ये किसके लिए है?
-ये इतिहासविद जि द्वितीय विश्वयुद्ध के बारे में जानने की इच्छा है।
- जिन लोगों को इस्टर्न यूरोप का प्राधुनिक हतिहास जानना है।
जान या रशियन इतिहास के विद्यार्थी।
लेखक के बारे में
टिमोथी सनाईडर येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर है। वे यूरोप के इतिहास और विनाश की घटनाओं के विशेषज्ञ है। उन्होंने रीकंस्ट्रक्सन ऑफ नेशन्स और द रेड पिस जैसी कई अवार्ड विनिंग किताबे कैसी है।
यह किताब आपको क्यों पढ़नी चाहिए
दुसरे विश्व युद्ध के दौरान यूरोप में नाज़ी जर्मनी द्वारा किये गए अत्याचारों को बहुत भच्छी तरह से वर्णित किया गया है। अनेकों बार इन युद्ध के विक्टिम्स को किताबों और
मेमोरियल्स में याद भी किया गया है। सोवियत यूनियन में स्टालिन द्वारा अपने ही लोगों और बॉर्डर के देशों में रह रहे वेस्ट के लोगों पर किये गाए अत्याचारों को नजरंदाज किया जाता है। पालैंड, उक्रेन, बेलारूस च बाल्टिक स्टेटस पर अपना मिलिट्री अधिकार जमाने के लिए रूस के स्टालिन और जर्मनी के हिटलर ने जबर्दस्त आतक मचाया।
इस समरी में आप जानेंगे कि किस तरह से इन दोनों तानाशाहों और इनकी क्रिमिनल अथॉरिटी ने लाखों-करोड़ो लोगों को मारा और यूरोप के नक्शे को तहस-नहस कर दिया।
इसके अलावा आप जानेंगे कि
- स्टालिन ने अपने लाखों नागरिकों को जानबूझकर क्यों भूखे गरने दिया;
- जिन्होंने नाजियों का विरोध किया; उन्हें सोवियत ने क्यों मारा,
युद्ध के पहले का पोलेद, युद्ध के बाद वाले पोलैंड से अलग कैसे था।
सभी एक ही खेत में काम करें – स्टालिन की इस जबर्दस्ती के चलते लाखों लोग भूख से मर गए।
वेस्ट में 1933 एक बहुत ही कठिन समय था जब लोगों की नौकरियां चली गयी और इस डिप्रेशन की वजह से लोगों को गरीबी और भूरब से जुड़ाना पड़ा। एक पर एक मुश्किलें
आ रही थी। अकाल पड़ गया, लोग मरने लगे। 1928 में सोवियत यूनियन के जोसफ स्टालिन ने एक पाँच साल की आर्थिक योजना बनाई थी जो 1933 में परी हो गई। जिसके तहत खेतों का उपयोग व्यवसायीकरण में किया जाना था। इस योजना में खेतों में सभी किसानों का मिलकर काम करना भी शामिल था। इस पालिसी का निर्देश था कि किसान अपने निजी खेतों को छोड़कर बड़े खेतों (कलेक्टिव खेतों) में आ जाये और मिलकर काम करें। कई किसानों ने मना कर दिया। इसलिए सरकार ने ये नियम पास कर दिया कि कलेक्टिव खेतों को प्राइवेट खेतों से
ज्यादा कानूनी फायदे मिलेंगे।
इसके अलावा कलेक्टिव फार्म में काम करने वाले किसानों को ही वोट देने का हक होगा और प्राइवेट किसानों से बीज लेने का हक़ होगा। इसलिए सभी किसानों पर इस तरह दबाव डाला गया ताकि वे अपने गुजारे के लिए कलेक्टिव फार्म में आ जाये।
वैसे इन सब बातों का एक ही लक्ष्य था कि पैदावार ज्यादा अच्छी हो सके। लेकिन कलेक्टिव फर्म्स में किसानों की कार्यक्षमता अच्छी नहीं रही। वहाँ की मशीनरी काफी पुरानी थी और 1931 में कुछ ज्यादा ही सर्दी पड़ी थी। किसान अपना कोटा पूरा नहीं कर पाये इसलिए उन्हें भूख से मरना पड़ा।
स्टालिन ये मानने को तैयार नहीं थे कि ये पालिसी असफल हो गई है और उन्होंने फिर से अपनी पालिसी में कोटा रखने की माग की। जो कोटा पूरा न कर पाये उन्हें भुखे मरने
