BETI KA DHAN by MUnshi premchand.

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बेतवा नदी दो ऊँचे किनारों के बीच इस तरह मुँह छिपाये हुए थी जैसे साफ दिलों में हिम्मत और उत्साह की धीमी रोशनी छिपी रहती है। इसके एक किनारे पर एक छोटा-सा गाँव बसा है जो अपने टूटे हुए जातीय निशानियों के लिए बहुत ही मशहूर है। जातीय कहानियों और निशानियों पर मर मिटने वाले लोग इस पवित्र जगह पर बड़े प्यार और श्रद्धा के साथ आते और गाँव का बूढ़ा नाविक सुक्खू चौधरी उन्हें घूमता और रानी के महल, राजा का दरबार और कुँवर की बैठक के मिटे हुए निशानियों को दिखाता। वह आहें भरते हुए, भरे हुए गले से कहता, “महाशय ! एक वह समय था कि नाविकों को मछलियों के इनाम में अशर्फियाँ मिलती थीं। नौकर महल में झाडू देते हुए अशर्फियाँ बटोर ले जाते थे । अेतवा नदी रोज चढ़ कर महाराज के पैर छूने थे। आती थी। | यह प्रताप और यह तेज । था, लेकिन आज इसकी यह दाल के बसका बातिन थी, पर सुनने वाले उसकी अच्छाई और प्यार को जरूनम कत के इे पुत्दर बाता पर किसी को भरोसा करवाना चौथरी के बस की बात न भी और प्यार थे।

सुक्खू चौधरी दयालु आदमी थे, लेकिन जरूरत के जितनी कमाई नहीं थी। तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पोते-पोती थे। लड़की सिर्फ एक गंगाजली धी जिसका अभी तक गाना नहीं हुआ धा। चौधरी की यह सबसे छोटी बेटी थी। बीवी के मर जाने पर उसने इसे बकरी का दूध पिला-पिला कर पाला था। परिवार में खाने वाले तो इतने थे, पर कमाने वाला एक ही धा। जैसे तैसे कर गुजारा होता था, लेकिन सुक्खू का बुढ़ापा और पुरानी चीजों के बारे में जानकारी ने उसे गाँव में वह मान सम्मान दे रखी थी, जिसे देख झगडू साहु अंदर ही अंदर जलते थे। सुक्खू जब गाँव वार्लों के सामने, अफसरों से देन कर खंडहरों को घुमा-फिरा कर दिखाने लगता तो झगडू साहु जो चपरासियों के धक्के खाने के डर से करीब नहीं हाथ फेंक-फेंक कर बातें करने लगता और भटकते थे तड़प-तड़प कर रह जाते। इसलिए वे हमेशा इस मौके का इंतजार करते रहते जब सुक्खू पर अपने पैसे की धाक जमा सकें। इस गाँव के जमींदार ठाकुर जी तनसिंह थे, जिनकी बिना पैसे दिए मज़दूरी करवाने की गुडागर्दी के कारण गाँव वाले परेशान थे। उस साल जब जिला

मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और यह य यहाँ के पुरानी निशानियों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँव वालों की दुख भरी कहानी उन्हें सुनायी। अफसरों से बात करने में उसे थोड़ा भी डर न लगता था। सुकखू चौधरी को पता था कि जीतनसिंह से झगड़ा करना शेर के मुँह में सिर देना है। लेकिन जब गाँव वाले कहते कि “चौधरी यह दोस्ती किस दिन काम आएगी।” तब सुक्खू की हिमारस-एसे अफसरों से दोस्ती है और हम लोगों का रात-दिन रोते हुए कटता है तो फिर तुम्हारी भर के लिए वह जीत सिंह को भूल जाता। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका जवाब माँगा। उधर झगडू साहू ने चौधरी की इस हिम्मती बगावत की रिपोर्ट जीतनसिंह दी ।

