BOODHI KHAKI by Munshi premchand.

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कहते हैं कि बुढ़ापा एक बार फ़िर से बचपन का दौर लेकर आता है। बूढ़ी काकी के साथ भी ऐसा ही कुछ था, वो अपने जीभ के स्वाद से बंध गई थीं, उन्हें और किसी बात की परवाह ही नहीं थी. इसके साथ-साथ रोने के अलावा उनकी ओर से कोई दूसरा सहारा भी नहीं था। उनके पाँचों सेंस organ, आँखें, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। वो ज़मीन पर पड़ी रहतीं और अगर घर वाले उनकी मर्जी के खिलाफ़ कोई काम करते या खाना परोसने में थोड़ी देर हो जाती या बाज़ार से मंगवाया हुआ कोई सामान नहीं मिलता तो वो रोने लगती। उनका रोना-सिसकना आम रोना धोना नहीं था, वो गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।……

कहते हैं कि बुढ़ापा एक बार फिर से बचपन का दौर लेकर आता है। बूढ़ी काकी के साथ भी ऐसा ही कुछ था, वो अपने जीभ के स्वाद से बंध गई थीं, उन्हें और किसी बात की परवाह ही नहीं थी. इसके साथ-साथ रोने के अलावा उनकी ओर से कोई दूसरा सहारा भी नहीं था। उनके पाँचों सेंस organ, आँखें, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। वो ज़मीन पर पड़ी रहतीं और अगर घर वाले उनकी मर्जी के खिलाफ कोई काम करते या खाना परोसने में थोड़ी देर हो जाती या बाज़ार से मंगवाया हुआ कोई सामान नहीं मिलता तो वो रोने लगती। उनका रोना-सिसकना आम रोना थोना नहीं था, वो गला फाड़-फाड़कर रोती थी

उनके पति को गुज़रे बहुत लंबा समय बीत चुका था। छोटी-छोटी उम्र में ही उनके बेटे भी भगवान् को प्यारे हो गए थे। अब एक भतीजे के अलावा उनका और कोई नहीं था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी जायदाद लिख दी थी। भतीजे ने सारी जायदाद लिखवाते समय खूब लम्बे-चौड़े वादे किए, लेकिन वे सब वादे सिर्फ दलालों के सिखाए हुए झूठे वादे थे। हालांकि उस जायदाद की annual इनकम डेढ़-दो सौ रुपए के लगभग थी, जो उस समय के हिसाब से अच्छी रकम धी लेकिन इतना मिलने के बाद भी बूढ़ी काकी को पेट भर खाना भी मुश्किल से मिलता था। इसमें उनके भतीजें पंडित बुद्धिराम का या या का दोष था या उनकी पत्नी रूपा का, इसका फैसला करना आसान नहीं था। बुद्धिराम स्वभाव के भले आदमी थे, लेकिन सिर्फ़ तब तक जब तक उनकी तिजोरी पर कोई आँच न आए। रूपा स्वभाव से यूं तो तेज़ थी पर भगवान् से डरती थी। इसलिए बुढ़ी काकी को उसका मिजाज़ इतना नहीं

खाता था जितना बुद्धिमान का दयाल स्वधात। दयालु स्वभाव।

बुद्धिराम को कभी को कभी-कभी अपने बुरे बर्ताव के लिए पछतावा होता था। वो सोचते कि इसी जायदाद के कारण मैं इस समय अच्छा आदमी बना बैठा हूँ।

अगर सुख सुविधा के सामान और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो, तो उन्हें बिलकुल कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन ज़्यादा खर्च का डर उनकी अच्छाई को दबाए रखता था। यहाँ तक कि अगर दरवाज़े पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगती तो वह बहुत नाराज़ हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डॉटते। कम उम्र के लड़कों को बुड्ों पर वैसे भी गुस्सा आता ही है और जब बुद्धिराम के लड़के अपने माता-पिता का यह रंग देखते तो वो भी बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख मारकर रोती लेकिन यह बात जानी पहचानी थी बह सिर्फ खाने के लिए रोती थी, इसलिए उनके रोने धोने पर कोई ध्यान नहीं देता हाँ, जब काकी गुस्से में आग बबूला होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा वहां आ जाती। इस डर से काकी अपनी तलवार जैसी जीभ का कभी-कभार ही इस्तेमाल करती थीं, जबकि यह उपाय रोने से कहीं ज्यादा असरदार था।

