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मुझे देवीपुर गये पाँच दिन हो चुके थे, पर ऐसा एक दिन भी न होगा कि बौड़म की बात न हुई हो। मेरे पास सुबह से शाम तक गाँव के लोग बैठे रहते थे। मुझे अपनी चीजों के बारे में जानकारी को दिखाने का न कभी ऐसा मौका ही मिला था और न लालच ही। मैं बैठा-बैठा इधर-उधर की गप्पें उड़ाया करता। बड़े लाट ने गाँधी बाबा से यह कहा और गाँधी बाबा ने यह जवाब दिया। अभी आप लोग क्या देखते हैं, आगे देखिएगा क्या-क्या गुल खिलते हैं। पूरे 50 हजार जवान जेल जाने को तैयार बैठे हुए हैं। गाँधी जी ने आदेश दिया है कि हिन्दुओं में छूत-छात का अंतर न रहे, नहीं तो देश को और भी बुरे दिन देखने पड़ेंगे। जो भी हो! लोग मेरी बातों को मन 1. लगा कर सुनते। उनके चहरे फूल की तरह खिल जाते। खुद पर नाज होने की चमक चहरे पर दिखायी देती। भरे हुए गले से कहते- “अब तो महात्मा जी ही का भरोसा है। न हुआ बौड़म नहीं आपका गला न छोड़ता। आपको खाना- मुश्किल हो जाता। कोई उससे ऐसी बातें किया करे तो दिन रात बैठा रहे।”
मैंने एक दिन पूछा- “आखिर यह बौड़म है कौन ? कोई पागल है क्या ?”
एक आदमी ने कहा- “महाशय, पागल क्या है, बस बौड़म है। घर में लाखों की जायदाद है, शक्कर की एक मिल सिवान में है, दो कारखाने छपरे में हैं, तीन-तीन, चार-चार सौ तनख्वाह वाले आदमी नौकर हैं, पर इसे देखिए, फटेहाल घूमा करता है। घरवालों ने सिवान भेज दिया था कि जा कर वहाँ देखरेख करे। दो ही महीने में मैनेजर से लड़ बैठा, उसने यहाँ लिखा, मेरा इस्तीफा लीजिए। आपका लड़का मजदूरों को सिर चढ़ाये रहता है, वे मन से काम नहीं करते। आखिर घरवालों ने बुला लिया। नौकर-चाकर लूटते खाते हैं उसकी तो जरा भी चिन्ता नहीं, पर जो सामने आम का बाग है उसकी रात-दिन रखवाली किया करता है, क्या मजाल कि कोई एक पत्थर भी फेंक सके।”
एक मियाँ जी बोले- “बाबू जी, घर में तरह-तरह के खाने पकते हैं, मगर इसकी किस्मत में वही रोटी और दाल लिखी है और कुछ नहीं। बाप अच्छे-अच्छे कपड़े खरीदते हैं, लेकिन वह उनकी तरफ नजर भी नहीं उठाता। बस, वही मोटा कुरता, गहरे रंग की धोती बाँधे मारा-मारा फिरता है। आपसे उसके बारे में कहाँ तक कहें, बस पूरा बौड़म है।” ये बातें सुन कर भी इस अजीब इंसान से मिलने की इच्छा हुई। अचानक एक आदमी ने कहा- “वह देखिये, बौड़म आ रहा है।”
मैने उत्सुकता से उसकी ओर देखा। एक 20-21 साल का तंदरुस्त लड़का था। नंगे सिर, एक गहरे रंग का कुरता पहने, गहरे रंग का ढीला पजामा पहने चला आता था! पैरों में जूते थे। पहले मेरी ही ओर आया। मैंने कहा- “आइए बैठिए।” उसने मंडली की ओर अपमान की नज़र से देखा और बोला
“अभी नहीं, फिर आऊँगा।” यह कहकर चला गया। जब शाम हो गयी और सभा खत्म हुई तो वह आम के बाग की ओर से धीरे-धीरे आकर मेरे पास बैठ गया और बोला “इन लोगों ने तो मेरी खूब बुराइयाँ की होंगी। मुझे यहाँ बौड़म का नाम मिला है।”
मैंने झिझकते हुए कहा- “हाँ, आपकी बात लोग रोज करते थे। मेरी आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी। आपका नाम क्या है?”