ठाकुर साहब जल कर आगबबूला हो गये। अपने कर्मचारी से बकाया लगान की किताब मांगी। इत्तेफाक से चौधरी के नाम इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो फसल कम हुई, पर गंगाजली की शादी करनी पड़ी। छोटी बहू नथ रट लगाये हुए थी; वह बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल खाली कर दिया। लगान के लिए कुछ ज्यादा चिंता नहीं थी। वह इस घमंड में भूला हुआ था कि जिस जबान में अफसरों को खुश करने की ताकत है, क्या वह ठाकुर साहब पर काम न करेगी? बूढ़े चौधरी इधर तो अपने घमंड बेफिक्र थे और उधर उन पर बकाया लगान का मुकदमा लग गया। सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पैशी की तारीख पड़ गयी। चौधरी को अपना जादू चलाने का मौका न मिला। जिन लोगों के बढ़ावे में आ कर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़छाड़ की थी, वो नजर भी न आए। ठाकुर साहब के लोग गँव में चील की तरह मॅडराने लगे। उनके डर से किसी चौधरी से मिलने की हिम्मत न होती थी। कचहरी वहाँ से तीन मील पर थी। बरसात के दिन, रास्ते में जगह जगह पर पानी, भरी हुई

नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी नहीं चल रही थी, पैरों में दम नहीं, इसलिए अदालत में मुकदमे का एकतरफा फैसला हो गया।

जायदाद जब्त करने का नोटिस पहुंचा तो चौधरी के हाथ-पाँव फूल गये। वो सारी चालाकी भूल गए । चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और अपने मन में कहता, क्या मेरे जीते जी घर मिट्टी में मिल जायगा। मेरे इन बैलों की सुंदर जोड़ी के गले में आह ! क्या दूसरों का लगाम पड़ेगा?” यह सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आतीं। वह बैलों से लिपट कर रोने लगा, लेकिन बैलों की आँखों से क्यों आँसू बह रहे थे ? वे चारे में मुँह

क्यों नहीं डालते थे ? क्या उनके दिल पर भी अपने मालिक के दुख की चोट पहुँच रही थी! फिर वह अपने झोपड़े को दुखी नजरों से देखता और मन में सोचता, क्या हमें इस घर से निकलना पड़ेगा? यह पूर्वजों की निशानी क्या हमारे जीते जी

छिन जायगी? कुछ लोग परीक्षा के वक़्त मजबूत रहते हैं और कुछ लोग इसकी थोड़ी तकलीफ़ भी नहीं सह सकते। चौधरी अपने खाट पर उदास पड़े घंटों अपने कुलदेव महावीर और महादेव को वाद करता और उनका गुण गाया करता। उसकी परेशान आत्मा को कोई सहारा न था।

इसमें कोई शक न था कि चौधरी की तीनों बहुओं के पास गहने थे, पर औरत का गहना गन्ने का रस है, जो मुश्किल से निकलता है। चौधरी जाति का पर स्वभाव का ऊँचा था। उसे ऐसी नीच बात बहुओं से कहते शर्म आती थी। शायद नीच सोच उसके दिल में आई ही नहीं धी, लेकिन तीनों बेटे अगर जरा भी दिमाग से काम लेते तो बूढ़े को देवताओं का सहारा लेने की जरूरत न होती। लेकिन यहाँ तो बात ही अलग धी। बड़े लड़के को घाट के काम से फुरसत न थी। बाकी दो लड़के इस मुश्किल सवाल को अजीब तरह से हल करने की कोशिश रहे थे।

मँझले झींगुर ने मुँह बना कर कहा- “उँह इस गाँव में क्या रखा है। जहाँ ही कमाऊँगा, वहीं खाऊँगा पर जीतनसिंह की मूँछों के एक-एक बाल नोच छोटे फक्कड़ ऐंठ कर बोले- “मूंछे तुम नोच लेना नाक मैं उड़ा दूँगा। नकटा बना धूमेगा।” इस पर दोनों खूब हँसे और मछली मारने चल दिये।

इस गाँव मे बूढ़े ब्राह्मण भी रहते थे। मंदिर में पूजा करते और रोज अपने यजमानों से मिलने नदी पार जाते, पर नाविक के पैसे न देते। तीसरे दिन वह जमीदार के जासूसों की आँख बचाकर सुक्खू के पास आये और हमदर्दी से बोले “चौधरी ! कल तक का ही समय है और तुम अभी तक पड़े सो रहे हो। क्यों नहीं घर इकट्ठा कर किसी और जगह भेज देते ? और कहीं नहीं तो समधियों के यहाँ भेज दो। जो कुछ बच रहे, वही सही। घर की मिट्टी खोद कर थोड़े | जायगा।”