पूरे परिवार में अगर काकी से किसी को प्रेम था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के डर से अपने हिस्से की मिठाई बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसकी रक्षा करने वाली थीं और हालांकि काकी की शरण में आना उनके लालच के कारण महंगा पड़ता था, लेकिन अपने भाइयों के अन्याय से ये सुरक्षा कहीं ज़्यादा बेहतर थी तो बस वो यहीं आ जाती। अपने-अपने मतलब के इस रिश्ते ने आखिर उन दोनों में सहानुभूति का बीज बो दिया था।

रात का समय था। बुद्धिराम के दरवाजे पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झंड आश्चर्य भरी आँखों से गाने का आनंद ले रहा था। चारपाइयों पर मेहमान आराम करते हुए नाइयों से सेवा करवा रहे थे। पास खड़ा भाट विरुदावली सुना रहा था और कुछ मेहमानों की ‘वाह, वाह पर ऐसे ख़ुश हो रहा था मानो इस वाह-वाह’ का असल में वही अधिकारी है। दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नौजवान इस व्यवहार से उदास थे। वे इस गँवार मंडली में बोलना या शामिल होना अपनी शान के खिलाफ़ समझते थे। आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया धा। यह उसी का जश्न था। घर के अंदर औरतें गा रही धीं और रूपा मेहमानों के लिए खाना

बनाने में बिजी थी। भट्टियों पर कड़ाही चढ़ी हुई थी। । एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अलग-अलग पकवान बन रहे थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार सब्ज़ी पक रही थी। मुह में पानी भर देने वाले घी और मसाले की सुगंध चारों ओर फैली हुई थी। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में उदास और दुखी बैठी हुई थीं। यह स्वाद में घुली सुगंध उन्हें बेचैन कर रही थी। चे मन-ही-मन सोच रही थीं, शायद मुझे पूड़ियाँ नहीं मिलेंगी। इतनी देर हो गई, कोई खाना लेकर नहीं आया। लगता है सब लोग खा चुके हैं। मेरे लिए कुछ नहीं बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आ गया, लेकिन अपशकुन के डर से वह रो ना सकीं।

आहा. क्या सुगंध है? अब मुझे कोन पूछता है। जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियाँ मिले? यह विचार कर उन्हें रोना आया, मन दुखी होने लगा। लेकिन रूपा के डर से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया। बूढ़ी काकी देर तक इन्ही दुखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगंध रह-रहकर उनके मन को आपे से बाहर कर रही थी। मुँह में पानी भर-भर कर आ रहा था। पूड़ियों का स्वाद याद करके दिल में गुदगुदी होने लगती। किसे आवाज़ लगाऊं, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों लड़के हमेशा तो देख जाया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ पता तो चले कि क्या बन रहा है।

बूढ़ी काकी के ख़यालों में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने जमकर खाया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की खुशबू आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाही के सामने ही बैठ जाऊ। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होगी। कड़ाही से गरम-गरम निकालकर थाली में रखी जा रही होगी। यू तो फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, लेकिन बगीचे में उसकी बात ही कुछ और होती है। इस तरह विचार करके बूढ़ी काकी उकडूं बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी मुश्किल से चौखट से उतरी और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाही के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतनी ही शांति मिली जितनी एक भूखे कुत्ते को खाने वाले के सामने बैठने से मिलती हैं।