बौड़म ने कहा- “नाम तो मेरा मुहम्मद खलील है, पर आस-पास के दस-पाँच गाँवों में मुझे लोग दूसरे नाम से ज्यादा जानते हैं। मेरा दूसरा नाम बौड़म है।”
मैं- “आखिर लोग आपको बौड़म क्यों कहते हैं?” खलील- “उनकी खुशी और क्या कहूँ? मैं जिन्दगी को कुछ और समझता हूँ, पर मुझे इजाजत नहीं है कि पाँचों समय की नमाज पढ़ सकूं । मेरे पिता हैं, चाचा हैं। दोनों साहब दिन 1. से रात तक काम में लगे रहते हैं। रात-दिन हिसाब-किताब, नफा-नुकसान, मंदी-तेजी के सिवाय और कोई जिक्र ही नहीं होता, जैसे खुदा के बन्दे न हुए इस दौलत के बन्दे हुए। चाचा साहब हैं, वह पहर रात तक चाशनी के पीपों के पास खड़े हो कर उन्हें गाड़ी पर लदवाते हैं। पिता जी अक्सर अपने हाथों से शक्कर का वजन करते हैं। दोपहर का खाना शाम को और शाम का खाना आधी रात को खाते हैं। किसी कोनमाज पढ़ने की फुरसत नहीं। मैं कहता हूँ, आप लोग इतना माथापच्ची क्यों करते हैं। बड़े कारबार में सारा काम भरोसे पर होता है। मालिक को कुछ न कुछ बल खाना ही पड़ता है। अपने बलबूते पर छोटे कारोबार ही चल सकते हैं। मेरा उसूल किसी को पसन्द नहीं, इसलिए मैं बौड़म हूँ।”
में- “मेरे खयाल में तो आपका उसूल ठीक है।”
खलील- ‘ऐसा भूल कर भी न कहिएगा, वरना एक ही जगह दो बौड़म हो जायेंगे। लोगों को कारोबार के सिवा न दीन से फिक् है न दुनिया से। न देश से, न जाति से। मैं अखबार मँगाता हूँ, स्मर्ना फंड में कुछ रुपये भेजना चाहता हूँ। खिलाफत-फंड को मदद करना भी अपना फर्ज समझता हूँ। सबसे बड़ा परेशानी है कि खिलाफत का सदस्य भी हूँ। क्यों साहब, जब जाति पर, देश पर और दीन पर चारों तरफ से दुश्मनों का हमला हो रहा है तो क्या मेरा फर्ज है कि जाति के फायदे को जाति पर कुर्बान कर दूँ। इसीलिए घर और बाहर मुझे बौड़म का नाम दिया गया है।” नहीं
मैं-“आप तो वह कर रहे हैं जिसकी इस समय जाति को जरूरत है।” खलील- मुझे खौफ है कि इस चौपट नगरी से आप बदनाम हो कर जायेंगे। जब मेरे हजारों भाई जेल में पड़े हुए हैं, उन्हें मोटा कपड़ा तक पहनने को न मिले नगद
मन इजाजत नहीं देता कि मैं मीठे पकवान उड़ाऊँ और चिकन के कुत्ते पहने, जिनकी कलाइयों और मु्रो। कढाई की गयी हो।” मैं- “आप यह बहुत ही सही कहते हैं। अफसोस है कि दूसरे लोग आपका जैसा त्याग करने के काबिल नहीं।” खलील- में इसे त्याग नहीं समझता, न दुनिया को दिखाने के लिए यह भेष बना के घूमता हूँ। मेरा मन ही अच्छे खाने और शोक से फिर गया है। थोड़े
दिन होते हैं पिता जी ने मुझे सिवान के मिल में निगरानी के लिए भेजा, मैंने वहाँ जा कर देखा तो इंजीनियर साहब के रसोईये, waiter, मेहतर, धोबी, माली, चौकीदार, सभी मजदूरों की तरह रखे जा रहे थे। काम साहब का करते थे, मजदूरी कारखाने से पाते थे। साहब बहादुर खुद तो बेलगाम हैं, पर मजदूरों पर पर इतनी सख्ती थी कि अगर पाँच मिनट की देर हो जाए तो उनकी आधे दिन की मजदूरी कट जाती थी। मैंने साहब की खबर लेनी चाही। मजदूरों के साथ नरमी करनी शुरू की। फिर क्या था ? साहब बिगड़ गये, इस्तीफे की धमकी दी। घरवालों को उनके सब हालात मालूम हैं। पहले दर्जे का मुफ्तखोर आदमी है। लेकिन उसकी धमकी पाते ही सबके होश उड़ गये। मैं तार से वापस बुला लिया गया और घर पर मेरी खूब कहा सूनी हुई। पहले बौड़म होने मेंो इस हालत में में भी करता बल्कि मेैं तो पहले साहब पर धोखाथड़ी का मुकदमा करता, बदमाशों से पिटवाता, तब बात करता। मैं- “आपने वही किया कमी थी, यह पूरी हो गयी। न जाने साहब से लोग क्यों इतना डरते हैं?”