चौधरी लेटा था, उठ बैठा और आकाश की ओर देख कर बोला- “जो उसकी इच्छा है, वह होगा। मुझसे यह जाल न होगा।” इधर कई दिन की निरंतर भक्ति और उपासना के कारण चौधरी का मन शुद्ध और पवित्र हो गया था। उसे धोखाधड़ी से नफरत हो गयी थी। पंडित जी जो इस काम में लगे हुए थे, शर्मिंदा हो गये।

लेकिन चौधरी के घर के बाकी लोगों को भगवान की इच्छा पर इलना भरोसा न था। धीरे-धीरे घर के बर्तन-भाँड़े खिसकाये जा रहे थे। अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया। रात को नाव लदी हुई जाती और उधर से खाली लौटती । तीन दिन तक चर में चूल्हा न जला। बूढ़े चौधरी के मुँह में खाना की एक भी न पड़ी। औरतें भाड़ से चने भुना कर चबातीं, और लड़के मछलियाँ भून-भून कर उड़ाते। लेकिन बूढ़े की इस भूख हड़ताल में अगर कोई साथ था तो वह उसकी बेटी गंगाजली थी। यह बेचारी अपने बूढ़े बाप को चारपाई पर भूखे प्यासे छटपटाते देख जोर जोर से रोती। पिता से वह प्यार नहीं होता जो लड़कियों को होता है। गंगाजली यह सोचती रहती कि दादा की किस तरह मदद कर। अगर लड़कों को अपने माता- म सब भाई-बहन मिल कर जीतनसिंह के पास जाकर दया की भीख मांगें तो वे जरूर मान जायँगे; लेकिन दादा को कब यह मंजूर होगा। वह अगर एक दिन बड़े साहब के पास चले जाएँ कुछ बात की बात में बन जाए। लेकिन उनका तो जैसे दिमाग ही काम नहीं कर रहा। इसी सोच में उसे एक

उपाय सूझ पड़ा और मुरझाया हुआ चहरा खिल उठा।

पुजारी जी सुक्खू चौधरी के पास से उठ कर चले गये थे और चौधरी तेज आवाज अपने सोयें हुए देवताओं को पुकार-पुकार कर बुला रहे थे। गंगाजली उनके पास जा कर खड़ी हो गयी। चौधरी उसे देखकर चौंक गए, पूछा “क्यों बेटी ? इतनी रात गये क्यों बाहर आयी ?” गंगाजली ने कहा- “बाहर रहना नोभाय में लिखा है, घर में कैसे रहूँ।

सुक्खू ने जोर से आवाज लगायी- “कहाँ गये तुम कृष्ण मुरारी, मेरे दुख हरो।” गंगाजली खड़ी थी, बैठ गयी और धीरे से बोली- “भजन

न लोगों को ह क्या पेड़ तले रखोगे 2″ चौधरी ने दुखी आवाज मे कहा- “बेटी,

गाते तो आज तीन दिन हो गये। घर बचाने का भी कुछ उपाय सोचा कि इसे यों ही मिट्टी में मिला

मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता। भगवान् जो चाहेंगे, होगा। जल्दी करो भगवान, क्यों देर कर रहे हो।” गंगाजली ने कहा- “मैंने एक उपाय सोचा है, कहो तो कहूँ।” गंगाजली ने कहा- “मेरे गहने झगडू साहु के यहाँ गिरवी रख दो। मैंने जोड़ लिया है। देने भर के रुपये हो जायेंगे।”

चौधरी उठ कर बैठ गये और पूछा- “क्या उपाय है बेटी?”

चौधरी ने ठंडी साँस ले कर कहा- “बेटी ! तुम्हें मुझसे यह बात कहते शर्म नहीं आती। वेद-शास्त्र में मुझे तुम्हारे गाँव के कुएँ का पानी पीना भी मना है। तुम्हारे दरवाजे पर पैर रखना तक मन है। क्या तुम मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो?”

