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अन्धी हर रोज़ मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- “बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए”।
वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले दयावान और भगवान् के भक्त होते हैं। उसका यह अनुमान गलत न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उन्हें दुआएं देती और उनकी दया और करुणा को सराहती। औरतें भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।
सुबह से शाम तक वह इसी तरह हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके बाद मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी की ओर चली जाती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी विनती करती जाती लेकिन राहगीरों में ज्यादा संख्या सफेद कपड़े वालों की होती, जो पैसे देने के बजाय तानें और झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी विनती बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे दो-चार पैसे और
मिल जाते। झोंपड़ी के पास पहुंचते ही एक दस साल का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके माथे को चूमती।
बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई मतलब नहीं था। पांच साल हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन शाम के समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका चेहरा चूम-चूमकर उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी। वह कोई आम घटना न थी, इसलिए किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और खुश था। उसे वह ख़ुद से भी अच्छा खिलाती और पहनाती।
अन्धी ने अपनी झोंपड़ी में एक हांडी गाड़ रखी थी। शाम के समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी सामान से ढक देती ताकि लोगों की नज़र उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर खुद खाती। रात को बच्चे को अपने गले से लगाकर वहीं पड़ रहती। सुबह होते ही उसे खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के दरवाजे पर जा खड़ी होती।
अन्धी हर रोज़ मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- “बाबूजी,
अन्धी पर दया हो जाए”।
वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले दयावान और भगवान् के भक्त होते हैं। उसका यह अनुमान गलत न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उन्हें दुआएं देती और उनकी दया और करुणा को सराहती। औरतें भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं। सुबह से शाम तक वह इसी तरह हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके बाद मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोपड़ी की और चली जाती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी विनती करती जाती लेकिन राहगीरों में ज्यादा संख्या सफेद कपड़े वालों की होती, जो पैसे देने के बजाय तानें और झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी विनती बराबर जारी रहती। झोपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे
दो-चार पैसे और मिल जाते। झोपड़ी के पास पहुंचते ही एक दस साल का लड़का उछलता-कूदला आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके माथे को चूमती। बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई मतलब नहीं था। पांच साल हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन शाम के समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका चेहरा चूम-चूमकर उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी। वह कोई आग घटना न थी, इसलिए किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और खुश था। उसे वह खुद से भी
अच्छा खिलाती और पहनाती। अन्धी ने अपनी झोपड़ी में एक हाडी गाड़ रखी थी। शाम के समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी सामान से ढक देती ताकि लोगों की नज़र उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर खुद खाती। रात बच्चे को अपने गले से लगाकर वहीं पड़ रहती। सुबह होते ही उसे खिला-पिलाकर फिर मन्दिर दरवाजे पर जा खड़ी होती।
काशी में सेठ बनारसीदास बहुत नामी आदमी थे। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी जानता था। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा हैं। धर्म में उनकी बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे तक सेठ नहाने और पूजा पाठ में व्यस्त रहते। कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती। कर्ज लेने वाले तो आते ही थे, लेकिन ऐसे लोगों का भी तांता बंधा रहता जो अपनी पूंजी सेठजी के पास अमानत यानी deposit के रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा-पूंजी इन्हीं सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात मालूम थी, मगर पता नहीं अब तक वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही। उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसे शक था कि कोई चुरा न ले। एक दिन शाम के समय अन्धी ने वह हाडी उखाड़ी
और अपने फटे हुए आंचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुंची। सेठजी बही-खाते के पन्ने उलट रहे थे, उन्होंने पूछा- “क्या है बुढ़िया?
अंधी ने हांडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा- “सेठजी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अधी, अपाहिज कहां रखती फिरूंगी?” सेठजी ने हांडी की ओर देखकर कहा-“इसमें क्या है?” अन्धी ने जवाब दिया- “भीख मांग-मांगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे जमा किये हैं, अपने पास रखते डरती हूं, कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में
रख ले”। सेठजी ने मुनीम की ओर इशारा करते हुए कहा- “बही में जमा कर लो। फिर बुढ़िया से पूछा- तेरा नाम क्या है?” अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीमजी ने पैसे गिनकर उसके नाम से जमा कर ली और वह सेठजी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।
दो साल बहुत सुख के साथ बीते। इसके बाद एक दिन लड़के को बुखार ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू की, झाड़-फूंक से भी काम लिया, टोने-टोटके की परीक्षा की, मगर हर कोशिश बेकार साबित हुई। लड़के की दशा दिन-ब-दिन खराब होती गई, अंधी का दिल टूट गया, हिम्मत ने जवाब दे दिया, वो निराश हो गई। मगर फिर ध्यान आया कि शायद डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठजी की कोठी पर पहुंची। सेठजी बैठे थे।
अधी ने कहा-” सेठजी मेरी जमा-पूंजी में से दस- पांच रुपये मुझे मिल जायें तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊंगी। सेठजी ने कठोर आवाज़ में कहा- “कैसी जमा पूंजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रूपये जमा नहीं है।
ने रोते हुए जवाब दिया- “दो साल हुए मैं आपके पास अमानत रख गई थी। दे दीजिए बड़ी दया होगी। सेठजी ने मुनीम की ओर पहेली नज़रों से देखते हुए कहा- “मुनीमजी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूंजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?”