दो : ऐसा आदेश स्टालिन का ही था।
किसानों ने अगले सीजन के लिए जो बीज बचाकर रखे थे उन्हें भी छीन लिया गया। इस तरह एक संकट की तैयारी हो गई थी। युक्रेन में अकाल बहुत ज्यादा था। 1933 के अंत तक सोवियत यूनियन में 55 लाख लोग भूख से मर चुके थे जब कि युक्रेन में 33 लाख लोग मरे थे।
स्टालिन ने अल्पसंख्यकों के साथ बहुत बर्बर व्यवहार किया और सोवियत रुस में उन्हें शत्रु घोषित कर दिया।
स्टालिन ने सोवियत यूनियन की आर्थिक स्थिति जल्दी अच्छी करने के लिए मिलकर खेती करना और अन्य आर्थिक योजनायें जनता पर थोपी। इन क़दमों की वजह से बहुत-से लोगों को अपने अधिकारों से, खेतों से वंचित होना पड़ा था। स्टालिन के सामने भी समाज को संतुलित रखने की चुनौती थी। इसलिए उन्होंने उन सभी लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने की सोची जिनके लिए उन्हें लगता था कि वे राज्य के विरुद्ध काम करेंगे।
1929 से 1932 तक जो राजनीतिक दबाव का आन्दोलन चला उसमें अमीर किसानों को विशेष रूप से निशाना बनाया गया था। राज्य की इन नीतियों से ज्यादातर किसान
नाखुश थे। अमीर किसान- जिन्हें कुलक्स कहा जाता था; उनका तो बहुत ही ज्यादा विरोध हुआ।
इन कुलक्स को पहचानकर, इन्हें बाहर निकालना, मुकदमा चलाना- आम बात थी। आप सोच रहे होंगे कि इनकी पहचान क्या थी? अफसर लोग जिस पर चाहते उसे कुलक्स किसान कह देते थे। इस तरह 380,000 लोगों को मृत्युदंड दिया गया।
कुलक्स के बाद स्टालिन को सबसे ज्यादा भय एथनिक अल्पसंख्यकों से था। रूस के पश्चिमी इलाकों में रहने वाली पोलैंड के अल्पसंख्यक भी विशेष रुप से उनके निशाने पर थे। उन्हें डर था कि जर्मनी और पोलैंड पश्चिम की ओर से सोवियत यूनियन पर हमला कर सकते हैं। इस सशक्त माइनॉरिटी का अपमान करने के लिए उन्होंने 1933 के अकाल का आरोप सोवियत के लोगों के सिर मढ़ दिया।
इन लोगों को अपराधी बनाकर, मुकदमा चलाया गया और और लेबर कैप भेजकर बाद में मरवा दिया। 1937 से 1938 के बीच सोवियत सुस में 85.000 पोलिश लोग मारे
गये।
केवल पोलिश लोगों को ही निशाना नहीं बनाया गया बल्कि सरकार ने हजारों की संख्या में लात्वंस, एस्तोनिंस व लिशुनियंस पर भी जासूस होने का आरोप लगाया। 1930 की शुरुमात में राष्ट्र की सफाई” का अभियान चलाकर 274,000 लोगों को मार डाला गया।
इस तरह से उस ब्लडलैंड पर दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले ही जीना मुश्किल हो गया था। बेहद बुरे हालात तो अभी आने बाकी थे।
हिटलर और स्टालिन ने पोलैंड को जीतने व लोगों पर कहर बनकर टूटने का निश्चय किया।
नाजी फौज के पोलैंड पर अधिकार करने से पहले स्टालिन को ब्लदलैड में रह रहे पोलिश लोगों से भय था लेकिन 1939 में हालात बदल गए। सारा विश्व स्तब्ध रह गया जब चिर दुश्मन – हिटलर और स्टालिन के बीच एक समझौता हुआ। पश्चिन से जर्मनी ने और पुरब से रूस ने – पोलैंड को जीतने का फैसला किया।
बिना कोई चेतावनी दिए । सितंबर, 1939 को नाजी जर्मनी ने पोलैंड को जीत लिया और इसके मित्र देश – फ्रांस और ब्रिटेन ने कुछ नहीं किया। ज्मनी का आक्रमण इतना खतरनाक था कि वहाँ के लोगों की हालत खराब हो गई। नाजी सैनिक वहां के लोगों को इन्सान तक नहीं मानते थे और अक्सर उन कैदियों को युद्ध में डाल की तरह इस्तेमाल करते।