गंगाजल जवाब के लिए पहले ही से तैयार थी। बोली- “मैं अपने गहने तुम्हें धोड़े ही दे रही हूँ। इस समय ले कर काम चलाओ, बाद में छुड़ा देना।” चौधरी ने गुस्से से कहा “यह मुझसे न होगा।”

गंगाजली गुस्सा हो कर बोली- “तुमसे यह न होगा तो मैं खुद ही जाऊँगी, मुझसे घर की यह खराब हालत नहीं देखी जाती।”

चौधरी ने झुंझला कर कहा- “बिरादरी में कैसे मुँह दिखाऊँगा?” गंगाजली ने चिढ़ कर कहा- “बिरादरी में कौन ढिंढोरा पीटने जाता है।”

चौधरी ने फैसला सुनाया को हंसने का मौका न दूंगा।” “मैं लोगों

गंगाजल बिगड़कर बोली- “मेरी बात – पर में ही मानोगे तो तुम्हारे ऊपर मेरे मौत का इल्जाम आएगा। मैं आज ही इस बेतवा नदी में कूद पड़ूँगी। तुमसे चाहे घर में आग लगते देखा जाय, चौधरी ने ठंडी साँस लेकर डरी हुई आवाज में कहा- “बेटी, मेरा धर्म भ्रष्ट मत करो। अगर ऐसा ही हे तो अपनी किसी भाभी के गहने मॉँग कर लाओ।” गंगाजली ने शांत आवाज़ में कहा- “भाभीर्यो से कौन अपना मुँह नोचवाने जायगा। उन्हें फिक्र होती तो क्या चुप रहतीं, कहतीं नहीं।” चौधरी के पास कोई जवाब नहीं था। गंगाजली घर में जा कर गहनों की पिटारी लायी और एक-एक करके सब गहने चौधरी के गमले में बाँध दिये। ने आँखों में आँसू भर कर कहा- हाय राम, इस शरीर का व्या होना लिखा है !” यह कह कर उठे। बहुत संभालने पर भी आँखों में आँसू न छिपे।

मुझसे तो न देखा जायगा।”

रात का समय था। बेतवा नदी के किनारे रास्ते को छोड़कर सुक्खू चौधरी गहनों की गठरी काँख में दबायें इस तरह चुपके-चुपके चल रहे थे मानो पाप की गठरी लिये जा रहे हो। जब वह झगडू साहु के मकान के पास पहुँचे तो रुक गये, आँखें खूब साफ कीं, जिससे किसी को यह न पता चले कि चौधरी रोता था।

झगडू साहु धागे से बंधा हुआ मोटा चश्मा लगाये बही खाता फैलाये हुक्का पी रहे थे, और दीये की धुंधली रौशनी में उन अक्षरों को पढ़ने की बेकार कोशिश में लगे थे जिनमें स्याही की कमी की गयी थी। बार-बार चश्मे को साफ करते और आँख मलते, पर दीये की बत्ती को बढ़ाना या दोहरी बत्ती लगाना शायद इसलिए सही नहीं समझते थे कि तेल ज्यादा जलेगा। इसी समय सुक्खू चौधरी ने आ कर कहा “जय राम जी।” इंदु साहू ने देखा। पहचान कर बोले- “जय राम चौधरी ! कहो मुकदमे में क्या हुआ? यह लेन-देन बड़े झंझट का काम है। दिन भर सिर उठाने की छुट्टी नहीं मिलती चौधरी ने पोटली को खूब सावधानी से छिपा कर लापरवाही के साथ कहा- “अभी तक तो कुछ नहीं हुआ। कल इजरायडिगरी होने वाली है। ठाकुर साहब ने न जाने कब की दुश्मनी निकाली है। मुझे दो-तीन दिन की भी मुहलत मिलती तो डिगरी न जारी होने पाती। छोटे साहब और बड़े साहब दोनों हमें अच्छी तरह जानते हैं। अभी इसी साल मैंने उनसे नदी किनारे घंटों बातें कीं, लेकिन एक तो बरसात के दिन, दूसरे एक दिन की भी मुहलत नहीं, क्या करता ! इस समय मुझे रुपयों की चिंता है।”

झगडू साहु ने आश्चर्य से पूछा- “तुम्हें रुपयों की चिंता ! घर में भरा है, वह किस दिन काम आवेगा।” झगडू साहु ने यह मजाक नहीं उड़ाया था। असल में उन्हें और सारे गाँव का यह मानना था कि चौधरी के धर में बहुत पैसा है।

चौधरी | रंग बदलने लगा। बोले- “साहू जी रुपया होता तो किस बात की चिंता थी ? तुमसे क्या छिपाना। आज तीन दिन से धर में चूल्हा नहीं जला, रोना-पीटना तो तुम्हारी मदद से ही बनेगा। ठाकुर साहब ने तो उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी।”