अंधी की जान-में-जान आई, आशा बंधी। पहला जवाब सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, मगर अब सोचने लगी शायद उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी आदमी भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम बता दिया। उलट-पलटकर देखा। फिर कहा- “नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमी नहीं है”।
अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा- “सेठजी, भगवान् के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन-भर आपके गुण गाऊंगी”।
लेकिन पत्थर में जोंक न लगी। सेठजी ने गुस्से में जवाब दिया- “जाती है या नौकर को बुलाऊ”। अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठजी की ओर मुंह करके बोली- अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे” और अपनी झोपड़ी की ओर चल दी। यह आशीर्वाद न था बल्कि एक दुखी का शाप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दया-दारू हुई ही नहीं, फायदा कैसे होता। एक दिन उसकी हालत बहुत हो गई, जान के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठजी पर रह-रहकर उसे गुस्सा आ रहा था। इतना अमीर आदमी है, नाजुक हो दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं मांग रही थी, अपने ही रुपये मांगने गई थी। उसे सेठजी से घृणा हो गई। बेठे-बैठे उसे कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, गिरती-पड़ती, सेठजी के पास पहुंची और उनके दरवाजे पर
धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर बुखार से तप रहा था और अंधी का दिल भी। एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठा देखकर उसने सेठजी को सूचना दी, सेठजी ने कहा कि उसे भगा दो। नौकर ने अंधी ने जाने को कहा, मगर वह उस जगह से न हिली। मारने का डर दिखाया, पर वह टस-से-मस् न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं जाती सेठजी खुद बाहर पधारे। देखते ही पहचान गये। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती
है। सात साल हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था उसकी बहुत खोज की, पर कोई पता न चला। उन्हें याद आया कि मोहन की जाध पर एक लाल रंग का निशान था। इस विचार के आते ही उन्होंने अधी की गोद के बच्चे की जांघ देखी। निशान ज़रूर था मगर पहले से कुछ बड़ा। उन्हें विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का है। उन्होंने तुरन्त उसे छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया। बच्चे का शरीर तप रहा था। फ़िर उन्होंने नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और खुद मकान अन्दर चल दिये।
अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी-“मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोंगे?” सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा-“बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात साल पहले कहीं खो गया था अब मिला है, सो इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और
लाख कोशिश करके भी इसकी जान बचाऊंगा।
अंधी ने एक जोर का ठहाका लगाया-“तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख कोशिश करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यो? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसे पाला है। मैं उसे अपने पास से नहीं जाने दूंगी”।
सेठजी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते बन नहीं पड़ रहा था। कुछ देर वहीं चुपचाप खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये अन्धी कुछ समय तक
व दर्शन
खड़ी रोती रही फिर वह भी अपनी झोपड़ी की ओर चल दी। दूसरे दिन सुबह प्रभु की कृपा हुई या दवा ने जादू का-सा असर दिखाया। मोहन का बुखार उतर गया। होश आने पर उसने आखें खोली तो पहला शब्द
उसकी जबान से निकला, माँ
चारों ओर अनजान शक्लें देखकर उसने अपनी आँखें फिर बन्द कर ली। उस समय उसका बुखार फिर तेज़ होना शुरू हो गया। मां-मां की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठजी के हाथ-पांव फूल गये, हर ओर अंधेरा दिखाई पड़ने लगा।
“क्या करू एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मौत उसे अपने चंगुल में दबा रही है, इसे कैसे बचाऊँ?” अचानक उन्हें अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक दरवाजे पर न बैठी हो। मगर वह वहां कहाँ? सेठजी ने घोड़ा गाड़ी तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोपड़ी पर पहुँचे। झोपड़ी बिना दरवाजे के थी, वो अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने बिस्तर पर पड़ी