बहुत से लोग पश्चिम की ओर से जर्मनी से डरकर पूरब की और भागे। 17 सितम्बर को सोवियत के युद्ध में शामिल होने से वे दोनों ओर से विर गाए। 500,000 सोवियत सेनिक पोलैंड में घुस आये जिन्हें उम्मीद थी कि स्टालिन के समझौते के बावजूद नाजी जर्मनी भी युद्ध में शामिल होंगे। इधर सोवियत की सरकार को लग रहा था कि नाजी जर्मनी के अत्याचारों से दुखी होकर पोलिश लोग अपनी जमीन छोड़ देंगे।
हसलिए रेड आर्मी ने पोलैंड के पूर्वी हिस्से पर और नाजी जर्मनी ने पश्चिमी हिस्से पर काज़ा कर लिया जैसा कि हिटलर और स्टालिन ने मिलकर तय किया था। जब नाजी सैनिक पोलैंड की प्रज्ञा के साथ दुर्व्यवहार कर रहे थे तो रेड मार्मी ने भी असहाय प्रजा और सैनिकों के कत्ले माम में उनका साथ दिया।
इस तरह पोलैंड को हथियाने से पहले न तो नाजी जर्मनी और न ही सोवियत युनियन ने पहले कोई घोषणा की थी। मिलकर किये उनके इस प्रयास ने अतर्राष्ट्रीय युद्ध को
नकार दिया था।
सबसे दुःख की बात ये है कि इसके बाद वहाँ के लोग लगातार कष्ट के हालात में रहे।
सोवियत यूनियन लगातार पोलिश लोगों को दबाते रहे और उन्होंने फाइटर्स का पता लगाने के लिए सीक्रेट एजेंट्स
भी भेजे।
पोलैंड पर सिर्फ रेड आमी का ही कहर नहीं था बल्कि स्टालिन ने अदर की खबरें जानने के लिए सीक्रेट सर्विस के एजेंट्स को भी भेजा। स्टालिन जल्द से जल्द पूर्वी पालैंड को भी सोवियत यूनियन में मिलाना चाहते थे। सीक्रेट एजेंट्स का काम इस मार्ग में आने वाली बाधा का पता लगाना था।
सोवियत के नेताओं ने तो कुछ कामों को तो खतरनाक करार देते हुए एजेंट्स को उनके पीछे लगा दिया। अब ये एजेंट्स पोलैंड के सैनिक, रिटायर्ड सैनिक, वन विभाग के कर्मचारी, सिविल सर्वेन्ट्स व पुलिसवाले, सब की निगरानी कर रहे थे। बहुत से पोलैंड के नागरिक देश से निकल दिए गए।
फरवरी 1940 में इन एजेंट्स ने स्टालिन के आदेश पर 14,000 लोगों को इकठा किया और फोर्ट्ट लेबर सेटलमेंट के तहत इन्हें मालगाड़ी या शिप में लादकर कजाकस्तान या साइबेरिया भेज दिया। इसके बाद भी हजारों लोग और इसी तरह भेजे गए। इनमें से करीब 50,000 लोग तो रास्ते में ही परेशानियों की वजह से मर गए।
पढ़े लिखे लोगों को खास तौर से निशाना बनाया गया। एजेंट्स को पता था कि अगर पोलेंड से पहिए लिखे लोगों को हटा दिया गया तो वहां फिर कभी सामाजिक या राजनीतिक जागरुकता नहीं आ सकेगी इसलिए पढ़े-लिखे लोगों को पहचानकर गिरफ्तार कर लिया गया।
पोलैंड के 25.000 लोगों ने विरोधी संगठनों में भाग लिया। एजेंट्स ने इन संगठनों की पहचान की। अब सोवियत लीडर्स को पढ़े लिखे लोगों के खिलाफ और कठोर कदम
उठाने का बहाना मिल गया था।
उस समय सोवियत लेबर कैंप में 97 प्रतिशत बंदी; यही पढ़े-लिखे लोग थे। इन कैम्पस के हालात बेहद भयानक थे और कई लोगों ने कैंप में दम तोड़ दिया था।
इस तरह से एक बड़े नेटवर्क से निगरानी करवाकर स्टालिन ने पढ़े लिखे पोलिंश लोगों और दूसरे ऐसे संगठन; जिन्हें वह खतरनाक मानते थे, का खात्मा कर दिया।
नाजी जर्मनी का अत्याचार करने का तरीका कुछ अलग था लेकिन ये भी बेहद कुर था।