झगडू साहु जीतनसिंह को खुश रखना जरूर चाहते थे, पर साथ ही चौधरी को भी नारखुश करना मंजूर न था। अगर सूद-दर-सूद छोड़ कर मूल और व्याज आसानी से वसूल हो जाय तो उन्हें चौधरी पर मुफ्त का एहसान लादने में कोई परेशानी न थी। अगर चौधरी की अफसरों से जान-पहचान के कारण साहू जी का टैक्स से गला छूट जाय, जो कई उपाय करने सरकारी कर्मचारियों को घूस खिलाने के बाद भी रोज उनकी तोंद की तरह बढ़ता ही जा रहा था तो क्या पूछना! बोले – “क्या कहें चौधरी जी, खर्च के मारे आजकल हम भी तबाह हैं। उधार वसूल नहीं होते। टैक्स का रुपया देना पड़ा। हाथ बिलकुल खाली हो गया। तुम्हें कितना रुपया चाहिए ?”

चौधरी ने कहा- “सौ रुपये की डिगरी है। खर्च-बर्च मिला कर दो सौ के लगभग समझो।

झगडू अब अपने दाँव खेलने लगे। पूछा- “तुम्हारे लड़कों ने तुम्हारी कुछ भी मदद न की। वह सब भी तो कुछ न कुछ कमाते ही हैं।” साहु जी का यह निशाना ठीक पड़ा लड़कों ने लापरवाही से चौधरी के मन में जो भाव भरे थे वह जाग गये। बोले- “भाई, लडके किसी काम के होते तो यह दिन क्यों देखना पड़ता। उन्हें तो अपने ऐशो आराम से मतलब है। घर-गृहस्थी का बोझ तो मेरे सिर पर है। मैं इसे जैसे चाहूँ सँभालूँ, उनसे कुछ मतलब नहीं, मरते दम भी गला नहीं छूटता। मगा तो सब खाल में भूसा भरा कर रख छोड़ेंगे।”

झगडू ने तीसरा तीर मारा- “क्या बहुओं से भी कुछ न बन पड़ा।”

चौधरी ने जवाब दिया- “बहू-बेटे सब अपनी-अपनी मौज में मस्त हैं। मैं तीन दिन तक दरवाज़े पर बिना खाना अन्न-जल के पड़ा था, किसी ने बात भी नहीं पूछी। कहाँ की सलाह, कहाँ की बातचीत। बहुओं के पास रुपये न हों, पर गहने तो हैं और वे भी मेरे बनाये हुए। इस बुरे समय में अगर थोड़े गहने झगडू समझ गये कि यह सिर्फ जबान का सौदा है और यह जबान का सौदा भूलकर भी न करते थे बोले- “तुम्हारे धर के लोग भी अजीब हैं। क्या इतना गिरवी रख देतीं तो क्या में छुड़ा न देता ? हमेशा यही दिन थोड़े ही रहेंगे।”

भी नहीं जानते कि बूढ़ा रुपये कहाँ से लावेगा? अब समय बदल गया है। या तो कुछ जायदाद लिखो या गहने गिरवी रखो तब जा कर रुपया मिलेंगे ।

इसके बिना रुपये कहाँ। इसमें भी जायदाद में सैकड़ों बखेड़े पड़े हैं। सुविधा गहने गिरवी रखने में ही है। हाँ, तो जब धरवालों को कोई इसकी फिक् नहीं तो तुम क्यों बेकार जान देते चौधरी देते हो। । यही न होगा कि लोग हँसेंगे तो यह शर्म कहाँ तक निभाओगे ?” ने बहुत विनीत भाव से कहा- “साहू जी, यह शर्म तो मारे डालती है। तुमसे क्या छिपा है। एक वह दिन था कि जब हमारे दादा-बाबा महाराज की सवारी के साथ चलते थे, अब ये दिन है कि घर की दीवार तक बिकने की नौबत आ गयी है। कहीं मुँह दिखाने को भी जी नहीं चाहता। यह लो गहनों की पोटली। अगर नाक कटने का डर न होता तो इसे लेकर कभी यहाँ न आता, लेकिन वह अधर्म इसी शर्म से बचने के कारण करना पड़ा है।” झगडू साहु ने आश्चर्य में हो कर पूछा- ‘यह गहने किसके हैं?” चौधरी ने सिर झुका कर बड़ी मुश्किल से कहा- “मेरी बेटी गंगाजली के।” झगड़ साह चौंक गये। बोले- “अरे ! राम-राम ।

