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इंसान के आर्थिक हालात का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का हिम्मत नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब से दोस्ती कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो गुस्सा करता है। इसी तरह हरखचन्द्र करमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था।
लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे बर्बाद कर दिया। धीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, खरीददार टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर साल का बूढ़ा, जो तकियेदार बिस्तर पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। लेकिन उसके चहरे पर अब भी एक तरह की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक तरह की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक तरह का स्वाभिमान भरा हुआ है। उस पर समय की गति का असर नहीं पड़ा। रस्सी जल गई, पर बल नहीं टूटा। अच्छे दिन इंसान के चाल-चलन पर हमेशा के लिए अपना निशान छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब सिर्फ पाँच बीघा जमीन है और दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।
लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सलाह अब भी सम्मान की नजरों से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, दो टूक कहता है और गाँव के अनपढ़ उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।
हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी थी। वह बीमार जरूर पड़ता, कुआँर मास में मलेरिया से कभी न बचता लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाए ही ठीक हो जाता था। इस साल कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवाह न की। लेकिन अब का बुखार मौत का परवाना लेकर चला था। एक हफ्ता बीता, दूसरा हफ्ता बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू बिस्तर से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत महसूस हुई । उसका लड़का गिरधारी कभी नीम का काढ़ा पिलाता, कभी गिलोय का रस, कभी गदापूरना की जड़। पर इन दवाइयों से कोई फायदा न होता। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए। एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए। बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- “बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; मलेरिया की दवाई क्यों नहीं खाते ?” हरखू ने उदासीन भाव से कहा- “तो लेते आना।” दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- “बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी का शरीर थोड़े है कि बिना दवा खाए के अच्छे हो जाओगे”।
हरखू ने धीरे से कहा- “तो लेते आना।” लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची सहानुभूति से। न मंगलसिंह ने खबर ली, न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ने। हरखू बरामदे में खाट पर पड़ा रहता। मंगल सिंह कभी नजर आ जाते तो कहता- “भैया, वह दवा नहीं लाए ?”
मंगलसिंह बचकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते, तो उनसे भी यही सवाल करता। लेकिन वह भी नजर बचा जाते। या तो उसे झता ही नहीं था कि दवा पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से कीमती समझता था, या जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी हालत दिनों दिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने तकलीफ सहने के बाद वह ठीक होली के दिन मर गया। गिरधारी ने उसकी लाश बड़ी धूमधाम के साथ निकाला ! क्रिया कर्म बड़े हौसले से किया। गाँव के कई ब्राह्मणों को बुलाया।
बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न बाजा बजे, न भांग की धारा बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मर जाता. लेकिन इतना बेशर्म कोई न था कि दुःख में खुशियाँ मनाता।
वह शरीर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शामिल नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानोंतक नहीं पहुँचती।
इंसान के आर्थिक हालात का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता है। मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटेबल हो गए हैं, इनका नाम मंगलसिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने का हिम्मत नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से हलके के थानेदार साहब दोस्ती कर ली है और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है। अब उसे कल्लू कहें तो गुस्सा करता है। इसी तरह हरखचन्द्र कुरमी अब हरखू हो गया है। आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी, कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था। लेकिन विदेशी शक्कर की आमदनी ने उसे बर्बाद कर दिया घीर-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई खरीददार टूट गए और वह भी टूट गया। सत्तर