रूपा उस समय काम के बोझ की वजह से आपे से बाहर हो रही थी। कभी इस कोने में जाती, कभी उस कोने में, कभी कड़ाही के पास जाती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा–महाराज ठंडाई मांग रहे हैं। तो ठंडाई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा–भाट आया है, उसे कुछ दे दो। भाट के लिए सिद्धा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा–‘अभी खाना तैयार होने में कितनी देर है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो। बेचारी अकेली औरत दौड़ते-दौड़ते परेशान हो रही थी, वो झुंझलाती भी रही थी, कुद भी रही थी, लेकिन गुस्सा ज़ाहिर नहीं कर पा रही थी। उसे से खुद का गला सूख रहा था और था कहीं पड़ोसन यह न कहने लगे कि इतने में उबल पड़ीं। प्यास से गर्मी ले के मारे पसीने से तर बतर हो रही थी, लेकिन इतनी फुर्सत नहीं थी कि जरा पानी पी ले या पंखा से हवा कर ले। यह भी डर था कि जरा सी देर आँख हटी और चीज़ों की लूट मची। ऐसी स्थिति में उसने बूढी काकी को कड़ाही के पास बैठी देखा तो जल गई और अपना गुस्सा नहीं रोक पाई। उसे इस बात का भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिर्ने बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगीं। आदमी सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस तरह मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी तरह बह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथ्थों से झटक कर बोली– ऐसे पेट में आग लगे, पैट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुट रहा था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धीरज नहीं रख सकी? आकर छाती पर सवर हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। दिन भर खाती है, मैं नहीं तो जाने किसकी रसोई में मुँह डालती? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया को भरपेट खाने नहीं मिलता तभी तो इस तरह मुँह बाए फिरती है। डायन मर जाए तो पीछा छूटे। हमारा नाम खराब करने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतना हूँसती है फ़िर भी न जाने वो कहां भस्म हो जाता है। भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हे भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, लेकिन तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए। बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोई, शक्ति, सारे विचार और सारा बोझ उसी पर आवाज करती हुई अपनी कोठरी में चली गई। आवाज़ ऐसी कठोर धी कि दिल और दिमाग की सारी न कुछ बोलीं। आकर्षित हो गए थे। खाना तैयार हो गया था। आगन में पत्तलें लगाई गई, मेहमान खाने लगे। औरतों ने जेवनार-गीत गाना शुरू किया। मेहमानों के नाई और सेवक भी उसी मंडली के साथ, लेकिन कुछ दूर हटकर खाना खाने बैठे, लेकिन सभ्यता के अनुसार जब तक सब-के सब खा न लें तब तक कोई उठ नहीं सकता था। दो-एक मेहमान जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के इस तरह खाने पर झुंझला रहे थे। वे इस तरह के बंधन को बेकार की बात समझते थे। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर दुःख जता रही थी कि मैं कहाँ-से-कहाँ आ गई। उन्हें रूपा पर गुस्सा नहीं आया। उन्हें तो अपनी जल्दबाज़ी पर दुख हो रहा था। सच ही तो है जब तक मेहमान खा ना लें, घर वाले कैसे खाएंगे। मुझ से इतनी देर भी न रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया अब जब तक कोई बुलाने नहीं आएगा, तब तक नहीं जाऊंगी।

मन-ही-मन इस तरह का विचार कर वह बुलावे का इंतज़ार करने लगीं। लेकिन घी के स्वाद की लालसा में ये इंतज़ार बहुत लंबा लग रहा था। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के जैसा लग रहा था। अब पत्तल बिछ गई होगी। अब मेहमान आ गए होंगे। लोग हाथ पैर धो रहे होंगे, नाई पानी दे रहा होगा। लगता है अब लोग खाने बैठ गए होंगे। जेवनार गाया जा रहा होगा, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गईं। धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें लगा कि मुझे गाते गाते काफ़ी देर हो गई है। क्या इतनी देर से लोग खाना ही खा रहे हैं। किसी की भी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही। लोग ज़रूर खा-पीकर चले गए हैं। मुझे कोई बुलाने नहीं आया।

रूपा चिढ़ गई है, क्या पता शायद ना बुलाए। वो सोच रही होगी कि अपने आप ही आ जाएंगी, वह कोई मेहमान तो नहीं है जो उन्हें बुलाने जाऊ। बुडी काकी चलने को तैयार हुई। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार सब्जियों सामने आएंगी, उनकी जीभ को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के ख़याल बनाए– पहले सब्जी से पूड़ियाँ खाऊंगी, फिर दही और चीनी से, करचौरियों रायते के साथ मज़ेदार लगेंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो मांग-मांगकर खाऊंगी। लोग यही ना कहेंगे कि ये सोचती ही नहीं? अरे जो कहना है कहते रहे, इतने दिन के बाद पूडियाँ मिल रही हैं तो में थोड़ा सा लेकर थोड़े ही उठ जाऊंगी। वह उकड़ू बैठकर करते हुए आंगन में आई। लेकिन हाय रे बुरी किस्मत! इच्छा ने झूठी कल्पना की थी। मेहमान-मंडली अभी बैठी हुई थी।