चौधरी ने दुखी आवाज में कहा-“डूब मरने को जी चाहता है।” झगडू ने बड़ी धार्मिकता के साथ स्थिर हो कर कहा- “शास्त्र में बेटी के गाँव का पेड़ देखना मना है।”

चौधरी ने दुखी आवाज़ में कहा- “न जाने नारायण का मौत देंगे। भाई की तीन लड़कियों की शादी की। कभी भूल कर भी उनके दरवाजे का मुँह नहीं देखा। भगवान ने तो मदद की है, पर अब न जाने मरने के बाद क्या होने वाला है।”

झगडू साहु लेखा जौ-जी बख्शीश सौ-सौ के सिद्धांत पर चलते थे । सूद की एक कोड़ी भी छोड़ना उनके लिए हराम था। अगर एक महीने का एक दिन भी लग जाता तो पूरे महीने का सूद वसूल कर लेंते। लेकिन नवरात्र में रोज दुर्गा-पाठ करवाते थे। पितृपक्ष में रोज ब्राह्मणों को अनाज बाँटते थे। बनियों की धर्म में बड़ी निष्ठा होती है। अगर कोई गरीब ब्राह्मण लड़की की शादी के लिए उनके सामने हाथ फैलाता तो वह खाली हाथ न लौटता, भीख माँगने वाले ब्राह्मणों को चाहे वह कितने ही हट्टे कट्टे हों, उनके दरवाजे पर फटकार नहीं सुननी पड़ती थी। उनके धर्म-शास्त्र में लड़की के गाँव के कुएँ का पानी पीने से प्यासा मर जाना अच्छा है। वह खुद इस नियम के भक्त थे और इस नियम को मानने वाले लोग उनके लिए देवता सामान थे। वे पिघल गये। मन सोचा, यह आदमी तो कभी छोटी सोच को मन में नहीं लाया।

बुरे समय की ठोकर से अधर्म रास्ते पर उतर आया है, तो उसके धर्म की रक्षा करना हमारा कर्तव्य-धर्म है। यह विचार मन में आते ही झगडू साहु गद्दी से तकिए के सहारे उठ बैठे और पक्के इरादे से कहा- “वही भगवान जिसने अब तक तुम्हारी मदद की है, अब भी करेंगे। लड़की के गहने लड़की को दे दो। लड़की जैसी तुम्हारी है वैसी मेरी भी है। यह लो रूपये। आज काम चलाओ। जब हाथ में रुपये आ जायेँ, दे देना।’ चौधरी पर इस हमदर्दी का गहरा असर पड़ा। वह जोर-जोर से रोने लगा। उसे अपने भावों की धुन में कृष्ण भगवान् की मोहिन मूर्ति सामने रखी दिखायी दी। वही झगडू जो सारे गाँव में बदनाम था, जिसकी उसने खुद कई बार अफसरों से शिकायत की थी, आज सामने देवता सा लग रहा था। वो भरे हुए गले से बोला- “झगडू, तुमने इस समय मेरी बात, मेरी शर्म, मेरा धर्म, कहाँ तक कहूँ, मेरा सब कुछ रख लिया। मेरी डूबती नाव पार लगा दी। कृष्ण मुरारी तुम्हारे इस अहसान का फल देंगे और में तो तुम्हारा गुण जब तक जीऊँगा, गाता रहूँगा।”

सीख – मुशी जी की यह कहानी हमें आत्मीयता और सहानुभूति का गहरा मतलब समझाती है। साहूकार जो चौधरी को हमेशा अपना दुश्मन समझता था और नीचा दिखाना चाहता था उसने भी बेटी के गहने से जुड़े ज़ज्बातों की बात आने पर चौधरी का दर्द समझा और उसकी मदद की। दूसरा, बेटियाँ जिन्हें पराया धन मान लिया जाता है, उन्हें अपने मात पिता की कितनी परवाह होती है. चौधरी के बेटे जहां बेफिक्र होकर अपनी अपनी जिंदगी आराम से जी रहे थे तब गंगाजली का मन अपने पिता की बेबसी पर बेचैन हो रहा था और उसने एक पल में अपने गहने निकालकर दे दिए. सच में ये बेटियाँ कितनी प्यारी होती हैं.

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