जर्मनी ने अपने अधिकार वाले क्षेत्रों में एथनिक अल्पसंख्यकों को इन्सान का दर्जा भी नहीं दिया और उनके साथ बेहद क्रूर व्यवहार किया।
इधर पालैंड में हिटलर का आतंक शुरू हुआ। अपनी युद्ध में जीती हुई जमीन पर उन्होंने 2 करोड़ पौलिश, 60 लाख चेक्स और 20 लाख यहूदियों को जमा किया। 1939 के अंत तक सोवियत यूनियन के बाद जर्मनी यूरोप का दूसरा बड़ा मल्टीनेशनल स्टेट बन गया।
हालाँकि हिटलर इन अनचाहे लोगों को कहीं दूर लेबर कैंप में नहीं भेज पाये जैसे स्टालिन ने मेजा था। इसलिए उन्हे दवाने के लिए दूसरे तरीके अपनाने पड़े।
1940 में नाजी इन पोलिश यहूदियों को इस क्षेत्र से कहीं दूर भेजना चाहते थे। उन्हें जब बाहर कही कोई उपयुक्त जगह नहीं मिली तो उन्होंने इन्हें अस्थायी रूप से शहर के बाहर झोपड़पट्टी में रहने का आदेश दिया।
उन्होंने यहूदियों पर नियम तोड़ने का आरोप लगाते हुए दबाव डाला कि वे अपनी पहचान के लिए येलो स्टार्स लगाये। इस तरह झोपड़पट्टी में जाने वाले यहूदी लोग अपने
साथ कोई पर्सनल सम्पत्ति नहीं ले जा सकते थे। वहाँ उन्हें भीड़भरे कमरों में रहने के लिए बाध्य किया गया। वहाँ कम खाना मिलता था। स्वास्थ्य सुविधायें न के बराबर थी।
1940 से 1941 के बीच इस झोपड़पट्टी में लगभग 60,000 यहूदी मर गए।
पढ़े लिखे लोगों से सम्बन्ध रखने वाले पोलिश लोगों को या तो मृत्युदंड मिलता था या उन्हें सार्वजनिक रुप से गोली से उड़ा दिया जाता था। पोलिश और यहूदी उच्च वर्ग को मारा तो नहीं गया लेकिन उन्हें नाजी पॉलिसी लागू करने के लिए झोपड़पट्टी में काम पर लगा दिया गया।
1940 की शुरुआत ने आदेश कि भी लीइरशिप पोजीशन पर र आसीन पोलिश लोगों को निकाला जाये। इसमें शिक्षिंत वर्ग के । पादरी व राजनीतिक रुप से एक्टिव व्यक्ति शामिल है। इस साल के अंत तक नाजी ने उन 3,000 पोल्स को मार डाला जिन्हें वे राजनैतिक दृष्टि से खतरनाक मानते थे। कम से कम सोवियत लोग ये कल्लेभाम परदे के पीछे तो करते थे लेकिन नाजी लोगों ने तो खुलेआम खूनखराबा फैला रखा था।
जब नाजी सोवियत लोगो के खिलाफ हो गए तो हालात और बदतर हो गए। नाजी सैनिक लोगों को कैद करके भूखे मरने को छोड़ देते थे।
हम देख चुके हे कि स्टालिन की सोवियत यूनियन ने किस तरह एथनिक अल्पसंख्यकों का जीना मुश्किल कर दिया था। ज्यादातर लोगों को लगा कि शायद नाजी जर्मनी से उन्हें कुछ राहत मिलेगी लेकिन इसका उल्टा हुआ। हालात और भी बुरे हो गए। 1941 में नाजी जमनी ने सोवियत रूस से पूर्व में हुई सधि तोड़ दी। इसका स्पष्ट लक्ष्य था कि वे जर्मनी के लोगों के रहने के लिए एक जगीन तैयार करना चाहते थे। जल्द ही ब्लडलैंड में बदलने वाली इस भूमि के नागरिकों के प्रति उन्हें कोई सहानुभूति नहीं थी। हिटलर को तो पूर्व में रहने वाले सभी लोग जर्मनी के दुरगन ही लगते थे।
जब लड़ाई शुरु हुई, तभी इस संघर्ष का रिजल्ट नजर भा रहा था। हिटलर पूर्व के नागरिकों को वहाँ से हटाकर जर्मन लोगों को वहाँ बसाना चाहते थे। 22 जून, 1941 को नाजी सैनिकों ने सोवियत यूनियन पर हमला कर दिया। लिथुनिया, लात्विया, एस्टोनिया, इस्टर्न पोलैंड, बेलारुस और युक्रेन के कुछ हिस्सों को जीतते हुए