कोई खाकर उगलियाँ चाट रहा था, कोई तिरछी नज़रों से देख रहा था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिंता में था कि अगर पत्तल पर पूड़ियाँ छूट जाती हैं तो किसी तरह इन्हों अंदर लेता। कोई दही खाकर चटकारे ले रहा था, लेकिन दूसरा दोना मांगने में शर्मा रहा था कि इतने में बूढी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे – अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे। पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही गुस्से से तिलमिला गए। पूडियों का थाल लिए खड़े थे। धाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार बेरहम महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्जदार को देखते ही उसका गला पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया। जैसे उम्मीद लिए कोई बगीचा लू के एक झोंके में बर्बाद हो गया हो।

मेहमानों ने खाना खाया। घरवालों ने खाया। बाजे वाले, धोबी, चमार भी खा चुके थे, लेकिन बूढी काकी को किसी ने नहीं पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी बेशर्मी के लिए सज़ा देने का मन बना चुके थे। उनके बुढ़ापे, अकेलेपन, सादगी पर किसी को दया नहीं आई। अकेली लाडली का उनके लिए दिल जल रहा था। लाडली को काकी से बहुत प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। शरारत और चंचलता की उसमें गंध तक नहीं थी। दोनों ही बार जब उसके माता-पिता ने काकी को बेरहमी से घसीटा तो लाडली का दिल बैठ गया। वह झुंझला रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान ही सब-की-सब खा जाएंगे? और अगर काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धीरज बंधाना चाहती थी, लेकिन माँ के डर से नहीं जा पाई। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ नहीं खाई बल्कि अपनी गुड़िया के डब्बे में बन्द कर के रख दी। वो उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका मन बेचैन हो रहा था। बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगीं, पुड़ियाँ देखकर कितनी खुश हो जाएंगी!

मुझे खूब प्यार करेंगी, वो यही सोचती रही.

रात को ग्यारह बज गए थे। रूपा आंगन में पड़ी सो रही थी। लाडली की आँखों में नींद का नामोनिशान तक नहीं था। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने नहीं दे रही थी। उसने गुड़ियों के डब्बे को सामने रखा था। जब उसे विश्वास हो गया कि माँ सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और सोचने लगी, कैसे जाऊं। चारों ओर अंधेरा था। सिर्फ चूल्हों में आग चमक रही थी और चुलहों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था। लाडली की नज़र सामने वाले नीम के पेड़ पर गई। उसे मालूम था कि उस पर हनुमान जी यानी बंदर बैठे हुए हैं। उनकी पूँछ, उनकी गदा, साफ़ दिख रही थी। मारे डर के उसने आँखें बंद कर लीं। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को कुछ हिम्मत मिली। उसने अपना डब्बा उठाया और बूढी काकी की कोठरी की ओर चली।

बूढ़ी काकी को सिर्फ इतना याद था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा लगा कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाकर ले जा रहा हो। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराए फ़िर किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वो गिरीं और बेहोश हो गईं।

जब उन्हें होश आया तो किसी की ज़रा भी आहट सुनाई नहीं दी। वो समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई। अब रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊँ? पेट में आग जल रही है। हा! किसी ने मेरी सुध नहीं ली। क्या मेरा पेट नहीं भरने से इनका खज़ाना बढ़ जाएगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाए? उसका जी क्यों दुखाएं? मैं पेट भरने के लिए रोटियाँ ही खाती हूँ और इस पर यह हाल है। में अंधी.

