वह फिर जीवन का वही अच्छा समय देखना चाहता था। पत्नी की याद नई शादी की खुशी में गायब होने लगी। यहाँ तक कि छह महीने में उस समय की कोई निशानी भी न रही।

इस मुहल्ले के दूसरे सिरे पर बड़े साहब का एक चपरासी रहता था। उसके यहाँ से शादी की बातचीत होने लगी, मियाँ रफाकत फूले न समाये। चपरासी साहब का सम्मान मुहल्ले में किसी वकील से कम न था। उनकी आमदनी के बारे में बहुत से अंदाजे लगाए जाते थे। साधारण बोलचाल में कहा जाता धा, ‘जो कुछ मिल जाय वह थोड़ा है।’ वह खुद कहा करते थे कि पुराने ज़माने में मुझे जेब की जगह थैली रखनी पड़ती थी। दफ्तरी ने समझा किस्मत खुल गई। इस तरह टूटे, जैसे बच्चे खिलोने पर टूटते हैं। एक ही हफ्ते में सारा काम पूरा हो गया और नई बहू घर में आ गयी। जो इंसान कभी एक हफ्ते से निराश बैठा हो, उसे मुँह पर सेहरा डाले घोड़े पर सवार नए फूल की तरह खीला देखना इंसान के व्यवहार की एक में नई बहू की असलियत खुलने लगी। भगवान लेकिन एक ही हफ्ते पहले दुनिया से अलग, जीवन अनोखी बात थी।

ने उसे सुंदरता से दूर रखा था। पर उसकी कसर पूरी करने के लिए बहुत तेज जुबान दी थी। इसका सबूत उसका वह पलट कर जवाब देना था जो अब अक्सर पड़ोसियों को मजे देता और दफ्तरी को बेइज्जत किया करता था। उसने आठ दिन तक दफ्तरी के स्वभाव की गहराइयों को बड़े गौर से समझा और तब एक दिन उससे बोली- “तुम अजीब इंसान हो। आदमी जानवर पालता है अपने आराम के लिए, न कि जंजाल के लिए। यह क्या कि गाय का दूध कुत्ते पियें, बकरियों का दूध बिल्ली चट कर जाय। आज से सब दूध घर में लाया करो।” दप्तरी के पास कोई जवाब न था। दूसरे दिन घोड़ी का खाना बंद हो गया। वह चने अब भाड़ में भुनने और नमक-मिर्च से खाये जाने लगे। सुबह ताजे दूध का नाश्ता होता, आये दिन खीर बनती। बड़े घर की बेटी, पान बिना कैसे रहती ? घी, मसाले का भी खर्च बढ़ा। पहले ही महीने में दफ्तरी को समझ गया कि मेरी आमदनी गुजारे के लिए काफी नहीं है। उसकी दशा उस इंसान की-सी थी, जो शक्कर के धोखे में मिर्च खा गया हो।

दफ्तरी धर्म को मानने वाला इंसान था। दो- महीने यह तकलीफ सहता रहा। पर उसकी सूरत उसकी हालत को शब्दों से ज्यादा बता देती थी। वह दफ्तरी जो कमी में भी संतोष का सुख उठाता था, अब चिंता की जीती जागती मूर्ति था। कपडे मेले, सिर के बाल बिखरे हुए, चेहरे पर उदासी छायी हुई, दिन-रात हाय-हाय किया करता था। उसकी गाय अब हड्डियों का ढाँचा थी, घोड़ी का जगह से हिलना मुश्किल था, बिल्ली पड़ोसियों के छींकों पर उचकती और कुत्ता कचड़े से हड्डियाँ नोचता फिरता था। पर कान का सा काके केलकों कने भवस न करता था। सबसे बड़ी परेशानी पत्नी का भी वह बहादुर इन पुराने । वह बड़बोलापन था जिसके सामने कभी उसका धैर्य, उसकी काम करने की इच्छा, उसकी खुशी भाग जाती और अपनी अँधेरे कमरे के एक कोने में बैठ कर खूब फूट-फूट कर रोता। संतोष के सुख को न पा कर रफाकत का दुखी दिल आवारगी की ओर मुड गया।