साल का बूढ़ा, , जो तकिये पर बिस्तर पर बैठा हुआ नारियल पिया करता, अब सिर पर टोकरी लिये खाद फेंकने जाता है। लेकिन उसके चहरे पर अब भी एक तरह की गंभीरता, बातचीत असर नहीं नहीं पड़ा। रस्सी जल गई में अब भी एक तरह की अकड़, चाल-ढाल से अब भी एक तरह का स्वाभिमान भरा हुआ है। उस पर समय की गति का , पर बल नहीं टूटा। अच्छे दिन इंसान के चाल-चलन पर हमेशा के लिए अपना निशान छोड़ जाते हैं। हरखू के पास अब सिर्फ पाँच बीघा जमीन है और दो बैल हैं। एक ही हल की खेती होती है।
लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह अनपढ़ उनके सामने मुँह नहीं खोल सकते।
में, उसकी सलाह अब भी सम्मान की नजरों से देखी जाती है। वह जो बात कहता है, दो टूक कहता है और गाँव के हरखू ने अपने में कभी दवा नहीं खायी थी। वह बीमार जरूर पड़ता, कुआँर मास में मलेरिया से कभी न बचता लेकिन दूस-पाँच दिन में वह बिना
दवा खाए ही ठीक हो जाता था। इस साल कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझकर कि अच्छा तो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवाह न की। लेकिन अब
का बुखार मौत का परवाना लेकर चला था। एक हफ्ता बीता, दूसरा हफ्ता बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू बिस्तर से न उठा। अब उसे दवा की जरूरत महसूस हुई। उसका लड़का गिरधारी कभी नीम का काढ़ा पिलाता, कभी गिलोय का रस, कभी गदापूरना की जड़। पर इन दवाइयों से कोई फायदा न होता। हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गए। एक दिन मंगलसिंह उसे देखने गए। बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम नाम जप रहा था। मंगलसिंह ने कहा- बाबा, बिना दवा खाए अच्छे न होंगे; मलेरिया की दवाई क्यों नहीं खाते ?” हरखू ने उदासीन भाव से कहा- “तो लेते आना।
दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा- “बाबा, दो-चार दिन कोई दवा खा लो। अब तुम्हारी जवानी का शरीर थोड़े है कि बिना दवा खाए के अच्छे हो
जाओगे” हरखू ने धीरे से कहा- “तो लेते आना।” लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर देना दूसरी बात है। पहली बात शिष्टाचार से होती है, दूसरी सच्ची सहानुभूति से। न मंगलसिंह ने खबर ली, न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ने। हरखू बरामदे में खाट पर पड़ा रहता। मंगल सिंह कभी नजर आ जाते कहता- “भैया, वह दवा नहीं लाए ?”
मंगलसिंह बचकर निकल जाते। कालिकादीन दिखाई देते, तो उनसे भी यहीं सताल करता। लेकिन वह भी नजर बचा जाते। या तो उसे सूझता ही नहीं
था कि
पैसों के बिना नहीं आती, या वह पैसों को भी जान से कीमती समझता था, या जीवन से निराश हो गया था। उसने कभी दवा के दाम की
बात नहीं की। दवा न आयी। उसकी हालत दिनों दिन बिगड़ती गई। यहाँ तक कि पाँच महीने तकलीफ सहने के बाद वह ठीक होली के दिन मर गया।
गिरधारी ने उसकी लाश बड़ी धूमधाम के साथ निकाला ! क्रिया कर्म बड़े हौसले से किया। गाँव के कई ब्राह्मणों को बुलाया। बेला में होली न मनायी गई, न अबीर न गुलाल उड़ी, न बाजा बजे, न भांग की धारा बहीं। कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढ़े को आज ही मरना था; दो-चार दिन बाद मर जाता. लेकिन इतना बेशर्म कोई न था कि दुःख में खुशियाँ मनाता। वह शरीर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शामिल नहीं होता, जहाँ पड़ोसी को रोने-पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती।
हरखू के खेत गाँव वालों की नजर पर चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा जमीन कुएँ के पास, खाद से लदी हुई मेंड-बाँध से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं। हरखू के मरते ही उन पर चारों र से हमले होने लगे। गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फंसा हुआ था। उधर गाँव के मनचले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी कीमतें दी जा रही थीं। कोई साल-भर का लगान देने को तैयार था, कोई नजराने की दूगनी कीमत के कागजात लिखने के लिए तैयार था। लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते। उनका सोचना था कि गिरधारी के बाप ने खेतों को बीस साल तक जोता है, इसलिए गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है। वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे, तो खेत उसी को देना चाहिए। इसलिए, जब गिरधारी का क्रिया-कर्म पूरा हो ें क्या कहते हो
गिरधारी ने र क जर उससे पूछा- “खेली के बारे में कथा ने र कहा- “सरकार, इन्हीं खेतों का ही तो आसरा है, जोतूँगा नहीं तो वया करूगा।” हैं में
ओंकारनाध- “नहीं, जरूर जोतो खेत तुम्हारे हैं। में तुमसे छोड़ने को नहीं कहता। हरखू ने उसे बीस साल तक जोता। उन पर तुम्हारा हक है। लेकिन तुम देखते हो, अब जमीन की कीमत कितनी बढ़ गई है। तुम आठ रुपये बीधे घर जोतते थे, मुझे दस रुपये मिल रहे हैं और नजराने के सौ अलग। तुम्हारे साथ छूट दे कर लगान वही रखता हूँ, पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे।”
गिरधारी “सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा? जो कुछ जमा पूँजी थी, दादा के काम में उठ गई। अनाज खलिहान में है। लेकिन दादा के बीमार हो जाने से फसल भी अच्छी नहीं हुई। रुपये कहाँ से लाऊँ ?”