जर्मन आगे बड़े और उन्हें महज नौ से बारह हफ़्तों में ही जीत जाने का भरोसा था।
आर्मी ने जीते हुए इलाकों से खाने-पीने का सामान जब्त कर लिया और आम जनता को भूरवे मरने के लिए छोड़ दिया। युद्धबंदियों को मुश्किल से रवाना मिलता था। जर्मन सैनिक आने वाली सर्दियों के लिए कपड़े तैयार करवा रहे थे।
इस तरह जर्मन्स की यही पालिसी बन गई थी कि वे आम नागरिकों को भूरचे मरने दें। इस तरह लाखों लोग भुखमरी के शिकार हो गए।
नाजी टूप्स जब लेनिनग्रेड पहुचे तो लड़ाई रुक गई। उस समय शहर में करीबन 30 लाख लोग रह रहे थे जिनमें से 10 लाख भूख से मर गए क्योंकि जर्मन सेना ने उनके स्याने पीने का हर सामान जब्त कर लिया था।
नाजी कैंप के युद्ध बंदियों व रेड आमी सोल्जर्स की मृत्यु दर 57.5 प्रतिशत थी। इस भवधि में 31 लाख सोवियत बंदी मारे गाए थे।
मिलिट्री के पास लोगों की कमी होने से नाजी जर्मनी ने लोगों ज़बरदस्ती सेना में भरती करना शुरु किया।
हालांकि शुरुआती दौर में नाजी जर्मन फोर्सेज ने अपने मिशन में अच्छी प्रगति की लेकिन 1947 में हिटलर द्वारा रणनीति बदलने से जीत अभी भी उनसे दूर थी। हिटलर को लगा कि सोवियत लोगों पर आक्रमण करने से जर्मनी को युद्ध में सहायता के लिए सप्लाई लाइन और कच्चा माल मिल जायेगा लेकिन इस निर्णय से आर्थिक समस्या भी दूर नहीं हुई और नई समस्याएं उत्पन हो गई।
नाजी को उम्मीद थी कि सोवियत यूनियन महज 3 महीनों में नष्ट हो जायेगा। रेड आर्मी ने मात तो खाई लेकिन सरेंडर नहीं किया। अभी भी सोवियत यूनियन बरकरार था और
जर्मन सैनिक उनकी राजधानी मास्को नहीं पहुंचे थे। नाजी सैनिकों ने बड़ी संख्या में सोवियत सैनिकों को मारा था लेकिन रेड आमी की संख्या काफी ज्यादा थी।
बड़ा मिलिट्री कैम्पेन शुरू करने की वजह से जर्मन फोर्स को काफी नुकसान हो रहा था। ऑफिसर्स पर दबाव था कि वे जर्मनी से ज्यादा से ज्यादा सैनिक बुलवाएं। इस कैम्पेन की शुरुआत में नाजी सैनिकों ने अपने जीते हुए क्षेत्रों के उन युवा लड़कों को मार डाला जो उन्हें खतरा लग रहे थे। अब उन्होंने युद्ध बदी बनाये गए, भूखे मरते हुए इन्हीं 10 लाख लोगों को अपनी सेना में सहायता के लिए नियुक्त किया। कुछ युवाओं को गढे खोदने के काम पर लगाया गया। ये गहे यहूदी लोगों की कब्र के रूप में काम आने वाले थे।
बाकी कुछ लोगों को पुलिस की नौकरी दी गई ताकि वे यहूदियों को खोजकर मार सकें या नाजी कन्सन्ट्रेशन कैंप में गार्ड की नौकरी कर सकें। इसलिए जरुरत की वजह से अब नाजी जर्मनी ने लोगों की जान बख्शना शुरु कर दिया लेकिन यहूदियों पर किसी तरह की कोई दया नहीं की गई।
यहूदियों के लिए जर्मनी का अंतिम फैसला यह था कि बजाय देश से निकाल देने के उन्हें एकसाथ क़त्ल कर दिया
जाये।
नाजी जर्मनी के लिए चीजें अब इतनी आसान नहीं थी तो उन्होंने अपने जीत हुए क्षेत्र में रह रहे यहूदी लोगों के लिए अपनी योजना बदली। नाजियों ने अपने अधिकार में आने वाले क्षेत्र से सभी यहूदी लोगों का हटाने का फैसला किया। इस बार उनका इरादा काफी घातक था। उन्होंने बजाय उन्हें कहीं शिफ्ट करने के मार देना बेहतर समझा।