ऐसे मुफ्तखोरों । यही सजाएँ हैं।
खलील- “फिर तो एक और, दो हो गये। अफसोस यही है कि आप यहाँ ज्यादा समय रुकेंगे नहीं। मेरा जी चाहता है, कि चंद रोज आपके साथ रहूँ। मुद्दत
के बाद आप ऐसे आदमी मिले हैं जिससे में अपने दिल की बातें कह सकता हूँ। इन गँवारों से में बोलता भी नहीं। मेरे चाचा साहब को जवानी में एक चमारिन से रिश्ता हो गया था। उससे दो बच्चे, एक लड़का और एक लड़की पैदा हुए। चमारिन लड़की को गोद में छोड़कर मर गयी। तब से इन दोनों बच्चों यहाँ वही हालत थी जो अनाथों की होती है। कोई बात न पूछता था। उनको खाने-पहनने को भी न मिलता। बेचारे नौकरों के साथ खाते और बाहर झोपड़े में पड़े रहते थे। जनाब, मुझसे यह न देखा गया। मैंने उन्हें अपने साथ खिलाया और अब भी खिलाता हूँ। घर में कुहराम मच गया। जिसे देखिए मुझ पर गुस्सा कर रहा है, मगर मैंने परवाह न की। आखिर है वह भी तो हमारा ही खून। इसलिए मैं बौड़म कहलाता हूँ।
मैं- “जो लोग आपको बौड़म कहते हैं, वे खुद बौड़म हैं।”
खलील- “जनाब, इनके साथ रहना अजीब है। काबुल के राजा ने कुर्बानी की मनाही कर दी है। हिंदुस्तान के दिमागदारों ने भी यही फतवा दिया, पर यहाँ खास मेरे घर कुर्बानी हुई। मैंने कई बार बवाल मचाया, पर मेरी कौन सुनता है ? उसका प्रायश्चित्त मैंने ऐसे किया कि अपनी सवारी का धोड़ा बेच कर 300 फकीरों को खाना खिलाया और तब से कसाइयों को गायें लिये जाते देखता हूँ तो कीमत दे कर खरीद लेता हूँ। इस समर तक दस गायों की जान बचा चुका हूँ। वे सब यहाँ हिंदुओं के घरों में हैं, पर मजा यह है कि जिन्हें मेंने गायें दी हैं, वे भी मुझे बौड़म कहते हैं। मैं भी इस नाम का इतना आदी हो गया हूँ कि अब मुझे इससे प्यार हो गयी है।” “आप जैसे बौडम काश देश में और ज्यादा होते।”
में. खलील- लीजिए आपने भी बनाना शुरू कर दिया। यह देखिए आम का बाग है। मैं उसकी रखवाली करता हूँ। लोग कहते हैं जहाँ हजारों का नुकसान हो रहा है वहाँ तो देखभाल करता नहीं, जरा-सी बगिया की रखवाली में इतना लगा हुआ है। जनाब, यहाँ लड़कों का यह हाल है कि एक आम तो खाते हैं और पचीस आम गिराते हैं। कितने ही पेड़ चोट खा जाते हैं और फिर किसी काम के नहीं रहते। मैं चाहता हूँ कि आम पक जायें, टपकने लगें तत्व जिसका जी चाहे चुन ले जाए। कच्चे आम खराब करने से क्या फायदा ? यह भी मेरे बौड़मपन में शामिल है।”