. अपाहिज ठहरी, न कुछ सुन सकती हूँ, न समझ सकती हूँ। अगर आंगन में चली गई तो क्या बुद्धिराम से इतना नहीं कहा गया कि काकी अभी लोग खाना खा रहे हैं थोड़ी देर बाद में आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्ही पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने मुझे गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए बुरी दशा करने भी इतनी । उनका पत्थर का दिल नहीं पिचला। सबको खिलाया मगर मुझे पूछा तक नहीं। जब उस वक़्त नहीं दिया, तो अब क्या देंगे? यह सोचकर काकी निराश दुई और इसी संतोष के साथ लेट गई। दुःख से बार-बार गला भर आता था, लेकिन मेहमानों के डर से वो रोती नहीं थी। तभी अचानक उनके कानों में आवाज़ आई– काकी उठो, मैं पूड़िया लाई हूँ। काकी ने लाड़ली की बोली पहचान ली और चटपट उठ बैठीं। दोनो हाथों से लाडली को पकड़ा और उसे गोद में बिठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं।

काकी ने पूछा– क्या तुम्हारी माँ ने दी है? लाडली ने कहा– नहीं, यह मेरे हिस्से की है ो हैं।

काकी पूड़ियों पर टूट पड़ीं। पाँच मिनट में डब्बा खाली हो गया। लाडली ने पूछा– काकी पेट भर गया ना। जैसे थोड़ी-सी बारिश ठंड की जगह और भी गर्मी पैदा कर देती है उसी तरह इन थोड़ी सी पूड़ियों ने काकी की भूख और इच्छा को और भी बढ़ा दिया था। वो बोली– नहीं बेटी, जाकर मां से और मांग लाओ।

लाड़ली ने कहा-माँ सो रही अगर गई तो वो मारेंगी। काकी ने डब्बे को फिर से टटोला। उसमें कुछ टुकड़े गिरे हुए थे। चो बार-बार होठों से उसे चाटती और चटखारे भरती।

उनका मन छोटा शराबियों को था कि और वीडियो कैसे खाऊ। जब सब्र का बाँध टूट जाता है तब इच्छा की लहर बहुत ऊँची उठने लगती है। शराब की याद को और भी उतावला कर देती है। काकी का बेचैन मन इच्छाओं की इस ऊँची लहर में बह गया। सही और गलत के बारे में सोचने की उनकी शक्ति कम होने लगी। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। फिर अचानक लाडली से बोली– मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर खाना खाया था।

लाडली उनका मतलब समझ नहीं पाई। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। लाचार, भूख से बेहाल, अकेली बूढ़ी काकी पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े को चुन-चुनकर खाने लगी। ओह… दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी मुलायम, खस्ता और कितनी लज़ीज। काकी ज्यादा पढ़ी लिखी ना होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं काम कर रही हूं, जो मुझे कभी नहीं करना चाहिए। में दूसरों की झूठी पत्तल चाट रही हूं। लेकिन बच्चों की ज़िद करना, खाने के लिए मन ललचाना बुढ़ापे में बस यही रह जाता है जब सारी इच्छाएँ एक ही जगह पर सिमटने लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह जगह थी उनकी जीभ।

ठीक उसी समय रूपा की आँख खुली। उसने देखा कि लाड़ली पास में नहीं है। वह चांकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी।

उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है। रूपा का दिल सुन्न हो गया। किसी गाय की गरदन पर चाकू चलते देखकर जो हालत होती है, वही उसकी उस समय हो रही जो। भी। एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल से खा रही थी, इससे ज़्यादा बुरा और दर्दनाक नज़ारा कुछ नहीं हो सकता था। चूड़ियों के कुछ सवालों के लिए उसकी चचेरी सास इतना घिनौना काम कर रही थी। यह वह नज़ारा था जिसे देखकर देखने वालों के दिल काँप उठते हैं। ऐसा लग रहा था मानो जमीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा था। दुनिया पर कोई मुसीबत आने वाली थी। रूपा को गुस्सा नहीं आया। दुःख के सामने गुस्सा कैसे । आएगा? दया और डर से उसकी आँखें भर आई। इस अधर्म का ज़िम्मेदार कौन है? उसने सच्चे दिल से आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा-भगवान, मेरे बच्चों पर दया करना। इस पाप का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा। रूपा को अपनी खुदगर्जी और अन्याय इस तरह साफ़-साफ़ सामने कभी नहीं दिखे थे। वह सोचने लगी– हाय! मैं कितनी बेरहम हूँ। जिसकी जायदाद से मुझे दो सौ रुपया मिल रहे हैं, उसकी इतनी बुरी दशा और वो भी मेरे कारण। हे दया करने वाले भगवान! मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई है, मुझे माफ़ कर दो। आज मेरे बेटे का तिलक था। हज़ारों लोगों ने भरपेट खाया। मैं उनके इशारों पर नाचती रही, एक नौकरानी की तरह। अपने नाम के लिए हमने हज़ारों रुपए खर्च कर दिए, लेकिन जिसके कारण हमें हज़ारों रुपए मिले, उसे इस जश्न में भी भरपेट खाना नहीं दे सकी सिर्फ इसलिए ना क्योंकि वो बूढ़ी और असहाय है।