ओंकरानाथ- “यह सच है, लेकिन मैं इससे ज्यादा छूट नहीं दे सकता।” गिरधारी- नहीं सरकार ऐसा न कहिए। नहीं तो
हम बिना मारे मर जाएँगे। आप बड़े होकर कहते हैं, तो मैं बैल-बछिया बेचकर पचास रुपया ला सकता
। इससे हूँ। ज्यादा की हिम्मत मेरी नहीं है
ओंकारनाथ चिढ़कर बोले- “तुम समझते होगे कि हम ये रूपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंशी बजाते हैं। लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुजरती है, हम ही जानते कहीं यह चंदा, कहीं वह चंदा; कहीं यह नजर, कहीं वह नजर, कहीं यह इनाम, कहीं वह इनाम। इनके मारे कचूमर निकल जाता है। बड़े दिन में सैकड़ों रुपये तोहफों में उड़ जाते हैं। जिसे तौहफे न दो, वही मुँह फुलाता है। जिन चीजों के लिए लड़के तरसकर रह जाते हैं, उन्हें तर से मांग कर डालियाँ सजाता उस पर कभी कानूनी लोग आ गए, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का फोज आ गया। मेरे मेहमान होते हैं। अगर न करू तो घमंडी बनूँ और सबकी आँखों में काँटा बन जाऊँ। साल में हजार बारह सौ बनिये को इसी राशन के हिसाब देने पड़ते हैं। ह सब कहाँ से आएँ? बस, यहीं जी चाहता है कि सब छोड़कर चला जाऊँ। लेकिन हमें भगवान ने इसलिए बनाया है कि एक को सताकर रूपए लें और दूसरे को रो-रोकर दें, यही हमारा काम है। तुम्हारे साथ इतनी मेहरबानी कर रहा हूँ। मगर तुम इतनी छूट देने पर भी खुश नहीं होते तो भगवान की इच्छा। नज़राने में एक पैसे की भी कमी न होगी। अगर एक हफ्ते के अंदर रुपए दोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं तो नहीं। में कोई दूसरा
इंतजाम कर दूंगा।”
गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 700 रुपये का बंदोबस्त करना उसके बस के बाहर था। सोचने लगा, अगर दोनों बैल बेच दूं तो खेत ही लेकर क्या करेगा? घर बेचूँ तो यहाँ लेने वाला ही कौन है ? और फिर बाप दादों का नाम डूबता है चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपये या 30 रुपये से ज्यादा न मिलेंगे। उधार लूँ तो देता कौन है ? अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़ हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं है, नहीं तो उन्हीं को बेचता। ले देकर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। साल-भर हो गया, छुड़ा नहीं पाया। गिरधारी और उसकी बीवी सुभागी दोनों ही इसी चिंता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती। खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके दिल में हुक-सी उठने लगती।” हाय ! वह जमीन जिसे हमने सालों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें में रखी, जिसकी मेड़ें बनायो, उठाएगा”
वे खेत गिरधारी के जीवन उनके नाम उसकी जुबान की मेड बनाया, उसका मजा अब दूसरा का हिस्सा हो गए थे। उसकी भूमि उसके खून में रँगी हुई थी। उनके एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो रहा था। र उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसो था, कोई बाईसो था, कोई नालबेला, कोई तलैयावाला। इन नामों याद आते ही स्खेतों की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ जाती। वह इन खेतों की बात इस तरह करता, मानो तो जिंदा हैं। मानो उसके भले-बुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मिठाइयाँ, सारे हवाई किले, इन्हीं खेतों पर जुड़े थे। इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था और वे ही सब हाथ से निकले जा रहे थे वह घबराकर घर से निकल जाता और घंटों खेतों ह थे। की मेडों पर बैठा हुआ रोता, मानो उनसे विदा हो रहा है। इस तरह एक हफ्ता बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बंदोंबस्त न कर सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रुपये नजराने देकर 10 रुपये बीधे पर खेत ले लिये। गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली। एक पल के बाद वह अपने दादा का नाम लेकर बिलख-बिलखकर रोने लगा। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा लगा, मानो हरखू आज ही मरा है।
लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठने वाली औरत न थी। वह गुस्से से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी। और उसकी बीवी को खूब डाटा- “कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं। देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है ? अपना और उसका खून एक कर दूंगी।” पड़ोसिन ने उसका साथ दिया, “तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे ?” सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका मन शांत हो गया। लेकिन वही हो पानी में लहरे पैदा करती हैं, पेड़ को जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की हवा, जो बीवी से छेड़-छेड़ लड़ती।
इधर गिरधारी अपने दरवाजे पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा? अब यह जीवन कैसे कटेगा? ये लड़के किसके दरवाजे पर जाएँगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका दिल बेचैन हो जाता। इतने दिनों तक आजादी और इज्जत को सुख भोगने के बाद छोटी नौकरी करने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अब तक घर परिवार वाला था, उसकी गिनती गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का हक था।
उसके घर में पैसा न था, पर इज्जत थी। नाई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार ये सब उसका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ? अब कौन उसकी बात पूछना ? कौन उसके दरवाजे आएगा? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब व उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब सुबह होने से पहले, कौन बैलों को नॉँद में लगाएगा। वह दिन अब कहाँ, जब गीत गाकर हल चलाता था। सर का पसीना पैर तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज खलिहान कहाँ ढेर सामने रखे हुए अपने को राजा समझता था। अब अनाज को टोकरे में भर-भरकर कौन लाएगा? अब खेती कहाँ ? यही सोचते-सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती। गाँव के दो-चार भले आदमी, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को का तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुलकर न बोलता। उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नजरों में गिर गया हूँ। अगर कोई समझाता कि तुमने क्रिया-कर्म में बेकार इतने रूपये उड़ा दिये, तो उसे बहुत दुःख होता। यह अपने उस काम पर जरा भी न पछताता। मेरी किस्मत में जो क। लिखा है वह होगा, पर दादा के उधार को तो उतारना ही था; उन्होंने अपनी जिंदगी में चार को खिलाकर खाया। क्या मरने के बाद उनकी आत्मा को तरसाता?
महीने बीत गए और आषाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटाएँ आयीं, पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे। बढ़ई हलों की मरम्मत इस तरह तीन करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के अंदर जाता, कभी बाहर जाता, अपने हलों को निकाल कर देखता, इसकी मुठिया टूट गई है, इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैल है। देखते-देखते वह एक पल अपने को भूल गया। दौड़ा हुई बढ़ई के यहाँ गया और बोला- “रज्जू, मेरे हल भी बिगड़े हुए है, चलो बना दो।” रज्जू ने उसकी ओर करुण-भाव से देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारी को होश आ गया, नींद से चौक पड़ा,
ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आंखें भर आयीं। चुपचाप घर चला आया। व में चारों ओर हलचल मची हुई थी। कोई जूट के बीज खोजता फिरता था, कोई जमीदार के चौपाल से धान के बीज लिये आता था, कहीं सलाह होती, किस खेत में क्या बोना चाहिए। गिरधारी ये बातें सुनता और जल बिन मछली की तरह तड़पता था। एक दिन शाम के समय गिरधारी खड़ा अपने बैलों को सहला रहा था कि मंगलसिंह आये और इधर-उधर की बातें करके बोले- “गाय को बाँधकर कब
तक खिलाओगे ? निकाल क्यों नहीं देते?”
गिरधारी ने कहा- “हाँ, कोई खरीदने वाला आये तो निकाल दें।” मंगलसिंह- एक खरीदार तो हमीं हैं, हमीं को दे दो।”
गिरधारी अभी कुछ जवाब न देने पाया था कि तुलसी बनिया आया और गरजकर बोला- “गिरधारी तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं, वैसा कहो। तीन महीने से हील-हवाला करते चले आते हो। अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल आसरे बैठे रहें ?