खुद पर नाज होना, जो संतोष से मिलता है, उसके मन से गायब हो गया। उसने फाकेमस्ती का रास्ता लिया। अब उसके पास पानी रखने के लिए कोई बरतन न था, मतलब उसके पास अपनी इज्जत बचाने का कोई तरीका न था। वह उस कुएँ से पानी खींच कर उसी दम पी जाना चाहता था जिससे वह जमीन पर बह न जाय। मतलब वो अपनी जो बची हुई जवानी है उसे मस्ती मजे से जीना चाहता था, ताकि वह भी खराब न हो जाए। तनख्वाह पा कर अब वह महीने भर का सामान जुटाता, ठंडे पानी और रूखी रोटियों से अब गुजारा न होता, बाजार से बिस्कुट लाता, मलाई के दोनें और कलमी आमों की ओर लपकता।

दस रुपये कितने दिन चलते? एक हफ्ते में सब रुपये उड़ जाते, तब किताब बनवाने वालों से आए हुए एडवांस पर हाथ बढ़ाता, फिर दो-एक दिन भुखे रहने के बाद, आखिर में उधार मांगने लगता। धीरे धीरे यह हालत हो गयी कि तनख्वाह उधार चुकाने में ही चली जाती और महीने के पहले ही दिन कर्ज लेना शुरू करता। वह पहले दूसरों को पैसे हिसाब से खर्च करने की नसीहत दिया करता था, अब लोग उसे समझाते, पर वह लापरवाही से कहता साहब, आज खाना मिलता है खाते हैं कल का खुदा मालिक है; मिलेगा खायेंगे, नहीं पड़ कर सो रहेंगे। उसकी हालत अब उस बीमार सी हो गयी जो इलाज से निराश हो कर परहेज छोड़ देता है, जिसमें मौत के आने तक वह खाने से अच्छी तरह संतुषट हो जाय।

लेकिन अभी तक उसने घोड़ी और गाय न बेची, यहाँ तक कि एक दिन दोनों जानवरखाना में चली गयीं। बकरियाँ भी लालच के शेर के पजे में फैस गरयी। पोलाव और जरदे के चस्के ने नानबाई का कर्जदार बना दिया था। जब उसे मालूम हो गया कि नगद रुपये वसूल न होंगे तो एक दिन सभी बकरियाँ हाँक ले गया। दफ्तरी मुँह ताकता रह गया। बिल्ली ने भी वफादारी से मुँह मोड़ा। गाय और बकरियों के जाने के बाद अब उसे दूध के बर्तनों को चाटने की भी उम्मीद न रही, जो उसके प्यार के रिश्ते का आखिर हिस्सा था। हाँ, कुत्ता पुराने अच्छे व्यवहार की याद करके अभी तक साथ था, लेकिन उसकी जिंदगी जा चुकी थी। यह वह कुत्ता न था जिसके सामने दरवाजे पर किसी अनजान इंसान या कुत्ते का निकल जाना मुमकिन नहीं था। वह अब भी भूंकता था, लेकिन लेटे-लेटे और प्रायः छाती में सिर छिपाये हुए, मानो अपने हालात पर रो रहा हो। या तो उसमें अब उठने की ताकत ही न थी, या वह कभी की गई दया के लिए इतनी मेहनत काफी समझता था। शाम का समय था। मैं दरवाजे पर बैठा हुआ पत्र पढ़ रहा था कि अचानक दफ्तरी को आते देखा। शायद कोई किसान सम्मन पाने वाले चपरासी से भी इतना डरा हुआ न होगा, बच्चे टीका लगाने वाले से भी इतना न डरते होंगे। में हड़बड़ा कर उठा और चाहा कि अंदर जा कर दरवाजे बंद कर लूँ कि इतने मैं दफ्तरी लपक कर सामने आ पहुँचा। अब कैसे भागता ? कुर्सी पर बैठ गया, पर नाक-भी चढ़ाये हुए। दफ्तरी किसलिए आ रहा था इसमें मुझे जरा सा भी शक न था। उधार मांगने वालों की मन की इच्छा उनके चहरे पर, उनके व्यवहार से साफ पता चलती है। वह एक खास नम्रता, शर्मिंदा मजबूरी होती है जिसे एक बार देख कर फिर नहीं भुलाया जा सकता।