ये बातें हो ही रही थीं कि अचानक तीन-चार आदमी एक बनिये को पकड़े, घसीटते हुए आते दिखायी दिये। पूछा तो उन चारों आदमियों में से एक ने, जो सूरत से मौलवी मालूम होते थे, कहा- यह बड़ा बेईमान है, इसके बॉट में वजन कम हैं। अभी इसके यहाँ से सैर भर ची ले गया हूँ। घर पर तौलता हूँ तो आध पाव गायब। अब जो लौटाने आया हूँ तो कहता है मैंने तो पूरा तौला था। पूछो अगर तूने पूरा तौला था तो क्या मैं रास्ते में खा गया। अब ले चलता हूँ थाने पर, वहीं इसकी मरम्मत होगी।”
दूसरे महाशय, जो वहाँ डाकखाने के मुंशी थे बोले- “इसकी हमेशा की यही आदत है, कभी पूरा नहीं तौलता। आज ही दो आने की शक्कर मँगवायी। ले कर गया तो मुश्किल से एक आने की थी। लौटाने आया तो आँखें दिखाने लगा। इसके बाँटों की आज जाँच करानी चाहिए।” लड़का घर ले तीसरा आदमी सब्जी बेचने वाला था। अपने सिर पर से खली की गठरी उतार कर बोला- “साहब, यह ॥ रु. की खली है। 6 सेर के भाव से दी थी। घर पर तौला तो 2 से र हुई। लाया कि लौटा दूँगा, पर यह लेता ही नहीं ! अब इसका निबटारा थाने ही में होगा।”
इस पर कई आदमियों ने कहा यह सचमुच बेईमान आदमी है।
इंडिया के निकले रुपये जुर्माना दूं।” ने कहा- “अगर मेरे बाट रक्ती भर होगा।” तो हजार तौलने में गड़बड़ करता
मौलवी साहब ने -19 तो कमबख्त, मुंशी जी बोले- “तौलने में गड़बड़ करता है, यही बात है।”
सब्जी वाले ने कहा- “दोहरे बाँट रखे हैं। दिखाने के और, बेचने के और। इसके घर की पुलिस तलाशी ले।” बनिये ने फिर पकड़ने वालों ने फिर हमला किया, इसी तरह कोई आध वंटा तक तकरार होती रही। मेरी समझ में न आता था कि क्या विरोध किया,
करूँ। बनिये को छुड़ाने के लिए जोर दूं या जाने दूं। बनिये से सभी नाराज हुए मालूम होते थे। खलील को देखा तो गायब ? न जाने कब उठकर चला गया? बनिया किसी तरह न दबता था, यहाँ तक कि थाने जाने से भी न डरता था। लोग थाने जाना ही चाहते थे बौड़म सामने आता दिखायी दिया। उसके एक हाथ में एक टोकरा था, दूसरे हाथ में एक कटोरा और पीछे एक 7-8
बरस का लड़का उसने आते ही मौलवी साहब से कहा- “यह कटोरा आप ही का है काजी जी ?
मौलवी- “(चौंककर) हाँ है तो, फिर 7 तुम मेरे घर से इसे क्यों लाये?
बौड़म- “इसलिए कि कटोरे में वही आधा पाव घी है जिसके बारे में आप कहते हैं कि बनिये ने कम तौला। घी वही है। वजन वही है। बेईमानी गरीब बनिये की है, बल्कि काजी हाजी मौलवी जहूर अहमद की। मौलवी- “तुम अपना बौद्धमपना यहाँ न दिखाना नहीं तो मैं किसी से डरने वाला नहीं हूँ। तुम लखपती होगे तो अपने घर के होगे। तुम्हें कैसे हिम्मत हुई मेरे घर में जाने की !”