रूपा ने दिया जलाया, अपने रसोई का दरवाजा खोला और एक थाली में सारे पकवान सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली।

आधी रात बीत चुकी थी, आसमान पर तारों के थाल सजे हुए थे और मानों देवता उसे सुंदर दिव्य सामान से सजा रहे थे लेकिन उनमें से किसी को भी दो परम आनंद का सुख महसूस नहीं हुआ होगा जो बूढ़ी काकी को अपने सामने खाने की थाल को देखकर हुआ था। रूपा ने भरे गले से कहा—काकी उठो, खाना खा लो। मुझसे आज बहुत बड़ी गलती हुई है, उसका बुरा मत मानना। भगवान् से प्रार्थना करना कि चह मेरे गुनाह को माफ़ कर दें। कोने भाई बच्चों की तरह, जो मिठाइयाँ मिलने पर मार और अपमान सब ब भूल जाते हैं, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी और खाना खाने लगी। उनके रोम-रोम से सच्ची दुआएं निकल रही थीं और रूपा बैठी उस अद्भत और दिव्य नज़ारे का आनन्द लेने में मगन थी, सीख – इस कहानी में मुशी प्रेमचंद जी ने आज समाज में बुजुर्गों की जो हालत है उस बारे में बताया है. बुढ़ापे में इंसान के सोचने समझने की शक्ति कमजोर हो जाती है, वो बच्चों की तरह ज़िद्दी और नासमझ हो जाते हैं लेकिन परिवार वाले इस बात को समझने के बजाय बार-बार उनका अपमान करते हैं. इसके साथ ही उन्होंने बुढ़ापे में होने वाली कई समस्याओं के बारे में भी बताया है जैसे बुजुर्गों को कम दिखने और सुनने लगता है, उन्हें चलने फिरने में दिक्कत होती है और वो अपनी रोज़ की ज़रूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं. अपने साथी के गुज़र जाने के बाद जब कोई इसान अकेला हो जाता है तो उसे क्या-क्या सहना पड़ता है उसकी झलक भी हमें दिखाई दी. जीवन में अकेलापन, खुशियों और लोगों की कमी के कारण बूढ़े बिलकुल बच्चों की तरह हो जाते हैं. अपना खालीपन भरने के लिए वो चीज़ों के लिए तरसने लगते हैं. वो चीज़ों में अपनी खुशियाँ हूँढने लगते हैं. बूढ़ी काकी के मामले में उनके जीभ का स्वाद उनकी कमज़ोरी जान गई थी.

परिवार अक्सर बड़े बूढ़ों को बोझ समझने लगता है, वो उनका सम्मान नहीं करते, आजकल धीरे-धीरे खत्म हो रहे संस्कार भी इसका बहुत बड़ा कारण है. परिवार को लगने लगता है कि ये बूढ़े कुछ करते तो हैं नहीं सिर्फ मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ते हैं, उनका पेट भरने में उनकी जान निकलती है लेकिन उनकी जायदाद हड़पने वो तुरंत पहुँच जाते हैं. एक इंसान के रूप में हम कितना नीचे गिर गए हैं, हे ना? बुढ़ापा उम्र का वो दौर है जिससे हम सभी को होकर गुज़रना है.

खुद से पूछिए, क्या आप ऐसा बुढ़ापा चाहेंगे? अकेलेपन और अपमान से भरा हुआ? अपने बुजुर्गों का सम्मान करें, वो आपसे सिर्फ इज्ज़त और आपका थोड़ा समय चाहते हैं और कुछ नहीं. अब बूढ़ी काकी को ही देख लीजिए, उनके साथ इतना बुरा सलूक किया गया लेकिन अंत में वो एक मासूम बच्चे की तरह सब भुला बैठी और अपनी भूख शांत करते हुए उन्होंने सच्चे दिल से ढेर सारी दुआएं दीं. इस बारे में सोचिएगा ज़रूर,

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