यह किसके लिए है
-वैजो मनोविज्ञान के बारे में जानना चाहते हैं।
जो बच्चों की देल्पभाल करना चाहते हैं।
-वैजो एक पैरेन्र हैं या बनने वाले हैं।
लेखक के बारे में
रोबर्ट फेरेन (Robert Karer) एक मनोवैज्ञानिक हैं। उन्होंनद फॉरगिविंग सेल्फThe Forgiving Self) और रोड फ्रॉम रेसेंटमेंट टू कनेक्शन (Road frorm Resierntmiernt to Connection) जैसी सफल किताबें लिखी हैं। वे इरनर इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड साइकोलॉजिकल स्टडीज़ में एक एसिस्टेंट क्लीनिकरण प्रोफेसर भी हैं।
रिश्तों का बच्चे के मन पर क्या असर पड़ता है?
पिछले कुछ दशकों में मनोविज्ञान के क्षेत्र में बहुत बढ़ोतरी हुई है जिससे बच्चों की देखभाल को लेकर बहुत सी विवादित बातें सामने आयी हैं। इन बातों पर विश्वास करता एक बहुत ही मुश्किल काम है।
आने वाले सबक में आप बच्चों के साथ अपने रिश्तों को एक गनोवेज्ञानिक नज़र से देखेंगे। इन सबक में दुनिया के सबसे अच्छे मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों पर की गयी स्टडी के नतीजों को समझाया है। इसे पढ़कर आप सीखेंगे कि बच्चों और उनकी देखभाल करने वालों के बीच सम्बन्धों का उनपर क्या असर पड़ता है, जिससे आप अपने बच्चे को समझ कर उसे एक अच्छी परवरिश दे सकेंगे।
और आप आप सीखेंगे
अपने पैरेंट्स से हमारे संबंधों का हमारे बच्चों से हमारे संबंधों पर क्या असर पड़ता है।
- अपने बच्चे से कुछ दिन दूर रहने से कैसे उनपर बुरा असर पड़ सकता है।
ऐरेंट्स और उनके बच्चों के बीच रिश्तों को कैसे अलग अलग भागों में बाँटा जा सकता है।
बच्चों और उनके पैरेंट्स या दूसरे देखभाल करने वालों के बीच रिश्ते को अटैचमेन्ट कहते हैं।
ज्यादातर लोगों के बचपन की यादों में सिर्फ वही शख्स होता है जिसने बचपन उनकी देखभाल की थी। ज्यादातर लोगों की देखभाल उनकी माँ करती हैं। बच्चों और उनकी देखभाल करने वालों के बीच इस खास रिश्ते को अटेचमेंट कहते है। अटैचमेंट का रिश्ता बच्चों की जिन्दगी के पहले साल से ही शुरू हो जाता है। क्योंकि छोटे बच्चे खुद से अपनी देखभाल नहीं कर सकते इसलिए इस रिश्ते की उन्हें बहुत जरूरत होती है। जिन्दगी के पहले कुछ हफ़्तों में बच्चे किसी को नहीं पहचानते। धीरे-धीरे यो वेहरों को पहचाने और उनमें अंतर करना सीखते हैं।अटेचमेट की शुरुवात तब होती है जब बच्चे अपनी देखभाल करने वाले के पास न होने पर दुखी हो जाते हैं।
बंदरों पर की गयौ एक स्टडी में पाया गया कि बच्चों के लिए खाने से ज्यादा ज़रुरी उनकी देखभाल और अटैचमेंट होती है। इस स्टडी में एक बन्दर के बच्चे को उसकी माँ से अलग कर एक पिंजरे में रख दिया गया जिसमें दो नकली बन्दर थे। एक बन्दर को मुलायम कपड़े से लपेटा गया जबकि दूसरे में दूध के लिए एक निष्पल लगाया गया। ऐसा करने पर ये पाया गया कि बन्दर का बच्चा ज़्यादातर समय उस मुलायम कपड़े वाले बन्दर के साथ बिताता था और निप्पल वाले बन्दर के पास सिर्फ दूध पीने ही जाता था।
अटैचमेंट एक ऐसा रिश्ता है जिसे हर किसी ने महसूस किया है। पर इसे लेकर बहुत सी विवादित बातें भी है, जिसे मानने वाले लोग पैरेंट्स को इसमें ढकेलते रहते हैं। आने वाले सबक में हम इन बातों पर एक नज़र डालेंगे।