और उसकी । आँखों से आँसूओं की धारा बह रही थी सेठजी ने धीरे से उसे हिलाया। उसका शरीर भी आग की तरह तप रहा था। सेठजी ने कहा- “बुढ़िया! तेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसकी जान बचा सकती है। चल और
मेरे…नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले”
अन्धी ने जवाब दिया- “मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूं। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर मां-बेटे की तरह मिल जाएंगे। इस लोक में सुख नहीं है,
वहां
मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी अच्छे से देखभाल करूंगी”। सेठजी दिये। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया धा। मगर इस समय अन्धी के पांवों पर गिर पड़े और रो-रोकर कहा- “ममता की लाज
रख लो, आखिर तुम भी उसकी मां हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा”। बने अन्धों को बेचैन कर दिया। उसने तुरन्त कहा- “अच्छा चलों”। ममता शब्द ने अन्धी सेठजी सहारा देकर उसे बाहर लाये और घोड़ा गाड़ी पर बैठा दिया। घोड़ा गाड़ी घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठजी और अन्धी भिखारिन दोनों
की एक ही दशा दोनों की यही इच्छा थी कि जल्दी-से-जल्दी आपने बच्चे के पास पहुंच जायें। कोठी गई, सेठजी सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर जाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि
यह उसकी मां का हाथ है। उसने तुरन्त आँखें खोल दी और उसे अपने पास खड़े हुए देखकर कहा- मां, तुम आ गई। अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपने गोद में रख लिया। उसे बहुत सुख महसूस हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सौ गया।
दूसरे दिन से मोहन की हालत अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल ठीक हो गया। जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुड़िया और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की प्रेम भरी सेवा ने पूरा कर दिया।
मोहन के पूरी तरह ठीक हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए मगर वह राज़ी न हुई, मजबूर होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने पूछा, “इसमें क्या है?”
सेठजी ने कहा-“इसमें तुम्हारी अमानत है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध….” अन्धी ने बात काट कर कहा-“यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए जमा किये थे, उसी को दे देना”।
अन्धी ने पेली वहीं छोड़ दी और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नज़र उठाई, उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे मगर वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी। आज सेठजी हाथ फैलाए हुए थे और बुढ़िया दानी बन गई थी.
सीख – इस कहानी में रबिन्द्रनाथ जी ने हमें कितनी बातें सिखाई हैं. पहला, ये कि इंसान अपनी नीयत और सोच से अमीर या गरीब होता है, पैसे से नहीं. वो कहते हैं ना कि गरीब वो नहीं जिसके पास देने के लिए कुछ नहीं, गरीब तो वो है जिसके पास देने की नीयत नहीं. एक ओर थे सेठजी जो दौलतमंद थे, जिनके पास देने के लिए कितना कुछ था फ़िर भी वो बेहद गरीब थे क्योंकि उनमें देने की नीयत ना थी, उनकी मंशा तो सिर्फ लेने की रहती थी. दूसरी ओर थी वो ग़रीब भिखारिन जिसके पास देने को कुछ ना था फिर भी जब सेठ ने उसके आगे हाथ फैलाए तो उसने उनकी झोली भर दूसरा, इंसान कितना स्वार्थी होता है, उसका न्याय अपने मतलब और इच्छा के अनुसार बदलता रहता है. जब तक वो बच्चा भिखारिन का था, घराया
था, तब तक उसके मरने की परवाह सेठ को न थी पर ये पता लगते ही कि वो उनका खून है, उसे बचाने के लिए सेठजी एक गरीब भिखारिन से मिन्नतें
को तैयार हो गए. करने तक को तीसरा, वक्त का पहिया कब पलटता है ये कोई नहीं जानता. आज जो हाथ फैलाए खड़ा है कल शायद वो इस दुनिया का सबसे बड़ा दानी बन जाए ये कौन कह सकता है, जैसे वो बूढी भिखारिन बन गई थी. दौलत के नाम पर उसके पास चार पैसे और वो बच्चा था जिन्हें उसने सेठ को सौंप दिए थे. वो बिलकुल खाली हाथ रह गई थी लेकिन सब कुछ खोकर भी वो उस सेठ से कहीं ज्यादा अमीर, दानी और महान थी, ये बात हमेशा याद रखें कि किसी को दुत्कार देना बड़ा आसान है पर एक बार ये ज़रूर सोचें कि हाथ फैलाने वाले के दिल पर क्या गुज़रती होगी. बुरे लोग तो हर जगह हैं तो सावधान ज़रूर रहें लेकिन अगर आपसे कोई मदद मांगे और आप समर्थ हों तो उसकी मदद ज़रूर करें.