बौड़म-“वैसे ही जैसे आपको बनाने को थाने में ले जाने की हुई। अजा यह घी भी थाने जायेगा।” मौलवी- “(घबराकर) सबके घर में थोड़ी-बहुत चीज रखी ही रहती है। कसम कुरान शरीफ भर में किसी ने मुझ पर ऐसा इल्जाम नहीं लगाया था।”
की, मैं अभी तुम्हारे पिता जी के पास जाता हूँ, आज तक गाँव बनिया- “मौलवी साहब, आप जाते कहाँ है ? चलिए हमारा-आपका फैसला थाने में होगा। मैं एक न मानँगा। कहलाने को मौलवी, दीनदार, ऐसे बनते हैं कि देवता ही हैं। पर घर में चीज रख कर दूसरों को बेईमान बनाते हैं। यह लम्बी दाढ़ी धोखा देने के लिए बढ़ायी है?” मगर मौलवी साहब न रुके। बनिये को छोड़ कर खलील के बाप के पास चले गये, जो इस समय शर्म से बचने का आसान बहाना था।
तब खलील ने सब्जी वाले से कहा- “क्यों बे, तू भी धाने जा रहा है? चल मैं भी चलता हूँ। तेरे घर से यह सेर भर खली लेता आया हूँ।” सब्जी वाले ने मौलवी साहब की बुरी हालत देखी तो चेहरे हवाइयाँ उड़ने लगी, बोला- “भैया जवानी की कसम है, मुझे मौलवी साहब ने सिखा दिया M
था।”
खलील- ‘दूसरे के सिखाने से तुम किसी घर में आग लगा दोगे? खुद तो बेटा दूध में आधा पानी मिला-मिला कर बेचते हो, मगर आज तुमको इतनी हेकड़ी सवार हो गयी कि एक भले आदमी को तबाह करने पर तूल गये। खली उठा कर घर में रख ली, उस पर बनिये से कहते हो कि कम तौला।” बनिया- भैया, मेरी लाख रुपये की इज्जत बिगड़ गयी। मैं थाने में रपट किये बिना न मानँगा।”
सब्जी वाला- “साहू जी, अबकी माफ करो, नहीं तो कहीं का न रहूँगा।” तब खलीलने मुंशी जी से कहा- – “कहिए जनाब, आपकी सच्चाई बताऊँ या चुपके से घर की राह लीजिएगा।”
मुंशी- “तुम बेचारे मेरी सच्चाई क्या बताओगे। मुझे भी सब्जी वाला समझ लिया है कि तुम्हारी धमकी में आऊँगा?
खलील- (लड़के से) क्यों बेटा, तुम शक्कर ले कर सीधे घर चले गये थे? लड़का- “(मुंशी जी को शक भरी नजरों से देख कर बताऊँगा।
मुंशी- “लड़कों को जैसा सिखा दोगे वैसा कहेंगे।
खलील- बेटा, अभी तुमने मुझसे जो कहा था, वही फिर कह दो।”
लड़का- “दादा मारेंगे।”
मुंशी- “क्या तूने रास्ते में शक्कर फाँक ली थी।” लड़का रोने लगा।
खलील- जी हाँ, इसने मुझसे खुद कहा, पर आपने उससे तो पूछा नहीं बनिये के सिर हो गये। यही शराफत है।” मुंशी- “मुझे क्या मालूम था कि उसने रास्ते में यह शरारत की?
खलील- तो ऐसे कमजोर सबूत पर आप थाने कैसे चले थे ? आप गैवारों को मनीआर्डर के रूपये देते हैं तो उस रूपये पर दो आने अपना हिस्सा काट लेते हैं। टके के पोस्टकार्ड आने में बेचते हैं, जब कहिए तब साबित कर दें। उसे क्या आप बेईमानी नहीं समझते हैं?”
मुंशी जी ने बौड़म के मुँह लगना ठीक न समझा। लड़के को मारते हुए घर ले गये। बनिये ने बौड़म को खूब आशीर्वाद दिया। दर्शक लोग भी धीरे-धीरे चले गये। तब मैंने खलील से कहा- “आपने इस बनिये की जान बचा ली नहीं तो बेचारा बेगुनाह पुलिस के पंजे में फँस जाता।” खलील- आप जानते हैं कि मुझे क्या सिला (इनाम मिलेगा। थानेदार मेरे दुश्मन हो जायेंगे। कहेंगे यह मेरे शिकारों को भगा दिया करता है। पिता जी पुलिस से थर-थर काँपते हैं। मुझ पर बरसेंगे कि तू दूसरों के बीच में क्यों दखल देता है ? यहाँ यह भी बौडमपन में दाखिल है। एक बनिये के पीछे मेरा भले आदमियों की सच्चाई बताना ठीक न था। ऐसी हरकत बौड़म लोग किया करते हैं। मैंने श्रद्धा भरे शब्दों में कहा- “अब मैं आपको इसी नाम से पुकाँगा। आज मुझे मालूम हुआ कि बौड़म भगवान को कहा जाता है! जो स्वार्थ पर आत्मा देता है वह चतुर है, बुद्धिमान है। जो आत्मा के सामने, सच्चे सिद्धांत के सामने, सच्चाई के सामने, स्वार्थ की, बेइज्जती की परवाह नहीं करता वह बौड़म है, बेअक्ल है। सीख- इस कहानी में एक छोटी सी घटना के जरिए यह समझाने की कोशिश की गई है कि एक ऐसे समाज में, जहाँ धोखाधड़ी, जालसाजी और लालच घर कर गया है, वहाँ सच्चाई, ईमानदारी और परोपकार पागलपन समझा जाता है, और उसे मानने वाले पागल।