1941 के अंत तक जर्मनी में काफी संख्या में यहूदी लोग थे। ज्गन गवर्नगेंट ने उनके गाइप्रेशन के विषय में बहुत-सी योजनाये बताई जिनमें उन्हें लुब्लिन डिस्ट्रिक्ट के पास
शिफ्ट करना भी था। वहाँ वे झोपड़पट्टी बनाकर उन्हें रखने का सोच रहे थे लेकिन वहाँ पास ही काफी संख्या में एथनिक जर्मन्स रहते थे इसलिए ये माईडिया रिजेक्ट हो गया।
फरवरी 1940 में हिटलर ने स्टालिन से पूछा कि क्या वे सोवियत यूनियन के उन क्षेत्रों में यहूदी लोगों को रहने की अनुमति देंगे जो कि जर्मनी के अधीन है लेकिन स्टालिन ने मना कर दिया। फिर उन्हें मेडागास्कर में शिफ्ट करने की योजना भी असफल हो गई क्योंकि वहाँ के समुद्री इलाके पर ब्रिटिश नेवी का अधिकार था।
जमत शासन में लगभग 50 लाख यहूदी रह रहे थे और सोवियत यूनियन का टूटना निश्चित था इसलिए हिटलर ने अपनी योजना बदल दी। 1942 तक जो यहूदी जर्मनी के पश्चिमी इलाकों में रह रहे थे, वे सब झोपड़पट्टी में जमा किये गए। नाजी आमी ने हन्हें बहाँ जमा रखने के लिए स्पेशल फोर्स को वहाँ नियुक्त किया।
नाजी अधिकारियों ने इस पश्चिमी क्षेत्रों में क-सन्ट्रेशन कैम्पस बनाना शुरू किया जहाँ ज्यूज़ को रखा जा सके वहाँ कैप में उनसे इतना काम लिया जाता था कि वे भर ही जाये।
पोलैंड में तो नाजी रणनीति और भी ज्यादा दिल दहला देने वाली थी। वहाँ ऐसी जगह तैयार की जा रही थी जहाँ यहूदियों को योजनाबद्ध तरीके से मारा जा सके।
दूसरे विश्वयुद्ध में लगभग 60 लाख मारे 10 लाख ट्रेलेस्सोना के डेथ कैंप में म दिया गया।
जर्मनी का ये व्यवहार असहनीय था और विरोध करने का साहस किसी में नहीं बचा था।
जर्मनी के अधीन क्षेत्रों में कुछ दलों ने आवाज उठाई। नाजी लोगों का विरोध बहुत स्वतरनाक था क्योंकि इसका परिणाम सिर्फ मृत्यु थी। ब्लडलैंड में दोनों ही अत्याचारी विदेशी थे, अगर वे नाजी का विरोध करते तो सोवियत का प्रबल होकर उन्हीं का नुकसान करने का खतरा बढ़ जाता।
युद्ध शुरु होने से पहले ही पोलिश लोग व बाल्टिक स्टेट्स में रहने वाले लोगों को जर्मनी और नाजी लोगों का विरोध सहन करना पड़ा था। ज्यादातर लोगों को लगता था कि विरोध करने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि वो दो महाशक्तियों के चंगुल में फैस गाए हैं और देश का भूगोल भी उनके अनुकूल नहीं है।
बाल्टिक में लोगों को लग रहा था कि नाजियों का विरोध करके, वे केवल सोवियत लोगों को फायदा पहुंचाटंगे। इसलिए बेहतर होगा वे युद्ध खत्म होने का इंतजार करे ताकि ये संघर्ष खत्म हो।
यहूदी लोगों को सोवियत लोगों के बजाय जर्मन लोगों से ज्यादा अत्याचार मिला था। वे झोपड़पट्टी में इतनी गहरी निगरानी में रखे जाते थे कि कोई संगठन बनाकर विरोध
करना उनके लिए बिल्कुल संभव नहीं था।
जिन लोगों ने विरोध किया, वे निर्दयता से मारे गार। कुछ फ्रीडम फाइटरर्स को थोड़ी सफलता तो मिली लेकिन ज्यादातर को तुरंत ही दबा दिया गया। विद्रोह के दौरान जर्मन सैनिकों को दूर रहने को कहा गया, जिससे कई लोग मारे भी गए।
1943 में वास्सा की झोपड़पट्टी में यहूदियों ने विद्रोह किया तो जर्मन्स ने निर्दयता से उसे दबा दिया।
इन विनाशकारी पोलिसीज के लिए जिम्मेदार, नाजी लीडर हेनिरिच हिमलर ने झोपड़पट्टी को नष्ट करने का आदेश दे दिया। इस जद्दोजहद में 13,000 यहूदी गारे गए। उनमें से कई जिंदा जला दिए गए। नाजी सैनिकों ने उनके घरों को भाग लगा दी।