अपने वातावरण को समझते वक्त अपनी माँ के पास होने पर बच्चे सुरक्षित महसूस करते हैं।
बचपन में किसी चीज से इसते पर हम सीधा अपनी मां के पास ही जाते थे। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अपनी माँ के पास रहने पर बच्चे सुरक्षित महसूस करते हैं। बच्चे जब चार पैरों पर चलना शुरू करते हैं, तो वो अपने चातावरण को समझने की कोशिश करने लगते हैं। चो चल-फिर कर अपने आस पास की चीजों को देखते और समझते हैं। पर जैसे ही वो अपनी माँ या अपनी देखभाल करने वाले से दूर होते हैं वो रोने लगते हैं। अपनी माँ के पास होने पर उन्हें अच्छा लगता है। बंदरों पर की गयी स्टडी से हमें बहुत सी बातें पता चली हैं। एक और एक्सपेरिमेंट में एक बन्दर के बच्चे को एक पिंजरे में वायर से बनाए गए नकली बन्दर के साथ रखा
गया और दूसरे बच्चे को अकेले एक पिंजरे में बंद कर दिया गया। जिस बन्दर को अकेले रखा गया वो एक कोने में डरकर बैठा रहता था और रोता था। जिस बन्दर को उसकी नकली माँ के साथ रखा गया वो शुरुवात में डर रहा था पर जल्दी ही वो अपनी माँ को छोड़कर पिंजरे में घूमने लाग। अपनी माँ के पास होने पर वो सुरक्षित महसूस करता था।
वार पैरों पर चलने वाले बच्चों के साथ भी यही होता है। पर कभी कभी वो अपने पेरेंट्स को छोड़कर भीड़ के पास भागते हैं। रिसर्च करने वाले लोग इसे नेगेटिव अटेंशन सीकिंग (Negative Attention Seeking) कहते हैं। ऐसा कर के बच्चे ये देखना चाहते हैं कि उनके सुरक्षा की सीमा क्या है। इससे उन्हें ये पता चलता है कि अपनी माँ से कितना दूर होने पर उन्हें खतरा हो सकता है।
अपनी माँ से दूर होने पर बच्चे को परेशानियां होती हैं।
सोचिये अगर आपका बच्चा बीमार हो और आपको उससे मिलते न दिया जाए। कुछ दशक पहले डॉक्टर्स बच्चों को उनके पैरेंट्स से इन्फेक्शन के खतरे की वजह से मिलने नहीं देते थे। आज ऐसा नहीं होता क्योंकि इससे बहुत सारी परेशानियां होती थी। जेम्स रॉबट्ट्सन (James Robertson) मदर चाइल्ड सेपेरेशन के ऊपर रिसर्च करने वाले लोगों में से एक है। उन्होंने इन परेशानियों को समझ कर अस्पतालों को अपनी पालिसी बदलने पर मजबूर किया ताकि पेरेंट्स अपने बच्चों से मिल सकें।
अस्पतालों को ये बातें समझाने के लिए उन्होंने बहुत सारी फिल्ों बनायी। एक फिल्म में एक दो साल की लड़की को उसके पैरेंट्स से सिर्फ 8 दिनों तक अलग रखा गया।
उसके पैरेंट्स को उससे सिर्फ 45 मिनट तक मिलने दिया जाता था। इसकी वजह से उसके त्यवहार में बहुत सारे बदलाव आए। वो खुश रहने वाली लड़की उदास रहने लगी।
शुरुआत के कुछ दिनों में वो लगातार रोती थी और फिर वो अपने पैरेंट्स को अनदेखा करने लगी। इसके बाद वो बेचैनी और चिड़चिड़ेपन से जुझाने लगी।
छोटे बच्चे ये नहीं समझ पाते कि उन्हें सिर्फ थोड़ी ही देर के लिए अलग किया गया है। अगर बच्चों को ज्यादा दिन तक हॉस्पिटल में अपने पेरेंट्स से दूर रखा जाए तो वो अपने पेरेंट्स को पहचानेंगे ही नहीं। कुछ बच्चे इन हालातों में खाना खाना भी छोड़ देते हैं। अस्पतालों को ये बातें समझने में कुछ समय लगा लेकिन इन स्टडीज़ के बारे में जानने के बाद वो बच्चों को पैरेंट्स से मिलने के लिए भरपूर समय देने लगे।