गिरधारी ने दीनता से कहा- “महाजन, जैसे इतने दिनों माने हो, आज और मान जाओ। कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दँगा।” मंगल और तुलसी ने इशारों में बातें की और तुलसी भनभूनाता हुआ चला गया। तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला- “तुम इन्हें ले लो, तो घर- के घर ही में रह जाऊँ। कभी-कभी आँख से देख तो लिया करूँगा।”
साये अधी हो को नहीं, लेकिन मंगल सिंह- मुझ अना स गिरधारी- ऐसा काम घर पर सलाह करूँगा। “मुझे तुलसी के रूपये नहीं तो खिलाने के देने है, को तो भूसा है।
मंगलसिंह- यह बड़ा बदमाश है, कहीं मुकदमा न कर दे।”
सरल दिल गिरधारी डर में आ गया। चालाक मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का अच्छा मौका मिला। 80 रुपये की जोड़ी 60 रुपये में कर ली। गिरधारी ने अब तक बैलों को न जाने किस आशा से बाँधकर खिलाया था। आज आशा का वह धागा भी टूट गया। मंगलसिंह गिरधारी के खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास उदास नज़रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। “आह ! ये मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा बचाने वाले, जिनके लिए सुबह होने से पहले भूसा काटता धा, जिनके खली-दाने की चिन्ता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा दिन-भर घास उखाडा करता था, ये मेरी आशा की दो आँखें, मेरे किस्मत के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों की दो निशानियाँ, मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं।
जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया। जैसे बेटी मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी आंगन में पड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था! रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया। चारपाई पर पड़ा रहा। सुबह सुभागी चिलम भरकर ले गयी, तो वह चारपाई पर न था। उसने समझा, कहीं गये होंगे। लेकिन जब दो-तीन बज गए और वह न लौटा, तो उसने रोना-धोना शुरू किया। गाँव के लोग जमा हो गए, चारों ओर खोज होने लगी, पर गिरधारी का पता न चला।
शाम हो गई। अँधेरा छा रहा था। सुभागी ने दिया रख दिया और बैठी दरवाजे की ओर देख रही थी कि अचानक उसे पेरों की आहट सुनाई दी। सुभागी का दिल धड़क उठा। वह दौड़कर बाहर आयी और इधर-उधर ताकने लगी। उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नींद के पास सिर झुकाएँ खड़ा है। सुभागी बोल उठी- “घर आओ, वहाँ खड़े क्या कर रहे हो, आज सारे दिन कहाँ रहे ? यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली। गिरधारी ने कुछ जवाब न दिया। वह पीछे हटने लगा और धोड़ी दूर जाकर गायब हो गया। सुभागी चिल्लायी और बेहोश होकर गिर पड़ी।
दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने खेत पर पहुँचे, अभी कुछ अँधेरा था। वह बैलों को हल में लगा रहे थे कि अचानक उन्होंने खेत की मेड़ पर खड़ा है। वही कुर्ता, वही पगड़ी, वही डंडी।
देखा कि गिरधारी कालिकादीन ने कहा- “अरे गिरधारी ! तुम यहाँ खड़े हो, और बेचारी सुभागी परेशान हो रही है। कहाँ से आ रहे हो ?” यह कहते हुए बैलों को छोड़कर गिरधारी की ओर रधारी पीछे लगा पीछे वाले कुएँ में कूँद पड़ा। कालिकादीन ने चीख मारी और हल-बैल वहीं छोड़कर भागा। सारे गाँव में शोर मच गया, लोग तरह -तरह की बात सोचने लगे कालिकादीन को गिरधारी वाले खेतों में जाने की हिम्मत पड़ी।
गिरधारी को गायब हुए छ: महीने बीत चुके हैं। उसका बड़ा लड़का अब एक ईट के भट्टे पर काम करता है और 20 रुपये महीना घर आता है। अब वह कमीज और अंग्रेज़ी जूता पहनता है, घर में दोनों समय सब्जी पकती है और जो के बदले गेहूँ खाया जाता है, लेकिन गाँव में उसकी कोई भी इज्जत नहीं। अब वह मजदूर है। सुभागी अब दूसरे गाँव में आये कुत्ते की तरह छुपी हुई फिरती है। वह अब पंचायत में भी नहीं बैठती, वह अब मजदूर की माँ कालिकादीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफा दे दिया क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ भटकता रहता है। अँधेरा होते ही वह मेंड़ पर आकर बैठ जाता है और कभी-कभी रात को उधर उसके रोने की आवाज सुनाई देती है। वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं। उसे सिर्फ अपने खेतों को देखकर संतोष होता है। दीया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है। लाला ओंकारनाथ बहुत चाहते हैं कि ये खेत उठ जाएँ, लेकिन गाँद के लोग उन खेतों का नाम लेते डरते हैं।
सीख – बलिदान कहानी का सार हमें हमारे समाज की वह सच्चाई बताता है, जो पुराने भारत में बहुत ज्यादा फैली हुई थी। लेकिन शायद अभी भी कुछ हद तक हमारे समाज का हिस्सा बनी हुई है और वह है, इंसान की इज्जत उसके स्वभाव या उसकी अच्छाई के कारण नहीं, बल्कि उसकी दौलत और काम से होती है।
कोई इंसान चाहे कुछ भी करे, अच्छे पद या अच्छे काम में होने के कारण लोग उसे इज्जत ही देते हैं। काम अगर छोटा समझा जाए, तो भले ही इंसान कैसा भी हो, कितना भी कमाता हो, लेकिन उसे इज्जत नहीं दी जाती।