वहाँ बचे हुए 50,000 लोगों को भी डेथ कैप में भेज दिया गया।
जब सोवियत ने पश्चिम में अच्छी तरह से जड़ें जमा ली तो फ्रीडम फाइटरर्स को बुरी तरह प्रताड़ित किया गया।
जब जर्मन सेना के खिलाफ रेड आमी की स्थिति बेहतर हुई तो नाजियों को भगाने के लिए फ्रीडम फाइटर्स को सोवियत के साथ गठबंधन करना सही लगा। हालांकि स्टालिन के आदेश के तहत सैनिक क्राइम फाइटर्स रक्षक नहीं थे लेकिन स्टालिन फिर से अपनी जमीन पर अधिकार जमाना चाहते थे। इसलिए इन लोगों को स्टॉलिन से मदद मिलने की उम्मीद थी।
पहले जर्मन सेना इतनी मजबूत थी कि, उनके खिलाफ विद्रोह करना तो आत्महत्या करने जैसा था। लेकिन युद्ध काफी समय से चल रहा था और रेड आर्मी पश्चिम की ओर
रुख कर रही थी तो कई फ्रीडम फाइटर्स को ये समय बिल्कुल सही लगा जब वे अपना विरोध दिखा सकें।
इसलिए गुपचुप तरीकों से उन्होंने जर्मन आर्मी की स्थिति के बारे में सोवियत सेना से बात की। इस जानकारी पर उन्होंने लड़ने के लिए इन संगठनों का हौसला जरूर बढ़ाया लेकिन किसी भी तरह की मदद का कोई वादा नहीं किया।
सच्चाई यही थी कि स्टालिन को इन लोगों से खतरा महसूस हो रहा था। जो लड़ाके आज जर्मन्स के खिलाफ विंदोह का बिगुल बजा रहे हैं, वे आने वाले समय में सोवियत का
विरोध भी जरूर करेंगे। आखिरकार जब पोलैंड की सेना ने 1944 में वासना में जब जर्मन टुकड़ी पर आक्रमण किया तो रेड आमी भी आस-पास थी लेकिन उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया। पोलिश लोगों
में जीतने का जबर्दस्त जज्बा था लेकिन जर्मन सख्या और शक्ति में ज्यादा थे तो पांच लाख पोलिश लोग देश के लिए मर मिटे। इसके बाद रेड आर्मी ने हस्तक्षेप किया और बचे-खुचे स्वतंत्रता सेनानियों से उनके हथियार छीनकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जो नाज़ियों को दुश्मन मानते थे, सोवियत उन पर भी कड़ी नजर रखे हुए थे। स्वतंत्रता हासिल करने के लिए बने इन संगठनों का इर अब सब जगह दिखने लगा था। जो नागरिक खुले तौर पर इनके साथ नहीं थे: उनका भी इर तो था ही क्यंकि वे जर्मन रूल से बेहद परेशान हो चुके थे।
इसी नीति के तहत स्टालिन ने वहीं किया जो वे युद्ध के पहले करते थे – जो भी उन्हें अपने विपक्ष की ओर नजर आता, उसके साथ बेहद बुरा व्यवहार किया जाता था।
युद्ध के अंत में सोवियत ने अपनी जीती गई जमीन से जर्मन लोगों को अपमानित करके निकाल दिया गया।
फरवरी 1945 तक भी युद्ध खत्म नहीं हुआ लेकिन जर्मन लोग हार के कगार पर थे। संयुक्त शक्तियों ने मिलकर ये फैसला लिया कि युद्ध के बाद यूरोप के मध्य में एक छोटे क्षेत्र में सभी जर्मन लोगों को बसाया जायेगा। जो बाहर रह रहे, उन्हें भी वहीं बुलाया जायेगा। इस योजना को सहमति देने से पहले ही हस अलायंस को जर्मनी पर विजय प्राप्त करनी थी। इसलिए पूरब की ओर से रेड आमी ने जर्मनी में प्रवेश किया। उन्होंने वहाँ के नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार किया, सत्रियों का बलात्कार किया और बलिन जाने के रास्ते में आने वाले सभी लोगों को कुचल दिया। सोवियत यूनियन ने अपने एक मिलियन कैदियों को आजाद कर दिया ताकि उन्हें सैनिक बनाया जा सके। सेना की ड्रेस में ये अपराधी बड़ी बर्बरता के साथ इस उन्मादी मार्च में पोलैंड व हंगरी के लोगों पर अत्याचार कर रहे थे।