तीन तरह के अटैचमेंट स्टाइल्स हैं जो हमारे व्यवहार और अटैचमेंट के लिए हमारे रवैये को दर्शाते हैं।
मैरी एसवाथ (Mary Ainsworth) एक जानी मानी चाइल्ड साइकोलोजिस्ट है जिनका नाम आपने मनोविज्ञान की किताबों में ज़रूर पढ़ा होगा। एक पैरेंट और उसके बच्चे के बीच के रिश्तों को मेरी एसवार्थ ने तीन भागों में बाटा है। अक्सर बच्चों की माँ उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं। इस अटैचमेंट को सिक्योर अटैचमेंट (Secure Atachment) कहते हैं। इसमें माँ अपने बच्चों की देखभाल बहुत प्यार से करती हैं। ऐसी बच्चे अपनी माँ के पास होने पर सुरक्षित महसूस करते हैं। ये ज्यादा रोते नहीं और इन्हें कोई भी संतुष्ट कर सकता है।
अगली अटैचमेंट स्टाइल है एम्बिवेलेंट अटैचमेंट (Ambivalent Attachment)। इसमें पलने वाले बच्चे अपनी माँ के पास न होने पर रोने लगते हैं और फिर उन्हें शांत करना बहुत मुश्किल होता है। उनकी मां कभी कभी उनपर ध्यान देती हैं और कभी कभी उन्हें अनदेखा कर देती है। ऐसे बच्चों को अपनी माँ से अलग होने पर बहुत परेशानियां होने लगती है।
और आखिरी अटेचमेंट स्टाइल बच्चों के लिए मानसिक रूप से अच्छी नहीं है। इसे अवोडडेन्ट अटैचमेंट (Avoidant Attachment) कहते हैं जिसमे बच्चे और उसकी माँ के बीच बहुत कम मिलना जुलना होता है। ऐसे बच्चों की माँ उन्हें आत्म निर्भर बनाना चाहती हैं। ऐसे बच्चे अपनी माँ को अक्सर अनदेखा कर देते हैं और कभी कभी बिना वजह ही गुस्सा करने लगते हैं।
बच्चे जिस अटैचमेंट स्टाइल में पले बढ़े होते हैं उसी के निशान होने बड़े होने पर भी दिखाते हैं। बच्चे और उनकी माँ के बीव का रिश्ता बच्चे की जिंदगी के शुरुवाती दिनों में ही
बनता है लेकिन ये सालों तक चलता है।
आप किसी बच्चे या पैरेंट के व्यवहार को देख कर ये बता सकते हैं की वो किस अटैचमेंट स्टाइल में हैं।
अब आप जानते हैं कि अटैचमेंट कितने तरह के होते हैं, पर आप इसका पता कैसे लगाएंगे कि कोई बच्चा या पैरेंट किस अटैचमेंट स्टाइल को फॉलो कर रहा है।
इस सवाल का जवाब देने के लिए एल्सार्थ ने लेब में एक खेलने का रुम बनाया जहां पर बच्चों को उनकी माँ के साथ बेठाया गया। शुरुवात में बच्चे खिलौनों से खेलते हैं और उनकी माँ कुर्सी पर बैठी रहती हैं। कुछ देर बाद माँ को रुम से बहार निकाल कर एक अजनबी को रूम में बेठा दिया जाता है।
ऐसा करने पर बच्चा रोने लगता है और अजनबो आदमी उसे शांत करने की कोशिश करता है। लेकिन बच्चा चुप नहीं होता और फिर माँ को रुम में लाया जाता है। माँ के रुम
में आने पर बच्चे का बर्ताव ही उसके अटैचमेंट स्टाइल दिखाता है। इसे स्टॅज सिचुएशन (Strange situation) कहते हैं। अगर बच्चा माँ को देखते ही कुछ देर में शात हो जाता है तो वो सिक्योर अटेचमेंट में है। अगर बच्चा माँ को देखने पर और रोने और गुस्सा करने लगता है, तो वो एम्बिवेलेंट अटैचमेंट में है। अगर बच्चा अपनी माँ के लोटने पर उसको पूरी तरह से अनदेखा कर देता है तो चो अयोडडेन्ट अटेचमेंट में है।