दफ्तर से आते ही बिना किसी इधर उधर की बात किए कह सुनाया जो मुझे पहले ही पता चल चुका था। मैंने रुखाई से जवाब दिया “मेरे पास रुपये नहीं है”।

दफ्तरी ने सलाम किया और उल्टे पाँव लौटा। उसके चेहरे पर ऐसा दुख और मजबूरी छायी थी कि मुझे उस पर दया आ गयी। उसका इस तरह बिना कुछ कहे-सुने लौटने में कितना मुझे था इसमें शर्म थी, संतोष था, पछतावा था। उसके मुँह से एक शब्द भी न निकला, लेकिन उसका चेहरा कह रहा था, था कि । यही जवाब देंगे ! इसमें मुझे जरा भी शक न था। लेकिन यह जानते हुए भी मैं यहाँ तक आया, मालूम नहीं क्यों ? मेरी समझ में खुद नहीं आता। शायद आपकी दयालुता, आपका अपनापन मुझे यहाँ तक लायी। अब जाता हूँ, वह मुँह ही नहीं रहा कि अपनी कुछ बात सुनाऊँ।

मैंने दफ्तरी को आवाज दी- “जरा सुनो तो, क्या काम है ?” दफ्तरी को कुछ उम्मीद हुई, बोला- “आपको क्या बताऊँ, दो दिन से कुछ खाना नहीं हुआ है।

मैंने बड़ी नरमी से समझाया- “इस तरह कर्ज ले कर कितने दिन तुम्हारा काम चलेगा। तुम समझदार आदमी हो, जानते हो कि आजकल सभी को अपनी फिक्र सवार रहती है। किसी के पास फालतू रुपये नहीं रहते और अगर हों भी तो वह कर्ज दे कर परेशानी क्यों लेने लगा। तुम अपनी हालत सुधारते क्यों नहीं।”

दफ्तरी ने उदास भाव से कहा- “यह सब दिनों का फैर है। और क्या कहूँ। जो चीज महीने भर के लिए लाता हूँ, वह एक दिन में उड़ जाती है, मैं घरवाली के चटोरेपन से मजबूर हूँ। अगर एक दिन दूध न मिले तो तहलका मचा बाजार से मिठाइयाँ न लाऊँ तो घर में रहना मुश्किल हो जाय, एक दिन मांस पके तो मेरी बोटियाँ नोच खाय। खानदान का शरीफ हूँ। यह बेइज्जती नहीं सही जाती कि खाने के पीछे बीवी से झगड़ा करूँ। जो कुछ कहती है सिर के बल पूरा करता हूँ। अब खुदा से यही दुआ है कि मुझे इस दुनिया से उठा ले। इसके सिवाय मुझे दूसरी कोई सुरत नहीं नजर आती, सब कुछ करके हार गया।” मैंने बक्से से 5 रु. निकाले और उसे दे कर बोला- “यह लो, यह तुम्हारे मेहनत और फर्ज निभाने का इनाम है। मैं नहीं जानता था कि तुम्हारा दिल इतना बड़ा है और तुम इतने बहादुर हो।”

घर की आग में जलने वाले वीर का महत्त्व लड़ाई के मैदान में लड़ने वाले वीरों से कम नहीं होता। सीख -इस कहानी में मुंशी जी एक इसान की जिंदगी में उसके जीवनसाथी या परिवार की अहमियत को समझाना चाहते हैं। एक इंसान जिनके साथ और जिस माहौल में रहता है, उसका असर उस इंसान के स्वभाव और व्यवहार पर पड़ता है। दफ्तरी की पहली बीवी, जोकि अच्छे स्वभाव और अच्छे व्यवहार वाली थी, के कारण दफ्तरी हमेशा खुश, काम में अच्छा और संतोषी नजर आता था। लेकिन उसकी दूसरी बीवी उसकी पहली बीवी के विपरीत स्वभाव वाली थी और उसके आने के बाद दफ्तरी का हुलिया, स्वभाव और व्यवहार सब बदल गया।

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