जब ये सैनिक जर्मनी की सीमा पर पहुंचे तो हिंसा और भी बढ़ गई। नाजी सैनिको द्वारा पहले की हुई बर्बरता याद करके सोवियत सैनिकों में बदले की भावना जाग उठी। जर्मनी का साधारण किसान भी उस समय काफी समृद्ध था। सोवियत के गरीब सेनिकों को यह देख कर लगा कि और ज्यादा अमीर बनने की चाह में ही जर्मनी ने युद्ध की शुरुआत की थी।
हर उम्र की जर्मन महिला के साथ बेहद दुर्व्यवहार हुआ। जब जर्मन व्यक्ति उन्हने रेप से बचाने की कोशिश करते उनकी पिटाई होती या वे मार दिए जाते। लगभग 520,000 जर्मन्स को बंधुआ मजदूर बना दिया गया। उनमें से लगभग 185,000 कैदी तो मर ही गए।
हारी हुई जमीन पर जो भी जर्मन लोग रह रहे थे, उन्हें युद्ध के बाद निष्कासित कर दिया गया। लगभग 38 लाख लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े। जिन टेस में वे यात्रा कर रहे थे, उनके हालात बेहद खराब थे। रास्ते में ही भूख और बीमारी से 400,000 जर्मन लोगों ने दम तोड़ दिया।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद निष्कासन के दौरान हजारों लोगों की मौत हुई।
8 मई, 1945 को नाजी जर्मनी के बिना किसी शर्त के सरेंडर करने से युद्ध खत्म हो गया। लेकिन ब्लडलैंड के लोगों की तकलीफें अभी भी खत्म नहीं हुई थी। युद्ध से पहले
स्टालिन ने बड़ी संख्या में लोगों को अपनी जगह छोड़ते देखा था और युद्ध के बाद भी हालात वही बने रहे। जर्मनी के पतन के बाद स्टालिन, सोवियत यूनियन के लिए और ज्यादा जमीन हासिल करना चाहते थे। 1940 में सोवियत सेना ने एस्टोनिया, लिथुनिया व लात्विया के साथ-साथ पोलैंड की जगीन का आधा पूर्वी हिस्सा अपने कटो में कर लिया था।
1945 को गर्मियों में सोवियत यूनियन, यूनाइटेड स्टेट्स व ब्रिटेन के नेता पाट्सडैम में मोटिंग के लिए जमा हुए। स्टालिन ने जोर देकर कहा कि भविष्य में जर्मनी को रोकने के लिए पूर्वी यूरोप पर सोवियत का नियंत्रण जरूरी है। सभी लोग स्टालिन से सहमत थे।
इन सभी ने मिलकर तय किया कि बाल्टिक स्टेट्स सोवियत के नियंत्रण में ही रहेगी और पोलैंड के बॉर्डर को पश्चिम तक बढ़ा दिया जाये। इस प्रकार पूर्वी पालैंड सोवियत युनियन के अधीन हो गया। पश्चिम में जो इलाके जर्मनी के अधीन थे; वे नई पोलिश स्टेट में शामिल हो गए।
सोवियत यूनियन द्वारा हाल ही में हासिल किये गए क्षेत्रों में स्टालिन ने लोगों को भेजना जारी रखा क्योंकि बेहतर नियंत्रण के लिए उन्हें एक जैसी ही सोसाइटी वहाँ बसानी थी। उन्हें डर था कि कहीं इन नये क्षेत्रों में रहने वाले लोग सोवियत के प्रति कम लॉयल न हो जाएँ। इतलिए सोवियत सिस्टम को जानने वाले लोग वहाँ होने ही चाहिये। जो लोग ये बात स्वीकार नहीं कर पा रहे थे; वे साइबेरिया चले गए।
नए सोवियत लेड में रहने वाले पॉलिश लोग पश्चिम की और चले गए। 1943 से 1947 तक लगभग 700,000 जर्मन्स, 150,000 पोलिश, 250,000 यूक्रेनी और 300,000 सोवियत नागरिकों ने इस तरह लाचार होकर निकाले जाने पर अपना जीवन गवा दिया।