बच्चों के अलावा बड़ों के अटैचमेंट स्टाइल का पता लगाना भी ज़रूरी होता है।हम बड़ो के अटैचमेंट स्टाइल का पता बर्कली एडल्ट अटैचमेंट इंटरव्यू (Berkeley adult attachment interview) की मदद से लगा सकते हैं। इस इंटरव्यू में बड़ों से उनके बचपन के बारे में बहुत से सवाल किये जाते हैं, जैसे कि उनके परिवार के हालात, अपने पेरेंट्स के लिए उनकी सोच और उनके बचपन की दर्द भरी या।
जो लोग एक पेरेंट बनने वाले हैं उनके लिए ये इंटरव्यू बहुत मददगार साबित हो सकता है। अपने पेरेंट्स और अपने बचपन के हालात को देख कर हम अपने बच्चों के लिए अपने व्यवहार को समझ और उसे सुधार सकते हैं।
बच्चों के अटैचमेंट स्टाइल पर उनके पैरेन्ट्स के व्यवहार का बहुत असर पड़ता है। अब सवाल ये उठता है कि आखिर इन अटैचमेंट स्टाइल्स में इतना अंतर क्यों है? कुछ साइकोलॉजिस्ट इसे जेनेटिक मानते हैं और दूसरों के वजह हो सकती है।
मुताबिक इसकी कुछ और भी एडल्ट अटैचमेंट इंटरव्यू में उन महिलाओं से सवाल किया गया जो माँ बनने वाली थीं। रिसर्च में उनसे उनके बचपन के बारे में सवाल कर के यह बताया गया कि उनका उनके बच्चों के साथ कैसा व्यवहार होगा। 75% महिलाओं का अपने बच्चों के साथ वैसा ही व्यवहार रहा जैसा उनके पेरेंट्स का उनके साथ था।
उन में से एक महिला माँ बनाने को ले कर बहुत उत्सुक थी। वो जानती थी कि बच्चे को बड़ा करते वक्त उसे बहुत सी दिक्कतें होंगी। वो इसे लेकर चिंतित थी जिसकी वजह से जब दिक्कतें आयी, तो वो उनके लिए तैयार थी और उसका बच्चा एक सिक्योर अटेचमेंट में पला बढ़ा। अगर हम पैरेंट्स को बच्चों की देखभाल करने के बारे में शिक्षा दें तो वो एक अच्छे पैरेंट बन सकते हैं।
एक और रिसर्च में कुछ गरीब परिवारों की महिलाओं को मुफ्त में ये शिक्षा दी गायी, जिसमें उन्हें बच्चों के व्यवहार के बारे में बताया गया। गरीब परिवारों की गहिलाएं अक्सर चिडचिंडी स्वभाव की होती हैं। इस रिसर्च के बाद 68% महिलाओं के बच्चे सिक्योर अटैचमेट में पाए गए जिससे ये बात साबित होती है कि एक माँ को अगर शिक्षित किया जाए तो वो अपने बच्चे के साथ अपने रिश्ते को सुधार सकती है।
आप अपने बचपन में जैसे रहे होंगे, अपने बच्चों के साथ आपका व्यवहार वैसा ही रहेगा।
भब आपको ये बातें जान लेनी चाहिए कि एक पैरेंट होना क्या होता है। इस समय बच्चों की देखभाल को ले कर आपके जो विचार है उसका असर आपके बच्चों पर पड़ सकता है। आपके बचपन के हालातों का असर भी उसपे पड़ सकता है। जो लोग अपने पेरेंट्स से सतुस्ट नहीं थे, उन लोगों ने कहा कि वो अपने बच्चों की देखभाल वेसे नहीं करेंगे। पर इन में से ज्यादातर लोग अपने पेरेंट्स की गलतियों को नहीं समझ पाते जिसकी वजह से वो अनजाने में ही उनकी गलतियों को दोहराते है।
अगर आप अपने बचपन के एक्सपीरिग्स को नहीं समझ पा रहे हैं तो आपको अपने बच्चों को संभाले में दिक्कतें हो सकती हैं।
एक पैरेंट का काम है कि वो अपने बच्चे को आत्म निर्भर बनाए ताकि वो उनके बगैर ही दुनिया देख सके। ऐसे में उन्हें अपनी भावनाओं को समझना आना चाहिये। अगर आप खुद अपनी भावनाओं को नहीं समझ पा रहे है तो आप अपने बच्चों को यह नहीं सिखा पाटंयो। एक अच्छा पेरेंट बनने के लिए पहले आपको खुद की भावनाओं को समझना होगा।